डॉ. राम कुमार झा निकुंज

 रेत सी फ़िसलती जिंदगी


 


रेत सी फ़िसलती जिंदगी ,


पल दो पल की अनिश्चित,


जलभ्रमर में फँसी दुर्लभ ,


प्राणियों में श्रेष्ठतर मानवी,


अहंकारी मदोन्मत्त जिंदगी।


प्रकृति या यों कहें कुदरती ,


तोहफ़ा अनमोल धरोहर सम्पदा,


खुली सारी प्रकृति वसुन्धरा,


अन्तस्थल , भूतल ,जल, गगन,


शस्य श्यामला हरीतिमा ,


सर्वसौविध्य से भरपूर अनन्त,


खनिज सम्पदा ,नाना वन सम्पद,


सागर ,नदी , झील ,निर्झर, सरोवर,


सुरभित कुसुमित फलदार विविध तरु,


वनौषधियों से सुसज्जित हिमाद्रि आंचल,


रवि,शशि,वायु अनल नभ ,


षड्ऋतु विभक्त प्राणी सुलभ 


पर्यावरण जीवन्त निर्मल सुगम,


सब कुछ जो चाहत हो आम जीवन।


परन्तु अनवरत लिप्सा मानव मन ,


फँस मायाजाल लोभ ,छल कपट,


मिथ्या,हिंसा ,क्रोध, शोक संतप्त,


जीजिविषा अनन्त अहर्निश सुरसा सम,


कर क्षत विक्षत सुष्मित प्रकृति अन्तस्तल,


दीन दुःखी ,अवसादित दलित पीड़ित,


सड़कछाप लावारिस मजदूरों पर ,


ढाता कहर बन क्रूरकर्मा निशाचर,


दुर्दान्त ,दुष्कर्म अनवरत चलता पथ,


मानवीय नैतिक मूल्यों को कर तिरोहन,


त्याग न्याय ,शील कर्म विरत,


बस, केवल जिस किसी तरह भी,


आतुर भौतिकता के चकाचौंध फँस


बढ़ता निरत सफ़लता का आरोहण, 


एक तरफ़ दाने दाने को मोहताज़ ,


बिन गेह वसन कुछ पाने को 


अभिलाष मन, विकल दुःखार्त जन,


नित अवहेलित २१वीं सदी आज़ाद वतन,


शिक्षा ,सुख,इज्ज़त खुशियाँ नदारद,


मानो बन गई जिंदगी बंजर रेतीली,


मरुभूमि शुष्क निष्ठुर ज्वालामुखी सम,


सोपान सत्ता का चिरन्तन ,निर्माणक


नेता ,जेता विजेता प्रशासक वतन,


किन्तु अनवरत जीता पशुवत जीवन,


जन मन गणतन्त्र सब सुलभ ,


पर असफल तीन चौथाई आबादी,


कराहती ,सिसकती भूख, न्यायार्थ,


कोख से चिपका कर अपनी सन्तति,


असहाय दर्द को छिपा मौन चक्षु खोदर,


आज भी जूठे पत्तल चाटने को विवश,


संघर्षरत यायावर अबाध अनिश्चित पथी,


निर्माणक उत्पादक स्वयं दुनिया के,


सकल सुख सुविधा कृषि उद्योग तक,


रेल सड़क ,सेतु आलिशां महल,


पर खुद़ के लिए अम्बर छत 


आतप वारिस थिथुरन नित,


कैसी जिंदगी ,कैसी आजादी ,


बनकर खड़ी एक शाश्वत प्रश्न चिह्न,


जानता है मनुज सब कुछ यहीं,


छोड़ चल देगा किसी भी पल जहां ,


साथ न देगा प्रियतर तन सर्वाधिक मनुज,


जाएगा केवल अनकहे कमाये 


सुकीर्ति परहित अनमोल फल, 


पर स्वार्थी मनुज खो मति विवेक,


बिन रुके जीवन भर भागमभाग,


मरुस्थली रेत बन जलाता निरन्तर,


मानवता ,इन्सानियत खु़द की ज़मीर,


भूल सकल कर्तव्य समाज ए वतन,


बस दम्भी बन अर्थहीन करता ,


खूबसूरत लम्हें जिंदगी के अविरल,


दुर्लभ भाग्य से पाये पल दो पल,


बनाते हुए ज़हन्नुम ए कयामत,


पर जिंदगी फ़िसलती जाती 


बन रेत सी सब कुछ दहकती नीरस।


 


कवि✍️ डॉ. राम कुमार झा "निकुंज"


         नई दिल्ली


डॉ0 हरिनाथ मिश्र

द्वितीय चरण(श्रीरामचरितबखान)-34


 


देखन चले सभें गिरि-सोभा।


पाछे छाँड़ि बिषादइ छोभा।।


    कामद गिरि, मंदाकिनि-तीरा।


    बन-धन प्रचुर,बायु अरु नीरा।।


बनबासिन मिलि हर्षित भवहीं।


जनु सभ रंक प्रचुर धन पवहीं।।


    कोल-किरातइ, भील-निषादू।


    रामहिं पा भे बिगत बिषादू।।


कंद-मूल-फल बिबिध प्रकारा।


तिन्हकर इहवयि रहा अहारा।।


    जब तें राम इनहिं सँग रहहीं।


    ते सभ रामराज-सुख लहहीं।।


कहुँ कूजति कोइल मृदु बैना।


पिव-पिव कहूँ पपीहा रैना।।


    नाचै बन मा मगन मयूरा।


    जंगल मंगल होंवहिं पूरा।।


सूकर-ससक, हिरन-मृग छौना।


उछरैं अस जस पाइ खिलौना।।


    हिंसक जीव अहिंसक सँगहीं।


    रामराज साथहिं सुख लहहीं।।


सिंह-गर्जना,गज-चिघ्घाड़ा।


तड़ित-तड़क जनु बजै नगाड़ा।।


    झर-झर झरै झरन गिरि-तीरा।


    सन-सन बहै सुगंध समीरा।।


बन महँ जहँ पुरबासी गयऊ।


बनबासी तिन्ह सेवा करऊ।।


    कंद-मूल-फल भरि-भरि दोना।


   तिनहिं खियावहिं दइ जनु सोना।।


हर्षित हिय सभ बन मा रहहीं।


निरखहिं जीव-जंतु बन चरहीं।।


दोहा-रामसरन मा आइके,प्रमुदित कोल-किरात।


         निसि-दिन पावहिं राम-सुख,सम्यक रोग-निजात।।


                         डॉ0 हरिनाथ मिश्र


                          


डॉ0 हरिनाथ मिश्र

दूसरा अध्याय(श्रीकृष्णचरितबखान)-4


 


भगिनी अहहि देवकी मोरी।


बध-अपकीरति बहु नहिं थोरी।।


     जे जग करै स्वजन अपमाना।


     भगिनी-बध ऊ जस नहिं पाना।।


करम क्रूरता कै जे करई।


संपति-उमिरि तासु बड़ घटई।।


    निंदहिं बाद मृत्यु सभ लोंगा।


     रौ-रौ नरक पाइ ऊ भोगा।।


अस सुबिचार कंस मन आवा।


जब प्रभु अंस गरभ लखि पावा।।


    चलत-फिरत अरु सोवत-जागत।


   बइठत-उठत व पीवत-खावत।।


जनम प्रतिच्छारत रह कंसा।


अइहैं जबहिं किसुन जदुबंसा।।


     इत-उत लखै लखै चहुँ ओरा।


     जहँ देखै तहँ किसुनहिं छोरा।।


सकल बिस्व महँ किसुन-कन्हाई।


जल-थल-नभ मा किसुनहिं पाई।।


    सुनहु परिच्छित कह सुकदेवा।


     आए ब्रह्मा देवन्ह लेवा ।।


बंदीगृह मा नारद लइ के।


सकल अनुचरहिं साथे धयि के।।


    स्तुति करन लगे सभ साथहिं।


    मधुर बचन नवाय निज माथहिं।।


सत संकल्प नाथ तुम्ह आहीं।


सत्यहिं साधन तुमहीं पाहीं।।


   सृष्टिहिं पूर्ब प्रलय के पाछे।


    स्थित जगत असत नहिं आछे।।


तुम्ह प्रभु सत्य मात्र जग एका।


जदपि जगत कै रूप अनेका।।


     जल-थल-तेजहि-बायु-अकासा।


     अहहिं पाँच सच जग कै आसा।।


इन्हकर कारन तुमहीं नाथा।


तुमहिं सतत रह इनके साथा।।


    नाथ तुमहिं परमारथ रूपा।


    दृस्यमान जग सकल अनूपा।।


दोहा-तुम्ह समदरसी नाथ हौ,परमारथ कै रूप।


        दाता-दानी तुमहिं प्रभु,सक्ती परम अनूप।।


               


डॉ0हरि नाथ मिश्र


               


नूतन लाल साहू

समय


समय के पंख नही होते,पर


समय उड़ता है,बिन पंख के


चक्र घूमता है,नियत का


फिर भी समय,उड़ान भरता है


आशा और विश्वास का


सम्बल रखे,संग संग


है विचित्र,इसका गणित


हर क्षण मिलेगा,नई उमंग


समय के पंख नही होते,पर


समय उड़ता है,बिन पंख के


चक्र घूमता है,नियत का


फिर भी समय,उड़ान भरता है


हास्य योग है, साधना


सारे रोग का है,निदान


चलो समय के साथ सब


संदेश यही सुनाता है


समय के पंख नही होते,पर


समय उड़ता है, बिन पंख के


चक्र घूमता है,नियत का


फिर भी,समय उड़ान भरता है


समय आगे को बढ़ता है


समय कब पीछे,मुड़ता है


जो चला समय के साथ


वो हो गया,जग में महान


समय के पंख नही होते,पर


समय उड़ता है,बिन पंख के


चक्र घूमता है,नियत का


फिर भी समय,उड़ान भरता है


भाषण देना और हल्ला मचाना


कोई महानता नहीं है


समय है कला और समय है विज्ञान


जो पल पल रहता है,गतिवान


समय के पंख नही होते,पर


समय उड़ता है,बिन पंख के


चक्र घूमता है,नियत का


फिर भी समय,उड़ान भरता है


नूतन लाल साहू


सत्यप्रकाश पाण्डेय

हृदय में तुम्हें बसाऊं..


 


हे राधा के प्रियतम


हे मोहन कुंजबिहारी


व्यथित हूँ मैं स्वामी


दुःख हरो रासबिहारी


 


जग व्याधों से ग्रस्त


मैं भूला भक्ति पथ को


तेरे नाम की महिमा


शक्ति और समरथ को


 


दाता भाग्यविधाता


है सर्वस्य समर्पण मेरा


राधाबल्लभ कृष्णा


सदा करूँ स्मरण तेरा


 


आनन्द कंद मुरारी


आशीष तुम्हारा पाऊं


कैसे भी दुर्गम क्षण


हृदय में तुम्हें बसाऊं।


 


युगलरूपाय नमो नमः


 


सत्यप्रकाश पाण्डेय


कालिका प्रसाद सेमवाल

राम दूत तुम सबके रक्षक हो


तुम ही तो बल के धाम हो


हम सब तुमको वंदन करते है


तुम्हारे चरणों में एक फूल चढ़ाते है।


 


तुम ही प्रेम के सच्चे स्वरूप हो


तुम्ही दया के सागर हो


तुम कष्ट हरण नाशक हो


तुम्हारे चरणों में एक फूल चढ़ाते है।


 


तुम ही सबके रक्षक हो


जो भी तुम्हारा नाम जपे


उसकी हर विपदा टली


तुम्हारे चरणों में एक फूल चढ़ाते है।


 


प्रभु श्रीराम के तुम अति प्रिय हो


केसरी नंदन सबको सुमति का दान दो


विद्या विनय का दान दो


तुम्हारे चरणों में एक फूल चढ़ाते है।


 


कालिका प्रसाद सेमवाल


रूद्रप्रयाग उत्तराखंड


राजेंद्र रायपुरी

कोरोना से हे प्रभो, 


                       सारे हैं लाचार। 


पहले सी तो है नहीं, 


                     धूमधाम इस बार।


 


डरे हुए हैं हम सभी,


                     कर मत दे ये वार।


मचा दिया है देश में,


                      इसने हाहाकार। 


 


यही निवेदन आपसे, 


                   हे प्रभु अबकी बार।


कोरोना को मारिए,


                    कर के अस्त्र प्रहार‌। 


 


हे लम्बोदर गजबदन,


                   हे सुत उमा- महेश।


हे गणपति हे विघ्नहर, 


                  हर लो सबके क्लेश।


 


            ।। राजेंद्र रायपुरी।।


विनय साग़र जायसवाल

ग़ज़ल ----


1.


रंग-ए-बहार दिल पे असरदार भी तो हो 


इस कैफ़ियत से कोई सरोकार भी तो हो 


2.


कैसे झुकें ज़मीन की जानिब बुलंदियां


बेदाग़ उनकी अज़्मतो -दस्तार भी तो हो


3.


हर बार सिर्फ़ तुझको पुकारा है इसलिये


तेरे सिवा हमारा मददगार भी तो हो 


4.


क्यों आइनों को लेके यहाँ तुम निकल पड़े 


यह शहर आइनों का तलबगार भी तो हो 


5.


कहते हैं शहर में उसे कुछ लोग बादशाह 


इससे किसी को सोचिये इनकार भी तो हो 


6.


सज जायेंगी अदब शनासों की महफ़िलें 


मीर-ओ-जिगर सा शहर में फ़नकार भी तो हो 


7.


फूले फलेगी फस्ल भी अम्न-ओ-क़रार की 


आपस में अब किसी को यहाँ प्यार भी तो हो 


8.


मुमकिन है सो न पाये सितमगर भी चैन से


ज़ंजीरे -पा में इस कदर झंकार भी तो हो 


9.


तेरी ख़ुशी को मोड़ दूँ कश्ती का रुख मगर


"साग़र "ये सोच हाथ में पतवार भी तो हो 


 


🖋️विनय साग़र जायसवाल


      बरेली, यूपी


सत्यप्रकाश पाण्डेय

चाहत का रुख मोड़ दिया..


 


स्नेह अपार किया जिनसे


वो इतने दूर चले गए हमसे


बहुत तलाशा फिर हमने


न मिल पाये वो फिर हमसे


 


अनुराग कोष लुटाके भी


हम प्रीति क्रीत नहीं कर पाये


व्यर्थ हुई मेहनत अपनी


विश्वास हृदय में न भर पाये


 


अवनि अम्बर सागर में


हर पल जिनका रूप निहारा


प्रकृति के फूल पत्रों में


सुरभित वदन दिखा था प्यारा


 


सुंदर सौम्य मुख मयंक


आलोक मान लिया जीवन का


भेजा है विधु ने आश्रय


समझ न पाये भ्रम है मन का


 


मधुर मनोरम चितवन


उसे ही प्यार समझ बैठें उनका


मृगतृष्णा से छले गये


रहस्य जान नहीं पाये मन का


 


कत्ल हुआ अरमानों का


हमें कैसे तड़पन को छोड़ दिया


विरह ज्वाला में झुलसे 


फिर चाहत का रुख मोड़ दिया।


 


सत्यप्रकाश पाण्डेय


संपूर्णानंद मिश्र

         खो देता है 


   बुद्धि, विवेक मनुष्य 


   प्राप्त करने में इसको‌ 


   रेत देता है गला संबंधों का भी


     बड़ी ताकत होती है पैसे में


      थमाई जाती है 


     असहाय बूढ़े हाथों 


    में लाठियां इसीलिए 


      ताकि कर दे


 एक हस्ताक्षर कांपते हाथों से 


बंट जाता है पिता पैसों की तरह 


नहीं मिल पाता है प्रेम किसी का 


नोचने लगते हैं अपने ही उसे 


मिली होती है माहुर प्रेम- बोल में


          सोखकर रस 


उड़ जाते हैं सारे पक्षी 


  अपने- अपने घोंसलों में


   एहसास होना चाहिए


     जहां उसे अपनों का 


 स्वार्थ की बू आने लगती है वहां 


 घुट घुट कर जीने लगता है 


       ढह जाती है 


उसकी उम्मीदें आखिरी


      आत्मजन के 


  स्वार्थ रूपी जे० सी० बी० से


  निकल जाना चाहता है शेष जीवन की तलाश में


ढूंढने लगता है मुट्ठी भर


     जमीन अपनी


    किसी बृद्धाश्रम में


खून से सींचता है जीवन भर


  जिस परिवार- वाटिका को 


      उजड़ता देखकर


अंधेरा छा जाता है सामने उसके 


     छल लिया जाता है 


     आत्मीय जन द्वारा   


    दम तोड़ देती हैं अन्ततः


   जीने की उसकी ख़्वाहिशें 


 


संपूर्णानंद मिश्र


प्रयागराज फूलपुर


सुनीता असीम

दिल हमारा आज हमको आजमाना होगा।


आरज़ू इसमें उठेंगी तो दबाना होगा।


 ***


दिख रहा जैसा नहीं होता है सदा वैसा ही।


हर बशर का इस जहां में इक फ़साना होगा।


***


दूसरों के हो रहें आगोश में उसकी तो।


सोचकर भी ये न तुमको फिर गवारा होगा।


***


जो मिटा दे दुख जमाने में सभी के सारे।


क्या कहीं ऐसा भी कोई तो तराना होगा।


***


प्यार होगा और हो बरसात खुशियों की बस।


सोचती हूँ मैं यही ऐसा जमाना होगा।


***


सुनीता असीम


संजय जैन

पूर्णिमा का चांद


 


कही दीप जल रहे है


तो कही छाय पढ़ रही है।


कही दिन निकल रहा है


तो कही रात हो रही है।


मोहब्बत करने वालो को


क्या फर्क पड़ता है।


क्योंकि उन दोनों के तो


दिल से दिल मिल गये है।।


 


पूर्णिमा के चांद का


कुछ अलग महत्व है।


चांदनी रात का भी 


विशेष महत्व है।


मिलते है जब वो


इस सफेद चांदनी 


चादर के ताले।


तो रात रानी के फूल


चारो तरफ खुशबू बिखेर देती है।।


 


देख तमाशा ये कामदेव भी


धरती पर मोती बिखर देते है।


और सच्चे प्रेमियों को


मोहब्बत के लिए बुलाते है।


और खुद कामदेव सारे बाग में सुंदरता फैलाते है।


और पूर्णिमा के चांद का 


रमणीय दृश्य सभी को दिखाते है।।


और लोगो को मोहब्बत करना सिखाते है। 


मोहब्बत करना सिखाते है।।


 


जय जिनेन्द्र देव 


संजय जैन (मुम्बई)


डॉ0 रामबली मिश्र

विश्व परिधि में घूमो नियमित


          मात्रा भार 13, 16


 


विश्व परिधि में भ्रमण कर,


अपना कर विस्तार निरंतर।


एक-एक को देखकर,


चलते रहना बनकर सुन्दर।


सबको अपना समझकर,


बढ़ते रहना बना धुरंधर।


करो कल्पना नित सुघर,


सदा घूमना बने मनोहर।


करना सबसे स्नेह,


अपने उर में सबको रखकर।


पावन भाव विचार से,


रहना सबका मन मोहित कर।


चेतन प्रभु सा नृत्य कर,


मोहित होना मेघ-श्याम पर ।


त्याग मंत्र का जाप कर,


चलो राम बनवासी बनकर।


सत्य अहिंसा प्रेम का,


कर प्रचार तुम बापू बनकर।


महा पुरुष की राह गह,


चलते रहना एक राह पर।


सदा विश्व पर ध्यान रख,


कर कल्याण दिखो शिवशंकर।


विश्व क्षितिज को चूम कर,


रहो केन्द्र पर घूम-घूमकर।


सदा पूछना हाल तुम,


सूरज चंदा तारा बनकर।


 


डॉ0रामबली मिश्र


हरिहरपुरी 


 


सुनील कुमार गुप्ता

       संस्कार


बचपन से मिलते सुसंस्कार,


मिटते सभी जीवन में-


मन छाये विकार।


सार्थक होता जीवन सारा,


महकता ख़ुशबू से-


सारा घर संसार।


संस्कारशील मानव पाता,


जीवन में अपने-


पग-पग ख़ुशियाँ अपार।


सद् संस्कारो से ही जीवन में,


महकती जीवन बगिया ,


मिलता अपनत्व-


अपनो का होता सत्कार।


सद् संस्कारो से ही तो साथी,


मिलता सम्मान-


सपने होते साकार।।"


 सुनील कुमार गुप्ता


डॉ निर्मला शर्मा 

वृद्धाश्रम


 जीवन के रंगमंच का 


आखिरी मंचन है वृद्धाश्रम 


जीवन काल का परिपक्व 


कालखंड है यह स्वशासन


क्या खोया ,क्या पाया, क्या था ?


जिसे मैं पूर्ण नहीं कर पाया


 एकाकी जीवन की चौखट पर


 मानसिक द्वंद्व का अंतर्द्वंद्व है 


गीता के ज्ञान का मिलता 


यहीं ज्ञान अवलंब है


 मानव जीवन के कष्ट से


 मिला मैं यहां जाना हर सत्य है 


विकल्पों का स्थान नहीं


 चलता यूँ ही जीवन है


 जीवन की पाठशाला का


यह भी मानो एक लंबा प्रसंग 


क्यों ??मैं प्रतीक्षारत हूं 


प्रतिध्वनियों के लिए


 नियम विज्ञान का 


जीवन में प्रतिध्वनित होता नहीं 


पानी के बुलबुले सी स्मृतियां 


बनकर मानो मिटती चली


 यादों की स्याही भी अब


 बह कर स्वतंत्र होने लगी


 चुभन भरी मन में


 कसक सी रहती है क्षण


  उसे जीवन का आधार बना


 उत्साह मैं स्वयं में भर लूं 


जीवन की आखरी शाम को


 जी भर कर जिंदादिली से जी लूं 


बढूं आगे अविरल 


क्यों देखूं पीछे मुड़कर 


खुशी पर किसी का पंजीकरण नहीं 


क्यों शुल्क भरुँ रोकर 


वृद्धाश्रम को कर्म क्षेत्र बनाकर


 क्यों ना चंद यादें सजा लूं 


अंतिम सफर में बढ़ते हुए 


स्वयं को प्रकाशमान सितारा बना लूं


 डॉ निर्मला शर्मा 


दौसा राजस्थान


निशा अतुल्य

ॐ गणपति नमो


प्रथम पूज्या


तुम बुद्धि प्रदाता 


दयावन्त हो।


 


गणपति हो


ॐ नमो नमः तुम्हें


सुख कर्ता हो 


 


दुःख हर्ता हो 


रिद्धि सिद्धि के स्वामी


गजानना हो ।


 


गौरी नँदन


हैं चार भुजा धारी


तुमको ध्याएँ ।


 


लम्बोदराय


मोदक अति प्यारे


भोग लगाऊँ ।


 


भाल चंदन 


सजे पिताम्बराय 


मूसा सवारी ।


 


नमन करें


कर जोड़ वंदन


जय तुम्हारी 


 


घर विराजो 


करो पूर्ण कामना


प्रभु हमारी ।


 


स्वरचित 


निशा"अतुल्य"


डॉ. राम कुमार झा निकुंज

मीत सुलभ नवनीत कहँ , चले मनुज दुर्नीति।


तृष्णा अपरम्पार जग , दुर्लभ प्रकृति प्रीति।।१।।


 


शोक चिन्तना कवि सलभ , ध्रुव कोराना आज।


जब तक टीका न बने, पड़े काल की गाज।।२।।


 


रहें गेह में संयमित, कोरोना के काल।


आयुर्वेदिक चिकित्सा , रखे सभी खुशहाल।।३


 


मास्क बनाये घर स्वयं , लगा लगाएँ आप।


बचे पित्त अरु कफ़ से , दूरी मेल मिलाप।।४


 


धोएँ साबुन हाथ को , दिन में वारम्बार।


कोरोना से ख़ुद स्वयं , करें नियम उपचार।।५


 


मनुज शत्रु है स्वयं का , चले स्वार्थ के राह। 


खटमल पिस्सू जोंक सब,चूस प्रकृति रस चाह।।६।।


 


अवसादन अनिवार्य है , प्रकृति बनी अब कुप्त।


कोरोना अभिशाप बन, करे मनुज को सुप्त।।७।।


 


धन लालच में जग पड़ा , काट रहा है वृक्ष।


नदी पोखर सागर गिरि , आहत नभ अन्तरिक्ष।।८।।


 


बाढ़ भूस्खलन आपदा , भूकम्पन तूफान। 


वज्रपात हर व्याधियाँ , समझ प्रकृति अपमान।।९।।


 


लाखों लाशें बिछ रही, उजड़ा सुखद निकुंज।


मातम जग छायी हुई , मौन पड़ी अलिगूंज।।१०।।


 


डॉ. राम कुमार झा "निकुंज"


रचनाः मौलिक(स्वरचित)


नवदेहली


डॉ बीके शर्मा 

कौन हो तुम


 


इस ओर से 


उस छोर तक 


कर देती 


मुझको विचलित


देती दिल 


झकझोर तक 


कौन !


कौन हो तुम ?


 


भू से लेकर 


घनघोर तक 


करती उर मैं 


पायल सा शोर तक


एक कोर से 


एक कोर तक


कौन !


कौन हो तुम ?


 


शाम से लेकर 


भोर तक


सांसो की चलती 


डोर तक 


कर देती मुझको


चितचोर तक 


कौन!


कौन हो तुम है ?


 


है खोजता 


कोई तुम को 


इस छोर से 


उस छोर तक 


फैला अपने पंख 


सागर की हिलोरे तक 


कर देती मुझे


कमजोर तक 


आखिर 


कौन!


कौन हो तुम ?


 


डॉ बीके शर्मा 


उच्चैन भरतपुर राजस्थान


काव्य रंगोली आज के सम्मानित रचनाकार लवी सिंह 


असिस्टेंट प्रोफ़ेसर 


शिक्षा विभाग 


इनवर्टीस विश्वविद्यालय


 


समाज सेविका


अध्यक्ष 


उम्मीद एक नया सवेरा वेल्फेयर सोसाइटी 


 


यूथ को-ऑर्डिनेटर 


बरेली


मानव उत्थान सेवा समिति 


 


पता:-


ग्राम- चराई डांडी 


पो- मुंडिया नबी बक्श 


तह- बहेड़ी 


जि- बरेली 


उत्तर प्रदेश 


पिन कोड- 243201


 


मेरी कलम से....


 


कविता 1-


कुछ हसेंगे तुम पर,


और कुछ दर्द बढ़ाएँगे,


ये बोलकर कि वो तुम्हें


ढाँढस बंधाएंगे,


कुरेदेंगे तुम्हारे ज़ख्मों को,


शब्दों के तीखे बाणो से,


अपने दो घड़ियाली आँसू दिखाकर,


तुमको बहुत रुलायेंगे।


पूछेंगे फिर वो अश्क तुम्हारे,


और तुम्हें झूठी दिलासा देकर


अहसानमंद कर जाएंगे।


 


2-


अपने ही अक्सर हार का कारण बन जाते हैं, 


कभी न भरने वाले घाव वो तुमको दे जाते हैं।


 


यूँ तो रखते हैं कंधे पर वो हाथ तुम्हारे,


और पीछे से पीठ पर चाकू भी,वो ही चलाते हैं।


 


दुनिया के रंज-ओ-गम से तो उभर आओगे,


अपनों के दिए दर्द हर पल रुलाते हैं।


 


3-


कैसी ये उदासी है.....


होली के रंग भी सब बेरंग से हैं 


जज़्बात मेरे कुछ बेढंग से हैं, 


यूँ तो दुनिया की भीड़ में हूँ 


फिर भी दिलो-दिमाग में चल रहे....


तेरे खयाल किसी मैदान-ए-जंग से हैं।


तेरे चले जाने का गम नहीं मुझको 


चूँकि तेरी खुशी में ही मेरी खुशी है,


हाँ अफसोस है तुझे खो देने का.... 


दुख है अब तन्हा रहने का,


पर...सुकून.. कि तू खुश है। 


 


4-


रिश्तों को बनाना जितना आसान है,


निभाना उतना ही कठिन,


चूंकि बनाने में बस लम्हा लगता है


और निभाने में पूरी उम्र बीत जाती है।


 


पर........


 


अगर रिश्ता बनाया है,तो निभाना सीखो।


वक़्त चाहते हो,तो वक़्त देना सीखो।


रिश्तों में आयी दरार को मिटाना सीखो।


माना कि गम बहुत हैं,पर जीत इसी में है,


कि गम में भी मुस्कुराना सीखो।


 


5-


अब तू ही बता......


कि तुझसे मोहब्बत करुँ भी तो कैसे करुँ 


कोई तेरा बन गया,तू भी उसी का हो गया 


मैं तेरी बन के रहूँ भी तो कैसे रहूँ l


अब तू ही बता......


कि तेरे साथ चलूँ भी तो कैसे चलूँ 


तू ने हाथ किसी का थाम के रास्ता बदल लिया


मैं सफ़र को पूरा करुँ भी तो कैसे करूँ।


अब तू ही बता......


कि तेरे संग ज़िन्दगी जियुँ भी तो कैसे जियुँ 


तू ने साँसों को अपनी किसी के नाम कर दिया 


मैं जिंदा रहूँ भी तो कैसे रहूँ l 


अब तू ही बता.......


कि तुझे छोड़कर चली भी जाऊँ अगर 


तो खुदकशी करना गुनाह है मेरे मज़हब में 


मैं मरूं भी तो कैसे मरूं।


 


सत्यप्रकाश पाण्डेय

सत्य हृदय में युगलरूप..


 


बिन तेरे कौंन हमारा,बस तेरा एक सहारा।


युगलरूप के दर्शन से,बहे भक्ति की धारा।।


 


प्रकृति का जर्रा जर्रा,तेरी शक्ति से महके।


तेरी अवर्चनीयता से,जड़ चेतन सब चहके।।


 


सहस्र कमल सा सौंदर्य, सौम्य कांति तेरी।


राधा बल्लभ मुरलीधर, तुमसे प्रीति घनेरी।।


 


 


पद्मनाभ हे कमलकांति, कृपा बर्षाये रखना।


सत्य हृदय में युगलरूप, बिम्ब बनाये रखना।।


 


सत्यप्रकाश पाण्डेय


डॉ. निर्मला शर्मा

( बाल कविता)        


वायरस


 


वायरस वायरस वायरस वायरस


जीवन का इसने छीना रस


सोना उठना खेल पढ़ाई


वायरस ने सब बन्द कराई


सारा दिन मोबाइल देखूं


पढूँ बैठ पर गेम न देखूँ


मन मेरा हर पल ललचाता


बाहर खेलूँ मचल वो जाता


लेकिन वायरस फिर आ जाता


कहता आओ मुझे चिढ़ाता


दोस्त सखा स्कूल भी छूटा


कैसा ये तारा है टूटा


सब कुछ लगता मुझ से रूठा


जीवन का हर सुख है छूटा


बैठ के मैं सोचूँ हर पल


वायरस का कैसे निकले हल???


डॉ. निर्मला शर्मा


दौसा राजस्थान


संपूर्णानंद मिश्र

    तोड़ देती है


 


   टूट जाता है


 आदमी भूख के ज़्वर से 


   यह ख़तरनाक है 


    शरीर के ज़्वर  


  से बहुत ज़्यादा


   उतर जाता है 


सामान्य ज़्वर कुछ दिनों में ही 


हालांकि शरीर को


 यह भी तोड़ता है


लेकिन भूख तो


 कोमल- चित्त पर 


  हमला करता है


अंतर्मन तोड़ता है


गहरा घाव कर देता है 


दिल और दिमाग दोनों में 


    नष्ट कर देता है विवेक को


संज्ञाशून्य हो जाता है व्यक्ति 


  पार कर जाता 


     लक्ष्मण- रेखा 


अपने ही सिद्धांतों की       


मुफ़लिसी बड़े- बड़े 


साधकों को तोड़ देती है


  धर्म और अधर्म को 


  नहीं चीन्ह पाता है


 सिद्धहस्त संन्यासी भी 


 नीलाम कर देता है अपनी आत्मा को सरे-आम


    पेट की आग बुझाने के लिए


    चक्रधर जैसा ज्ञानी


 आत्मबिक्रेता हो जाता है


   चापलूसी का नर्तन


 करने लगता है दर्पी सम्राटों के 


  ईश्वर से भी ज़्यादा


 दयालु बताता है उन्हें 


मिथ्या- प्रशंसा के हथियार से लूट लेता ऐसे नृपों को 


यह भूख सब कुछ कराती है सामुद्रिक आग से


 भी ख़तरनाक होती है यह


 खा जाती है अपने ही अंडे को भूखी नागिन 


  नहीं बिचार कर पाती है 


   जन्या हूं इसकी मैं ही 


कोई ब्रहृमज्ञानी 


सुदामा जैसा ही    


बचा पाता है


 अपने को इस लपट से


   नारायण की इच्छा समझ 


    संतोष कर लेता है 


चावल के एक दाने से ही 


 


   संपूर्णानंद मिश्र


  प्रयागराज फूलपुर


  7458994874


सुनील कुमार गुप्ता

-दुनियाँ नई बसाते


कुछ तो होता जीवन में,


जिसको-फिर अपना कहते?


सुख की शीतल छाँव संग,


दर्द भी तुम यहाँ सहते।।


भूल जाते स्वार्थ अपना,


अपनो का संग निभाते।


परोपकार संग जग में,


साथी तुम कदम बढ़ाते।।


काँटे चुभते जिस पथ पर,


वहाँ फूल तुम्ही खिलाते।


कटुता न छाती फिर मन में,


तुम दुनियाँ नई बसाते।।


 सुनील कुमार गुप्ता


राजेंद्र रायपुरी

          सरिता


 


कल -कल कल-कल बहती सरिता,


                   दो पाटों के बीच।


बड़े प्रेम से जगह-जगह वो,


                    रही धरा को सींच। 


 


निकली पर्वत माला से है,


                   जाना सागर पास।


सहती लाखों कठिनाई पर,


                    होती नहीं उदास।


 


राह बनाते चलती है वो,


                 बिना किसी हथियार।


कहीं उछलती गिरे कहीं पर,


                   बनकर पतली धार।


 


विमुख लक्ष्य से कभी न होती,


                 सहकर कष्ट हजार।


 मिलती है साजन से जाकर,


                 साजन के ही द्वार।


 


रुकती नहीं कहीं वो पल भर,


                    बहती है दिन-रात।


समय सरीखे है सरिता भी,


                  सच मानो तुम तात।


 


नहीं माॅ॑गती कभी किसी से,


                      बाॅ॑टे दोनों हाथ।


प्यास बुझाए जीव-धरा की,


                   चलकर देखो साथ।


 


             ।। राजेंद्र रायपुरी।।


डॉ. निर्मला शर्मा

जहाँ चाह वहाँ राह


 जहां चाह है वहां राह है 


कहते हैं सब दुनिया वाले


इंसान अगर ठाने जो मन में


 क्या है जो वह कर ना डालें


 सुविधाओं का अभाव रहेगा


 लक्ष्य मगर फिर भी ना डिगेगा


 कितनी भी ऊंची हो पहाड़ी


 पुरुषार्थ से रास्ता भी बनेगा 


चाहे कितनी गहरी हो नदियां


 निकलने का विकल्प वहां भी बनेगा


 कठिन डगर हो जीवन की जब


मानव करे जतन हर सम्भव


असम्भव को सम्भव वो बनादे


आसमान को चीर दिखादे


 जहां चाह है वहां राह है


 कहते नहीं ऐसे ही अनुभवी 


जीवन का है बड़ा फलसफा


रखो विश्वास का दिया जलाकर


डॉ. निर्मला शर्मा


दौसा राजस्थान


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