डॉ बीके शर्मा

कौन हो तुम ?


जो मेरे गीतों में आती हो


मैं लिखता हूं गजल


तुम शब्द मेरे बन जाती हो


 


जब जब करता आंखें बंद


तुम कविता बन


दिल में उतर जाती हो 


कौन हो तुम ?


 


यह निष्फल शोध मेरा 


धिक् जीवन !


जो तुम्हें पहचान ना पाया 


है उर में छिपा एक भेद 


जिसे मैं खोल ना पाया 


फिर क्यों जीवन का हर क्षण 


तुम मेरे साथ बिताती हो 


कौन हो तुम ?


 


जो जुड़ी हो तुमसे 


नहीं भाग्य रेखाएं वे मेरे कर में 


बोध नहीं मुझको वह क्षण


उतर गए जब तुम मेरे उर मैं 


मैं हूं निरर्थक !


जो पाया जीवन भर खोया 


तुम आती हो क्यों 


पावन करने को पत्थर 


इस कंक्रीट उर में तुमने 


बीज यह कैसा बोया


फिर भी ऐसे बज्र कवि की


तुम पंक्ति क्यों बन जाती हो 


कौन हो तुम ?


जो मेरे गीतों में आती हो |


 


डॉ बीके शर्मा


उच्चैन भरतपुर राजस्थान


विनय साग़र जायसवाल

ग़ज़ल


किस कदर प्यार भरा है मैं ये मंज़र देखूँ


आ ज़रा पास तेरे दिल में उतर कर देखूँ


 


शेर कहता है भला कैसे सुखनवर देखूँ 


आ ग़ज़ल तुझको तरन्नुम में सजाकर देखूँ


 


तू जो कहता है तेरा दिल है समुंदर जैसा


माँग कर प्यार तेरे दिल का समुंदर देखूँ 


 


बावफ़ा है कि दग़ाबाज़ मुक़द्दर निकले 


आज़माकर मैं तुझे अपना मुक़द्दर देखूँ 


 


लाख किरदार बदलने की क़सम खाले यह


कैसे बदलेगा ज़रा रंग ये रहबर देखूँ


 


घर से निकला हूँ सफ़र का है इरादा लेकिन


कौन देखेगा मेरी राह पलट कर देखूँ


 


बाँधकर घर से चला हूँ मैं क़फ़न को सर पर


ज़ोर तेरा भी ज़रा आज सितम गर देखूँ


 


माँ की ममता है दुआओं का असर है *साग़र* 


और फिर साथ तुम्हारा है सफ़र कर देखूँ 


 


🖋️विनय साग़र जायसवाल


डॉ. निर्मला शर्मा 

" ट्वीट वार "


आधुनिक युग का यह देखो, नया बना हथियार। 


अपनी जान बचाओ भाई, हो ना जाए तुम पर वार। 


ध्वनि से तीव्र गति है इसकी, चलता वेग सवार ।


आधुनिक युग का है भाइयों, यह धारदार हथियार।


 इतिहास के पन्नों में छिपे हैं,अनेक युद्धों के सार।


 होती थी गोलाबारी तब ,चलते शस्त्र अनेक प्रकार।


 ज्यों ज्यों पनपी मानवीय सभ्यता, बने विविध संचार।


 धरती पर साधनों का प्रतिदिन, होता नया विचार।


 लैटर बम फूटते सभा में, हुए हताहत सभी कुमार।


 यह कैसा अजूबा भाई!!, बिन धुएँ कैसे बना गुबार ।


 ट्वीट वार है शस्त्र अनोखा ,जिसका है अचूक सा वार।


 जिस पर साधा जाए निशाना ,लुट जाए उसका संसार। बुद्धिजीवी वर्ग का है यह ,ब्रह्मास्त्र सा अभेद वार ।


 कितना भी ताकतवर हो शत्रु, इसे ना सकता वह नकार सोशल मीडिया की स्थली पर, सबसे असरदार हथियार।


 पड़ जाए मुश्किल भारी गर ,अवश्य करो इसका व्यवहार तुरत हटे विपदा पल में ही , सपना हो जाए साकार।


 


 डॉ. निर्मला शर्मा 


दौसा राजस्थान


नन्दलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर

पैदा होता जब इंसान खुशियों


की होती बान।


जागते रिश्तों नातों


के अरमान।।


किसी की आँखों का तारा 


किसी का राज दुलारा ।।        


 


किसी का आरजू आसमान 


किसी के बुढ़ापे कीदिशा दृष्टि आसरा सहारा नन्ही सी


जान ।।     


 


घर, समाज ,कुल ,खानदान


के ना जाने कितने अरमान ।


बचपन जहाँ के अरमानो से अनजान मुस्कान ।।


हर गम से बेगाना जिंदगी का अलग अंदाज़।।


 


बचपन कब बीत गया पता ही नहीं चला किशोर की शोर नाम


रौशन करने का जोर ।।        


 


जो कुछ हासिल करना था हासिल कर जहाँ की हद की हद हैसियत में शुमार ।।  


 


अपने अंदाज़ आगाज़ का


जज्बा नौजवान।।


 


हर रिश्ते नातों के ख्वाबों की 


हकीकत नूर नज़र नाज़।।


 


जहाँ में तारीख का एक किरदार।।     


 


 


वक्त की अपनी रफ्तार गुजर गया बचपन का मासूम मुस्कान।।


किशोर का शोर जवानी की रवानी बीती आ गयी जिंदगी की साँझ।। तमाम रिश्ते नातों घर 


परिवार के नाज़ नखरों की जमी आसमाँ जहाँ । फुर्सत नहीं मिलती


लम्हे भर की दुनियां की शिकायते तमाम ।। अब तन्हा खुद की जिंदगी


के सफ़र का करता हिसाब किताब ।। जिंदगी में कुछ खोने पाने का अंजाम । जहाँ जिसके नीद जागने 


से जागती आज लम्हों भर के लिए करता प्यार का इंतज़ार।।


 


जिंदगी के सफ़र में बुढापा एक


पड़ाव शायद जिंदगी के मिलते


बिछड़ते रिश्ते नातों का अभ्यास


एहसास।।


 


नन्दलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर


नूतन लाल साहू

कर्म ही श्रेष्ठ है


सतपथ ही,जीवन का पथ हो


वेद मंत्र गुंजे,हर उर में


भक्ति के मंदिर में,श्रृद्धा का दीप जला लो


जीवन में खुशियों के,गुलाब खिलेंगे


जिस तरह मूर्ति को, दुध पिला रहे हैं


तरह तरह के, छप्पन भोग लगा रहे हैं


उसी तरह, गरीब की झोपड़ी में भी जाओ


उसे इसकी जरूरत कहीं ज्यादा है


सतपथ ही जीवन का पथ हो


वेद मंत्र,गुंजे हर उर में


भक्ति के मंदिर में, श्रृद्धा का दीप जला लो


जीवन में खुशियों के गुलाब खिलेंगे


सूर्य का रथ, रोज चलता है


साथ किरणों के रोज निकलता है


तू भी हंसता चल, हंसाता चल


लुटाता चल, हंसी के पल


सतपथ ही जीवन का पथ हो


वेद मंत्र गुंजे हर उर में


भक्ति के मंदिर में, श्रृद्धा का दीप जला लो


जीवन में खुशियों के गुलाब खिलेंगे


समय से हार न जाओ,जीत बनकर मुस्कुराओ


पंछियों से,प्रेरणा लेकर भरे ऊंची उड़ाने


श्रृद्धा लगन समर्पण भाव से कर्म करो


काल चक्र को भी,भेद पाओगे


सतपथ ही जीवन का पथ हो


वेद मंत्र गुंजे हर उर में


भक्ति के मंदिर में, श्रृद्धा का दीप जला लो


जीवन में खुशियों के गुलाब खिलेंगे


एकलव्य जैसा,दृढ़ निश्चय हो


भक्त प्रहलाद सा रखो,अटल विश्वास


जब तक चांद सितारे,नभ में रहेगा


युगों युगों तक चलता रहेगा,तेरा नाम


सतपथ ही जीवन का पथ हो


वेद मंत्र गुंजे हर उर में


भक्ति के मंदिर में, श्रृद्धा का दीप जला लो


जीवन में खुशियों के गुलाब खिलेंगे


 


नूतन लाल साहू


सुनील कुमार गुप्ता

   आशा-निराशा


 


बहुरंगी इस दुनियाँ में,


देखा अज़ब तमाशा।


अपनो संग चले जग में,


साथी मिली निराशा।।


देकर ख़ुशियाँ जीवन में,


कुछ तो उभरी आशा।


मिले अपनत्व का संसार,


फिर छाये न निराशा।।


मिले मंज़िल अपनी यहाँ,


बनी रहे ये आशा।


छाये गम की बदली भी,


मन में न हो निराशा।।


 सुनील कुमार गुप्ता


 


सत्यप्रकाश पाण्डेय

मनमोहन से प्रीति हुई


लोकलाज सब भूल गई


कियो समर्पित जीवन


मैं जग के प्रतिकूल हुई


 


लो बाहों मैं माधव मेरे


तुम बिन नहीं मेरा कोई


जब से मिला सानिध्य


राधा तो कृष्णा में खोई


 


हरि हर लीन्हों मन मेरों


कमलकांति अलि भांति


मुझ चातकी को मोहन


तुम ही हो सींकर स्वाति।


 


युगलरूपाय नमो नमः


 


सत्यप्रकाश पाण्डेय


डॉ0 हरिनाथ मिश्र

दूसरा अध्याय(श्रीकृष्णचरितबखान)-5


 


समदरसी प्रभु बानी मधुरा।


काटहु कष्ट नाथ जन मथुरा।।


    ई जग बिटप सनातन एका।


    देवहि प्रकृति आश्रयहि यहिका।।


दुइ फर लागहिं यहि तरु माहीं।


सुख-दुख जे जग सकल कहाहीं।।


     सत-रज-तम बस तीनहिं मूला।


     गुन ई तीनिउ जग नहिं भूला।।


धर्म-अर्थ अरु मोच्छइ-कामा।


रहहिं चारि यहि तरु कै नामा।।


     रसना-त्वचा-नासिका-लोचन।


      कानहिं पाँच ग्यान तरु रोचन।।


जनम-रहनि-परिवर्तन-बढ़ना।


षटहिं सुभाउ नष्ट अरु घटना।।


    छालहिं सात बृच्छ कै आहीं।


    धातू सातहिं जगत कहाहीं।।


रुधिर-मांस-रस-मेदा-मज्जा।


अस्थि-सुक्र तें बिटपै सज्जा।।


    साखा आठ-पाँच महभूता।


    अहंकार-मन-बुद्धि सबूता।।


नौ दुवार मुख खोड़र आहीं।


दस तरु- परनहिं प्रान कहाहीं।।


    ब्यान व प्रान-अपान-उदाना।


    नागइ-कृकल व कूर्म- समाना।।


देवयिदत्त-धनञ्जय प्राना।


दस ई प्रान जगत खलु जाना।।


   पंछी दूइ बिटप पर रहहीं।


   इस्वर-जीव जगत जे कहहीं।।


नाथ अधार तुमहिं भव तरु कै।


तुमहिं-बिकास-बिनास वही कै।।


दोहा-आबृत तव माया चितइ,खोज सकै नहिं सत्य।


         तत्व-ग्यान-ग्यानी पुरुष,कह प्रभु एक अमर्त्य।।


                       डॉ0 हरिनाथ मिश्र


                         


डॉ0 हरिनाथ मिश्र

द्वितीय चरण(श्रीरामचरितबखान)-35


 


निसि-दिन सिय सासुहिं सभ सेवहिं।


असिष सुहाग आँचरहिं लेवहिं।।


    कपटी-कुटिल कैकई सोचैं।


    अनभल सूल हृदय तिसु कोचैं।।


देखि राम-सिय-लखन सुभाऊ।


कैकेई रहि-रहि पछिताऊ।।


   बड़ अधर्म हमतें ई भयऊ।


   राम-लखन-सिय बन मा पठऊ।।


सीय-सुश्रुषा सासु अघाईं।


पाद चापु सिय देहिं ओघाईं।।


    लखिअस अनुपम मिलन सबहिं कै।


    मुदित होंहिं सुर-दसरथ नभ कै।।


सबके मन मा संसय भयऊ।


राम लौटि पुर अयउ न अयऊ।।


    निज-निज सोचि देहिं पुरवासी।


    राजा बनइँ राम बनवासी।।


कस होवै रामहिं अभिषेकू।


सोचहिं भरत उपाय अनेकू।।


    केहि बिधि चलैं अवध रघुराया।


     पर सूझै नहिं कोउ उपाया।।


दिवस भूखि नहिं नीदहिं रैना।


सोचि-सोचि नित भरत बेचैना।।


   गुरु बसिष्ठ तब सबहिं बुलाए।


    केहि बिधि राम चलहिं समुझाए।।


राम कृपालू,परम दयालू।


सकल बिस्व रामहिं परिपालू।।


   रामहिं अखिल जगत कै स्वामी।


    बड़ भागी जे प्रभु-पद-गामी।।


बिधि-बिधान-गति रामहिं समुझहिं।


प्रीति-भगति-बिस्वासहिं रीझहिं।।


   दिग-दिगंत-दिग्पाल समेता।


  जोगी-ऋषि-मुनि-संत चहेता।।


आगम-निगम-बेद-सर्वग्या।


चंद्र-सूर्य चमकहिं प्रभु-अग्या।।


    सलिल-अनल-महि-पवन-अकासा।


   प्रभु बिनु जगत न होय प्रकासा।।


प्रभु जस चहिहैं उहवइ होई।


तर्क-कुतर्क ब्यर्थ जग खोई।।


    सुनहु भरत हम अबहिं बिचारे।


     बन-प्रवास लउ कान्हें सारे।।


सत्रु-तुमहिं बन करउ निवासू।


अस कहु प्रभुहीं बिनू उदासू।।


सोरठा-गुरुहिं बसिष्ठ बिचार,जानि भरत प्रमुदित भए।


           कहहिं इ भागि हमार,जौं प्रभु मानहिं गुरु-बचन।।


           कहहु जाइ मुनिनाथ,हमरो मत बस इहहि अह।


           मनिहैं अब रघुनाथ,जे कछु मुनिवर अब कहहिं।।


                      डॉ0 हरिनाथ मिश्र


                       


काव्य रंगोली आज के सम्मानित रचनाकार वीरेन्द्र सिंह राणावत


उपनाम वीरेन्द्र सिंह 'वीर'


जन्म 22 अप्रैल 1962 (पृथ्वी दिवस)


                      हाडौती (कोटा),    


        शिक्षा-दीक्षा मेवाड़ के ‎रावत भाटा में...


        


विधा. ओज, श्रृंगार, सामाजिक परिवेश


प्रकाशित कृति सफरनामा (काव्य संकलन)


सम्पादकीय 'अखिल भारतीय काव्य संकलन'       


                      धोरों की धरती से, वन्दे मातरम,  


                      शतरूपा, काव्य के रुद्राक्ष


सम्मान तुलसी सम्मान, भोपाल(म.प्र ),     


                       राजभाषा मनीषी-पश्चिमांचल 


                      ‎हिन्दी प्रचार समिति, वडोदरा     


                     ( गुज.), संगिनी ‎मासिक पत्रिका 


                     ( गुज.),महाराज कृष्ण जैन स्मृति 


                     सम्मान, शिलांग ‎(अरु.प्रदेश), ब्रज 


                     ‎गौरव-, ‎साहित्य मणि-बैतूल, 


                     काव्यकेसरी- ‎उदयपुर,साहित्य 


                    गौरव- आर्य समाज आर्य समाज


                    ‎‎‎रावतभाटा,अखिल भारतीय 


                    ‎वैचारिक मंच-लखनऊ, कस्तूरी 


                       कंचन-नोएडा, 4था शोशल 


                      मोडिया मैत्री सम्मलेन-बीकानेर   


                                 ‎सम्मान ‎आदि...  


सम्प्रति भारत सरकार के परमाणु ऊर्जा  


                    विभाग रावत भाटा में कार्यरत  


स्थाई पता 'राणावत भवन' श्रीराम मंदिर के    


                    सामने, चारभुजा-झालर बावड़ी,  


                   रावतभाटा, 323307कोटा,(राज.)   


 दूरभाष 94132 76762, 


                 व्हा.962464 1011


 ‎ई.मेल veer62ranawat@gmail.com 


 


                                                                         ‎ १.


                                                                         


                                                                                     क्यों कर में भुजंग को हो पाले...


---------------------------------


 


तुम ऋषि अगस्त्य के वंशज हो


जो चुल्लू में सागर पी डाले,


पन्द्रह अगस्त के तुम मतवाले


जो दुश्मन के सपने धो डाले...


फिर क्यों अरिदल खड़ा धरा


क्यों कर में भुजंग को हो पाले...


 


दाधीच की तुमको मिली विरासत


संधान-समर में दे अस्थि वज्र,


हर बार मिले क्यों तुझे नसीहत


तू तो काल को वश में कर डाले...


फिर क्यों अरिदल खड़ा धरा


क्यों कर में भुजंग को हो पाले...


 


परशुराम के तुम सुत कहलाते


जन-विहीन जो धरा कर डाले,


मीरा की माटी से तुम्हें रज मिली


जो विष को भी अमृत कर डाले...


फिर क्यों अरिदल खड़ा धरा


क्यों कर में भुजंग को हो पाले...


 


शून्य को तू-परिपूर्ण करे


व्योंम को 🕉️से भर डाले,


आर्यभट्ट सा तू युग दृष्टा


चाणक्य, चंद्रगुप्त घड़ डाले...


फिर क्यों अरिदल खड़ा धरा


क्यों कर में भुजंग को हो पाले...


 


तू ही पार्थ, तू ही प्रताप


तू ही कर्ण का सामर्थ्य भरे,


तुझमें ध्रुव, एकलव्य भी तू


अभिमन्यु क्षत व्यूह को कर डाले...


फिर क्यों अरिदल खड़ा धरा 


क्यों कर में भुजंग को हो पाले...


 


गोविन्द के सपूतों की तुम्हें शपथ


है तेरी भुजा में शिवा-भगत,


आ जाए 'वीर' अपनी करनी पर


तू सागर का भी मंथन कर डाले...


फिर क्यों अरिदल खड़ा धरा


क्यों कर में भुजंग को हो पाले...


 


           वीरेन्द्र सिंह ' वीर '


 


२.


 


अद्भुत है कालों की गणना 


कौन मुक्त है किसे भुगतना 


 


कितने या कि लें एक जन्म


गांडीव धारी या फिर कर्ण


 


आरंभ युग कृष्णा का अंत


कौन कलि वीणा का संत 


 


क्यों किसको दें दोषारोपण 


और शेष अभी कितना ऋण


 


ऋण सुत तनया औ भार्या का 


श्रृंगार तुरंग असिदल आर्य का


 


गति पावक पावन सा चलना है 


तृण का भी ऋण तो फलना है 


 


बाती बन कुंडली बैठ भंवर


न सरित बहा तू लहर लहर


 


अग्नि सा जल उपवन प्रीत जला 


बाती बन जल 'वीर' तम तू जला...


 


           वीरेंद्र सिंह'वीर'


           १४/०५/२०२०


 


 


३.


 


 


प्रीत रंग जानू...


-------------------


 


जिनके रंग में रंगी है दुनिया 


उन पर रंग कैसो तूने डारो,


रंगो श्याम को राधा के रंग 


राधा ने श्यामल कर डारो...!


 


माखन मटकी कान्हा के सर 


टोली सखा राधा कर दी नी,


गज ग्वालिन से नटवर नाचे


हाथ गुलेल राधा रख दीनी...!


 


ओढ़े पितांबर वृषभानू तनया


लाल चुनर गिरधर रंग दीनी,


नौसर घुंघरू पग छलिया के 


वेणु अधर राधिका धर दीनी...!


 


मोर मुकुट कृष्णा के सोहे


शोभा करी वेणी गुंथ दीनी,


झुमकी टिकला भाए राधिका 


कुंतल भ्रमर लटकन दीनी...!


 


मैं रहो सूर प्रीत रंग जानू 


जानू कान्हा कि राधा मानूं,


जानो कछु 'वीर' जान ना पायो


कौन हाथ में कौन रंग आयो,


भर पिचकारी छींटे राधिका 


रंग कान्हा राधा पे चढ़ायो...


 


          वीरेंद्र सिंह'वीर'


          ०६/०५/२०२०


 


 


४.


 


 


रंग...


 


सूरज ने तो रंग दी रंगोली 


नीम निंबोली हो गई पीली, 


उर अंबिया के गदराए ऐसे 


चूनर कांधे से सरके जैसे...


 


बदरा फागुन के बहके बहके 


जल भर लाए हिम भी बरसे,


रंग केसु का निखरा ऐसे 


सिंदूर सजनिया बिखरा जैसे...


 


बदली हमने रंगों की आशा


भरने लगे धर्मों की भाषा,


सूरज को भगवा पहनाया


चांद को रंग सुआ रंगाया...


 


धूं -धूं करती जली होलीका


जली नवल धान की दाल,


प्रीत- प्रेम के रंग में छलावा 


रंग उड़ा ना कहीं उड़ी गुलाल....


 


थाल में अक्षत ना हीं चंदन


ना हीं जेष्ठ अनुज का वंदन,


अपने -अपने में थे गुम सारे 


कैसे कोई रंगो को उसारे...


 


मुख में राम बगल में छूरी 


अस्त्र शस्त्र की लगी है बोली,


होली रंग गयी लाल रंग में


कैसे रंगे 'वीर' निज मन की रंगोली...


 


    वीरेंद्र...


    १६/०३/२०२०


 


५.


 


 


 मंथन में...


 ---------------


 


विश-अमृत, वरुणी औ चंद्र 


गज, मोहनी, धेनु ओ तुरंग


बटे देत्य, देव के भंजन में 


सरहद पर जो शीश चढ़ाता 


वह रत्न कहां था मंथन में...


 


एक लौभ था एक मोह था


शीर्ष सिंहासन एक खोह था 


सुरा सुंदरी संग सर मंचन में,


सरहद पर जो शीश चढ़ाता 


वह रत्न कहां था मंथन में...


 


तप साधना कोख में आए


मंत्राचार हो अवतार कहाऐ 


संहारक हुए थे रक्तबीज के,


सरहद पर जो शीश चढ़ाता 


वह रत्न कहां था मंथन में...


 


नीलकंठ हो गरल समाये 


वाल्मीक भी पुरषोत्तम गाए


रहे पवन पुत्र दुख भंजन में,


सरहद पर जो शीश चढ़ाता 


वह रत्न कहां था मंथन में...


 


शत सुत भी माटी पर वारूं


अश्रुसुमन न अंखियन तारूं


पालूं न सपोले अंचलन में...


सरहद पर जो शीश चढ़ाता 


वो रतन बसाऊं मैं कोखन में...


 


          वीरेंद्र सिंह'वीर'


       


 


                           ‎  ‎‎


डॉ. राम कुमार झा निकुंज

 रेत सी फ़िसलती जिंदगी


 


रेत सी फ़िसलती जिंदगी ,


पल दो पल की अनिश्चित,


जलभ्रमर में फँसी दुर्लभ ,


प्राणियों में श्रेष्ठतर मानवी,


अहंकारी मदोन्मत्त जिंदगी।


प्रकृति या यों कहें कुदरती ,


तोहफ़ा अनमोल धरोहर सम्पदा,


खुली सारी प्रकृति वसुन्धरा,


अन्तस्थल , भूतल ,जल, गगन,


शस्य श्यामला हरीतिमा ,


सर्वसौविध्य से भरपूर अनन्त,


खनिज सम्पदा ,नाना वन सम्पद,


सागर ,नदी , झील ,निर्झर, सरोवर,


सुरभित कुसुमित फलदार विविध तरु,


वनौषधियों से सुसज्जित हिमाद्रि आंचल,


रवि,शशि,वायु अनल नभ ,


षड्ऋतु विभक्त प्राणी सुलभ 


पर्यावरण जीवन्त निर्मल सुगम,


सब कुछ जो चाहत हो आम जीवन।


परन्तु अनवरत लिप्सा मानव मन ,


फँस मायाजाल लोभ ,छल कपट,


मिथ्या,हिंसा ,क्रोध, शोक संतप्त,


जीजिविषा अनन्त अहर्निश सुरसा सम,


कर क्षत विक्षत सुष्मित प्रकृति अन्तस्तल,


दीन दुःखी ,अवसादित दलित पीड़ित,


सड़कछाप लावारिस मजदूरों पर ,


ढाता कहर बन क्रूरकर्मा निशाचर,


दुर्दान्त ,दुष्कर्म अनवरत चलता पथ,


मानवीय नैतिक मूल्यों को कर तिरोहन,


त्याग न्याय ,शील कर्म विरत,


बस, केवल जिस किसी तरह भी,


आतुर भौतिकता के चकाचौंध फँस


बढ़ता निरत सफ़लता का आरोहण, 


एक तरफ़ दाने दाने को मोहताज़ ,


बिन गेह वसन कुछ पाने को 


अभिलाष मन, विकल दुःखार्त जन,


नित अवहेलित २१वीं सदी आज़ाद वतन,


शिक्षा ,सुख,इज्ज़त खुशियाँ नदारद,


मानो बन गई जिंदगी बंजर रेतीली,


मरुभूमि शुष्क निष्ठुर ज्वालामुखी सम,


सोपान सत्ता का चिरन्तन ,निर्माणक


नेता ,जेता विजेता प्रशासक वतन,


किन्तु अनवरत जीता पशुवत जीवन,


जन मन गणतन्त्र सब सुलभ ,


पर असफल तीन चौथाई आबादी,


कराहती ,सिसकती भूख, न्यायार्थ,


कोख से चिपका कर अपनी सन्तति,


असहाय दर्द को छिपा मौन चक्षु खोदर,


आज भी जूठे पत्तल चाटने को विवश,


संघर्षरत यायावर अबाध अनिश्चित पथी,


निर्माणक उत्पादक स्वयं दुनिया के,


सकल सुख सुविधा कृषि उद्योग तक,


रेल सड़क ,सेतु आलिशां महल,


पर खुद़ के लिए अम्बर छत 


आतप वारिस थिथुरन नित,


कैसी जिंदगी ,कैसी आजादी ,


बनकर खड़ी एक शाश्वत प्रश्न चिह्न,


जानता है मनुज सब कुछ यहीं,


छोड़ चल देगा किसी भी पल जहां ,


साथ न देगा प्रियतर तन सर्वाधिक मनुज,


जाएगा केवल अनकहे कमाये 


सुकीर्ति परहित अनमोल फल, 


पर स्वार्थी मनुज खो मति विवेक,


बिन रुके जीवन भर भागमभाग,


मरुस्थली रेत बन जलाता निरन्तर,


मानवता ,इन्सानियत खु़द की ज़मीर,


भूल सकल कर्तव्य समाज ए वतन,


बस दम्भी बन अर्थहीन करता ,


खूबसूरत लम्हें जिंदगी के अविरल,


दुर्लभ भाग्य से पाये पल दो पल,


बनाते हुए ज़हन्नुम ए कयामत,


पर जिंदगी फ़िसलती जाती 


बन रेत सी सब कुछ दहकती नीरस।


 


कवि✍️ डॉ. राम कुमार झा "निकुंज"


         नई दिल्ली


डॉ0 हरिनाथ मिश्र

द्वितीय चरण(श्रीरामचरितबखान)-34


 


देखन चले सभें गिरि-सोभा।


पाछे छाँड़ि बिषादइ छोभा।।


    कामद गिरि, मंदाकिनि-तीरा।


    बन-धन प्रचुर,बायु अरु नीरा।।


बनबासिन मिलि हर्षित भवहीं।


जनु सभ रंक प्रचुर धन पवहीं।।


    कोल-किरातइ, भील-निषादू।


    रामहिं पा भे बिगत बिषादू।।


कंद-मूल-फल बिबिध प्रकारा।


तिन्हकर इहवयि रहा अहारा।।


    जब तें राम इनहिं सँग रहहीं।


    ते सभ रामराज-सुख लहहीं।।


कहुँ कूजति कोइल मृदु बैना।


पिव-पिव कहूँ पपीहा रैना।।


    नाचै बन मा मगन मयूरा।


    जंगल मंगल होंवहिं पूरा।।


सूकर-ससक, हिरन-मृग छौना।


उछरैं अस जस पाइ खिलौना।।


    हिंसक जीव अहिंसक सँगहीं।


    रामराज साथहिं सुख लहहीं।।


सिंह-गर्जना,गज-चिघ्घाड़ा।


तड़ित-तड़क जनु बजै नगाड़ा।।


    झर-झर झरै झरन गिरि-तीरा।


    सन-सन बहै सुगंध समीरा।।


बन महँ जहँ पुरबासी गयऊ।


बनबासी तिन्ह सेवा करऊ।।


    कंद-मूल-फल भरि-भरि दोना।


   तिनहिं खियावहिं दइ जनु सोना।।


हर्षित हिय सभ बन मा रहहीं।


निरखहिं जीव-जंतु बन चरहीं।।


दोहा-रामसरन मा आइके,प्रमुदित कोल-किरात।


         निसि-दिन पावहिं राम-सुख,सम्यक रोग-निजात।।


                         डॉ0 हरिनाथ मिश्र


                          


डॉ0 हरिनाथ मिश्र

दूसरा अध्याय(श्रीकृष्णचरितबखान)-4


 


भगिनी अहहि देवकी मोरी।


बध-अपकीरति बहु नहिं थोरी।।


     जे जग करै स्वजन अपमाना।


     भगिनी-बध ऊ जस नहिं पाना।।


करम क्रूरता कै जे करई।


संपति-उमिरि तासु बड़ घटई।।


    निंदहिं बाद मृत्यु सभ लोंगा।


     रौ-रौ नरक पाइ ऊ भोगा।।


अस सुबिचार कंस मन आवा।


जब प्रभु अंस गरभ लखि पावा।।


    चलत-फिरत अरु सोवत-जागत।


   बइठत-उठत व पीवत-खावत।।


जनम प्रतिच्छारत रह कंसा।


अइहैं जबहिं किसुन जदुबंसा।।


     इत-उत लखै लखै चहुँ ओरा।


     जहँ देखै तहँ किसुनहिं छोरा।।


सकल बिस्व महँ किसुन-कन्हाई।


जल-थल-नभ मा किसुनहिं पाई।।


    सुनहु परिच्छित कह सुकदेवा।


     आए ब्रह्मा देवन्ह लेवा ।।


बंदीगृह मा नारद लइ के।


सकल अनुचरहिं साथे धयि के।।


    स्तुति करन लगे सभ साथहिं।


    मधुर बचन नवाय निज माथहिं।।


सत संकल्प नाथ तुम्ह आहीं।


सत्यहिं साधन तुमहीं पाहीं।।


   सृष्टिहिं पूर्ब प्रलय के पाछे।


    स्थित जगत असत नहिं आछे।।


तुम्ह प्रभु सत्य मात्र जग एका।


जदपि जगत कै रूप अनेका।।


     जल-थल-तेजहि-बायु-अकासा।


     अहहिं पाँच सच जग कै आसा।।


इन्हकर कारन तुमहीं नाथा।


तुमहिं सतत रह इनके साथा।।


    नाथ तुमहिं परमारथ रूपा।


    दृस्यमान जग सकल अनूपा।।


दोहा-तुम्ह समदरसी नाथ हौ,परमारथ कै रूप।


        दाता-दानी तुमहिं प्रभु,सक्ती परम अनूप।।


               


डॉ0हरि नाथ मिश्र


               


नूतन लाल साहू

समय


समय के पंख नही होते,पर


समय उड़ता है,बिन पंख के


चक्र घूमता है,नियत का


फिर भी समय,उड़ान भरता है


आशा और विश्वास का


सम्बल रखे,संग संग


है विचित्र,इसका गणित


हर क्षण मिलेगा,नई उमंग


समय के पंख नही होते,पर


समय उड़ता है,बिन पंख के


चक्र घूमता है,नियत का


फिर भी समय,उड़ान भरता है


हास्य योग है, साधना


सारे रोग का है,निदान


चलो समय के साथ सब


संदेश यही सुनाता है


समय के पंख नही होते,पर


समय उड़ता है, बिन पंख के


चक्र घूमता है,नियत का


फिर भी,समय उड़ान भरता है


समय आगे को बढ़ता है


समय कब पीछे,मुड़ता है


जो चला समय के साथ


वो हो गया,जग में महान


समय के पंख नही होते,पर


समय उड़ता है,बिन पंख के


चक्र घूमता है,नियत का


फिर भी समय,उड़ान भरता है


भाषण देना और हल्ला मचाना


कोई महानता नहीं है


समय है कला और समय है विज्ञान


जो पल पल रहता है,गतिवान


समय के पंख नही होते,पर


समय उड़ता है,बिन पंख के


चक्र घूमता है,नियत का


फिर भी समय,उड़ान भरता है


नूतन लाल साहू


सत्यप्रकाश पाण्डेय

हृदय में तुम्हें बसाऊं..


 


हे राधा के प्रियतम


हे मोहन कुंजबिहारी


व्यथित हूँ मैं स्वामी


दुःख हरो रासबिहारी


 


जग व्याधों से ग्रस्त


मैं भूला भक्ति पथ को


तेरे नाम की महिमा


शक्ति और समरथ को


 


दाता भाग्यविधाता


है सर्वस्य समर्पण मेरा


राधाबल्लभ कृष्णा


सदा करूँ स्मरण तेरा


 


आनन्द कंद मुरारी


आशीष तुम्हारा पाऊं


कैसे भी दुर्गम क्षण


हृदय में तुम्हें बसाऊं।


 


युगलरूपाय नमो नमः


 


सत्यप्रकाश पाण्डेय


कालिका प्रसाद सेमवाल

राम दूत तुम सबके रक्षक हो


तुम ही तो बल के धाम हो


हम सब तुमको वंदन करते है


तुम्हारे चरणों में एक फूल चढ़ाते है।


 


तुम ही प्रेम के सच्चे स्वरूप हो


तुम्ही दया के सागर हो


तुम कष्ट हरण नाशक हो


तुम्हारे चरणों में एक फूल चढ़ाते है।


 


तुम ही सबके रक्षक हो


जो भी तुम्हारा नाम जपे


उसकी हर विपदा टली


तुम्हारे चरणों में एक फूल चढ़ाते है।


 


प्रभु श्रीराम के तुम अति प्रिय हो


केसरी नंदन सबको सुमति का दान दो


विद्या विनय का दान दो


तुम्हारे चरणों में एक फूल चढ़ाते है।


 


कालिका प्रसाद सेमवाल


रूद्रप्रयाग उत्तराखंड


राजेंद्र रायपुरी

कोरोना से हे प्रभो, 


                       सारे हैं लाचार। 


पहले सी तो है नहीं, 


                     धूमधाम इस बार।


 


डरे हुए हैं हम सभी,


                     कर मत दे ये वार।


मचा दिया है देश में,


                      इसने हाहाकार। 


 


यही निवेदन आपसे, 


                   हे प्रभु अबकी बार।


कोरोना को मारिए,


                    कर के अस्त्र प्रहार‌। 


 


हे लम्बोदर गजबदन,


                   हे सुत उमा- महेश।


हे गणपति हे विघ्नहर, 


                  हर लो सबके क्लेश।


 


            ।। राजेंद्र रायपुरी।।


विनय साग़र जायसवाल

ग़ज़ल ----


1.


रंग-ए-बहार दिल पे असरदार भी तो हो 


इस कैफ़ियत से कोई सरोकार भी तो हो 


2.


कैसे झुकें ज़मीन की जानिब बुलंदियां


बेदाग़ उनकी अज़्मतो -दस्तार भी तो हो


3.


हर बार सिर्फ़ तुझको पुकारा है इसलिये


तेरे सिवा हमारा मददगार भी तो हो 


4.


क्यों आइनों को लेके यहाँ तुम निकल पड़े 


यह शहर आइनों का तलबगार भी तो हो 


5.


कहते हैं शहर में उसे कुछ लोग बादशाह 


इससे किसी को सोचिये इनकार भी तो हो 


6.


सज जायेंगी अदब शनासों की महफ़िलें 


मीर-ओ-जिगर सा शहर में फ़नकार भी तो हो 


7.


फूले फलेगी फस्ल भी अम्न-ओ-क़रार की 


आपस में अब किसी को यहाँ प्यार भी तो हो 


8.


मुमकिन है सो न पाये सितमगर भी चैन से


ज़ंजीरे -पा में इस कदर झंकार भी तो हो 


9.


तेरी ख़ुशी को मोड़ दूँ कश्ती का रुख मगर


"साग़र "ये सोच हाथ में पतवार भी तो हो 


 


🖋️विनय साग़र जायसवाल


      बरेली, यूपी


सत्यप्रकाश पाण्डेय

चाहत का रुख मोड़ दिया..


 


स्नेह अपार किया जिनसे


वो इतने दूर चले गए हमसे


बहुत तलाशा फिर हमने


न मिल पाये वो फिर हमसे


 


अनुराग कोष लुटाके भी


हम प्रीति क्रीत नहीं कर पाये


व्यर्थ हुई मेहनत अपनी


विश्वास हृदय में न भर पाये


 


अवनि अम्बर सागर में


हर पल जिनका रूप निहारा


प्रकृति के फूल पत्रों में


सुरभित वदन दिखा था प्यारा


 


सुंदर सौम्य मुख मयंक


आलोक मान लिया जीवन का


भेजा है विधु ने आश्रय


समझ न पाये भ्रम है मन का


 


मधुर मनोरम चितवन


उसे ही प्यार समझ बैठें उनका


मृगतृष्णा से छले गये


रहस्य जान नहीं पाये मन का


 


कत्ल हुआ अरमानों का


हमें कैसे तड़पन को छोड़ दिया


विरह ज्वाला में झुलसे 


फिर चाहत का रुख मोड़ दिया।


 


सत्यप्रकाश पाण्डेय


संपूर्णानंद मिश्र

         खो देता है 


   बुद्धि, विवेक मनुष्य 


   प्राप्त करने में इसको‌ 


   रेत देता है गला संबंधों का भी


     बड़ी ताकत होती है पैसे में


      थमाई जाती है 


     असहाय बूढ़े हाथों 


    में लाठियां इसीलिए 


      ताकि कर दे


 एक हस्ताक्षर कांपते हाथों से 


बंट जाता है पिता पैसों की तरह 


नहीं मिल पाता है प्रेम किसी का 


नोचने लगते हैं अपने ही उसे 


मिली होती है माहुर प्रेम- बोल में


          सोखकर रस 


उड़ जाते हैं सारे पक्षी 


  अपने- अपने घोंसलों में


   एहसास होना चाहिए


     जहां उसे अपनों का 


 स्वार्थ की बू आने लगती है वहां 


 घुट घुट कर जीने लगता है 


       ढह जाती है 


उसकी उम्मीदें आखिरी


      आत्मजन के 


  स्वार्थ रूपी जे० सी० बी० से


  निकल जाना चाहता है शेष जीवन की तलाश में


ढूंढने लगता है मुट्ठी भर


     जमीन अपनी


    किसी बृद्धाश्रम में


खून से सींचता है जीवन भर


  जिस परिवार- वाटिका को 


      उजड़ता देखकर


अंधेरा छा जाता है सामने उसके 


     छल लिया जाता है 


     आत्मीय जन द्वारा   


    दम तोड़ देती हैं अन्ततः


   जीने की उसकी ख़्वाहिशें 


 


संपूर्णानंद मिश्र


प्रयागराज फूलपुर


सुनीता असीम

दिल हमारा आज हमको आजमाना होगा।


आरज़ू इसमें उठेंगी तो दबाना होगा।


 ***


दिख रहा जैसा नहीं होता है सदा वैसा ही।


हर बशर का इस जहां में इक फ़साना होगा।


***


दूसरों के हो रहें आगोश में उसकी तो।


सोचकर भी ये न तुमको फिर गवारा होगा।


***


जो मिटा दे दुख जमाने में सभी के सारे।


क्या कहीं ऐसा भी कोई तो तराना होगा।


***


प्यार होगा और हो बरसात खुशियों की बस।


सोचती हूँ मैं यही ऐसा जमाना होगा।


***


सुनीता असीम


संजय जैन

पूर्णिमा का चांद


 


कही दीप जल रहे है


तो कही छाय पढ़ रही है।


कही दिन निकल रहा है


तो कही रात हो रही है।


मोहब्बत करने वालो को


क्या फर्क पड़ता है।


क्योंकि उन दोनों के तो


दिल से दिल मिल गये है।।


 


पूर्णिमा के चांद का


कुछ अलग महत्व है।


चांदनी रात का भी 


विशेष महत्व है।


मिलते है जब वो


इस सफेद चांदनी 


चादर के ताले।


तो रात रानी के फूल


चारो तरफ खुशबू बिखेर देती है।।


 


देख तमाशा ये कामदेव भी


धरती पर मोती बिखर देते है।


और सच्चे प्रेमियों को


मोहब्बत के लिए बुलाते है।


और खुद कामदेव सारे बाग में सुंदरता फैलाते है।


और पूर्णिमा के चांद का 


रमणीय दृश्य सभी को दिखाते है।।


और लोगो को मोहब्बत करना सिखाते है। 


मोहब्बत करना सिखाते है।।


 


जय जिनेन्द्र देव 


संजय जैन (मुम्बई)


डॉ0 रामबली मिश्र

विश्व परिधि में घूमो नियमित


          मात्रा भार 13, 16


 


विश्व परिधि में भ्रमण कर,


अपना कर विस्तार निरंतर।


एक-एक को देखकर,


चलते रहना बनकर सुन्दर।


सबको अपना समझकर,


बढ़ते रहना बना धुरंधर।


करो कल्पना नित सुघर,


सदा घूमना बने मनोहर।


करना सबसे स्नेह,


अपने उर में सबको रखकर।


पावन भाव विचार से,


रहना सबका मन मोहित कर।


चेतन प्रभु सा नृत्य कर,


मोहित होना मेघ-श्याम पर ।


त्याग मंत्र का जाप कर,


चलो राम बनवासी बनकर।


सत्य अहिंसा प्रेम का,


कर प्रचार तुम बापू बनकर।


महा पुरुष की राह गह,


चलते रहना एक राह पर।


सदा विश्व पर ध्यान रख,


कर कल्याण दिखो शिवशंकर।


विश्व क्षितिज को चूम कर,


रहो केन्द्र पर घूम-घूमकर।


सदा पूछना हाल तुम,


सूरज चंदा तारा बनकर।


 


डॉ0रामबली मिश्र


हरिहरपुरी 


 


सुनील कुमार गुप्ता

       संस्कार


बचपन से मिलते सुसंस्कार,


मिटते सभी जीवन में-


मन छाये विकार।


सार्थक होता जीवन सारा,


महकता ख़ुशबू से-


सारा घर संसार।


संस्कारशील मानव पाता,


जीवन में अपने-


पग-पग ख़ुशियाँ अपार।


सद् संस्कारो से ही जीवन में,


महकती जीवन बगिया ,


मिलता अपनत्व-


अपनो का होता सत्कार।


सद् संस्कारो से ही तो साथी,


मिलता सम्मान-


सपने होते साकार।।"


 सुनील कुमार गुप्ता


डॉ निर्मला शर्मा 

वृद्धाश्रम


 जीवन के रंगमंच का 


आखिरी मंचन है वृद्धाश्रम 


जीवन काल का परिपक्व 


कालखंड है यह स्वशासन


क्या खोया ,क्या पाया, क्या था ?


जिसे मैं पूर्ण नहीं कर पाया


 एकाकी जीवन की चौखट पर


 मानसिक द्वंद्व का अंतर्द्वंद्व है 


गीता के ज्ञान का मिलता 


यहीं ज्ञान अवलंब है


 मानव जीवन के कष्ट से


 मिला मैं यहां जाना हर सत्य है 


विकल्पों का स्थान नहीं


 चलता यूँ ही जीवन है


 जीवन की पाठशाला का


यह भी मानो एक लंबा प्रसंग 


क्यों ??मैं प्रतीक्षारत हूं 


प्रतिध्वनियों के लिए


 नियम विज्ञान का 


जीवन में प्रतिध्वनित होता नहीं 


पानी के बुलबुले सी स्मृतियां 


बनकर मानो मिटती चली


 यादों की स्याही भी अब


 बह कर स्वतंत्र होने लगी


 चुभन भरी मन में


 कसक सी रहती है क्षण


  उसे जीवन का आधार बना


 उत्साह मैं स्वयं में भर लूं 


जीवन की आखरी शाम को


 जी भर कर जिंदादिली से जी लूं 


बढूं आगे अविरल 


क्यों देखूं पीछे मुड़कर 


खुशी पर किसी का पंजीकरण नहीं 


क्यों शुल्क भरुँ रोकर 


वृद्धाश्रम को कर्म क्षेत्र बनाकर


 क्यों ना चंद यादें सजा लूं 


अंतिम सफर में बढ़ते हुए 


स्वयं को प्रकाशमान सितारा बना लूं


 डॉ निर्मला शर्मा 


दौसा राजस्थान


Featured Post

दयानन्द त्रिपाठी निराला

पहले मन के रावण को मारो....... भले  राम  ने  विजय   है  पायी,  तथाकथित रावण से पहले मन के रावण को मारो।। घूम  रहे  हैं  पात्र  सभी   अब, लगे...