सुनील कुमार गुप्ता

सत्य तो सत्य साथी जग में,


यहाँ मानो या न मानो।


चल कर उस पथ पर साथी फिर,


स्वयं को तुम पहचानो।।


बेगानो की बस्ती में भी,


साथी अपनो को जानो।


संग चले न चले वो जग में,


उनको अपना तो मानो।।


धन-वैभव ही पल-पल साथी,


लुभाए इस मन को मानो।


भक्ति संग जीवन पथ पर फिर,


मिले असीम आनंद जानो।।"


 


 सुनील कुमार गुप्ता


राजेंद्र रायपुरी

मुखिया यदि रूठा है घर का,


                     कर लीजै मनुहार।


हॅ॑सी- खुशी से जी पाए वो,


                     बचे हुए दिन चार।


 


नैया यदि हम घर को समझें,


                    मुखिया है पतवार।


वही किनारे लाता नैया,


                 फॅ॑सी अगर मझधार।


 


दुनिया उनसे भी देखी है,


                      करें नहीं तक़रार।


और नहीं कुछ इस बेला में,


                     उसे चाहिए प्यार।


 


होगी उसको अति पीड़ा यदि,


                   मिला नहीं वो प्यार।


जिसकी आशा की थी उसने,


                    हरे-भरे परिवार।


 


            ।। राजेंद्र रायपुरी।।


सत्यप्रकाश पाण्डेय

आँखों के कोष हुए रीते 


हे माधव तेरे प्यार में


सबकुछ किया समर्पित


जो कुछ था संसार में


 


राधा बल्लभ मनमोहन


राधे से मत जाना दूर


कभी विरह से न तड़पूं


हमें न करना मजबूर


 


कालिंदी का ठंडा पानी


मेरा बदन जलाता है


श्याम सलोने तेरे बिना


पल भी रहा न जाता है।


 


जय श्री राधे रानी


 


सत्यप्रकाश पाण्डेय


डॉ0 हरिनाथ मिश्र

दूसरा अध्याय (श्रीकृष्णचरितबखान)-6


 


माया अहहि असत्य अधारा।


प्रभू जगत सभ जगह पधारा।।


    प्रभू एक कह तत्वहिं ग्यानी।


    रूप अनेक कहहिं अग्यानी।।


प्रभू आतमा ग्यानहिं रूपा।


जग आवहिं धरि रूप अनूपा।।


    सकल चराचर-जग-कल्याना।


    बिबिध रूप प्रभु आना-जाना।।


रहइ एक जुग अरु जुग दूसर।


रूप अनेक एक प्रभु ऊपर।।


    दुष्ट-दलन करि संतन्ह-सेवहिं।


    अद्भुत सुख प्रभु सभ जन देवहिं।।


तुरत पार भव-सिंधु अपारा।


गोखुर इव लइ प्रभू-सहारा।।


    भगत-हितैषी,जग-कल्यानी।


     प्रेमी-भगत सकल जग जानी।।


प्रभू-कृपा सत्पुरुषहिं पावैं।


नाथ अनुग्रह तिनहिं लुटावैं।।


   भगति क भावहीन जन लोका।


    झूठहिं कह पाए परलोका।।


मूरख-बुद्धिहीन नहिं जानै।


माया सतत बँधा नहिं मानै।।


   जदपि कि ऊँचे पद आसीना।


   भगति हीन नर गिरै मलीना।।


पर जाकर पद-पंकज प्रीती।


गिरै न ऊ नर रखु परतीती।।


दोहा-जग-रच्छक,सुख-धाम प्रभु,करैं सदा कल्यान।


        दानी औरु कृपालु प्रभु,सभ जन लखहिं समान।।


                        डॉ0 हरिनाथ मिश्र


                          9919446372


कालिका प्रसाद सेमवाल

हे मां जगदम्बा दया करो


********************


हे मां जगदम्बा दया करो,


हमें सत्य की राह बताओ,


कभी किसी को सताये नहीं,


ऐसी सुमति हमें देना मां।


 


 


हे मां जगदम्बा दया करो,


अपनी कृपा वर्षा करो,


हम अज्ञानी तेरी शरण में,


हमें सही राह बताना मां।


 


ये जीवन तुम्ही ने दिया है


राह भी तुम्हें बताओ मां


हो गई है भूल कोई तो,


राह सही बताओ मां।


 


कभी किसी का बुरा न करुं,


दया भाव से हृदय भरो,


मस्तक तुम्हारे चरणों में हो,


ऐसी बुद्धि हमें दे दो मां।


 


हे मां जगदम्बा दया करो,


जग में न कोई किसी जीव को,


पीड़ा कभी न पहुंचाएं मां,


ऐसी सब की बुद्धि कर दो।


********************


कालिका प्रसाद सेमवाल


रुद्रप्रयाग उत्तराखंड


डॉ0 हरिनाथ मिश्र

द्वितीय चरण(श्रीरामचरितबखान)-36


 


चौदह बरिस अवधि नहिं भारी।


हम बन रहब उमिरि भर सारी।।


     जौं प्रभु राम अवधपुर जावहिं।


     ऋषि-मुनि सबहिं सरग-सुख पावहिं।।


रामराज-सुख सभ जन पइहैं।


सभ जन मुक्त कष्ट होइ जइहैं।।


     प्रभु रामहिं खलु अंतरजामी।


     भूत-भविष्य सबहिं कै स्वामी।।


भरत-बिचार जानि प्रभु रामा।


आए तुरत बसिष्ठहिं-धामा।।


    सीष नवा प्रभु करहिं निवेदन।


    करहु नाथ अनुकूल भरत-मन।।


भरत सुबुध जानहिं मरजादा।


सोचि उच्च जीवन बहु सादा।।


     नीति-निपुन ऊ धूरि धरम कै।


      कुल-भूषन,प्रेमी सभ जन कै।।


जे कछु चाह भरत कै होई।


मम इच्छा मुनि जानउ सोई।।


    भरत मोर अति परम सनेही।


    मातुहिं-पितुहिं-बंधु-बैदेही।।


सभकर हित सोचै मोर भाई।


मिलै भरत बड़ पुन्य-कमाई।।


दोहा-होय न कोऊ जगत महँ,भरत समान दयालु।


        निष्ठावान-प्रतिग्यदृढ़,नेही, परम कृपालु।।


                    डॉ0 हरिनाथ मिश्र


                   


आशुकवि नीरज अवस्थी

2 मुक्तक बिरह वियोग श्रंगार


 


किसी की याद में बेचैन क्यूं यह नैन रहते है।


प्रतीक्षा में तुम्हारी क्यूँ तरसते नैन रहते है।


समंदर आँख है मेरी हजारों ज्वार दिल में है,


तुम्हारी प्रीति में नीरज बरसते नैन रहते है।।


कुहासा रात का घर में बहुत मद्धिम उजाला है।


मेरी तनहाइयों के अक्स को दर्पण ने पाला है।


जरूरी है चले आओ, सभी मजबूरियां छोड़ो,


मिलन की आस में प्रतिपल बरसते नैन रहते है।



आशुकवि नीरज अवस्थी


संपूर्णानंद मिश्र

   तोड़ देती है


   टूट जाता है


 आदमी भूख के ज़्वर से 


   यह ख़तरनाक है 


    शरीर के ज़्वर  


  से बहुत ज़्यादा


   उतर जाता है 


 सामान्य ज़्वर 


कुछ दिनों में ही 


हालांकि शरीर को


 यह भी तोड़ता है


लेकिन भूख का ज़्वर तो


 कोमल- चित्त पर 


  हमला करता है


अंतर्मन तोड़ता है


गहरा घाव कर देता है 


दिल और दिमाग दोनों में 


    नष्ट कर देता है विवेक को


संज्ञाशून्य हो जाता है व्यक्ति 


  पार कर जाता 


     लक्ष्मण- रेखा 


अपने ही सिद्धांतों की       


मुफ़लिसी बड़े- बड़े 


साधकों को तोड़ देती है


  धर्म और अधर्म को 


  नहीं चीन्ह पाता है


 सिद्धहस्त संन्यासी भी 


 नीलाम कर देता है अपनी आत्मा को सरे-आम


    पेट की आग बुझाने के लिए


    चक्रधर जैसा ज्ञानी


 आत्मबिक्रेता हो जाता है


   चापलूसी का नर्तन


 करने लगता है


 दर्पी सम्राटों के दरबार में


  ईश्वर से भी ज़्यादा


 दयालु बताता है उन्हें 


मिथ्या- प्रशंसा के हथियार से लूट लेता ऐसे नृपों को 


यह भूख सब कुछ कराती है सामुद्रिक आग से


 भी ख़तरनाक होती है यह


 खा जाती है अपने ही अंडे को भूखी नागिन 


  नहीं बिचार कर पाती है 


   जन्या हूं इसकी मैं ही 


    कोई ब्रहृमज्ञानी 


  सुदामा जैसा ही    


    बचा पाता है


 अपने को इस लपट से


   नारायण की इच्छा समझ 


    संतोष कर लेता है 


चावल के एक दाने से ही 


 


   संपूर्णानंद मिश्र


  प्रयागराज फूलपुर


संदीप कुमार विश्नोई रुद्र

अमर हुआ है नाम पूजता है जग सारा , 


श्याम राधिका की जोड़ी सबको लुभाती है। 


 


बाँसुरी बजाते जब मदन गोपाल प्यारे , 


यमुना के तट राधा दौड़ी दौड़ी आती है। 


 


कदम्ब के तरु पीछे छुप के वो देखती है , 


मोहन की मुरली को कोसती ही जाती है। 


 


अधर से मुरली को श्याम जी हटाते जब , 


मोहन के संग रास राधा जी रचाती है। 


 


संदीप कुमार विश्नोई"रुद्र"


दुतारांवाली तह0 अबोहर पंजाब


सत्यप्रकाश पाण्डेय

आँखों के स्वर्णिम सपने.......


 


झील सी गहरी आँखों में


मैंने अपना प्रतिबिंब निहारा


अथाह हृदय सरोवर में


मन मराल तिरता था प्यारा


 


कुछ झोंके तो ऐसे आये


तन मन झुलसा गये हमारा


कहीं शीतल पवन चली


पुलकित की जीवन की धारा


 


कहीं आघात प्रत्याघात


दौड़ पड़े ले छल की तलवार


गला काट मुहब्बत का


वह करने लगे वार पर वार


 


समझे जिसे शीतल छाया


ज्वालामुखी सा लावा निकली


नवनीत सी कोमलता से


जीवन शकट हमारी फिसली


 


प्राकट्य हुआ उसका तो


समझे जीवन होगा खुशहाल


धूमकेतु सी निकली वह


प्रवृति देख सत्य हुआ बेहाल


 


काश जाह्नवी सी धारा


बन करके दुःख संताप हरे मेरे


आँखों के स्वर्णिम सपने


वह बाला,शायद पूर्ण करे मेरे।


 


सत्यप्रकाश पाण्डेय


कुं जीतेश मिश्रा शिवांगी

कुछ पल ही सही मेरे प्रियतम तुम साथ हमारे रह लेते ।


कुछ सुनते तुम दुख दर्द मेरे कुछ अपने हिय की कह लेते ।।


 


तुम प्रेम की नदिया बनकर के मधुरिम सा राग बजा देते ।


मैं बहती कहीं लहर बनकर तुम खुद में हमें बसा लेते ।।


बनकर के अनोखा संगम ये परिभाषा प्रेम की गढ़ देता ।


मिलकर के हम इक दूजे से स्वछन्द धरा पे बह लेते ।।


 


कुछ पल ही सही मेरे प्रियतम तुम साथ हमारे रह लेते । (१)


 


पथरीली राहों पर चलकर गर कंटक भी आकर मिलते ।


वो साथ हमें पाकर पथ पर कंटक भी सुमन के ज्यों खिलते ।।


अर्धांग मेरे बनते यदि तुम अर्धांगिनी तेरी हो जाती ।


नयनों से अश्क बहें चाहे जो भी हो सितम मिल सह लेते ।।


 


कुछ पल ही सही मेरे प्रियतम तुम साथ हमारे रह लेते ।। (२)


 


लाते जो किनारे पर हमको इक पास किनारा कर लेते ।


हम हाथ थाम करके तेरा जीवन का सहारा कर लेते ।।


तुम बिखरो यदि तो सम्भालूँ मै इतना अधिकार हमें देना ।


इक दूजे के हो सहारे हम खुशियों को हमारा कर लेते ।।


 


कुछ पल ही सही मेरे प्रियतम तुम साथ हमारे रह लेते ।। (३)


 


कुं जीतेश मिश्रा शिवांगी


धौरहरा लखीमपुर खीरी


उत्तर प्रदेश


सुनीता असीम

देखा जो रौद्र रूप तेरा मैं सिहर गई।


करना नहीं था काम मुझे वो ही कर गई।


***


दिल तक उतर गई थी मुहब्बत की तिश्नगी।


लगती रही थी बात बुरी ये सुधर गई।


***


मुंह को फुला रखा था जमाने से आपने।


ये बात सोचने में मेरी शब सहर गई।


***


रिश्ता निभा रही थी मैं जी जान से सदा।


लेकिन मेरी कभी पे ही तेरी नज़र गई।


***


उस प्यार की चढ़ी थी ख़ुमारी घड़ी घड़ी।


वो रात से शुरू हुई सुबहा उतर गई।


***


सुनीता असीम


संजय जैन मुम्बई

न कोई मेरा है 


न ही में किसका।


आया हूँ में अकेला


तो अकेला ही जाऊंगा।


तो फिर क्यों किसी से


बनाये हम यहाँ संबंध।


सभी की सोच नहीं होती 


लोगो मेरे जैसी।


कितना जीना है हमको


और कब हम मर जायेंगे।


किसी को भी ये बाते 


जिंदगी की पता नहीं होती।


इसलिए तो हर इंसान 


जीवन जीता है मस्ती से।


और सारे यश आरामो को


भोगता अपने जीवन में।


यदि जीने मरने का समय


पता चल जाएगा उसको।


तो जिंदगी मस्ती से जीयेगा


या समय से पहले मर जायेगा।


विधाता ने यही तो राज


सभी से छुपा के रखा है।


और सभी की जिंदगी को


संसार में उलझा रखा है।


इसलिए उस चक्र में


सभी लोग जीते है।


और कुछ अच्छे तो 


कुछ बुरे कर्म वो करते है।


तभी तो स्वर्ग नरक को


सभी यही पर भोगते है।


जो समझ जाता है मानव धर्म 


वो अच्छे से जीवन जीता है।


तभी तो वो दान दया के 


 पथ पर चलता है।


और अपना अगला भव


यही पर निश्चित करता है।


और संसार में अकेला 


आता और जाता है।।


 


जय जिनेन्द्र देव 


संजय जैन मुम्बई


सुनील कुमार गुप्ता

 मान भी जाओ


 


कौन -अपना बेगाना यहाँ,


अब जीवन में -


जान भी जाओ।


अपने तो अपने होते साथी,


जीवन में अपने तुम-


साथी मान भी जाओ।


साथी साथी हो तुम साथी,


अब तो तुम-


सच मान भी जाओ।


अनबुझी पहेली है जीवन,


अब तो साथी -


इसको जान भी जाओं।


कल से आज और आज से कल,


बेहतर होगा जीवन में-


ये अब मान भी जाओ।


सद्कर्म और प्रभु भक्ति से,


मिलेगी शांति मन को-


साथी ये मान भी जाओ।।


 सुनील कुमार गुप्ता


 


डॉ0 हरिनाथ मिश्र

हाथ-पाँव ढीले हुए,हुआ शिथिल जब गात।


तन-मन निष्क्रिय देखकर, देता सुत आघात।।


 


जिन हाथों की अँगुलियाँ,पकड़ चला जो आज।


पानी देना दूर कल,सुने न वह आवाज़ ।।


 


समझ बोझ पितु-मातु को,वृद्धाश्रम में डाल।


मुक्त मातु-पितु से उसे,मिलता सुख तत्काल।।


 


वृद्धाश्रम में वृद्ध-जन,यद्यपि पाते तोष।


पर तज निज गृह-स्वजन को,रखते मन में रोष।।


 


जिसे बनाया था स्वयं,छोड़ वही घर-द्वार।


वृद्धाश्रम में आ बसे,सुत,तुमको धिक्कार।।


 


भिन्न-भिन्न परिवेश के,वृद्धाश्रम में लोग।


रहें यहाँ परिवार सम,मिल-जुल कर सहयोग।।


 


अंत समय में दे शरण,आश्रम ही भरपूर।


जिन्हें छोड़ परिजन गए,और देश को दूर।।


           


© डॉ0 हरिनाथ मिश्र


               


विनय साग़र जायसवाल

चाहिए कामयाब से पानी 


माँगिये जी जनाब से पानी


 


पानी लाने में देर पर डाँटा 


उसने फेंका इताब से पानी 


 


कल की नस्लों के वास्ते सोचें


खर्च कीजे हिसाब से पानी 


 


उनके गालों पे अश्क देखे हैं 


जैसे टपके गुलाब से पानी 


 


अपनी तासीर को ही खो बैठा


जब मिला है शराब से पानी 


 


प्यासी आँखों में तब चमक आई 


जब निचोड़ा तुराब से पानी 


 


ऐसी बस्ती में क्या रहें साग़र


जो मिले इंक्लाब से पानी 


 


🖋️विनय साग़र जायसवाल


तुराब--मिट्टी


ऋचा मिश्रा रोली

नई सृष्टि निर्माण करें 


...........................


 


मैं ही जननी , मैं ही ज्वाला 


मैं ही भद्र-कराली हूँ ,


मैं ही दुर्गा , मैं चामुंडा ,


मैं ही खप्पर वाली हूँ !


 


सृष्टि सदा हँसती आँचल में 


नर को देती काया हूँ ,


मुझसा कोई नहीं जगत में 


धूप कहीं मैं छाया हूँ ।


 


त्यागमयी , करुणा की मूरत ,


देवी भी ,कल्याणी भी ,


मुझमें है संसार समाहित,यह 


गंगा का पानी भी ।


 


अन्नपूर्णा ,लक्ष्मी मैं ही हूँ ,आ 


जग का कल्याण करें ,


जहाँ सदा खुशियाँ बसती हैं


नई सृष्टि निर्माण करें !


 


ऋचा मिश्रा "रोली" (बलरामपुर)


उत्तर प्रदेश .


डॉ0 हरिनाथ मिश्र

पंखुड़ी 


देख कर पंखुड़ी तरु-शिखा पर,


मन में क़ुदरत के प्रति प्रेम जागा।


भ्रम मेरे मन में जो पल रहा था-


तज के संसय तुरत मन से भागा।।


         आ गया अब समझ में मेरी,


         कि क़ुदरत की क्या है पहेली?


         सरिता की धारा-तरंगें-


         ज़िंदगी की हैं सच्ची सहेली।


        बोली-भाषा समझने लगा हूँ-


       तरु पे बैठा क्या कहता है कागा??तज के संसय....।।पर्वतों से उतरता ये झरना,


नृत्य-सङ्गीत की दास्ताँ है।


खुशबू-ए-ग़ुल जो पसरी यहाँ-


जान लो,नेक दिल गुलसिताँ है।


होले-होले ये बहती हवा भी-


कातती रहती जीवन का धागा।।तज के संसय.....।।


     बोली कोयल की मीठी सुहानी,


    रट पपीहा की पिव-पिव कहानी।


      बाग़ में गुनगुनाते जो भँवरे-


      उनमें सरगम की अद्भुत रवानी।


      पंछियों की चहक जो न समझे-


      उससे बढ़कर न कोई अभागा।।तज के संसय......।।


दौलते ज़िंदगी है प्रकृति जान लो,


बस ख़ुदा की नियामत इसे मान लो।


इबादत प्रकृति की,यही धर्म है-


इसकी सुरक्षा का ब्रत ठान लो।


मंदिर-मस्ज़िद यही तेरा गुरुद्वारा है-


प्रेमी क़ुदरत का होता सुभागा।।तज के संसय....।।


      चहक औ महक जो सुलभ है यहाँ,


      जल की धारा प्रवाहित तरल है यहाँ।


     खाते-पीते-उछलते सभी जंतु हैं-


     सबके जीवन में लय-ताल रहती यहाँ।


     प्रकृति की अमानत हैं वन-वृक्ष अपने-


     धन्य, इनसे जो अनुराग लागा।।तज के संसय......।।


प्रीति की रीति हमको सिखाते यही,


और हमको बताते डगर जो सही।। 


नेह जल से,पवन से,अगन से जो है-


वन्य प्राणी सिखाते हैं हमको वही।


सो रहा था हमारा जो मन आज तक-


ऐसी बातों के प्रति अब है जागा।।तज के संसय.....।।


           © डॉ0 हरिनाथ मिश्र


             


डॉ0 रामबली मिश्र

कितना कुण्ठित मानव लगता।


आत्म-प्रदर्शन की व्याकुलता।।


 


कितनी शोहरत उसे चाहिए?


छिपी हुई है घोर दीनता।।


 


परेशान है मानव इतना।


घेर चुकी है आज हीनता।।


 


पाने को सम्मान अपाहिज।


दिखा रहा असफल सक्रियता।।


 


मन से बौना दिल से कायर।


चाह रहा स्थायी संप्रभुता।।


 


मन से पिछड़ा बुद्धि अपावन।


दर्शाता अपनी निज शुचिता।।


 


कब कुण्ठा से मुक्ति मिलेगी?


कब आयेगी मन में मधुता??


 


आत्मतोष कबतक आयेगा?


कब जागेगी आत्म-तृप्तता??


 


आत्म-तृप्तता बिना असंभव।


आत्म-प्रदर्शन की अशुद्धता।।


 


डॉ0 रामबली मिश्र हरिहरपुरी 


डॉ बीके शर्मा

कौन हो तुम ?


जो मेरे गीतों में आती हो


मैं लिखता हूं गजल


तुम शब्द मेरे बन जाती हो


 


जब जब करता आंखें बंद


तुम कविता बन


दिल में उतर जाती हो 


कौन हो तुम ?


 


यह निष्फल शोध मेरा 


धिक् जीवन !


जो तुम्हें पहचान ना पाया 


है उर में छिपा एक भेद 


जिसे मैं खोल ना पाया 


फिर क्यों जीवन का हर क्षण 


तुम मेरे साथ बिताती हो 


कौन हो तुम ?


 


जो जुड़ी हो तुमसे 


नहीं भाग्य रेखाएं वे मेरे कर में 


बोध नहीं मुझको वह क्षण


उतर गए जब तुम मेरे उर मैं 


मैं हूं निरर्थक !


जो पाया जीवन भर खोया 


तुम आती हो क्यों 


पावन करने को पत्थर 


इस कंक्रीट उर में तुमने 


बीज यह कैसा बोया


फिर भी ऐसे बज्र कवि की


तुम पंक्ति क्यों बन जाती हो 


कौन हो तुम ?


जो मेरे गीतों में आती हो |


 


डॉ बीके शर्मा


उच्चैन भरतपुर राजस्थान


विनय साग़र जायसवाल

ग़ज़ल


किस कदर प्यार भरा है मैं ये मंज़र देखूँ


आ ज़रा पास तेरे दिल में उतर कर देखूँ


 


शेर कहता है भला कैसे सुखनवर देखूँ 


आ ग़ज़ल तुझको तरन्नुम में सजाकर देखूँ


 


तू जो कहता है तेरा दिल है समुंदर जैसा


माँग कर प्यार तेरे दिल का समुंदर देखूँ 


 


बावफ़ा है कि दग़ाबाज़ मुक़द्दर निकले 


आज़माकर मैं तुझे अपना मुक़द्दर देखूँ 


 


लाख किरदार बदलने की क़सम खाले यह


कैसे बदलेगा ज़रा रंग ये रहबर देखूँ


 


घर से निकला हूँ सफ़र का है इरादा लेकिन


कौन देखेगा मेरी राह पलट कर देखूँ


 


बाँधकर घर से चला हूँ मैं क़फ़न को सर पर


ज़ोर तेरा भी ज़रा आज सितम गर देखूँ


 


माँ की ममता है दुआओं का असर है *साग़र* 


और फिर साथ तुम्हारा है सफ़र कर देखूँ 


 


🖋️विनय साग़र जायसवाल


डॉ. निर्मला शर्मा 

" ट्वीट वार "


आधुनिक युग का यह देखो, नया बना हथियार। 


अपनी जान बचाओ भाई, हो ना जाए तुम पर वार। 


ध्वनि से तीव्र गति है इसकी, चलता वेग सवार ।


आधुनिक युग का है भाइयों, यह धारदार हथियार।


 इतिहास के पन्नों में छिपे हैं,अनेक युद्धों के सार।


 होती थी गोलाबारी तब ,चलते शस्त्र अनेक प्रकार।


 ज्यों ज्यों पनपी मानवीय सभ्यता, बने विविध संचार।


 धरती पर साधनों का प्रतिदिन, होता नया विचार।


 लैटर बम फूटते सभा में, हुए हताहत सभी कुमार।


 यह कैसा अजूबा भाई!!, बिन धुएँ कैसे बना गुबार ।


 ट्वीट वार है शस्त्र अनोखा ,जिसका है अचूक सा वार।


 जिस पर साधा जाए निशाना ,लुट जाए उसका संसार। बुद्धिजीवी वर्ग का है यह ,ब्रह्मास्त्र सा अभेद वार ।


 कितना भी ताकतवर हो शत्रु, इसे ना सकता वह नकार सोशल मीडिया की स्थली पर, सबसे असरदार हथियार।


 पड़ जाए मुश्किल भारी गर ,अवश्य करो इसका व्यवहार तुरत हटे विपदा पल में ही , सपना हो जाए साकार।


 


 डॉ. निर्मला शर्मा 


दौसा राजस्थान


नन्दलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर

पैदा होता जब इंसान खुशियों


की होती बान।


जागते रिश्तों नातों


के अरमान।।


किसी की आँखों का तारा 


किसी का राज दुलारा ।।        


 


किसी का आरजू आसमान 


किसी के बुढ़ापे कीदिशा दृष्टि आसरा सहारा नन्ही सी


जान ।।     


 


घर, समाज ,कुल ,खानदान


के ना जाने कितने अरमान ।


बचपन जहाँ के अरमानो से अनजान मुस्कान ।।


हर गम से बेगाना जिंदगी का अलग अंदाज़।।


 


बचपन कब बीत गया पता ही नहीं चला किशोर की शोर नाम


रौशन करने का जोर ।।        


 


जो कुछ हासिल करना था हासिल कर जहाँ की हद की हद हैसियत में शुमार ।।  


 


अपने अंदाज़ आगाज़ का


जज्बा नौजवान।।


 


हर रिश्ते नातों के ख्वाबों की 


हकीकत नूर नज़र नाज़।।


 


जहाँ में तारीख का एक किरदार।।     


 


 


वक्त की अपनी रफ्तार गुजर गया बचपन का मासूम मुस्कान।।


किशोर का शोर जवानी की रवानी बीती आ गयी जिंदगी की साँझ।। तमाम रिश्ते नातों घर 


परिवार के नाज़ नखरों की जमी आसमाँ जहाँ । फुर्सत नहीं मिलती


लम्हे भर की दुनियां की शिकायते तमाम ।। अब तन्हा खुद की जिंदगी


के सफ़र का करता हिसाब किताब ।। जिंदगी में कुछ खोने पाने का अंजाम । जहाँ जिसके नीद जागने 


से जागती आज लम्हों भर के लिए करता प्यार का इंतज़ार।।


 


जिंदगी के सफ़र में बुढापा एक


पड़ाव शायद जिंदगी के मिलते


बिछड़ते रिश्ते नातों का अभ्यास


एहसास।।


 


नन्दलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर


नूतन लाल साहू

कर्म ही श्रेष्ठ है


सतपथ ही,जीवन का पथ हो


वेद मंत्र गुंजे,हर उर में


भक्ति के मंदिर में,श्रृद्धा का दीप जला लो


जीवन में खुशियों के,गुलाब खिलेंगे


जिस तरह मूर्ति को, दुध पिला रहे हैं


तरह तरह के, छप्पन भोग लगा रहे हैं


उसी तरह, गरीब की झोपड़ी में भी जाओ


उसे इसकी जरूरत कहीं ज्यादा है


सतपथ ही जीवन का पथ हो


वेद मंत्र,गुंजे हर उर में


भक्ति के मंदिर में, श्रृद्धा का दीप जला लो


जीवन में खुशियों के गुलाब खिलेंगे


सूर्य का रथ, रोज चलता है


साथ किरणों के रोज निकलता है


तू भी हंसता चल, हंसाता चल


लुटाता चल, हंसी के पल


सतपथ ही जीवन का पथ हो


वेद मंत्र गुंजे हर उर में


भक्ति के मंदिर में, श्रृद्धा का दीप जला लो


जीवन में खुशियों के गुलाब खिलेंगे


समय से हार न जाओ,जीत बनकर मुस्कुराओ


पंछियों से,प्रेरणा लेकर भरे ऊंची उड़ाने


श्रृद्धा लगन समर्पण भाव से कर्म करो


काल चक्र को भी,भेद पाओगे


सतपथ ही जीवन का पथ हो


वेद मंत्र गुंजे हर उर में


भक्ति के मंदिर में, श्रृद्धा का दीप जला लो


जीवन में खुशियों के गुलाब खिलेंगे


एकलव्य जैसा,दृढ़ निश्चय हो


भक्त प्रहलाद सा रखो,अटल विश्वास


जब तक चांद सितारे,नभ में रहेगा


युगों युगों तक चलता रहेगा,तेरा नाम


सतपथ ही जीवन का पथ हो


वेद मंत्र गुंजे हर उर में


भक्ति के मंदिर में, श्रृद्धा का दीप जला लो


जीवन में खुशियों के गुलाब खिलेंगे


 


नूतन लाल साहू


सुनील कुमार गुप्ता

   आशा-निराशा


 


बहुरंगी इस दुनियाँ में,


देखा अज़ब तमाशा।


अपनो संग चले जग में,


साथी मिली निराशा।।


देकर ख़ुशियाँ जीवन में,


कुछ तो उभरी आशा।


मिले अपनत्व का संसार,


फिर छाये न निराशा।।


मिले मंज़िल अपनी यहाँ,


बनी रहे ये आशा।


छाये गम की बदली भी,


मन में न हो निराशा।।


 सुनील कुमार गुप्ता


 


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