दूसरा अध्याय(श्रीकृष्णचरितबखान)-7
बड़-बड़ बिघन भले पथ आवैं।
कुचलत तिनहिं भगत चलि जावैं।।
रच्छक-कवच नाथ तुम्ह तिन्हकर।
जल-असीष प्रभु बरसहिं उन्हपर।।
नाथ सच्चिदानंद स्वरूपा।
परम दिब्य मंगल कै रूपा।।
प्रभू बिसुद्ध सत्वमय जाना।
करहिं नाथ जीवहिं कल्याना।।
तुमहिं अहहु प्रभु जगत-बिधाता।
सत्वरूप तव भेद मिटाता।।
दृस्यमान तीनिउ गुन लोका।
सत्य अहहु जग करउ अलोका।।
तीनिउ गुन नहिं सकहिं बताई।
नाथहिं तोर सत्य प्रभुताई।।
बिना बिसुद्ध सत्वमय सेवा।
सत्य स्वरूप ग्यान नहिं लेवा।।
करै जे सुमिरन मंगल नामा।
किर्तन करै नाथ बलधामा।।
जे रत सतत कमल-पद-सेवा।
जन्महिं-मरन-मुक्त-फल लेवा।।
तुम्ह दुखहर्ता प्रभु परमेस्वर।
महि तव कमल-चरन अखिलेस्वर।।
प्रभु तुम्ह लेइ जगत अवतारा।
हरेयु सकल महि-पाप अपारा।।
धन्य भए हम देवन्ह इहवाँ।
लखि पद-कमल-चिन्ह रह जहवाँ।।
तुमहिं त नाथ अजन्म-अनंता।
लीला बिबिध करहु भगवंता।।
मत्स्य-ग्रीवहय-कच्छप-रामा।
परसुराम-बामन बलधामा।।
हंस-बराह-नृसिंह अवतारा।
धारि रूप यहि जगत पधारा।।
रच्छा किए तुमहिं भगवाना।
तीनिउ लोक देव सभ जाना।।
अबकि बेर प्रभु इहँ अपि आवहु।
पाप मही कै आइ भगावहु।।
हे जदुनंदन तुम्हरो बंदन।
हम सभ करहिं सुनउ जगनंदन।।
दोहा-परम भागि तव मातु हे, देवकि तें कह देव।
बिरजहिं प्रभु तव कोंख महँ,कंसहिं भय नहिं लेव।।
कंस अहहि मेहमान बस,कछुक दिवस जग माहिं।
जनम लेइ तव सुत इहाँ,तुरतै बधिहहिं ताहिं।।
अस कहि ब्रह्मा-संकरहिं,गए तुरत सुरलोक।
सकल देव लइ साथ मा, देवकि करत असोक।।
डॉ0हरि नाथ मिश्र
9919446372