नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर

जवानी की रवानी दीवानी 


मस्तानी होती है।


लगा दे आग पानी में जवानी


आग होती है।।


जवानी दरिया समंदर,तूफां


घूम जाए जिधर तूफानी


होती है।।


खुदा भी खौफ़ज़ादा जवानी


के तारानो से कहि बे राग मौसम


कभी मौसम से बेगानी होती है।।


परवाह नहीं कश्ती किनारों का 


खुद के किनारों की हद


हस्ती होती हैं।।


जवानी की मौत भी सजदा करती


बदल दे वक्त किस्मत को जवानी


वो कहानी होती है।।


 कभी वो तोड़ती पत्थर 


कभी निकलती वो निर्झर


गीतों की धुन में जवानी


नई आन्दाज होती है।।


पसीनों में नहाईं मेहनत 


मोती की चमक 


महक जवानी की कहानी


जुबानी होती है।।


चाहतों की मंज़िलों का अफसाना


जहाँ की मजलिसों महफ़िलों की


अदा आशिकी जवानी अकिकत


आम होती है।।


सुबह सुर्ख सूरज अपने रौ में 


चलती जवानी अदाओं की नाज़


होती है।।


निकली नहीं चिंगारी ना


शोला ज्वाला आई नहीं


जवानी सुबह की शाम आम


होती है ।।


चलते वक्त रफ्तार की धार


बदल दे तरानों से तारीख जवानी


जज्बों की वो जाम होती है।। जवानी एक नशा बिन शराब 


शबाब बहकती है अपनी धुन में


महकती है जवानी अपनी आरजू


का चमन बहार होती है।।


इश्क है, अंजाम है,


आगाज़ है ,आवाज़ है ,जवानी


जिंदगी के सफ़र की जान है।।


जवानी जूनून का पैमाना


शुरुर शान की मंज़िल का मैख़ाना


जवानी मधुमास की बयार होती


है।।


मासूम की चाहत ,नादां की


राहत ,जवानी पत्थर फौलाद होती है।। परवानों सी जलती मकसद की मोहब्बत शमां के लौ पे मरती है जवानी की अपनी पहचान होती है।।


जवानी चुनौती है जवानी


चाहत की चाशनी जहाँ आई


नहीं वहां अंधेरो की शाम होती है।। 


आई जहाँ छायी जहाँ सावन 


की रिमझिम फुहार शोला शैलाभ


जवानी वक्त बदलती तलवार होती है।।


 


नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर


विनय साग़र जायसवाल 

हम भी ज़िन्दा हैं यहाँ एक फ़साने भर तक 


याद रख्खेगा हमें कौन ज़माने भर तक


 


अब किताबों में भला कौन खपाता ख़ुद को 


पूछ होती है इन्हें घर में सजाने भर तक


 


जिसको रोते हुए यह उम्र हमारी गुज़री


वो चला साथ मगर रस्म निभाने भर तक 


 


फिर पलट कर तो कभी हाल न पूछा हमसे


उसने साधा था हमें एक निशाने भर तक 


 


 


जानते हैं कि मनाऊंगा क़सम दे दे कर 


नाज़ होते हैं फ़कत मुझको सताने भर तक 


 


अब तो गाँधी ओ जवाहर पे सियासत देखो


याद करते हैं उन्हें नाम भुनाने भर तक 


 


उसके हाथों का रहे सिर्फ़ खिलौना *साग़र*


खेल खेला था कोई ख़ुद को हँसाने भर तक


 


🖋️विनय साग़र जायसवाल 


बरेली


डॉ0 हरिनाथ मिश्र

दोहा गीत (चितचोर)


नैन मटक्का मार के,कहाँ गए चितचोर,


रही जोहती रात भर,देख हो गई भोर।


नींद बिना रजनी गई,रही ताकती राह-


सुन साजन पाषाण-हिय,मन-उलझन घनघोर।।


 


मन उदास सुन लो सजन,नहीं चित्त में चैन,


बिना तुम्हारे साँवरे, कटे नहीं दिन-रैन ।


दत्तचित्त हो एकटक,जोहूँ तेरी बाट-


घर आ जा अब लौट के,हे निर्मम चितचोर।।


 


तेरा मेरा साथ तो जन्म-जन्म का साथ,


सौंपा जीवन है तुम्हें, दे हाथों में हाथ।


ऐसे मत रूठो बलम,तुम हो प्राणाधार-


बीते पल को सोच कर,मन हो भाव-विभोर।।


 


लगे चाँदनी चाँद की,जलती सी रवि-धूप,


कुसुम-सेज अब डस रही,धर नागिन का रूप।


दे न सके आराम अब,शीतल चंदन-लेप-


गले मिलो आ शीघ्र ही,हे मेरे चितचोर।।


 


विरह-अगन की वेदना,देती पीर अपार,


चित बहलाती मैं फिरूँ, फिर भी हो न सुधार।


जीवन-पथ लगता कठिन,सूना भी संसार-


राधा कैसे रह सके,बिन निज नंदकिशोर??


          ©डॉ0हरि नाथ मिश्र


            


डॉ० सम्पूर्णानंद मिश्र 

आज इस‌


 प्रगतिशीलता


‌ के दौर में 


मनुष्य संघर्षशील है ‌


विकसित ‌नहीं 


विकासशील ‌है


 भीतर की बुराइयों 


से‌ लड़ता है


 सौ-सौ बार हारता है


     टूटता है 


खिजलाता है


चीखता है 


लाल- पीला ‌होता है


 रोज़ रोज़ उसे 


कूटता है


पीटता है 


चले जाने को 


कहता है


वह ढींठ है


 निर्लज्ज ‌है


बेहया ‌है 


बिना बुलाया ‌


मेहमान है ‌


न‌ ही उसके भीतर


कोई ईमान ‌है 


अच्छा-खासा पड़ा है


लेकिन मेरी आंखों में 


मिर्चों की तरह गड़ा है


जाने ‌का नाम‌ ही 


नहीं लेता 


वज्र बेहया‌ है 


जितना काटो 


उतना ही बढ़ता है 


काटते-काटते 


थक गया हूं 


जिंदगी से ‌तंग


 आ गया ‌हूं‌ 


 आज मैं 


सुना ‌हूं 


अच्छी तरह ‌गुना हूं 


कि इसकी जड़ें ‌


बहुत गहरी ‌हैं 


यह केवल भारत में


ही नहीं 


संपूर्ण विश्व में ‌


भी जमीं ‌है 


 


 


डॉ० सम्पूर्णानंद मिश्र 


प्रयागराज फूलपुर


सत्यप्रकाश पाण्डेय

अनमोल धरोहर जीवन ईश्वर की


क्यों नफरत की अनल जला रहे


करना इससे कल्याण जगत का


क्यों ढाह ईर्ष्या से गढ़ हिला रहे


 


यदि हर न सके संताप किसे के भी


तो दुःख देने का भी अधिकार नहीं


मानव मूल्यों की कब्र खोदकर के


लगता मानवता से तुम्हें प्यार नहीं


 


पथ छोड़ दिया दिग्भ्रमित होकर 


हे नर अमानवीयता की राह चला 


शान्ति खो दई भौतिक लिप्सा में


मूरख बन पग पग पर गया छला


 


करना ही है कुछ काम जगत में


मानव ऐसी कोई करनी कर जा


याद करे तुम्हें यहां सारी दुनियां


ऐसी सुरभि से यह जग भर जा।


 


सत्यप्रकाश पाण्डेय


डॉ0 रामबली मिश्र

प्रेम गंग में डूब


जाना कभी न ऊब 


प्रेम दीवाना बन चलो।


 


करो सभी से प्यार 


कर सबका सत्कार 


प्रेम गीत गाते रहो।


 


करो प्रीति रसपान 


कर सबका सम्मान


सबके दिल को जीत लो।


 


चलो प्रेम के पंथ 


पढ़ो सदा सद्ग्रंथ 


प्रेम-पाठ करते रहो।


 


रच पावन इतिहास 


करो सुखद अहसास 


जीवन जीना सीख लो।


 


जीवन का सिद्धान्त 


मानवता का प्रान्त 


मानव बन चलते रहो।


 


रहे विवेकी ज्ञान 


रख दीनों पर ध्यान 


नैतिकता को खोज लो।


 


करना परोपकार 


त्यागो दुष्टाचार 


साधु पंथ पर नित चलो।


 


सदा प्रेम संवाद 


रहो सदा आवाद 


सदा जगत में सुख करो।


 


मत करना प्रतिकार 


करो प्रेम स्वीकार 


सुगम राह गढ़ते चलो।


 


 डॉ0 रामबली मिश्र हरिहरपुरी 


 


सुनीता असीम

है क्यूं बीच में अपने झगड़ा लगा।


 


बुरे बोल से जख्म गहरा लगा।


 


****


 


जो बाजार में भीख था मांगता।


 


सभी को घराने का खासा लगा।


 


****


 


कभी फूट पड़ती दिखाई न दी।


 


पलटता सा दुश्मन को पासा लगा।


 


****


 


ज़रा चेहरे की बढ़ी जो चमक।


 


तो बदहाल भी आज संवरा लगा।


 


****


 


नहीं मानते बात बच्चे तभी।


 


पिता ज़िन्दगी से वो हारा लगा।


 


****


 


सरे राह बदनाम जो हो गए।


 


तभी पूछना बोल कैसा लगा।


 


****


 


जो जैसा लगा कह दिया था वही।


 


कहेंगे न ऐसा कि वैसा लगा।


 


****


 


सुनीता असीम


संजय जैन मुम्बई

देखो देखो लोगो बैंकों का 


क्या हाल हो गया।


लोगो के पैसे जमा होते 


हुए भी बैंक कंगाल हो गया।


माध्यम वर्ग वालो की कमाई 


व्यापारी लेकर फरार हो गया।


और चूना बैंकको के साथ ही 


मध्यमवर्गीयों को लगा गया।


देखो देखो लोगो बैंकों का


क्या हाल हो गया।।


 


बहुत देखे अमीर जादे जो


बैंक में पैसे जमा करते नहीं।


पर पैसा बैंकों से लेकर


खुदको दिवालिया कर लेते है।


और बैंकों का पैसा फिर


कभी वापिस करते नहीं।


जिससे बैंक के साथ ही


जमाकर्ताओ को डूबा देते है।


और खुदका पैसा लेने


बैंकों के चक्कर लगाते है।


जिसके चलते कुछ तो 


भगवान को प्यारे हो जाते है।


और कुछ जमाकर्ता 


जीते जी मर जाते है।।


 


वक्त आ गया है लोगों


जरा संभाल जाओ तुम।


मेहनत की कमाई अपनी


मत जमा करो अब बैंकों में।


रखो सुरक्षित अपने घरों में


अपना अपना धन तुम लोगो।


ब्याज के थोड़े लालच 


मत फसो अब तुम लोगो।


यदि जमाकर्ता ऐसा मिलकर


 तुम सब कर जाओगे।


तो बैंकों की कार्य प्रणाली 


बिल्कुल बदल जाएगी।


फिर कर्जा लेने उद्योगपति 


मध्यमवर्गीयों के पास आएंगे।।


फिर कहंगे लोग


देखो देखो बैंकों का 


क्या हाल हो गया।


पूरा देश खुशाल हो गया।।


 


जय जिनेन्द्र देव


संजय जैन मुम्बई


सुनील कुमार गुप्ता

सपनों की उड़ान


सपने तो सपने है-साथी,


कुछ सार्थक-कुछ निरर्थक-


सपनो की उड़ान बाकी।


देखते रहे सपने साथी,


भरते रहे उड़ान-


उसमे भी अपनी आन बाकी।


सपने होगे तभी तो साथी,


वो अपने होगे-


उन्ही में शान है -बाकी।


सपनों में ही बसा है साथी,


जीवन का सम्मान-


मिल करेंं पूरे उड़ान है-बाकी।


सपने हो जाये सच साथी,


सच का हो साथ-


बस सपनो की उड़ान बाकी।


सपने तो सपने है -साथी,


कुछ सार्थक-कुछ निरर्थक-


सपनों की उड़ान बाकी।।


 


सुनील कुमार गुप्ता


विनय साग़र जायसवाल

उनसे मिलने का सिलसिला होता


बाग़ दिल का हरा भरा होता


 


मुस्कुरा कर अगर वो कह देते


ग़म का सागर भी पी लिया होता


 


अपने वादे की लाज रख लेते


कोई शिकवा न कुछ गिला होता


 


चुगलियाँ कर दीं इन निगाहों ने


वर्ना हर सू न तज़किरा होता


 


क़त्ल होना ही था मुझे क़ातिल


तू न होता तो दूसरा होता


 


चैन आता मरीज़े-उल्फ़त को 


कोई दस्त-ए-दुआ उठा होता


 


हम भी मंज़िल नशीन हो जाते 


राहबर कोई गर मिला होता


 


मुद्दतों क्यों जलाते दिल *साग़र*


हमको अंजाम गर पता होता


 


 


🖋️विनय साग़र जायसवाल


डॉ0 रामबली मिश्र

प्रेम की पराकाष्ठा


 


सुन्दर सृजन 


श्लील वदन 


पावन मन 


सात्विक धन 


आत्मिक उद्गार 


धार्मिक बहार 


शुद्ध भावों की बयार 


दिलों पर नैतिक अधिकार 


समर्पण 


निष्कामीकरण 


आत्मदर्पण 


हार्दिक आकर्षण 


नि:स्वार्थता


परमार्थता 


व्यापकता 


सार्वभौमिकता 


ज्ञान-वौराग्य का अधिगम 


सद्भावों का संगम 


भक्ति का आगम 


इति शुभम


एकाकृति 


नैसर्गिक प्रकृति 


एक ध्यान 


संपूर्ण सम्मान 


समादर 


स्वाति नक्षत्र का वादर 


जीवनाधार 


संगीत का शिष्टाचार 


मनोहर सुर-ताल 


शुभ काल 


परम शान्ति 


पीत-क्रांति 


सर्वसिद्धि योग 


निरोग 


आकर्षण 


परम हर्षण 


सहनशीलता 


शीतलता


मृदुता 


अमृता 


सबका श्रेष्ठ भण्डारण 


प्रेम का दिव्य उच्चारण।


 


डॉ0 रामबली मिश्र हरिहरपुरी 


संदीप कुमार विश्नोई

मथुरा में पहुँचे हैं मोहन के संग दाऊ , 


कुंजर से लड़े तब मदन मुरारी है। 


 


कोमल कमल कर गज दाँत वो उखाड़े , 


साँवले सलौने की तो महिमा ही न्यारी है। 


 


लीद फेंकने लगा वो हटता है पीछे पीछे , 


चीख तो निकल गई सिंधुर की सारी है। 


 


फेंक दिया करी नभ मोहन उठा के झट


मोहन की लीला पर जग बलिहारी है। 


 


संदीप कुमार विश्नोई


दुतारांवाली तह0 अबोहर जिला फाजिल्का पंजाब


सुषमा दीक्षित शुक्ला

दोस्त खुद से मोहब्बत किया कीजिये ।


 


जिंदगी को न यूँ ,बददुआ, कीजिये ।


 


बेख़ुदी में क़दम डगमगा गर गये।


 


फिर से उठके सम्भलकर चला कीजिये ।


 


जिंदगी खौफ़ में ना गुज़र जाये यूँ ।


 


हक़ की ख़ातिर ख़ुदी से लड़ा कीजिये ।


 


खुद से रूठो नही ख़ुद को कोसों नही ।


 


खुद से नफ़रत कभी ना किया कीजिये ।


 


जिंदगी है हंसीं है ये दुनिया हंसीं ।


 


इसको जन्नत के माफ़िक जिया कीजिये ।


 


हर किसी के जनम में है मक़सद छुपा ।


 


फ़र्ज पूरे सनम बावफ़ा कीजिये ।


 


नाम रोशन रहे जिससे माँ बाप का।


 


काम ऐसे हमेशा किया कीजिये ।


 


ज़िन्दगी इक डगर है गुलों खार की ।


 


,सुष ,मगर इसको जी भर जिया कीजिये ।


 


सुषमा दीक्षित शुक्ला


डॉ.सरला सिंह स्निग्धा

माँ का आँचल


             ************


माँ तेरी आँचल से प्यारा


  जग की कोई छाया नहीं।


      माँ प्रेम के तेरे बराबर ,


          ना प्रेम ही पाया कहीं ।


निस्वार्थमय तेरे बराबर,


   पाया किसी को भी नही ।


     चरणरजकण के सदृश,


        जग का कोई हीरा नहीं ।


ईश्वर से पहले तू ही पूजित,


   तुझसे बड़ा कोई भी नहीं ।


     त्रिदेव खेलें आँचल में तेरे,


       माँ तेरी तो महिमा है बड़ी।


 


डॉ.सरला सिंह "स्निग्धा"


दिल्ली


दयानन्द त्रिपाठी व्याकुल

विस्तार चाहने वाले अक्सर 


सुख को ही खो देते हैं


कहां - कहां ढूंढूं मैं तुमको


आखिर किसको सुख देते हैं।


 


सुख आखिर तूं है कहां


तेरा कहां ठौर ठिकाना है


तूं नहीं मिला मुझको अब तक 


क्या तेरा ताना - बाना है ?


 


ढूंढा बन्द दिवारों में


गलियों और चौबारों में


बने कई तल के मकां देखे


नहीं मिला तूं धनवानों में।


 


सब तुझको ही ढ़ूढं रहे थे


आखिर तुझसे ही पूछ रहे थे


क्या सुख को तुमने देखा है


आखिर सुख की क्या रूपरेखा है‌।


 


मैं तो दु:ख का साथी हूं


हर रोज मुझी से मिलता है


उम्र के अंतिम पड़ाव पर 


धूंधली सी तस्वीर तुझी से मिलता है।


 


मैंने भी अब ठाना है


सुख के रहस्य को खोलूंगा


बचपन में संग खेले थे हमने


फिर अब मैं संग खेलूंगा।


 


पर कैसा ये खेल निराला है


अब सबका बोल बाला है


सुख जाने कहां तूं चले गये 


आखिर तुझसे भी ठगे गये।


 


तेरे लिए दिन-रात एक करूं


तेरी तलाश जारी है


कल्मष हो या हो अपयश


अब मेरा भी प्रयास जारी है।


 


निद्रा की मादकता से जागा हूं


सुख के सपनों से दो चार हुआ


तेरे ही ऐसी प्रतिकारों से


व्याकुल छलने से दो चार हुआ।


 


पड़ा हुआ है जिन्दा शव


जीवन की जड़ता का अनुभव


सुख राह निहार आंखें पथराई


कुटिल चालों से आंखें भर आईं।


 


सत्य और शुचिता को देखो


यदि सब अपना लेते हैं


जो मिला मुझे संतोष हुआ


दु:ख ही सुख है सुख ही दु:ख है


तेरा चलना भी चुपचाप हुआ।



    -दयानन्द त्रिपाठी व्याकुल


      महराजगंज, उत्तर प्रदेश।


 डॉ० प्रभुनाथ गुप्त विवश

मैं किसन भक्ति का मीरा हूँ


 


ना भक्तिकाव्य का सूरदास 


ना सन्तकाव्य का कबिरा हूँ, 


मैं रीति मुक्त का घनानन्द


मैं किसन भक्ति का मीरा हूँ। 


 


     ना रीतिकाल के लालबिहारी 


     ना श्रीपति, भूपति, सोमनाथ 


      ना भूषण, देव, ना मतीराम 


      ना चिन्तामणि ना रघुनाथ, 


 


मैं बैठा विकल पपीहा हूँ 


मैं रमता मस्त फकीरा हूँ, 


मैं रीतिमुक्त का घनानन्द 


मैं किसन भक्ति का मीरा हूँ।


 


      हे मन! तुम ना ठहरो 


      नभ के चन्द्र सितारों में 


      ना बसन्त की मादकता में 


      ना सावन के मन्द फुहारों में,


 


मेरा पतझड़ सा जीवन है


मैं टूटा हस्त लकीरा हूँ,


मैं रीतिमुक्त का घनानन्द 


मैं किसन भक्ति का मीरा हूँ। 


 


         ना पुष्प की पंखुड़ियों में 


         ना घनश्यामल अलकों में


         मेरा अनुराग छिपा हुआ है 


         प्रिय के चंचल पलकों में


 


नयनों में रूप उसी का है 


मैं अँधेरों का बसेरा हूँ,


मैं रीतिमुक्त का घनानन्द 


मैं किसन भक्ति का मीरा हूँ। 


 


 डॉ० प्रभुनाथ गुप्त 'विवश'


महराजगंज, उत्तर प्रदेश। 


सुनील कुमार गुप्ता

शिक्षा का महत्व


 


शिक्षा का महत्व साथी,


उनको नज़र न आया-


भ्रम में जीते रहे सब।


हुआ शोषण उनका जब,


लुट गई दुनियाँ-


तब नज़र आया रब़।


काश कुछ पढ-लिख लेते,


लुटते न होता शोषण-


मिलता जीवन को सब्र।


समझ लेते शिक्षा का महत्व,


न भटकते जीवन में-


यूँही न बीतती उम्र।


सार्थक होता जीवन अपना,


न होता शोषण-


शिक्षा का मिलता फल।


शिक्षित होते तो कोई भी,


कुछ भी लिख -


हरता न धन सम्पति सब।


शिक्षा एक वरदान है,


जीवन का अनुसंधान है-


होगा तुम्हें इस पर गर्व।।


 


 सुनील कुमार गुप्ता


सत्यप्रकाश पाण्डेय

नर का दिल..............


 


किस दिशा में जा रहा है जन


कुछ भी समझ न आता है


बदहवास सी हुई जीवन शैली


पल पल दिखता घबराता है


 


जीवन रहगुज़र में व्याकुल सा


वह दिखे ताकता इधर उधर 


हर पल रिश्तों से आशंकित सा


झुकी झुकी सी रहती नजर


 


अराजकता का दंश झेल रहा


आमदनी का दिखे न स्रोत


न्याय की खातिर दर दर भटके


चारों ओर दीखती है मौत


 


जिनके पास सत्ता और शक्ति


उनकी ही है जीवन शैली


कीट पतंगों जैसा जीवन ढंग


दीन दरिद्र की मति मैली


 


किसे कहें कोई मन की पीड़ा


कौंन किसी की यहां सुने


भोग रहे है प्रारब्ध समझ कर


भाग्य मान कर सिर धुने


 


कब लौटेंगे वह दिन भगवन


नर की नर से होगी प्रीति


दया धर्म औ विश्वास हृदयों में


नर का दिल नर लेगा जीत।


 


सत्यप्रकाश पाण्डेय


सुषमा दीक्षित शुक्ला

वो उजड़ा चमन याद आता रहा है।


 सुहाना समा दिल जलाता रहा है ।


 


सुलगती शमा सा फ़क़त दिल ये मेरा।


पिघलता पिघलता जलाता रहा है ।


 


ये घायल सी साँसे ये बेचैन आँखें ।


हर इक रोज मुझको चुकाता रहा है ।


 


ये रूहों की चादर में जख्मो के मोती ।


जनाज़ा हमारा सजाता रहा है ।


 


राहे मोह्हबत को माना इबादत ।


ये रस्मे वफ़ा दिल निभाता रहा है ।


 


कभी तो मिलेगा वो हमरूह मेरा ।


यही दिल दिलासा दिलाता रहा है ।


 


फ़ना होके भी तेरा आवाज़ देना ।


अश्कों मे, सुष, को डुबाता रहा है ।


 


सुषमा दीक्षित शुक्ला


संजय जैन

किसको ढूंढ रहें हो


 


कल से कल तक में


आज को ढूंढ रहा हूँ।


जीवन के बीते पलो को,


आज में खोज रहा हूँ।


शायद वो पल मुझे


आज में मिल जाये।।


 


बीत हुआ समय,


कभी लौटकर नही आता।


मुंह से निकले शब्द,


कभी वापिस नही आते।


इसलिए बहुत तोलमोल कर,


शब्दो को सदा बोलना चाहिए।


जिससे सुनने वाला आपकी,


वाणी से आपका हो जाये।।


 


दिल और मन 


बहुत छोटे होते हैं।


दोनों पर वाणी का बहुत, जल्दी असर होता हैं।


जिससे कभी कभी बड़े, दुश्मन भी दोस्त बन जाती हैं।


और कभी कभी बने बनाये,


रिश्ते भी बिगड़ जाते हैं।।


 


वैसे तो इस युग में कोई, 


किसी का होता नहीं।


पर भी कुछ झूठे और


मायाचारी रिश्ते होते हैं।


जो दिल दिमाग और,


मन से सोचता हैं।


वो कलयुग में भी जीवन, 


हंसते खिलखिलाते जीत हैं।।


 


संजय जैन (मुम्बई)


जय जिनेन्द्र देव की


निशा अतुल्य

शिक्षा का महत्त्व बड़ा,


जो पढ़ा वो आगे बढा ।


अलख जगा शिक्षा की,


शिक्षा अपनाइए ।


 


बेटी का बचाव करो,


पाठशाला उसे भेजो।


पढ़ लिख नाम करें,


ऊपर उठाइए ।


 


स्वास्थ्य का भी रखो ध्यान,


स्वच्छता रहे महान ।


करे जब बेटी काम,


सम्मान बढ़ाइए ।


 


शिक्षा जब सँग चले ,


कार्य की क्षमता बढ़े ।


सँग मिल चलें सभी,


देश को बढ़ाइए ।


 


निशा"अतुल्य"


नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर

जिंदगी आजमाने लगी है


चाँदनी मुस्कुराने लगी है


घने बादलों के साये मेंआरजू आसमाँ बताने लगी है।।


 


सुबह सूरज की मुस्कान


दिल के अरमाँ जागती है


कभी सावन के फुहारों में


वासंती बयारों में जिंदगी


मुस्कुराने लगी है।।


 


ख़ाबों की अंगड़ाई चाहतो तन्हाई


की परछाई दिल की


दस्तक मुहब्बत जगाने लगी है।।


जिंदगी मुहब्बत बताने लगी है।


 


जज्बे की जमीं को जन्नत


की है ख्वाहिस इरादों के


आईने जन्नत दिखाने लगी


है।।                                 


 


जिंदगी जिंदगी बताने लगी है।।


 


जिंदगी है मासूका 


मासूक है जहाँ ,जहाँ


जिंदगी में आशिकी अश्क


बेपनाह नज़राने हज़ार


जिंदगी मकसद से मिलने पास आने लगी है।।


 


जिंदगी का नसीब 


कभी गम के आसूं 


सबनम के मोती समन्दर


के किनारे कभी बैठा करता मोतियो का इन्तज़ार।


जिंदगी ख़ुशी औ गम बताने 


लगी है।।


 


जिंदगी सावन की घटावों


की अदाएं हवा के झोंको


में बिखरी जुल्फों में छिपी


चेहरा कभी सूरज की लाली है


कभी अँधेरा ही अँधेरा।।


जिंदगी जिंदगी का मतलब बताने लगी है।।


 


नशा है जिंदगी अंदाज़ जीने का


ना सकी है ,ना पैमाना, नजर आता नहीं मैख़ाना नशे में झूमती जिंदगी ।।


जिंदगी नसीहत का नशा बताने लगी है।।


 


नशा जूनून नशा सुरूर बिन


पिए शराब जिंदगी का नशा


लाज़बाब जिंदगी गाती हस्ती में


जिंदगी नशा नशेमन बताने लगी है।।


 


जिंदगी आग है जिंदगी ख़ाक है


परवाने सी जलती है दीवाने सी


भटकती है जिंदगी मायने मोहब्बत समझाने लगी है।।


 


नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर


नूतन लाल साहू

करो न अभिमान


राजा अनेक हुये,पृथ्वी पर


रूप तेज और बहुत बलवान


तू छोड़ दें,वृथा अभिमान मानव


सब दिन होत न एक समान


सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र को देखो


एक दिन था,संपत्ति मेरु समान


स्वप्न में ही किया दान सब कुछ


बिकना पड़ा,उन्हें पूरा परिवार


राजा अनेक हुये,पृथ्वी पर


रूप तेज और बहुत बलवान


तू छोड़ दें, वृथा अभिमान मानव


सब दिन होत न एक समान


स्वयं प्रभु राम और मां जानकी को देखो


एक दिन विचरण करते थे,पुष्पक विमान पर


जिन्हे रुदन करते,हम देखे


माता जानकी के वियोग पर


राजा अनेक हुये,पृथ्वी पर


रूप तेज और बहुत बलवान


तू छोड़ वृथा अभिमान मानव


सब दिन होत न एक समान


राजा युधिष्ठिर को ही देखो


एक दिन बैठे थे,धर्म सिंहासन पर


भगवान श्री कृष्ण का अनुचर होते हुये भी


रोक न पाया, द्रौपदी के चिर हरण को


राजा अनेक हुये,पृथ्वी पर


रूप तेज और बहुत बलवान


तू छोड़ दें, वृथा अभिमान मानव


सब दिन होत न एक समान


भुल न जाना,जग में देख ममता को


और देख कपट व्यवहार


किसका तू है,और है कौन तुम्हारा


स्वारत रत है,यह संसार


राजा अनेक हुये,पृथ्वी पर


रूप तेज और बहुत बलवान


तू छोड़ दें, वृथा अभिमान मानव


सब दिन होत न एक समान


 


नूतन लाल साहू


डॉ0 रामबली मिश्र

गुणगायन हो नित माता का।


पूजन नित्य जन्मदाता का।।


 


पले कोख में नौ माहों तक।


मत कृतघ्न बनना माता का।।


 


जिला-खिलाकर बड़ा किया जो।


साथ निभाना प्रिय माता का।।


 


दु:ख सह जिसने पाला-पोषा।


रखना ख्याल सदा माता का।।


 


संस्कार में जिसने ढाला।


वन्दन करना उस माता का।


 


जिसने प्राण तुझे माना है।


प्रण कर रक्षा कर माता का।।


 


तेरी खातिर सुख को त्यागा।


बन सेवक उस सुखदाता का।।


 


कर उपवास तुझे जो पोषा।


कर सम्मान अन्नदाता का।।


 


मत करना अपमान भूलकर।


चरण गहो देवी माता का।।


 


आँखों से मत ओझल करना।


समझ धाम प्रिय घर माता का।।


 


मातृ धाम अतिशय शुभ पावन।


चारों धाम यही माता का।।


 


राम -कृष्णा को भले न पूजो।


कर अभिनन्दन प्रिय माता का।।


 


सीखो माँ की बातों से सब।


जननी ही असली गुरु-माता।।


 


जो जननी को सदा पूजता।


खुद ही पूजनीय बन जाता।।


 


जो जननी को करत उपेक्षित।


जन्म-जन्म तक वह दु:ख पाता।।


 


माँ से ही सबकुछ मिलता है।


माँश्री का आशीष दिलाता।।


 


माँ का कृपापात्र जो बनता।


उस पर सदा प्रसन्न विधाता।।


 


माँ की हँसी-खुशी से बनते।


बेटी-बेटे ज्ञानी-ज्ञाता।।


 


डॉ0 रामबली मिश्र


हरिहरपुरी 


 


एस के कपूर श्री हंस

अपनी वाणी से ही आदमी


खासों आम होता है।


 


आदमी की असली पहचान तो


उसकी जुबान से होती है।


होता दूसरों पर कितना वह


मेहरबान से होती है।।


हर दिल में जगह आदमी 


की यूँ ही नहीं बनती।


व्यक्ति की पहचान ही उसके


इसी भान से होती है।।


 


बोलिये यूँ कि दूसरों के दिल


में आप उतर जाईये।


सवेंदनायों का ज्वार बातों में


भर कर जरा लाईये।।


लफ्ज़ और लहज़ा जो जाकर


अंतर्मन को छू जाये।


मत बोलिये कभी यूँ कि दिल


से किसी के उतर आईये।।


 


वाणी से ही मनुष्य का हर


गुण गान होता है।


मान अपमान वाणी से ही व्यक्ति


का सम्मान होता है।।


अमृत जहर दोंनों ही हैं हमारी


जिव्हा में समाये।


अपने अंदाज़े बयाँ से ही आदमी


खासों आम होता है।।


 


एस के कपूर श्री हंस


बरेली।


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