डॉ0 हरिनाथ मिश्र

तीसरा अध्याय (श्रीकृष्णचरितबखान)-1


 


मन-चित लाइ परिच्छित सुनहीं।


जे कछु मुनि सुकदेवइ कहहीं।।


    रोहिनि-नखत व काल सुहाना।


     सुनहु परिच्छित यहिं जग जाना।।


गगन-नखत-ग्रह-तारे सबहीं।


सांतइ-सौम्य-मुदित सभ रहहीं।।


    रहीं दिसा सभ निरमल-मुदिता।


     तारे रहे स्वच्छ सभ उदिता।।


बड़-बड़ नगर मही के ऊपर।


ग्वालन्ह गाँव छोट जे दूसर।।


    मंगलमय अब सभ कछु भयऊ।


    हीरा-खानि इहाँ जे रहऊ।।


निरमल-सुद्ध नदी कै नीरा।


हरहिं कमल सर खिलि जग-पीरा।।


    बन-तरु-बिटप पुष्प लइ सोभित।


    पंछी-चहक सुनत मन मोहित।।


भन-भन करहिं भ्रमर लतिका पे।


सीतल बहहि पवन वहिठाँ पे।।


   पुनि जरि उठीं अगिनि हवनै कै।


    कंसहिं रहा बुझाइ जिनहिं कै।।


चाहत रहे सबहिं मुनि-संता।


बढ़हिं न कइसउ इहाँ असंता।।


    भए प्रसन्न जानि प्रभु-आवन।


    लगे दुंदुभी सुरन्ह बजावन।।


गावहिं सभ किन्नर-गंधर्बा।


बरनहिं प्रभु-गुन चारन सर्बा।।


    नाचहिं सकल अपछरा मुदिता।


    बिद्याधरियन्ह लइ सँग सहिता।।


सुर-मुनि करहिं सुमन कै बरषा।


होंहिं अनंदित हरषा-हरषा।।


    नीरद जाइ सिंधु के पाहीं।


    गरजहिं मंद-मंद इतराहीं।।


परम निसीथ काल के अवसर।


भए अवतरित कृष्न वहीं पर।।


    पसरा रहा बहुत अँधियारा।


    लीन्ह जनर्दन जब अवतारा।।


जस प्राची दिसि उगै चनरमा।


लइ निज सोरहो कला सुधरमा।।


    गरभ देवकी तें तहँ तैसै।


    बिष्नु-अंस प्रभु प्रकटे वैसै।


दोहा-निरखे बसुदेवइ तुरत,अद्भुत बालक रूप।


         नयन बड़े मृदु कमल इव, हाथहिं चारि अनूप।।


                        डॉ0हरि नाथ मिश्र


                         9919446373


डॉ0 हरिनाथ मिश्र

द्वितीय चरण(श्रीरामचरितबखान)-38


 


उठहु भरत निज मरम बतावहु।


जे कछु मन तव तुरत जतावहु।।


     भरत तुरत उठि सभ जन नमहीं।


     अति बिनम्र हो प्रभु तें कहहीं।।


मैं जानहुँ प्रभु अति लरिकाईं।


खेले-कूदे प्रभु-परिछाईं।।


    बरबस मोंहि जितावहिं रघुबर।


    हारे जदि हम खेल म गुरुवर।।


मम अपराध न मानैं रघुबर।


मम हित करैं करैं जस दिनकर।।


    कस पंकज बिनु नीर तड़ागा।


    धिक ऊ जनम न प्रभु-अनुरागा।।


मोरि अभागि कि मैं बड़ पापी।


मातु-करनि भोगहुँ अभिसापी।।


     छमहु नाथ जदि अनुचित कहऊँ।


     सत तव प्रेम मातु प्रति जनऊँ।।


दंड मोंहि प्रभु जे कछु देउब।


ताहि बिनम्रहिं सिर धरि लेउब।।


    कपटी-कुटिल-पिचाली माता।


     तासु पुत्र नहिं जग को भाता।।


डाइन-कोंख संत नहिं जाए।


बाँस-करील न कमल खिलाए।।


    जाय न जड़ता केहू भाँती।


    भले बिरंचि लगावहिं छाती।।


पाथर-मूल कुसुम कस जाए।


कास त कास कास कहलाए।।


    निर्मम-निष्ठुर जे निरमोही।


    प्रभु तव कृपा मृदुल ही होही।।


मों पे कृपा करहु जग-स्वामी।


तव पद-पंकज मैं अनुगामी।।


    चाहेहुँ मैं प्रभु तव अभिषेकू।


     करउ इ काजु नाथ बड़ नेकू।।


सबहिं उबारउ लवटि अजुधिया।


तम-कलंक हरि बारउ दीया।।


    हम निज धरम समुझि बन रहबै।


    सत्रुहिं सँग लइ पितु-प्रन रखबै।।


अस कहि भरत नेत्र भरि आवा।


दीप-प्रकास करिख जनु छावा।।


    सभ जन हृदय द्रवित तब भवई।


     जनु सभ देह रहित तहँ लगई।।


दोहा-भाउक भवहीं सबहिं तहँ,बिकल लगहिं तजि धीर।


        राम-बसिष्ठ-सुमंतु सुनि,भरत-बचन गंभीर।।


        राम उठे तत्काल तब,सबहिं कहहिं समुझाइ।


        भरत-प्रेम अह सिंधु सम,थाह कोऊ नहिं पाइ।।


                     डॉ0 हरिनाथ मिश्र


                       9919446372


काव्य रंगोली आज के सम्मानित रचनाकार अनामिका सिंह  गढचंडूर , चंद्रपुर , महाराष्ट्र 


         442908


फोन नं - 7990615119


 


कैसी थी वो 


 


जाने कैसी थी वो 


हर पल हंसना हंसाना 


मुरझाई बगिया में 


खुशियों की कलियाँ खिलाना ।


 


बच्चे और बड़े भी


 थे जिनके दीवाने


 गुरु थी या थी चेली


 हम भी कभी ना जाने ।


 


छोटी बच्ची सी वो


 कभी चली आती थी


  कभी बड़ी बन जाती


 बिगड़ी बात बना जाती थी ।


 


 क्षण में ही वह जाने


 कितने रूप बदल लेती थी


 जिसकी जो हो जरूरत 


सबके काम आती थी ।


 


समय चक्र का फेरा


 उनसे नाता टूटा


 सामने तो नहीं दिखती


 पर दिल में तो बसी है।


 


 इंतजार उस दिन का


 जब साथ मेरे वह आए


 मुरझाई सी कलियां


 लहरा कर खिल जाएँ ।


 


अनामिका सिंह


 


 


2


ऊँची उड़ान 


बड़े यत्न से जोड़ा हमने


 एक-एक दीवार को


 ढहा दिया एक झटके में


 ईटों की मीनार को।


 


 क्या पाया क्या खोया हमने


 सोचा कभी न समझा


 जीते रहे बस यूं ही


 जीवन का हर लम्हा ।


 


क्यों खोया दिल का चैन


 जाना कभी ना इसका राज


 हम ही जिम्मेदार है इसके


 तभी मिला कांटों का ताज।


 


 ऊँची थी उड़ान हमारी 


पंख हमारे सच्चे थे


 कैसे पूरी होती मंजिल


 जब नीव हमारे कच्चे थे।


 


 लक्ष्य हमारा पूरा होता


 अगर हम इसके रखवाले होते


 उम्मीद हमारी पूरी होती


 जब इसको हम संभाले होते ।


 


 समय-समय पर देती प्रकृति


 हम सब को खतरे का ज्ञान


 फिर भी हम सब ध्यान न देते


 होता हम सब को नुकसान ।


 


ध्यान रखो पर्यावरण का 


अगर चाहते हो जीना


 खुद भी जियो और जीने दो 


मंत्र बना लो जीवन का ।


 


अनामिका सिंह


 


3


छवि विचार


  विकल मन


 


 कैसी छटपटाहट होगी 


विकल होगा तन-मन 


कैसी पीड़ा भोगी होगी 


जलता होगा अंतर्मन ।


 


हाय मैं क्या करूं?


कैसे बचाऊ खुद को 


पानी में तो कूद पड़ी


 खुदा बचाए उसको ।


 


जिसने जन्म लिया नहीं


 पीड़ा भोगी कैसी 


हाय विधाता कहां हो 


यह माया तेरी कैसी ?


 


कैसा पत्थर दिल होगा 


 कैसा होगा वह इंसान 


मानव का वेष धरने वाला 


होगा एक शैतान ।


 


पुण्यभूमि कहलाने वाला 


क्या यही है हिंदुस्तान 


जन्म लेने से पहले ही 


बना दिया इसको शमशान।


 


 पुण्य सलिला वसुंधरा को 


मत लज्जित होने देना 


बंद करो यह खूनी खेल 


मनुष्यता को धोखा देना ।


 


सुधर जाओ तुम भारतवासी


 मत रंगो खून से हाथ 


भारत मां की लाज रखो 


वरना हो जाओगे खाक।


अनामिका सिंह


 


4


🌹🌹🌹🌹🌹


उम्मीद 


 


ढूंढती रही


 दिनभर उम्मीद 


मिल भी गई 


आशा की एक रेखा


 देखा है मैंने 


बहुत से लोगों को


 काटते हुए 


उम्मीद के सहारे 


पूरा जीवन 


यही लोग छोड़ते


 एक निशान


 जीने की राह पर 


जीते हैं लोग 


जिनका नाम ले ले 


उम्मीद पर 


कायम है दुनिया 


जीवन जीना 


इसी का नाम तो है


 खुशियां बांट


 खुद खुश रह तू


 दामन तुम


 न छोड़ उम्मीद का


 कट जाएगी 


यह तेरी जिंदगी 


रह जाओगे


 बनकर मिसाल 


सुंदर जहान में 


 


अनामिका सिंह


 


 


5


आखों की भाषा 


🌹🌹🌹🌹


 


सिलसिला जीवन का


 चलता रहता है


 सुख हो या दुख हो


 खुशी हो या गम हो----


 


 आंखों का रंग भी 


बदलता रहता है हमेशा


 कभी दुख से सराबोर


 कभी खुशियों से भरी आंखें---


 


 आंखों की भाषा पढ़ना 


सीख लिया जिसने


 जीवन जीने की कला


 सीख ली उसने -----


 


जीवनसाथी की आंखों में


 आंखें डालकर सारी उम्र


 गुजार देता है सपने जीकर


 मिसाल बन जाता है -------


 


बूढ़े मां-बाप की आंखों के


 सपने साकार कर जाता है


 बच्चों को जीने का 


उद्देश्य समझा जाता है


 


 सगे संबंधियों के बीच


 चर्चा का विषय बन जाता है


 जवानी तो अच्छे से बीत जाती है बुढ़ापा भी चैन से कट जाता है------


 


 अनामिका सिंह


 


 


 


डॉ0 रामबली मिश्र

मेघ बरसता सावन बनकर


 


मेघ बरसता सावन बनकर।


मानव हँसता पावन बनकर।।


 


दिव्य प्रेम की हरित भूमि पर।


अति हर्षित मन नाच-नाच कर।।


 


जब होता मन में है सावन।


अन्तर्मन अति सहज लुभावन।।


 


मन मयूर है तभी थिरकता।


जब मनभावन दृश्य विचरता।।


 


मन के सावन को आने दो।


मंद सुगंध पवन बहने दो।।


 


अगर चाहिये दृश्य सुहाना।


मन को सुन्दर सहज बनाना।।


 


मन सावन जब बन जायेगा।


 मन का भ्रम तब मिट जायेगा।।


 


मन को सुन्दर भावों से भर।


संवेदन के तंतु स्वस्थ कर।।


 


मन की लहरों में मृदुता हो।


लहरों में प्रिय शीतलता हो।।


 


शीतलता में देवपुरुष हो।


मिटा हुआ कटु सकल कलुष हो।।


 


मन का सावन दिख जायेगा।


जब मन पावन बन जायेगा।।


 


 डॉ0रामबली मिश्र हरिहरपुरी 


 


डॉ. राम कुमार झा निकुंज

अभिलाष कहाँ आँसू जीवन


 


गरीबी के आँसू की धारा,


अविरत प्रवहित अवसाद कहे।


लोकतन्त्र नेता का नारा,


दीन हीन स्वयं हमराह कहे। 


 


रनिवासर मिहनतकस अविरत,


दुनिया उनको मजदूर कहे।


भूख प्यास आतर जठरानल, 


बन अम्बर छत मजबूर कहे। 


 


अश्क विरत नयना बन खोदर ,


मिल पीठ पेट हैं एक बने।


कृश काया मर्माहत चितवन ,


क्षुधित पीडित सन्तान रहे। 


 


टकटकी लगाए प्राप्ति .आश,


दाता चाहे निज दास करे।


हो क्या माने अपमान मान,


जीवन दुःखदायक हास करे।


 


गज़ब धैर्य साहस जीवन पथ,


नित स्वाभिमान संघर्ष सहे।


अतिसहनशील अवसाद निरत,


आत्मनिर्भरता पहचान रहे। 


 


है गरीब , पर खु़द्दार बहुत,


निर्माणक जो निज राष्ट्र रहे।


रखता ज़मीर ईमान सतत् ,


इन्सान विनत निज दर्द सहे।


 


अरमान नहीं , अवसान नहीं,


निर्भीत मनसि निशि नींद मिले।


मुस्कान बिखर दुःखार्त अधर,


परमार्थ मुदित अवसाद सहे। 


 


बढ़ यायावर अनिश्चय पथ,


नित अश्क नैन जल पान करे।


मधुपान गरीबी हालाहल,


मदमत्त सड़क तरु शयन करे। 


 


बढ़ चले डगर बिन राग कपट,


संकल्पित मन विश्वास भरे।


परिवार बोझ ढो कंधों पर,


दर्रा गिरि जंगल विघ्न खड़े।  


 


कर्तव्य पथिक अधिकार विरत,


आधार प्रगति अपमान सहे।


वास्तुकार शिल्पी गजधर,


पर भूख वस्त्र छत हीन रहे। 


 


निज व्यथा कथा आँसू बनकर,


बन मौन विकल करुणार्द्र कहे।


विधिलेख मान दारुण जीवन,


असहाय गरीबी धार बहे। 


 


अभिलाष कहाँ आँसू जीवन,


जब व्याधि गरीबी अमर बने।


चिलका समेट माँ अन्तस्थल,


सम ममता गम सुख साथ सहे। 


 


जनमत नेता गण सदा वतन,


खा कसम पूर्व जनमत चाहे। 


जीते भूले उपकार कसम,


दीनार्त सीदित को गुमराहें। 


 


बन क्षमाशील युगधारा जग,


सामन्त पीड़ मुस्कान भरे।


संतुष्ट मुदित पा मानिक तन,


रवि अर्घ्य दान निज अश्रु लिए। 


 


अश्क पोंछे कौन गरीबों का, 


सत्ता सुख शासन मौज करे। 


हरे कौन दुख संताप विकल,


दीनाश्रु पोंछ उद्धार करे। 


 


कवि✍️ डॉ. राम कुमार झा "निकुंज"


 


नई दिल्ली


डॉ0 हरिनाथ मिश्र

द्वितीय चरण (श्रीरामचरितबखान)-37


 


राम-बिचार जानि देवेसा।


चिंतित इंदरपुरी नरेसा।।


    तुरत बुला सुर-गुरुहिं बृहस्पति।


     करउ बिमर्स देव-हित निस्बति।।


राम-भगत-प्रिय, परम सनेही।


पुरवहिं आस असंभव भलही।।


     राम लवटि जदि गए अवधपुर।


     करिहैं नास पिसाच अमरपुर।।


सोचहु कछु उपाय गुरु मोरे।


नहिं अब अधिक समय बहु थोरे।।


     तब समुझाइ बृहस्पति बोले।


     प्रभु सर्बग्य समर्थ न भोले।।


प्रभु जानहिं सभकर दुख-दारुन।


जस हो उचित करहिं दुख हारुन।।


     राम-जनम यहि कारन भयऊ।


     पाप-मुक्त महि सभ सुख पयऊ।।


यहिं तें सबहिं करउ एतबारा।


होंहिं न अहित राम रखवारा।।


     राम समुझि गे इन्द्रहिं मरमा।


     निज मन कहेउ न होहि अधरमा।।


हर बिधि मोर धरम उपकारू।


हरपल-हरदिन,साँझ-सकारू।।


     जदपि भरत मम परम सनेही।


     जनहित काजु करै बड़ नेही।।


नाहिं कठोर-अबुध-अग्यानूँ।


प्रखर-प्रबीन-गुनी मैं जानूँ।।


     भरत-चरित कछु बरनि न जाए।


     जनप्रिय भरत-चरित अति भाए।।


दोहा-भरत-चरित जनु जलधि-जल,सकल रतन कै खान।


         बिनय-सील-गरिमा निहित,कर्मठ-धीर-प्रधान ।।


        प्रबल भरत-प्रभु-प्रेम लखि,बहुरि उठे मुनिनाथ।


       सभा मध्य कह भरत सन,निज तप-बल लइ साथ।।


                    डॉ0हरि नाथ मिश्र


                      9919446372


डॉ0 हरिनाथ मिश्र

दूसरा अध्याय(श्रीकृष्णचरितबखान)-7


 


बड़-बड़ बिघन भले पथ आवैं।


कुचलत तिनहिं भगत चलि जावैं।।


    रच्छक-कवच नाथ तुम्ह तिन्हकर।


    जल-असीष प्रभु बरसहिं उन्हपर।।


नाथ सच्चिदानंद स्वरूपा।


परम दिब्य मंगल कै रूपा।।


   प्रभू बिसुद्ध सत्वमय जाना।


   करहिं नाथ जीवहिं कल्याना।।


तुमहिं अहहु प्रभु जगत-बिधाता।


सत्वरूप तव भेद मिटाता।।


    दृस्यमान तीनिउ गुन लोका।


    सत्य अहहु जग करउ अलोका।।


तीनिउ गुन नहिं सकहिं बताई।


नाथहिं तोर सत्य प्रभुताई।।


बिना बिसुद्ध सत्वमय सेवा।


सत्य स्वरूप ग्यान नहिं लेवा।।


    करै जे सुमिरन मंगल नामा।


     किर्तन करै नाथ बलधामा।।


जे रत सतत कमल-पद-सेवा।


जन्महिं-मरन-मुक्त-फल लेवा।।


   तुम्ह दुखहर्ता प्रभु परमेस्वर।


    महि तव कमल-चरन अखिलेस्वर।।


प्रभु तुम्ह लेइ जगत अवतारा।


हरेयु सकल महि-पाप अपारा।।


     धन्य भए हम देवन्ह इहवाँ।


      लखि पद-कमल-चिन्ह रह जहवाँ।।


तुमहिं त नाथ अजन्म-अनंता।


लीला बिबिध करहु भगवंता।।


    मत्स्य-ग्रीवहय-कच्छप-रामा।


    परसुराम-बामन बलधामा।।


हंस-बराह-नृसिंह अवतारा।


धारि रूप यहि जगत पधारा।।


    रच्छा किए तुमहिं भगवाना।


     तीनिउ लोक देव सभ जाना।।


अबकि बेर प्रभु इहँ अपि आवहु।


पाप मही कै आइ भगावहु।।


   हे जदुनंदन तुम्हरो बंदन।


    हम सभ करहिं सुनउ जगनंदन।।


दोहा-परम भागि तव मातु हे, देवकि तें कह देव।


        बिरजहिं प्रभु तव कोंख महँ,कंसहिं भय नहिं लेव।।


      कंस अहहि मेहमान बस,कछुक दिवस जग माहिं।


       जनम लेइ तव सुत इहाँ,तुरतै बधिहहिं ताहिं।।


       अस कहि ब्रह्मा-संकरहिं,गए तुरत सुरलोक।


       सकल देव लइ साथ मा, देवकि करत असोक।।


                    डॉ0हरि नाथ मिश्र


                     9919446372


नूतन लाल साहू

पानी च पानी


कोनो मेर ये फुसुर फासर


कोनो मेर विस्फोटक


काकरो बर ये सुग्घर पानी


काकरो बर हे अडबड़ हानि


डोंगरी करय महर महर


मोरनी नाचय झुमुर झामर


लहर लहर गंगा ह करे


झमाझम बरसे पानी च पानी


कोनो मेर ये फुसुर फासर


कोनो मेर विस्फोटक


काकरो बर हे सुग्घर पानी


काकरो बर हे अडबड़ हानि


चोरों बोरो खेत खलिहान होगे


चोरों बोरो घर द्वार


चोरों बोरो सब मइनखे होगे


दू दिन ले गिरत हे पानी च पानी


कोनो मेर ये फुसुर फासर


कोनो मेर विस्फोटक


काकरो बर ये सुग्घर पानी


काकरो बर हे अडबड़ हानि


बरसा रानी अपन केस छरियाय हे


करिया बादर उमड़ के आय हे


बिजना डोलावय हवा, सर सर सर सर


परय फुहार झर झर झर झर


कोनो मेर ये फुसुर फासर


कोनो मेर विस्फोटक


काकरो बर ये सुग्घर पानी


काकरो बर हे अडबड़ हानि


धान के कटोरा,छत्तीसगढ़ म


जब निर्मल जल बरसावे


हरियर लुगरा पहिन के धरती


सब के मन हरसावे


कोनो मेर ये फुसुर फासर


कोनो मेर विस्फोटक


काकरो बर ये सुग्घर पानी


काकरो बर हे अडबड़ हानि


 


नूतन लाल साहू


सत्यप्रकाश पाण्डेय

तुमसे नजर हटें नहीं कान्हा


मैं पल पल तुम्हें निहारूँ


मेरा तन मन तुमको माधव


यह जीवन तुम पर वारूँ


 


तुम हो मेरी आँखों के काजल


मैं क्षण भर अलग रहूँ न


तुम में ही मेरे प्राण प्रतिष्ठित


मैं पल भर विरह सहूँ न


 


हे लीलाधर यह कैसी है लीला


कैसा है तेरा सम्मोहन


भूल के सकल जगत के रिश्ते


मैं चाहूं तुमको मोहन


 


लख प्रीति नटवर नागर प्रति


सत्य हिय में उपजै प्रेम


मुझपर कृपा करिये बंशीधर


रखियो सदा कुशल क्षेम।


 


श्री कृष्णाय नमो नमः


सत्यप्रकाश पाण्डेय


राजेंद्र रायपुरी

नज़र है कहीं पर कहीं पर निशाना, 


यही आज करता है सारा ज़माना।


 


 हैं माहिर इसी में ये नेता हमारे,


 इन्हें खूब आता निशाना लगाना।


 


कहें जो न करते कभी सच ये मानो, 


उन्हें ख़ूब आता बहाना बनाना।


 


चलें चाल ऐसी कि कुर्सी न छूटे, 


पड़े दूजे दल में भले इनको जाना।


 


अगर सीखना हो तो सीखो इन्ही से,


है घड़ियाली आॅ॑सू कहाॅ॑ पर बहाना। 


 


यही गुर सिखाते कहा मेरा मानो,


कहाॅ॑ और कैसे है कुर्सी गिराना।


 


 करें काम सारे ये जनहित में भाई, 


मगर ध्येय होता है पैसे कमाना‌।


 


             ।। राजेंद्र रायपुरी।।


एस के कपूर श्री हंस

कैसा हो जीवन हमारा....


 


इक उम्र बीत जाती है 


कोई रिश्ता बनाने में।


जिंदगी होती है खर्च


एक संबंध कमाने में।।


अनमोल धरोहर होती है


रिश्तों की जमा पूंजी।


मत लुटा देना ये धन


यूँ ही अनजाने में।।


 


हमारे जीवन में एक


ईमान होना चाहिये।


सवेंदनायों का हममें नहीं


शमशान होना चाहिये।।


कोई रखता परिंदों के लिये


बंदूक तो कोई पानी।


जान लो जीवन में पाने को


इक मुकाम होना चाहिये।।


 


जरूरत नहीं खुदा बनने की


मेहरबान होना चाहिये।


भावनाओं से पूर्णआदमी को


दयावान होना चाहिये।।


मत छू सको आसमाँ ऊंचा 


तो कोई बात नहीं।


बस आदमी को एक अच्छा


इन्सान होना चाहिये।।


 


एस के कपूर श्री हंस


बरेली।।


कालिका प्रसाद सेमवाल

*हे मां कात्यायनी कृपा करो*


********************


हे मां कात्यायनी हम पर कृपा करो,


अन्दर ऐसा प्रेम जगाओ,


जन जन का उपकार करूं,


प्रज्ञा की किरण पुंज तुम हो,


हम तो निपट अज्ञानी है।


 


हे मां कात्यायनी हम पर कृपा करो,


करना हम दीनो पर कृपा तुम,


निर्मल करके तन-मन सारा,


मुझ में सारे विकार मिटाओ मां,


इतना तो उपकार करना मां।


 


हे मां कात्यायनी हम पर कृपा करो,


सबके लिए मंगल भाव हो,


बुरा न करूं -बुरा सोचूं 


ऐसी सुबुद्धि प्रदान करना मां,


करु नित तेरी वंदना ऐसा वर दे मां,


 


हे मां कात्यायनी हम पर कृपा करो,


विश्व कोरोना से पीड़ित है मां,


उससे मुक्ति दिलाओ मां,


तुम ही हो मां महामारी के रक्षक ,


जो भी शरण तुम्हारी आते,


उन पर अपनी कृपा बरसाओं मां।।


********************


 कालिका प्रसाद सेमवाल


मानस सदन अपर बाजार


  रूद्रप्रयाग -उत्तराखंड 


नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर

जवानी की रवानी दीवानी 


मस्तानी होती है।


लगा दे आग पानी में जवानी


आग होती है।।


जवानी दरिया समंदर,तूफां


घूम जाए जिधर तूफानी


होती है।।


खुदा भी खौफ़ज़ादा जवानी


के तारानो से कहि बे राग मौसम


कभी मौसम से बेगानी होती है।।


परवाह नहीं कश्ती किनारों का 


खुद के किनारों की हद


हस्ती होती हैं।।


जवानी की मौत भी सजदा करती


बदल दे वक्त किस्मत को जवानी


वो कहानी होती है।।


 कभी वो तोड़ती पत्थर 


कभी निकलती वो निर्झर


गीतों की धुन में जवानी


नई आन्दाज होती है।।


पसीनों में नहाईं मेहनत 


मोती की चमक 


महक जवानी की कहानी


जुबानी होती है।।


चाहतों की मंज़िलों का अफसाना


जहाँ की मजलिसों महफ़िलों की


अदा आशिकी जवानी अकिकत


आम होती है।।


सुबह सुर्ख सूरज अपने रौ में 


चलती जवानी अदाओं की नाज़


होती है।।


निकली नहीं चिंगारी ना


शोला ज्वाला आई नहीं


जवानी सुबह की शाम आम


होती है ।।


चलते वक्त रफ्तार की धार


बदल दे तरानों से तारीख जवानी


जज्बों की वो जाम होती है।। जवानी एक नशा बिन शराब 


शबाब बहकती है अपनी धुन में


महकती है जवानी अपनी आरजू


का चमन बहार होती है।।


इश्क है, अंजाम है,


आगाज़ है ,आवाज़ है ,जवानी


जिंदगी के सफ़र की जान है।।


जवानी जूनून का पैमाना


शुरुर शान की मंज़िल का मैख़ाना


जवानी मधुमास की बयार होती


है।।


मासूम की चाहत ,नादां की


राहत ,जवानी पत्थर फौलाद होती है।। परवानों सी जलती मकसद की मोहब्बत शमां के लौ पे मरती है जवानी की अपनी पहचान होती है।।


जवानी चुनौती है जवानी


चाहत की चाशनी जहाँ आई


नहीं वहां अंधेरो की शाम होती है।। 


आई जहाँ छायी जहाँ सावन 


की रिमझिम फुहार शोला शैलाभ


जवानी वक्त बदलती तलवार होती है।।


 


नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर


विनय साग़र जायसवाल 

हम भी ज़िन्दा हैं यहाँ एक फ़साने भर तक 


याद रख्खेगा हमें कौन ज़माने भर तक


 


अब किताबों में भला कौन खपाता ख़ुद को 


पूछ होती है इन्हें घर में सजाने भर तक


 


जिसको रोते हुए यह उम्र हमारी गुज़री


वो चला साथ मगर रस्म निभाने भर तक 


 


फिर पलट कर तो कभी हाल न पूछा हमसे


उसने साधा था हमें एक निशाने भर तक 


 


 


जानते हैं कि मनाऊंगा क़सम दे दे कर 


नाज़ होते हैं फ़कत मुझको सताने भर तक 


 


अब तो गाँधी ओ जवाहर पे सियासत देखो


याद करते हैं उन्हें नाम भुनाने भर तक 


 


उसके हाथों का रहे सिर्फ़ खिलौना *साग़र*


खेल खेला था कोई ख़ुद को हँसाने भर तक


 


🖋️विनय साग़र जायसवाल 


बरेली


डॉ0 हरिनाथ मिश्र

दोहा गीत (चितचोर)


नैन मटक्का मार के,कहाँ गए चितचोर,


रही जोहती रात भर,देख हो गई भोर।


नींद बिना रजनी गई,रही ताकती राह-


सुन साजन पाषाण-हिय,मन-उलझन घनघोर।।


 


मन उदास सुन लो सजन,नहीं चित्त में चैन,


बिना तुम्हारे साँवरे, कटे नहीं दिन-रैन ।


दत्तचित्त हो एकटक,जोहूँ तेरी बाट-


घर आ जा अब लौट के,हे निर्मम चितचोर।।


 


तेरा मेरा साथ तो जन्म-जन्म का साथ,


सौंपा जीवन है तुम्हें, दे हाथों में हाथ।


ऐसे मत रूठो बलम,तुम हो प्राणाधार-


बीते पल को सोच कर,मन हो भाव-विभोर।।


 


लगे चाँदनी चाँद की,जलती सी रवि-धूप,


कुसुम-सेज अब डस रही,धर नागिन का रूप।


दे न सके आराम अब,शीतल चंदन-लेप-


गले मिलो आ शीघ्र ही,हे मेरे चितचोर।।


 


विरह-अगन की वेदना,देती पीर अपार,


चित बहलाती मैं फिरूँ, फिर भी हो न सुधार।


जीवन-पथ लगता कठिन,सूना भी संसार-


राधा कैसे रह सके,बिन निज नंदकिशोर??


          ©डॉ0हरि नाथ मिश्र


            


डॉ० सम्पूर्णानंद मिश्र 

आज इस‌


 प्रगतिशीलता


‌ के दौर में 


मनुष्य संघर्षशील है ‌


विकसित ‌नहीं 


विकासशील ‌है


 भीतर की बुराइयों 


से‌ लड़ता है


 सौ-सौ बार हारता है


     टूटता है 


खिजलाता है


चीखता है 


लाल- पीला ‌होता है


 रोज़ रोज़ उसे 


कूटता है


पीटता है 


चले जाने को 


कहता है


वह ढींठ है


 निर्लज्ज ‌है


बेहया ‌है 


बिना बुलाया ‌


मेहमान है ‌


न‌ ही उसके भीतर


कोई ईमान ‌है 


अच्छा-खासा पड़ा है


लेकिन मेरी आंखों में 


मिर्चों की तरह गड़ा है


जाने ‌का नाम‌ ही 


नहीं लेता 


वज्र बेहया‌ है 


जितना काटो 


उतना ही बढ़ता है 


काटते-काटते 


थक गया हूं 


जिंदगी से ‌तंग


 आ गया ‌हूं‌ 


 आज मैं 


सुना ‌हूं 


अच्छी तरह ‌गुना हूं 


कि इसकी जड़ें ‌


बहुत गहरी ‌हैं 


यह केवल भारत में


ही नहीं 


संपूर्ण विश्व में ‌


भी जमीं ‌है 


 


 


डॉ० सम्पूर्णानंद मिश्र 


प्रयागराज फूलपुर


सत्यप्रकाश पाण्डेय

अनमोल धरोहर जीवन ईश्वर की


क्यों नफरत की अनल जला रहे


करना इससे कल्याण जगत का


क्यों ढाह ईर्ष्या से गढ़ हिला रहे


 


यदि हर न सके संताप किसे के भी


तो दुःख देने का भी अधिकार नहीं


मानव मूल्यों की कब्र खोदकर के


लगता मानवता से तुम्हें प्यार नहीं


 


पथ छोड़ दिया दिग्भ्रमित होकर 


हे नर अमानवीयता की राह चला 


शान्ति खो दई भौतिक लिप्सा में


मूरख बन पग पग पर गया छला


 


करना ही है कुछ काम जगत में


मानव ऐसी कोई करनी कर जा


याद करे तुम्हें यहां सारी दुनियां


ऐसी सुरभि से यह जग भर जा।


 


सत्यप्रकाश पाण्डेय


डॉ0 रामबली मिश्र

प्रेम गंग में डूब


जाना कभी न ऊब 


प्रेम दीवाना बन चलो।


 


करो सभी से प्यार 


कर सबका सत्कार 


प्रेम गीत गाते रहो।


 


करो प्रीति रसपान 


कर सबका सम्मान


सबके दिल को जीत लो।


 


चलो प्रेम के पंथ 


पढ़ो सदा सद्ग्रंथ 


प्रेम-पाठ करते रहो।


 


रच पावन इतिहास 


करो सुखद अहसास 


जीवन जीना सीख लो।


 


जीवन का सिद्धान्त 


मानवता का प्रान्त 


मानव बन चलते रहो।


 


रहे विवेकी ज्ञान 


रख दीनों पर ध्यान 


नैतिकता को खोज लो।


 


करना परोपकार 


त्यागो दुष्टाचार 


साधु पंथ पर नित चलो।


 


सदा प्रेम संवाद 


रहो सदा आवाद 


सदा जगत में सुख करो।


 


मत करना प्रतिकार 


करो प्रेम स्वीकार 


सुगम राह गढ़ते चलो।


 


 डॉ0 रामबली मिश्र हरिहरपुरी 


 


सुनीता असीम

है क्यूं बीच में अपने झगड़ा लगा।


 


बुरे बोल से जख्म गहरा लगा।


 


****


 


जो बाजार में भीख था मांगता।


 


सभी को घराने का खासा लगा।


 


****


 


कभी फूट पड़ती दिखाई न दी।


 


पलटता सा दुश्मन को पासा लगा।


 


****


 


ज़रा चेहरे की बढ़ी जो चमक।


 


तो बदहाल भी आज संवरा लगा।


 


****


 


नहीं मानते बात बच्चे तभी।


 


पिता ज़िन्दगी से वो हारा लगा।


 


****


 


सरे राह बदनाम जो हो गए।


 


तभी पूछना बोल कैसा लगा।


 


****


 


जो जैसा लगा कह दिया था वही।


 


कहेंगे न ऐसा कि वैसा लगा।


 


****


 


सुनीता असीम


संजय जैन मुम्बई

देखो देखो लोगो बैंकों का 


क्या हाल हो गया।


लोगो के पैसे जमा होते 


हुए भी बैंक कंगाल हो गया।


माध्यम वर्ग वालो की कमाई 


व्यापारी लेकर फरार हो गया।


और चूना बैंकको के साथ ही 


मध्यमवर्गीयों को लगा गया।


देखो देखो लोगो बैंकों का


क्या हाल हो गया।।


 


बहुत देखे अमीर जादे जो


बैंक में पैसे जमा करते नहीं।


पर पैसा बैंकों से लेकर


खुदको दिवालिया कर लेते है।


और बैंकों का पैसा फिर


कभी वापिस करते नहीं।


जिससे बैंक के साथ ही


जमाकर्ताओ को डूबा देते है।


और खुदका पैसा लेने


बैंकों के चक्कर लगाते है।


जिसके चलते कुछ तो 


भगवान को प्यारे हो जाते है।


और कुछ जमाकर्ता 


जीते जी मर जाते है।।


 


वक्त आ गया है लोगों


जरा संभाल जाओ तुम।


मेहनत की कमाई अपनी


मत जमा करो अब बैंकों में।


रखो सुरक्षित अपने घरों में


अपना अपना धन तुम लोगो।


ब्याज के थोड़े लालच 


मत फसो अब तुम लोगो।


यदि जमाकर्ता ऐसा मिलकर


 तुम सब कर जाओगे।


तो बैंकों की कार्य प्रणाली 


बिल्कुल बदल जाएगी।


फिर कर्जा लेने उद्योगपति 


मध्यमवर्गीयों के पास आएंगे।।


फिर कहंगे लोग


देखो देखो बैंकों का 


क्या हाल हो गया।


पूरा देश खुशाल हो गया।।


 


जय जिनेन्द्र देव


संजय जैन मुम्बई


सुनील कुमार गुप्ता

सपनों की उड़ान


सपने तो सपने है-साथी,


कुछ सार्थक-कुछ निरर्थक-


सपनो की उड़ान बाकी।


देखते रहे सपने साथी,


भरते रहे उड़ान-


उसमे भी अपनी आन बाकी।


सपने होगे तभी तो साथी,


वो अपने होगे-


उन्ही में शान है -बाकी।


सपनों में ही बसा है साथी,


जीवन का सम्मान-


मिल करेंं पूरे उड़ान है-बाकी।


सपने हो जाये सच साथी,


सच का हो साथ-


बस सपनो की उड़ान बाकी।


सपने तो सपने है -साथी,


कुछ सार्थक-कुछ निरर्थक-


सपनों की उड़ान बाकी।।


 


सुनील कुमार गुप्ता


विनय साग़र जायसवाल

उनसे मिलने का सिलसिला होता


बाग़ दिल का हरा भरा होता


 


मुस्कुरा कर अगर वो कह देते


ग़म का सागर भी पी लिया होता


 


अपने वादे की लाज रख लेते


कोई शिकवा न कुछ गिला होता


 


चुगलियाँ कर दीं इन निगाहों ने


वर्ना हर सू न तज़किरा होता


 


क़त्ल होना ही था मुझे क़ातिल


तू न होता तो दूसरा होता


 


चैन आता मरीज़े-उल्फ़त को 


कोई दस्त-ए-दुआ उठा होता


 


हम भी मंज़िल नशीन हो जाते 


राहबर कोई गर मिला होता


 


मुद्दतों क्यों जलाते दिल *साग़र*


हमको अंजाम गर पता होता


 


 


🖋️विनय साग़र जायसवाल


डॉ0 रामबली मिश्र

प्रेम की पराकाष्ठा


 


सुन्दर सृजन 


श्लील वदन 


पावन मन 


सात्विक धन 


आत्मिक उद्गार 


धार्मिक बहार 


शुद्ध भावों की बयार 


दिलों पर नैतिक अधिकार 


समर्पण 


निष्कामीकरण 


आत्मदर्पण 


हार्दिक आकर्षण 


नि:स्वार्थता


परमार्थता 


व्यापकता 


सार्वभौमिकता 


ज्ञान-वौराग्य का अधिगम 


सद्भावों का संगम 


भक्ति का आगम 


इति शुभम


एकाकृति 


नैसर्गिक प्रकृति 


एक ध्यान 


संपूर्ण सम्मान 


समादर 


स्वाति नक्षत्र का वादर 


जीवनाधार 


संगीत का शिष्टाचार 


मनोहर सुर-ताल 


शुभ काल 


परम शान्ति 


पीत-क्रांति 


सर्वसिद्धि योग 


निरोग 


आकर्षण 


परम हर्षण 


सहनशीलता 


शीतलता


मृदुता 


अमृता 


सबका श्रेष्ठ भण्डारण 


प्रेम का दिव्य उच्चारण।


 


डॉ0 रामबली मिश्र हरिहरपुरी 


संदीप कुमार विश्नोई

मथुरा में पहुँचे हैं मोहन के संग दाऊ , 


कुंजर से लड़े तब मदन मुरारी है। 


 


कोमल कमल कर गज दाँत वो उखाड़े , 


साँवले सलौने की तो महिमा ही न्यारी है। 


 


लीद फेंकने लगा वो हटता है पीछे पीछे , 


चीख तो निकल गई सिंधुर की सारी है। 


 


फेंक दिया करी नभ मोहन उठा के झट


मोहन की लीला पर जग बलिहारी है। 


 


संदीप कुमार विश्नोई


दुतारांवाली तह0 अबोहर जिला फाजिल्का पंजाब


सुषमा दीक्षित शुक्ला

दोस्त खुद से मोहब्बत किया कीजिये ।


 


जिंदगी को न यूँ ,बददुआ, कीजिये ।


 


बेख़ुदी में क़दम डगमगा गर गये।


 


फिर से उठके सम्भलकर चला कीजिये ।


 


जिंदगी खौफ़ में ना गुज़र जाये यूँ ।


 


हक़ की ख़ातिर ख़ुदी से लड़ा कीजिये ।


 


खुद से रूठो नही ख़ुद को कोसों नही ।


 


खुद से नफ़रत कभी ना किया कीजिये ।


 


जिंदगी है हंसीं है ये दुनिया हंसीं ।


 


इसको जन्नत के माफ़िक जिया कीजिये ।


 


हर किसी के जनम में है मक़सद छुपा ।


 


फ़र्ज पूरे सनम बावफ़ा कीजिये ।


 


नाम रोशन रहे जिससे माँ बाप का।


 


काम ऐसे हमेशा किया कीजिये ।


 


ज़िन्दगी इक डगर है गुलों खार की ।


 


,सुष ,मगर इसको जी भर जिया कीजिये ।


 


सुषमा दीक्षित शुक्ला


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