सुनीता असीम

दहन का काम है केवल रहा सुलगने का।


जो इसके पास में जाए वही है जलने का।


****


बहार देख बहारों में नाचता है दिल।


मिन्नतें कितनी करो ये नहीं बहलने का।


****


बड़े हुए हो उन्हीं मां पिता के हाथों में।


न नाम लेना कभी उनको तुम झटकने का।


****


चला चली का है मेला जगत में देखो रे।


यहां पे काल से कोई नहीं है बचने का।


 ****


करोना काल में बैठे रहो घरों में सब।


नहीं है वक्त ये बाजार में भटकने का।


****


सुनीता असीम


डॉ बीके शर्मा

भ्रष्टाचारी नेता 


 


चौपाल पर भीड़ लगी 


घर का कोना खाली 


मेंढक हैं सब बारिश के 


मारो तुम दो ताली


 


आग लगा के ये औरों के 


करते स्वयं उजाला 


खुलेआम करते नुमाइश 


हाय वतन बेच डाला


 सुर सज्जन की बस्ती में


ये दैत्त कहां से आए


 


फैराते यह अधर्म पताका 


क्यों मानवता पर छाए 


क्यों जलती नहीं ज्वाला ऐसी 


असुर जलाए देश बचाए


क्यों आता नहीं कोई तूफा ऐसा 


जो भ्रष्टाचार कि नीव हिलाए 


 


चक्र तोड़ जो अंधकार का 


अपनी जीत का दीप जलाए 


असुर जलाए देश बचाए 


इस दुर्योधन से मातृभूमि की 


कोई कृष्ण बने और लाज बचाए


 


डॉ बीके शर्मा 


उच्चैन भरतपुर राजस्थान


रश्मि लता मिश्रा

मंगल कारक हैं।


 शंकर बालक हैं ।


मंदिर मूरत है ।


मोहक सूरत है।


 


मोदक चाह रही।


 पैजन बाज रही।


 कीर्तन गान करें


 मंडप साज रहे।


 


 


मूषक आप चढ़ो ।


आसन ओर बढ़ो।


 आकर भोग चखो ।


संतन लाज रखो।


 


दीनन दान मिले।


लेकर आज चले ।


अंधन नैन खुले ।


जीवन राग घुले।


 


रश्मि लता मिश्रा


बिलासपुर, सी जी।6


निशा अतुल्य

गणपति वंदन


गणपति


विघ्न विनाशक


संकट हारण तुम


बुद्धि ज्ञान 


दाता ।


 


गिरिजासुत


मातृ भक्त


आरती करूँ तुम्हारी


प्रथम पूज्या 


तुम ।


 


उसके


कारज 


सिद्ध हो जाते


जो तुम्हें 


ध्याता ।


 


मोदक 


मन भाते


भक्त भोग लगाते


शुभ-लाभः 


पाते।


 


विनायक


भाल चंदन


हृदय से वंदन


स्वीकार करो


हमारे।


 


तुमरी


मूषक सवारी


लगे बड़ी प्यारी


पान सुपारी


चढ़ाया।


 


कर 


जोड़ करूँ


वंदना तुम्हारी गजानन


कृपा अधिकारी


तुम्हारी।


 


निशा"अतुल्य"


डा. नीलम

मुझे याद है जरा जरा


 


तनहाई का आलम था


वो तेरा आना-आना था


वादा करके मुकर जाना 


मुझे याद है जरा जरा 


 


बरस रही थी चाँदनी 


मौसम भी भीगा भीगा था


घने गेसूओं से गिरते थे मोती


मुझे याद है जरा जरा 


 


वो अमराई में बौराया बौर


थी डालियों पे झूलों की रमक


तुम्हारा हौले-हौले झूला देना 


मुझे याद है जरा जरा


 


ख्वाबों की चादर बिछा


नदिया के किनारे 


डाल हाथों में हाथ घूमना 


मुझे याद है जरा जरा


 


मेरे आँसू अपनी पलकों पे सजा


खुशियां मेरे लब को देना 


यूं मेरे हालात बदलना 


मुझे याद है जरा जरा


 


उम्र के इस दौर में 


गुजरी हसीन यादों का


वो बीता खूबसूरत सफर


मुझे याद है जरा जरा। 


 


         डा. नीलम


कालिका प्रसाद सेमवाल

प्रेम क्या है


************


प्रेम आराधना है


प्रेम उपासना है


प्रेम अनुराग है


प्रेम स्नेह है


प्रेम गंगा जल है


प्रेम शबरी के बेर है


प्रेम प्रयागराज है


प्रेम रामायण है


प्रेम गीता है


प्रेम आचरण है


प्रेम व्यवहार है


प्रेम आखें है


प्रेम सत्संग है


प्रेम आरती है


प्रेम पूजा है


प्रेम गायत्री है


प्रेम गुरु ग्रंथ है


प्रेम पीपल वृक्ष है


प्रेम सबेरा है


प्रेम ठंडी हवा है


प्रेम फूल है


प्रेम फूलों की खूश्बू है


प्रेम व्यवहार है


प्रेम के बिना


जीवन का


कोई अर्थ नहीं है


जीवन की


सार्थकता


बस प्रेम में है।।


 


कालिका प्रसाद सेमवाल


मानस सदन अपर बाजार


रुद्रप्रयाग उत्तराखण्ड


डॉ हरिनाथ मिश्र

मेंरे दोस्त 


मेरे दोस्त तुम क्या से क्या हो गए हो? 


कल तक थे अपने अब ख़फा हो गए हो 


मधुवन की कलियाँ, गावों की गलियाँ


नदी के किनारे, कुदरती नज़ारे, 


सभी के सभी तो हैं पहले ही जैसे―


केवल तुम्ही बस दफ़ा हो गए हो |


                     मेरे दोस्त तुम .....


आई दिवाली खुशियां मनाली


खुशियो से मन की पीड़ा मिटा ली 


वही थी अमावस , वही थी सजावट। 


मगर बस तुम्ही बेवफा हो गए हो।


                      मेरे दोस्त तुम .....


बहती हवा पूछे तेरा ठिकाना ,


समझ में न आये , क्या है बताना ।


चारों दिशाएँ नहीं कुछ बताएं , 


न जाने कहाँ गुमशुदा हो गए हो।


                       मेरे दोस्त तुम....


फ़िज़ाओं में खुशबू चमन है बिखेरे,


हैं गाते परिन्दे सबेरे, सबेरे ।


मधुर रागिनी से विकल चित हो मेरा,


भाये न चंदा , तुम जुदा हो गए हो।


                       मरे दोस्त तुम...


झरनो की थिरकन , भौरों का गुँजन,


पावस की रिम- झिम ,मयूरो का नर्तन।


दबे पॉव देते हैं एहसास तेरा-


मानो तुम्ही अब ख़ुदा हो गए हो ।


                         मेरे दोस्त तुम...। ।      


                                         


©डॉ हरिनाथ मिश्र


                                           9919446372


डॉ० प्रभुनाथ गुप्त विवश

नारी है करुणा का सागर 


            नारी में माँ की ममता है,


सर्वोच्च शक्ति की देवी है 


            नारी में अद्भुत क्षमता है। 


 


नारी श्रद्धा-स्नेह लुटाती 


            नारी ही शीतल छाया है,


हो गया धन्य धरा पर वह


         जो नारी निष्ठा को पाया है। 


 


है नारी निर्मल पानी जैसी 


        वाणी से अमृत बहता है।..


 


जिस घर में पूजी जाती है 


           घर देवालय बन जाता है,


संस्कार सिखाती है घर में 


         घर विद्यालय बन जाता है। 


 


दु:ख सहकर खुशियाँ देती 


       नारी मन-पावन रहता है।..


 


नारी तो सृष्टि की जननी है 


           नर नारायण बन जाता है, 


नारी दुर्गा काली बन जाती 


      कर्तव्य परायण बन जाता है। 


 


नारी पर उपकारी है मन की 


        आँचल से क्षीर बरसता है।


 


डॉ० प्रभुनाथ गुप्त ' विवश '


नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर

1-गाँव की माटी प्रकृति---


सुबह कोयल की मधुर तान


मुर्गे की बान सुर्ख सूरज की


लाली हल बैल किसान गाँव


की माटी की शोधी खुशबू भारत


की जान प्राण।।


बहती नदियां ,झरने ,तालाब 


पगडंडी पीपल की छाँव


बाग़ ,बगीचे विशुद्ध पवन के


झोंके भावों के रिश्तों के ठौर


ठाँव गाँव की माटी की शान।।


भोले भाले लोग नहीं जानते


राजनिति का क्षुद्र पेंच दांव


एक दूजे के सुख दुःख के साथी


गाँव की माटी का अलबेला रीती


रिवाज।।


जाती धर्म अलग अलग हो


बड़े उमंग से शामिल होते मिल


साथ मनाते एक दूजे का तीज


त्यौहार।।


 


2--गाँव की माटी और जन्म का रिश्ता---


 


गाँव की मिट्टी की कोख से


जन्मा भारत हिन्द का हर


इंसान चाहे जहाँ चला जाए


गाँव की मिट्टी ही पहचान।। पैदा होता जब इंसान पूछा


जाता माँ बाप कौन ,कहाँ


जन्म भूमि का कौन सा गाँव 


गाँव गर्व है गाँव गर्भ है


गांव की माटी का कण कण


ऊतक टिशु सांसे धड़कन प्राण।।


उत्तर हो या दक्षिण पूरब हो


या पक्षिम गाँव से ही पहचान


कहीं नारियल के बागान कहीं


चाय के बागान सेव ,संतरा ,अंगूरों


की मिठास खुसबू में भारत के कण कण का गाँव।।


त्याग तपस्या बलिदानो की


गौरव गाथा का सुबह शाम


गाँव की माटी का अभिमान।।


आजाद ,भगत ,बटुकेश्वर, बिस्मिल हो या लालापथ राय बल्लभ पटेल हो ,या राजेन्द्र प्रसाद चाहे लालबहादुर सब भारत के गाँवो की माटी के लाल।।


 


3--गांव की माटी वर्तमान और इतिहास-----


 


इतिहास पुरुष हो या वर्तमान


गाँव की माटी के जर्रे का जज्बा


बचपन नौजवान ।।


सुखा ,बाढ़ मौसम की मार


विषुवत रेखा का भी गाँव जहाँ


अग्नि की वारिश भी लगाती है


शीतल छाँव।।


लेह ,लद्दाख ,लाहौल, गंगोत्री हिम


हिमालय की गोद में बसे गाँव


हर दुविधा दुश्वारी भी प्यारी


नहीं चाहता छोड़ना क़ोई अपना


गाँव।।


गाँव की मिटटी का पुतला गाँव का वर्तमान गाँव की परम्परा में ही


खुश गाँव की माटी पर ही प्रथम


कदम गाँव की मिटटी में ही चाहत


लेना अंतिम सांस।।


गाँव आँचल बचपन का कागज


की कश्ती वारिश का पानी का


गाँव परेशानी बदहाल गॉव हर


हाल में जन्नत से खूबसूरत जननी


जन्म भूमि स्वर्गादपि गरिष्येते गाँव की माटी जीवन का प्रारम्भ


अंतिम सांस की माटी गाँव।।


 


नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर


सत्यप्रकाश पाण्डेय

मादकता लिए...........


 


ममत्व समत्व लिए हृदय में


लगती हो देवलोक की बाला


असीम स्नेह सागर आँखों में


सुरभित आनन है मतबाला


 


सुललाट पर विधु की रेखाएं


सौभाग्य प्रदर्शित करती सी


जिस ह्रदय की हो तुम चाहत 


रहें उसे उल्लासित करती सी


 


कुन्तल कुन्ज की उत्कृष्ट छटा


लगें हैं श्रृंखलाएं सम्मोहन की 


चित्ताकर्षक भाव भंगिमाएं


मानो अद्भुत छवि है मोहन की


 


हे करभोरु!नयनों का चितवन


देख तपस्वियों का तप डोले


गात मृगी सी चंचलता लेकर


सद हृदयों में मादकता घोले।


 


सत्यप्रकाश पाण्डेय


डॉ० संपूर्णानंद मिश्र

     नहीं होती है दीवारें मज़बूत


         छल- कपट की


          ढह जाती है 


  सत्य के एक ही प्रभंजन में


      खड़ी कर दी थी 


  अहंकार की बुनियाद पर 


      फ़ौलादी दीवारें 


        दशानन ने लंका में


         ध्वस्त कर दिया 


      मर्यादा के भूकंप ने 


      एक ही झटके में उसे


      लंबी नहीं होती है


      झूठ की ज़िंदगी


     रिघुर- रिघुर कर 


      जीने लगता है 


  व्यक्ति इस वातावरण में 


    नहीं ले पाता है


 स्वच्छ और साफ़ हवा


घुटन होने लगती है उसे


बेण्टीलेटर पर चला जाता है 


 काली छाया बनकर


 डराने लगता है ऐसा जीवन 


  भले ही खड़ा कर दे 


 अर्थ के वैश्विक- पटल पर


  एक विपुल साम्राज्य


  जरायम की नींव पर 


लेकिन नहीं ले पाता है


 चैन की सांसें वहां वह 


 सर्वहारा की चीखें, 


  करुण- क्रंदन, काल बनकर


      रक्तिम नेत्रों से


     डराने लगती हैं 


      अपराध- बोध


 होने लगता है तब उसे


   एहसास हो गया था


  अंत में सिकंदर को भी 


   कितनी ज़मीन चाहिए


  प्रति व्यक्ति औसतन मूलभूत


  आवश्यकताओं के लिए


नहीं होती है दीवारें मज़बूत 


  छल- कपट की कभी भी !


 


डॉ० संपूर्णानंद मिश्र


प्रयागराज फूलपुर


7458994874


सुनील कुमार गुप्ता

  तेरी पायल


मेंहदी लगे पाँव मे सखी,


कैसी- सज रही-


पायल तेरी।


तेरे आने की आहट भी,


सखी दे जाती-


ये पायल की छम छम तेरी।


मधुर संगीत का देती आभास,


धीमे-धीमे चलती जब-


ये पायल तेरी।


भूले न वो पल वो अहसास,


साजन ने बाँधी -


पाँव में पायल तेरी।


जीवन में देती प्रीत का अहसास,


मन में विश्वास-


जब छम छम बजती पायल तेरी।


कितनी अद्भूत कीमती,


जब जब सजती-


तेरे पाँव में पायल।


पायल की झंकार से ही,


मन मे उपजने लगता प्रेम-


धन्य है -तेरी पायल।।


 


 सुनील कुमार गुप्ता


 


डॉ0 रामबली मिश्र

सुन्दर मन की होती शुभ गति।


पावन भावों की ही सद्गति। ।


 


जिसके मन में पाप भरा है।


उसकी होती निश्चित दुर्गति।।


 


उत्तम बनने की चाहत रख।


अगर चाहते हो सुन्दर गति।।


 


जिसने पाप किया जीवन भर।


उसकी होती नियत अधोगति।।


 


पुण्य करो आजीवन प्यारे।


पा जाओगे निश्चित शिव गति।।


 


पापी के काले चेहरे पर ।


करती नृत्य प्रेतिनी-दुर्गति।।


 


यदि संपति की इच्छा मन में।


कायम रखना सत चेतन मति।।


 


कुमति द्वार है गहन अपावन।


सुमति द्वार पर शिवमय सद्गति।।


 


वैर जो करता नहीं किसी से।


उसपर शिवाशीष की सहमति।।


 


शिवशंकर यदि बनना है तो।


करते रह पावनता से रति।।


 


सद्भावों का करो संचयन।


मीठा कोना रख सबके प्रति।।


 


सदा संतुलित जीवन जीना।


करते रहना कभी नहीं अति।।


 


बन प्रकाशमय राह दिखाना।


सकल लोक के हेतु बन अदिति।।


 


माफ़ करो सबकी गलती को।


देना सीखो सुन्दर अभिमति।।


 


मत कर ऐसा ,दु:ख दे खुद को।


हो सम्मान भाव सबके प्रति।


 


भले जगत हो मायावी यह।


मोड़ ब्रह्म की ओर जगत-गति।।


 


 :डॉ0रामबली मिश्र हरिहरपुरी 


 


काव्य रंगोली आज के सम्मानित रचनाकार विजय मेहंदी मड़ियाहूँ,जौनपु


विशिष्ट कवि व गीतकार


"स्वदेश संस्थान भारत" के वार्षिक संरक्षक 


ग्राम व पोस्ट- मेहंदी,पिन कोड- 222135


जनपद-जौनपुर (उoप्रo) 


 


मेरी कलम से--


 


       (1) इन्शान-ए-हिन्द


 


          जम्मू है सिरमौर देश का,


          दाईं भूज गुजरात है।


          बाईं भुजा पुर्वोत्तर भारत,


          खाड़ी का सम्राट है।


 


          दिल्ली है जिगर देश की,


          दिल यूपी महाविराट है।


          आंध्रा बाईं कोंख देश की,


          दाईं महाराष्ट्र है।


 


        सावधान की सथिति में खड़े,


        दो पैर केरल औ- मद्रास हैंं।


        कन्याकुमारी माँ के चरणों में,


        पुष्प-गुच्छ आच्छाद है।


 


        दक्षिण में चरणों को धोता,


        सागर का सम्राट है।


        शत्रु देश हैं चोटी कटवा,


        उनकी क्या औकात है।


 


           2"सारा भारत मोदीमय"


 


सारा भारत मोदीमय,छाया शत्रुदेश में भय


होता मोदीनाम अजय,साराभारत मोदीमय 


मोदी माँ का लालनिर्भय,पूरा भारत हुआ--


                                              अभय।


अद्भुत बोली भाषा लय,सारा भारत मोदी-


                                               मय ।


 


धन्यमाता हीराबेन तनय,तूँ कितना अद्भुत-


                                  कितना निर्भय ।


तुझपे माँ का रक्षा-वलय,सारा भारत मोदी


                                                मय ।


 


RSS से ओमगणेशाय नम:,यात्रा गुजरात-


                                        केC M से,


अति संघर्षमय जीवन से,कीPMतक की--


                                  ----दूरी तय।


 


तुम कठोर,कठोर तेरा निर्णय,तन-मन तेरा


                                       है लौहमय ।


भाषा कोमल,कितना निर्भय,सारा भारत--


                                         मोदीमय ।


 


दुश्मन की छाती चढ़कर तूँ,मार गिराया---


                              आतंकी दानवमय।


कितना रिश्की,कितना तूँ निर्भय,


 कितना करुणामय,सारा भारत मोदीमय।


 


एक के बदले दस को ढ़हाया,घर में घुस तूँ


                          ----मार गिराया।


जज्बा तेरा विश्व को भाया,जलवा तेरा----


                          है जगत में छाया।


तूँ इस युग का महापुरुष अभय,सारा-----


                          भारत मोदीमय ।


 


नियत हराम नापाक देश को,दुनिया की है-


                                     नजर गिराया।


गजब की वैश्विक नीति चलाकर,सबको--


                         है देश के पक्ष में लाया।


इतनी अद्भुत व्यापक गाथा,तेरी पूर्ण न----


                         --कर सका "विजय"


सारा भारत मोदीमय,छाया शत्रु देश में भय


(जितने दल उतना ही दल-दल,और-------


                 दल-दल में ही खिले कमल)


 


जय हिंद 


             "Vijay Mehandi"


 


 


                       (3)


            "नवांकुर" (कन्या भ्रूण हत्या )


 


         (माँ की कोंख में पल रही-कन्या भ्रूण अपनी माँ से गुहार लगाती है--)


 


         धरा हो उस बगिया की माँ तूँ,   


         जिस बगिया की मैं अंकुर हूँ।


         मैं उत्सुक हूँ, विकसित हो,


         उस बगिया में आने को,


         हरित पल्लवित पुष्पलता बन,


         तेरी बगिया महकाने को।


 


         पर मुझको भय सता रहा,


         कुरीति-परस्ती जता रहा।


         लौह-यंत्र वार से मुझे कुंद कर,


         माँ-कोंख धरा से अलग-थलग कर,


         कचरे में ना फेंकी जाऊं।-2


       


ऐ मेरी ममतामई माँ, तूँ ऐसा होने सेरोक--


तूँ टोक उसे जो करने को रहाहो ऐसा सोच


ताकी मैं भी उस दुनिया में आ पाऊँ,


नवांकुर से हरित-लता बन,


तेरी बगिया में छा जाऊँ। 2


 


मैं तुझसे वादा करती माँ,


हूँ खुद में साहस भरती माँ,


नहीं बनूँगी 


 


                         (4)


 


                 "वेलकम ट्रंप"


स्वागतम-स्वागतम- स्वागतम- सुस्वागतम,


पड़ रहा हिन्द की जमीं पर ट्रंप का कदम।


बेटी इवांका और साथ में मेलानिया -बेगम,


पहली बार भारत में सपरिवार आगमन।


स्वागतम-स्वागतम-----------------------


 


हवाई-मार्ग, थल-मार्ग में है सुरक्षा सघन,


उड़नखटोला होगा हेलीकॉप्टर"मरीन वन"।


अहमदाबाद मेंपड़ेगाआपका पहला कदम,


दूल्हन की तरा सजा है "मोटेरा-स्टेडियम"।


स्वागतम-स्वागतम-----------------------


 


आप करेंगे उद्घाटित स्टेडियम विशालतम,


टिकी विश्व की नजरेंआपके भारतआगमन


लगे चार चाँद यात्रा पर "इवांका" के फैशन


सोने में सुहागा "मेलानिया", ट्रंप की बेगम।


स्वागतम-स्वागतम-----------------------


 


शाहजहाँ की बनवाई मुमताज-स्मृतिसदन,


आगरा के ताजमहल में भी होगा पदार्पण।


एकतरफ याराना माहौल भारत-अमेरिकन


वहीं जलके खाक होरहा है नापाक बेरहम


स्वागतम--स्वागतम-स्वागतम-सुस्वागतम।


 


            ( 5) "वायरस-कोरोना"


 


होजा सावधान आया वायरस-"कोरोना",


वरना रो सकते हो जीवन- मौत का रोना।


चीन-देश से चला ए वायरस "कोरोना",


अब पहुंच चुका है दुनिया के कोना-कोना।


होजा सावधान आया वायरस-"कोरोना",


 


है ए 'लाइलाज' बस सावधान रहोना, 


सर्दी,खाँसी,तेजबुखार,निमोनिया का होना, 


ऐसे लक्षण दिखने पर तुरत निदान करोना,


भीड़-भाड़ की जगहों से बचकर रहोना।


होजा सावधान आया---------------------


 


कुछ दिनों तक जर्नी-सफर से दूर रहोना, 


 बाहर है जाना तो, 'मास्क' लगाके चलोना।


सार्वजनिक छुए कुछ तो, हाँथ धुलोना,


अल्कोहल,साबुन से जमके हाँथ धुलोना।


होजा सावधान, आया--------------------


 


कुछ दिनों तक अण्डे-चिकेन से भी बचोना


हो यदि छींकना,खाँसना तो रुमाल रखोना


हो यदि बलगम मुँह में तो, खुले में थूंको ना


किसी के करीब सट के बातें भी करो ना


दहशत में डूबी दुनिया गजब ढाया कोरोना


होजा सावधान आया वायरस-"कोरोना"।


 


था जो देश इसे बोया, वही रोया खुब रोना


उसी की हुई है फाँसी जिसका था बिछौना


खोदा तूं दूसरे को खांई , खुद ही तूं गिरोना


उधर से आने वाली समीर, इधर तूँ बहोना।


होजा सावधान आया वायरस-"कोरोना"।।


 


 


सत्यप्रकाश पाण्डेय

क्यों पथभ्रष्ट हुआ तू प्राणी,धन धाम के लिए


बनी मिट्टी की यह काया, श्मशान के लिए


 


तू मिथ्या ही भरमाया, ये जीवन नरक बनाया


करनी थी गिरा अलंकृत, औ कंचन जैसी काया


 


कर्तव्य विमुख हुआ तू, झूठी शान के लिए


बनी मिट्टी की यह काया, श्मशान के लिए


 


कर मुरलीधर पै भरोसा, था जीवन सफल बनाना


भव ताप मुक्त हो करके, शुभकर्मों से महकाना


 


तू डाल मोह का फंदा, चला कल्याण के लिए


बनी मिट्टी की यह काया, श्मशान के लिए


 


युगलरूपाय नमो नमः


 


सत्यप्रकाश पाण्डेय


सुनील कुमार गुप्ता

संकल्पो संग जीवन को,


फिर मिली नई दिशा है।


सद्कर्मो संग जीवन में,


पग-पग उजली निशा है।।


त्यागे सुख अपनो के लिये,


उभरी यही आशा है।


पाने को सुख साथी संग,


छाती रही निराशा है।।


अपनत्व संग जग में साथी,


मिलता ऐसा आभास है।


मिलेगी सुख की छाया यहाँ,


जग में साथी विश्वास है।।


 


 सुनील कुमार गुप्ता


 


राजेन्द्र रायपुरी

धरती पलंग है,आश्वासन बिछौना।


अम्बर को ओढ़ कर,हमको है सोना।


छोटी सी आस है,मन में विश्वास है।


अच्छे दिन आएॅ॑गे, मंज़िल हम पाएॅ॑गे।


 


अपने भी उपवन में होंगी बहारें,


कलियाॅ॑ मुस्काएॅ॑गी, संग-संग हमारे।


चंदा भी आएगा,आॅ॑गन हमारे,


रातों में चमकेंगे, झिल-मिल सितारे।


छोटी सी आस है, मन में विश्वास है।


अच्छे दिन आएॅ॑गे, मंज़िल हम पाएॅ॑गे।


 


मेहनत करेंगे,पसीना बहाएॅ॑गे।


श्रम से कभी भी न,जी हम चुराएॅ॑गे।


बढ़ते कदम को न पीछे हटाएॅ॑गे।


पथरीली राहों पर चलते हम जाएॅ॑गे।


छोटी सी आस है, मन में विश्वास है।


अच्छे दिन आएॅ॑गे, मंज़िल हम पाएॅ॑गे।


 


कोई बड़ा न, कोई होगा छोटा।


कोई न होगा, बिन पेंदी का लोटा।


मिलजुल कर हम,नई दुनिया बनाएॅ॑गे।


नफ़रत की सारी,दीवारें गिराएॅ॑गे ।


छोटी सी आस है,मन में विश्वास है।


अच्छे दिन आएंगे, मंज़िल हम पाएॅ॑गे।


 


           ।।राजेन्द्र रायपुरी।।


नूतन लाल साहू

गांव की मिट्टी


अपनी रोटी,मिल बांट के खाये


आंनद मिलती हैं,उस चपाती में


सुख शांति की सुगंध आती हैं


अब भी, गांव की मिट्टी में


मानो सींच रहा है, माली


सामाजिक पौधों में, भर भर पानी


अनेक जातियों की फूलो से पुष्पित है


बगिया,मेरी गांव की मिट्टी में


अपनी रोटी, मिल बांट के खाये


आंनद मिलती हैं,उस चपाती में


सुख शांति की सुगंध आती हैं


अब भी, गांव की मिट्टी में


गांव की मिट्टी,सोना उगले


गांव की मिट्टी,सम्मान


गांव की मिट्टी से,नेता भी उपजे


गांव की मिट्टी है बेजोड़,जगत में


अपनी रोटी, मिल बांट के खाये


आंनद मिलती है,उस चपाती में


सुख शांति की सुगंध आती है


अब भी, गांव की मिट्टी में


सरसो की डाली,गेहूं की बाली


बहुत खूबसूरत लगती हैं


गांव की मिट्टी में


कलिया बन जाओ,फूल बन मुस्कुराओ


स्वर्ग से भी सुंदर, संसार बसा है


मेरे गांव की मिट्टी में


अपनी रोटी, मिल बांट के खाये


आंनद मिलती हैं, उस चपाती में


सुख शांति की सुगंध आती हैं


अब भी, गांव की मिट्टी में


है,मंदिर मस्जिद और गुरुद्वारा


निवास करते हैं,सभी धर्म को मानने वाला


गांव की मिट्टी, तो चंदन है


जहां दिखती हैं,भाई चारा


अपनी रोटी, मिल बांट के खाये


आंनद मिलती हैं, उस चपाती में


सुख शांति की सुगंध आती है


अब भी, गांव की मिट्टी में


 


नूतन लाल साहू


कालिका प्रसाद सेमवाल

हे मां सरस्वती सदगुण दे


 


विद्या वाणी की देवी मां सरस्वती


मुझ पर मां तुम उपकार करो,


मैं बनूं परोपकारी करु मानव सेवा


मेरे अन्दर ऐसा विश्वास भरो।


 


मां जले ज्ञान दीपक, जीवन में उत्थान हो,


अवगुणों को खत्म कर दो


हो जाय कल्याण मां,


चुन चुन कर सद् गुण के मोती


मेरी झोली में तुम भर दो मां।


 


हे मां लेखनी वाणी में मधुरता दे


भाव सरस अभिव्यक्ति हो,


हे मां सरस्वती वीणा धारणी


सब के जीवन में रस तुम भरदों मां।


********************


कालिका प्रसाद सेमवाल


मानस सदन अपर बाजार


रुद्रप्रयाग उत्तराखंड।


डॉ0 हरिनाथ मिश्र

तीसरा अध्याय (श्रीकृष्णचरितबखान)-1


 


मन-चित लाइ परिच्छित सुनहीं।


जे कछु मुनि सुकदेवइ कहहीं।।


    रोहिनि-नखत व काल सुहाना।


     सुनहु परिच्छित यहिं जग जाना।।


गगन-नखत-ग्रह-तारे सबहीं।


सांतइ-सौम्य-मुदित सभ रहहीं।।


    रहीं दिसा सभ निरमल-मुदिता।


     तारे रहे स्वच्छ सभ उदिता।।


बड़-बड़ नगर मही के ऊपर।


ग्वालन्ह गाँव छोट जे दूसर।।


    मंगलमय अब सभ कछु भयऊ।


    हीरा-खानि इहाँ जे रहऊ।।


निरमल-सुद्ध नदी कै नीरा।


हरहिं कमल सर खिलि जग-पीरा।।


    बन-तरु-बिटप पुष्प लइ सोभित।


    पंछी-चहक सुनत मन मोहित।।


भन-भन करहिं भ्रमर लतिका पे।


सीतल बहहि पवन वहिठाँ पे।।


   पुनि जरि उठीं अगिनि हवनै कै।


    कंसहिं रहा बुझाइ जिनहिं कै।।


चाहत रहे सबहिं मुनि-संता।


बढ़हिं न कइसउ इहाँ असंता।।


    भए प्रसन्न जानि प्रभु-आवन।


    लगे दुंदुभी सुरन्ह बजावन।।


गावहिं सभ किन्नर-गंधर्बा।


बरनहिं प्रभु-गुन चारन सर्बा।।


    नाचहिं सकल अपछरा मुदिता।


    बिद्याधरियन्ह लइ सँग सहिता।।


सुर-मुनि करहिं सुमन कै बरषा।


होंहिं अनंदित हरषा-हरषा।।


    नीरद जाइ सिंधु के पाहीं।


    गरजहिं मंद-मंद इतराहीं।।


परम निसीथ काल के अवसर।


भए अवतरित कृष्न वहीं पर।।


    पसरा रहा बहुत अँधियारा।


    लीन्ह जनर्दन जब अवतारा।।


जस प्राची दिसि उगै चनरमा।


लइ निज सोरहो कला सुधरमा।।


    गरभ देवकी तें तहँ तैसै।


    बिष्नु-अंस प्रभु प्रकटे वैसै।


दोहा-निरखे बसुदेवइ तुरत,अद्भुत बालक रूप।


         नयन बड़े मृदु कमल इव, हाथहिं चारि अनूप।।


                        डॉ0हरि नाथ मिश्र


                         9919446373


डॉ0 हरिनाथ मिश्र

द्वितीय चरण(श्रीरामचरितबखान)-38


 


उठहु भरत निज मरम बतावहु।


जे कछु मन तव तुरत जतावहु।।


     भरत तुरत उठि सभ जन नमहीं।


     अति बिनम्र हो प्रभु तें कहहीं।।


मैं जानहुँ प्रभु अति लरिकाईं।


खेले-कूदे प्रभु-परिछाईं।।


    बरबस मोंहि जितावहिं रघुबर।


    हारे जदि हम खेल म गुरुवर।।


मम अपराध न मानैं रघुबर।


मम हित करैं करैं जस दिनकर।।


    कस पंकज बिनु नीर तड़ागा।


    धिक ऊ जनम न प्रभु-अनुरागा।।


मोरि अभागि कि मैं बड़ पापी।


मातु-करनि भोगहुँ अभिसापी।।


     छमहु नाथ जदि अनुचित कहऊँ।


     सत तव प्रेम मातु प्रति जनऊँ।।


दंड मोंहि प्रभु जे कछु देउब।


ताहि बिनम्रहिं सिर धरि लेउब।।


    कपटी-कुटिल-पिचाली माता।


     तासु पुत्र नहिं जग को भाता।।


डाइन-कोंख संत नहिं जाए।


बाँस-करील न कमल खिलाए।।


    जाय न जड़ता केहू भाँती।


    भले बिरंचि लगावहिं छाती।।


पाथर-मूल कुसुम कस जाए।


कास त कास कास कहलाए।।


    निर्मम-निष्ठुर जे निरमोही।


    प्रभु तव कृपा मृदुल ही होही।।


मों पे कृपा करहु जग-स्वामी।


तव पद-पंकज मैं अनुगामी।।


    चाहेहुँ मैं प्रभु तव अभिषेकू।


     करउ इ काजु नाथ बड़ नेकू।।


सबहिं उबारउ लवटि अजुधिया।


तम-कलंक हरि बारउ दीया।।


    हम निज धरम समुझि बन रहबै।


    सत्रुहिं सँग लइ पितु-प्रन रखबै।।


अस कहि भरत नेत्र भरि आवा।


दीप-प्रकास करिख जनु छावा।।


    सभ जन हृदय द्रवित तब भवई।


     जनु सभ देह रहित तहँ लगई।।


दोहा-भाउक भवहीं सबहिं तहँ,बिकल लगहिं तजि धीर।


        राम-बसिष्ठ-सुमंतु सुनि,भरत-बचन गंभीर।।


        राम उठे तत्काल तब,सबहिं कहहिं समुझाइ।


        भरत-प्रेम अह सिंधु सम,थाह कोऊ नहिं पाइ।।


                     डॉ0 हरिनाथ मिश्र


                       9919446372


काव्य रंगोली आज के सम्मानित रचनाकार अनामिका सिंह  गढचंडूर , चंद्रपुर , महाराष्ट्र 


         442908


फोन नं - 7990615119


 


कैसी थी वो 


 


जाने कैसी थी वो 


हर पल हंसना हंसाना 


मुरझाई बगिया में 


खुशियों की कलियाँ खिलाना ।


 


बच्चे और बड़े भी


 थे जिनके दीवाने


 गुरु थी या थी चेली


 हम भी कभी ना जाने ।


 


छोटी बच्ची सी वो


 कभी चली आती थी


  कभी बड़ी बन जाती


 बिगड़ी बात बना जाती थी ।


 


 क्षण में ही वह जाने


 कितने रूप बदल लेती थी


 जिसकी जो हो जरूरत 


सबके काम आती थी ।


 


समय चक्र का फेरा


 उनसे नाता टूटा


 सामने तो नहीं दिखती


 पर दिल में तो बसी है।


 


 इंतजार उस दिन का


 जब साथ मेरे वह आए


 मुरझाई सी कलियां


 लहरा कर खिल जाएँ ।


 


अनामिका सिंह


 


 


2


ऊँची उड़ान 


बड़े यत्न से जोड़ा हमने


 एक-एक दीवार को


 ढहा दिया एक झटके में


 ईटों की मीनार को।


 


 क्या पाया क्या खोया हमने


 सोचा कभी न समझा


 जीते रहे बस यूं ही


 जीवन का हर लम्हा ।


 


क्यों खोया दिल का चैन


 जाना कभी ना इसका राज


 हम ही जिम्मेदार है इसके


 तभी मिला कांटों का ताज।


 


 ऊँची थी उड़ान हमारी 


पंख हमारे सच्चे थे


 कैसे पूरी होती मंजिल


 जब नीव हमारे कच्चे थे।


 


 लक्ष्य हमारा पूरा होता


 अगर हम इसके रखवाले होते


 उम्मीद हमारी पूरी होती


 जब इसको हम संभाले होते ।


 


 समय-समय पर देती प्रकृति


 हम सब को खतरे का ज्ञान


 फिर भी हम सब ध्यान न देते


 होता हम सब को नुकसान ।


 


ध्यान रखो पर्यावरण का 


अगर चाहते हो जीना


 खुद भी जियो और जीने दो 


मंत्र बना लो जीवन का ।


 


अनामिका सिंह


 


3


छवि विचार


  विकल मन


 


 कैसी छटपटाहट होगी 


विकल होगा तन-मन 


कैसी पीड़ा भोगी होगी 


जलता होगा अंतर्मन ।


 


हाय मैं क्या करूं?


कैसे बचाऊ खुद को 


पानी में तो कूद पड़ी


 खुदा बचाए उसको ।


 


जिसने जन्म लिया नहीं


 पीड़ा भोगी कैसी 


हाय विधाता कहां हो 


यह माया तेरी कैसी ?


 


कैसा पत्थर दिल होगा 


 कैसा होगा वह इंसान 


मानव का वेष धरने वाला 


होगा एक शैतान ।


 


पुण्यभूमि कहलाने वाला 


क्या यही है हिंदुस्तान 


जन्म लेने से पहले ही 


बना दिया इसको शमशान।


 


 पुण्य सलिला वसुंधरा को 


मत लज्जित होने देना 


बंद करो यह खूनी खेल 


मनुष्यता को धोखा देना ।


 


सुधर जाओ तुम भारतवासी


 मत रंगो खून से हाथ 


भारत मां की लाज रखो 


वरना हो जाओगे खाक।


अनामिका सिंह


 


4


🌹🌹🌹🌹🌹


उम्मीद 


 


ढूंढती रही


 दिनभर उम्मीद 


मिल भी गई 


आशा की एक रेखा


 देखा है मैंने 


बहुत से लोगों को


 काटते हुए 


उम्मीद के सहारे 


पूरा जीवन 


यही लोग छोड़ते


 एक निशान


 जीने की राह पर 


जीते हैं लोग 


जिनका नाम ले ले 


उम्मीद पर 


कायम है दुनिया 


जीवन जीना 


इसी का नाम तो है


 खुशियां बांट


 खुद खुश रह तू


 दामन तुम


 न छोड़ उम्मीद का


 कट जाएगी 


यह तेरी जिंदगी 


रह जाओगे


 बनकर मिसाल 


सुंदर जहान में 


 


अनामिका सिंह


 


 


5


आखों की भाषा 


🌹🌹🌹🌹


 


सिलसिला जीवन का


 चलता रहता है


 सुख हो या दुख हो


 खुशी हो या गम हो----


 


 आंखों का रंग भी 


बदलता रहता है हमेशा


 कभी दुख से सराबोर


 कभी खुशियों से भरी आंखें---


 


 आंखों की भाषा पढ़ना 


सीख लिया जिसने


 जीवन जीने की कला


 सीख ली उसने -----


 


जीवनसाथी की आंखों में


 आंखें डालकर सारी उम्र


 गुजार देता है सपने जीकर


 मिसाल बन जाता है -------


 


बूढ़े मां-बाप की आंखों के


 सपने साकार कर जाता है


 बच्चों को जीने का 


उद्देश्य समझा जाता है


 


 सगे संबंधियों के बीच


 चर्चा का विषय बन जाता है


 जवानी तो अच्छे से बीत जाती है बुढ़ापा भी चैन से कट जाता है------


 


 अनामिका सिंह


 


 


 


डॉ0 रामबली मिश्र

मेघ बरसता सावन बनकर


 


मेघ बरसता सावन बनकर।


मानव हँसता पावन बनकर।।


 


दिव्य प्रेम की हरित भूमि पर।


अति हर्षित मन नाच-नाच कर।।


 


जब होता मन में है सावन।


अन्तर्मन अति सहज लुभावन।।


 


मन मयूर है तभी थिरकता।


जब मनभावन दृश्य विचरता।।


 


मन के सावन को आने दो।


मंद सुगंध पवन बहने दो।।


 


अगर चाहिये दृश्य सुहाना।


मन को सुन्दर सहज बनाना।।


 


मन सावन जब बन जायेगा।


 मन का भ्रम तब मिट जायेगा।।


 


मन को सुन्दर भावों से भर।


संवेदन के तंतु स्वस्थ कर।।


 


मन की लहरों में मृदुता हो।


लहरों में प्रिय शीतलता हो।।


 


शीतलता में देवपुरुष हो।


मिटा हुआ कटु सकल कलुष हो।।


 


मन का सावन दिख जायेगा।


जब मन पावन बन जायेगा।।


 


 डॉ0रामबली मिश्र हरिहरपुरी 


 


डॉ. राम कुमार झा निकुंज

अभिलाष कहाँ आँसू जीवन


 


गरीबी के आँसू की धारा,


अविरत प्रवहित अवसाद कहे।


लोकतन्त्र नेता का नारा,


दीन हीन स्वयं हमराह कहे। 


 


रनिवासर मिहनतकस अविरत,


दुनिया उनको मजदूर कहे।


भूख प्यास आतर जठरानल, 


बन अम्बर छत मजबूर कहे। 


 


अश्क विरत नयना बन खोदर ,


मिल पीठ पेट हैं एक बने।


कृश काया मर्माहत चितवन ,


क्षुधित पीडित सन्तान रहे। 


 


टकटकी लगाए प्राप्ति .आश,


दाता चाहे निज दास करे।


हो क्या माने अपमान मान,


जीवन दुःखदायक हास करे।


 


गज़ब धैर्य साहस जीवन पथ,


नित स्वाभिमान संघर्ष सहे।


अतिसहनशील अवसाद निरत,


आत्मनिर्भरता पहचान रहे। 


 


है गरीब , पर खु़द्दार बहुत,


निर्माणक जो निज राष्ट्र रहे।


रखता ज़मीर ईमान सतत् ,


इन्सान विनत निज दर्द सहे।


 


अरमान नहीं , अवसान नहीं,


निर्भीत मनसि निशि नींद मिले।


मुस्कान बिखर दुःखार्त अधर,


परमार्थ मुदित अवसाद सहे। 


 


बढ़ यायावर अनिश्चय पथ,


नित अश्क नैन जल पान करे।


मधुपान गरीबी हालाहल,


मदमत्त सड़क तरु शयन करे। 


 


बढ़ चले डगर बिन राग कपट,


संकल्पित मन विश्वास भरे।


परिवार बोझ ढो कंधों पर,


दर्रा गिरि जंगल विघ्न खड़े।  


 


कर्तव्य पथिक अधिकार विरत,


आधार प्रगति अपमान सहे।


वास्तुकार शिल्पी गजधर,


पर भूख वस्त्र छत हीन रहे। 


 


निज व्यथा कथा आँसू बनकर,


बन मौन विकल करुणार्द्र कहे।


विधिलेख मान दारुण जीवन,


असहाय गरीबी धार बहे। 


 


अभिलाष कहाँ आँसू जीवन,


जब व्याधि गरीबी अमर बने।


चिलका समेट माँ अन्तस्थल,


सम ममता गम सुख साथ सहे। 


 


जनमत नेता गण सदा वतन,


खा कसम पूर्व जनमत चाहे। 


जीते भूले उपकार कसम,


दीनार्त सीदित को गुमराहें। 


 


बन क्षमाशील युगधारा जग,


सामन्त पीड़ मुस्कान भरे।


संतुष्ट मुदित पा मानिक तन,


रवि अर्घ्य दान निज अश्रु लिए। 


 


अश्क पोंछे कौन गरीबों का, 


सत्ता सुख शासन मौज करे। 


हरे कौन दुख संताप विकल,


दीनाश्रु पोंछ उद्धार करे। 


 


कवि✍️ डॉ. राम कुमार झा "निकुंज"


 


नई दिल्ली


डॉ0 हरिनाथ मिश्र

द्वितीय चरण (श्रीरामचरितबखान)-37


 


राम-बिचार जानि देवेसा।


चिंतित इंदरपुरी नरेसा।।


    तुरत बुला सुर-गुरुहिं बृहस्पति।


     करउ बिमर्स देव-हित निस्बति।।


राम-भगत-प्रिय, परम सनेही।


पुरवहिं आस असंभव भलही।।


     राम लवटि जदि गए अवधपुर।


     करिहैं नास पिसाच अमरपुर।।


सोचहु कछु उपाय गुरु मोरे।


नहिं अब अधिक समय बहु थोरे।।


     तब समुझाइ बृहस्पति बोले।


     प्रभु सर्बग्य समर्थ न भोले।।


प्रभु जानहिं सभकर दुख-दारुन।


जस हो उचित करहिं दुख हारुन।।


     राम-जनम यहि कारन भयऊ।


     पाप-मुक्त महि सभ सुख पयऊ।।


यहिं तें सबहिं करउ एतबारा।


होंहिं न अहित राम रखवारा।।


     राम समुझि गे इन्द्रहिं मरमा।


     निज मन कहेउ न होहि अधरमा।।


हर बिधि मोर धरम उपकारू।


हरपल-हरदिन,साँझ-सकारू।।


     जदपि भरत मम परम सनेही।


     जनहित काजु करै बड़ नेही।।


नाहिं कठोर-अबुध-अग्यानूँ।


प्रखर-प्रबीन-गुनी मैं जानूँ।।


     भरत-चरित कछु बरनि न जाए।


     जनप्रिय भरत-चरित अति भाए।।


दोहा-भरत-चरित जनु जलधि-जल,सकल रतन कै खान।


         बिनय-सील-गरिमा निहित,कर्मठ-धीर-प्रधान ।।


        प्रबल भरत-प्रभु-प्रेम लखि,बहुरि उठे मुनिनाथ।


       सभा मध्य कह भरत सन,निज तप-बल लइ साथ।।


                    डॉ0हरि नाथ मिश्र


                      9919446372


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