कमल कालु दहिया

विश्वास की प्रभात 


 


ढ़लते सूरज ने मुझे पुकारा था 


  रात घनी, चिराग जलाए रखना, 


होगा फिर ज्योतिर्मय प्रकाश यहाँ 


  आस - विश्वास का दीप जलाए रखना।।


 


रात इतनी घनी, कि घना घनघोर 


  तारे भी चंचल ज्योत में मन्द है, 


प्रभात के इंतज़ार में बैठा कालीसैया 


  जलता चिराग हवा से बन्द है।। 


 


रातों में प्रभात का संस्मरण जप रहा


   प्रफुल्लित चमकता फिर कण - कण होगा,


रात के बाद दिन खिलता हमेशा


  इस आँधी के बाद नव हवा का क्षण होगा। ।


 


धूमिल होते यह तारे यूं कह रहे हैं 


   सटेगा फिर घना काजल - सा अंधेरा, 


फिर खिलेंगें , पंछी होंगे गगन में 


  भोर ले आ रही नए आस का सवेरा।।


 


  कमल कालु दहिया 


जोधपुर, राजस्थान 


संदीप कुमार विश्नोई रुद्र

मिलाकर प्रेम से नजरें हमें हरबार मिलती है , 


खिले वो देख के हमको कली ज्यों डाल खिलती है। 


 


दिखाती है अदाएँ वो हमें जब सामने आती , 


नयन हम से मिलाती है हमें वो प्यार करती है। 


 


दबाना दाँत से अपने गुलाबी होंठ ये उसका ,


इशारों से हमें तब पास वो अपने बुलाती है। 


 


नयन के कोर से हमको दिवाना वो बना बैठी ,


नयन से तीर वो मेरे हृदय के पार करती है। 


 


तुम्हारे रूप के जलवे निहारे चाँद वो नभ से ,


हुई बरसात के तो बाद तू दुगुनी निखरती है। 


 


संदीप कुमार विश्नोई"रुद्र"


गाँव दुतारांवाली तह0 अबोहर पंजाब


काव्य रंगोली आज के सम्मानित रचनाकार रचना निर्मल दिल्ली

रचना निर्मल


जन्म: 5 अगस्त 1969, पंजाब


शिक्षा: ( राजनीति विज्ञान ) स्नाकोत्तर


रुचि : पठन , पाठन,समाज सेवा


कर्म क्रिया: अध्यापिका , गृहणी, समाजसेवी


प्रेम : सच्चाई देश और प्रकृति से..


प्रिय लेखक : महादेवी वर्मा,सुभद्रा कुमारी चौहान,सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, प्रेमचंद,मीर,राहत इंदौरी


साहित्यिक क्षेत्र: गीत,ग़ज़ल,कविता,छन्द,कहानी लघुकथा इत्यादि


साहित्यिक यात्रा : दो वर्ष


प्रकाशन: विभिन्न राष्ट्रीय स्तर की पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित, विभिन्न विधाओं के साझा संकलनों में रचनाएँ सम्मिलित


उपलब्धियाँ: विभिन्न मंचों द्वारा रचनाओं हेतु समय समय पर पुरस्कृत एवं सम्मानित


गोल्डन बुक्स आफ रिकार्ड में प्रकाशित पुस्तक" हे पवन " में कविता- स्त्री और हवा, लघुकथा -कसूर किसका


,सचिव (महिला काव्य मंच (रजि०) , साहित्य शिखर की राष्ट्रीय सचिव, सोपान साहित्यिक संस्था की कार्यकारिणी सदस्या,आगमन की आजीवन सदस्यता


सम्पर्क: फोन: 9971731824 , 7011594469


ईमेल: rachnabhatia800@gmail.com


 


 


कविता 1


 


सफलता


 


क्या है सफलता


गरीबी से अमीरी की ओर


हार से जीत की यात्रा


 कांटो से फूलों तक की यात्रा 


या….आलिशान घर,बड़ी गाड़ी,


और नौकर चाकर,


खुली आंखों से देखे


सपनों का खुशनुमा अंत।


सफलता एक सीढ़ी है


जिसकी हर निसैनी 


बनती है प्रेरणा, अभिव्यक्ति,


एहसास ,जुनून, उन्माद से ,


जो देती है जीवन को प्रवाह 


पर..महामाया भी है सफलता, 


अहंकार,द्वेष और अवसाद की जननी


विनम्रता और ईर्ष्या से करती है


एक जंग की शुरुआत


आप ही बताइए ..


सही सफलता क्या


मन की खुशी नहीं ?


इन्द्रियों पर विजय नहीं?


जहाँ भौतिक सुखों की 


कोई अहमियत नहीं


असली मायने तो सफलता के 


समन्वय के साथ हर स्थिति में 


 है खुशहाल रहने में , है


कमजोरी को ताकत बनाने में


अपने बदलाव तय करने में 


सफलता घटना नहीं जो


घट जाएगी,..


वस्तु भी नहीं कि मिल जाएगी


सफलता तो परिणाम है


हमारी सोच का,जो तय करती है


लक्ष्य और उसके प्रति..


समर्पण , और देती है शांति


आंतरिक विकास


 


स्वरचित


रचना निर्मल


दिल्ली


 


 


कविता 2


 


परीक्षा


 


परीक्षा से 


डरना मेरी फितरत नहीं


मैं स्त्री हूँ


मेरा तो जीवन ही परीक्षा है


जन्म पाने से जन्म देने की


अपनी जीत को हराने की


तुम्हारी हार पर विश्वास की


ज़ुल्म चुपचाप सहने की


 तुम्हें क्षमा करने की


अश़्क पी कर मुस्कुराने की


अंजान रिश्ते में बँधने की


अपने भरोसे की


मैंने तो अग्नि परीक्षा तक दी है


और तो और..


कटे परों से आसमान छुआ है


तुम केवल घर चलाने की परीक्षा देते हो


हाँ .. उत्तीर्ण भी हो ही जाते हो


पर कभी सोचा है..


अगर मैं घर बनाने की परीक्षा में फेल हो जाऊं


मैं रिश्तों में बँध ही न पाऊँ


तुम्हें क्षमा न करूं


हाँ


जन्म ही न दूँ


तो तुम्हारी परीक्षा का क्या मोल रहेगा


किताबी ज्ञान कितना काम आयेगा


चलो एक काम करते हैं


परीक्षा तुम्हारी लेते हैं


तुम्हारी वफ़ा की परीक्षा


मुझे क्वाल्टी समय देने की परीक्षा


मुझे सम्मान देने की परीक्षा


मुझे भोग्य नहीं योग्य समझने की


मेरे सपनों को साकार करने की परीक्षा


मुझे…


मैं रहने देने की परीक्षा


क्या..


दे पाओगे..


बोलो कुछ तो बोलो


यूँ न हारो


परीक्षण स्थल तक तो चलो


डरो नहीं


मेरा भरोसा तुम्हें हारने न देगा


आखिर..


तुम्हारी इसी जीत में


मेरी जीत भी छिपी है


...


हमारी जीत छिपी है


 


स्वरचित


रचना निर्मल


दिल्ली


 


 


3


 


इज़हार या इंकार


 


तुम्हारा इज़हार


मेरा इंकार


नतीजा


तेजाब से वार


क्या यही है प्यार


चलो मान ली गलती


थी मेरी नसमझी


अब मैं करती हूं इज़हार


आओ कर लो प्यार


क्या हुआ..


क्या प्यार नहीं रहा


या जिस्म वो नहीं रहा


सुनो..


लक्ष्मी थी,लक्ष्मी हूं


और.. लक्ष्मी रहूंगी


बढ़ूगी आगे


अब..


बेधड़क,


इसी चेहरे के साथ


 


स्वरचित


रचना निर्मल


दिल्ली


 


 


4


 


आशा


 


हर सुबह..


चाहत की बाती ले 


विश्वास के तेल से 


मन के मंदिर में 


जलता है रोज़ 


आशा का दीप 


जरूरत के साथ 


दिखाने नये रास्ते 


सूरज की तरह 


और रोज़…


जरूरत के लिये


जलती हैं चाहत


डगमगाता है विश्वास 


सूरज के साथ साथ 


हर शाम..


थक जाती है आशा 


पसर जाती है निराशा 


अंधियारी रात में 


बुझने लगता है 


दीप आशा का 


मगर…


सपने तो अपने हैं 


सहारा देते हैं लौ को 


छूटने नहीं देते 


हाथ आशा का 


नींद के झोंकों में 


प्यार से करते हैं 


तैयार एक और 


नई आशा का दीप 


अगली सुबह के लिए 


 


स्वरचित 


रचना 


दिल्ली


 


5


 


कौन हो तुम


 


 


भारत माँ आज 


हमसे पूछ रही है


कौन हो तुम


आखिर कौन हो तुम


किसके मोहरे हो ?


क्या केवल भीड़ हो । उन्माद हो


या वोटबैंक की कठपुतली हो


आखिर कौन हो तुम


जानते हो…?


 


तुम मात्र शोर नहीं हो


 विभाजित करने वाला मतभेद नहीं हो


सांप्रदायिकता का दानव भी नहीं हो


असंवेदनशील तो बिल्कुल नहीं हो


तुम तो संजीदा विचारों के सारथी हो,


संगीत हो


सुरों में सामंजस्य करना जानते हो


मूल रंगों से बने अनगिनत रंग हो


खुशबू फैलाते फूलों की क्यारी हो


तुम..


राष्ट्रीय एकता का संबल हो


संवाद हो


सत्य का बोध हो


जागो…


अब तो जागो


अज्ञान से ,अधर्म से जागो


मोह से


अहंकार से जागो


स्वयं को पहचानो


मानवीय मूल्यों को जानो


गंगा जमुनी तहज़ीब को मानो


अब तुम्हें उठना होगा


क्योंकि


अलगाववाद का जाना अभी शेष है


राष्ट्र में समूह चेतना का आना अभी शेष है


अंधकार को भगाना अभी शेष है


मानवता का सूर्योदय होना अभी शेष है


तुम्हें उठना ही होगा


 बहुत कुछ होना अभी शेष है


 


स्वरचित



 


विनय साग़र जायसवाल

हवा का ज़ोर इरादा डिगा नहीं सकता


चराग़े-ज़ीस्त हूँ कोई बुझा नहीं सकता


हुस्ने-मतला--


 


किसी के सामने सर को झुका नहीं सकता


वजूद अपना यक़ीनन मिटा नहीं सकता


 


फ़कत तुम्हारी ही मूरत समाई है दिल में 


इसे मैं चीर के सीना दिखा नहीं सकता 


 


किसी के प्यार से जान-ओ-जिगर महकते हैं


यक़ीन उसको ही लेकिन दिला नहीं सकता 


 


वो इस जहान में रुसवा कहीं न हो जाये 


किसी को दाग़ भी दिल के दिखा नहीं सकता 


 


बसी हैं ख़ुशबुएं इनमें उसी की सांसों की


ख़तों को इसलिए भी मैं जला नहीं सकता 


 


मुझे है आज भी चाहत तुम्हें मनाने की


सितारे तोड़ के हालाँकि ला नहीं सकता 


 


जला के ख़ुद को ये नस्लों को रौशनी दी है


ज़माना लाख भुलाये भुला नहीं सकता 


 


वो कर रहा है जफ़ा मुझसे बारहा साग़र


ये और बात है रिश्ता मिटा नहीं सकता 


 


🖋️विनय साग़र जायसवाल 


बरेली 


बहर-मुफायलुन फयलातुन मुफायलुन फेलुन 


सौम्या मिश्रा

सुनो कन्हैया कहाँ बसे हो, तुम्हें सुदामा ढूंढ रहा है।।


 


दुर्लभ प्रेम तुम्हारा माना, 


दुर्लभ दर्शन यह भी जाना,


जग में सुनी कथाएं तेरी,


हरते हो तुम विपद घनेरी,


 


मेरी भी विपदाएं हर लो, याचक तेरे द्वार खड़ा है।


सुनो कन्हैया कहाँ बसे हो, तुम्हें सुदामा ढूंढ रहा है।।


 


तुम परम सनेही ईश सखा,


करते भक्तों पर नित्य कृपा,


मधुवन कुंज गली के राजा,


श्याम पियारे हृदय समाजा,


 


आओ आओ हे मुरलीधर! इन अँखियन से अश्रु बहा है।


सुनो कन्हैया कहाँ बसे हो, तुम्हें सुदामा ढूंढ रहा है।।


 


कहें गोपिका तुम्हें पराया,


उद्धौ का भी मन भरमाया,


यमुना तट पे राह निहारे,


खड़ी राधिका उन्हीं किनारे,


 


सुख भी सारे छोड़ यहाँ पे, खोजे नित तुम्हें राधिका है।


सुनो कन्हैया कहाँ बसे हो, तुम्हें सुदामा ढूंढ रहा है।।


 


सौम्या मिश्रा


एस के कपूर श्री हंस

बच्चे भारत के भविष्य भाग्य विधाता।


 


आगे 2050 का भारत तो 


आज का बच्चा है।


ढाल लो जैसे भी उसको कि


मन का सच्चा है।।


जिस साँचे में डालोगे उसे


बन जायेगा वैसा ही।


अभी पका नहीं कि वो आज


मिट्टी का कच्चा है।।


 


बहुत सारे विकल्प हैं आपके


पास आजमाने को।


उसको सुसंस्कृत संस्कारी


जैसा भी बनाने को।।


चाहो तो मोबाइल गेम्स और


पब्जी में झोंक दो।


यही उचित समय है उन्हें


शौर्य गाथायें सुनाने को।।


 


बच्चा आगे बनेगा हठी या


नहीं ये आज तय करेगा।


जो कुछ सिखायेंगे आज वो


वैसी ही लय भरेगा।।


बच्चे देश के कर्णधार भारत


के वो भाग्य विधाता।


आज की शिक्षा के सहारे ही


चुनौतियों से वह लड़ेगा।।


 


आज के नौनिहाल कल के


वो राष्ट्र निर्माता हैं।


आज डालिये अच्छी आदतें


कि वो भविष्यदाता हैं।।


स्वस्थ, सुडौल, आज से ही


उनको बनाये आप ।


बच्चे भारत नव निर्माण के


बनेगें भाग्य विधाता हैं।।


 


एस के कपूर श्री हंस


बरेली।


 


सत्यप्रकाश पाण्डेय

बंधन कटे जन्मों का.....


 


दीन दरिद्र के सहायक


तुम ही जीवन दाता


तुम्ही रक्षक तुम संरक्षक


तुमही भाग्य विधाता


 


अनाचार का अंत किया


हे धर्म के संस्थापक


अरि हन्ता कष्ट निवारक


हे सुर मुनि के नायक


 


आदिशक्ति सौम्य स्वरूप


नाम धाम दोनों पावन


विश्व रूप श्री राधे कृष्णा


"सत्य"हृदय मन भावन


 


प्रणपण से मैं तो किंकर


युगलरूप चरणों का


दया करो जग वन्दनीय


बंधन कटे जन्मों का।


 


युगलरूपाय नमो नमः


सत्यप्रकाश पाण्डेय


सुनील कुमार गुप्ता

अपनो का साथ निभाना है


 


मंज़िल न कोई मेरी यहाँ,


फिर भी तो चलते जाना है।


अनचाहे संबंधों को भी,


संग जीवन में निभाना है।।


मिले जो दर्द अपनो से फिर,


उन्हें यूँहीं भूल जाना है।


आ कर रोके कदम जो यहाँ,


उन्हें फिर गले लगाना है।।


साथी जो दे विष का प्याला,


अमृत समझ पी जाना है।


तन रहे न रहे साथी यहाँ,


अपनो का साथ निभाना है।।


 


सुनील कुमार गुप्ता


 


नूतन लाल साहू

आशा का परचम लहरा


अंधियार भगा जाही


अंजोर बगर जाही


सब दिन एके सही 


नइ होय रेे संगी


आशा का परचम लहरा,धीरज धर


जांगर चलावव, पछीना बोहावव


मेहनत के धरम निभावव


माटी ल सोन बनावव


सेवा धरम परहित


जिनगी के हे सार


आशा का परचम लहरा,धीरज धर


बड़ जरूरी हे,जियेबर


अन्न के दू ढोम्हा


तन ढाके बर कपड़ा अउ


रहे बर कुरिया के कोन्हा


हवा पानी माटी सिरजइया


बरम्हांड रचईया ह


आसिरवाद दीही


बिहनिया के सुरुज जरूर आ ही


आशा का परचम लहरा,धीरज धर


समे के चक्का ह,चलते च रहिथे


जवईया के संगी


सिरिफ सुरता ह रहिथे


अंधियार ल तै झन डरा


मोर गोठ ल त मान


रतिहा पहाही,हो ही बिहान


आशा का परचम लहरा,धीरज धर


करम अऊ धरम के


झन टोर विसवास ल


हिम्मत झन हार,भरोसा ल राख


मनखे के चिन्हारी,विपत म होथे


आशा का परचम लहरा,धीरज धर


नूतन लाल साहू


डॉ0 हरिनाथ मिश्र

तीसरा अध्याय (श्रीकृष्णचरितबखान)-2


 


चक्रइ-गदा-संख अरु कमलहिं।


पकरे रहा करहिं महँ सकलहिं।।


   बिरजि रहा बच्छस्थल ऊपर।


   कनक-रेख सिरिबत्स चिन्हकर।।


गर महँ कुस्तुभ मनि रह हिल-मिल।


घन इव गात पितंबर झिल-मिल।।


   भानु-किरन इव कुंचित केसा।


    लखि अस बालक पितु-हिय हुलसा।।


मनि सँग जड़ित मुकुट अरु कुंडल।


लखतै होवै परम सुमंगल ।।


    कमर- करधनी चमचम चमकै।


    बाजूबंद बाँह मा दमकै ।।


अनुपम छटा सुसोभित बालक।


भवा अवतरित असुरन्ह घालक।।


    भयो अचंभित पितु बसुदेवा।


    बालक रूप जनम प्रभु लेवा।।


जानि रहसि अस भे बहु मुदिता।


रोमहिं रोम अनंदहिं खिलिता।।


     कृष्न-जनम-उत्सव के हेतू।


     मन-प्रसन्न बसुदेव सचेतू।।


कीन्ह सहस दस गो-संकल्पा।


दान द्विजन्ह कहँ जाय न जलपा।।


    कच्छ-सूतिका जगमग भयऊ।


    अनुपम कांति अंग प्रभु रहऊ।।


दोहा-पुरुष महातम कै जनम,जानि मुदित बसुदेव।


         करन लगे स्तुति तुरत,कर जोरे कह देव।।


                       डॉ0 हरि नाथ मिश्र


                         9919446372


डॉ0 हरिनाथ मिश्र

द्वितीय चरण (श्रीरामचरितबखान)-39


 


धीरज-धरम-धुरंधर भ्राता।


परम भागि मों दियो बिधाता।।


     जागै स्वयं जगत जब सोवै।


     निष्ठावान भरत बस होवै।।


ज्येष्ठ भ्रातृ-भारहिं जे गहही।


भ्राता उहहि भरत सम रहही।।


     जेहि पे कृपा करहिं जगदीसा।


      रंक भवहि तुरतै अवनीसा।।


सुनहु भरत त्यागहु सभ सोका।


भरम-पाप तजि होहु असोका।।


     कछु नहिं दोषु मातु कैकेई।


     बिधिना करनि मातु कस लेई।।


मम बन-गमन,पिता सुरपुरहीं।


बिधि-बिधान टारे नहिं टरहीं।।


     जे कछु करम-भागि लइ आवै।


     सिर तेहि धारि जगत सुख पावै।।


तव मति-बुधि-बिबेक जग माहीं।


ग्यानी-ध्यानी सभें सराहीं।।


    आस्था फलति जगत चहुँ-ओरा।


     देइ प्रान पषान कठोरा।।


निर्मम-निठुर-घात-प्रतिघाता।


पावै फल जस रचा बिधाता।।


   यहि मा दोषु न तोरउ-मोरा।


    नहीं पिता,नहिं मातुहिं छोरा।।


यहि सभ काल करै जग माहीं।


सबहिं नचावै ऊ जस चाहीं।।


   लेइ सभें तुम्ह जाउ अवधपुर।


   करउ राज तहँ धीरज धरि उर।।


करउ राज पितु-बचन निबाहू।


बन-प्रवास मम धरम, न काहू।।


    जनक-दूत तेहि अवसर अयऊ।


     सीता जिनहिं तुरत तहँ पठऊ।।


प्रभुहिं नमन करि तब ते कहहीं।


मिथिलापति दल-बल सँग अवहीं।।


    सुनि बन-गमन राम अरु सीता।


     लखन समेत जानि भयभीता।।


पिता-मरन अरु भरत-आगमन।


चिंताग्रस्त मातु हिय-चित-मन।।


     साजि समाजु जनक नृप आए।


     सीय-जननि अपि निज सँग लाए।।


अवधपुरी मिथिला रखवारू।


बिधिवत रखि मिथिलेस पधारू।।


दोहा-जनक-आगमन सुनि सभें,हर्षित चित-मन-गात।


        अस छबि कै बरनन करत,सबद उदर न अघात।।


                      डॉ0हरि नाथ मिश्र


                       9919446372


कालिका प्रसाद सेमवाल

मां सरस्वती वरदान दे


नव शब्द दे नव ज्ञान दे


जिस पर मां तुम कृपा करें


उसका सारा जग सम्मान करें।


 


मां सरस्वती वरदान दे


स्वर की देवी ज्ञान की मैया


हम कर थोड़ी दया करो मां


द्वार तुम्हारे आया हूं मैं।


 


मां सरस्वती वरदान दे


पावन हृदय कर दो मां मेरा


अधरों पर मुस्कान दो मां


नव शब्द दे नव ज्ञान दो मां।


 


कालिका प्रसाद सेमवाल


मानस सदन अपर बाजार


रुद्रप्रयाग उत्तराखंड


डॉ निर्मला

तुम्हारे साथ मैं बंद कमरे से निकलकर, 


 प्रकृति की छाँव मैं।  


चल रही हूँ मैं हमसफर,


अब तुम्हारे साथ मैं।


पक्षियों की चहचहाट,


पत्तियों की सरसराहट।


सुबह की गुलाबी धूप,


साथ तुम्हारे भाती खूब।


आम की अमराइयों मैं,


भीनी भीनी है महक,


आज मन मैं है उमंग


मैं भी लूँ थोड़ा चहक।


नींबू, कटहल और अमरूद,


गन्ना भी लहराये खूब,


आँवले और अरण्डी की,


यारी यहाँ बनी है खूब।


तुम संग गेहूँ मैं लहराऊँ,


मेथी, पालक तोड़ के लाऊँ।


बाजरे की रोटी के संग,


पालक का मैं साग बनाऊँ।


सामने बैठो मेरे पियाजी,


अपने हाथों से मैं खिलाऊँ


बंद कमरे से निकलकर,


प्रकृति की छाँव में          


 चल रही हूँ मैं हमसफर ,


अब तुम्हारे साथ मैं।


डॉ निर्मला


डॉ0 रामबली मिश्र

मैने एक सुन्दर रचना देखी 


रचना में भावुकता देखी 


भावुकता में मृदुल स्नेह था 


छिपी स्नेह में ममता देखी 


ममता में निर्वाध प्रेम था


छिपी प्रेम में करुणा देखी 


करुणा में बेजोड़ चमक थी 


छिपी चमक में सृजना देखी 


सृजना में एक विश्व छिपा था 


छिपी विश्व में समता देखी 


समता में था मार्मिक चित्रण 


चित्रण में कोमलता देखी 


कोमलता की सहज पंखुडी


में खिलती मानवता देखी 


मानवता में आग्रह देखा 


आग्रह में थी नित्य वंदना 


वंदन में सक्रियता देखी 


सक्रियता की यही अर्चना 


सबमें संवेदनप्रियता हो।


 


रचनाकार :डॉ0रामबली मिश्र हरिहरपुरी 


डॉ. राम कुमार झा निकुंज

कागज़ कलम दवात


 


स्मृति के पन्नों पर आज विदित,


जिंदगी कागज कलम दवात।


हाथ रंगे काली स्याही से ,


गगन घनघोर घटा बरसात। 


 


बम्बू शाखा छील छील कर,


थी कलम बनायी विविध तरह।


पास स्याही दवात सुलेखा,


कागज स्वर्णाक्षर लेख सुघर।


 


कलम भींगों के हर बार मैं,


स्याही कलम व्यक्त अभिलेख।


कलम फाउंटेन शान गज़ब,


सुलेखा इंक बघारे शेख। 


 


मुक्ता मणि सम लेखन सुन्दर,


कागजी पृष्ठ कलम की नींब।


मातु पिता अभिभावक प्रेरित,


स्वर्णाक्षर कागज प्रतिबिम्ब। 


 


नित सुलेख पर मिली प्रशंसा,


व्यक्त भाव कागज लेखन पर।


पुलकित मन आह्लादित चितवन,


नित ले कागज कलम दवात। 


 


सुलेखनार्थ पड़ी मार बहुत,


बचपन में जो अबतक है याद।


पूर्ण किया निज शिक्षा जीवन,


नित ले कागज कलम दवात। 


 


कब्ज़ा अब कलम दवात आज,


प्लास्टिक में बँधे रिफिल समाज।


गायब हुई दवात सुरेखा, 


दुखी कागज मोबाइल गाज। 


 


कागज कलम दवात पूँछ कहँ,


अब डिजीटल नवयुग आगाज।


पत्र लेख अन्तर्मन प्रियजन,


ले वाट्स एप फेसबुक आज।


 


कहाँ खपत हो कागज का अब,


है संगणक मोबाइल सेव। 


शोभा बन दवात कलम अब,


अनज़ान नये आज के वेव।


 


परिवर्तन युग परिधान नये,


भूले मसि कलम दवात गए।


खाली है कागज के पन्ने,


स्मार्ट मोबाईल एप लिए।


 


कविः डॉ. राम कुमार झा "निकुंज"


नई दिल्ली


सुनीता असीम

दहन का काम है केवल रहा सुलगने का।


जो इसके पास में जाए वही है जलने का।


****


बहार देख बहारों में नाचता है दिल।


मिन्नतें कितनी करो ये नहीं बहलने का।


****


बड़े हुए हो उन्हीं मां पिता के हाथों में।


न नाम लेना कभी उनको तुम झटकने का।


****


चला चली का है मेला जगत में देखो रे।


यहां पे काल से कोई नहीं है बचने का।


 ****


करोना काल में बैठे रहो घरों में सब।


नहीं है वक्त ये बाजार में भटकने का।


****


सुनीता असीम


डॉ बीके शर्मा

भ्रष्टाचारी नेता 


 


चौपाल पर भीड़ लगी 


घर का कोना खाली 


मेंढक हैं सब बारिश के 


मारो तुम दो ताली


 


आग लगा के ये औरों के 


करते स्वयं उजाला 


खुलेआम करते नुमाइश 


हाय वतन बेच डाला


 सुर सज्जन की बस्ती में


ये दैत्त कहां से आए


 


फैराते यह अधर्म पताका 


क्यों मानवता पर छाए 


क्यों जलती नहीं ज्वाला ऐसी 


असुर जलाए देश बचाए


क्यों आता नहीं कोई तूफा ऐसा 


जो भ्रष्टाचार कि नीव हिलाए 


 


चक्र तोड़ जो अंधकार का 


अपनी जीत का दीप जलाए 


असुर जलाए देश बचाए 


इस दुर्योधन से मातृभूमि की 


कोई कृष्ण बने और लाज बचाए


 


डॉ बीके शर्मा 


उच्चैन भरतपुर राजस्थान


रश्मि लता मिश्रा

मंगल कारक हैं।


 शंकर बालक हैं ।


मंदिर मूरत है ।


मोहक सूरत है।


 


मोदक चाह रही।


 पैजन बाज रही।


 कीर्तन गान करें


 मंडप साज रहे।


 


 


मूषक आप चढ़ो ।


आसन ओर बढ़ो।


 आकर भोग चखो ।


संतन लाज रखो।


 


दीनन दान मिले।


लेकर आज चले ।


अंधन नैन खुले ।


जीवन राग घुले।


 


रश्मि लता मिश्रा


बिलासपुर, सी जी।6


निशा अतुल्य

गणपति वंदन


गणपति


विघ्न विनाशक


संकट हारण तुम


बुद्धि ज्ञान 


दाता ।


 


गिरिजासुत


मातृ भक्त


आरती करूँ तुम्हारी


प्रथम पूज्या 


तुम ।


 


उसके


कारज 


सिद्ध हो जाते


जो तुम्हें 


ध्याता ।


 


मोदक 


मन भाते


भक्त भोग लगाते


शुभ-लाभः 


पाते।


 


विनायक


भाल चंदन


हृदय से वंदन


स्वीकार करो


हमारे।


 


तुमरी


मूषक सवारी


लगे बड़ी प्यारी


पान सुपारी


चढ़ाया।


 


कर 


जोड़ करूँ


वंदना तुम्हारी गजानन


कृपा अधिकारी


तुम्हारी।


 


निशा"अतुल्य"


डा. नीलम

मुझे याद है जरा जरा


 


तनहाई का आलम था


वो तेरा आना-आना था


वादा करके मुकर जाना 


मुझे याद है जरा जरा 


 


बरस रही थी चाँदनी 


मौसम भी भीगा भीगा था


घने गेसूओं से गिरते थे मोती


मुझे याद है जरा जरा 


 


वो अमराई में बौराया बौर


थी डालियों पे झूलों की रमक


तुम्हारा हौले-हौले झूला देना 


मुझे याद है जरा जरा


 


ख्वाबों की चादर बिछा


नदिया के किनारे 


डाल हाथों में हाथ घूमना 


मुझे याद है जरा जरा


 


मेरे आँसू अपनी पलकों पे सजा


खुशियां मेरे लब को देना 


यूं मेरे हालात बदलना 


मुझे याद है जरा जरा


 


उम्र के इस दौर में 


गुजरी हसीन यादों का


वो बीता खूबसूरत सफर


मुझे याद है जरा जरा। 


 


         डा. नीलम


कालिका प्रसाद सेमवाल

प्रेम क्या है


************


प्रेम आराधना है


प्रेम उपासना है


प्रेम अनुराग है


प्रेम स्नेह है


प्रेम गंगा जल है


प्रेम शबरी के बेर है


प्रेम प्रयागराज है


प्रेम रामायण है


प्रेम गीता है


प्रेम आचरण है


प्रेम व्यवहार है


प्रेम आखें है


प्रेम सत्संग है


प्रेम आरती है


प्रेम पूजा है


प्रेम गायत्री है


प्रेम गुरु ग्रंथ है


प्रेम पीपल वृक्ष है


प्रेम सबेरा है


प्रेम ठंडी हवा है


प्रेम फूल है


प्रेम फूलों की खूश्बू है


प्रेम व्यवहार है


प्रेम के बिना


जीवन का


कोई अर्थ नहीं है


जीवन की


सार्थकता


बस प्रेम में है।।


 


कालिका प्रसाद सेमवाल


मानस सदन अपर बाजार


रुद्रप्रयाग उत्तराखण्ड


डॉ हरिनाथ मिश्र

मेंरे दोस्त 


मेरे दोस्त तुम क्या से क्या हो गए हो? 


कल तक थे अपने अब ख़फा हो गए हो 


मधुवन की कलियाँ, गावों की गलियाँ


नदी के किनारे, कुदरती नज़ारे, 


सभी के सभी तो हैं पहले ही जैसे―


केवल तुम्ही बस दफ़ा हो गए हो |


                     मेरे दोस्त तुम .....


आई दिवाली खुशियां मनाली


खुशियो से मन की पीड़ा मिटा ली 


वही थी अमावस , वही थी सजावट। 


मगर बस तुम्ही बेवफा हो गए हो।


                      मेरे दोस्त तुम .....


बहती हवा पूछे तेरा ठिकाना ,


समझ में न आये , क्या है बताना ।


चारों दिशाएँ नहीं कुछ बताएं , 


न जाने कहाँ गुमशुदा हो गए हो।


                       मेरे दोस्त तुम....


फ़िज़ाओं में खुशबू चमन है बिखेरे,


हैं गाते परिन्दे सबेरे, सबेरे ।


मधुर रागिनी से विकल चित हो मेरा,


भाये न चंदा , तुम जुदा हो गए हो।


                       मरे दोस्त तुम...


झरनो की थिरकन , भौरों का गुँजन,


पावस की रिम- झिम ,मयूरो का नर्तन।


दबे पॉव देते हैं एहसास तेरा-


मानो तुम्ही अब ख़ुदा हो गए हो ।


                         मेरे दोस्त तुम...। ।      


                                         


©डॉ हरिनाथ मिश्र


                                           9919446372


डॉ० प्रभुनाथ गुप्त विवश

नारी है करुणा का सागर 


            नारी में माँ की ममता है,


सर्वोच्च शक्ति की देवी है 


            नारी में अद्भुत क्षमता है। 


 


नारी श्रद्धा-स्नेह लुटाती 


            नारी ही शीतल छाया है,


हो गया धन्य धरा पर वह


         जो नारी निष्ठा को पाया है। 


 


है नारी निर्मल पानी जैसी 


        वाणी से अमृत बहता है।..


 


जिस घर में पूजी जाती है 


           घर देवालय बन जाता है,


संस्कार सिखाती है घर में 


         घर विद्यालय बन जाता है। 


 


दु:ख सहकर खुशियाँ देती 


       नारी मन-पावन रहता है।..


 


नारी तो सृष्टि की जननी है 


           नर नारायण बन जाता है, 


नारी दुर्गा काली बन जाती 


      कर्तव्य परायण बन जाता है। 


 


नारी पर उपकारी है मन की 


        आँचल से क्षीर बरसता है।


 


डॉ० प्रभुनाथ गुप्त ' विवश '


नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर

1-गाँव की माटी प्रकृति---


सुबह कोयल की मधुर तान


मुर्गे की बान सुर्ख सूरज की


लाली हल बैल किसान गाँव


की माटी की शोधी खुशबू भारत


की जान प्राण।।


बहती नदियां ,झरने ,तालाब 


पगडंडी पीपल की छाँव


बाग़ ,बगीचे विशुद्ध पवन के


झोंके भावों के रिश्तों के ठौर


ठाँव गाँव की माटी की शान।।


भोले भाले लोग नहीं जानते


राजनिति का क्षुद्र पेंच दांव


एक दूजे के सुख दुःख के साथी


गाँव की माटी का अलबेला रीती


रिवाज।।


जाती धर्म अलग अलग हो


बड़े उमंग से शामिल होते मिल


साथ मनाते एक दूजे का तीज


त्यौहार।।


 


2--गाँव की माटी और जन्म का रिश्ता---


 


गाँव की मिट्टी की कोख से


जन्मा भारत हिन्द का हर


इंसान चाहे जहाँ चला जाए


गाँव की मिट्टी ही पहचान।। पैदा होता जब इंसान पूछा


जाता माँ बाप कौन ,कहाँ


जन्म भूमि का कौन सा गाँव 


गाँव गर्व है गाँव गर्भ है


गांव की माटी का कण कण


ऊतक टिशु सांसे धड़कन प्राण।।


उत्तर हो या दक्षिण पूरब हो


या पक्षिम गाँव से ही पहचान


कहीं नारियल के बागान कहीं


चाय के बागान सेव ,संतरा ,अंगूरों


की मिठास खुसबू में भारत के कण कण का गाँव।।


त्याग तपस्या बलिदानो की


गौरव गाथा का सुबह शाम


गाँव की माटी का अभिमान।।


आजाद ,भगत ,बटुकेश्वर, बिस्मिल हो या लालापथ राय बल्लभ पटेल हो ,या राजेन्द्र प्रसाद चाहे लालबहादुर सब भारत के गाँवो की माटी के लाल।।


 


3--गांव की माटी वर्तमान और इतिहास-----


 


इतिहास पुरुष हो या वर्तमान


गाँव की माटी के जर्रे का जज्बा


बचपन नौजवान ।।


सुखा ,बाढ़ मौसम की मार


विषुवत रेखा का भी गाँव जहाँ


अग्नि की वारिश भी लगाती है


शीतल छाँव।।


लेह ,लद्दाख ,लाहौल, गंगोत्री हिम


हिमालय की गोद में बसे गाँव


हर दुविधा दुश्वारी भी प्यारी


नहीं चाहता छोड़ना क़ोई अपना


गाँव।।


गाँव की मिटटी का पुतला गाँव का वर्तमान गाँव की परम्परा में ही


खुश गाँव की माटी पर ही प्रथम


कदम गाँव की मिटटी में ही चाहत


लेना अंतिम सांस।।


गाँव आँचल बचपन का कागज


की कश्ती वारिश का पानी का


गाँव परेशानी बदहाल गॉव हर


हाल में जन्नत से खूबसूरत जननी


जन्म भूमि स्वर्गादपि गरिष्येते गाँव की माटी जीवन का प्रारम्भ


अंतिम सांस की माटी गाँव।।


 


नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर


सत्यप्रकाश पाण्डेय

मादकता लिए...........


 


ममत्व समत्व लिए हृदय में


लगती हो देवलोक की बाला


असीम स्नेह सागर आँखों में


सुरभित आनन है मतबाला


 


सुललाट पर विधु की रेखाएं


सौभाग्य प्रदर्शित करती सी


जिस ह्रदय की हो तुम चाहत 


रहें उसे उल्लासित करती सी


 


कुन्तल कुन्ज की उत्कृष्ट छटा


लगें हैं श्रृंखलाएं सम्मोहन की 


चित्ताकर्षक भाव भंगिमाएं


मानो अद्भुत छवि है मोहन की


 


हे करभोरु!नयनों का चितवन


देख तपस्वियों का तप डोले


गात मृगी सी चंचलता लेकर


सद हृदयों में मादकता घोले।


 


सत्यप्रकाश पाण्डेय


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