निशा अतुल्य

बिंदिया 


छूट जाएं कुछ पूर्वाग्रह 


बिखर जाएं कुछ थोपे हुए चिन्ह


जो गुलामी के से लगते हो 


तब जो बिंदिया चमकेगी 


तेजस्वनी होगी वो 


सूर्य की तरह निखरेगी ।


सूर्य छूप जाता है 


समय पर अपने


बिंदिया की चमक


हर पल बिखरेगी।


कभी बन चाँद देगी शीतलता


कभी प्रखर सूरज सी निखरेगी


जब हो जाएगा खत्म भेद 


स्त्री पुरुष का समाज से ,


सच मानो 


उस दिन स्त्री के भाल पर


एक ऐसी बिंदिया चमकेगी 


जो घर ही नही 


जग सारा रोशन करेगी ,


क्योंकि वो उसके 


अंतःकरण से उपजेगी


किसी विवशता की शिकार नहीं होगी । 


उन्नत भाल 


स्वतंत्र विचार 


समानता के कदम


भरता विश्वास 


बनाएंगे एक नया समाज 


जिसमें स्त्री शृंगार 


उसके अपने होंगे 


बंधनो में बंधे नही 


कोई नही पौंछ सके 


जहाँ 


उसकी चमकती बिंदिया


या आँखों का काजल ।


आज खंडित करती स्वयं को


करती तिरस्कार 


हर शृंगार का नारी 


क्यों 


स्वयं ही


थक गई है बंधनो का 


बेमानी बोझ ढोते ढोते


चाहती है उतार फेंकना 


अपने ही आपसे ।


अपनाएगी स्वयं से ही


अपने आत्मविश्वास को


बिंदी, चूड़ी, कजरा, गजरा 


किसी के नाम का नहीं


सजायेगी स्वयं के मनोभाव को ।


तब जो बिंदिया चमकेगी


उन्नत भाल पर


जगमगाएगी सकल संसार पर 


जैसे क्षितिज में उदय होता 


सूरज


कर देता है सिंदूरी पूरे आकाश को ।


 


निशा अतुल्य


डॉ बीके शर्मा 

श्री कृष्ण उवाच:


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है पुरातन 


जो सनातन 


है अजन्मा 


शोक उसका क्या करें |


 


जलता नहीं 


जो गलता नहीं 


जो है अविनाशी


शोक उसका क्या करें |


 


कटता नहीं 


जो सूखता नहीं 


जो है अच्छेद


शोक उसका क्या करें |


 


गिरता नहीं 


जो मरता नहीं 


है अव्यक्त 


शोक उसका क्या करें |


 


अर्जुन उवाच:


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बीच भंवर में जीवन नैया 


बीच भंवर में फंसा खेवैया


तुम कहते हो आओ किनारे 


क्यों दूर खड़े हो देख रवैया


 


करुणा घेरे व्याकुल उर को 


दुख घेरे कंठ से सुर को 


नहीं ज्ञात मुझे अपना पराया 


नहीं जानता सुर-असुर को 


 


कृष्ण उवाच:


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तुम तो पार्थ हो मेरे प्यारे 


छोड़ो मोह और रिश्ते सारे 


जो जन्मा नहीं उसे क्या मारोगे 


जीता क्या है जो तुम हारोगे


क्या साधन तुम साथ में लाए 


क्या साधन तुम ले जाओगे


 


हो जाओ सजग तुम


"पार्थ" ओ मेरे 


धर्म युद्ध है 


सामने तेरे


 


 अर्जुन उवाच:


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कर्ता क्या कर्म क्या


अकर्म क्या है |


धर्मा क्या धर्म क्या 


अधर्म क्या है ||


 


क्यों नहीं कर्म मेरे 


दिव्य निर्मल |


क्यों काम राग भय


बनाते निर्बल ||


 


क्यों घिरते मुझे यहां 


वर्ण भेद हैं |


आप हैं आप में


चारों वेद हैं ||


 


क्यों कर्म में 


अकर्म मैं देखता नहीं |


क्यों अकर्म में 


कर्म मैं सोचता नहीं ||


 


आप अविनाशी हैं


आपसे सर्व है |


आपसे शून्य है 


आपसे ही गर्भ है ||


 


फिर कर्म लिप्त हूं


मैं यह जानकर |


क्यों रहता अधर्म


भृकुटी तानकर ||


 


जग आश्रित है


आप आश्रय हैं |


अधर्म है अकर्म है 


आप तो श्रेय हैं ||


 


करें भस्म कामना 


राग द्वेष मेरे |


आप तो जानते हैं


सब भेष मेरे ||


 


 श्री कृष्ण उवाच:


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क्या पाया है 


जो दिया है तुमने |


क्या ग्रहण किया 


क्या त्यागा तुमने ||


 


यह तो बस 


साधन है तेरे |


तुम तो प्रिय


"पार्थ" हो मेरे ||


 


डॉ बीके शर्मा 


उच्चैन भरतपुर राजस्थान


9828863402


विनय साग़र जायसवाल

भड़कते शोले बुझा दे साक़ी


शराबे-उल्फ़त पिला दे साक़ी


 


सुराही पैमां छलक न जायें


लबों से मेरे लगा दे साक़ी


 


ये तशनगी जान ही न लेले


तकल्लुफ़ों को भुला दे साक़ी


 


पियूं मैं जी भर के आज सहबा


समाँ यूँ रंगी बना दे साक़ी


 


जिधर भी देखूँ नज़र तू आये


तमाम पर्दे हटा दे साक़ी


 


नशा रहेगा ये उम्र भर तू


निगाहे-मय भी मिला दे साक़ी


 


दुआएं तुझको ये देगा साग़र


तू जामो बोतल सजा दे साक़ी


 


🖋विनय साग़र जायसवाल


तशनगी--प्यास


सहबा-शराब


डॉ0 हरि नाथ मिश्र

चितचोर


चित को चुरा के मेरे,


किस देश जा बसे हो?


तुम तो बड़े हो छलिया-


किस प्यार सँग लसे हो??


 


बंसी बजा-बजा कर,


यमुना-किनारे सैयाँ।


वादे किए बहुत थे,


बैठे कदंब-छैंयाँ।


कसमों को भूल कर के-


किस जाल में फँसे हो??


 


अब तो पता बता दो,


चितचोर ऐ सँवरिया।


किस राह से ये पहुँचे,


तेरी गली बँवरिया?


तुझको निकालूँ आ के-


जिस कीच में धँसे हो।।


 


तेरा-मेरा ये नाता,


सदियों पुराना साजन।


तेरे हृदय की मलिका,


तुझको पुकारे राजन।


चितचोर मेरे छलिया-


क्यूँ दिल मेरा झँसे हो??


 


आ जाओ मेरे कान्हा,


तुझको पुकारे राधा।


निर्मल-विमल व सच्चा,


समझे न प्यार बाधा।


हर लो वियोग-विष को-


बन नाग जो डसे हो।।


       चित को चुरा के मेरे,


       किस देश जा बसे हो??


               © डॉ0हरि नाथ मिश्र


                  9919446372


एस के कपूर श्री हंस

 हम आज कहाँ जा रहे हैं।


 


मैं एक मस्त अल्हड़ बाला, अति


आधुनिक कन्या हूँ।


मैं सुसंस्कृत, संस्कारी, सुकन्या नहीं


धन दौलत लिप्त धन्या हूँ।।


प्यार,धोखा, पैसा, ब्यूटी, ग्लैमर


ही मेरे रोज़ के शगल हैं।


शॉपिंग मॉल सैर सपाटे मेरे जीने के तो अंदाज़ ही अलग हैं।।


शादी विवाह के बंधन मेरे लिए कोई मायने रखते नहीं हैं।


कोई भी सामाजिक रस्मोरिवाज मुझे


रोक सकते नहीं हैं।।


फेरे,विदा,चूड़ा, कंगन, सिंदूर, मेहंदी यह शब्द मेरे लिए पुराने हैं।


मैं सुपर अल्ट्रा मॉडर्न लड़की मुझे तो


ऐशो आराम ही बस पाने हैं।।


बिन फेरे हम तेरे, हमारी इस नई हाई


सोसाइटी का चलन है।


पार्टी ड्रग मौज मस्ती, में ही हमारा


जीवन मरण है।।


बिंदास अंदाज़ नैन मटक्का ही रोज़


हमारी जिंदगी है।


इंस्टाग्राम फोटोज, चैट ,से ही होती हमारी बन्दगी है।।


जलेबी सी मीठी हूँ ,पर ज्यादा अंदर विष हाला है।


आवश्यकता होती तो ओढ़ लेती हूँ, भारतीयता का दुशाला है।।


बिन शादी के भी हम ,साथ साथ घर में रहते हैं।


हमारे उच्चवर्गीय समाज वाले, इस को ही ठीक कहते हैं।


यूँ ही नहीं हमारी सोच ,अति आधुनिक


कहलाती है।


आज़ाद खयाल इसको, लिव इन रिलेशनशिप बतलाती है।।


 


एस के कपूर श्री हंस


बरेली।


डाo सम्पूर्णानंद मिश्र

कहां से लाऊं


 


आज दिहाड़ी नहीं मिली


रोटी कहां से लाऊं 


अरी, पगली तुम लोगों 


को कैसे खिलाऊं 


बिकने के लिए तो 


गया ही था ‌


बीच चौराहे पर


खड़ा ही था 


किसी के द्वारा 


मैं नहीं खरीदा जा सका 


आज इन हाथों में 


एक भी पैसा नही पा सका 


आज दिन भर नहीं खा सका


किसी ने देखा भी नहीं 


सबकी नज़रों में झांका 


सबने मुझे घूर कर ताका 


मानों मैं कोई अपराधी हूं !


  बाबूजी- बाबूजी


 कह-कहकर गिड़गिड़ाया 


सब वहां से भाग खड़े हुए


मैंने कहा, आज ऐसा क्यों है


जो देख रहा हूं वैसा क्यों है


किसी एक पढ़े लिखे 


मज़दूर ने कहा, 


जब तक कोरोना रहेगा


तब तक यही हालात रहेंगे 


इस महामारी मैं हम लोगों को 


छटपटाते हुए भूख का करोना


ऐसे ही मार डालेगा 


इन रसूखदारों का क्या


इनके घर के चूल्हे


  तो हंस रहे हैं 


इसीलिए इनके


 चेहरे पर हंसी है


हम लोगों का क्या 


अगर कुछ दिन


 ऐसे ही रहा 


तो हम लोग 


थाली और ताली बजाने लायक 


भी नहीं रह जायेंगे ।।


 


डाo सम्पूर्णानंद मिश्र


सुनीता असीम

नाम होंठों पर तेरा ही रह गया।


ख्वाब का था इक महल जो ढह गया।


****


देखकर भी जुल्म तेरे हमनशीं।


मन मेरा था बावरा जो सह गया।


****


कुछ नहीं रक्खा दिलों के मेल में।


हिज्र का मुझसे हरिक पल कह गया।


****


जो बचा मुझमें रहा था तू कहीं।


आंसुओं के साथ वो भी बह गया।


****


इंतिहा थी दर्द की जितनी रही।


दिल कराहों से उसे भी कह गया।


****


सुनीता असीम


मदन मोहन शर्मा सजल

धुँआ धुँआ सी जलती रही जिंदगी,


खून कतरा बिखरती रही जिंदगी,


 


हजारों ग़म लिये दिल की पनाह में,


लबों पे हँसी' सँवरती रही जिंदगी,


 


करवटें बदलती रही हसीं यादें, 


बेखुदी में महकती रही जिंदगी,


 


टूटती गई मिलन की तमाम आस,


ख्वाब दरिया में' पलती रही जिंदगी,


 


जिंदगी न होती न होता इश्के' ग़म,


सोचकर हाथ मलती रही जिंदगी।


 


मदन मोहन शर्मा सजल


कोटा (राजस्थान)


डॉ० सम्पूर्णानंद मिश्र

विस्थापन एक त्रासदी


 


चीखें, चिल्लाहटें


   करुण क्रंदन 


जैसे जायज़ शब्दों से


  निकले स्वर भी


इक्कीसवीं सदी की सड़क पर


   प्रजनन स्त्रियों की


  समग्र पीड़ाओं को


न्याय दिलाने के लिए


मुकम्मल साक्ष्य नहीं है


       क्योंकि


किसी स्त्री पर 


नाज़ायज संतति द्वारा हमला


उतना ख़तरनाक नहीं है


जितना उसके पाले स्वप्न को 


      गिद्धों सदृश


 नोंच- नोंच कर भक्षण करना 


   वर्तमान साक्षी है 


  यह बीमारी वैश्विक है


 इसने न जाने कितनों को मारा


     कितनों को तोड़ा


        कितनों के मुंह को कूंचा


        उस सांप की तरह 


     जो छटपटाते हुए 


      दम तोड़ देता है


        घुप्प अंधेरों के 


     भयानक जंगलों से निकलकर


     जो कभी बाहर की रोशनी में 


      पुनः न कभी नहाया हो


     कितनी आशाओं के शलभ


     वापसी की लौ में जर गए


     कितनों के सपने मर गए


     आत्माएं भी दुःखी हैं


      ग्राम- देवताओं के 


   ‌‌ शरीरों को त्यागकर 


    रेल की पटरियों पर


    न‌ जाने कौन सी काली छाया 


   आज जीवित आत्माओं 


      को डरा रही है 


    अपनी बेगुनाही का


    पुख्ता सबूत मांग रही हैं 


    इन छायाओं को 


  इतना डरा हुआ नहीं देखा गया 


 अपने ही नीड़ में आने से


    पखेरू भी घबराए हैं 


    अपना- अपना आशियाना भी आज पराया सा उन्हें लग रहा है


  उनमें जलता हुआ चूल्हा 


   बेगाना सा लग रहा है


धधक रही प्रत्याशा की लकड़ियां


   न जाने कब बुझ जायेंगी 


    शेष ज़िन्दगी की 


अंतिम आशाओं की सूई 


  कब रुक जायेगी


साहब! यह महामारी 


तो जरूर दूर हो जायेगी


लेकिन विस्थापित हुए 


लंगड़े लूलों की ज़िंदगी 


 क्या फिर पटरी पर आ पायेगी ?


 


 


डॉ० सम्पूर्णानंद मिश्र 


संजय जैन

तेरे चाहाने वालो के,


किस्से बहुत मशहूर है।


तेरी एक झलक के लिए,


खड़े रहते है लाइन से।


चेहरा छुपाना दुपट्टे से


लोगो की समझ से परे है।


कैसे देख सकेंगे वो तुझे,


खुले आसमान के नीचे।।


 


किसी पर तो तुम्हारा,


दिल आ रहा होगा।


धड़कने दिल की तेरी,


निश्चित बड़ा रहा होगा।


पर बात दिल की तुम,


व्या कर नही पा रहे हो।


मन ही मन जिसे चाह रहे हो,


उसे अपनी चाहत बता पाये हो।।


 


देखते देखते भी प्यार होता है।


पत्थरदिल भी प्यार के लिए पिघलता है।


कमबख्त दिल भी ऐसा होता है,


जो किसी न किसी पर तो फिसलता है।


और विधाता की बनाई जोड़ीयों का,


इस संसार में मिलन होता है.....।।


 


जय जिनेन्द्र देव


संजय जैन (मुम्बई)


शिवांगी मिश्रा

जग का मेरा प्यार नहीं था ।


 


प्रेम दीप में जलते जलते ।


प्रेम आश में पलते पलते ।।


ह्रदय किया था तुम्हें समर्पित , साधारण उपहार नहीं था । (१)


 


जग का मेरा प्यार नहीं था ।।


 


नयी किरण थी खिली खिली सी ।


उठी लहर थी मिली मिली सी ।।


तुम पर जीवन किया था अर्पित , गहनों का श्रृंगार नहीं था । (२)


 


जग का मेरा प्यार नहीं था ।।


 


तेरे मिलन की आशाओं में ।


दीप जला रक्खे राहों में ।।


भला मेरा अनमोल प्रेम ये , क्यूँ तुमको स्वीकार नहीं था । (३)


 


जग का मेरा प्यार नहीं था ।।


 


शिवांगी मिश्रा


धौरहरा लखीमपुर खीरी


उत्तर प्रदेश


डॉ0 रामबली मिश्र

फिर भी बहुत जरूरी पीना


 


भोजन का है नहीं ठिकाना।


फिर भी बहुत जरूरी पीना।।


 


मन कहता जीना या जी ना।


पर देखो पीने का सपना।।


 


बीबी-बच्चों की मत सुनना।


रोटी की मत चिन्ता करना।।


 


पीने से बस मतलब रखना।


फटेहाल ही जीते रहना।।


 


लगा हुआ है जीना मरना।


इससे कभी न विचलित होना।।


 


जीने का मतलब है पीना।


भले झोपड़ी में ही रहना।।


 


मेहनत करके पैसे पाना।


पी कर सायं घर को आना।।


 


मुँह से बदबू भले उगलना।


फिर भी आवश्यक है पीना।।


 


भले राह में गिरना-पड़ना।


फिर भी आदत नहीं छोड़ना।।


 


भले कर्ज लेकर हो पीना।


या पत्नी को गीरो रखना।।


 


भूजी भाँग भले घर में ना।


फिर भी जीने को है पीना।।


 


सूदखोर की गाली सुनना।


जीवन को ही पीते रहना।।


 


रचनाकार:डॉ0रामबली मिश्र हरिहरपुरी 


काव्य रंगोली आज के सम्मानित रचनाकार नीरजा बसंती गोरखपुर

परिचय


नाम -नीरजा बसंती 


पद -स. अ. 


विभाग -बेसिक शिक्षा विभाग 


निवास -रुस्तमपुर, गोरखपुर


 


कविता 1


हे, दिव्य प्रभा अभिनन्दन, 


हे, दिव्य दिवस अभिनन्दन, 


हुई अयोध्या पुनः दिव्यमय, 


हे, राम आपका अभिनंदन !


है कोटि -कोटि अभिवंदन !!


 


नवल प्रात की आभा से, 


सरयू की पावन धारा से, 


भावों के पूर्ण समर्पण से, 


हे, दशरथ नंदन अभिनंदन !


है कोटि -कोटि अभिवंदन!!


 


विह्वल, अहलादित है जन -जन, 


पूरित आशा सज गए स्वप्न, 


अनगिन दीप जले मन -मन, 


हे, सियाराम शुभ अभिनंदन !


है, कोटि -कोटि शुभ अभिवंदन !!


 


दिव्य भूमि का पूजन दिवस, 


विजय दिवस -सा खिला हर्ष, 


मंगल, पावन, सुखद प्रहर, 


हे!परम् पुरुष, हे !पुरुषोत्तम, 


हे, राम आपका अभिनंदन !


है कोटि -कोटि अभिवंदन !!


 


नीरजा बसंती 


05/08/2020


 


कविता 2


नव नेह--


 


 


नैनो में 


नव नेह सजे 


हिय, हर्षित 


अभिलाषित।


दिवा, उमस 


शीतलता, सरस।


सब समतल 


परिभाषित !!


दृढ़ संकल्पित मन 


चले निरंतर कंटक पथ, 


फिर भी सुखमय 


लगे प्रहर 


क्षण-क्षण हो 


अह्लालादित !!


छूने को 


अक्षय आकाश 


कौतुहल मन उड़े उड़ान 


अति उमंग 


उल्लासित !!


रवि द्युतिमा से 


आयुष्मान, 


जीवन ज्योति प्रसार, 


प्राणो को 


नव संचय दे, 


लक्ष्य अटल हो 


ज्योतिर्मान !!


 


नीरजा बसंती 


29/6/2020


 


कविता 3


!!!मिट जायेगा गहन तिमिर यह !!


(कोरोना महामारी के संदर्भ में )


 


 


सहमी सी है वसुधा अपनी,


डरा हुआ अम्बर है, 


मुश्किल में है ये जन जीवन, 


कांप रहा हर मन है !


 


हवा के झोंके हुए विषैले, 


स्पर्श में है बीमारी, 


श्वास की घड़िया दुभर हो गयीं, फैली है महामारी !


 


मंदिर मस्जिद बंद हो गए, 


खुले हैं श्मशानों के द्वार, 


खुशियों पर पड़ गयीं बेड़िया, 


बनी है विपदा पहरे दार !


 


प्रलयनाद सी यह महामारी, 


जनमानस पर भारी, 


मानव जीवन लील रही, 


यह 'पशुओं की बीमारी ' !


 


विश्व युद्ध -सा द्वन्द चल रहा, 


हर जर्रे -जर्रे में, 


हुए अचंभित सोच रहे हैं, 


मृत्यु छिपी कण- कण में !


 


बड़े -बड़े विकसित देशों पर, 


छाई लाचारी -सी, 


दिखे नहीं कोई उजियारा, 


दुनिया बेचारी -सी !


 


विश्व पटल के विकसित देश, टिक न सकें इस रण में, 


जो अपना डंका बजा रहे थे, 


समृद्धि और बल में !


 


जो जितने विकसित थे, 


वे उतने ही बर्बाद हुए, 


पर अपनी 'संस्कृति' के बल पर, 


हम सबकी मिसाल हुए !


 


'संयम' और 'सामर्थ्य' छुपा है, 


देश के जनमानस में, 


सक्षम और समृद्ध खड़े, 


हम विपदा के इस क्षण में!


 


'मिट जायेगा गहन तिमिर यह,'


आशा के दीप जलाने से, 


विजयगान का शंख बजेगा, 


'सतर्कता' अपनाने से !


 


सन्नाटे -सी गलियों में, 


फिर फैलेगा सुखमय उजियारा, 


महानिशा के अंधकार में, 


चमकेगा फिर ध्रुवतारा !


 


अपनी 'सभ्यता' और 'संस्कृति', 


दुनिया को सिखलाना होगा, 


वही सनातन धर्म हमें, 


फिर से अपनाना होगा !


वही सनातन धर्म हमें, 


फिर से अपनाना होगा !!


 


नीरजा बसंती (सहायक अध्यापक )


प्रा.वि.-गहना 


ब्लॉक -खजनी 


गोरखपुर


 


 


 


कविता 4


मनभावन सावन...


 


 श्याम जलद नभ छाये, 


वर्षा ने मोती सी बुँदे, 


धरा के आँचल में बिखराया, 


मनभावन सावन आया !


 


वर्षा की शीतल शीतलता, 


मन की तपन बढ़ाये, 


चमक चमक गरज बादल के, 


विरही का विरह जगाये, 


मनभावन सावन आया !!


 


ताल -तलैया, वृक्ष, धरा, 


सब पर हरियाली छायी, 


पके आम, जामुन की डलियाँ, 


मह -मह सी खुशबू आये, 


सूखी मन की डाली, 


इंद्र धनुष न भाया, 


मनभावन सावन आया !!


 


कूक कोकिला मन न भाए, 


दादुर टेर भी शोर मचाये, 


पपिहा ने पीर बढ़ाया, 


मनभावन सावन आया !!


 


गोकुल छोड़ गए तुम कान्हा, 


वृन्दावन पतझड़ छाया, 


धरा ने ओढ़ी हरी चुनरिया, 


विरही मन मुरझाया, 


प्रेम जलद नभ छाये, 


कब मनभावन सावन आये? मनभावन सावन आया !!


 


नीरजा बसंती


 


कविता 5


टूटती सी आश.... 


--------------------


खुशनुमा ख़्वाबों का


मौसम 


ले रहा अंगड़ाईया 


सर्द सी चलती हवाये 


संग जैसे परछाईया !


आश पूरित स्वप्न लेकर 


गा रहा मन झूम कर।


मन की आशाये 


मचलती,सँवरतीं।


बज रही शहनाईयां !


स्वप्न में,आशा से भरे 


दृग ,


चपल, चंचल हो चले 


ताकतें नित राह को 


हैं ढूंढते, नित प्राण को !


टूटती सी आश में भी 


मन शांत हो अविचल खड़ा 


क्षण तनिक क्या सोच 


यह दृग सजल फिर हो चले !


फिर बढ़ चली यह रात्रि भी 


अंतिम प्रहर के रैन में 


चंद्र भी धूमिल निशा है


बढ़ रही अवसाद में !


हाय !यह दिन भी गया 


प्रिय तुम्हारी याद में 


आश बन कर रह गयी 


शहनाईया फिर ख्वाब में !!


 


 



28/6/2020


सेतराम साहू सेतु

आज फिर 15 अगस्त है,


हर कोई आज़ादी के जश्न में मस्त है


पुलिस वाले कुछ दिन पहले से ही


परेड में व्यस्त है


नौकरशाहों और नेताओं का जलवा,


आज दिखता ज़बरदस्त है।।


 


बच्चों ने सारा घर सुबह से सर पर उठाया है


उनके लिये नया-नया १५ अगस्त जो आया है


युवा तो एक दिन पहले से तैयारी करके है बैठे


क्यो की आज बंद रहने वाले है ठेके


महिलाओं को आज भी कहा आराम है


रोज़ से ज़्यादा तो आज काम है


सारे पतियों की है छुट्टी


बन रहे घरो में नये नये पकवान है


 


देश का क्या कहना है


वह तो निरंतर तरक़्क़ी के शिखर चढ़ रहा है


थोड़ा बन रहा तो थोड़ा बिगड़ रहा है


हर तरफ़ आज भी फैला अत्याचार है


बलात्कार है,भ्रष्टाचार है


मानवता का हो गया अंत है


शैतान घूम रहा बनकर संत है


कही कोई बन गया


ज़रूरत से ज्यादा धनवान है


तो कही कोई भूख और ग़रीबी से


बेतहाशा परेशान है


अस्पताल में मर रहे है बच्चे


और सड़कों पर किसान है


 


कहने को तो देश लगता आज़ाद सा है


थोड़ा आबाद सा है,थोड़ा बर्बाद सा है


हर तरफ़ बुराई है,समाज हो गया है गंदा


सिग्नल पर एक छोटा बच्चा बेच रहा है झंडा


बह जायेगी उस दिन सच में आज़ादी की गंगा


जब मजबूरी में कोई नही बेचेगा चोराहे-चोराहे पे तिरंगा।


 


अराजक्ता फैला रखी है


धर्मों के नाम पर


उँगलियाँ उठाई जाती है


ईमानदारों के काम पर


पुरानी संस्कृति का रंग हो चला है फीका


क्यो की अब भारत बनने जा रहा है अमरीका


आधुनिकता के नाम पर बन रहे है उधोग हज़ार


धुँआ छोड़ प्रकृति की छाती करते है तार-तार


 


प्रकृति को माँ तुम समझो,


ज़रा रखो तो उसका ध्यान


मानवता को धर्म बनालो


करो सबका सम्मान


खतरा तुम पर मँडरा रहा है,


ज़रा बचा लो अपने प्राण


अहिंसा जो तुम अपना लोगे


बन जाओगे गांधी जैसे इंसान


सकारात्मक होगा विचारों में बदलाव


तभी तो होगा देश का कल्याण


तभी तो कहलायेगा मेरा भारत महान।


 


सेतराम साहू सेतु


कौहाकुड़ा पिथौरा


मो. 9399434293


🇮🇳🙏🏻🇮🇳🙏🏻🇮🇳


डॉ कुमुद बाला

बढ़ो साथियों , लेके तिरंगा चलना है


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मेरा शीश अगर ये कट भी जाये लेके तिरंगा चलना है


अब आँधी आये या तूफ़ां जाँ हथेली पे लेके चलना है 35


हमें तो आगे बढ़ना है


वंदे मातरम वंदे मातरम


 


पूरब में सूरज उगता है मेरे वतन की खातिर


चंदा भी तम से मिलता है मेरे वतन की खातिर


सब तारे झिलमिल करते हैं मेरे वतन की खातिर


यह नीला व्योम चमकता है मेरे वतन की खातिर


हमें वतन की खातिर जीना दिल में वतन को लेके मरना है


मेरा शीश अगर ये कट भी जाये लेके तिरंगा चलना है।


हमें तो आगे बढ़ना है


वंदे मातरम वंदे मातरम


 


देखो कितने वीरों ने दी देश पे अपनी कुर्बानी


हम भी तो कुछ कर जाएं रुक जाये नैनों का पानी


हँसकर पहने बासंती चोला चढ़ गये फाँसी पे


न्यौछावर देश पे की वीरों ने खिलती वह जवानी


उन वीरों की शहादत पे हमको जलाके मशालें चलना है


मेरा शीश अगर ये कट भी जाये लेके तिरंगा चलना है।


हमें तो आगे बढ़ना है


वंदे मातरम वंदे मातरम


 


दुश्मन करता है गद्दारी पर कुछ अपने भी गद्दार हैं


लालच ये पैसों की करके उठाते फिर हथियार हैं


प्रण लें चलो निकालें चुनकर ऐसे धोखेबाज़ों को


तिलक लगा कहती है भाई अब बहनें भी तैयार हैं


मुण्डों की माला पहन बन काली दुश्मन का रक्तपान करना है


मेरा शीश अगर ये कट भी जाये लेके तिरंगा चलना है।


हमें तो आगे बढ़ना है


वंदे मातरम वंदे मातरम


 


शर्म नहीं आती तुझको छुप देश पे वार करता है


नापाक इरादे ले मुख में मिश्री घोल के रखता है


हम वो हैं जो चट्टानों में भी अपनी राह बनाते हैं


सीने पे गोली खाने की जवान तमन्ना रखता है


अगर मैदान में तुम आ जाओ सर दल के तुम्हारे चलना है


मेरा शीश अगर ये कट भी जाये लेके तिरंगा चलना है।


हमें तो आगे बढ़ना है


वंदे मातरम वंदे मातरम


 


डॉ कुमुद बाला


हैदराबाद


छगनराज राव दीप

वीर सपूत शहीदों पे


अभिमान करता है वतन


भारत के रण वीरों को


शत शत करता आज नमन


 


जोश दिल में था भरपूर


डरकर मुंह मोड़ा नहीं


सरज़मीन से हिले नहीं


जब तक साँस छोड़ा नहीं


अड़े रहें वे डटे रहें


सैनिक शहीद माटी में


खूं से लिख गये नाम वे


वीर गलवान घाटी में


माँ भारती की लाज को


बचाने को ओढ़ा कफ़न


भारत के रण वीरों को


शत शत करता आज नमन


 


ड्रैगन तू कायर है जो


सोये सैनिक मार दिए


धोखेबाजी से तुमने


पीठ पीछे वार किए


खून का बदला खून हो


फौजों को खुली छूट दो


ड्रैगन को दिखा दो शक्ति


अब ऐसा इक सबूत दो


माटी तेरे लालों को


शीश झुकाता आज छगन


भारत के रण वीरों को


शत शत करता आज नमन


 


वीर सपूत शहीदों पे


अभिमान करता है वतन


भारत के रण वीरों को


शत शत करता आज नमन


 


छगनराज राव दीप


जोधपुर


9414301484


रणजीत सिंह रणदेव

ये प्यारा जग में न्यारा,भारत कुंज हमारा ।


ए शहीदों इसके गौरव में भी नाम तुम्हारा ।।


ये प्यारा जग में न्यारा ……………………….1


 


तुम सिमा पर इसके पहरी बनें खडें हों ,


आता कोई संकट तुम डटकर लड़ें हों ।


तुम भारत सिमा पर राही बन हो प्यादा ,,


भूखें-प्यासे रहकर रखतें तुम अमन इरादा ।।


तुम पहरी जिसे गुजरें हम सबका जमारा ,


ये प्यारा जग में न्यारा …………………………2


 


मुठभेड़ में तुम सिमा पर रंग लहरातें हो ,


भारत माता की जय ललकार लगातें हो। 


सीना गोली लगे तो मिट्टी मलम लगातें हो ,,


तुम देश रक्षा में जीवन शहीद कर जाते हों।।


तुम्हारें रक्त का फोलादी देते जवाब करारा ,


ये भारत जग में न्यारा …………………………3


 


ए नमन मेरे वतन के शहीदों वारि -वारि ,


तुम्हारे बलिदान से होता ह्रदय ज्वालाधारी ।


तुम्हारे बालिदानो की वाणी हम पर गूँजे ,,


याद दिलाती तेरी रक्त रंगीली माटी धूँजें। 


तेरी याद दिलाती कुर्बानी तू शहीद प्यारा ,


ये भारत जग में न्यारा ………………………..4


 


भारती का तूहीं सपूत अमर कहलाया हैं ।


सदाही तुनें भारती का ध्वज ऊंचा लहराया हैं।।


तेरे पर नाज हैं यहां रहने वाले बसेरों का,,


नमन तेरी कुर्बानी को हम जैसे मजबुरों का ।।


रणदेव तेरी गाथा लिखे तु अमर द्वीप हमारा ,


ये प्यारा जग में न्यारा, भारत कुंज हमारा ।


ए शहीदों इसके गौरव में भी नाम तुम्हारा ।।


_________________________________


रणजीत सिंह “रणदेव” चारण


राजसमंद


डॉ वन्दना सिंह

यह कैसा आजादी का दिवस आया ?


घरों में कैद हैं हम 


यह कैसा डर है फिजाओं में है छाया?


 घरों में कैद हैं हम 


आजादी कब मिलेगी दिल सोचता है ?


कब फिर से उड़ेंगे हम?


 हटेगा कब यह मनहूसियत का साया?


 घरों में कैद हैं हम


 यूं ही अनायास बिना कुछ किए 


जो मिल गई थी हमको आजादी 


नहीं उसकी कीमत जानते थे 


हर चीज से थी शिकायत 


जो मिल रहा ,कीमत ना उसकी 


पहचानते थे


एक अदृश्य वायरस के खौफ ने 


सब को रुलाया 


मंडरा रहा है सबके सिरों पर 


मौत का साया


  


 आजादी हमको मिली 


73 साल हो गए


पर आजादी की कद्र हमने


 नहीं थी जानी 


आजादी के नाम पर दंगे हुए 


  इस देश में


 करते रहे सब मनमानी


 बिना आत्मनिर्भर हुए 


आजादी के मायने भी क्या?


  सुई से लेकर जहाज तक 


विदेशों से मंगाते हैं हम 


खुद की संस्कृति का ज्ञान नहीं 


विदेशी पर इतराते हैं हम 


कहने को हम


 आजाद हैं बरसों से 


पर मानसिक गुलामी करते हैं हम


 खोखला सिस्टम हमारा 


खोखला समाज है


 आज भी पश्चिम की हर बात में


 हामी भरते हैं हम 


हम भी भारत को विश्व का 


सिरमौर बना सकते थे 


पर आपसी फूट ने और 


   तंत्र की लूट ने 


  देश को आगे बढ़ने न दिया।


 ये वक़्त है ठहर कर


 एक बार फिर


 गलतियों को समझो ,सुधारो।


ये बरस जैसे भी जाये 


 अगले बरस मन में 


नई उमंग भरकर पधारो ।


एक दिन झंडा फहराकर 


  देशभक्ति के गीत गाकर 


अकर्मण्यता की चादर में 


    फिर खुद को छुपा कर


  आपसी विद्वेष को 


    अपने ज्ञान से हम सींचते हैं


   GDP का पहाड़ा पढ़ने वाले


       बात बात में चीखते हैं!


       TV पर देखिए -


     रोज़ बढ़ते आंकड़ों को 


      और डिबेट में रोज आनेवाले


      नए पुराने रणबांकुरों को।


     कैसे कोरोना ने कर दिया 


     जीवन का एक बरस जाया!


  कैसा इस बार आज़ादी का दिवस आया?


 कैसा इस बार आजादी का दिवस आया


 


Written by -Dr. Vandana Singh


डॉ. आभा माथुर

भादों आया


      नीले नभ में 


छाये बादल 


        ज्यों गोरी के


नील- नयन में


         शोभित काजल


झरें मेघ झर 


        झर- झर-झर- झर


करें प्रकंपित 


         तन-मन, थर-थर


तनिक देर में


           चमका सूरज चम-


चम-चम-चम


            उड़ती तितली


 हर्षित कर मन


              जन जन प्रमुदित


चहुँ दिशि कलरव


               बच्चों का दल


लिये राष्ट्र ध्वज


                मधुर कंठ से


गगन गुँजाता


                छटा विलक्षण


इन्द्रधनुष बन


                 मन हर्षाता


राष्ट्र पर्व यह


                 याद दिलाता


निज गौरव रख


                 सबसे ऊपर


उड़े तिरंगा


              फर-फर-फर-फर


 


      डॉ. आभा माथुर


श्रीकांत त्रिवेदी

स्वातंत्र्य दिवस का पावन दिन,


हमसे यह कहता रहता है।


संयम,अनुशासन बिन मेरा,


अस्तित्व अधूरा रहता  है ।।


 


मै भारत राष्ट्र पुरातन हूं ,


चिर नूतन हूं,अधुनातन हूं,


दुष्यंत पुत्र से मिला नाम,


श्रीभरत की तरह सनातन हूं।


इंडिया नाम स्वीकार नहीं,


सुनकर मन रोता रहता है ।।


 


अपनी इस भारतमाता की,


बेड़ियां खुलीं संघर्षों से ,


पर अंग कटे,उन घावों से,


बह रहा रक्त है बरसों से!


उसकी पीड़ा को हरने का,


प्रण याद रहे ये कहता है!!


 


माना अंग्रेज नहीं हैं अब,


अग्रेजी फिर भी भारी है,


रह गई मात्र भाषा बनकर,


हिंदी की सिसकी जारी है!


हम कहें राजभाषा लेकिन ,


दासत्व भाव ही रहता है !!


 


खुद को कहने में भारतीय,


जब तक हमको हो गर्व नहीं,


तब तक है सिर्फ दिखावा ही,


कोई   स्वतंत्रता - पर्व   नहीं !


ये देश विश्व का मुकुट बने,


अपनी अभिलाषा कहता है!!


 


उत्तर में पुण्य हिमालय से,


दक्षिण लहराते सागर तक,


गिलगित से अक्षय चिन्ह तलक


कैलाश से मानसरोवर तक !


लहराए  तिरंगा  या  भगवा ,


मन में यह  सपना रहता है !!.........


 


कुछ किया,बहुत कुछ बाकी है,


जो हुआ वो बस इक झांकी है,


पटकथा अधूरी है अब तक,


मंचन  तो  पूरा  बाकी  है ! 


पूरे हो सकें स्वप्न सारे ,


हो लक्ष्य एक ही कहता है!!


          .... श्रीकांत त्रिवेदी


                     लखनऊ


गौरव सिंह घाणेराव

 भारत की जान


 


न हिन्दू,न मुसलमान हूँ,


मैं तो बस इंसान हूँ।


इस अच्छे और सच्चे देश


मेंरे भारत का अभिमान हूँ।


स्वतंत्र भारत में रहने वाला


मैं ही भारत की जान हूँ।


 


बेडियो से जकड़े भारत को


जब गोरो ने कस कर भींचा था।


तब इस माता की आजादी को,


मैंने अपने लहू से सींचा था।


न डरता था मरने से मैं


 न डरता था मैं भिड़ने से,


बस डरता था तो बिना कुछ 


किये निठल्ले मरने से मैं।


मैं वही भगत,वही सुभाष और 


वही अशफाक उल्लाह खान हूँ।


स्वतंत्र भारत का रहने वाला


मैं ही भारत की जान हूँ।


 


अब आतंकवाद की जड़ो ने 


जमकर पैर अपने पसारे थे।


न जाने कितने मासूम बच्चे,


और निरपराध भारतीय मारे थे।


उन सबके प्रतिशोध का ज्वालामुखी,


मैं शिव के तांडव की पहचान हूँ। 


आतंक के लिए काल का रूप,


मैं श्रीराम धनुष की तान हूँ।


स्वतंत्र भारत का रहने वाला,


मैं ही भारत की जान हूँ।


 


भेदभाव की जंजीरो को


अब तोड़ फेंकने आया हूँ,


आपसी सौहार्द और प्रेम भाव 


का पावन सन्देश लाया हूँ।


मैं इस बढ़ते हुए भारत के रथ


का केशव सारथि महान हूँ।


विश्वगुरु मेरे देश का 


मैं ही तो स्वाभिमान हूँ।


स्वतंत्र भारत का रहने वाला,


मैं ही भारत की जान हूँ।


 


गौरव सिंह घाणेराव


(अध्यापक,कवि,लेखक)


सुमेरपुर,राजस्थान


रश्मि लता मिश्रा

मैं हिंदुस्तानी


 


हिंदुस्तान मेरी जान,


 मेरी यही कहानी ।


फक्र मैं हिंदुस्तानी  


फक्र मैं हिंदुस्तानी।


 


ऊँचे पर्वत गहरी नदियाँ


बल खाता सागर है 


नदियों को कहते हैं माता 


पूजें पीपल जड़ है 


पावन गंगा माता का है ,


झर झर बहता पानी।


 फक्र में हिंदुस्तानी।


 


उत्तर ,दक्षिण, पूरब, पश्चिम 


मिलकर सारे एक हैं ।


एक बनाएं अपना भारत ,


सब के इरादे नेक हैं ।


 जात -पात और धर्म भेद की


हुई पुरानी कहानी ।


फक्र में हिंदुस्तानी।।


 


 सीमा पर तैनात हैं प्रहरी ।


अपनी आंख बिछाए।


 भारत माता को तड़पाने ।


गर कोई दुश्मन आये।


गांव घरों से निकल पड़ेंगे ।


बनकर हम बलिदानी ।


फक्र में हिंदुस्तानी।।


 


विश्व गुरु की राह चलाएं ।


भारत अपने प्यारे को ।


विश्व ताज सर पर रख वाएँ ।


भारत अपने न्यारेको ।


पूरी दुनिया के वतनो में


  भारत का नहीं सानी।


 फक्र मैं हिंदुस्तानी।।


 


रश्मि लता मिश्रा


बिलासपुर सी जी।


अभिजित त्रिपाठी

कहानी- पोस्ट ऑफिस


 


आज राजीव जी पोस्ट ऑफिस में ठंढ से कांपते हुए बैठे हैं। जनवरी का महीना चल रहा है और ठंढ बहुत ज्यादा पड़ रही है। आमतौर पर अब बहुत कम ही काम रहता है, किसी की चिट्ठी कभी आती ही नहीं। कभी कभार भूले बिसरे किसी की चिट्ठी आती है। राजीव जी दिन में ऑफिस में आते, देखते कोई चिट्ठी पहुंचानी है कि नहीं। जिस दिन उनके क्षेत्र में कोई चिट्ठी निकलती, उस दिन जाकर चिट्ठी दे आते, नहीं तो पूरा दिन ऑफिस में बैठकर सबके साथ आराम करते, गप्पबाजी होती।


आज एक चिट्ठी आई थी। चिट्ठी पर पता लिखा था जयनगर, एकदम किनारे का गांव। अब इतनी ठंढ में भला कौन इतनी दूर जाना चाहेगा। राजीव को बहुत गुस्सा आ रहा था। मन कर रहा था कि चिट्ठी को अभी फाड़कर फेंक दे। भला आज इतना मॉडर्न जमाना है, लोग मोबाइल में वीडियो कॉलिंग कर रहे हैं और ये पता नहीं कौन है, जिसने चिट्ठी लिखी है। 


लेकिन चिट्ठी पहुंचाना तो मजबूरी थी। इसलिए मजबूर होकर राजीव जी को चलना पड़ा। आज ठंढ बहुत ज्यादा थी और उसके अलावा धीरे धीरे बारिश भी हो रही थी। वो बाइक से एकदम धीरे धीरे जा रहे थे लेकिन तब भी बहुत ठंढ लग रही थी। उनको बहुत गुस्सा भी आ रहा था। बारिश होने के कारण ठंढ और ज्यादा लगने लगी थी। अचानक उनके दिमाग में एक ख्याल आया कि क्यों ना खुद ही रजिस्टर में लाइक कर दें कि चिट्ठी मिल गई और चिट्ठी पहुंचाने ना जाएं। वो एक चाय की दुकान पर रुके। फिर उन्होंने अपना थैला खोला और रजिस्टर निकाला। फिर उनके मन में विचार आया कि एक बार चिट्ठी पढ़ लूं, आखिर क्या लिखा है इसमें। राजीव जी ने लिफाफा खोला और चिट्ठी निकाली।


 


उन्होंने चिट्ठी पढ़नी शुरू की,,,


मेरी प्यारी, 


राधिका,,


 


कैसी हो ? मम्मी-पापा कैसे हैं? तुम मेरी चिंता मत करो मैं एकदम ठीक हूं। मैं समय से भोजन करता हूं और आराम भी करता हूं।


 


मुझे पता है कि तुम मुझसे बहुत नाराज़ हो। पिछले महीने मैंने आने का वादा किया था लेकिन आ नहीं सका। तुम्हारी चिट्ठी मिली थी। मुझे पता है कि तुम बहुत परेशान होती हो, तुमको मेरी चिंता रहती है, तुम मेरी आवाज़ सुनना चाहती हो, लेकिन क्या करूं? जब से कश्मीर में मेरी ड्यूटी लगी मैं कॉल नहीं कर पाता। यहां पर मोबाइल का नेटवर्क नहीं रहता है। हां चिट्ठी लिख सकता हूं लेकिन पोस्ट ऑफिस बहुत दूर है इसलिए महीने में एक बार ही चिट्ठियां भेजी जा सकती हैं। लेकिन तुम चिंता मत करो मैं एकदम ठीक हूं मुझे कुछ नहीं होगा।


 


वहां गांव में मौसम कैसा है? यहां पर तो बहुत ठंढ पड़ती है। गर जगह बर्फ जमी रहती है। हम लोग बर्फीली हवाओं के बीच बंकरों में बंदूक ताने खड़े रहते हैं। मैं ठंढ से बचने के लिए जैकेट पहने रहता हूं, क्यों कि मुझे पता है कि तुम मुझे डांटकर स्वेटर पहनाने नहीं आ सकती हो। यहां पर पूरा बंकर बर्फ से ढंक जाता है। बहुत ठंढ लगती है, कभी कभी तो हाथ पैर सुन्न पड़ जाते हैं, उंगलियां काम करना बंद कर देती हैं, लेकिन हम बंदूक ताने खड़े रहते हैं ताकी कोई दुश्मन हमारे देश की तरफ नजर उठा कर ना देख सके और हमारे देशवासी महफूज रहें।


 


पता है अक्सर बारिश भी होती रहती है। वैसी बारिश नहीं होती है, जैसी गांव में होती है। यहां पर पानी से ज्यादा बर्फ गिरती है। मुझे अक्सर याद आता है कि मैं बारिश में भीगने के लिए छत पर बाग जाता था और तुम मेरे पीछे पीछे छाता लेकर दौड़ती हुई आती थी। मुझे बहुत अच्छा लगता था जब तुम मेरे ऊपर छाता लगाकर मुझे डांटती हुई नीचे लाती थी। फिर तौलिए से मेरा सिर पोंछती और जब मैं शरीर पोंछकर कपड़े बदल लेता तो तुम मेरे लिए अदरक वाली चाय बनाकर लाती थी। 


 


मुझे तुम्हारी, गांव की सबकी बहुत याद आती है। तुमने चिट्ठी में लिखा था कि तुम मुझसे बहुत गुस्सा हो। मुझे तुम्हारी नाराजगी का कारण पता है। तुम्हारा गुस्सा होना जायज है लेकिन मैं क्या करूं?


मेरी मोहब्बत तुमसे जरा सी भी कम नहीं हुई है, मैं आज भी तुमसे उतना ही प्यार करता हूं बल्कि उससे ज्यादा ही करता हूं। लेकिन मैं अपने वतन से भी प्यार करता हूं। 


 


राजीव जी इसके आगे पढ़ने की हिम्मत नहीं जुटा सके। उन्होंने तुरंत चिट्ठियां रखी और जयनगर की तरफ चल पड़े। ठंढी के दिनों की शाम थी, काफी अंधेरा हो चुका था। राजीव ने बाइक में लाइट ऑन कर दी। अब उनको जरा सी भी ठंढ नहीं लग रही थी। बारिश में भीगना भी उनको जरा सा भी बुरा नहीं लग रहा था।


 


उनको आज पता चला कि सच्चा इश्क क्या होता है। हमारे सैनिक भी सच्चा प्रेम करते हैं, उनकी मोहब्बत वही है, बस माशूक की जगह वतन की माटी ने ले ली है। प्रेम वही रहता है, वही बारिश, वही हवाएं, वही गीत,, बस महबूब बदलने पर इश्क के मायने बदल जाते हैं।


 


 


अभिजित त्रिपाठी


पूरे प्रेम, अमेठी,


उत्तर प्रदेश


विशाल चतुर्वेदी उमेश

शहीद होकर भी कभी ना मिटने दिया । 


हिन्दुस्तान की शान को ना झुकने दिया । 


हमेशा चलें शेरों की तरह , 


अपनी एक दहाड़ से दुश्मन को ना टिकने ने दिया ॥ 


 


चलें बांधे सिर पर कफन को । 


दें दिया सर्वस्व अपने वतन को । 


हिन्दुस्तान की मिट्टी के लालों ने दें दी जान,  


अपने लहू से सींचा है अपने चमन को ॥ 


 


कुर्बानी और शौर्य की गाथा हर पल अपने साथ लिऐ ।


भगत राज सुखदेव के सपनें हर पल अपने साथ लिऐ।


ना कभी झुके तिरंगा अपना , 


शहीद हुये मिट्टी की खुशबू अपने साथ लिऐ॥   


 


विशाल चतुर्वेदी उमेश


जबलपुर मध्य प्रदेश


ए.आर.साहिल

कहीं आग तो कहीं धुआँ है


 


मैं जब भी….


अपने शहर, अपने देश, अपने वतन,


अपने प्यारे वतन हिंदुस्तान को देखता हूँ,


तो मेरे जहन में एक ही सवाल आता है ….


जो मेरे दिल पर हथोड़े की तरह बरसता …


और मेरा दिल छलनी छलनी हो जाता है….!!


 


मैं अक्सर सोचा करता हूँ…


हमारे शहर, हमारे देश , हमारे वतन को …


हाँ हमारे प्यारे वतन हिन्दुस्तान को…


आखिर हुआ किया है….?


 


पूरब से लेकर पश्चिम तक …


कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक….


जहाँ भी देखो….


हर तरफ हर जगह…


कहीं आग तो कहीं धुआँ है…..


कहीं बमों का शोर तो कहीं गोली का धमाका है …


मर चुकी है इन्सानियत, जिन्दा सिर्फ हैवानियत का बोलबाला है….


और हमारे हिन्दुस्तान की जमीन…


मासूम बेगुनाह इन्सानो के खून से रंग चुकी है…


हर किसी की निगाहों में एक डर है…


हर कोई सहमा सहमा सा है…


जाने कब, कहाँ, किधर से गोली की बौछार हो जाये….


या कब बमों के धमाकों से आसमान गूँज उठे…


और एक बार फिर वही मंज़र दिखने लगे….


जहाँ भी देखो…


हर जगह हर तरफ….


कहीं आग तो कहीं धुआँ है….


आखिर हमारे हिन्दुस्तान को हुआ किया है ….!!


 


क्यों जल उठा है हमारा हिन्दुस्तान….


नफरतों की आग में….


धर्म मजहब व साम्प्रदायिकता की आग मैं…


जातिवाद व भाईवाद की आग में…


क्यों , आखिर क्यों जल रहा है हमारा हिन्दुस्तान…!!


 


ऐसे हिन्दुस्तान का ख्वाब तो नहीं देखा था…


हमारे पूर्वजों ने….


वीर क्रांतिकारियों व स्वतंत्रता संग्राम के अमर सेनानियों ने….


जिन्होंने अपनी जान की बाजी लगा कर…


हमें गुलामी की जंजीरों से आजाद कराया…


अपने प्यारे वतन हिंदुस्तान को आजाद कराया…!!


 


नहीं, ये हरगिज नहीं हो सकता…


जहाँ खून की होली खेली जाती हो….


इन्सानी लाशों से होलिका दहन होता हो….


खून के आंसुओं से दिवाली का दिया जलता हो…


जहां हैवानियत व हिंसा का नंगा नाच होता हो…


वो जगह वो शहर वो देश…


शांति व अहिंसा के पुजारी….


हमारे बापू महात्मा गांधी का देश नहीं हो सकता…!!


 


हमारा प्यारा वतन हिन्दुस्तान ऐसा नहीं हो सकता….


तो फिर क्यों…


हर कोई ये सब बर्दाश्त कर रहा है…!!


 


कोई कुछ बोलता क्यों नहीं…


क्यों हर कोई चुप है, डरा है, सहमा-सहमा सा है…


आखिर हमारे हिन्दुस्तान को हुआ किया है…


कहीं आग तो कहीं धुआँ धुआँ है….!!


 


©ए.आर.साहिल (सहरसा, बिहार)


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