जयपाल धामेजा

आयी अलसुबह गलवान घाटी से, इक बुरी खबर ऐसी 


छा गयी हो संपूर्ण आसमां पे, घनघोर कालिमा हो जैसी 


अचानक आ गया हो मानो, इक बवंडर सा 


भविष्य हो गया वीराना, हो मानो कोई मरुस्थल सा 


 


दिख रही चहुँओर पगडंडीयां, वृक्षविहीन सी 


आयी हो दिल में मानो, आंधियों की सुनामी सी 


सावन की काली घटाएं, अब तो लग रही है ऐसी 


डंस रही हैं शरीर को वे, मानो हों जहरीली नागिन सी 


 


चुभ रहा है अक्स, अब तो आईना भी देखकर 


धंस रहा दिल की गहराईयों में, नागफनी के छूल बनकर 


बारिश की बूंदें तन पे, लग रही हैं ऐसे


आसमां से बरस रहा हो, गरम लावा हो जैसे 


 


भारत मां के लाल थे वो, रखते थे शेर का जिगर सभी 


हुंकार भरने से ही उनके, कांप जाती थी दुश्मनों की रूहें भी 


सरहदों पे तैनात थे वो, झंडा थामा था रणबाकुरों ने 


धोखे से मार गिराया उनको, पडौसी देश के कायरों ने 


 


अगले जनम में भी मैं तुमको ही पाऊं, जीवन तुम्हारे नाम हो 


किया गौरवान्वित तुमने मुझको, देकर बलिदान भारत मां को 


देकर सर्वोच्च बलिदान अपना, तन हो गया था खण्ड खण्ड 


धरती मां का कर्ज चुका पति मेरा, कर गया मां का आंचल अखण्ड 


कर गया मां का आंचल अखण्ड ।


 


जयपाल धामेजा


हरदा म. प्र.


दयानन्द त्रिपाठी व्याकुल

जीवन  के संघर्षों में तुम 


अपने लिये भी जिया करो


अपनी ही अनुभूति से तुम


सुखद संकल्प लिया करो।


 


क्या है जीवन की परिभाषा


खुद से खुद को दिया करो


गिरकर उठना उठकर चलना


नव ऊर्जा प्राणों में भर चला करो।


 


आत्मसात कर स्वयं कर तूं


क्या खोया है क्या पाया


लो समेट हर क्षण को तुम


पुण्य कर्म संचित कर ना हो जाया।


 


दूजे प्राणी का दु:ख अपना 


मरहम सा तुम लगा करो


तन की सुन्दरता से मन सुन्दर


मन कर्म - धर्म से लगा करो।


 


जीवन के दु:ख विस्मृत कर


मन मानव बनकर रम्हा करो


कोई भी दुविधा हो खड़ी कहीं


संन्यास भाव से चला करो।


 


जीवन पथ के शूलों से तुम


हर पल व्याकुल हो जाते हो


पथ के शूलों को पार कर


सुगम पदचिन्ह दिया करो।



-दयानन्द त्रिपाठी व्याकुल


     महराजगंज, उत्तर प्रदेश।


डॉ निर्मला शर्मा

आशा का परचम लहरा


 


ना हो निराश बढा आत्मबल आगे बढ़ता जा 


जीवन के हर मोड़ पर आशा का परचम लहरा 


विकट है जीवन रूपी मोड उनमें अटक ना जा 


बाधा को जो पार करे ऐसा केवट बन जा


 मृग मरीचिका जीवन में रही हमें भटका


 नैनो के मधु स्वप्न हमें देते नई दिशा


 विपत्ति चाहे कैसी पड़े सरल उसे तू बना


 होना है वह निश्चित है मन में ना शोक मना


 सुख-दुख की जो स्थिति बने एकरस जीता जाय 


मरम जो जीवन का मिले भरम सभी मिट जाय


 कभी जीत के निकट पहुंच जब वापस लौट के आए


 मन को ऋषि की भांति साध आशा का परचम लहरा ।


 


डॉ निर्मला शर्मा


दौसा राजस्थान


शिवांगी मिश्रा

चलो चलें नदिया के पार.....


चलो चलें नदिया के पार ।।


जहाँ पे बहती प्रेम की धार.....


जहाँ पे बहती प्रेम की धार ।


जहाँ मिले जीवन आधार ।।


 


चलो चलो.....हूँ....चलो चलो.....


 


चलो चलें नदिया के पार......


चलो चलें नदिया के पार ।


चलो चलें नदिया के पार.......


चलो चलें नदिया के पार ।।


 


प्रेम की तलाश है तो चलते रहो तुम.....


चलते रहो तुम ।


जीवन के पथ पर बढ़ते रहो तुम..


बढ़ते रहो तुम ।।


प्रेम की तलाश है तो चलते रहो तुम ।


जीवन के पथ पर बढ़ते रहो तुम ।।


ठोकर मिलेंगी गिरना संभालना ।


पर ना कभी तुम रुकना ठिठुरना ।।


पा जाओगे उस पथ को तुम....


पा जाओगे उस पथ को तुम ।


मिलेगा तुमको जहाँ पे प्यार ।। (१)


 


चलो चलें नदिया के पार......


चलो चलें नदिया के पार ।


चलो चलें नदिया के पार......


चलो चलें नदिया के पार ।।


चलो चलो...हूँ.... चलो चलो.....


 


जीवन कठिन है जीते रहो तुम....


जीते रहो तुम ।


विष का है प्याला पीते रहो तुम....


पीते रहो तुम ।।


जीवन कठिन है जीते रहो तुम ।


विष का है प्याला पीते रहो तुम ।।


बढ़ते रहो तुम हार ना मानो ।


आयी घड़ी जब तुम खुद को जानो ।।


जीतोगे परीक्षा जीवन की तुम ही.....


जीतोगे परीक्षा जीवन की तुम ही ।


पा जाओगे जीवन का सार ।।


 


 


चलो चलें नदिया के पार......


चलो चलें नदिया के पार ।


चलो चलें नदिया के पार......


चलो चलें नदिया के पार ।।


चलो चलो...हूँ.... चलो चलो.....


 


अपनों का रिश्ता मतलब की सानी....


मतलब की सानी ।


जीवन में विपदा हैं आनी जानी...


हैं आनी जानी ।।


अपनों का रिश्ता मतलब की सानी ।


जीवन में विपदा हैं आनी जानी ।।


दुनिया में मतलब मतलब से रिश्ता ।


अब ना है मिलता कोई फरिश्ता ।।


कर जाओ तुम जीते जी ऐसा....


कर जाओ तुम जीते जी ऐसा ।


याद करे ये तुमको संसार ।।


 


चलो चलें नदिया के पार......


चलो चलें नदिया के पार ।


चलो चलें नदिया के पार......


चलो चलें नदिया के पार ।।


चलो चलो...हूँ.... चलो चलो.....


 


 


शिवांगी मिश्रा


धौरहरा लखीमपुर खीरी


उत्तर प्रदेश


अतुल पाठक धैर्य

अल्फ़ाज़ों के अफ़सानों में लिखती थी बेबाक सच्चाई वो,


पढ़ने वाले पाठक को रचना में देती दिखाई वो।


 


शब्दों के मोती संजो-संजो कर अंतर्मन को हर लेती वो,


भाव बसाने को अक्षर में कलम को थाम लेती वो।


 


खामोशियों को बड़े गौर से अमृता अक़्सर सुनती रहती थी,


रातों के समय वो प्रीतम ही सुकून से लिखती रहती थी।


 


लिखने वाले तो बस कविता लिखते और ज़िन्दगी जीते हैं,


मगर ज़िन्दगी को लिखती प्रीतम थी और कविता को ही जीती थी।


 


अफ़साने का हर अल्फ़ाज़ साहिर की नज़्र में लिखती थी,


वो प्रीतम थी जो प्रेम पर कविता लिख-लिख कर ही जीती थी।


 


@अतुल पाठक "धैर्य"


जनपद हाथरस(उ.प्र.)


मोब-7253099710


रवि रश्मि अनुभूति

राधा कान्हा ही जपे , कहाँ गया चितचोर ।


मोहन को ढूँढ़ूँ कहाँ , हो जायेगी भोर ।।


कुंज गली में घूमती , आन मिलो अब श्याम , 


तेरे हाथों है अभी , मेरी जीवन डोर ।।


 


ब्रज के हो तुम लाड़ले , लेते सबको मोह ।


घूमकर सब गली गली , लेते ग्वाले टोह ।।


कृष्ण प्यारे सभी तुझे , चाहें मन से आज , 


लीला करते देखते , सबको लेते मोह ।।


 


देखो घटा अभी घिरी , घिरी हुई घनघोर ।


सावन में अब रास से , बहला दो चितचोर ।।


शीतल छा बहार अभी , लो छाये आनंद , 


चित चुरा के छुपे कहाँ , पूछे मन का मोर ।।


 


(C) रवि रश्मि 'अनुभूति '


सुषमा दीक्षित शुक्ला

दुनिया के रखवाले तुझ पर,


अर्पण मेरा तन मन धन ।


 


तू दाता है परमपिता है ,


तू ही जीवन और मरन ।


 


नजरें कभी न फेरो हे! प्रभु ,


इतनी सी फरियाद मेरी ।


 


भूल चूक सब क्षमा करो प्रभु,


दुनिया हो आबाद तेरी ।


 


सारी दुनिया रूठ भी जाये,


तुम ना रूठो परमपिता ।


 


सारी दुनिया अगर त्याग दे ,


नही त्यागते मात पिता ।


 


तेरा धन है तेरा मन है,


तेरा ही ये तन मेरा ।


 


तेरा सबकुछ तुम्हें समर्पित ,


क्या लागे इसमें मेरा ।


 


सुषमा दीक्षित शुक्ला


संजय जैन

प्रेम दिल से होता है


 


मोहब्बत सूरत से नहीं होती है।


मोहब्बत तो 


दिल से होती है।


सूरत खुद प्यारी 


लगने लगती है।


कद्र जिन की 


दिल में होती है।।


 


मुझे आदत नहीं 


कही रुकने की।


लेकिन जब से 


तुम मुझे मिले हो।


दिल कही और 


ठहरता नहीं है।


दिल धड़कता है 


बस आपके लिए।।


 


कितनो ने मुझसे 


नज़ारे मिलाई।


पर किसी से 


नज़रे मिली नहीं।


दिल की गहराइयों 


में तुम थी।


इसलिए दिल ने 


औरो को चाहा नहीं।।


 


बड़ा ही साफ़ 


पाक रिश्ता है।


जनाब, 


रिश्ता ये मोहब्बत का।


दरवाजे खुद खोल


जाते है जन्नत के।


जिन को सच्ची 


मोहब्बत होती है।।


 


जय जिनेन्द्र देव 


संजय जैन (मुंबई)


डॉ0 हरिनाथ मिश्र

दीवारों के कान हैं,कहता है संसार।


फिर भी खड़ी दिवार कर,करता अत्याचार।।


 


कभी-कभी संबंध को,मधुर करे दीवार।


टूटे दिल को जोड़ती,जिसमें रही दरार।।


 


जब विवाद छिड़ता कहीं,जब होती तक़रार।


झट-पट उठ दीवार ही,लाए शीघ्र बहार।।


 


प्यार-घृणा दोनों लिए,सदा खड़ी दीवार।


कभी सटा, कभी दूर कर,है अद्भुत व्यवहार।।


 


कितने इसमें चुन गए,इसे नहीं परवाह।


प्रेमी सच्चे बाँवरे, है इतिहास गवाह।।


 


गारे-माटी से बनी,अजब-गजब दीवार।


घर बनकर देती शरण,यह जीवन-आधार।।


 


तेरे-मेरे घर-भवन,जो भी हैं निर्माण।


कर संभव दीवार यह,बनी सभी का प्राण।।


 


धन्य-धन्य दीवार तुम,तुम्हीं दरार-क़रार।


कर क़रार बनती तुम्हीं,जब होती है रार।।


            ©डॉ0 हरि नाथ मिश्र


               9919446372


कमल कालु दहिया

विश्वास की प्रभात 


 


ढ़लते सूरज ने मुझे पुकारा था 


  रात घनी, चिराग जलाए रखना, 


होगा फिर ज्योतिर्मय प्रकाश यहाँ 


  आस - विश्वास का दीप जलाए रखना।।


 


रात इतनी घनी, कि घना घनघोर 


  तारे भी चंचल ज्योत में मन्द है, 


प्रभात के इंतज़ार में बैठा कालीसैया 


  जलता चिराग हवा से बन्द है।। 


 


रातों में प्रभात का संस्मरण जप रहा


   प्रफुल्लित चमकता फिर कण - कण होगा,


रात के बाद दिन खिलता हमेशा


  इस आँधी के बाद नव हवा का क्षण होगा। ।


 


धूमिल होते यह तारे यूं कह रहे हैं 


   सटेगा फिर घना काजल - सा अंधेरा, 


फिर खिलेंगें , पंछी होंगे गगन में 


  भोर ले आ रही नए आस का सवेरा।।


 


  कमल कालु दहिया 


जोधपुर, राजस्थान 


संदीप कुमार विश्नोई रुद्र

मिलाकर प्रेम से नजरें हमें हरबार मिलती है , 


खिले वो देख के हमको कली ज्यों डाल खिलती है। 


 


दिखाती है अदाएँ वो हमें जब सामने आती , 


नयन हम से मिलाती है हमें वो प्यार करती है। 


 


दबाना दाँत से अपने गुलाबी होंठ ये उसका ,


इशारों से हमें तब पास वो अपने बुलाती है। 


 


नयन के कोर से हमको दिवाना वो बना बैठी ,


नयन से तीर वो मेरे हृदय के पार करती है। 


 


तुम्हारे रूप के जलवे निहारे चाँद वो नभ से ,


हुई बरसात के तो बाद तू दुगुनी निखरती है। 


 


संदीप कुमार विश्नोई"रुद्र"


गाँव दुतारांवाली तह0 अबोहर पंजाब


काव्य रंगोली आज के सम्मानित रचनाकार रचना निर्मल दिल्ली

रचना निर्मल


जन्म: 5 अगस्त 1969, पंजाब


शिक्षा: ( राजनीति विज्ञान ) स्नाकोत्तर


रुचि : पठन , पाठन,समाज सेवा


कर्म क्रिया: अध्यापिका , गृहणी, समाजसेवी


प्रेम : सच्चाई देश और प्रकृति से..


प्रिय लेखक : महादेवी वर्मा,सुभद्रा कुमारी चौहान,सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, प्रेमचंद,मीर,राहत इंदौरी


साहित्यिक क्षेत्र: गीत,ग़ज़ल,कविता,छन्द,कहानी लघुकथा इत्यादि


साहित्यिक यात्रा : दो वर्ष


प्रकाशन: विभिन्न राष्ट्रीय स्तर की पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित, विभिन्न विधाओं के साझा संकलनों में रचनाएँ सम्मिलित


उपलब्धियाँ: विभिन्न मंचों द्वारा रचनाओं हेतु समय समय पर पुरस्कृत एवं सम्मानित


गोल्डन बुक्स आफ रिकार्ड में प्रकाशित पुस्तक" हे पवन " में कविता- स्त्री और हवा, लघुकथा -कसूर किसका


,सचिव (महिला काव्य मंच (रजि०) , साहित्य शिखर की राष्ट्रीय सचिव, सोपान साहित्यिक संस्था की कार्यकारिणी सदस्या,आगमन की आजीवन सदस्यता


सम्पर्क: फोन: 9971731824 , 7011594469


ईमेल: rachnabhatia800@gmail.com


 


 


कविता 1


 


सफलता


 


क्या है सफलता


गरीबी से अमीरी की ओर


हार से जीत की यात्रा


 कांटो से फूलों तक की यात्रा 


या….आलिशान घर,बड़ी गाड़ी,


और नौकर चाकर,


खुली आंखों से देखे


सपनों का खुशनुमा अंत।


सफलता एक सीढ़ी है


जिसकी हर निसैनी 


बनती है प्रेरणा, अभिव्यक्ति,


एहसास ,जुनून, उन्माद से ,


जो देती है जीवन को प्रवाह 


पर..महामाया भी है सफलता, 


अहंकार,द्वेष और अवसाद की जननी


विनम्रता और ईर्ष्या से करती है


एक जंग की शुरुआत


आप ही बताइए ..


सही सफलता क्या


मन की खुशी नहीं ?


इन्द्रियों पर विजय नहीं?


जहाँ भौतिक सुखों की 


कोई अहमियत नहीं


असली मायने तो सफलता के 


समन्वय के साथ हर स्थिति में 


 है खुशहाल रहने में , है


कमजोरी को ताकत बनाने में


अपने बदलाव तय करने में 


सफलता घटना नहीं जो


घट जाएगी,..


वस्तु भी नहीं कि मिल जाएगी


सफलता तो परिणाम है


हमारी सोच का,जो तय करती है


लक्ष्य और उसके प्रति..


समर्पण , और देती है शांति


आंतरिक विकास


 


स्वरचित


रचना निर्मल


दिल्ली


 


 


कविता 2


 


परीक्षा


 


परीक्षा से 


डरना मेरी फितरत नहीं


मैं स्त्री हूँ


मेरा तो जीवन ही परीक्षा है


जन्म पाने से जन्म देने की


अपनी जीत को हराने की


तुम्हारी हार पर विश्वास की


ज़ुल्म चुपचाप सहने की


 तुम्हें क्षमा करने की


अश़्क पी कर मुस्कुराने की


अंजान रिश्ते में बँधने की


अपने भरोसे की


मैंने तो अग्नि परीक्षा तक दी है


और तो और..


कटे परों से आसमान छुआ है


तुम केवल घर चलाने की परीक्षा देते हो


हाँ .. उत्तीर्ण भी हो ही जाते हो


पर कभी सोचा है..


अगर मैं घर बनाने की परीक्षा में फेल हो जाऊं


मैं रिश्तों में बँध ही न पाऊँ


तुम्हें क्षमा न करूं


हाँ


जन्म ही न दूँ


तो तुम्हारी परीक्षा का क्या मोल रहेगा


किताबी ज्ञान कितना काम आयेगा


चलो एक काम करते हैं


परीक्षा तुम्हारी लेते हैं


तुम्हारी वफ़ा की परीक्षा


मुझे क्वाल्टी समय देने की परीक्षा


मुझे सम्मान देने की परीक्षा


मुझे भोग्य नहीं योग्य समझने की


मेरे सपनों को साकार करने की परीक्षा


मुझे…


मैं रहने देने की परीक्षा


क्या..


दे पाओगे..


बोलो कुछ तो बोलो


यूँ न हारो


परीक्षण स्थल तक तो चलो


डरो नहीं


मेरा भरोसा तुम्हें हारने न देगा


आखिर..


तुम्हारी इसी जीत में


मेरी जीत भी छिपी है


...


हमारी जीत छिपी है


 


स्वरचित


रचना निर्मल


दिल्ली


 


 


3


 


इज़हार या इंकार


 


तुम्हारा इज़हार


मेरा इंकार


नतीजा


तेजाब से वार


क्या यही है प्यार


चलो मान ली गलती


थी मेरी नसमझी


अब मैं करती हूं इज़हार


आओ कर लो प्यार


क्या हुआ..


क्या प्यार नहीं रहा


या जिस्म वो नहीं रहा


सुनो..


लक्ष्मी थी,लक्ष्मी हूं


और.. लक्ष्मी रहूंगी


बढ़ूगी आगे


अब..


बेधड़क,


इसी चेहरे के साथ


 


स्वरचित


रचना निर्मल


दिल्ली


 


 


4


 


आशा


 


हर सुबह..


चाहत की बाती ले 


विश्वास के तेल से 


मन के मंदिर में 


जलता है रोज़ 


आशा का दीप 


जरूरत के साथ 


दिखाने नये रास्ते 


सूरज की तरह 


और रोज़…


जरूरत के लिये


जलती हैं चाहत


डगमगाता है विश्वास 


सूरज के साथ साथ 


हर शाम..


थक जाती है आशा 


पसर जाती है निराशा 


अंधियारी रात में 


बुझने लगता है 


दीप आशा का 


मगर…


सपने तो अपने हैं 


सहारा देते हैं लौ को 


छूटने नहीं देते 


हाथ आशा का 


नींद के झोंकों में 


प्यार से करते हैं 


तैयार एक और 


नई आशा का दीप 


अगली सुबह के लिए 


 


स्वरचित 


रचना 


दिल्ली


 


5


 


कौन हो तुम


 


 


भारत माँ आज 


हमसे पूछ रही है


कौन हो तुम


आखिर कौन हो तुम


किसके मोहरे हो ?


क्या केवल भीड़ हो । उन्माद हो


या वोटबैंक की कठपुतली हो


आखिर कौन हो तुम


जानते हो…?


 


तुम मात्र शोर नहीं हो


 विभाजित करने वाला मतभेद नहीं हो


सांप्रदायिकता का दानव भी नहीं हो


असंवेदनशील तो बिल्कुल नहीं हो


तुम तो संजीदा विचारों के सारथी हो,


संगीत हो


सुरों में सामंजस्य करना जानते हो


मूल रंगों से बने अनगिनत रंग हो


खुशबू फैलाते फूलों की क्यारी हो


तुम..


राष्ट्रीय एकता का संबल हो


संवाद हो


सत्य का बोध हो


जागो…


अब तो जागो


अज्ञान से ,अधर्म से जागो


मोह से


अहंकार से जागो


स्वयं को पहचानो


मानवीय मूल्यों को जानो


गंगा जमुनी तहज़ीब को मानो


अब तुम्हें उठना होगा


क्योंकि


अलगाववाद का जाना अभी शेष है


राष्ट्र में समूह चेतना का आना अभी शेष है


अंधकार को भगाना अभी शेष है


मानवता का सूर्योदय होना अभी शेष है


तुम्हें उठना ही होगा


 बहुत कुछ होना अभी शेष है


 


स्वरचित



 


विनय साग़र जायसवाल

हवा का ज़ोर इरादा डिगा नहीं सकता


चराग़े-ज़ीस्त हूँ कोई बुझा नहीं सकता


हुस्ने-मतला--


 


किसी के सामने सर को झुका नहीं सकता


वजूद अपना यक़ीनन मिटा नहीं सकता


 


फ़कत तुम्हारी ही मूरत समाई है दिल में 


इसे मैं चीर के सीना दिखा नहीं सकता 


 


किसी के प्यार से जान-ओ-जिगर महकते हैं


यक़ीन उसको ही लेकिन दिला नहीं सकता 


 


वो इस जहान में रुसवा कहीं न हो जाये 


किसी को दाग़ भी दिल के दिखा नहीं सकता 


 


बसी हैं ख़ुशबुएं इनमें उसी की सांसों की


ख़तों को इसलिए भी मैं जला नहीं सकता 


 


मुझे है आज भी चाहत तुम्हें मनाने की


सितारे तोड़ के हालाँकि ला नहीं सकता 


 


जला के ख़ुद को ये नस्लों को रौशनी दी है


ज़माना लाख भुलाये भुला नहीं सकता 


 


वो कर रहा है जफ़ा मुझसे बारहा साग़र


ये और बात है रिश्ता मिटा नहीं सकता 


 


🖋️विनय साग़र जायसवाल 


बरेली 


बहर-मुफायलुन फयलातुन मुफायलुन फेलुन 


सौम्या मिश्रा

सुनो कन्हैया कहाँ बसे हो, तुम्हें सुदामा ढूंढ रहा है।।


 


दुर्लभ प्रेम तुम्हारा माना, 


दुर्लभ दर्शन यह भी जाना,


जग में सुनी कथाएं तेरी,


हरते हो तुम विपद घनेरी,


 


मेरी भी विपदाएं हर लो, याचक तेरे द्वार खड़ा है।


सुनो कन्हैया कहाँ बसे हो, तुम्हें सुदामा ढूंढ रहा है।।


 


तुम परम सनेही ईश सखा,


करते भक्तों पर नित्य कृपा,


मधुवन कुंज गली के राजा,


श्याम पियारे हृदय समाजा,


 


आओ आओ हे मुरलीधर! इन अँखियन से अश्रु बहा है।


सुनो कन्हैया कहाँ बसे हो, तुम्हें सुदामा ढूंढ रहा है।।


 


कहें गोपिका तुम्हें पराया,


उद्धौ का भी मन भरमाया,


यमुना तट पे राह निहारे,


खड़ी राधिका उन्हीं किनारे,


 


सुख भी सारे छोड़ यहाँ पे, खोजे नित तुम्हें राधिका है।


सुनो कन्हैया कहाँ बसे हो, तुम्हें सुदामा ढूंढ रहा है।।


 


सौम्या मिश्रा


एस के कपूर श्री हंस

बच्चे भारत के भविष्य भाग्य विधाता।


 


आगे 2050 का भारत तो 


आज का बच्चा है।


ढाल लो जैसे भी उसको कि


मन का सच्चा है।।


जिस साँचे में डालोगे उसे


बन जायेगा वैसा ही।


अभी पका नहीं कि वो आज


मिट्टी का कच्चा है।।


 


बहुत सारे विकल्प हैं आपके


पास आजमाने को।


उसको सुसंस्कृत संस्कारी


जैसा भी बनाने को।।


चाहो तो मोबाइल गेम्स और


पब्जी में झोंक दो।


यही उचित समय है उन्हें


शौर्य गाथायें सुनाने को।।


 


बच्चा आगे बनेगा हठी या


नहीं ये आज तय करेगा।


जो कुछ सिखायेंगे आज वो


वैसी ही लय भरेगा।।


बच्चे देश के कर्णधार भारत


के वो भाग्य विधाता।


आज की शिक्षा के सहारे ही


चुनौतियों से वह लड़ेगा।।


 


आज के नौनिहाल कल के


वो राष्ट्र निर्माता हैं।


आज डालिये अच्छी आदतें


कि वो भविष्यदाता हैं।।


स्वस्थ, सुडौल, आज से ही


उनको बनाये आप ।


बच्चे भारत नव निर्माण के


बनेगें भाग्य विधाता हैं।।


 


एस के कपूर श्री हंस


बरेली।


 


सत्यप्रकाश पाण्डेय

बंधन कटे जन्मों का.....


 


दीन दरिद्र के सहायक


तुम ही जीवन दाता


तुम्ही रक्षक तुम संरक्षक


तुमही भाग्य विधाता


 


अनाचार का अंत किया


हे धर्म के संस्थापक


अरि हन्ता कष्ट निवारक


हे सुर मुनि के नायक


 


आदिशक्ति सौम्य स्वरूप


नाम धाम दोनों पावन


विश्व रूप श्री राधे कृष्णा


"सत्य"हृदय मन भावन


 


प्रणपण से मैं तो किंकर


युगलरूप चरणों का


दया करो जग वन्दनीय


बंधन कटे जन्मों का।


 


युगलरूपाय नमो नमः


सत्यप्रकाश पाण्डेय


सुनील कुमार गुप्ता

अपनो का साथ निभाना है


 


मंज़िल न कोई मेरी यहाँ,


फिर भी तो चलते जाना है।


अनचाहे संबंधों को भी,


संग जीवन में निभाना है।।


मिले जो दर्द अपनो से फिर,


उन्हें यूँहीं भूल जाना है।


आ कर रोके कदम जो यहाँ,


उन्हें फिर गले लगाना है।।


साथी जो दे विष का प्याला,


अमृत समझ पी जाना है।


तन रहे न रहे साथी यहाँ,


अपनो का साथ निभाना है।।


 


सुनील कुमार गुप्ता


 


नूतन लाल साहू

आशा का परचम लहरा


अंधियार भगा जाही


अंजोर बगर जाही


सब दिन एके सही 


नइ होय रेे संगी


आशा का परचम लहरा,धीरज धर


जांगर चलावव, पछीना बोहावव


मेहनत के धरम निभावव


माटी ल सोन बनावव


सेवा धरम परहित


जिनगी के हे सार


आशा का परचम लहरा,धीरज धर


बड़ जरूरी हे,जियेबर


अन्न के दू ढोम्हा


तन ढाके बर कपड़ा अउ


रहे बर कुरिया के कोन्हा


हवा पानी माटी सिरजइया


बरम्हांड रचईया ह


आसिरवाद दीही


बिहनिया के सुरुज जरूर आ ही


आशा का परचम लहरा,धीरज धर


समे के चक्का ह,चलते च रहिथे


जवईया के संगी


सिरिफ सुरता ह रहिथे


अंधियार ल तै झन डरा


मोर गोठ ल त मान


रतिहा पहाही,हो ही बिहान


आशा का परचम लहरा,धीरज धर


करम अऊ धरम के


झन टोर विसवास ल


हिम्मत झन हार,भरोसा ल राख


मनखे के चिन्हारी,विपत म होथे


आशा का परचम लहरा,धीरज धर


नूतन लाल साहू


डॉ0 हरिनाथ मिश्र

तीसरा अध्याय (श्रीकृष्णचरितबखान)-2


 


चक्रइ-गदा-संख अरु कमलहिं।


पकरे रहा करहिं महँ सकलहिं।।


   बिरजि रहा बच्छस्थल ऊपर।


   कनक-रेख सिरिबत्स चिन्हकर।।


गर महँ कुस्तुभ मनि रह हिल-मिल।


घन इव गात पितंबर झिल-मिल।।


   भानु-किरन इव कुंचित केसा।


    लखि अस बालक पितु-हिय हुलसा।।


मनि सँग जड़ित मुकुट अरु कुंडल।


लखतै होवै परम सुमंगल ।।


    कमर- करधनी चमचम चमकै।


    बाजूबंद बाँह मा दमकै ।।


अनुपम छटा सुसोभित बालक।


भवा अवतरित असुरन्ह घालक।।


    भयो अचंभित पितु बसुदेवा।


    बालक रूप जनम प्रभु लेवा।।


जानि रहसि अस भे बहु मुदिता।


रोमहिं रोम अनंदहिं खिलिता।।


     कृष्न-जनम-उत्सव के हेतू।


     मन-प्रसन्न बसुदेव सचेतू।।


कीन्ह सहस दस गो-संकल्पा।


दान द्विजन्ह कहँ जाय न जलपा।।


    कच्छ-सूतिका जगमग भयऊ।


    अनुपम कांति अंग प्रभु रहऊ।।


दोहा-पुरुष महातम कै जनम,जानि मुदित बसुदेव।


         करन लगे स्तुति तुरत,कर जोरे कह देव।।


                       डॉ0 हरि नाथ मिश्र


                         9919446372


डॉ0 हरिनाथ मिश्र

द्वितीय चरण (श्रीरामचरितबखान)-39


 


धीरज-धरम-धुरंधर भ्राता।


परम भागि मों दियो बिधाता।।


     जागै स्वयं जगत जब सोवै।


     निष्ठावान भरत बस होवै।।


ज्येष्ठ भ्रातृ-भारहिं जे गहही।


भ्राता उहहि भरत सम रहही।।


     जेहि पे कृपा करहिं जगदीसा।


      रंक भवहि तुरतै अवनीसा।।


सुनहु भरत त्यागहु सभ सोका।


भरम-पाप तजि होहु असोका।।


     कछु नहिं दोषु मातु कैकेई।


     बिधिना करनि मातु कस लेई।।


मम बन-गमन,पिता सुरपुरहीं।


बिधि-बिधान टारे नहिं टरहीं।।


     जे कछु करम-भागि लइ आवै।


     सिर तेहि धारि जगत सुख पावै।।


तव मति-बुधि-बिबेक जग माहीं।


ग्यानी-ध्यानी सभें सराहीं।।


    आस्था फलति जगत चहुँ-ओरा।


     देइ प्रान पषान कठोरा।।


निर्मम-निठुर-घात-प्रतिघाता।


पावै फल जस रचा बिधाता।।


   यहि मा दोषु न तोरउ-मोरा।


    नहीं पिता,नहिं मातुहिं छोरा।।


यहि सभ काल करै जग माहीं।


सबहिं नचावै ऊ जस चाहीं।।


   लेइ सभें तुम्ह जाउ अवधपुर।


   करउ राज तहँ धीरज धरि उर।।


करउ राज पितु-बचन निबाहू।


बन-प्रवास मम धरम, न काहू।।


    जनक-दूत तेहि अवसर अयऊ।


     सीता जिनहिं तुरत तहँ पठऊ।।


प्रभुहिं नमन करि तब ते कहहीं।


मिथिलापति दल-बल सँग अवहीं।।


    सुनि बन-गमन राम अरु सीता।


     लखन समेत जानि भयभीता।।


पिता-मरन अरु भरत-आगमन।


चिंताग्रस्त मातु हिय-चित-मन।।


     साजि समाजु जनक नृप आए।


     सीय-जननि अपि निज सँग लाए।।


अवधपुरी मिथिला रखवारू।


बिधिवत रखि मिथिलेस पधारू।।


दोहा-जनक-आगमन सुनि सभें,हर्षित चित-मन-गात।


        अस छबि कै बरनन करत,सबद उदर न अघात।।


                      डॉ0हरि नाथ मिश्र


                       9919446372


कालिका प्रसाद सेमवाल

मां सरस्वती वरदान दे


नव शब्द दे नव ज्ञान दे


जिस पर मां तुम कृपा करें


उसका सारा जग सम्मान करें।


 


मां सरस्वती वरदान दे


स्वर की देवी ज्ञान की मैया


हम कर थोड़ी दया करो मां


द्वार तुम्हारे आया हूं मैं।


 


मां सरस्वती वरदान दे


पावन हृदय कर दो मां मेरा


अधरों पर मुस्कान दो मां


नव शब्द दे नव ज्ञान दो मां।


 


कालिका प्रसाद सेमवाल


मानस सदन अपर बाजार


रुद्रप्रयाग उत्तराखंड


डॉ निर्मला

तुम्हारे साथ मैं बंद कमरे से निकलकर, 


 प्रकृति की छाँव मैं।  


चल रही हूँ मैं हमसफर,


अब तुम्हारे साथ मैं।


पक्षियों की चहचहाट,


पत्तियों की सरसराहट।


सुबह की गुलाबी धूप,


साथ तुम्हारे भाती खूब।


आम की अमराइयों मैं,


भीनी भीनी है महक,


आज मन मैं है उमंग


मैं भी लूँ थोड़ा चहक।


नींबू, कटहल और अमरूद,


गन्ना भी लहराये खूब,


आँवले और अरण्डी की,


यारी यहाँ बनी है खूब।


तुम संग गेहूँ मैं लहराऊँ,


मेथी, पालक तोड़ के लाऊँ।


बाजरे की रोटी के संग,


पालक का मैं साग बनाऊँ।


सामने बैठो मेरे पियाजी,


अपने हाथों से मैं खिलाऊँ


बंद कमरे से निकलकर,


प्रकृति की छाँव में          


 चल रही हूँ मैं हमसफर ,


अब तुम्हारे साथ मैं।


डॉ निर्मला


डॉ0 रामबली मिश्र

मैने एक सुन्दर रचना देखी 


रचना में भावुकता देखी 


भावुकता में मृदुल स्नेह था 


छिपी स्नेह में ममता देखी 


ममता में निर्वाध प्रेम था


छिपी प्रेम में करुणा देखी 


करुणा में बेजोड़ चमक थी 


छिपी चमक में सृजना देखी 


सृजना में एक विश्व छिपा था 


छिपी विश्व में समता देखी 


समता में था मार्मिक चित्रण 


चित्रण में कोमलता देखी 


कोमलता की सहज पंखुडी


में खिलती मानवता देखी 


मानवता में आग्रह देखा 


आग्रह में थी नित्य वंदना 


वंदन में सक्रियता देखी 


सक्रियता की यही अर्चना 


सबमें संवेदनप्रियता हो।


 


रचनाकार :डॉ0रामबली मिश्र हरिहरपुरी 


डॉ. राम कुमार झा निकुंज

कागज़ कलम दवात


 


स्मृति के पन्नों पर आज विदित,


जिंदगी कागज कलम दवात।


हाथ रंगे काली स्याही से ,


गगन घनघोर घटा बरसात। 


 


बम्बू शाखा छील छील कर,


थी कलम बनायी विविध तरह।


पास स्याही दवात सुलेखा,


कागज स्वर्णाक्षर लेख सुघर।


 


कलम भींगों के हर बार मैं,


स्याही कलम व्यक्त अभिलेख।


कलम फाउंटेन शान गज़ब,


सुलेखा इंक बघारे शेख। 


 


मुक्ता मणि सम लेखन सुन्दर,


कागजी पृष्ठ कलम की नींब।


मातु पिता अभिभावक प्रेरित,


स्वर्णाक्षर कागज प्रतिबिम्ब। 


 


नित सुलेख पर मिली प्रशंसा,


व्यक्त भाव कागज लेखन पर।


पुलकित मन आह्लादित चितवन,


नित ले कागज कलम दवात। 


 


सुलेखनार्थ पड़ी मार बहुत,


बचपन में जो अबतक है याद।


पूर्ण किया निज शिक्षा जीवन,


नित ले कागज कलम दवात। 


 


कब्ज़ा अब कलम दवात आज,


प्लास्टिक में बँधे रिफिल समाज।


गायब हुई दवात सुरेखा, 


दुखी कागज मोबाइल गाज। 


 


कागज कलम दवात पूँछ कहँ,


अब डिजीटल नवयुग आगाज।


पत्र लेख अन्तर्मन प्रियजन,


ले वाट्स एप फेसबुक आज।


 


कहाँ खपत हो कागज का अब,


है संगणक मोबाइल सेव। 


शोभा बन दवात कलम अब,


अनज़ान नये आज के वेव।


 


परिवर्तन युग परिधान नये,


भूले मसि कलम दवात गए।


खाली है कागज के पन्ने,


स्मार्ट मोबाईल एप लिए।


 


कविः डॉ. राम कुमार झा "निकुंज"


नई दिल्ली


सुनीता असीम

दहन का काम है केवल रहा सुलगने का।


जो इसके पास में जाए वही है जलने का।


****


बहार देख बहारों में नाचता है दिल।


मिन्नतें कितनी करो ये नहीं बहलने का।


****


बड़े हुए हो उन्हीं मां पिता के हाथों में।


न नाम लेना कभी उनको तुम झटकने का।


****


चला चली का है मेला जगत में देखो रे।


यहां पे काल से कोई नहीं है बचने का।


 ****


करोना काल में बैठे रहो घरों में सब।


नहीं है वक्त ये बाजार में भटकने का।


****


सुनीता असीम


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