वीणा चौबे

क्यूँ जात पात में बँट गया ये प्यारा हिन्दुस्तान ।


जहाँ आजादी के साथ लिखा था ये संविधान ।


जहाँ खुली साँस को आह मे दबा दी जाती है,


जहाँ बेटियों को गर्भ ,और बाहर जिंदा जला दी जाती है,


यहां आरक्षण के नाम पर काबिल को नाकाम बना देते है,


जहाँ राजनीति में गुण्डागर्दी को आम बना देते हैं,


जहां मेहनतकश लोगों को रोटी नसीब नही है


जहाँ बेमानी ने अपनी झोली खूब भरी है,


भारत माता की खातिर जो खुद को कुरबान कर गये,


आजादी, अमन ,शान्ति ,सुख,चेन खुद का न्योछावर कर गये,


काट कलेजा महंगाई ने फिर जोर शोर मचाया


आत्मनिर्भर बनने फिर देश ने जोर लगाया


अंग्रेजों से आजाद हुए तो उनके गुण अपना रहे,


आज खुद ही अपने देश को गुलाम बना रहे


यही था आजाद देश का सपना जो अपनो का ही खून पियेगा 


अपने ही देश की बेटी की ईज्जत को लूटकर जिंदा जला देगा,


क्या एसी आजादी के लिये वीरों ने प्राण गंवाये


आज अगर वो होते तो सोचते की क्युं हमने ये कदम उठाये 


आजादी अगर एसी है तो हमे फिर से ये जन्म मिले,


कम से कम हम अपने देश के ही कर सके दूर ये शिकवे गिले ,


सोचा आजादी के मायने जानू,


क्या अपनी संस्कृति को नष्ट करना ये आजादी है,


तो सच मे क्या ये ही आजादी हमे प्यारी है। 


 


नाम- वीणा चौबे


सौम्या अग्रवाल 

देश की मिट्टी तुझे मेरा सलाम


तेरे आंचल में न जाने कितने वीर छिपे महान


अपने परिवार का त्याग कर हमें सुरक्षित करना


अपने अपनों की बजाए वतन पर मरना


आज़ाद यूं ही नहीं आज हम कहलाते 


आज भी न जाने कितने मात- पिता अपने लाडलों की तस्वीरें सहलाते 


हर दिन की खुद की खुद से लड़ाई 


 हर छुट्टी के बाद घर वालों से लंबी जुदाई


कब मां के हाथ के बने लड्डू का आखरी डिब्बा घर से आए


कब बहन की राखी और प्यार भरा खत आखरी बार पढ़ पाए


 वो तो बस कफन बांध चलता ही जाए


हर वीर को आज मेरा नमन है


उन्हीं की बदौलत मेरे देश में अमन है


 


 नाम - सौम्या अग्रवाल 


कक्षा- ग्यारहवीं की छात्रा  


मकान नंबर 5415 


पंजाबी मोहल्ला,


अंबाला छावनी, हरियाणा


पिन कोड -133001


मोबाइल नंबर- 9053708304


ई-मेल पता- saumyaaggarwal30@gmail.com


डॉ0विद्या सागर मिश्र सागर

एक दिन माँ से कहा जा रहा हूँ सीमा पर,


कर देश सेवा राष्ट्र्धर्म को निभाउंगा।


लडूंगा मै डट कर और सीना तान कर,


शत्रुओं को कभी नही पीठ मै दिखाऊँगा।


सीमा पर मर जाऊँ मिट जाऊँ गा मगर,


माता कभी नहीं तेरे दूध को लजाऊँगा।


शत्रुओं से लड़कर उनको खदेडकर,


नहीं तो तिरंगे मे लिपट घर आऊँगा ।।


 


डॉ0विद्या सागर मिश्र "सागर"


लखनऊ उ0प्र0


मो नं 9452018190


शिवानी शुक्ला श्रद्धा

मातृभूमि के लिए मिटे जो


कर लो उनकी याद


तन मन किया न्योछावर


ताकि रहे वतन आबाद ||


 


भेदभाव था नहीं किसी में


हिन्दू मुस्लिम भाई थे


तिलक किये इस वीर भूमि से


सिक्ख सौगंध उठाये थे 


सावरकर जैसे वीर कयी 


और मर मिटे अशफ़ाक़ ||


 


स्वतंत्रता का पर्व ये गाथा है


उनके बलिदानों की


राष्ट्र प्रेम हित मिटे यही पर


अनगिन वीर जवानों की


राजगुरु सुुखदेव भगतसिंह


और विस्मिल आजाद ||


 


स्वरचित मौलिक


शिवानी शुक्ला श्रद्धा


जौनपुर उत्तर प्रदेश


दिनेश चंद्र प्रसाद दीनेश

"मैं कश्मीर हूँ


 


धरती का स्वर्ग इंडिया का जन्नत हिंदुस्तान का तकदीर हूँ 


मैं कश्मीर हूँ,मैं कश्मीर हूं 


था धाराओं के जंजीरों में जकड़ा हुआ स्वार्थी तत्वों के द्वारा लूटा हुआ 


अब मैं आजाद धीर भीर गंभीर हूं 


मैं कश्मीर हूँ,मैं कश्मीर हूँ


उत्तर- दक्षिण,पूरब-पश्चिमभजन


सब हैं मेरे भाई बहन


मैं भारत माँ का लाडला बेटा हीर हूँ


मैं कश्मीर हूं,मैं कश्मीर हूँ


सेव और अखरोट की


हरी-भरी हैं वादीयाँ


बर्फ से ढकी सफेद चोटियाँ


यौवन करता है यहाँ अठखेलियाँ


रंग बिरंगे फूलों की है क्यारियां


केसर का अनमोल


सुगंध युक्त समीर हूँ 


मैं कश्मीर हूँ ,मैं कश्मीर हूँ


डल झील का शिकारा


गुलमर्ग का नजारा


आसमा से बातें करता


देवदार और चीनारा


विस्थापितों का दुख दर्द और पीर हूँ


मैं कश्मीर हूं ,मैं कश्मीर हूँ


किसी शायर की गजल हूं 


किसी झील का कंवल हूं


पंच नदियों का मैं निर्मल नीर हूं 


मैं कश्मीर हूं,मैं कश्मीर हूँ


हिफाजत में मेरे जो शहीद हुए


उन वीर जवान शहीदों के


गले का मुक्ता हार हूँ


मैं कश्मीर हूँ, मैं कश्मीर हूँ


देखे जो मुझे प्यार से


उसके लिए मैं फुल हूं


तिरछी नजर वालों के लिए


मैं तेज शमशीर हूं 


मैं कश्मीर हूं, दिनेश मैं कश्मीर हूं 


मैं कश्मीर हूँ, मैं कश्मीर हूँ


 


दिनेश चंद्र प्रसाद "दीनेश" कलकत्ता


DC-119/4,स्ट्रीट न.310,न्यूटाउन,


कलकत्ता-700156


मोबाईल. 9434758093


शिवनाथ सिंह

आजादी के लिए ही त्याग दिये थे, देश के वीरों ने अपने घरबार,


संकल्प बड़े पक्के थे उनके, मर मिटने को हरदम रहते थे तैयार,


भारत आजाद कराकर दम लेंगे, संकल्प दोहराया करते थे वे,


वे विलक्षण थे, स्वाभिमानी थे, उनके होते थे क्रांतिकारी विचार ।


 


तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आजादी दूँगा, बोस ने नारा लगाया था,


वीर सपूतों की 'हिन्द फौज' ने, आजादी का बिगुल बजाया था,


सुभाष चंद्र बोस प्रतिभाशाली थे, मतभेद था उनका अहिंसा से,


काल कवलित हो वे कहाँ चले गए, कोई भी समझ न पाया था ।


 


आज भी हमारे देश की सेना, अपने जौहर दिखलाया करती है,


वीरता का परिचय देती, अपने देश का लोहा मनवाया करती है,


नित नये नये परचम लहरा कर, गौरव की अनुभूति करा देती,


देश के दुशमनों को चुन चुन कर, सही ठिकाने लगाया करती है ।


 


इन वीर सपूतों की शौर्य गाथाएँ, हम भुला नहीं सकते हैं कभी,


भारत के शहीदों की निशानियाँ, हम मिटा नहीं सकते हैं कभी,


इस धरती माँ के वो बहादुर बेटे, जो दुर्गम सरहदों पर डटे हुए,


उन वीर सपूतों के साहस को, हम बिसरा नहीं सकते हैं कभी ।


 


शिवनाथ सिंह, लखनऊ


डाॅ0 उषा पाण्डेय 

फौजी भाई सीमा पर, 


करते दुश्मन को बेहाल।


तभी तो रहते हम खुशहाल ।


तभी तो रहते हम खुशहाल।


 


अपनी जान जोखिम में डालकर,


हम सबकी जान बचाते हैं।


हौसले अपने बुलंद रख कर,


आगे ही बढ़ते जाते हैं।


हम सब के लिए ये हैं मिसाल


तभी तो रहते हम खुशहाल।


 


चाहे जितनी गर्मी, ठण्डी हो,


ये परवाह नहीं करते।


सीना ताने खड़े रहते हैं,


तनिक भी नहीं डरते।


बनते ये हम सबकी ढाल, 


तभी तो रहते हम खुशहाल।


 


असहनीय दर्द ये सहते हैं,


पर, 'उफ्' कभी नहीं करते।


सोने के लिए बिस्तर हो, न हो,


परवाह कभी नहीं करते।


देश को रखते हैं संभाल,


तभी तो रहते हम खुशहाल।


 


हमारी तरह ये भी इंसान है,


पर हम सबसे महान हैं।


हम देशवासियों के लिए, 


ये धरती पर भगवान हैं।


दिल होता इनका विशाल,


तभी तो रहते हम खुशहाल ।


 


आइए, हम सब मिल कर


इनके लिए प्रार्थना करें।


प्रभु इन पर कृपा करें,


प्रभु इनकी रक्षा करें।


करते रहते ये कमाल


तभी तो रहते हम खुशहाल ।


 


फौजी भाई, सीमा पर,


करते दुश्मन को बेहाल ।


तभी तो रहते हम खुशहाल ।


तभी तो रहते हम खुशहाल।


 


डाॅ0 उषा पाण्डेय 


स्वरचित


संतोष कुमार वर्मा कविराज

जज्बा हो कुछ कर दिखाने की हर मुश्किल से पार पाने की।


 


 चट्टानों से भी फौलादी हो सीना जुनून हो दुश्मनों से टकराने की।


 


 दुश्मन कोई और नहीं है सच में जरूरत है अपने भीतर बैठे शैतान को मिटाने की ।


 


कम नहीं आंखों किसी को कभी गूढ़ ये भी हो, हर किसी को सम्मान देने की ।


 


सोच हो अपनी यूं विकसित विश्व भी आतुर हो 


भारत से कुछ सिखाने की ।


 


जज्बा हो कुछ कर दिखाने की हर मुश्किल से पार पाने की।


 


संतोष कुमार वर्मा ' कविराज '


शिवानंद चौबे

मातृभूमि के स्वाभिमान को


हँसकर फांसी स्वीकार किया


धन्य जीवन उन विरो का 


साहस, त्याग अपार किया ।


 


भुला सकते नहीं है हम


 उन वीरों की शहादत को,


हुए बलिदान बलि वेदी पे 


जो उनकी इबादत को।


 


वतन के वास्ते जीना


 वतन के वास्ते मरना,


वतन के वास्ते जो हैं 


न्यौछावर उस मोहब्बत को।


 


साहस शौर्य और वीरता


 की जो गौरवगाथा थे,


त्याग समर्पण देश प्रेम की


 जो अद्भुत परिभाषा थे।


 


राष्ट्र ऋणी हैं ऋणी रहेगा 


बलिदान की अमर कहानी को,


शिवम् करे शत शत हैं नमन


अमर वीर बलिदानी को।।


 


शिवानंद चौबे


विजय मेहंदी

 


          जम्मू है सिरमौर देश का,


          दाईं भूज गुजरात है।


          बाईं भुजा पुर्वोत्तर भारत,


          खाड़ी का सम्राट है।


 


          दिल्ली है जिगर देश की,


          दिल यूपी महाविराट है।


          आंध्रा बाईं कोंख देश की,


          दाईं महाराष्ट्र है।


 


        सावधान की सथिति में खड़े,


        दो पैर केरल औ- मद्रास हैंं।


        कन्याकुमारी माँ के चरणों में,


        पुष्प-गुच्छ आच्छाद है।


 


        दक्षिण में चरणों को धोता,


        सागर का सम्राट है।


        शत्रु देश हैं चोटी कटवा,


        उनकी क्या औकात है।


 


"विजय मेहंदी" (सहायक अध्यापक)


कम्पोजिट इंग्लिश मीडियम स्कूल शुदनीपुर,मड़ियाहूँ,जौनपुर(यू पी)


जयपाल धामेजा

आयी अलसुबह गलवान घाटी से, इक बुरी खबर ऐसी 


छा गयी हो संपूर्ण आसमां पे, घनघोर कालिमा हो जैसी 


अचानक आ गया हो मानो, इक बवंडर सा 


भविष्य हो गया वीराना, हो मानो कोई मरुस्थल सा 


 


दिख रही चहुँओर पगडंडीयां, वृक्षविहीन सी 


आयी हो दिल में मानो, आंधियों की सुनामी सी 


सावन की काली घटाएं, अब तो लग रही है ऐसी 


डंस रही हैं शरीर को वे, मानो हों जहरीली नागिन सी 


 


चुभ रहा है अक्स, अब तो आईना भी देखकर 


धंस रहा दिल की गहराईयों में, नागफनी के छूल बनकर 


बारिश की बूंदें तन पे, लग रही हैं ऐसे


आसमां से बरस रहा हो, गरम लावा हो जैसे 


 


भारत मां के लाल थे वो, रखते थे शेर का जिगर सभी 


हुंकार भरने से ही उनके, कांप जाती थी दुश्मनों की रूहें भी 


सरहदों पे तैनात थे वो, झंडा थामा था रणबाकुरों ने 


धोखे से मार गिराया उनको, पडौसी देश के कायरों ने 


 


अगले जनम में भी मैं तुमको ही पाऊं, जीवन तुम्हारे नाम हो 


किया गौरवान्वित तुमने मुझको, देकर बलिदान भारत मां को 


देकर सर्वोच्च बलिदान अपना, तन हो गया था खण्ड खण्ड 


धरती मां का कर्ज चुका पति मेरा, कर गया मां का आंचल अखण्ड 


कर गया मां का आंचल अखण्ड ।


 


जयपाल धामेजा


हरदा म. प्र.


दयानन्द त्रिपाठी व्याकुल

जीवन  के संघर्षों में तुम 


अपने लिये भी जिया करो


अपनी ही अनुभूति से तुम


सुखद संकल्प लिया करो।


 


क्या है जीवन की परिभाषा


खुद से खुद को दिया करो


गिरकर उठना उठकर चलना


नव ऊर्जा प्राणों में भर चला करो।


 


आत्मसात कर स्वयं कर तूं


क्या खोया है क्या पाया


लो समेट हर क्षण को तुम


पुण्य कर्म संचित कर ना हो जाया।


 


दूजे प्राणी का दु:ख अपना 


मरहम सा तुम लगा करो


तन की सुन्दरता से मन सुन्दर


मन कर्म - धर्म से लगा करो।


 


जीवन के दु:ख विस्मृत कर


मन मानव बनकर रम्हा करो


कोई भी दुविधा हो खड़ी कहीं


संन्यास भाव से चला करो।


 


जीवन पथ के शूलों से तुम


हर पल व्याकुल हो जाते हो


पथ के शूलों को पार कर


सुगम पदचिन्ह दिया करो।



-दयानन्द त्रिपाठी व्याकुल


     महराजगंज, उत्तर प्रदेश।


डॉ निर्मला शर्मा

आशा का परचम लहरा


 


ना हो निराश बढा आत्मबल आगे बढ़ता जा 


जीवन के हर मोड़ पर आशा का परचम लहरा 


विकट है जीवन रूपी मोड उनमें अटक ना जा 


बाधा को जो पार करे ऐसा केवट बन जा


 मृग मरीचिका जीवन में रही हमें भटका


 नैनो के मधु स्वप्न हमें देते नई दिशा


 विपत्ति चाहे कैसी पड़े सरल उसे तू बना


 होना है वह निश्चित है मन में ना शोक मना


 सुख-दुख की जो स्थिति बने एकरस जीता जाय 


मरम जो जीवन का मिले भरम सभी मिट जाय


 कभी जीत के निकट पहुंच जब वापस लौट के आए


 मन को ऋषि की भांति साध आशा का परचम लहरा ।


 


डॉ निर्मला शर्मा


दौसा राजस्थान


शिवांगी मिश्रा

चलो चलें नदिया के पार.....


चलो चलें नदिया के पार ।।


जहाँ पे बहती प्रेम की धार.....


जहाँ पे बहती प्रेम की धार ।


जहाँ मिले जीवन आधार ।।


 


चलो चलो.....हूँ....चलो चलो.....


 


चलो चलें नदिया के पार......


चलो चलें नदिया के पार ।


चलो चलें नदिया के पार.......


चलो चलें नदिया के पार ।।


 


प्रेम की तलाश है तो चलते रहो तुम.....


चलते रहो तुम ।


जीवन के पथ पर बढ़ते रहो तुम..


बढ़ते रहो तुम ।।


प्रेम की तलाश है तो चलते रहो तुम ।


जीवन के पथ पर बढ़ते रहो तुम ।।


ठोकर मिलेंगी गिरना संभालना ।


पर ना कभी तुम रुकना ठिठुरना ।।


पा जाओगे उस पथ को तुम....


पा जाओगे उस पथ को तुम ।


मिलेगा तुमको जहाँ पे प्यार ।। (१)


 


चलो चलें नदिया के पार......


चलो चलें नदिया के पार ।


चलो चलें नदिया के पार......


चलो चलें नदिया के पार ।।


चलो चलो...हूँ.... चलो चलो.....


 


जीवन कठिन है जीते रहो तुम....


जीते रहो तुम ।


विष का है प्याला पीते रहो तुम....


पीते रहो तुम ।।


जीवन कठिन है जीते रहो तुम ।


विष का है प्याला पीते रहो तुम ।।


बढ़ते रहो तुम हार ना मानो ।


आयी घड़ी जब तुम खुद को जानो ।।


जीतोगे परीक्षा जीवन की तुम ही.....


जीतोगे परीक्षा जीवन की तुम ही ।


पा जाओगे जीवन का सार ।।


 


 


चलो चलें नदिया के पार......


चलो चलें नदिया के पार ।


चलो चलें नदिया के पार......


चलो चलें नदिया के पार ।।


चलो चलो...हूँ.... चलो चलो.....


 


अपनों का रिश्ता मतलब की सानी....


मतलब की सानी ।


जीवन में विपदा हैं आनी जानी...


हैं आनी जानी ।।


अपनों का रिश्ता मतलब की सानी ।


जीवन में विपदा हैं आनी जानी ।।


दुनिया में मतलब मतलब से रिश्ता ।


अब ना है मिलता कोई फरिश्ता ।।


कर जाओ तुम जीते जी ऐसा....


कर जाओ तुम जीते जी ऐसा ।


याद करे ये तुमको संसार ।।


 


चलो चलें नदिया के पार......


चलो चलें नदिया के पार ।


चलो चलें नदिया के पार......


चलो चलें नदिया के पार ।।


चलो चलो...हूँ.... चलो चलो.....


 


 


शिवांगी मिश्रा


धौरहरा लखीमपुर खीरी


उत्तर प्रदेश


अतुल पाठक धैर्य

अल्फ़ाज़ों के अफ़सानों में लिखती थी बेबाक सच्चाई वो,


पढ़ने वाले पाठक को रचना में देती दिखाई वो।


 


शब्दों के मोती संजो-संजो कर अंतर्मन को हर लेती वो,


भाव बसाने को अक्षर में कलम को थाम लेती वो।


 


खामोशियों को बड़े गौर से अमृता अक़्सर सुनती रहती थी,


रातों के समय वो प्रीतम ही सुकून से लिखती रहती थी।


 


लिखने वाले तो बस कविता लिखते और ज़िन्दगी जीते हैं,


मगर ज़िन्दगी को लिखती प्रीतम थी और कविता को ही जीती थी।


 


अफ़साने का हर अल्फ़ाज़ साहिर की नज़्र में लिखती थी,


वो प्रीतम थी जो प्रेम पर कविता लिख-लिख कर ही जीती थी।


 


@अतुल पाठक "धैर्य"


जनपद हाथरस(उ.प्र.)


मोब-7253099710


रवि रश्मि अनुभूति

राधा कान्हा ही जपे , कहाँ गया चितचोर ।


मोहन को ढूँढ़ूँ कहाँ , हो जायेगी भोर ।।


कुंज गली में घूमती , आन मिलो अब श्याम , 


तेरे हाथों है अभी , मेरी जीवन डोर ।।


 


ब्रज के हो तुम लाड़ले , लेते सबको मोह ।


घूमकर सब गली गली , लेते ग्वाले टोह ।।


कृष्ण प्यारे सभी तुझे , चाहें मन से आज , 


लीला करते देखते , सबको लेते मोह ।।


 


देखो घटा अभी घिरी , घिरी हुई घनघोर ।


सावन में अब रास से , बहला दो चितचोर ।।


शीतल छा बहार अभी , लो छाये आनंद , 


चित चुरा के छुपे कहाँ , पूछे मन का मोर ।।


 


(C) रवि रश्मि 'अनुभूति '


सुषमा दीक्षित शुक्ला

दुनिया के रखवाले तुझ पर,


अर्पण मेरा तन मन धन ।


 


तू दाता है परमपिता है ,


तू ही जीवन और मरन ।


 


नजरें कभी न फेरो हे! प्रभु ,


इतनी सी फरियाद मेरी ।


 


भूल चूक सब क्षमा करो प्रभु,


दुनिया हो आबाद तेरी ।


 


सारी दुनिया रूठ भी जाये,


तुम ना रूठो परमपिता ।


 


सारी दुनिया अगर त्याग दे ,


नही त्यागते मात पिता ।


 


तेरा धन है तेरा मन है,


तेरा ही ये तन मेरा ।


 


तेरा सबकुछ तुम्हें समर्पित ,


क्या लागे इसमें मेरा ।


 


सुषमा दीक्षित शुक्ला


संजय जैन

प्रेम दिल से होता है


 


मोहब्बत सूरत से नहीं होती है।


मोहब्बत तो 


दिल से होती है।


सूरत खुद प्यारी 


लगने लगती है।


कद्र जिन की 


दिल में होती है।।


 


मुझे आदत नहीं 


कही रुकने की।


लेकिन जब से 


तुम मुझे मिले हो।


दिल कही और 


ठहरता नहीं है।


दिल धड़कता है 


बस आपके लिए।।


 


कितनो ने मुझसे 


नज़ारे मिलाई।


पर किसी से 


नज़रे मिली नहीं।


दिल की गहराइयों 


में तुम थी।


इसलिए दिल ने 


औरो को चाहा नहीं।।


 


बड़ा ही साफ़ 


पाक रिश्ता है।


जनाब, 


रिश्ता ये मोहब्बत का।


दरवाजे खुद खोल


जाते है जन्नत के।


जिन को सच्ची 


मोहब्बत होती है।।


 


जय जिनेन्द्र देव 


संजय जैन (मुंबई)


डॉ0 हरिनाथ मिश्र

दीवारों के कान हैं,कहता है संसार।


फिर भी खड़ी दिवार कर,करता अत्याचार।।


 


कभी-कभी संबंध को,मधुर करे दीवार।


टूटे दिल को जोड़ती,जिसमें रही दरार।।


 


जब विवाद छिड़ता कहीं,जब होती तक़रार।


झट-पट उठ दीवार ही,लाए शीघ्र बहार।।


 


प्यार-घृणा दोनों लिए,सदा खड़ी दीवार।


कभी सटा, कभी दूर कर,है अद्भुत व्यवहार।।


 


कितने इसमें चुन गए,इसे नहीं परवाह।


प्रेमी सच्चे बाँवरे, है इतिहास गवाह।।


 


गारे-माटी से बनी,अजब-गजब दीवार।


घर बनकर देती शरण,यह जीवन-आधार।।


 


तेरे-मेरे घर-भवन,जो भी हैं निर्माण।


कर संभव दीवार यह,बनी सभी का प्राण।।


 


धन्य-धन्य दीवार तुम,तुम्हीं दरार-क़रार।


कर क़रार बनती तुम्हीं,जब होती है रार।।


            ©डॉ0 हरि नाथ मिश्र


               9919446372


कमल कालु दहिया

विश्वास की प्रभात 


 


ढ़लते सूरज ने मुझे पुकारा था 


  रात घनी, चिराग जलाए रखना, 


होगा फिर ज्योतिर्मय प्रकाश यहाँ 


  आस - विश्वास का दीप जलाए रखना।।


 


रात इतनी घनी, कि घना घनघोर 


  तारे भी चंचल ज्योत में मन्द है, 


प्रभात के इंतज़ार में बैठा कालीसैया 


  जलता चिराग हवा से बन्द है।। 


 


रातों में प्रभात का संस्मरण जप रहा


   प्रफुल्लित चमकता फिर कण - कण होगा,


रात के बाद दिन खिलता हमेशा


  इस आँधी के बाद नव हवा का क्षण होगा। ।


 


धूमिल होते यह तारे यूं कह रहे हैं 


   सटेगा फिर घना काजल - सा अंधेरा, 


फिर खिलेंगें , पंछी होंगे गगन में 


  भोर ले आ रही नए आस का सवेरा।।


 


  कमल कालु दहिया 


जोधपुर, राजस्थान 


संदीप कुमार विश्नोई रुद्र

मिलाकर प्रेम से नजरें हमें हरबार मिलती है , 


खिले वो देख के हमको कली ज्यों डाल खिलती है। 


 


दिखाती है अदाएँ वो हमें जब सामने आती , 


नयन हम से मिलाती है हमें वो प्यार करती है। 


 


दबाना दाँत से अपने गुलाबी होंठ ये उसका ,


इशारों से हमें तब पास वो अपने बुलाती है। 


 


नयन के कोर से हमको दिवाना वो बना बैठी ,


नयन से तीर वो मेरे हृदय के पार करती है। 


 


तुम्हारे रूप के जलवे निहारे चाँद वो नभ से ,


हुई बरसात के तो बाद तू दुगुनी निखरती है। 


 


संदीप कुमार विश्नोई"रुद्र"


गाँव दुतारांवाली तह0 अबोहर पंजाब


काव्य रंगोली आज के सम्मानित रचनाकार रचना निर्मल दिल्ली

रचना निर्मल


जन्म: 5 अगस्त 1969, पंजाब


शिक्षा: ( राजनीति विज्ञान ) स्नाकोत्तर


रुचि : पठन , पाठन,समाज सेवा


कर्म क्रिया: अध्यापिका , गृहणी, समाजसेवी


प्रेम : सच्चाई देश और प्रकृति से..


प्रिय लेखक : महादेवी वर्मा,सुभद्रा कुमारी चौहान,सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, प्रेमचंद,मीर,राहत इंदौरी


साहित्यिक क्षेत्र: गीत,ग़ज़ल,कविता,छन्द,कहानी लघुकथा इत्यादि


साहित्यिक यात्रा : दो वर्ष


प्रकाशन: विभिन्न राष्ट्रीय स्तर की पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित, विभिन्न विधाओं के साझा संकलनों में रचनाएँ सम्मिलित


उपलब्धियाँ: विभिन्न मंचों द्वारा रचनाओं हेतु समय समय पर पुरस्कृत एवं सम्मानित


गोल्डन बुक्स आफ रिकार्ड में प्रकाशित पुस्तक" हे पवन " में कविता- स्त्री और हवा, लघुकथा -कसूर किसका


,सचिव (महिला काव्य मंच (रजि०) , साहित्य शिखर की राष्ट्रीय सचिव, सोपान साहित्यिक संस्था की कार्यकारिणी सदस्या,आगमन की आजीवन सदस्यता


सम्पर्क: फोन: 9971731824 , 7011594469


ईमेल: rachnabhatia800@gmail.com


 


 


कविता 1


 


सफलता


 


क्या है सफलता


गरीबी से अमीरी की ओर


हार से जीत की यात्रा


 कांटो से फूलों तक की यात्रा 


या….आलिशान घर,बड़ी गाड़ी,


और नौकर चाकर,


खुली आंखों से देखे


सपनों का खुशनुमा अंत।


सफलता एक सीढ़ी है


जिसकी हर निसैनी 


बनती है प्रेरणा, अभिव्यक्ति,


एहसास ,जुनून, उन्माद से ,


जो देती है जीवन को प्रवाह 


पर..महामाया भी है सफलता, 


अहंकार,द्वेष और अवसाद की जननी


विनम्रता और ईर्ष्या से करती है


एक जंग की शुरुआत


आप ही बताइए ..


सही सफलता क्या


मन की खुशी नहीं ?


इन्द्रियों पर विजय नहीं?


जहाँ भौतिक सुखों की 


कोई अहमियत नहीं


असली मायने तो सफलता के 


समन्वय के साथ हर स्थिति में 


 है खुशहाल रहने में , है


कमजोरी को ताकत बनाने में


अपने बदलाव तय करने में 


सफलता घटना नहीं जो


घट जाएगी,..


वस्तु भी नहीं कि मिल जाएगी


सफलता तो परिणाम है


हमारी सोच का,जो तय करती है


लक्ष्य और उसके प्रति..


समर्पण , और देती है शांति


आंतरिक विकास


 


स्वरचित


रचना निर्मल


दिल्ली


 


 


कविता 2


 


परीक्षा


 


परीक्षा से 


डरना मेरी फितरत नहीं


मैं स्त्री हूँ


मेरा तो जीवन ही परीक्षा है


जन्म पाने से जन्म देने की


अपनी जीत को हराने की


तुम्हारी हार पर विश्वास की


ज़ुल्म चुपचाप सहने की


 तुम्हें क्षमा करने की


अश़्क पी कर मुस्कुराने की


अंजान रिश्ते में बँधने की


अपने भरोसे की


मैंने तो अग्नि परीक्षा तक दी है


और तो और..


कटे परों से आसमान छुआ है


तुम केवल घर चलाने की परीक्षा देते हो


हाँ .. उत्तीर्ण भी हो ही जाते हो


पर कभी सोचा है..


अगर मैं घर बनाने की परीक्षा में फेल हो जाऊं


मैं रिश्तों में बँध ही न पाऊँ


तुम्हें क्षमा न करूं


हाँ


जन्म ही न दूँ


तो तुम्हारी परीक्षा का क्या मोल रहेगा


किताबी ज्ञान कितना काम आयेगा


चलो एक काम करते हैं


परीक्षा तुम्हारी लेते हैं


तुम्हारी वफ़ा की परीक्षा


मुझे क्वाल्टी समय देने की परीक्षा


मुझे सम्मान देने की परीक्षा


मुझे भोग्य नहीं योग्य समझने की


मेरे सपनों को साकार करने की परीक्षा


मुझे…


मैं रहने देने की परीक्षा


क्या..


दे पाओगे..


बोलो कुछ तो बोलो


यूँ न हारो


परीक्षण स्थल तक तो चलो


डरो नहीं


मेरा भरोसा तुम्हें हारने न देगा


आखिर..


तुम्हारी इसी जीत में


मेरी जीत भी छिपी है


...


हमारी जीत छिपी है


 


स्वरचित


रचना निर्मल


दिल्ली


 


 


3


 


इज़हार या इंकार


 


तुम्हारा इज़हार


मेरा इंकार


नतीजा


तेजाब से वार


क्या यही है प्यार


चलो मान ली गलती


थी मेरी नसमझी


अब मैं करती हूं इज़हार


आओ कर लो प्यार


क्या हुआ..


क्या प्यार नहीं रहा


या जिस्म वो नहीं रहा


सुनो..


लक्ष्मी थी,लक्ष्मी हूं


और.. लक्ष्मी रहूंगी


बढ़ूगी आगे


अब..


बेधड़क,


इसी चेहरे के साथ


 


स्वरचित


रचना निर्मल


दिल्ली


 


 


4


 


आशा


 


हर सुबह..


चाहत की बाती ले 


विश्वास के तेल से 


मन के मंदिर में 


जलता है रोज़ 


आशा का दीप 


जरूरत के साथ 


दिखाने नये रास्ते 


सूरज की तरह 


और रोज़…


जरूरत के लिये


जलती हैं चाहत


डगमगाता है विश्वास 


सूरज के साथ साथ 


हर शाम..


थक जाती है आशा 


पसर जाती है निराशा 


अंधियारी रात में 


बुझने लगता है 


दीप आशा का 


मगर…


सपने तो अपने हैं 


सहारा देते हैं लौ को 


छूटने नहीं देते 


हाथ आशा का 


नींद के झोंकों में 


प्यार से करते हैं 


तैयार एक और 


नई आशा का दीप 


अगली सुबह के लिए 


 


स्वरचित 


रचना 


दिल्ली


 


5


 


कौन हो तुम


 


 


भारत माँ आज 


हमसे पूछ रही है


कौन हो तुम


आखिर कौन हो तुम


किसके मोहरे हो ?


क्या केवल भीड़ हो । उन्माद हो


या वोटबैंक की कठपुतली हो


आखिर कौन हो तुम


जानते हो…?


 


तुम मात्र शोर नहीं हो


 विभाजित करने वाला मतभेद नहीं हो


सांप्रदायिकता का दानव भी नहीं हो


असंवेदनशील तो बिल्कुल नहीं हो


तुम तो संजीदा विचारों के सारथी हो,


संगीत हो


सुरों में सामंजस्य करना जानते हो


मूल रंगों से बने अनगिनत रंग हो


खुशबू फैलाते फूलों की क्यारी हो


तुम..


राष्ट्रीय एकता का संबल हो


संवाद हो


सत्य का बोध हो


जागो…


अब तो जागो


अज्ञान से ,अधर्म से जागो


मोह से


अहंकार से जागो


स्वयं को पहचानो


मानवीय मूल्यों को जानो


गंगा जमुनी तहज़ीब को मानो


अब तुम्हें उठना होगा


क्योंकि


अलगाववाद का जाना अभी शेष है


राष्ट्र में समूह चेतना का आना अभी शेष है


अंधकार को भगाना अभी शेष है


मानवता का सूर्योदय होना अभी शेष है


तुम्हें उठना ही होगा


 बहुत कुछ होना अभी शेष है


 


स्वरचित



 


विनय साग़र जायसवाल

हवा का ज़ोर इरादा डिगा नहीं सकता


चराग़े-ज़ीस्त हूँ कोई बुझा नहीं सकता


हुस्ने-मतला--


 


किसी के सामने सर को झुका नहीं सकता


वजूद अपना यक़ीनन मिटा नहीं सकता


 


फ़कत तुम्हारी ही मूरत समाई है दिल में 


इसे मैं चीर के सीना दिखा नहीं सकता 


 


किसी के प्यार से जान-ओ-जिगर महकते हैं


यक़ीन उसको ही लेकिन दिला नहीं सकता 


 


वो इस जहान में रुसवा कहीं न हो जाये 


किसी को दाग़ भी दिल के दिखा नहीं सकता 


 


बसी हैं ख़ुशबुएं इनमें उसी की सांसों की


ख़तों को इसलिए भी मैं जला नहीं सकता 


 


मुझे है आज भी चाहत तुम्हें मनाने की


सितारे तोड़ के हालाँकि ला नहीं सकता 


 


जला के ख़ुद को ये नस्लों को रौशनी दी है


ज़माना लाख भुलाये भुला नहीं सकता 


 


वो कर रहा है जफ़ा मुझसे बारहा साग़र


ये और बात है रिश्ता मिटा नहीं सकता 


 


🖋️विनय साग़र जायसवाल 


बरेली 


बहर-मुफायलुन फयलातुन मुफायलुन फेलुन 


सौम्या मिश्रा

सुनो कन्हैया कहाँ बसे हो, तुम्हें सुदामा ढूंढ रहा है।।


 


दुर्लभ प्रेम तुम्हारा माना, 


दुर्लभ दर्शन यह भी जाना,


जग में सुनी कथाएं तेरी,


हरते हो तुम विपद घनेरी,


 


मेरी भी विपदाएं हर लो, याचक तेरे द्वार खड़ा है।


सुनो कन्हैया कहाँ बसे हो, तुम्हें सुदामा ढूंढ रहा है।।


 


तुम परम सनेही ईश सखा,


करते भक्तों पर नित्य कृपा,


मधुवन कुंज गली के राजा,


श्याम पियारे हृदय समाजा,


 


आओ आओ हे मुरलीधर! इन अँखियन से अश्रु बहा है।


सुनो कन्हैया कहाँ बसे हो, तुम्हें सुदामा ढूंढ रहा है।।


 


कहें गोपिका तुम्हें पराया,


उद्धौ का भी मन भरमाया,


यमुना तट पे राह निहारे,


खड़ी राधिका उन्हीं किनारे,


 


सुख भी सारे छोड़ यहाँ पे, खोजे नित तुम्हें राधिका है।


सुनो कन्हैया कहाँ बसे हो, तुम्हें सुदामा ढूंढ रहा है।।


 


सौम्या मिश्रा


एस के कपूर श्री हंस

बच्चे भारत के भविष्य भाग्य विधाता।


 


आगे 2050 का भारत तो 


आज का बच्चा है।


ढाल लो जैसे भी उसको कि


मन का सच्चा है।।


जिस साँचे में डालोगे उसे


बन जायेगा वैसा ही।


अभी पका नहीं कि वो आज


मिट्टी का कच्चा है।।


 


बहुत सारे विकल्प हैं आपके


पास आजमाने को।


उसको सुसंस्कृत संस्कारी


जैसा भी बनाने को।।


चाहो तो मोबाइल गेम्स और


पब्जी में झोंक दो।


यही उचित समय है उन्हें


शौर्य गाथायें सुनाने को।।


 


बच्चा आगे बनेगा हठी या


नहीं ये आज तय करेगा।


जो कुछ सिखायेंगे आज वो


वैसी ही लय भरेगा।।


बच्चे देश के कर्णधार भारत


के वो भाग्य विधाता।


आज की शिक्षा के सहारे ही


चुनौतियों से वह लड़ेगा।।


 


आज के नौनिहाल कल के


वो राष्ट्र निर्माता हैं।


आज डालिये अच्छी आदतें


कि वो भविष्यदाता हैं।।


स्वस्थ, सुडौल, आज से ही


उनको बनाये आप ।


बच्चे भारत नव निर्माण के


बनेगें भाग्य विधाता हैं।।


 


एस के कपूर श्री हंस


बरेली।


 


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