लवी सिंह

हे भारत के वीर सपूतों,


नमन तुम्हें शत बार है।


 


दिखाकर जज़्बा देशभक्ति का,देशहित में 


लड़ने को वीर सिपाही रहता हरदम तैयार है


हे देश के वीर सैनिकों तुमको बारम्बार प्रणाम है।  


 


मौत की बिन फिक्र किये,


होठों पर सदा मुस्कान लिये,


देश हित में सीना तान


खड़ा देश का पुत्र महान


हे देशरक्षक हम सब करते तुम्हारा सम्मान। 


 


है देश में रौनक तुमसे ही,


तुमसे ही मांग का सिन्दूर है,


बेटी, बहन की लाज भी तुमसे है,


तुमसे माँ की ममता भरपुर है। 


 


हे मातृभूमि के वीर सिपाही,


तुमको सौ बार प्रनाम है


 


लवी सिंह


असिस्टेंट प्रोफ़ेसर 


इनवर्टीस विश्वविद्यालय 


बरेली


अनन्तराम चौबे अनन्त

लाल किले में फहराया था


तीन रंग का तिरंगा प्यारा ।


स्वतंत्रता पाई थी जब हमने


15 अगस्त का दिन था प्यारा।


 


आजादी पाने को वीरों ने


अपनी जान गंवाई थी ।


तभी तो देश में आजादी


15 अगस्त को पाई थी ।


 


लक्ष्मीबाई ने सबसे पहले


आजादी की लड़ी लड़ाई थी।


आजादी को पाने अंग्रेजों से


वो खूब लड़ी मर्दानी थी ।


 


स्वतंत्रता पाने को रानी ने


अपनी जान गंवाई थी ।


मशाल फूंकी थी आजादी 


की वो झांसी की रानी थी ।


 


भगतसिंह,सुभाषचन्द्र ने


आगे की राह दिखाई थी।


चन्द्रशेखर आजाद ने भी


आजादी की विगुल बजाई थी।


 


राजगुरू सुखदेव ने भी


मिलकर लड़ी लड़ाई थी ।


ऐसे वीर योद्धाओं ने


अंग्रेजों की नींद उड़ाई थी।


 


ऐसे वीर योद्धाओं ने देश


को आजादी दिलाई थी ।


फांसी पर चढ़कर भी


अपनी जान गंवाई थी ।


 


15 अगस्त 1947 को


स्वतंत्रता हमने पाई थी ।


सारा सच तो यही है भाई


वीरों ने जान गंवाई थी ।


 


जन्माष्टमी के दिन भगवान


कृष्ण की खुशियां भी मनाई थी।


सभी देश भक्तों ने मिलकर


जन्माष्टमी खूब मनाई थी ।


 


वीर शहीदों की कुर्बानी को


याद करके फिर दोहरानी है ।


स्वतंत्रता दिवस के शुभ दिन


को तिरंगी की शान बढ़ानी है ।


 


 अनन्तराम चौबे अनन्त


रश्मि लता मिश्रा

मैं हिंदुस्तानी


 


हिंदुस्तान मेरी जान,


 मेरी यही कहानी ।


फक्र मैं हिंदुस्तानी  


फक्र मैं हिंदुस्तानी।


 


ऊँचे पर्वत गहरी नदियाँ


बल खाता सागर है 


नदियों को कहते हैं माता 


पूजें पीपल जड़ है 


पावन गंगा माता का है ,


झर झर बहता पानी।


 फक्र में हिंदुस्तानी।


 


उत्तर ,दक्षिण, पूरब, पश्चिम 


मिलकर सारे एक हैं ।


एक बनाएं अपना भारत ,


सब के इरादे नेक हैं ।


 जात -पात और धर्म भेद की


हुई पुरानी कहानी ।


फक्र में हिंदुस्तानी।।


 


 सीमा पर तैनात हैं प्रहरी ।


अपनी आंख बिछाए।


 भारत माता को तड़पाने ।


गर कोई दुश्मन आये।


गांव घरों से निकल पड़ेंगे ।


बनकर हम बलिदानी ।


फक्र में हिंदुस्तानी।।


 


विश्व गुरु की राह चलाएं ।


भारत अपने प्यारे को ।


विश्व ताज सर पर रख वाएँ ।


भारत अपने न्यारेको ।


पूरी दुनिया के वतनो में


  भारत का नहीं सानी।


 फक्र मैं हिंदुस्तानी।।


 


रश्मि लता मिश्रा


बिलासपुर सी जी।


पंडित डीडी पाठक अनुराग वशिष्ट

चंदन है इस देश की माटी मैं भी तिलक लगाऊंगा,


देश की रक्षा की खातिर सरहद पर लड़ने जाऊंगा।


 


सेना में शामिल होकर मैं भी रक्षक बन जाऊंगा,


दुश्मन देश की सेनाओ के खट्टे दांत कराऊंगा।


चुन चुन कर दुश्मनों को जहन्नुम में पहुंचाऊंगा।


भारत मां का बनकर सेवक देश का मान बढ़ाऊंगा।


 


कश्मीर से कंयाकुमारी तक तिरंगा मैं फैराऊंगा।


देश की आन की खातिर हंसकर बलिदान हो जाऊंगा। 


चंदन है इस देश की माटी मैं भी तिलक लगाऊंगा।


देश की रक्षा की खातिर सरहद पर लड़ने जाऊंगा।


 


वीर शिवाजी राणा के पद्चिन्हों पर मैं चल जाऊंगा।


खंड खंड में बटे देश को अखंड भारत बनाऊंगा।


स्वामी जी के सपनों का विश्वगुरू भारत मैं बनाऊंगा।


देश की रक्षा की खातिर मैं कुरवानी दे जाऊंगा।


 


चंदन है इस देश की माटी मैं भी तिलक लगाऊंगा।


देश की रक्षा खातिर शरहद पर लडने जाऊँगा।


 


पंडित डीडी पाठक अनुराग वशिष्ट


डॉ. राम कुमार झा निकुंज

 मधुरिम रिश्ते नित सुखद , हैं जीवन वरदान। 


अति कोमल नाजुक सतत , निर्भर नित सम्मान।।१।।


 


निर्भर हो रिश्ते मधुर , त्याग शील परमार्थ।


लघुतर जीवन तब सफल, रिश्ते हो बिन स्वार्थ।।२।।


 


घर बाहर समाज हो , चाहे देश विदेश। 


आपस के व्यवहार पर , रहते रिश्ते शेष।।३।।


 


रिश्ते हैं अनमोल धन , मधुरामृत उपहार।


सखा सहोदर पूत सम , जीवन का आधार।।४।।


 


नीति रीति नित प्रीति पथ , रिश्ते चले अघात।


सरल सहज औदार्यता , रिश्ते मधुर सुहात।।५।।


 


पलभर दुर्लभ जिंदगी , मधुरिम हो सम्बन्ध।


वाच सुभाष सुहास जन , हों रिश्ते तटबन्ध।।६।।


 


राष्ट्र तभी उन्नत शिखर , रिश्ते बिना सबूत। 


शान्ति प्रेम समरस सुखी , हों पड़ोस मज़बूत।।७।।


 


आकर्षण स्नेहिल हृदय , रिश्ते बिना प्रपंच। 


भातृ बन्धु पशु खग सखा , बिना रखे मन रंच।।८।।


 


छोटी सी भी भूल बस , रिश्ते बने खटास।


पल भर में दुश्मन बने , भूले सभी मिठास।।९।।


 


सब मिलकर खिलता निकुंज,पशु पादप खग वृन्द।


तब हो भुवि सुष्मित प्रकृति , रिश्ते सम अरविन्द।।१०।।


 


कविः डॉ. राम कुमार झा "निकुंज"


नई दिल्ली


कालिका प्रसाद सेमवाल

हे ज्योतिपुंज शत् शत् प्रणाम


हे ज्योतिपुंज ब्रह्म शत् शत् प्रणाम


लीला तेरी अपरम्पार


कहीं दृश्य तो कहीं अदृष्य 


भ्रम में खोया यह संसार।


 


तेरी अनुभूति से तेरा रुप बनाया


अगणित आकार बना बैठे


मानस मंदिर से दूर कहीं


तेरा घर द्वार बसा बैठे हैं।


 


हर चिंगारी तू अंगार बना


सौरभ बन फूलों का प्राण बना


ले रहे श्वास जो जड़ और चेतन


उसके रग-रग का रक्त संचार बना।


 


हे ज्योतिपुंज ब्रह्म शत् शत् प्रणाम


लीलाएं तेरी अपरम्पार


सर्वत्र व्याप्त छवि तेरी


अविनाशी ब्रह्म तू घट-घट वासी।।


 


कालिका प्रसाद सेमवाल


मानस सदन अपर बाजार


रुद्रप्रयाग उत्तराखण्ड


डॉ0 हरि नाथ मिश्र

द्वितीय चरण (श्रीरामचरितबखान)-40


 


चले मिलन जनकहिं रघुनाथू।


गुरु बसिष्ठ-लछिमन लइ साथू।।


    पाछे सकल समाजइ गयऊ।


    सचिव सुमंतु संग जे रहऊ।।


गुरु बसिष्ठ कौसिक ऋषि मिलि के।


करैं बिचार भविष-गति लखि के।।


    कीन्हा नमन राम कौसिकहीं।


    सिय-पितु नृप जनकहिं प्रति नवहीं।।


सिय जननी तब रानि सुनैना।


तुरत गईं जहँ रानिन्ह रहना।।


     सुख-दुख कह सभ समधिन्ह मिलि के।


      हरष-बिषाद नयन जल भरि के।।


जथा-जोग सभ जन मिलि भेंटहिं।


कहहिं-सुनहिं कलेस निज मेंटहिं।।


दोहा-राम-लखन दोउ भाइ मिलि, ऋषिहिं झुकावैं सीष।


        बामदेव-जाबालि सँग,कौसिक देहिं असीष।।


        आयसु पा मुनि अत्रि कै,भरत संग सभ लोग।


        चित्रकूट-कामद-छबी,निरखे भा संजोग ।।


                      डॉ0हरि नाथ मिश्र


                       9919446372


डॉ0 हरि नाथ मिश्र

तीसरा अध्याय(श्रीकृष्णचरितबखान)-3


 


स्थिर चितइ जोरि निज हाथा।


प्रभु-चरनहिं नवाय निज माथा।।


    तजि भव-भय बसुदेव असोका।


    करन लगे स्तुति बिनु रोका।।


प्रकृति अतीत नाथ पुरुषोत्तम।


जानहुँ मैं प्रभु तुमहिं नरोत्तम।।


    नाथ रूप-अनुभूति अनंदा।


    दरस प्रभू कै नंदइ-नंदा।।


मात्र एक प्रभु बुद्धि-प्रमाना।


कहहिं सकल अस बेद-पुराना।।


     जगत त्रिगुनमय सृष्टी करहीं।


     नाथहिं प्रकृति जगत भर रहहीं।।


बिनू प्रबिषटहिं प्रभू प्रविष्टा।


अदृस रहहिं प्रभु जग कै स्रष्टा।।


     कारन-तत्त्व पृथक सभ रहहीं।


     पृथकहिं-पृथक सक्ति सभ अहहीं।।


मिलतइ पर षट दसहिं बिकारा।


तत्व-सक्ति-इंद्रियादिहिं सारा।।


     रचना करि ब्रह्मांडहिं नाथा।


     रहहिं अलख जग-तत्वहिं साथा।।


बुद्धिमात्र गुन-लच्छन देवहिं।


इंद्रिमात्र गुन बिषयहिं सेवहिं।।


    जदपि प्रभू कै उहहिं निवासा।


    पर नहिं दरस नाथ तहँ आसा।।


अंतरजामी,आतम-रूपा।


सत परमारथ नाथ अनूपा।।


     अजर-अमर अरु अलख-असीमा।


     प्रभुहिं अंस सभ जीव महीमा।।


देह-गेह अरु बाग-बिलासा।


साँच नहीं ए रखु बिस्वासा।।


     जदपि नाथ गुनरहित बिकारा।


      तदपि करहिं रचना संसारा।।


रच्छहिं-नासहिं तीनिउ लोका।


सकल प्रकास प्रभू-आलोका।।


     सत्व सुकुल प्रभु बिष्नुहिं रूपा।


     पोषहिं-सरजहिं नाथ अनूपा।।


रुधिर बरन रज ब्रह्मा बनि के।


रचहिं बिस्व प्रभु इहवाँ ठहि के।।


तमोगुनहिं प्रभु कृष्नहिं बरना।


रुद्र रूप बनि नासहिं रचना।।


     नाथ कृपालू सक्ति अनंता।


      मम गृह जनम लीन्ह भगवंता।।


तुमहीं प्रभो सकल जग-स्वामी।


करउ सँहार असुर नृप नामी।।


      सुनहु नाथ ई कंसइ पापी।


       तव अवतार सुनत संतापी।।


धावत इहँ आई लइ सस्त्रा।


मुक्त बृषभ इव परम सुतंत्रा।।


सोरठा-भ्रातन्ह तव सभ जेठ,हता कंस निर्मम हृदय।


           सुनि अवतारहिं श्रेष्ठ,प्रभु सन कह बसुदेव अस।।


           कहे मुनी सुकदेव, सुनहु परिच्छित ध्यान धरि।


          डॉ0 हरि नाथ मिश्र


सुनील कुमार गुप्ता

बदल गये


"रास्ते वही जीवन के,


यहाँ कदम बदल गये।


जीवन के पथ में साथी,


फिर साथी बदल गये।।


पत्थर की दीवारो के,


यहाँ रूप बदल गये।


कही भक्त कही भगवान,


इस जग में बदल गये।।


भगवान तो वही साथी,


उनके रूप बदल गये।


पहन चोला भक्ति का फिर,


यहाँ भक्त बदल गये।।


 


 सुनील कुमार गुप्ता


 


नूतन लाल साहू

बनावटी दुनिया


स्मार्ट दिखना और स्मार्ट हस्ताक्षर बनाना


एक कला है, जो हर किसी को नहीं आता है


मेरे पास एक खबर आई, पता नहीं


सच है या किसी ने उड़ाई है


एक व्यक्ति के साथ,बुरा घात किया


एक पागल कुत्ते ने,उन्हें काट लिया


पड़ोसी की आवाज आई,कपड़े देख शक था,भाई


स्मार्ट दिखना और स्मार्ट हस्ताक्षर बनाना


एक कला है, जो हर किसी को नहीं आता है


फिल्म की हीरोइन,प्लास्टिक सर्जरी कराते हैं


हाथ हिलाने और कमर मटकाने का ही दाम


हजारों नहीं,लाखो में कमाते हैं


लोग हरिनाम छोड़,उन्हीं का गुणगान गाते हैं


स्मार्ट दिखना और स्मार्ट हस्ताक्षर बनाना


एक कला है, जो हर किसी को नहीं आता है


विश्व सुंदरी का,प्रतिस्पर्धा होता है


खिताब आते ही,हीरोइन सा छा जाता है


विश्व सुंदरी, ऐश्वर्या राय को ही देखो


पहले उन्हें,कहा कोई जानता था


सदी का महानायक भी, बहु बनाने आतुर हो जाता है


स्मार्ट दिखना और स्मार्ट हस्ताक्षर बनाना


एक कला है, जो हर किसी को नहीं आता है


स्मरण शक्ति कैसे बढ़ाये


इस विषय पर एक किताब लिखी


कव्हर स्मार्ट था,लिखने वाला कवियित्री थी


बाजार में आते ही,किताब खूब बिकी


शोधार्थी अपनी शोध कथा,सबको बताता है


सुनकर दर्शक, कुंभकर्णी नींद में सो जाता है


स्मार्ट दिखना और स्मार्ट हस्ताक्षर बनाना


एक कला है, जो हर किसी को नहीं आता है


यह सच है कि,स्मार्ट दिखना चाहिए


पर हस्ताक्षर बनाने की कला,जरूर आना चाहिये


जो दोनों कला जानता है,वह इस जग में महान हैं


क्योंकि घर के बाहर,वो ही सच्चा इंसान है


स्मार्ट दिखना और स्मार्ट हस्ताक्षर बनाना


एक कला है, जो हर किसी को नहीं आता है


यह मेरा निजी विचार है


नूतन लाल साहू


राजेंद्र रायपुरी

घिसाई बाद में करना 


                अभी रख दो वहीं चंदन।


उठा लो गोद बेटे को


                 बहुत ही कर रहा क्रंदन।


 


न छोड़ो यूं उसे देखो


                    बहुत मासूम बच्चा है,


सुना कर बाल क्रंदन तुम


              बढ़ाओ मत मे'री धड़कन।


 


हजारों बार समझाया 


                  नहीं तुम ध्यान देती हो,


भला फिर क्यों नहीं होगी


                हमारे बीच कुछ अनबन।


 


बुरा क्यों मानती कहता 


                   भलाई के लिए हरदम,


खिला है फूल किस्मत से 


                अभी तो एक ही आॅ॑गन।


 


अगर मुरझा गया तो 


                जी न पाऊॅ॑गा सुनो मैं तो, 


न कहना फिर गए क्यों


          छोड़कर मुझको मे'रे साजन।


 


कहा तुम मान जाओ तो 


               रहेंगे सुख से' ही हम-तुम,


दमकती तुम रहोगी और 


                     दमकेगा सदा कंगन।


 


गले में बाॅ॑ह डालोगी 


                    सदा तुम प्यार से मेरे,


बजेगी हाथ की चूड़ी 


             सदा ही प्यार से खन-खन।


 


           ।। राजेंद्र रायपुरी।।


सत्यप्रकाश पाण्डेय

इससे बड़ा न धर्म कोई...


 


भूखे को भोजन पिला प्यासे को पानी


इससे बड़ा न धर्म कोई सुन ले रे प्राणी


 


मन्दिर मस्जिद जाकर पढले मंत्र नमाज


चारों धाम की यात्रा कर बना नया समाज


 


संतुष्ट नहीं नर तुझसे व्यर्थ है जिंदगानी


इससे बड़ा न धर्म कोई सुन ले रे प्राणी


 


दीन हीन का बन आश्रय हर उनके संताप


दिल दुखाकर किसी का मत ओढ़े तू पाप


 


परोपकार ही मानव है तेरी सच्ची कहानी


इससे बड़ा न धर्म कोई सुन ले रे प्राणी


 


व्यर्थ गया तेरा जीवन द्वेष और द्वन्द में


मानव को मानव न समझा तूने घमंड में


 


झूठी ही शान में बीती मूरख तेरी जवानी


इससे बड़ा न धर्म कोई सुन ले रे प्राणी


 


बन मसीहा धरती पे हर ले पर पीड़ा


दीन दरिद्र की सेवा में आये न ब्रीड़ा


 


अपने सदकर्मों की छोड़ ऐसी निशानी


इससे बड़ा न धर्म कोई सुन ले रे प्राणी।


 


सच्चिदानंद रूपाय नमो नमः


सत्यप्रकाश पाण्डेय


अर्चना पाठक

श्री राम अर्चन


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 राघव वंश सभी ने माना।


 रामचंद्र तेजस्वी जाना ।।


 गुण सर्वज्ञ सरल मृदुभाषी।


 चौड़ी छाती शत्रु विनाशी।।


 


रामभक्त के चरण पखारूँl


तेरे सम्मुख अब मेँ हारूँll


कामक्रोध से मुक्ति दिलाओl


राम नाम का पेय पिलाओll


 


अर्चना पाठक


नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर

1-जिंदगी एक संग्राम है आशा का परचम लहरा जिंदगी के कदमों के


निशाँ है।।


 


जीवन एक संग्राम है 


दुख ,दर्द ,धुप और छाँव है


आशा,निराशा रेगिस्तान और तूफ़ान है।।


 


आंसू ,गम ,मुस्कान है


शोला और शैलाभ है


जीवन में आस्था हथियार है


विश्वाश विजेता का व्यहार है।।


 


जिंदगी का होना विजेता का


आशा का परचम लहरा


जिंदगी जवाँ ,जोश की शान है


जवां ,जज्बा जिन्दा जिंदगी


पहचान है।।


 


आशाओं की अवनि ,आरजू का आसमान नौजवान है 


आशाओं का परचम लहरा


वर्तमान की चुनौती कर रहा स्वर्णिम इतिहास का निर्माण है।।


 


जिंदगी के धुप ,छाँव का योद्धा


तपती रेगिस्तान के शोलो की अग्नि पथ को पथ विजय में बदलता अवरोध सारे तोड़ता आशा का परचम लहरा समय काल की जान की मान जिंदगी जिन्दा नौजवान है।।


 


2- नौजवान आशा का परचम लहरा--


 


 मर्द मूल्यों का ,दर्द का एहसास


 नहीं तमाम दर्दो को दामन में समेटे लड़ता जिंदगी का संग्राम


आशा का परचम लहरा


दुनियां में रौशन नाज जिंदगी


नौजवान है।।


 


 तपिस के अंगार को शबनम की


बूँद में तब्दील कर दे सर्द के बर्फ


को अपनी ज्वाला से अंगार कर दे


वक्त को मोड़ दे आशा का परचम


लहरा निराशा को विश्वाश में बदलता जिंदगी के जंग का जाँबाजनौजवान है।।


 


नज़रों में मंज़िल मकसद आंसू


भी मंजिलों का अंदाज़ है मंजिल


मकसद के कारवां का अकेला मुसाफिर ज़माना देखता चलता 


उसकी राह है हर हाल में अपनी


मकसद मंजिल की मुस्कान आशा


का परचम लहरा जिंदगी का अंदाज़ नैजवान् है।


 


अपने हद हस्ती को निर्धारित करता दुनियां के दामन की खुशियों का तरन्नुम तराना


आशा का परचम लहरा जज्बा


ज़माना की आन बान नौजवान


जिंदगी जहाँ में होने का वाहिद आगाज़।।


 


3--मुश्किलों का विजेता नौजवान आशा का परचम लहरा----


 


 हर जहमत से दो दो हाथ 


हर मुश्किल की माईयात उठाता


दुस्वारी की महामारी को दुकडे


टुकड़े करता अंधेरो की चाँदनी


सूरज चाँद आशा का परचम लहरा वक्त की अपनी इबारत


का नौजवान।।


 


तूफानों से लड़ता लडखडाती


कश्ती का मांझी उम्दा उस्ताद


जिंदगी के भंवर मैं नहीं उलझता


मझधार में मौके का पतवार आशा का परचम लहरा लहरों


को चीरता भवरों से निपटाता


जिन्दंगी का जांबाज नौजवान।।


 


जिंदगी वही जिन्दा हर सवाल


का रखता हो जबाब आई किसी


भी सूरते हाल से टकरा जाने की


मस्ती का माद्दा आशा का परचम


लहरा दिलों में बुझाते रोशनी का चिराग नौजवान।।


 


ना जज्बा ना जज्बात ना 


हिम्मत ना हौसलों की उड़ान


ना इरादे फौलाद हो ना अपने


वक्त कदमों की शान पहचान


मुर्दा उस जिंदगी को जान।।


 


जिन्दा जिंदगी हिम्मत की जागीर


हौसलो का नया आसमान इरादों


की बुलंद इबादत की इबारत आशा का परचम लहारा जिंदगी


का विजेता जहाँ में गुजने वाली


आवाज का नौजवान।।


 


नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर


निशा अतुल्य

बिंदिया 


छूट जाएं कुछ पूर्वाग्रह 


बिखर जाएं कुछ थोपे हुए चिन्ह


जो गुलामी के से लगते हो 


तब जो बिंदिया चमकेगी 


तेजस्वनी होगी वो 


सूर्य की तरह निखरेगी ।


सूर्य छूप जाता है 


समय पर अपने


बिंदिया की चमक


हर पल बिखरेगी।


कभी बन चाँद देगी शीतलता


कभी प्रखर सूरज सी निखरेगी


जब हो जाएगा खत्म भेद 


स्त्री पुरुष का समाज से ,


सच मानो 


उस दिन स्त्री के भाल पर


एक ऐसी बिंदिया चमकेगी 


जो घर ही नही 


जग सारा रोशन करेगी ,


क्योंकि वो उसके 


अंतःकरण से उपजेगी


किसी विवशता की शिकार नहीं होगी । 


उन्नत भाल 


स्वतंत्र विचार 


समानता के कदम


भरता विश्वास 


बनाएंगे एक नया समाज 


जिसमें स्त्री शृंगार 


उसके अपने होंगे 


बंधनो में बंधे नही 


कोई नही पौंछ सके 


जहाँ 


उसकी चमकती बिंदिया


या आँखों का काजल ।


आज खंडित करती स्वयं को


करती तिरस्कार 


हर शृंगार का नारी 


क्यों 


स्वयं ही


थक गई है बंधनो का 


बेमानी बोझ ढोते ढोते


चाहती है उतार फेंकना 


अपने ही आपसे ।


अपनाएगी स्वयं से ही


अपने आत्मविश्वास को


बिंदी, चूड़ी, कजरा, गजरा 


किसी के नाम का नहीं


सजायेगी स्वयं के मनोभाव को ।


तब जो बिंदिया चमकेगी


उन्नत भाल पर


जगमगाएगी सकल संसार पर 


जैसे क्षितिज में उदय होता 


सूरज


कर देता है सिंदूरी पूरे आकाश को ।


 


निशा अतुल्य


डॉ बीके शर्मा 

श्री कृष्ण उवाच:


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है पुरातन 


जो सनातन 


है अजन्मा 


शोक उसका क्या करें |


 


जलता नहीं 


जो गलता नहीं 


जो है अविनाशी


शोक उसका क्या करें |


 


कटता नहीं 


जो सूखता नहीं 


जो है अच्छेद


शोक उसका क्या करें |


 


गिरता नहीं 


जो मरता नहीं 


है अव्यक्त 


शोक उसका क्या करें |


 


अर्जुन उवाच:


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बीच भंवर में जीवन नैया 


बीच भंवर में फंसा खेवैया


तुम कहते हो आओ किनारे 


क्यों दूर खड़े हो देख रवैया


 


करुणा घेरे व्याकुल उर को 


दुख घेरे कंठ से सुर को 


नहीं ज्ञात मुझे अपना पराया 


नहीं जानता सुर-असुर को 


 


कृष्ण उवाच:


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तुम तो पार्थ हो मेरे प्यारे 


छोड़ो मोह और रिश्ते सारे 


जो जन्मा नहीं उसे क्या मारोगे 


जीता क्या है जो तुम हारोगे


क्या साधन तुम साथ में लाए 


क्या साधन तुम ले जाओगे


 


हो जाओ सजग तुम


"पार्थ" ओ मेरे 


धर्म युद्ध है 


सामने तेरे


 


 अर्जुन उवाच:


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कर्ता क्या कर्म क्या


अकर्म क्या है |


धर्मा क्या धर्म क्या 


अधर्म क्या है ||


 


क्यों नहीं कर्म मेरे 


दिव्य निर्मल |


क्यों काम राग भय


बनाते निर्बल ||


 


क्यों घिरते मुझे यहां 


वर्ण भेद हैं |


आप हैं आप में


चारों वेद हैं ||


 


क्यों कर्म में 


अकर्म मैं देखता नहीं |


क्यों अकर्म में 


कर्म मैं सोचता नहीं ||


 


आप अविनाशी हैं


आपसे सर्व है |


आपसे शून्य है 


आपसे ही गर्भ है ||


 


फिर कर्म लिप्त हूं


मैं यह जानकर |


क्यों रहता अधर्म


भृकुटी तानकर ||


 


जग आश्रित है


आप आश्रय हैं |


अधर्म है अकर्म है 


आप तो श्रेय हैं ||


 


करें भस्म कामना 


राग द्वेष मेरे |


आप तो जानते हैं


सब भेष मेरे ||


 


 श्री कृष्ण उवाच:


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क्या पाया है 


जो दिया है तुमने |


क्या ग्रहण किया 


क्या त्यागा तुमने ||


 


यह तो बस 


साधन है तेरे |


तुम तो प्रिय


"पार्थ" हो मेरे ||


 


डॉ बीके शर्मा 


उच्चैन भरतपुर राजस्थान


9828863402


विनय साग़र जायसवाल

भड़कते शोले बुझा दे साक़ी


शराबे-उल्फ़त पिला दे साक़ी


 


सुराही पैमां छलक न जायें


लबों से मेरे लगा दे साक़ी


 


ये तशनगी जान ही न लेले


तकल्लुफ़ों को भुला दे साक़ी


 


पियूं मैं जी भर के आज सहबा


समाँ यूँ रंगी बना दे साक़ी


 


जिधर भी देखूँ नज़र तू आये


तमाम पर्दे हटा दे साक़ी


 


नशा रहेगा ये उम्र भर तू


निगाहे-मय भी मिला दे साक़ी


 


दुआएं तुझको ये देगा साग़र


तू जामो बोतल सजा दे साक़ी


 


🖋विनय साग़र जायसवाल


तशनगी--प्यास


सहबा-शराब


डॉ0 हरि नाथ मिश्र

चितचोर


चित को चुरा के मेरे,


किस देश जा बसे हो?


तुम तो बड़े हो छलिया-


किस प्यार सँग लसे हो??


 


बंसी बजा-बजा कर,


यमुना-किनारे सैयाँ।


वादे किए बहुत थे,


बैठे कदंब-छैंयाँ।


कसमों को भूल कर के-


किस जाल में फँसे हो??


 


अब तो पता बता दो,


चितचोर ऐ सँवरिया।


किस राह से ये पहुँचे,


तेरी गली बँवरिया?


तुझको निकालूँ आ के-


जिस कीच में धँसे हो।।


 


तेरा-मेरा ये नाता,


सदियों पुराना साजन।


तेरे हृदय की मलिका,


तुझको पुकारे राजन।


चितचोर मेरे छलिया-


क्यूँ दिल मेरा झँसे हो??


 


आ जाओ मेरे कान्हा,


तुझको पुकारे राधा।


निर्मल-विमल व सच्चा,


समझे न प्यार बाधा।


हर लो वियोग-विष को-


बन नाग जो डसे हो।।


       चित को चुरा के मेरे,


       किस देश जा बसे हो??


               © डॉ0हरि नाथ मिश्र


                  9919446372


एस के कपूर श्री हंस

 हम आज कहाँ जा रहे हैं।


 


मैं एक मस्त अल्हड़ बाला, अति


आधुनिक कन्या हूँ।


मैं सुसंस्कृत, संस्कारी, सुकन्या नहीं


धन दौलत लिप्त धन्या हूँ।।


प्यार,धोखा, पैसा, ब्यूटी, ग्लैमर


ही मेरे रोज़ के शगल हैं।


शॉपिंग मॉल सैर सपाटे मेरे जीने के तो अंदाज़ ही अलग हैं।।


शादी विवाह के बंधन मेरे लिए कोई मायने रखते नहीं हैं।


कोई भी सामाजिक रस्मोरिवाज मुझे


रोक सकते नहीं हैं।।


फेरे,विदा,चूड़ा, कंगन, सिंदूर, मेहंदी यह शब्द मेरे लिए पुराने हैं।


मैं सुपर अल्ट्रा मॉडर्न लड़की मुझे तो


ऐशो आराम ही बस पाने हैं।।


बिन फेरे हम तेरे, हमारी इस नई हाई


सोसाइटी का चलन है।


पार्टी ड्रग मौज मस्ती, में ही हमारा


जीवन मरण है।।


बिंदास अंदाज़ नैन मटक्का ही रोज़


हमारी जिंदगी है।


इंस्टाग्राम फोटोज, चैट ,से ही होती हमारी बन्दगी है।।


जलेबी सी मीठी हूँ ,पर ज्यादा अंदर विष हाला है।


आवश्यकता होती तो ओढ़ लेती हूँ, भारतीयता का दुशाला है।।


बिन शादी के भी हम ,साथ साथ घर में रहते हैं।


हमारे उच्चवर्गीय समाज वाले, इस को ही ठीक कहते हैं।


यूँ ही नहीं हमारी सोच ,अति आधुनिक


कहलाती है।


आज़ाद खयाल इसको, लिव इन रिलेशनशिप बतलाती है।।


 


एस के कपूर श्री हंस


बरेली।


डाo सम्पूर्णानंद मिश्र

कहां से लाऊं


 


आज दिहाड़ी नहीं मिली


रोटी कहां से लाऊं 


अरी, पगली तुम लोगों 


को कैसे खिलाऊं 


बिकने के लिए तो 


गया ही था ‌


बीच चौराहे पर


खड़ा ही था 


किसी के द्वारा 


मैं नहीं खरीदा जा सका 


आज इन हाथों में 


एक भी पैसा नही पा सका 


आज दिन भर नहीं खा सका


किसी ने देखा भी नहीं 


सबकी नज़रों में झांका 


सबने मुझे घूर कर ताका 


मानों मैं कोई अपराधी हूं !


  बाबूजी- बाबूजी


 कह-कहकर गिड़गिड़ाया 


सब वहां से भाग खड़े हुए


मैंने कहा, आज ऐसा क्यों है


जो देख रहा हूं वैसा क्यों है


किसी एक पढ़े लिखे 


मज़दूर ने कहा, 


जब तक कोरोना रहेगा


तब तक यही हालात रहेंगे 


इस महामारी मैं हम लोगों को 


छटपटाते हुए भूख का करोना


ऐसे ही मार डालेगा 


इन रसूखदारों का क्या


इनके घर के चूल्हे


  तो हंस रहे हैं 


इसीलिए इनके


 चेहरे पर हंसी है


हम लोगों का क्या 


अगर कुछ दिन


 ऐसे ही रहा 


तो हम लोग 


थाली और ताली बजाने लायक 


भी नहीं रह जायेंगे ।।


 


डाo सम्पूर्णानंद मिश्र


सुनीता असीम

नाम होंठों पर तेरा ही रह गया।


ख्वाब का था इक महल जो ढह गया।


****


देखकर भी जुल्म तेरे हमनशीं।


मन मेरा था बावरा जो सह गया।


****


कुछ नहीं रक्खा दिलों के मेल में।


हिज्र का मुझसे हरिक पल कह गया।


****


जो बचा मुझमें रहा था तू कहीं।


आंसुओं के साथ वो भी बह गया।


****


इंतिहा थी दर्द की जितनी रही।


दिल कराहों से उसे भी कह गया।


****


सुनीता असीम


मदन मोहन शर्मा सजल

धुँआ धुँआ सी जलती रही जिंदगी,


खून कतरा बिखरती रही जिंदगी,


 


हजारों ग़म लिये दिल की पनाह में,


लबों पे हँसी' सँवरती रही जिंदगी,


 


करवटें बदलती रही हसीं यादें, 


बेखुदी में महकती रही जिंदगी,


 


टूटती गई मिलन की तमाम आस,


ख्वाब दरिया में' पलती रही जिंदगी,


 


जिंदगी न होती न होता इश्के' ग़म,


सोचकर हाथ मलती रही जिंदगी।


 


मदन मोहन शर्मा सजल


कोटा (राजस्थान)


डॉ० सम्पूर्णानंद मिश्र

विस्थापन एक त्रासदी


 


चीखें, चिल्लाहटें


   करुण क्रंदन 


जैसे जायज़ शब्दों से


  निकले स्वर भी


इक्कीसवीं सदी की सड़क पर


   प्रजनन स्त्रियों की


  समग्र पीड़ाओं को


न्याय दिलाने के लिए


मुकम्मल साक्ष्य नहीं है


       क्योंकि


किसी स्त्री पर 


नाज़ायज संतति द्वारा हमला


उतना ख़तरनाक नहीं है


जितना उसके पाले स्वप्न को 


      गिद्धों सदृश


 नोंच- नोंच कर भक्षण करना 


   वर्तमान साक्षी है 


  यह बीमारी वैश्विक है


 इसने न जाने कितनों को मारा


     कितनों को तोड़ा


        कितनों के मुंह को कूंचा


        उस सांप की तरह 


     जो छटपटाते हुए 


      दम तोड़ देता है


        घुप्प अंधेरों के 


     भयानक जंगलों से निकलकर


     जो कभी बाहर की रोशनी में 


      पुनः न कभी नहाया हो


     कितनी आशाओं के शलभ


     वापसी की लौ में जर गए


     कितनों के सपने मर गए


     आत्माएं भी दुःखी हैं


      ग्राम- देवताओं के 


   ‌‌ शरीरों को त्यागकर 


    रेल की पटरियों पर


    न‌ जाने कौन सी काली छाया 


   आज जीवित आत्माओं 


      को डरा रही है 


    अपनी बेगुनाही का


    पुख्ता सबूत मांग रही हैं 


    इन छायाओं को 


  इतना डरा हुआ नहीं देखा गया 


 अपने ही नीड़ में आने से


    पखेरू भी घबराए हैं 


    अपना- अपना आशियाना भी आज पराया सा उन्हें लग रहा है


  उनमें जलता हुआ चूल्हा 


   बेगाना सा लग रहा है


धधक रही प्रत्याशा की लकड़ियां


   न जाने कब बुझ जायेंगी 


    शेष ज़िन्दगी की 


अंतिम आशाओं की सूई 


  कब रुक जायेगी


साहब! यह महामारी 


तो जरूर दूर हो जायेगी


लेकिन विस्थापित हुए 


लंगड़े लूलों की ज़िंदगी 


 क्या फिर पटरी पर आ पायेगी ?


 


 


डॉ० सम्पूर्णानंद मिश्र 


संजय जैन

तेरे चाहाने वालो के,


किस्से बहुत मशहूर है।


तेरी एक झलक के लिए,


खड़े रहते है लाइन से।


चेहरा छुपाना दुपट्टे से


लोगो की समझ से परे है।


कैसे देख सकेंगे वो तुझे,


खुले आसमान के नीचे।।


 


किसी पर तो तुम्हारा,


दिल आ रहा होगा।


धड़कने दिल की तेरी,


निश्चित बड़ा रहा होगा।


पर बात दिल की तुम,


व्या कर नही पा रहे हो।


मन ही मन जिसे चाह रहे हो,


उसे अपनी चाहत बता पाये हो।।


 


देखते देखते भी प्यार होता है।


पत्थरदिल भी प्यार के लिए पिघलता है।


कमबख्त दिल भी ऐसा होता है,


जो किसी न किसी पर तो फिसलता है।


और विधाता की बनाई जोड़ीयों का,


इस संसार में मिलन होता है.....।।


 


जय जिनेन्द्र देव


संजय जैन (मुम्बई)


शिवांगी मिश्रा

जग का मेरा प्यार नहीं था ।


 


प्रेम दीप में जलते जलते ।


प्रेम आश में पलते पलते ।।


ह्रदय किया था तुम्हें समर्पित , साधारण उपहार नहीं था । (१)


 


जग का मेरा प्यार नहीं था ।।


 


नयी किरण थी खिली खिली सी ।


उठी लहर थी मिली मिली सी ।।


तुम पर जीवन किया था अर्पित , गहनों का श्रृंगार नहीं था । (२)


 


जग का मेरा प्यार नहीं था ।।


 


तेरे मिलन की आशाओं में ।


दीप जला रक्खे राहों में ।।


भला मेरा अनमोल प्रेम ये , क्यूँ तुमको स्वीकार नहीं था । (३)


 


जग का मेरा प्यार नहीं था ।।


 


शिवांगी मिश्रा


धौरहरा लखीमपुर खीरी


उत्तर प्रदेश


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