संजय जैन मुम्बई

ठंडी हवाओ के झोंको से 


आ रही फूलों की महक।


चिड़ियों की चहको से 


मिल गया आपका संदेश।


दुआ करते है ईश्वर से


की हमें मिलता रहे। 


आपका जैसे दोस्त का 


स्नेह और प्यार।।


 


दूर है दोनों के किनारे


पर दिल से एक है।


मिलना मिलाना तो हो जाएगा,


यदि जिंदगी बची रही तो।


इसलिए संजय कहता है इच्छा शक्ति को जिंदा रखेंगे।


तो अपने मित्र से आपकी


मुलाकात हो जाएगी।।


 


कही दीप जल रहे है


तो कही छाय पढ़ रही है।


कही दिन निकल रहा है


तो कही रात हो रही है।


मोहब्बत करने वालो को


इन सब से क्या लेना देना।


क्योंकि दोनों के दिल 


दिल से मिल गये है।।


 


दिया तले अंधेरा है जो


रोशन को तलाशता है।


और हर रोज नई 


उम्मीदे लेकर आता है।


शायद कोई रोशनी की 


किरण दिख जाये।


और अंतरात्मा में कोई 


कमल खिल जाए।।


 


दिल को छू जाए रचना 


वो अच्छी होती है।


प्यार अपनो का मिल जाये 


वो ही रचना सच्चा होती है।


क्योंकि ऐसी रचनाएं काल्पनिक नहीं होती।


ये तो दिल से निकालकर


दिलो तक पहुंच जाती है।।


 


जय जिनेन्द्र देव


संजय जैन मुम्बई


विनय साग़र जायसवाल

दर्द दिल का मिटा लिया होता


दिल हमारा चुरा लिया होता


 


डस न पाती तुम्हें ये तन्हाई


हमको अपना बना लिया होता 


 


सारी महफ़िल मुरीद हो जाती 


गीत मेरा ही गा लिया होता


 


अपने कमरे में रौशनी के लिए


चाँद अपना बुला लिया होता 


 


सारी सखियाँ न छेड़तीं तुमको


मेरे ख़त को छुपा लिया होता 


 


 पढ़ता साग़र नयी ग़ज़ल मैं भी 


 तूने ख़ुद को सजा लिया होता 


 


🖋️विनय साग़र जायसवाल


डॉ0 हरि नाथ मिश्र

जीवन एक चनौती


 


इक चुनौती भरी राह है जिंदगी,


गर करोगे बसर मन में ले सादगी।


राह ख़ुद तुमको मंज़िल तक पहुँचाएगी-


ये दुनिया करेगी तुम्हें वंदगी।।


 


धैर्य खोए बिना,पूर्ण विश्वास से,


बेहिचक राह पर अपनी चलते रहो।


अंत में राह-मंज़िल का होगा मिलन-


शीघ्र ही आ गले से मिलेगी खुशी।।


 


कंटकाकीर्ण राहें तो होतीं मग़र,


उनपे चलना सदा ही तो है जिंदगी।


गर क़दम लड़खड़ाये तो ग़म मत करो-


आगे बढ़ते रहो बिन किए मन दुखी।।


 


चीर करके उदर तम का रवि नभ उगे,


भिड़ शिलाओं से सरिता सतत जग बहे।


सोच बदलो त्वरित अब निडर हो बढ़ो-


बाग़ जीवन की पुष्पों से होगी लदी।।


 


ज़िंदगी में चुनौती तो इक साज़ है,


तार छेड़ो तो मिलता मधुर स्वाद है।


स्वाद चख लो ज़रा अब इसी जन्म में-


ज़िंदगी से न करना कभी दिल्लगी।।


 


चुनौतियाँ नाते-रिश्ते निभाना भी है,


नाते-रिश्तों का सम्मान करना सदा।


ज़िंदगी इक चुनौती है माना कठिन-


इसको स्वीकार करके ही होंगे सुखी।।


             © डॉ0 हरि नाथ मिश्र


              9919446372


नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर

नेह ,स्नेह आकर्षण के मेह


आकर्षण अकारण नहीं सोच विचार के मन की देंन।।


 


स्नेह सिर्फ शब्द नहीं स्वर ,ईश्वर


युग, ब्रह्माण्ड में यादा कदा


यत्र ,तंत्र ,सर्वत्र स्नेह एक अविरल


धारा धार।।


 


कलरव ,ध्वनि नहीं ,वेग ,तूफ़ान


नाही छण भंगुर जीवनका सम्बल स्नेह सार रिश्तों का आधार।।


 


स्नेह ,सरोवर है मन के भावो की


गहराई मोह माया का साया स्नेह नेह ठाँव ठौर का नाता रिश्ता


परिवार।।


 


ना जाने किस समय कहाँ


उमड़ जाय स्नेह सावन की


फुहार अन्तर मन की अनंत भावनावों का तूफ़ान सद्भाव।।


 


कठिन चुनौतियों में मुश्किल


मशक्कत में स्नेह शांत सरोवर


उन्मुक्त अग्निपथ का शमन


पथ विजय की साहस हथियार।।


 


स्नेह सरोवर है द्वेष दम्भ रहित


विशुद्ध सात्विक ह्रदय हर्ष चमत्कार चरमोत्कर्ष प्रवाह।।


 


स्नेह का धरातल धैर्य का दैर्ध्


आयाम परिणाम स्नेह अमृत सोपान स्नेह सरोवर सागर बादल जिन्दगी में जख्मों का मरहम।।


 


स्नेह नेह का रिश्ता नाता समाज


स्नेह का बंधन मानव मानवता


का लोक लाज।।


 


स्नेह ,नेह का कोख आदर्श अस्तित्व जीवन मोल बेमोल अनमोल।।


 


स्नेह रस है स्नेह स्वर है मोह 


नेह का अंतर प्रस्फुटन है।


 


स्नेह, नेह ,मोह महिमा 


गहराई के तूफ़ान का


शांत शौम्य ठहराव नित्य


निरंतर निर्विकार ।।


 


स्नेह सत्य की अनुभव


अनुभूति का सार्थक


प्राज्ञ ,प्रज्ञान का विधाता विज्ञानं।।


 


स्नेह सरोज पल पल


बढ़ाता खिलता दायित्व


कर्तव्य बोध है


 


स्नेह के गर्भ से गौरव ,


मर्यादा मर्म मोह का छोह उफान


नेह का ह्रदय में अंकुरण


स्नहे के बंधन समाज का करता


निर्माण।।


 


स्नेह सम्मत है स्नेह सलिल


स्नेह मार्जन परिमार्जन समन


स्वीकार सत्कार का आत्म प्रकाश स्नेह अभिजीत स्नेह निष्ठां


की सर्मिष्ठा प्रणव पारिजात


अविरल अविराम ।।             


 


स्नेह मोह


नेह की बहती नित निरंतर प्रवाह


है स्नेह डोर है मन मोर है


घनघोर सम्मोहन सम


मन अवनि से आकाश तक


स्वर्ग का सत्यार्थ है।।


 


नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर


नूतन लाल साहू

विनती फिल्म निर्माताओं से


हे फिल्म निर्माताओं


भारतीय कला के रहनुमाओं


हर कलाकार,तुम्हारी तिजोरी में बंद हैं


तुम्हारी ही कृपा से,साधारण बंदे भी


क्रांति कुमार कहलाता हैं


इंसाफ का तराजू होता है,ये भुल न जाना


भारतीय सभ्यता और संस्कृति को


तुम आंच न आने देना


फिल्मी जज़्बात देखकर


लड़का लड़की बदनाम हो रहा है


अनेक, पाकिटमार हो गया है


अपहरण और बलात्कार की घटना


दनादन बढ़ रहा है


मेरे आंगन में तुम्हारा,क्या काम है


ये अपने मां बाप को कह रहा है


आप घोड़े को, गधा न बनाओ


आपको सौ सौ बार प्रणाम है


इंसाफ का तराजू होता है,ये भुल न जाना


भारतीय सभ्यता और संस्कृति को


तुम आंच न आने देना


सपरिवार एक साथ,फिल्म देख सके


ऐसा फिल्म बनाना


राधा कृष्णा सा प्रेम लीला दिखाना


अपराध जगत को भुल जाये


भक्त प्रहलाद सा भक्ति अपनाये


आपकी कृपा,कुछ ऐसा बरसे


गधा भी घोड़ा बन जाये


गाने को इतना,सीरियसली ले


मीरा सा,प्रभु का गुणगान करे


आपकी चांदी की छड़ी


कलाकार के पीठ पर,ऐसा पड़े


घर एक, सुंदर मंदिर कहलाये


इंसाफ का तराजू होता है,ये भुल न जाना


भारतीय सभ्यता और संस्कृति को


आंच न आने देना।


 


नूतन लाल साहू


सत्यप्रकाश पाण्डेय

तेरी शरण हूं बंशीवाले....


 


जग रचयिता माखन चोरी कर


माखन चोर कहावें


जग को दंडित करने वाले हरि


खुद ही सजा कूँ पावें


 


कैसे अजब खिलाड़ी बंशीधर


माँ से करें हैं ठिठोली


यशोदा मन में मोद भरें प्रभु


बोल के तोतली बोली


 


रास रचैया हलधर के भैया


गोप ग्वाल संग खेलें


भव की रक्षा करने वाले हरि


कैसे कैसे करें झमेले


 


हे आनन्द कन्द मन मोहन


ये सत्य तो तेरे हवाले


काटो हरि जग जाल के फंदे


तेरी शरण हूं बंशीवाले।


 


श्री कृष्णाय नमो नमः


सत्यप्रकाश पाण्डेय


एस के कपूर श्री हंस

कॅरोना के कहर से।।


 


आज दूर दूर रहिये आप


कल साथ साथ रहने को।


जिंदा रहना बहुत जरूरी


कल कुछ कहने को।।


अनमोल धरोहर जीवन


की न चली जाए यूँ ही।


बस कुछ दिन का धैर्य


जरूरी आपदा सहने को।।


 


यह अनमोल जीवन तेरा


यूँ सस्ते में न चला जाये।


ये किस्मत का सितारा


ठंडे बस्ते में न चला जाये।।


जरूरी है कि घर से जायें


आप किसी काम से ही।


बस यूँ ही व्यर्थ हर किसी


रस्ते में न चला जाये।।


 


आदत हम सबको अपनी


सुधारनी बदलनी होगी।


स्वास्थ्य की दिनचर्या


अब हमें पलटनी होगी।।


सावधानी हटी तो मानो


जैसे कोई दुर्घटना घटी।


साथ साथ जाने की बात


कुछ दिन खटकनी होगी।।


 


एस के कपूर श्री हंस


बरेली।।


कालिका प्रसाद सेमवाल

हे मातृभूमि तुम्हें नमन


*****************


आओ मातृभूमि का गुणगान करें


इस वसुंधरा को प्रणाम करें


आज देश ख़तरे में है 


इस की सुरक्षा के लिए बलिदान करें।


 


देश प्रेम से ओत-प्रोत हो


हर भारत मां का लाल,


सीमा की जो रक्षा कर रहा


उन वीर जवानों को कोटि-कोटि प्रणाम।


 


भारत में की रक्षा के लिए


हर भारतीय को तैयार होना है


भारत भूमि को स्वर्ग बनाना


हम सब का परम धर्म है।।


*******************


कालिका प्रसाद सेमवाल


मानस सदन अपर बाजार


रुद्रप्रयाग उत्तराखंड


डॉ0 हरि नाथ मिश्र

तीसरा अध्याय (श्रीकृष्णचरितबखान)-6


 


सुनु हे देबी कह भगवाना।


भवा जगत जब तुम्हरो आना।।


    प्रथम जनम मन्वंतर भवई।


    पहिला नाम प्रिस्न तव रहई।।


प्रजापती सुतपा बसुदेवा।


नामहिं तासु सकल जग लेवा।।


    दोऊ जन रह सुचि उरगारी।


    दिब्य रूप प्रभु परम पुजारी।।


लइके ब्रह्मा कै उपदेसा।


देउ जनम संतान निदेसा।।


    दोऊ जन हो इन्द्रिय-निग्रह।


    कीन्ह तपस्या प्रभुहिं अनुग्रह।।


बायुहिं-घाम-सीत अरु बरसा।


गरमी सहत रहेउ चित हरषा।।


   करत-करत नित प्रणायामा।


   कियो हृदय-मन अति सुचि धामा।।


सुष्क पात खा,पवनहिं पाना।


चितइ दूइनू सांति-निधाना।।


     तुम्ह सभ कियो अर्चना मोरी।


     सीष झुकाइ उभय कर जोरी।।


दस-दूइ-सहस बरस देवन्ह कै।


कीन्ह तपस्या तुम्ह सूतन्ह कै।।


    सुनहु देबि हे परम पुनीता।


     दुइनउ जन लखि भगति अभीता।।


तव अभिलाषा पूरन हेतू।


प्रगटे हम हे नेह निकेतू।।


    माँगेयु तुम्ह सुत मोरे जैसा।


     रचा खेल अद्भुत मैं ऐसा।।


तुम्ह न रहेउ रत भोग-बिलासा।


रही नहीं सन्तानहिं आसा।।


    बर व मोच्छ नहिं हमतें माँगा।


    माँगा सुत जस मोंहि सुभागा।।


'एवमस्तु' कह तब मैं निकसा।


तुम्ह सभ भए भोग-रत-लिप्सा।।


     'प्रश्निगर्भ' तब रह मम नामा।


      माता-पिता तुमहिं बलधामा।।


दूसर जनम 'अदिति'तुम्ह रहऊ।


कस्यपु मुनि बसुदेवइ भयऊ।।


    तबहूँ रहे हमहिं सुत तोरा।


    नाम 'उपेंद्र'रहा तब मोरा।।


अति लघु तन तब मोरा रहई।


'बामन'मोंहि जगत सभ कहई।।


     पुनि मम जनम भवा जब तीसर।


      सुनहु देबि मैं कृष्न न दूसर।।


तव समच्छ प्रगटे यहि रूपा।


भूलउ ताकि न मोंहि अनूपा।।


दोहा-भाव देवकी तुम्ह सबहिं,रखेउ पुत्र अरु ब्रह्म।


         मोरे सँग श्रद्धा सहित,बिनू भरम अरु मर्म।।


                        डॉ0हरि नाथ मिश्र


                          9919446372


डॉ0 हरि नाथ मिश्र

द्वितीय चरण (श्रीरामचरितबखान)-43


 


प्रेम बिबस भे तब प्रभु रामा।


कीन्ह खड़ाऊँ भरतहिं नामा।।


      सादर भरत सीष धरि लेवा।


      बिनु संकोच प्रभू जब देवा।।


चरन-पाँवरी जनु प्रभु तुमहीं।


करहिं राजु तहँ नहिं प्रभु हमहीं।।


     तापस-भेष-नेम-ब्रत तुम्हरो।


     कंद-मूल-फल-भोगहिं हमरो।।


जटा-जूट धारन करि सीषा।


करउँ राजु मों देहु असीषा।।


    सीय-चरन गहि कहैं भरत तब।


    कस हम रहब मातु तजि हम अब।।


लछिमन सजल नयन प्रनमहिं तिन्ह।


कहहिं छमहु मों कीन्ह पाप जिन्ह।।


   भरतहिं नेत्र बारि भरि आवा।


   लखन पकरि निज गरे लगावा।।


अवध औरु तिरहुति परिजन सब।


मिलि प्रनमहिं सिय-राम-लखन तब।।


     करि अनुकूलासीष प्रनामा।


     सासु सुनैना पहँ गे रामा।


देहिं असीषहिं सासु सुनैना।


आसिरबचनय मृदुल सुबैना।।


     कहहिं सुफल तव होय मनोरथ।


     लौटहु बैठि परेम-बिजय-रथ।।


दिन्ह अँकवारि मातु सिय पुत्रिहिं।


रुधित कंठ अरु जल भरि नेत्रहिं।।


    सभ मिलि दें आसिष लघु भ्राता।


    नाम शत्रुघन सबहिं जे भाता।।


तीनिउ मिलि तिन्ह गरे लगाए।


बद्ध कंठ कछु कहि नहिं पाए।


दोहा-जथा-जोग सबको किए, सानुज राम प्रनाम।


         बिदा किए सभ जन तबहिं,चले अजुधिया-धाम।।


        निज-निज पालकि मातु सभ,बैठीं जा सम्मान।


         जनक-गुरुहिं सभ रथ चढ़ी,तुरतहिं कियो पयान।।


                         डॉ0हरि नाथ मिश्र


                           9919446372


सुनीता असीम

ये सोचा भी नहीं था बीच अपने फासले होंगे।


मुहब्बत और दिल के बीच में कुछ कायदे होंगे।


****


सुलग उठता मेरा मन हिज्र की भी बात से हमदम।


इन्हीं अनजान राहों में रहे कुछ हादसे होंगे।


****


मुहब्बत के मुनासिब मामले होते नहीं अक्सर।


कभी जिल्लत कभी लानत बहस के काफिले होंगे।


****


उसूलों के रिवाजों के बहाने ही बना करते।


जहां में प्यार के ऐसे खतम बस वास्ते होंगे।


****


मिले बस आशिकों को दर्द औ मरहम नहीं मिलती।


कसक देते कहाँ तक दर्द के ये सिलसिले होंगे


 


सुनीता असीम


डॉ. राम कुमार झा निकुंज

वर दे भगवति शारदे!


 


श्वेत वसन पद्मासना , वीणाधर अभिराम।


वर दे भगवति शारदे , ज्ञानामृत सुखधाम।।१।।


 


खिले ज्ञान की अरुणिमा , मिटे तिमिर अविराम।


नीति रीति पुरुषार्थ दे , हो परहित सत्काम।।२।।


 


मति विवेक दे सर्वदे , ब्रह्मरूप हे अम्ब।


ज्ञानानल दुर्बुद्धि हर , सन्निधि तू अवलम्ब।।३।। 


 


चौदह विद्या धायिनी, चतुर्वेद स्वरूप। 


हरो तिमिर जग ताप माँ , जन गण हो या भूप।।४।।


 


भरो सुयश माँ भारती , सत्पथ दो आलोक।


शील त्याग संस्कार से , पूर्ण करो हर शोक।।५।।


 


हंसवाहिनी विधिप्रिये , श्वेताम्बर परिधान।


शारद सरसिज शारदे , मानवीय दे ज्ञान।।६।।


 


ममता समता स्नेहिला , सरस्वती जग मातु।


हम कुपूत हैं शरण में , वन्दहुँ चरणहुँ पातु।।७।।


 


जय जय सुरसरि भारती , भर भारत आलोक।


विद्याधन शुभ प्रगति दे , हरो विघ्न सब शोक।।८।।


 


कवि✍️ डॉ. राम कुमार झा 'निकुंज'


सुनील कुमार गुप्ता

  दोस्त को पैगाम


दोस्ती में नफरत का नही काम-


प्रेम का दे-


दोस्त को पैगाम।


प्रेम संग महकेगी दोस्ती,


जैसे-छाया हो मधुमास-


क्या-दोस्ती में पतझड़ का काम?


साथी-साथी में हो विश्वास,


विश्वास से ही -


महकेगी हर शाम।


माने न माने साथी जीवन में,


दोस्ती पर तो-


सब कुछ है -कुरबान।


सच्ची दोस्ती हो साथी,


प्रभु भी होता-


उन सब पर मेहरबान।


दोस्त दोस्ती में कभी ,


देना न धोखा-


यही देना दोस्त को पैगाम।।


 


 सुनील कुमार गुप्ता


डॉ निर्मला शर्मा

विरह वेदना 


 


यमुना तट पर बैठी राधा


 नेह का दीप जलाए 


कहां गए ओ किशन कन्हैया 


मन की बात ही जलती जाए 


नैनन नीर बहे सरिता सम 


विकल हिया बह जाए 


कैसे मन के तट को बांधूँ


 बांध ना बांधा जाए 


गोधूलि बेला में निस दिन


 द्वार निहारु जाए 


आते होंगे बंसी बजैया 


मन ये कहता जाए 


कुंज गलिन में यमुना तट पर 


बाट निहारु जाए 


कबहूँ मिलोगे मनमोहन अब 


जीवन बीता जाए 


तन गोकुल में मन मथुरा में


विरह से मन भर जाय


किसी विधि जिऊँ


 अब तुम ही बताओ 


क्या मैं करूं उपाय ।


 


डॉ निर्मला शर्मा 


दौसा राजस्थान


सुषमा दीक्षित शुक्ला

ये जो मेरा वतन है 


 


ये जो मेरा वतन है,


ये जान से प्यारा वतन है ।


 


आज अपनी ही जमी है ,


आज अपना ही गगन है ।


 


अपनी हवा मे साँस ले ,


अपनी हवा मे गुनगुनाएं ।


 


अपने नियम अपने तरीके ,


नित हमें आगे बढायें ।


 


रहते यहाँ हिंदू मुसलमाँ ,


सदा से ही नेह से ।


 


नित सुनाती कुरां भी ,


अरु वेद ध्वनि हर गेह से ।


 


हमसब अगर झगड़ें कभी ,


पर वक्त पर हैं एक होते ।


 


है अजब सी एकता ,


हम विश्व को सन्देश देते ।


 


हम भूल सकते ना कभी ,


जो देश हित बलि चढ़ गये ।


 


जिनकी कठिन कुर्बानियों से,


आज हम सब बढ़ गये ।


 


बदनीयत से ग़र देख ले ,


कोई हमारे देश को ।


 


माँ भारती की शपथ है ,


क्षण भर बचे ना शेष वो ।


 


ये जो मेरा वतन है ,


ये जान से प्यारा वतन है ।


 


आज अपनी ही ज़मी है  


आज अपना ही गगन है ।


 


 सुषमा दीक्षित शुक्ला


डॉ शिव शरण श्रीवास्तव अमल

पितृ पक्ष प्रारंभ _


 


इस वर्ष 02 सितंबर से 17 सितंबर तक का पूरे 16 दिनों का पितृ पक्ष है, पितरों की आत्मा की शांति के लिए, पितरों का आशीर्वाद प्राप्त करने एवं पितृ दोष निवारण के लिए ये दिन अत्यधिक महत्तवपूर्ण माने जाते हैं, पूरे साल की अमावस्या तथा इन दिनों पितृ तर्पण, पिंड दान, ब्राह्मण भोजन, दान, कुआं _तालाब का निर्माण , वृक्षा रोपण, नारायण बलि_नाग बलि की पूजा, किसी असहाय की सहायता करना, किसी गरीब कन्या के विवाह हेतु सहयोग करना, घर_परिवार के सदस्यों, रिश्तेदारों , इष्ट _मित्रों से सद्भावना पूर्ण ब्यवाहर करना, गजेन्द्र मोक्ष का पाठ करना आदि परमार्थ पूर्ण कार्य करने से पितृ दोष से मुक्ति मिलती है तथा पितरों का आशीर्वाद प्राप्त होता है ।


 


डॉ शिव शरण श्रीवास्तव अमल


(कवि, लेखक, वक्ता, ज्योतिष एवं वास्तु विशेषज्ञ)


9424192318


डॉ शिव शरण श्रीवास्तव अमल

हम सब भारत वासी हैं _


 


अगड़े, पिछड़े, दलित नहीं हम,


ना हम आदिवासी हैं ।


कहो प्रेम से सब मिलकर के,


हम सब आदिवासी हैं ।।


समरसता की आड़ लिए जो,


जातिवाद फैलाते है ।


पुनः देश के टुकड़े करने ,


का षड्यंत्र रचाते है ।।


पहले ही हम बटवारे की ,


घोर त्रासदी झेल चुके ।


सत्ता के मद के मतवाले,


खेल घिनौना खेल चुके ।।


मत बहको,समझो मित्रो,


ये सारी चाल सियासी है ।


कहो प्रेम से सब मिलकर के,


हम सब भारतवासी है ।।


सम्प्रदाय का जहर पिलाकर,


कब तक गद्दी बची रहेगी ।


विघटन कारी कुटिल चाल यह,


कब तक आगे और चलेगी। ।


ग्रस्त,त्रस्त,आतंकित प्रतिभा,


कब तक यह अपमान सहेगी ।


कुंठित यौवन शक्ति भड़ककर,


गली गली भूचाल करेगी ।।


नफरत की यह आंधी अब,


अपनो के खून की प्यासी है।


कहो प्रेम से सब मिलकर के,


हम सब भारतवासी हैं ।।


जाति पंथ,का भेदभाव अब,


हमे मिटाना ही होगा ।


ऊँच नीच की इस खाई को,


हमे पाटना ही होगा ।।


मजहब के उन्मादों से अब,


मुल्क बचाना ही होगा ।


प्रतिभाओं की प्रतिभा को,


सम्मान दिलाना ही होगा।।


तुष्टिकरण का दावानल,


अपना ही वतन विनासी है।


कहो प्रेम से सब मिलकर के,


हम सब भारतवासी हैं ।।


जाति, पंथ का आरक्षण


आपस मे फूट कराता है।


निर्धन ज्यो का त्यों रहता है,


धनिक वर्ग मुस्काता है।।


इसलिए समय की मांग यही है,


इस पर पुनः बिचार करो।


जो असली हकदार उन्हे,


हक देने का उपचार करो ।।


अब तक की करतूतों से,


यह धरती बहुत उदासी है।


कहो प्रेम से सब मिलकर के हम सब भारतवासी हैं।।


वो भिन्न जाति वर्णो वालो,


मत उछलो बाहर जाने को।


ये हमे तोड़ना चाह रहे है,


अपना स्वार्थ भुनाने को।।


हम भारत से,भारत हमसे,


भारत ही हमारा परिचय है।


हम भारत की धड़कन हैं,


भारत ही हमारा हृदय है ।।


यहीं हमारा येरुसलम है,


यह ही काबा काशी है ।


कहो प्रेम से सब मिलकर के,


हम सब भारतवासी हैं।।


सत्तर वर्षो का अनुभव ,


क्या नही समझ मे आया है।


गिने-चुने कुछ ही लीगो ने


इसका लाभ उठाया है ।


नब्बे प्रतिसत से ज्यादा,


जैसे थे वैसे अब भी है।


पहले भी थे वोट बैंक,


और वोट बैंक वे अब भी है।।


रोज कामना,रोज पकाना,


यह ही बारहमासी है।


कहो प्रेम से सब मिलकर के,


हैम सब भारतवासी है ।।


भूख ,गरीबी,लाचारी के,


नही जाति _गत रिस्ते है।


बिना दवाई,तडप-तड़प के,


कितने मरते रहते है ।।


किसी वर्ग के भी जो निर्धन,


कितना दंश झेलते हैं ।


कितनो के घर चूल्हा जलता,


कितनी फाके भरते हैं ।।


सोचो कितने लल्ला भूखे,


कितनी लल्ली प्यासी हैं ।


कहो प्रेम से सब मिलकर के,


हैम सब भारतवासी है ।।


केवल एक जाति है मानव,


राष्ट्रधर्म ही एक धर्म है ।


जियो और जीने दो सबको,


यही धर्म का मूलमंत्र है ।।


सिर्फ आर्थिक पिछड़ेपन का,


कुछ हदतक आरक्षण हो ।


कल्याणी, दिव्यांग, यतीमों,


के हित का संरक्षण हो।।


समझदार जनता अपनी,


खुशियाली की अभिलासी है ।


कहो प्रेम से सब मिलकर के,


हम सब भारतवासी है ।।


 


डॉ शिव शरण श्रीवास्तव "अमल"


(कवि, लेखक, वक्ता, ज्योतिष एवं वास्तु विशेषज्ञ )


 


9424192318


बिन्देश्वर प्रसाद शर्मा बिन्दु

जाने सकल जहान यह, सीता पति श्री राम


यही अयोध्या है नगर, यही पुन्य सुख धाम।


 


राम मर्यादा में रहे, रखे प्रजा की लाज


अपने संकट में रहे , छोड़ गये सिरताज।


 


मंथरा सोच कर चली , एक अनोखी चाल


फंस गयी थी कैकयी , बुन गई थी जाल।


 


दशरथ वचनों में घिरे, हुए हाल बेहाल


अलग हुए जब राम से, निकले प्राण निढ़ाल।


 


डूबे नगर वियोग में, हो गये शोकाकुल


रानी कैसी कैकयी , कर दी बात फिजूल।


 


भरद्वाज के कुटी गये, लक्ष्मण, सीता - राम


आशिष ले गुरु देव की, चरण वंदन प्रणाम।


 


सरयु नदी के तीर पर, नाविक था तैयार


चरण पखारन में लगे, अशुअन की थी धार।


 


वन वन भटके राम जी, सीता लक्ष्मण साथ


पंचवटी में जम गए, नाथों के वो नाथ।


 


जब भी रोते हैं धरम, तब अाते सरकार


नैया इस मझधार के, बन जाते पतवार।


 


भक्त और भगवान में, रहा अनूठा मेल


भगवन तारणहार हैं, उनका ही सब खेल।


 


अजामिल, गणिका तरे, तरे गिद्ध के राज


अहिल्या सेबरी भी तरी, अरु केवट स्वराज।


 


बिन्देश्वर प्रसाद शर्मा - (बिन्दु)


धनबाद - झारखंड


वंदना शर्मा बिंदु

सभी पितरों को नमन


 


कल तक हमारे संग थे


अब ब्रह्म में विलीन है।


आशीष और स्नेह की


गंगा बरसाते थे सदा।


 


आप हमारे पूजनीय


हम आपकी संतान हैं।


पितृपक्ष प्रारंभ है


आओ चलो स्वागत करें।


 


शामिल हुए पुरखों में वो


तस्वीर में जाकर बसे।


धूप दीप नैवेद्य से हम


एक बार फिर बंधन करें।


 


भूल चूक हो अगर


क्षमा करें क्षमा करें।


सुख संपदा बनी रहे


आपके आशीष से।


 


कृपा सदा बनी रहे 


आप की परिवार पे।


 


वंदना शर्मा (बिंदु)


देवास जिला मध्य प्रदेश


रेखा बोरा

मातृभूमि


अहा मातृभूमि ! भारतभूमि!


तुमको प्रणाम है तेरा यशोगान है


सूरज का तेज़ बसा मुख पर


स्वर्णिम रश्मि की छाया है 


चंदा की बिंदिया माथे पर


मलय पवन की काया है


अहा मातृभूमि ....


तीन रंग परिधान तेरा है 


गंगा - यमुना का आंचल


हिमगिरी तेरा भाल मुकुट है


विश्व को बहुत लुभाया है


अहा मातृभूमि ...


हरे - भरे यह खेत तेरे हैं


फल-फूलों युक्त हैं वन-उपवन 


अपने उर में किये समाहित 


खनिज सम्पदा के भंडारण 


अहा मातृभूमि ..


तेरी आन की खातिर जो


अंतिम क्षण तक संधर्ष किये


ऐसे वीर सपूतों ने तेरा 


भाल न कभी झुकाया है


अहा मातृभूमि ...


शौर्य पराक्रम कर्मठता से


लोहा ले दुश्मन से जो


जल थल नभ में उन वीरों ने


परचम तेरा लहराया है 


अहा मातृभूमि ! भारतभूमि!


तुमको प्रणाम है, तेरा यशोगान है।


 


रेखा बोरा


लखनऊ


डॉ0 हरि नाथ मिश्र

तीसरा अध्याय (श्रीकृष्णचरितबखान)-5


 


सबहिं नाथ तव लीला अहहीं।


निमिष-बरस व काल जे रहहीं।।


     तुमहिं सक्ति-कल्यान-निधाना।


     तुम्हरे सरन नाथ मैं आना।।


जीवहि मृत्युग्रस्त रह लोका।


मृत्यु-ब्याल भयभीत ससोका।


     भरमइ इत-उत बहुतै भ्रमिता।


     अटका-भटका बिनु थल सहिता।।


बड़े भागि प्रभु पदारबिंदा।


मिली सरन यहिं नाथ गुबिंदा।।


   सुत्तइ जिव अब सुखहिं असोका।


   भगी मृत्यु तजि जगहिं ससोका।।


तुमहिं त नाथ भगत-भय-हारी।


करहु सुरच्छा बाँकबिहारी।।


    दुष्ट कंस भयभीता सबहीं।


    सबहिं क करउ अभीता तुमहीं।।


नाथ चतुर्भुज दिब्यहि रूपा।


सबहिं न प्रकटेऊ रूप अनूपा।।


    दोऊ कर जोरे मैं कहहूँ।


     पापी कंस न जानै तुमहूँ।।


धीरज भवा मोंहि तव छूवन।


रच्छ माम तुम्ह हे मधुसूदन।।


   पर डरपहुँ मैं कंसहिं अबहीं।


   तव अवतार न जानै जगहीं।।


रूप अलौकिक अद्भुत मोहै।


पंकज-गदा-संख-चक सोहै।।


     सकै न जानि चतुर्भुज रूपा।


     कंस दुष्ट-खल-करम-कुरूपा।।


रखहु छिपा ई रूप आपनो।


सुनो जगात्मन मोर भाषनो।।


दोहा-कहहिं देवकी मातु पुनि,बहुत कृपा प्रभु तोर।


        पुरुष तुमहिं परमातमा,आयो गर्भहिं मोर।।


        भई धन्य ई कोंख मम,धारि तुमहिं हे नाथ।


         अद्भुत लीला तव प्रभू, नमहुँ नवाई माथ।।


                         डॉ0 हरि नाथ मिश्र


                          9919446372


निशा अतुल्य

मिल सब योग करो


तन मन स्वस्थ रखो


मिलकर मुहिम ये


सब ही चलाइए।


 


करे साँस प्रश्वास जो


नाड़ी शुद्ध उसकी हो


कपालभाति कर के


स्वास्थ्य सब पाइए।


 


आसन भुजंग करो


पीठ दर्द दूर करो


मेरुदंड होए स्वस्थ 


लचीले हो जाइए।


 


भ्रामरी क्रिया महान


एकाग्रता देती दान


अनुलोम विलोम से 


ओज मुख लाइए।


 


स्वरचित


निशा"अतुल्य"


सत्यप्रकाश पाण्डेय

हिय वातायन में ........


 


हिय वातायन से झांकती नजरें


नयनाभिराम छवि तेरी


अवर्चनीय तोहफा हो विधु का


तुमही चाहत प्रिय मेरी


 


रजनी में देखता नीलगगन को


हर नक्षत्र में आभा तेरी


आकाश मंदाकिनी की धारा में


दिखे तिरती आशा मेरी


 


कश्मकश सी रहती है दिल में


समझेंगी भावनाएं मेरी


या फिर बनी रहेंगी दूरी यूं ही


पूर्ण होंगी कामनाएं मेरी


 


दिल के तार जोड़ते रहे दिल से


आरोपित अभिलाषा मेरी


सुरभि चाही थी जिस सुमन से


क्या मुराद पूर्ण होगी मेरी।


 


सत्यप्रकाश पाण्डेय


डॉ0 हरि नाथ मिश्र

द्वितीय चरण (श्रीरामचरितबखान)-42


 


तहँ तब सभा बिसर्जित भवई।


निज-निज डेरा पे सभ गवई।।


    दिवस बिता रजनी करि भोगा।


     कंद-मूल-फल खाइ सुजोगा।।


उठि प्रातःमंदाकिनि-तीरा।


जाइ नहाए सभ तिसु नीरा।।


    कइके पूजा-तरपन सबहीं।


    गमनइ हेतु उपक्रम करहीं।।


मिलन-जुलन आपसु मा करहीं।


आसिष-नमन जथाक्रम लहहीं।।


     समधिन सँग मिलि रानि सुनयना।


     करैं प्रनाम अश्रु भरि नयना ।।


राम-लखन-सिय साथहिं-साथे।


प्रनमहिं जनक झकाये माथे।।


    करि प्रनाम तब ते तहँ गयऊ।


    बाम-जबालि-कुसिक जहँ रहऊ।।


रिषिन्ह चरन छूइ सिय-रामा।


लछिमन सहित गए गुरु-धामा।।


   गुरु बसिष्ठ धाइ गर मिलहीं।


    राम-लखन तहँ गुरु पगु धरहीं।।


दइ असीष सीतहिं गुरु कहहीं।


करिहैं पुर्न मनोरथ प्रभुहीं।।


    तब सिय सँग अरु लखन समेता।


    राम गए जहँ मातु-निकेता ।।


प्रथमहिं चरन कैकई परऊ।


तब पगु मातु सुमित्रा धरऊ।।


    कैकइ कहहिं राम मृदु बानी।


    राम छमहु मों बुझि अग्यानी।।


तब छुइ चरनन्ह मातु कुसिल्या।


लीं असीष जस लियो अहिल्या।।


दोहा-तेहि अवसर प्रभु राम सन, कहहिं भरत निज मर्म।


         धरि सिर प्रभु तव पादुका,करउँ राज मम धर्म ।।


                     डॉ0 हरि नाथ मिश्र


                       9919446372


नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर

छोटा सा बीज पता नहीं खुद का अस्तित्व थकी हारी दुनियां के सुकून दो पल का आधार अस्तित्व।।


 


लाख तुफानो सेलड़ता नहीं झुकता अपनी धुन में खड़ा रहता अपने साये में हर पथिक की प्रेरणा बरगद की छाया।।


 


बरगद का विशाल बृक्ष


जितना विशाल उतना ही छोटा बीज मिटटी में मिल जाता


अपने अस्तिव को मिटटी में 


मिला देता नए कलेवर में छोटा


सा वो बीज दुनियां की आशा 


विश्वाश की धरोहर का धन्य


विशाल बट कहलाता।।


 


धीरे धीरे बढ़ाता जाता मौसम की


मार थपेड़ो से अपने अरमान


अस्तित्व के लिये झुझता कभी


कोई आतताई बचपन में ही उसके


अस्तित्व को रौंदने की कोशिश करता ।।                             


 


नन्हा सा बरगद का बृक्ष


घायल होता आहें नहीं भरता बिना प्रतिशोध की भावना के अपने शेष अस्तित्व को दामन में


समेट नई ऊर्जा उम्मीद से बढ़ाता


जाता।।


 


मन में ना कोई मलाल जहाँ की


खुशहाली का मांगता ईश्वर


से आशिर्बाद वसंत पतझड़ से


भी नहीं कोई सरोकार पुराने


पत्ते भी छोड़ देते साथ मगर


नए किसलय कोमल अपनी


शाख के पत्तो का रखवाला


निभाता साथ।।


 


कोई काट शाक अपने घर


का चूल्हा जलाता पत्ते शाक


भी ज़माने की जरूरतों पे कुर्बान।।


 


पूजा भी खुद की देखता कभी


कभार कुल्हाड़ी आरी की झेलता


मार उफ़ नहीं करता प्राणी मात्र कीजरुरत के लिये खुद का का करता त्यागबलिदान ।।          


 


प्राणी युग के दिये घाव के साथ अनवरत जीत जाता छोटे से बीज का बैभव विराट अस्तित्व निस्वार्थ परमार्थ ।।


 


परम् श्रद्धा में निश्चल निर्विकार


अडिग अविराम सदियों युगों


का गवाह खड़ा रहता वारिश में भीगता अपने साये में आये हर प्राणी को अपनी छतरी देता।।


 


पसीने से लथपथ


जीवन के अग्नि पथ का मुसाफिर


प्राणी आग के शोलो की तपिस में


तपता विशाल बरगद के


बृक्ष के नीचे पल दो पल में ही मधुर झोंको के शीतल बयार की


छाँव में नए उत्साह की राह की


चाह ।।


 


जीवन ही साधना परोपकार


आराधना छोटे से बीज से


बरगद की विशालता सहनशीलता


धैर्य दुनियां के लिये सिख ।।    


 


 


मगर दुनियां सिखती कहाँ सिर्फ स्वार्थ के संधान के बाण तीर कमान से स्वयं के मकसद का करती रहती आखेट ।।


                                           


 


छोटे से बीच का विशाल अस्तित्व


शाक पत्ते जड़ ताना अतस्तिव के


अवसान के बाद भी युग प्राणी मात्र के कल्याण में समर्पित।।


 


ब्रह्मांड के प्राणी स्वार्थ में एक


दूजे का ही खून पीते मांस खाते


बोटी बोटी नोचते हड्डिया चबाते


द्वेष ,दम्भ ,छल ,छद्म सारा प्रपंच


जुगत जुगाड़ लगाते एक दूजे के


अस्तित्व को ही खाते।।


 


 


बरगद का बृक्ष छोटे से बीज के


अस्तित्व की विशालता से कुछ 


नहीं सिखते बरगद का बृक्ष निर्लिप्त भाव से पल पल जंजाल 


झंझावात से लड़ता रहता दुनियां


को एक टक देखता रहता।।


 


अपनी साक से नए साक पैदा


करता परमार्थ में नित्य निरंतर


जीत जाता वर्षो के इतिहास का


गवाह का अपना अंदाज़ छोटे से 


बीज की विशालता बरगद की


छाँव।।


 


नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर


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