सुनीता असीम

काश अपनी भी कहीं मुमताज हो।


कूकती सुर से भरी आवाज हो।


***


सामने अहले वफ़ा हो जाम के।


प्रेम के ही गीत गाता साज हो।


***


प्यार से वो इक नज़र बस देख लें।


मन लुभाता मोहिनी अंदाज हो।


***


तीर नज़रों के चलें फिर रातभर।


इक नए ही दौर का आगाज़ हो।


***


जिंदगी बीते मेरी फिर सुख भरी।


साथ उसके ही नई परवाज़ हो।


***


सुनीता असीम


डॉ0 रामबली मिश्र

मुझको प्रिय मानव बनने दो


 


दुनिया का सब कुछ सहने दो।


मुझको प्रिय मानव बनने दो।।


 


बहुत अधिक हैं मुझमें कमियाँ।


सारी कमियों की मैं दुनिया।।


 


मेरी कमियों को जाने दो।


सुन्दर भावों को आने दो।।


 


सबकी सुन सब कुछ पी जाऊँ।


मन में कुछ भी ग्लानि न लाऊँ।।


 


करुँ सभी से क्षमा याचना।


सहता जाऊँ सकल यातना।।


 


मुझको क्षमा करे यह दुनिया।


अथवा जैसा चाहे दुनिया ।।


 


मुझ पर दुनिया क पूरा हक।


यह दुनिया मेरा अध्यापक।।


 


मैं दुनिया में सदा ढलूँगा।


इक सुन्दर इंसान बनूँगा।।


 


रचनाकार:डॉ0रामबली मिश्र हरिहरपुरी 


9838453801


सुनील कुमार गुप्ता

पितृ-पक्ष की महिमा अपार,


याद करे उनको-


मिलता जीवन में सुख अपार।


दें अन्न जल ब्राह्मण को,


कर तर्पण-


मन बसे श्रृद्धा अपार।


श्राद्ध का मतलब यही,


श्रृद्धा से करें स्मरण-


रहे पितरो का नाम अमर।


उनके आशीष से ही,


मिलता सुख-


और समृद्धि अपार।


अमर रहे कीर्ति उनकी,


पितृ पक्ष में-


मिले शांति अपार।


कोई न भूले अपने पूर्वजो को,


उनके निमित पितृ पक्ष में दे-


अन्नं जल और उपहार।


पितृ-पक्ष की महिमा अपार,


याद करे उनको-


मिलता जीवन में सुखी संसार।


 


 सुनील कुमार गुप्ता


कमल कालु दहिया

विद्या - हाइकु 


 


  श्राद्ध पितर 


संस्कारविधी हिन्दू 


  पूर्वज पूज। 


 


श्राद्ध अस्तित्व 


पूर्वज कौशल का 


   समृद्धि तत्व। 


 


  वंशज ज्ञान 


प्रकाश विश्व में वो 


  दे पिण्डदान। 


 


  श्राद्ध या पितृ 


वो अंतरिक्षवासी 


  उल्लेख वेद। 


 


  ऐतरेय में 


अग्नि उल्लेख रज्जु 


  पूर्वज स्वर्ग। 


 


  मृत्युपरांत 


कौशीतकी उल्लेख 


  है चंद्रलोक।। 


 


 


  रचनाकार - 


कमल कालु दहिया


   जोधपुर, राजस्थान


डॉ. निर्मला शर्मा

भूख बड़ी या कोरोना


कोरोना महामारी जब आई


 संग अनेक समस्या लाई


लॉक डाउन का पडा है साया


 हर मन है थोड़ा घबराया


सूनी गलियाँ सूनी सड़कें


 हवा से केवल खिड़कियाँ ही खड़कें


डगमग होते जीवन में अब 


खड़ी है विपदा बाहें खोले


छूटा काम, दाम भी बीते, 


रैना निकले अखियाँ मीचे


कैसे पालन करूँ कुटुम्ब का


 चिंता की रेखा यूँ बोले


सिमटी आंतें पेट भी सुकड़ा


 कहाँ से लाऊँ रोटी का टुकड़ा


कोरोना की महामारी ने 


सुख और चैन सभी कुछ छीना


विकल हुआ मन तन है जर्जर


 नैनों में अश्रुओं की धारा


कोरोना ने जीवन छीना 


कैसे कहूँ में मन की पीड़ा


भूख की हूक उठे जब तन में 


मन का भी हर कोना फीका


कैसे बैठूँ घर में भगवान 


मुझे सताती चिंता हर शाम


भूख से बेकल बच्चों के चेहरे


 कदम मेरे घर में कैसे ठहरें


भूख बड़ी है कोरोना से 


करूँ काम निकलूँ में घर से


करूँ जतन अपने पुरुषार्थ से 


प्राण न निकले भूख से उनके


 


डॉ. निर्मला शर्मा


दौसा राजस्थान


डॉ0 रामबली मिश्र

वैज्ञानिक संधान में,मूलभूत अनुमान।


बिन अनुमानों के नहीं,बढ़ता है संधान।।


 


खोजी करता रात-दिन,नियमित पावन खोज।


खोज -जगत अनुमान का,करता है सम्मान।।


 


जहाँ कहीं अनुमान है,वहीँ खड़ी है खोज।


खोजी के दिल में सदा,वसता है अनुमान।।


 


खोजी को जाना कहाँ,क्या उसका उददेश्य?


दिशा बताता चलत है,खोजी को अनुमान।।


 


दीप शिखा बन राह को,दिखलाता है नित्य।


अग्र-अग्र चलता सदा,बन प्रकाश अनुमान।।


 


हो सकता है सत्य यह,अथवा झूठ सफेद।


नहीं परीक्षण के बिना,सत्य-झूठ अनुमान।।


 


तथ्यों के अलोक में,अनुमानों का लोक।


तथ्य बताते हैं यहीं,कितना सच अनुमान।।


 


होती रहती रात-दिन ,अनुमानों की जाँच।


नियम और सिद्धान्त को,गढ़त सत्य अनुमान।।


 


वैज्ञानिक सोपान यह,इसका बहुत महत्व।


एक कदम इसके बिना,चलत नहीं विज्ञान।।


 


यह खोजी का हाथ है,यह खोजी का पैर।


हो सकता इसके बिना,कभी नहीं संधान।।


 


शव्दकोश विज्ञान का,यह है अमित अथाह।


है वैज्ञानिक जगत का,मूल तत्व अनुमान।।


 


जीवन के हर क्षेत्र में,इसका है उपयोग।


अनुमानों पर है टिका,जीवन का संधान।।


 


रचनाकार:डॉ0रामबली मिश्र हरिहरपुरी 


9838453801


उत्तम मेहता उत्तम

मुस्कराना देख कर हम बेरुख़ी कैसे कहें।


बेसबब की दिल्लगी को आशिकी कैसे कहें।


 


खेलना दिल से रहा उसका पुराना है शगल।


हुस्न की इन हरकतों को गुदगुदी कैसे कहें।


 


वह पुरानी दोस्ती का वास्ता फ़िर दे रहा।


दुश्मनी थी मुद्दतों से अजनबी कैसे कहें।


 


मुंन्तज़िर थी ये निगाहें आपके ही ख़्वाब की।


नींद ने की बेवफ़ाई बेख़ुदी कैसे कहें।


 


जो रहा हमदर्द अब तक दर्द उसने ही दिया।


ग़म छुपा कर मुस्कुराती ज़िन्दगी कैसे कहें।


 


होश अपना हम सँभाले या सँभाले आपको।


ग़म जुदाई का मिला तो हम खुशी कैसे कहें।


 


खुबसूरत थे नज़ारे हर तरफ़ थी रागिनी।


तेरी महफ़िल में खली उत्तम कमी कैसे कहें।


 


®@ उत्तम मेहता 'उत्तम'


प्रीति शर्मा असीम

कोरोना काल और शिक्षक 


 


कोरोना काल में घर में बंद होकर।


सबको जिंदगी के अहम सबक याद आए ।।


 


कोरोना काल में घर में बंद होकर। 


सड़कों पर भटकते मजदूर ,


गरीब होने की सजा पा रहे थे।


 


 जिंदगी के अच्छे दिन आएंगे।    


 यह स्लोगन भी याद आ रहे थे।


 


 कोरोना ने कर दिया..क्या हाल।


 टीवी देख कर आंख में ,


कुछ के आंसू भी आ रहे थे।


 


 विडंबना देखिए .....    


हालात और शिक्षण नीतियों के मारे ।


 


शिक्षक किस हाल में है ।


ना किसी को प्राइवेट ,


और ना सरकारी शिक्षक याद आ रहे थे ।


 


जो इस महामारी में,


 समस्त विषमता से परे ।


 


 दुनिया को कोरोना क्या शिक्षा दे रहा है ।


इस बात से अनभिज्ञ ,


ऑनलाइन पाठ पुस्तकों के चित्र घूमा रहे थे ।


 


बस ऑनलाइन सिस्टम की, 


कठपुतलियां बन के,


 बच्चों को नोट- पाठ्यक्रम पहुंचा रहे थे।


 


 जिंदगी की सच्चाई से ना खुद शिक्षित हुए।


 ना इसका मूल्य समझा पा रहे थे।


 कोरोना जिंदगी को,


 जिस हाशिए पर खड़ा कर गया ।


 कहीं वेतन कट ना जाए।


 


 शिक्षक पाठ्यक्रम, 


पेपर ऑनलाइन का राग गा रहे थे।


 


 जिंदगी के असल सच से कितना परे थे।


 हमारे शिक्षक स्थल आज घर में बंद होकर भी,


 कुदरत का पाठ ना पढ़ पा रहे थे।


 न समझा पा रहे थे।


 


 स्वरचित रचना


 प्रीति शर्मा असीम,


नालागढ, हिमाचल प्रदेश


प्रीति शर्मा असीम

उलझनों के झूले


 


उलझनों के बीच भी मुस्कुराती हैं। 


अपने दर्द को दो घड़ी भूल जाती है।


 


 जिंदगी हर त्यौहार को ,


हर हाल में उदास होकर भी, 


 


खुशियों के झूले पर झूल जाती है।


 


उलझनों के बीच भी मुस्कुराती हैं।


 


अपने दर्द को दो घड़ी भूल जाती है ।


 


 


जिंदगी हर दिन ,


 


नयी लड़ाई के लिए तैयार हो जाती है ।


 


 


रोते हुए भी मुस्कुरा कर,


 


 सब ठीक है.......!!!!


 


 यह बात कह जाती है ।


 


 


उलझनों के बीच भी मुस्कुराती हैं। 


 


अपने दर्द को दो घड़ी भूल जाती है ।


 


 


जिंदगी में झूले ही ,


 


नहीं मिलते हर पल ।


 


रस्सियों पर झूलती ।


 


जिंदगी भी ,


 


अपनी बात कह जाती है।


 


 


खुशियां कीमतों से ही नहीं खरीदी जाती ।


 


 मुस्कुराने के लिए हर दर्द से उभरकर ,


 


जिंदगी हर बात कर जाती है।


 


 


स्वरचित रचना 


प्रीति शर्मा असीम नालागढ़ हिमाचल प्रदेश


डॉ0 रामबली मिश्र

इस प्यासे को आज जिला दो।


थोड़ा अमृत बूँद पिला दो।।


 


नहीं याचना सुनता कोई।


भूखे को अन्न खिला दो।।


 


अंधकार से आच्छादित इस।


इस निरीह को लोक दिला दो।।


 


विछड़ गया है यह अपनों से।


आत्मजनों से इसे मिला दो।।


 


व्यर्थ समझता अपना जीवन।


भाव-अर्थ इसको सिखला दो।।


 


पापों से बोझिल इस मन को।


पुण्यपुंज का पथ दिखला दो।।


 


जन्म-जन्म से विचलित मन को।


सत्कर्मों की घूँट पिला दो।।


 


भ्रमित मनुज इस घोर अपावन।


को अपना जलवा दिखला दो।।


 


घावों में कंपन है इसके।


उनको थोड़ा सा सहला दो।।


 


थके हुये इस मानव-जन को 


प्रेम गंग में कुछ नहला दो।।


 


व्यथित हृदय की करुण वेदना।


को अमृत की बूँद पिला दो।।


:


डॉ0रामबली मिश्र हरिहरपुरी 


 


निशा अतुल्य

दोस्त को कैसे मनाएं 


रूठे हो क्यों, कुछ तो बताएं 


बोलो, दोस्त को कैसे मनाएं


ये पल छिन लगते नहीं मीत अपने


मान जाओ,आओ गले तुम को लगाएं


 


हुई हैं अगर कुछ गुस्ताखियाँ तो 


करो माफ़,चलो दिल से दिल मिलाएं।


 


करों ना रुसवा ये सुहानी सी रुत है


आओ इसे साथ मिल कर जी जाएं।


 


तुम्हीं से रंगीन दुनियां है मेरी 


चलो साथ मिल पूरे सपने सजाएं ।


 


निशा"अतुल्य"


सुषमा दीक्षित शुक्ला लखनऊ

तमतोम मिटाते हैं जग का ,


शिक्षक धरती के दिनकर हैं।


 


हैं अंक सजे निर्माण प्रलय,


शिष्यों हित प्रभु सम हितकर हैं ।


 


शुचि दिव्य ज्ञान के दाता वह 


,सोने को पारस मे बदले।


 


वह सृजनकार वह चित्रकार ,


वह मात पिता सम सुधिकर हैं ।


 


कच्ची मिट्टी को गढ़कर के ,


वह सुन्दर रूप सजाते हैं ।


 


देते खुराक मे संस्कार ,


वह ज्ञानाहार कराते हैं ।


 


शिक्षक ही पंख लगाते हैं,


सपनों की भरने को उड़ान ।


 


पावन शिक्षा के मंदिर के ,


वह ही भगवान कहाते हैं ।


 


सुषमा दीक्षित शुक्ला लखनऊ


नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर

हलक को जलाती ,


उतरती हलक में शराब कहते है।।


लाख काँटों की खुशबू गुलाब कहते है।।


छुपा हो चाँद जिसके दामन में


हिज़ाब कहते है।।


ठंडी हवा के झोंके उड़ती जुल्फों


में छुपा चाँद सा चेहरा, बिखरी


जुल्फों में चाँद का दीदार कहते है।।


सुर्ख गालों की गुलाबी ,लवों की


लाली बहकती अदाओं को साकी


शवाब कहते है।।


लगा दे आग पानी में सर्द की


बर्फ पिघला दे जवानी की रवानी


जवानी कहते है।।


जमीं पे पाँव रखते ही जमीं के


जज्बे में हरकत जमीं


की नाज़ मस्ती की हस्ती को


मस्तानी ही कहते हैं।।


सांसों की गर्मी से बहक जाए


जग सारा जहाँ का गुलशन


गुलज़ार कहते है ।।           


 


धड़कते दिल की धड़कन से साज


की नाज़ मीत का गीत संगीत कहते है।।


सांसो की गर्मी से निकलती 


चिंगारी ,ज्वाला हद ,हसरत की दीवानी उसे कहते है।।


मिटा दे अपनी हस्ती को या


मिट जाए आशिकी में आशिक


नाम कहते है।।


नशे में चूर इश्क के जाम जज्बे


में हुस्न का इश्क में दीदार कहते


है।।


नादाँ दिल की शरारत में 


कमसिन बहक जाए कली


नाज़ुक का खिलना चमन


बहार कहते है।।


सावन के फुहारों में ,वासंती


बयारों में बलखाती बाला बंद


बोतल की शराब पैमाने का इंतज़ार कहते है।। इश्क के अश्क ,अक्स एक दूजे


के दिल नज़रों में उतर जाए इश्क की इबादत इश्क इज़हार कहते है।।


 


नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर


संजय जैन

हूँ जो कुछ भी आज मैं,


श्रेय में देता हूँ उन शिक्षकों। 


जिन्होंने हमें पढ़ाया लिखाया,


और यहां तक पहुंचाया।


भूल सकता नहीं जीवन भर, 


मैं उनके योगदानों को।


इसलिए सदा में उनकी, 


चरण वंदना करता हूँ ।।


 


माता पिता ने पैदा किया।


पर दिया गुरु ने ज्ञान।


तब जाकर में बना लेखक,


और बना एक कुशल प्रबंधक।


श्रेय में देता हूँ इन सबका,


अपने उनको शिक्षकों।


जिनकी मेहनत और ज्ञान से,


बन गया पढ़ा लिखा इंसान।।


 


रहे अँधेरा भले 


उनके जीवन में, 


पर रोशनी अपने


शिष्यों को दिखाते है।


जिस से कोई 


बन जाता कलेक्टर,


तो कोई वैज्ञानिक कहलाता है।


सुनकर उन शिक्षकों को,


तब गर्व बहुत ही होता है।


मैं कैसे भूल जाऊं उनको,


योग जिन्होंने हमें बनाया है।


देकर ज्ञान की शिक्षा,


हमें यहाँ तक पहुंचाया है। 


 


जय जिनेन्द्र देव 


संजय जैन (मुम्बई)


सत्यप्रकाश पाण्डेय

बन उर्वशी तू पिय की....


 


अजस्र ऊर्जा स्रोतस्विनी


अनन्त धारा सा प्रवाह


नहीं किंचित भी उन्मादी


उद्विग्नता नहीं परवाह


 


उत्कृष्टताओं की आकर


महत्वाकांक्षाओं से दूर


कर्मठता का अक्षय कोष


जिजीविषा से भरपूर


 


प्रांजल भावों की मलिका


दोषारोपण न उपालंभ


लिए कृतज्ञता अन्तर्मन में


जीवन की सुदृढ़ स्तंम्भ


 


तत्वदर्शी सी अनुरागनीया


मर्मस्पर्शी सत्य हिय की


च्युत न हो जाऊं प्रियतमा


बन उर्वशी तू पिय की।


 


सत्यप्रकाश पाण्डेय


डॉ० प्रभुनाथ गुप्त विवश

प्रेयसी तुम रूठ गयी हो.......


 


 


मुझे बता दो क्यों अकारण 


           प्रेयसी! तुम रूठ गयी हो,


क्या है तेरा यही निवारण 


             मेरे उर को लूट गयी हो।


 


मेरे आत्मनगर में कल-कल 


            तुम सरिता सी बहती थी, 


मैं ही हूँ जग से प्यारा 


          यह तुम मुझसे कहती थी।


 


पूनम की रजनी में चन्द्र की 


       किरणों से तुम खेल रही थी,


तेरे बिम्बाधरों पर भी तो 


    प्रणय की स्मिति खेल रही थी। 


 


मेरे आलिंगन में आकर तुम 


         मादकता बिखरा देती थी, 


चल रहे मलय पवन में तुम 


       अलकों को बिखरा देती थी।


 


वो चंचल चतुर नयन तुम्हारे 


        गुप-चुप सम्भाषण करते थे, 


हो जाते रोम-रोम प्रफुल्लित 


         मुझमें आकर्षण भरते थे।


 


मेरे स्वप्न लोक में आकर 


          स्नेहिल ऊर्जा भर देती थी,


जीने का साहस देती थी तुम 


          जीवन में रस भर देती थी।


 


उषाकाल में उपवन में तुम 


          संकेतों से मुझे बुलाती थी, 


नीहार नहाये फूलों से तुम 


           बरबस ही ललचाती थी।


 


तन्वंगी! तेरे उत्तुंग शिखर पर 


        काम अनल का वो..जलना, 


मेरे हृदय के वन-उपवन में 


      उन कोमल सपनों का पलना।


 


जब अतीत के दुर्दिन में भी 


           हम एक दूजे के साथ रहे,


विश्वास परस्पर इतना था 


       हम साथ-साथ दिन-रात रहे।


 


किंचित मतभेदों के कारण 


        प्रिय! कदापि रुष्ट नहीं होते, 


अपनों से जो त्रुटि हो जाये 


       तो अपने असंतुष्ट नहीं होते। 


 


डॉ० प्रभुनाथ गुप्त विवश


कालिका प्रसाद सेमवाल

हे मां वीणा धारणी वरदे


********************


हे मां वीणा धारणी वरदे


कला की देवी इस जीवन को


सुन्दरता से सुखमय कर दो


अपने अशीष की छाया से


मेरा जीवन मंगलमय कर दो।


 


हे मां वीणा धारणी वरदे


सरस सुधाकर शुभ वाणी से


अखिल विश्व को आलोकित कर दो


बुद्धि विवेक ज्ञान प्रकाश सबको देकर


सबका जीवन मंगलमय कर दो।


 


हे मां वीणा धारणी वरदे


तेरे चरणों में आकर मां


विश्वास का सम्बल मिलता है


जिस पर भी तुम करुणा करती हो


उसका जीवन धन-धान्य हो जाता है।


********************


कालिका प्रसाद सेमवाल


मानस सदन अपर बाजार


रुद्रप्रयाग उत्तराखंड


सुनील कुमार गुप्ता

स्वार्थ में डूबे इतना,


फिर जोड़ते रहे माया।


दे गई धोखा बीच डगर,


साथी अपनी ही काया।।


समझे नहीं साथी यहाँ,


वो तो अपनो की माया।


छलता रहा पल-पल यहाँ,


साथी अपना ही साया।।


मोह-माया के बंधन संग,


क्या-साथी जग में पाया?


मिली न माया जग में फिर,


मिला न प्रभु का ही साया।।


 


 सुनील कुमार गुप्ता


 


राजेंद्र रायपुरी

मात-पिता और श्राद्ध 


 


पितृ पक्ष में ढूॅ॑ढ रहे हैं,


                   इधर उधर वो काग।


मात- पिता के श्राद्ध का,


                   लेकर पूड़ी-साग‌।


 


कागा लेकिन दिखे कहीं ना, 


                  वे हैं बहुत उदास।


बैठे हुए पेड़ के नीचे, 


                 वे कागा की आस।


 


मन में चिंता बढ़ती जाए, 


                 हुए पितर जो रुष्ट।


निश्चित है ये आज नहीं कल,


                 होगा बड़ा अनिष्ट।


 


चिंता मग्न देख निज़ सुत को,


                  धरे काग का रूप।


प्रगट हो गए मात-पिता, 


               निज़ स्वभाव अनुरूप।


 


थे लेकिन आंखों में आंसू, 


                  कर के दिन वो याद। 


भेज दिया था जब बृद्धाश्रम, 


                 सुना नहीं फरियाद।


 


मात-पिता का दिल कोमल पर,   


               संतति का फौलाद।


एक नहीं लाखों हैं ऐसी,


               इस जग में औलाद।


 


            ।। राजेंद्र रायपुरी।।


नूतन लाल साहू

आज का प्रजातंत्र


जहां तक नजर जाती हैं


उठने की कोशिश करता हुआ


अपंग बच्चा की तरह


चीख रहा है


मुझे दलदल से निकालो,मै प्रजातंत्र हूं


काम वाले हाथो में


झंडा थमा देने वाले


वक्त के सौदागर


बड़े ऊंचे खिलाड़ी होते हैं


गरीब जनता की मज़बूरी


इधर कुआ, उधर खाई है


तीस की उम्र में, साठ के नजर आता है


दर्द का खजाना,आंसुओ का समंदर है


अपंग बच्चा की तरह,चीख रहा है


मुझे दलदल से निकालो,मै प्रजातंत्र हूं


जो सपना देखा था


बाल, लाल, पाल,सुभाष चन्द्र बोस और


महात्मा गांधी जी ने


बुरा मत देखो,बुरा मत सुनो,बुरा मत बोलो


पर हमारे देश का प्रजातंत्र


वह तंत्र है


जिसमे हर बीमारी स्वतंत्र है


अपंग बच्चा की तरह, चीख रहा है 


मुझे दलदल से निकालो,मै प्रजातंत्र हूं


गीता में भगवान श्री कृष्ण ने कहा है


कर्म करो और फल मुझ पर छोड़ दो


पर आज,बहती गंगा में हाथ धो लो


देश चलाने वाले,सोच रहा है


दल बदल, कुर्सी हथियाना,पैसा कमाना


मानो तरक्की का,सीढ़ियां बन गया है


राष्ट्रीय चरित्र का निर्माण


भावी पीढ़ी पर,छोड़ रहा है


अपंग बच्चा की तरह, चीख रहा है


मुझे दलदल से निकालो,मै प्रजातंत्र हूं


 


नूतन लाल साहू


सत्यप्रकाश पाण्डेय

आओ बाहों में राधे


कर दूं श्रृंगार मैं तेरा


आदिशक्ति जग की


हो तुम ही बल मेरा


 


दुनियां सजाने वाली


आ तुझको सजा दूँ


हृदय आँखों में बसा


सकल स्नेह लुटा दूँ


 


मैं ईश्वर हूं सृष्टि का


तुम शक्ति मेरी राधे


जगजननी किशोरी


बिना तेरे हम आधे


 


सत्य अरदास करता


हे आराध्य आराध्या


दुःख दर्द मेरे हरना


विनती जीवन साध्या।


 


युगलरूपाय नमो नमः


सत्यप्रकाश पाण्डेय


विनय साग़र जायसवाल 

बेकैफ़ हो गई है मुलाकात इनदिनों


बरसे नहीं है उनकी इनायात इनदिनों


 


उठते हैं दिल में ऐसे सवालात इन दिनों


मिलते नहीं हैं जिनके जवाबात इनदिनों


 


सूरज से छेड़ दी है सितारों ने जंग क्या 


सरगोशियों में महव हैं ज़र्रात इनदिनों


 


अब तितलियों का ख़ून भी पीने लगे हैं फूल 


कितनी बदल गईं हैं रिवायात इनदिनों 


 


जुगनू भी कर रहे हैं अंधेरों में ख़ुदकुशी


बदली हुई है सूरते-हालात इन दिनों 


 


अहल-ए-सितम भी पढ़ने लगे मेरी दास्ताँ 


अच्छी लगी है उनको मेरी बात इनदिनों 


 


बच्चे तो अब तरस गये पानी के खेल को


होती थी वर्ना शहर में बरसात इनदिनों


 


साग़र हमारे दौर के बच्चों की जुस्तजू


करते हैं देखो कितने तज्रिबात इनदिनों 


 


🖋️विनय साग़र जायसवाल 


नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर

हलक को जलाती ,


उतरती हलक में शराब कहते है।।


लाख काँटों की खुशबू गुलाब कहते है।।


छुपा हो चाँद जिसके दामन में


हिज़ाब कहते है।।


ठंडी हवा के झोंके उड़ती जुल्फों


में छुपा चाँद सा चेहरा, बिखरी


जुल्फों में चाँद का दीदार कहते है।।


सुर्ख गालों की गुलाबी ,लवों की


लाली बहकती अदाओं को साकी


शवाब कहते है।।


लगा दे आग पानी में सर्द की


बर्फ पिघला दे जवानी की रवानी


जवानी कहते है।।


जमीं पे पाँव रखते ही जमीं के


जज्बे में हरकत जमीं


की नाज़ मस्ती की हस्ती को


मस्तानी ही कहते हैं।।


सांसों की गर्मी से बहक जाए


जग सारा जहाँ का गुलशन


गुलज़ार कहते है ।।           


 


धड़कते दिल की धड़कन से साज


की नाज़ मीत का गीत संगीत कहते है।।


सांसो की गर्मी से निकलती 


चिंगारी ,ज्वाला हद ,हसरत की दीवानी उसे कहते है।।


मिटा दे अपनी हस्ती को या


मिट जाए आशिकी में आशिक


नाम कहते है।।


नशे में चूर इश्क के जाम जज्बे


में हुस्न का इश्क में दीदार कहते


है।।


नादाँ दिल की शरारत में 


कमसिन बहक जाए कली


नाज़ुक का खिलना चमन


बहार कहते है।।


सावन के फुहारों में ,वासंती


बयारों में बलखाती बाला बंद


बोतल की शराब पैमाने का इंतज़ार कहते है।। इश्क के अश्क ,अक्स एक दूजे


के दिल नज़रों में उतर जाए इश्क की इबादत इश्क इज़हार कहते है।।


 


नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर


डॉ0 हरि नाथ मिश्र

तीसरा अध्याय (श्रीकृष्णचरितबखान)-7


 


अस कहि कृष्न,कहहिं सुकदेवा।


रूप सिसू कै तुरतयि लेवा।।


    वहि पल जनीं जसोदा तनया।


     देवकि-जसुमति जननी उभया।।


नंद-नंदिनी जोगहिं माया।


देवकि सुतहिं कृष्न कै छाया।।


    बेड़ी-मुक्त भए बसुदेवा।


    परमइ कृपा कृष्न कै लेवा।


माया-बल,प्रभु-जोग-प्रतापा।


थमा बंदिगृह-आपा-धापा।।


    निज सुत लइ निकसे बसुदेवा।


    भे जब सभ अचेत जे सेवा।।


बंदीगृह कै टूटा ताला।


टुटी जँजीरहिं नाथ कृपाला।।


     लेतइ जनम कृष्न उजियारा।


     छटै उदित रबि जस अँधियारा।।


बरसन लगे मगहिं जब बादर।


निज फन तानि सेष जस छातर।।


    चलन लगे बसुदेवहिं पाछे।


     प्रभुहिं बचावत आछे-आछे।।


जल जमुना कै बाढ़न लगा।


प्रभु प्रति प्रेम पाइ अनुरागा।।


    सकल तरंगहिं जमुना-जल कै।


    प्रभु-पद चाहहिं छुवन उछरि कै।।


छूइ चरन पुनि भईं सिथिल वै।


पार भए बसुदेव अभय ह्वै।।


     राम हेतु जस सागर-नीरा।


     वैसै भे जमुना-जल थीरा।।


दोहा-कृष्णसिसुहिं बसुदेव लइ,सिंधु-जमुन-भव- पार।


         भव-बंधन-बन्दीगृहहिं,मुक्ती प्रभु-आधार।।


                    डॉ0हरि नाथ मिश्र।


                      9919446372


डॉ0 हरि नाथ मिश्र

द्वितीय चरण(श्रीरामचरितबखान)-44


भरत लेइ तब तिरहुति राजा।


अवध चले निज साजि समाजा।।


   प्रथम दिवस कहँ साँझ मझारे।


   पहुँचे सबहीं जमुन-किनारे।।


रात्रि सयन करि निज-निज डेरा।


उठे सबहिं जब भवा सबेरा।।


     सबहिं नहाय जमुन-जलधारा।


     पूजन करि गे जमुना पारा।।


संगम-तट जब पहुँचे सबहीं।


पूजन-अर्चन बिधिवत करहीं।।


     ऋषि-आश्रम रहि अच्छय बटहीं।


      राज निषाद लेइ पुनि बढ़हीं।।


जथा-जोग गुह करि सभ सेवा।


सुरसरि पार करा बिनु खेवा।।


     पा असीष लौटा निज ग्रामा।


     श्रृंगबेरि रह जाकर नामा।।


साँझ परे सभ सई-किनारे।


सयन करहिं निज डेरा डारे।।


     अति प्रातः सभ करि अस्नाना।


      पूजन करहिं लगा निज ध्याना।।


भोजनादि करि कीन्ह पयाना।


निज-निज साधन जे बिधि जाना।।


     डूबत-डूबत वहि दिन सबिता।


     पहुँचे सभ जहँ गोमति सरिता।।


करि असनान गोमती-नीरा।


गयउ सभें पुनि तमसा-तीरा।।


    तमसा पार करत दिन चारहिं।


    जनक लेइ सभ अवध पधारहिं।।


दोहा-अवध पहुँचि मिथिला नृपति,रहहिं उहाँ दिन चार।


         नगर-प्रसासन करि उचित,लौटे पुनि निज द्वार।।


       रानी-भरत-सुमंत मिलि, बिदा करहिं सिय-मातु।


        निज समाज सँग नृप तबहिं,चले जनक सिय-तातु।।


       तब बसिष्ठ व सुमंतु मिलि, रानिन्ह भरत समेत।


        आपस मा समुझन लगे,कस पुर काजु भवेत।।


                          डॉ0हरि नाथ मिश्र


                            9919446372


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