डॉ0 रामबली मिश्र

इस प्यासे को आज जिला दो।


थोड़ा अमृत बूँद पिला दो।।


 


नहीं याचना सुनता कोई।


भूखे को अन्न खिला दो।।


 


अंधकार से आच्छादित इस।


इस निरीह को लोक दिला दो।।


 


विछड़ गया है यह अपनों से।


आत्मजनों से इसे मिला दो।।


 


व्यर्थ समझता अपना जीवन।


भाव-अर्थ इसको सिखला दो।।


 


पापों से बोझिल इस मन को।


पुण्यपुंज का पथ दिखला दो।।


 


जन्म-जन्म से विचलित मन को।


सत्कर्मों की घूँट पिला दो।।


 


भ्रमित मनुज इस घोर अपावन।


को अपना जलवा दिखला दो।।


 


घावों में कंपन है इसके।


उनको थोड़ा सा सहला दो।।


 


थके हुये इस मानव-जन को 


प्रेम गंग में कुछ नहला दो।।


 


व्यथित हृदय की करुण वेदना।


को अमृत की बूँद पिला दो।।


:


डॉ0रामबली मिश्र हरिहरपुरी 


 


निशा अतुल्य

दोस्त को कैसे मनाएं 


रूठे हो क्यों, कुछ तो बताएं 


बोलो, दोस्त को कैसे मनाएं


ये पल छिन लगते नहीं मीत अपने


मान जाओ,आओ गले तुम को लगाएं


 


हुई हैं अगर कुछ गुस्ताखियाँ तो 


करो माफ़,चलो दिल से दिल मिलाएं।


 


करों ना रुसवा ये सुहानी सी रुत है


आओ इसे साथ मिल कर जी जाएं।


 


तुम्हीं से रंगीन दुनियां है मेरी 


चलो साथ मिल पूरे सपने सजाएं ।


 


निशा"अतुल्य"


सुषमा दीक्षित शुक्ला लखनऊ

तमतोम मिटाते हैं जग का ,


शिक्षक धरती के दिनकर हैं।


 


हैं अंक सजे निर्माण प्रलय,


शिष्यों हित प्रभु सम हितकर हैं ।


 


शुचि दिव्य ज्ञान के दाता वह 


,सोने को पारस मे बदले।


 


वह सृजनकार वह चित्रकार ,


वह मात पिता सम सुधिकर हैं ।


 


कच्ची मिट्टी को गढ़कर के ,


वह सुन्दर रूप सजाते हैं ।


 


देते खुराक मे संस्कार ,


वह ज्ञानाहार कराते हैं ।


 


शिक्षक ही पंख लगाते हैं,


सपनों की भरने को उड़ान ।


 


पावन शिक्षा के मंदिर के ,


वह ही भगवान कहाते हैं ।


 


सुषमा दीक्षित शुक्ला लखनऊ


नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर

हलक को जलाती ,


उतरती हलक में शराब कहते है।।


लाख काँटों की खुशबू गुलाब कहते है।।


छुपा हो चाँद जिसके दामन में


हिज़ाब कहते है।।


ठंडी हवा के झोंके उड़ती जुल्फों


में छुपा चाँद सा चेहरा, बिखरी


जुल्फों में चाँद का दीदार कहते है।।


सुर्ख गालों की गुलाबी ,लवों की


लाली बहकती अदाओं को साकी


शवाब कहते है।।


लगा दे आग पानी में सर्द की


बर्फ पिघला दे जवानी की रवानी


जवानी कहते है।।


जमीं पे पाँव रखते ही जमीं के


जज्बे में हरकत जमीं


की नाज़ मस्ती की हस्ती को


मस्तानी ही कहते हैं।।


सांसों की गर्मी से बहक जाए


जग सारा जहाँ का गुलशन


गुलज़ार कहते है ।।           


 


धड़कते दिल की धड़कन से साज


की नाज़ मीत का गीत संगीत कहते है।।


सांसो की गर्मी से निकलती 


चिंगारी ,ज्वाला हद ,हसरत की दीवानी उसे कहते है।।


मिटा दे अपनी हस्ती को या


मिट जाए आशिकी में आशिक


नाम कहते है।।


नशे में चूर इश्क के जाम जज्बे


में हुस्न का इश्क में दीदार कहते


है।।


नादाँ दिल की शरारत में 


कमसिन बहक जाए कली


नाज़ुक का खिलना चमन


बहार कहते है।।


सावन के फुहारों में ,वासंती


बयारों में बलखाती बाला बंद


बोतल की शराब पैमाने का इंतज़ार कहते है।। इश्क के अश्क ,अक्स एक दूजे


के दिल नज़रों में उतर जाए इश्क की इबादत इश्क इज़हार कहते है।।


 


नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर


संजय जैन

हूँ जो कुछ भी आज मैं,


श्रेय में देता हूँ उन शिक्षकों। 


जिन्होंने हमें पढ़ाया लिखाया,


और यहां तक पहुंचाया।


भूल सकता नहीं जीवन भर, 


मैं उनके योगदानों को।


इसलिए सदा में उनकी, 


चरण वंदना करता हूँ ।।


 


माता पिता ने पैदा किया।


पर दिया गुरु ने ज्ञान।


तब जाकर में बना लेखक,


और बना एक कुशल प्रबंधक।


श्रेय में देता हूँ इन सबका,


अपने उनको शिक्षकों।


जिनकी मेहनत और ज्ञान से,


बन गया पढ़ा लिखा इंसान।।


 


रहे अँधेरा भले 


उनके जीवन में, 


पर रोशनी अपने


शिष्यों को दिखाते है।


जिस से कोई 


बन जाता कलेक्टर,


तो कोई वैज्ञानिक कहलाता है।


सुनकर उन शिक्षकों को,


तब गर्व बहुत ही होता है।


मैं कैसे भूल जाऊं उनको,


योग जिन्होंने हमें बनाया है।


देकर ज्ञान की शिक्षा,


हमें यहाँ तक पहुंचाया है। 


 


जय जिनेन्द्र देव 


संजय जैन (मुम्बई)


सत्यप्रकाश पाण्डेय

बन उर्वशी तू पिय की....


 


अजस्र ऊर्जा स्रोतस्विनी


अनन्त धारा सा प्रवाह


नहीं किंचित भी उन्मादी


उद्विग्नता नहीं परवाह


 


उत्कृष्टताओं की आकर


महत्वाकांक्षाओं से दूर


कर्मठता का अक्षय कोष


जिजीविषा से भरपूर


 


प्रांजल भावों की मलिका


दोषारोपण न उपालंभ


लिए कृतज्ञता अन्तर्मन में


जीवन की सुदृढ़ स्तंम्भ


 


तत्वदर्शी सी अनुरागनीया


मर्मस्पर्शी सत्य हिय की


च्युत न हो जाऊं प्रियतमा


बन उर्वशी तू पिय की।


 


सत्यप्रकाश पाण्डेय


डॉ० प्रभुनाथ गुप्त विवश

प्रेयसी तुम रूठ गयी हो.......


 


 


मुझे बता दो क्यों अकारण 


           प्रेयसी! तुम रूठ गयी हो,


क्या है तेरा यही निवारण 


             मेरे उर को लूट गयी हो।


 


मेरे आत्मनगर में कल-कल 


            तुम सरिता सी बहती थी, 


मैं ही हूँ जग से प्यारा 


          यह तुम मुझसे कहती थी।


 


पूनम की रजनी में चन्द्र की 


       किरणों से तुम खेल रही थी,


तेरे बिम्बाधरों पर भी तो 


    प्रणय की स्मिति खेल रही थी। 


 


मेरे आलिंगन में आकर तुम 


         मादकता बिखरा देती थी, 


चल रहे मलय पवन में तुम 


       अलकों को बिखरा देती थी।


 


वो चंचल चतुर नयन तुम्हारे 


        गुप-चुप सम्भाषण करते थे, 


हो जाते रोम-रोम प्रफुल्लित 


         मुझमें आकर्षण भरते थे।


 


मेरे स्वप्न लोक में आकर 


          स्नेहिल ऊर्जा भर देती थी,


जीने का साहस देती थी तुम 


          जीवन में रस भर देती थी।


 


उषाकाल में उपवन में तुम 


          संकेतों से मुझे बुलाती थी, 


नीहार नहाये फूलों से तुम 


           बरबस ही ललचाती थी।


 


तन्वंगी! तेरे उत्तुंग शिखर पर 


        काम अनल का वो..जलना, 


मेरे हृदय के वन-उपवन में 


      उन कोमल सपनों का पलना।


 


जब अतीत के दुर्दिन में भी 


           हम एक दूजे के साथ रहे,


विश्वास परस्पर इतना था 


       हम साथ-साथ दिन-रात रहे।


 


किंचित मतभेदों के कारण 


        प्रिय! कदापि रुष्ट नहीं होते, 


अपनों से जो त्रुटि हो जाये 


       तो अपने असंतुष्ट नहीं होते। 


 


डॉ० प्रभुनाथ गुप्त विवश


कालिका प्रसाद सेमवाल

हे मां वीणा धारणी वरदे


********************


हे मां वीणा धारणी वरदे


कला की देवी इस जीवन को


सुन्दरता से सुखमय कर दो


अपने अशीष की छाया से


मेरा जीवन मंगलमय कर दो।


 


हे मां वीणा धारणी वरदे


सरस सुधाकर शुभ वाणी से


अखिल विश्व को आलोकित कर दो


बुद्धि विवेक ज्ञान प्रकाश सबको देकर


सबका जीवन मंगलमय कर दो।


 


हे मां वीणा धारणी वरदे


तेरे चरणों में आकर मां


विश्वास का सम्बल मिलता है


जिस पर भी तुम करुणा करती हो


उसका जीवन धन-धान्य हो जाता है।


********************


कालिका प्रसाद सेमवाल


मानस सदन अपर बाजार


रुद्रप्रयाग उत्तराखंड


सुनील कुमार गुप्ता

स्वार्थ में डूबे इतना,


फिर जोड़ते रहे माया।


दे गई धोखा बीच डगर,


साथी अपनी ही काया।।


समझे नहीं साथी यहाँ,


वो तो अपनो की माया।


छलता रहा पल-पल यहाँ,


साथी अपना ही साया।।


मोह-माया के बंधन संग,


क्या-साथी जग में पाया?


मिली न माया जग में फिर,


मिला न प्रभु का ही साया।।


 


 सुनील कुमार गुप्ता


 


राजेंद्र रायपुरी

मात-पिता और श्राद्ध 


 


पितृ पक्ष में ढूॅ॑ढ रहे हैं,


                   इधर उधर वो काग।


मात- पिता के श्राद्ध का,


                   लेकर पूड़ी-साग‌।


 


कागा लेकिन दिखे कहीं ना, 


                  वे हैं बहुत उदास।


बैठे हुए पेड़ के नीचे, 


                 वे कागा की आस।


 


मन में चिंता बढ़ती जाए, 


                 हुए पितर जो रुष्ट।


निश्चित है ये आज नहीं कल,


                 होगा बड़ा अनिष्ट।


 


चिंता मग्न देख निज़ सुत को,


                  धरे काग का रूप।


प्रगट हो गए मात-पिता, 


               निज़ स्वभाव अनुरूप।


 


थे लेकिन आंखों में आंसू, 


                  कर के दिन वो याद। 


भेज दिया था जब बृद्धाश्रम, 


                 सुना नहीं फरियाद।


 


मात-पिता का दिल कोमल पर,   


               संतति का फौलाद।


एक नहीं लाखों हैं ऐसी,


               इस जग में औलाद।


 


            ।। राजेंद्र रायपुरी।।


नूतन लाल साहू

आज का प्रजातंत्र


जहां तक नजर जाती हैं


उठने की कोशिश करता हुआ


अपंग बच्चा की तरह


चीख रहा है


मुझे दलदल से निकालो,मै प्रजातंत्र हूं


काम वाले हाथो में


झंडा थमा देने वाले


वक्त के सौदागर


बड़े ऊंचे खिलाड़ी होते हैं


गरीब जनता की मज़बूरी


इधर कुआ, उधर खाई है


तीस की उम्र में, साठ के नजर आता है


दर्द का खजाना,आंसुओ का समंदर है


अपंग बच्चा की तरह,चीख रहा है


मुझे दलदल से निकालो,मै प्रजातंत्र हूं


जो सपना देखा था


बाल, लाल, पाल,सुभाष चन्द्र बोस और


महात्मा गांधी जी ने


बुरा मत देखो,बुरा मत सुनो,बुरा मत बोलो


पर हमारे देश का प्रजातंत्र


वह तंत्र है


जिसमे हर बीमारी स्वतंत्र है


अपंग बच्चा की तरह, चीख रहा है 


मुझे दलदल से निकालो,मै प्रजातंत्र हूं


गीता में भगवान श्री कृष्ण ने कहा है


कर्म करो और फल मुझ पर छोड़ दो


पर आज,बहती गंगा में हाथ धो लो


देश चलाने वाले,सोच रहा है


दल बदल, कुर्सी हथियाना,पैसा कमाना


मानो तरक्की का,सीढ़ियां बन गया है


राष्ट्रीय चरित्र का निर्माण


भावी पीढ़ी पर,छोड़ रहा है


अपंग बच्चा की तरह, चीख रहा है


मुझे दलदल से निकालो,मै प्रजातंत्र हूं


 


नूतन लाल साहू


सत्यप्रकाश पाण्डेय

आओ बाहों में राधे


कर दूं श्रृंगार मैं तेरा


आदिशक्ति जग की


हो तुम ही बल मेरा


 


दुनियां सजाने वाली


आ तुझको सजा दूँ


हृदय आँखों में बसा


सकल स्नेह लुटा दूँ


 


मैं ईश्वर हूं सृष्टि का


तुम शक्ति मेरी राधे


जगजननी किशोरी


बिना तेरे हम आधे


 


सत्य अरदास करता


हे आराध्य आराध्या


दुःख दर्द मेरे हरना


विनती जीवन साध्या।


 


युगलरूपाय नमो नमः


सत्यप्रकाश पाण्डेय


विनय साग़र जायसवाल 

बेकैफ़ हो गई है मुलाकात इनदिनों


बरसे नहीं है उनकी इनायात इनदिनों


 


उठते हैं दिल में ऐसे सवालात इन दिनों


मिलते नहीं हैं जिनके जवाबात इनदिनों


 


सूरज से छेड़ दी है सितारों ने जंग क्या 


सरगोशियों में महव हैं ज़र्रात इनदिनों


 


अब तितलियों का ख़ून भी पीने लगे हैं फूल 


कितनी बदल गईं हैं रिवायात इनदिनों 


 


जुगनू भी कर रहे हैं अंधेरों में ख़ुदकुशी


बदली हुई है सूरते-हालात इन दिनों 


 


अहल-ए-सितम भी पढ़ने लगे मेरी दास्ताँ 


अच्छी लगी है उनको मेरी बात इनदिनों 


 


बच्चे तो अब तरस गये पानी के खेल को


होती थी वर्ना शहर में बरसात इनदिनों


 


साग़र हमारे दौर के बच्चों की जुस्तजू


करते हैं देखो कितने तज्रिबात इनदिनों 


 


🖋️विनय साग़र जायसवाल 


नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर

हलक को जलाती ,


उतरती हलक में शराब कहते है।।


लाख काँटों की खुशबू गुलाब कहते है।।


छुपा हो चाँद जिसके दामन में


हिज़ाब कहते है।।


ठंडी हवा के झोंके उड़ती जुल्फों


में छुपा चाँद सा चेहरा, बिखरी


जुल्फों में चाँद का दीदार कहते है।।


सुर्ख गालों की गुलाबी ,लवों की


लाली बहकती अदाओं को साकी


शवाब कहते है।।


लगा दे आग पानी में सर्द की


बर्फ पिघला दे जवानी की रवानी


जवानी कहते है।।


जमीं पे पाँव रखते ही जमीं के


जज्बे में हरकत जमीं


की नाज़ मस्ती की हस्ती को


मस्तानी ही कहते हैं।।


सांसों की गर्मी से बहक जाए


जग सारा जहाँ का गुलशन


गुलज़ार कहते है ।।           


 


धड़कते दिल की धड़कन से साज


की नाज़ मीत का गीत संगीत कहते है।।


सांसो की गर्मी से निकलती 


चिंगारी ,ज्वाला हद ,हसरत की दीवानी उसे कहते है।।


मिटा दे अपनी हस्ती को या


मिट जाए आशिकी में आशिक


नाम कहते है।।


नशे में चूर इश्क के जाम जज्बे


में हुस्न का इश्क में दीदार कहते


है।।


नादाँ दिल की शरारत में 


कमसिन बहक जाए कली


नाज़ुक का खिलना चमन


बहार कहते है।।


सावन के फुहारों में ,वासंती


बयारों में बलखाती बाला बंद


बोतल की शराब पैमाने का इंतज़ार कहते है।। इश्क के अश्क ,अक्स एक दूजे


के दिल नज़रों में उतर जाए इश्क की इबादत इश्क इज़हार कहते है।।


 


नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर


डॉ0 हरि नाथ मिश्र

तीसरा अध्याय (श्रीकृष्णचरितबखान)-7


 


अस कहि कृष्न,कहहिं सुकदेवा।


रूप सिसू कै तुरतयि लेवा।।


    वहि पल जनीं जसोदा तनया।


     देवकि-जसुमति जननी उभया।।


नंद-नंदिनी जोगहिं माया।


देवकि सुतहिं कृष्न कै छाया।।


    बेड़ी-मुक्त भए बसुदेवा।


    परमइ कृपा कृष्न कै लेवा।


माया-बल,प्रभु-जोग-प्रतापा।


थमा बंदिगृह-आपा-धापा।।


    निज सुत लइ निकसे बसुदेवा।


    भे जब सभ अचेत जे सेवा।।


बंदीगृह कै टूटा ताला।


टुटी जँजीरहिं नाथ कृपाला।।


     लेतइ जनम कृष्न उजियारा।


     छटै उदित रबि जस अँधियारा।।


बरसन लगे मगहिं जब बादर।


निज फन तानि सेष जस छातर।।


    चलन लगे बसुदेवहिं पाछे।


     प्रभुहिं बचावत आछे-आछे।।


जल जमुना कै बाढ़न लगा।


प्रभु प्रति प्रेम पाइ अनुरागा।।


    सकल तरंगहिं जमुना-जल कै।


    प्रभु-पद चाहहिं छुवन उछरि कै।।


छूइ चरन पुनि भईं सिथिल वै।


पार भए बसुदेव अभय ह्वै।।


     राम हेतु जस सागर-नीरा।


     वैसै भे जमुना-जल थीरा।।


दोहा-कृष्णसिसुहिं बसुदेव लइ,सिंधु-जमुन-भव- पार।


         भव-बंधन-बन्दीगृहहिं,मुक्ती प्रभु-आधार।।


                    डॉ0हरि नाथ मिश्र।


                      9919446372


डॉ0 हरि नाथ मिश्र

द्वितीय चरण(श्रीरामचरितबखान)-44


भरत लेइ तब तिरहुति राजा।


अवध चले निज साजि समाजा।।


   प्रथम दिवस कहँ साँझ मझारे।


   पहुँचे सबहीं जमुन-किनारे।।


रात्रि सयन करि निज-निज डेरा।


उठे सबहिं जब भवा सबेरा।।


     सबहिं नहाय जमुन-जलधारा।


     पूजन करि गे जमुना पारा।।


संगम-तट जब पहुँचे सबहीं।


पूजन-अर्चन बिधिवत करहीं।।


     ऋषि-आश्रम रहि अच्छय बटहीं।


      राज निषाद लेइ पुनि बढ़हीं।।


जथा-जोग गुह करि सभ सेवा।


सुरसरि पार करा बिनु खेवा।।


     पा असीष लौटा निज ग्रामा।


     श्रृंगबेरि रह जाकर नामा।।


साँझ परे सभ सई-किनारे।


सयन करहिं निज डेरा डारे।।


     अति प्रातः सभ करि अस्नाना।


      पूजन करहिं लगा निज ध्याना।।


भोजनादि करि कीन्ह पयाना।


निज-निज साधन जे बिधि जाना।।


     डूबत-डूबत वहि दिन सबिता।


     पहुँचे सभ जहँ गोमति सरिता।।


करि असनान गोमती-नीरा।


गयउ सभें पुनि तमसा-तीरा।।


    तमसा पार करत दिन चारहिं।


    जनक लेइ सभ अवध पधारहिं।।


दोहा-अवध पहुँचि मिथिला नृपति,रहहिं उहाँ दिन चार।


         नगर-प्रसासन करि उचित,लौटे पुनि निज द्वार।।


       रानी-भरत-सुमंत मिलि, बिदा करहिं सिय-मातु।


        निज समाज सँग नृप तबहिं,चले जनक सिय-तातु।।


       तब बसिष्ठ व सुमंतु मिलि, रानिन्ह भरत समेत।


        आपस मा समुझन लगे,कस पुर काजु भवेत।।


                          डॉ0हरि नाथ मिश्र


                            9919446372


संजय जैन मुम्बई

ठंडी हवाओ के झोंको से 


आ रही फूलों की महक।


चिड़ियों की चहको से 


मिल गया आपका संदेश।


दुआ करते है ईश्वर से


की हमें मिलता रहे। 


आपका जैसे दोस्त का 


स्नेह और प्यार।।


 


दूर है दोनों के किनारे


पर दिल से एक है।


मिलना मिलाना तो हो जाएगा,


यदि जिंदगी बची रही तो।


इसलिए संजय कहता है इच्छा शक्ति को जिंदा रखेंगे।


तो अपने मित्र से आपकी


मुलाकात हो जाएगी।।


 


कही दीप जल रहे है


तो कही छाय पढ़ रही है।


कही दिन निकल रहा है


तो कही रात हो रही है।


मोहब्बत करने वालो को


इन सब से क्या लेना देना।


क्योंकि दोनों के दिल 


दिल से मिल गये है।।


 


दिया तले अंधेरा है जो


रोशन को तलाशता है।


और हर रोज नई 


उम्मीदे लेकर आता है।


शायद कोई रोशनी की 


किरण दिख जाये।


और अंतरात्मा में कोई 


कमल खिल जाए।।


 


दिल को छू जाए रचना 


वो अच्छी होती है।


प्यार अपनो का मिल जाये 


वो ही रचना सच्चा होती है।


क्योंकि ऐसी रचनाएं काल्पनिक नहीं होती।


ये तो दिल से निकालकर


दिलो तक पहुंच जाती है।।


 


जय जिनेन्द्र देव


संजय जैन मुम्बई


विनय साग़र जायसवाल

दर्द दिल का मिटा लिया होता


दिल हमारा चुरा लिया होता


 


डस न पाती तुम्हें ये तन्हाई


हमको अपना बना लिया होता 


 


सारी महफ़िल मुरीद हो जाती 


गीत मेरा ही गा लिया होता


 


अपने कमरे में रौशनी के लिए


चाँद अपना बुला लिया होता 


 


सारी सखियाँ न छेड़तीं तुमको


मेरे ख़त को छुपा लिया होता 


 


 पढ़ता साग़र नयी ग़ज़ल मैं भी 


 तूने ख़ुद को सजा लिया होता 


 


🖋️विनय साग़र जायसवाल


डॉ0 हरि नाथ मिश्र

जीवन एक चनौती


 


इक चुनौती भरी राह है जिंदगी,


गर करोगे बसर मन में ले सादगी।


राह ख़ुद तुमको मंज़िल तक पहुँचाएगी-


ये दुनिया करेगी तुम्हें वंदगी।।


 


धैर्य खोए बिना,पूर्ण विश्वास से,


बेहिचक राह पर अपनी चलते रहो।


अंत में राह-मंज़िल का होगा मिलन-


शीघ्र ही आ गले से मिलेगी खुशी।।


 


कंटकाकीर्ण राहें तो होतीं मग़र,


उनपे चलना सदा ही तो है जिंदगी।


गर क़दम लड़खड़ाये तो ग़म मत करो-


आगे बढ़ते रहो बिन किए मन दुखी।।


 


चीर करके उदर तम का रवि नभ उगे,


भिड़ शिलाओं से सरिता सतत जग बहे।


सोच बदलो त्वरित अब निडर हो बढ़ो-


बाग़ जीवन की पुष्पों से होगी लदी।।


 


ज़िंदगी में चुनौती तो इक साज़ है,


तार छेड़ो तो मिलता मधुर स्वाद है।


स्वाद चख लो ज़रा अब इसी जन्म में-


ज़िंदगी से न करना कभी दिल्लगी।।


 


चुनौतियाँ नाते-रिश्ते निभाना भी है,


नाते-रिश्तों का सम्मान करना सदा।


ज़िंदगी इक चुनौती है माना कठिन-


इसको स्वीकार करके ही होंगे सुखी।।


             © डॉ0 हरि नाथ मिश्र


              9919446372


नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर

नेह ,स्नेह आकर्षण के मेह


आकर्षण अकारण नहीं सोच विचार के मन की देंन।।


 


स्नेह सिर्फ शब्द नहीं स्वर ,ईश्वर


युग, ब्रह्माण्ड में यादा कदा


यत्र ,तंत्र ,सर्वत्र स्नेह एक अविरल


धारा धार।।


 


कलरव ,ध्वनि नहीं ,वेग ,तूफ़ान


नाही छण भंगुर जीवनका सम्बल स्नेह सार रिश्तों का आधार।।


 


स्नेह ,सरोवर है मन के भावो की


गहराई मोह माया का साया स्नेह नेह ठाँव ठौर का नाता रिश्ता


परिवार।।


 


ना जाने किस समय कहाँ


उमड़ जाय स्नेह सावन की


फुहार अन्तर मन की अनंत भावनावों का तूफ़ान सद्भाव।।


 


कठिन चुनौतियों में मुश्किल


मशक्कत में स्नेह शांत सरोवर


उन्मुक्त अग्निपथ का शमन


पथ विजय की साहस हथियार।।


 


स्नेह सरोवर है द्वेष दम्भ रहित


विशुद्ध सात्विक ह्रदय हर्ष चमत्कार चरमोत्कर्ष प्रवाह।।


 


स्नेह का धरातल धैर्य का दैर्ध्


आयाम परिणाम स्नेह अमृत सोपान स्नेह सरोवर सागर बादल जिन्दगी में जख्मों का मरहम।।


 


स्नेह नेह का रिश्ता नाता समाज


स्नेह का बंधन मानव मानवता


का लोक लाज।।


 


स्नेह ,नेह का कोख आदर्श अस्तित्व जीवन मोल बेमोल अनमोल।।


 


स्नेह रस है स्नेह स्वर है मोह 


नेह का अंतर प्रस्फुटन है।


 


स्नेह, नेह ,मोह महिमा 


गहराई के तूफ़ान का


शांत शौम्य ठहराव नित्य


निरंतर निर्विकार ।।


 


स्नेह सत्य की अनुभव


अनुभूति का सार्थक


प्राज्ञ ,प्रज्ञान का विधाता विज्ञानं।।


 


स्नेह सरोज पल पल


बढ़ाता खिलता दायित्व


कर्तव्य बोध है


 


स्नेह के गर्भ से गौरव ,


मर्यादा मर्म मोह का छोह उफान


नेह का ह्रदय में अंकुरण


स्नहे के बंधन समाज का करता


निर्माण।।


 


स्नेह सम्मत है स्नेह सलिल


स्नेह मार्जन परिमार्जन समन


स्वीकार सत्कार का आत्म प्रकाश स्नेह अभिजीत स्नेह निष्ठां


की सर्मिष्ठा प्रणव पारिजात


अविरल अविराम ।।             


 


स्नेह मोह


नेह की बहती नित निरंतर प्रवाह


है स्नेह डोर है मन मोर है


घनघोर सम्मोहन सम


मन अवनि से आकाश तक


स्वर्ग का सत्यार्थ है।।


 


नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर


नूतन लाल साहू

विनती फिल्म निर्माताओं से


हे फिल्म निर्माताओं


भारतीय कला के रहनुमाओं


हर कलाकार,तुम्हारी तिजोरी में बंद हैं


तुम्हारी ही कृपा से,साधारण बंदे भी


क्रांति कुमार कहलाता हैं


इंसाफ का तराजू होता है,ये भुल न जाना


भारतीय सभ्यता और संस्कृति को


तुम आंच न आने देना


फिल्मी जज़्बात देखकर


लड़का लड़की बदनाम हो रहा है


अनेक, पाकिटमार हो गया है


अपहरण और बलात्कार की घटना


दनादन बढ़ रहा है


मेरे आंगन में तुम्हारा,क्या काम है


ये अपने मां बाप को कह रहा है


आप घोड़े को, गधा न बनाओ


आपको सौ सौ बार प्रणाम है


इंसाफ का तराजू होता है,ये भुल न जाना


भारतीय सभ्यता और संस्कृति को


तुम आंच न आने देना


सपरिवार एक साथ,फिल्म देख सके


ऐसा फिल्म बनाना


राधा कृष्णा सा प्रेम लीला दिखाना


अपराध जगत को भुल जाये


भक्त प्रहलाद सा भक्ति अपनाये


आपकी कृपा,कुछ ऐसा बरसे


गधा भी घोड़ा बन जाये


गाने को इतना,सीरियसली ले


मीरा सा,प्रभु का गुणगान करे


आपकी चांदी की छड़ी


कलाकार के पीठ पर,ऐसा पड़े


घर एक, सुंदर मंदिर कहलाये


इंसाफ का तराजू होता है,ये भुल न जाना


भारतीय सभ्यता और संस्कृति को


आंच न आने देना।


 


नूतन लाल साहू


सत्यप्रकाश पाण्डेय

तेरी शरण हूं बंशीवाले....


 


जग रचयिता माखन चोरी कर


माखन चोर कहावें


जग को दंडित करने वाले हरि


खुद ही सजा कूँ पावें


 


कैसे अजब खिलाड़ी बंशीधर


माँ से करें हैं ठिठोली


यशोदा मन में मोद भरें प्रभु


बोल के तोतली बोली


 


रास रचैया हलधर के भैया


गोप ग्वाल संग खेलें


भव की रक्षा करने वाले हरि


कैसे कैसे करें झमेले


 


हे आनन्द कन्द मन मोहन


ये सत्य तो तेरे हवाले


काटो हरि जग जाल के फंदे


तेरी शरण हूं बंशीवाले।


 


श्री कृष्णाय नमो नमः


सत्यप्रकाश पाण्डेय


एस के कपूर श्री हंस

कॅरोना के कहर से।।


 


आज दूर दूर रहिये आप


कल साथ साथ रहने को।


जिंदा रहना बहुत जरूरी


कल कुछ कहने को।।


अनमोल धरोहर जीवन


की न चली जाए यूँ ही।


बस कुछ दिन का धैर्य


जरूरी आपदा सहने को।।


 


यह अनमोल जीवन तेरा


यूँ सस्ते में न चला जाये।


ये किस्मत का सितारा


ठंडे बस्ते में न चला जाये।।


जरूरी है कि घर से जायें


आप किसी काम से ही।


बस यूँ ही व्यर्थ हर किसी


रस्ते में न चला जाये।।


 


आदत हम सबको अपनी


सुधारनी बदलनी होगी।


स्वास्थ्य की दिनचर्या


अब हमें पलटनी होगी।।


सावधानी हटी तो मानो


जैसे कोई दुर्घटना घटी।


साथ साथ जाने की बात


कुछ दिन खटकनी होगी।।


 


एस के कपूर श्री हंस


बरेली।।


कालिका प्रसाद सेमवाल

हे मातृभूमि तुम्हें नमन


*****************


आओ मातृभूमि का गुणगान करें


इस वसुंधरा को प्रणाम करें


आज देश ख़तरे में है 


इस की सुरक्षा के लिए बलिदान करें।


 


देश प्रेम से ओत-प्रोत हो


हर भारत मां का लाल,


सीमा की जो रक्षा कर रहा


उन वीर जवानों को कोटि-कोटि प्रणाम।


 


भारत में की रक्षा के लिए


हर भारतीय को तैयार होना है


भारत भूमि को स्वर्ग बनाना


हम सब का परम धर्म है।।


*******************


कालिका प्रसाद सेमवाल


मानस सदन अपर बाजार


रुद्रप्रयाग उत्तराखंड


डॉ0 हरि नाथ मिश्र

तीसरा अध्याय (श्रीकृष्णचरितबखान)-6


 


सुनु हे देबी कह भगवाना।


भवा जगत जब तुम्हरो आना।।


    प्रथम जनम मन्वंतर भवई।


    पहिला नाम प्रिस्न तव रहई।।


प्रजापती सुतपा बसुदेवा।


नामहिं तासु सकल जग लेवा।।


    दोऊ जन रह सुचि उरगारी।


    दिब्य रूप प्रभु परम पुजारी।।


लइके ब्रह्मा कै उपदेसा।


देउ जनम संतान निदेसा।।


    दोऊ जन हो इन्द्रिय-निग्रह।


    कीन्ह तपस्या प्रभुहिं अनुग्रह।।


बायुहिं-घाम-सीत अरु बरसा।


गरमी सहत रहेउ चित हरषा।।


   करत-करत नित प्रणायामा।


   कियो हृदय-मन अति सुचि धामा।।


सुष्क पात खा,पवनहिं पाना।


चितइ दूइनू सांति-निधाना।।


     तुम्ह सभ कियो अर्चना मोरी।


     सीष झुकाइ उभय कर जोरी।।


दस-दूइ-सहस बरस देवन्ह कै।


कीन्ह तपस्या तुम्ह सूतन्ह कै।।


    सुनहु देबि हे परम पुनीता।


     दुइनउ जन लखि भगति अभीता।।


तव अभिलाषा पूरन हेतू।


प्रगटे हम हे नेह निकेतू।।


    माँगेयु तुम्ह सुत मोरे जैसा।


     रचा खेल अद्भुत मैं ऐसा।।


तुम्ह न रहेउ रत भोग-बिलासा।


रही नहीं सन्तानहिं आसा।।


    बर व मोच्छ नहिं हमतें माँगा।


    माँगा सुत जस मोंहि सुभागा।।


'एवमस्तु' कह तब मैं निकसा।


तुम्ह सभ भए भोग-रत-लिप्सा।।


     'प्रश्निगर्भ' तब रह मम नामा।


      माता-पिता तुमहिं बलधामा।।


दूसर जनम 'अदिति'तुम्ह रहऊ।


कस्यपु मुनि बसुदेवइ भयऊ।।


    तबहूँ रहे हमहिं सुत तोरा।


    नाम 'उपेंद्र'रहा तब मोरा।।


अति लघु तन तब मोरा रहई।


'बामन'मोंहि जगत सभ कहई।।


     पुनि मम जनम भवा जब तीसर।


      सुनहु देबि मैं कृष्न न दूसर।।


तव समच्छ प्रगटे यहि रूपा।


भूलउ ताकि न मोंहि अनूपा।।


दोहा-भाव देवकी तुम्ह सबहिं,रखेउ पुत्र अरु ब्रह्म।


         मोरे सँग श्रद्धा सहित,बिनू भरम अरु मर्म।।


                        डॉ0हरि नाथ मिश्र


                          9919446372


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