सुनील कुमार गुप्ता

सोचा न था कभी जीवन में,


साथी इतना कुछ -


सहज ही पा जाऊँगा।


सद्गुरु की संगत से,


डूबी नैय्या -


पार लगा पाऊँगा।


जन्म दिया जिस माँ ने,


चलना और बोलना सिखाया,


ममता मयी उस माँ को-


नित शीष नवाऊँगा।


प्रथम गुरु है माँ मेरी साथी,


उसके ममतामयी आँचल के-


गीत गुनगुनाऊँगा।


ज्ञान का दीप जला कर,


उज्ज़वल कर दिया जीवन-


उस शिक्षक के तो-


चरणों में शीष झुकाऊँगा।


गुरु की महिमा अपार साथी,


ज्ञान -विज्ञान संग उससे ही-


भक्ति मार्ग भी पाऊँगा।


होगे प्रभु दर्शन जीवन में,


इसका रहस्य भी-


गुरु से ही जान पाऊँगा।


शिक्षक दिवस पर साथी 


उनको कर नमन-


शुभाशीष पाऊँगा।


सोचा न था कभी जीवन में,


साथी इतना कुछ-


सहज़ ही पा जाऊँगा।।


 


 सुनील कुमार गुप्ता


अनीता सिद्धि

ज्ञान का प्रकाश देकर , अज्ञानता को दूर करतें हैं । 


 पथ में काटों को हटाकर फूल ही फूल भरते हैं।। 


 इस जीवन में जो मिला , गुरुवर तेरा उपकार है । 


मानव के रूप में आप , मेरे लिए ईश का उपहार हैं ।। भीड़ भरी दुनियाँ में हम खो ही जाते , 


गुरुवर आप नहीं मिलते हम पशु कहलाते।।


इस लेखनी ने से क्या लिखे ,हम तेरा गुणगान।


आपकी कृपा -दृष्टि सदा मिले , माँगूँ ये वरदान ।।


अनीता सिद्धि पटना 5/9/2020


सुनीता असीम

इश्क की बाजी लगा दी जाए।


ओट घूंघट की हटा दी जाए।


****


मीत जिसको न मिले मन का सा।


आस मिलने की जगा दी जाए।


****


चैन से जो जी रहा हो उसको।


क्यूं बेचारे को सजा दी जाए।


****


फेंकता कौन सही है पासे।


चलके शतरंज बिछा दी जाए।


****


आस जिसकी खो गई जीने की।


उसको उम्मीद बंधा दी जाए।


****


बिन पिए होश गए हों जिनके।


आज उनको भी पिला दी जाए।


****


कुछ जगह देना मेरे दिल को भी।


धाक इसकी भी जमा दी जाए।


****


सुनीता असीम


डॉ0 हरि नाथ मिश्र

गुरु-गरिमा है सिंधु सम,गुरु विराट आकाश।


गुरु-प्रसाद है दिव्यतम,पा हो ज्ञान-प्रकाश।।


 


गुरु समान हैं मातु-पितु,प्रथम बोल के स्रोत।


मातु-पिता-गुरु चंद्र सम,अन्य लोग खद्योत।।


 


सकल ज्ञान-विज्ञान का,होता गुरु से बोध।


करे सीख गुरु से मिली,जीवन में नव शोध।।


 


ऋषि-मुनि,संत-असंत सब,कर निज गुरु-सम्मान।


कुशल-निपुण होकर सदा,पाए जग-पहचान।।


 


ब्रह्मा-विष्णु-महेश ही,गुरु-गरिमा को जान।


गुरु ही तो जग ब्रह्म है,रखो सदा गुरु-मान।।


 


लख विकास निज शिष्य का,प्रमुदित बस गुरु होय।


बंधु-बांधव-अन्य जन,जलते आपा खोय ।।


 


लेकर गुरु-आशीष ही,होते लोग महान।


गुरु के बिना न ज्ञान-सर,होता कभी नहान।।


           ©डॉ0हरि नाथ मिश्र


               9919446372


अमित कुमार दवे

एक शिक्षक


कच्ची मिट्टी में …


शीतल जल देखता है…


 तभी तो घट गढ़ता है।


 


एक शिक्षक 


आज मैं कल देखता है…


तभी तो आज पर जीवन निवेश करता है ।


 


एक शिक्षक…


सपनों में जीवन देखता है ।


तभी तो उन्हें जीवंत करने का प्रयास करता है ।


 


एक शिक्षक….


जब स्वयं खपता है….


तभी तो स्वर्णिम युग निर्माण फलता है।


 


एक शिक्षक …


जब सच में शिक्षक होता है….


तब परिवर्तन स्वतः ही दिखता है ।


 


एक शिक्षक……


जब शिक्षकत्व स्वयं का भूलता है…


तभी पतन वह हाथों अपने स्वयं सृजित करता है ।


सच! पतन वह हाथों अपने स्वयं सृजित करता है ।।


 


© अमित कुमार दवे, खड़गदा, राजस्थान


सुषमा मोहन पांडेय

शिक्षक दिवस के अवसर मेरे हृदय से निकले कुछ उद्गार 


 


चरणों मे पड़ी गुरुवर,हृदय तमस हर लो


जीवन में है अंधियारा,उसमें प्रकाश भर दो।


चरणों में पड़ी गुरुवर.........................


 


मोमबत्ती की तरह जल कर,तू सबको उजाला दे,


गलती जब करे कोई, तू क्षमा उसे कर दे,


कमजोरी दूर कर शिष्य, को शिखर तक पहुंचा दो


चरणों में पड़ी गुरुवर.................................


 


था ज्ञान नहीं कुछ भी,सब कुछ तुमने है सिखाया,


हमको सतपथ पर लाकर, एक अच्छा इंसां बनाया,


जो ज्ञान मिला तुमसे, वो ही सच्चा धन कर दो।


चरणों में पड़ी गुरुवर................................. .


 


हीरे को तराशे तो, कीमत उसकी बढ़ जाये,


विद्या धन पास में हो, तो जिंदगी सँवर जाए,


सब शिष्य झुके सामने,तुम सुखद छाँव कर दो,


चरणों में पड़ी गुरुवर........…….....................


 


तू ही एक जग में है, जिसने सबको बनाया,


गोविंद ने तुझको ही, है सबसे बड़ा बताया,


तू अपनी महिमा से,जग को रोशन कर दो।


चरणों में पड़ी गुरुवर........ .................


 


डॉक्टर, नेता, हीरो, गुरु तुमने ही है बनाये,


तू न अगर हो तो, कोई कुछ न बन पाए


तू जो कृपा कर दे, सबका जीवन धन्य हो।


चरणों में पड़ी गुरुवर........................


 


तू सब ग्रंथों का सार, तुझसे से ही ईश्वर मिलता,


तू अध्यात्म की ज्योति है,ये जीवन उजला दिखता,


कोई शिष्य तुझे जो भजे, जीवन तुम सफल करदो,


चरणों में पड़ी गुरुवर.................................


 


जब जब मैंने उठना चाहा, दुनिया ने मुझे गिराया,


तुम राह में आकर मेरे, मुझे रास्ता आगे दिखाया,


ईश्वर के अस्तित्व का तुम, मुझे ज्ञान बोध कर दो,


चरणों में पड़ी गुरुवर................................


 


जब जब संसार से हारी, गुरुवर तुमने मुझे बचाया,


सत्य धर्म का मार्ग दिखाकर,उस पे चलना सिखाया,


शतशत मैं नमन करूँ, मेरे सिर पर हाथ रख दो,


चारों में पड़ी गुरुवर..........…..........................


 


मेरे दिल के भाव ये हैं, जो तुझको अर्पण हैं,


गुरुवर मुझे शरण में लो, करते अभिनंदन हैं,


मैं निपट, मूढ़ गुरुवर, ज्ञान की अलख जगा दे।


चरणों में पड़ी सुषमा..........................    


 


धरती से धैर्य है तुझमें, अम्बर सी है उंचाई ,


सागर जैसे तुम गहरे,मैं पाऊँ कैसे गहराई,


तेरी शरण पड़ी ये सुषमा, नित ज्ञान नया भर दो।


चरणों में पड़ी गुरुवर....... .....…................


 


सुषमा मोहन पांडेय


सीतापुर उत्तर प्रदेश


Teacher's day शिक्षक दिवस

शिक्षक दिवस 5 सितम्बर


 


जिसने हमे सिखाया उस इंसान को नमन।


शिक्षित किया प्रशिक्षित उस नाम को नमन।


नीरज क शीश आपके चरणों की पादुका,


शिक्षक के रूप में मिले भगवान को नमन


 


भूतल के गुरु राधाकृष्णन जिनकी आज जयन्ती है।


ईश्वर से भी पहले पूजित दुनियां गाथा कहती है।।


नीरज नत मस्तक है उनके जिनने हमको ज्ञान दिया,,


आज गुरु गोविन्द प्रभू दोनों की कृपा बरसती है।।


आशुकवि नीरज अवस्थी 9919256950


 


डॉ.राम कुमार झा निकुंज

फूल और काँटे जीवन बन,


मधुरिम खूशबू महकती हैं।


नित गन्धमाद पंकिल सरोज,


सुख दुख तटिनी बन बहती हैं।


 


काँटें नित संरक्षक पादप,


नवकिसलय पौध पनपती हैं।


विविध रंग सुरभित प्रसून नव,


नव यौवन खिली विहँसती हैं। 


 


काँटे प्रमाण संघर्ष सतत,


विघ्नों में राह दिखाती हैं।


होश निरत नवजोश प्रगति पथ,


उत्थान मार्ग नव गढ़ती हैं।


 


काँटे यायावर विश्रान्त निडर,


दृढ़ संकल्प पथी बनाती हैं।


साहस धीर गंभीर आत्मबल,


जीवन पथ सुगम बनाती हैं। 


 


दुश्मन से नित आगाह मनुज,


काँटे दिग्दर्शक बनती हैं।


सावधान आगत सब आपद, 


माँ आँचल बन रक्षा करती हैं।   


 


है कुटिल नुकीली काँटे नित,


घातक रक्षक बन जाती हैं।


विविध मनोहर पाटल पुष्पित,


चढ़ हरिहर शिखर दमकती है।


 


जो सदा कँटीला जीवन गति,


संकल्प नया नित देती है।


उठा मनोबल साहस धीरज,


सब आपद को हर लेती है। 


 


विश्वास नया हो पथिक अटल,


नवप्रगति कँटीली होती है।


आस्वाद नया मद मोह रहित,


दायित्व नीति बढ़ जाती है। 


 


कुसमित निकुंज मकरन्द मुदित,


काँटों के बीच महकता है।


अलिगान गूंज यश गन्ध विमल, 


अभिनव साफल्य चमकता है। 


 


हमराह बने सुख दुख जीवन,


मुस्कान अधर गम देती है।


आनंद फूल अवसाद कँटिल,


जीवन तटिनी बन जाती हैं। 


 


फूलों से सज काँटें पादप,


निर्भय खुशियाँ मुस्काती हैं।


नित स्वाभिमान संबल जीवन,


जीवन प्रसून सुख देती है। 


 


कवि✍️डॉ.राम कुमार झा "निकुंज"


रचनाः मौलिक (स्वरचित)


नई दिल्ली


संजय जैन

शिक्षकों का योगदान


 


हूँ जो कुछ भी आज मैं,


श्रेय में देता हूँ उन शिक्षकों। 


जिन्होंने हमें पढ़ाया लिखाया,


और यहां तक पहुंचाया।


भूल सकता नहीं जीवन भर, 


मैं उनके योगदानों को।


इसलिए सदा में उनकी, 


चरण वंदना करता हूँ ।।


 


माता पिता ने पैदा किया।


पर दिया गुरु ने ज्ञान।


तब जाकर में बना लेखक,


और बना एक कुशल प्रबंधक।


श्रेय में देता हूँ इन सबका,


अपने उनको शिक्षकों।


जिनकी मेहनत और ज्ञान से,


बन गया पढ़ा लिखा इंसान।।


 


रहे अँधेरा भले उनके जीवन में, 


पर रोशनी शिष्यों को दिखाते है।


जिससे कोई बन जाता कलेक्टर,


तो कोई वैज्ञानिक कहलाता है।।


 


सुनकर उन शिक्षकों को,


तब गर्व बहुत ही होता है।


मैं कैसे भूल जाऊं उनको,


योग जिन्होंने हमें बनाया है।


देकर ज्ञान की शिक्षा,


हमें यहाँ तक पहुंचाया है।।


 


शिक्षक दिवस के अवसर पर


मैं उन सभी शिक्षकों के चरणों


 मे वंदन करता हूँ ।


 


जय जिनेन्द्र देव 


संजय जैन (मुम्बई)


04/09/2020


सुनीता असीम

काश अपनी भी कहीं मुमताज हो।


कूकती सुर से भरी आवाज हो।


***


सामने अहले वफ़ा हो जाम के।


प्रेम के ही गीत गाता साज हो।


***


प्यार से वो इक नज़र बस देख लें।


मन लुभाता मोहिनी अंदाज हो।


***


तीर नज़रों के चलें फिर रातभर।


इक नए ही दौर का आगाज़ हो।


***


जिंदगी बीते मेरी फिर सुख भरी।


साथ उसके ही नई परवाज़ हो।


***


सुनीता असीम


डॉ0 रामबली मिश्र

मुझको प्रिय मानव बनने दो


 


दुनिया का सब कुछ सहने दो।


मुझको प्रिय मानव बनने दो।।


 


बहुत अधिक हैं मुझमें कमियाँ।


सारी कमियों की मैं दुनिया।।


 


मेरी कमियों को जाने दो।


सुन्दर भावों को आने दो।।


 


सबकी सुन सब कुछ पी जाऊँ।


मन में कुछ भी ग्लानि न लाऊँ।।


 


करुँ सभी से क्षमा याचना।


सहता जाऊँ सकल यातना।।


 


मुझको क्षमा करे यह दुनिया।


अथवा जैसा चाहे दुनिया ।।


 


मुझ पर दुनिया क पूरा हक।


यह दुनिया मेरा अध्यापक।।


 


मैं दुनिया में सदा ढलूँगा।


इक सुन्दर इंसान बनूँगा।।


 


रचनाकार:डॉ0रामबली मिश्र हरिहरपुरी 


9838453801


सुनील कुमार गुप्ता

पितृ-पक्ष की महिमा अपार,


याद करे उनको-


मिलता जीवन में सुख अपार।


दें अन्न जल ब्राह्मण को,


कर तर्पण-


मन बसे श्रृद्धा अपार।


श्राद्ध का मतलब यही,


श्रृद्धा से करें स्मरण-


रहे पितरो का नाम अमर।


उनके आशीष से ही,


मिलता सुख-


और समृद्धि अपार।


अमर रहे कीर्ति उनकी,


पितृ पक्ष में-


मिले शांति अपार।


कोई न भूले अपने पूर्वजो को,


उनके निमित पितृ पक्ष में दे-


अन्नं जल और उपहार।


पितृ-पक्ष की महिमा अपार,


याद करे उनको-


मिलता जीवन में सुखी संसार।


 


 सुनील कुमार गुप्ता


कमल कालु दहिया

विद्या - हाइकु 


 


  श्राद्ध पितर 


संस्कारविधी हिन्दू 


  पूर्वज पूज। 


 


श्राद्ध अस्तित्व 


पूर्वज कौशल का 


   समृद्धि तत्व। 


 


  वंशज ज्ञान 


प्रकाश विश्व में वो 


  दे पिण्डदान। 


 


  श्राद्ध या पितृ 


वो अंतरिक्षवासी 


  उल्लेख वेद। 


 


  ऐतरेय में 


अग्नि उल्लेख रज्जु 


  पूर्वज स्वर्ग। 


 


  मृत्युपरांत 


कौशीतकी उल्लेख 


  है चंद्रलोक।। 


 


 


  रचनाकार - 


कमल कालु दहिया


   जोधपुर, राजस्थान


डॉ. निर्मला शर्मा

भूख बड़ी या कोरोना


कोरोना महामारी जब आई


 संग अनेक समस्या लाई


लॉक डाउन का पडा है साया


 हर मन है थोड़ा घबराया


सूनी गलियाँ सूनी सड़कें


 हवा से केवल खिड़कियाँ ही खड़कें


डगमग होते जीवन में अब 


खड़ी है विपदा बाहें खोले


छूटा काम, दाम भी बीते, 


रैना निकले अखियाँ मीचे


कैसे पालन करूँ कुटुम्ब का


 चिंता की रेखा यूँ बोले


सिमटी आंतें पेट भी सुकड़ा


 कहाँ से लाऊँ रोटी का टुकड़ा


कोरोना की महामारी ने 


सुख और चैन सभी कुछ छीना


विकल हुआ मन तन है जर्जर


 नैनों में अश्रुओं की धारा


कोरोना ने जीवन छीना 


कैसे कहूँ में मन की पीड़ा


भूख की हूक उठे जब तन में 


मन का भी हर कोना फीका


कैसे बैठूँ घर में भगवान 


मुझे सताती चिंता हर शाम


भूख से बेकल बच्चों के चेहरे


 कदम मेरे घर में कैसे ठहरें


भूख बड़ी है कोरोना से 


करूँ काम निकलूँ में घर से


करूँ जतन अपने पुरुषार्थ से 


प्राण न निकले भूख से उनके


 


डॉ. निर्मला शर्मा


दौसा राजस्थान


डॉ0 रामबली मिश्र

वैज्ञानिक संधान में,मूलभूत अनुमान।


बिन अनुमानों के नहीं,बढ़ता है संधान।।


 


खोजी करता रात-दिन,नियमित पावन खोज।


खोज -जगत अनुमान का,करता है सम्मान।।


 


जहाँ कहीं अनुमान है,वहीँ खड़ी है खोज।


खोजी के दिल में सदा,वसता है अनुमान।।


 


खोजी को जाना कहाँ,क्या उसका उददेश्य?


दिशा बताता चलत है,खोजी को अनुमान।।


 


दीप शिखा बन राह को,दिखलाता है नित्य।


अग्र-अग्र चलता सदा,बन प्रकाश अनुमान।।


 


हो सकता है सत्य यह,अथवा झूठ सफेद।


नहीं परीक्षण के बिना,सत्य-झूठ अनुमान।।


 


तथ्यों के अलोक में,अनुमानों का लोक।


तथ्य बताते हैं यहीं,कितना सच अनुमान।।


 


होती रहती रात-दिन ,अनुमानों की जाँच।


नियम और सिद्धान्त को,गढ़त सत्य अनुमान।।


 


वैज्ञानिक सोपान यह,इसका बहुत महत्व।


एक कदम इसके बिना,चलत नहीं विज्ञान।।


 


यह खोजी का हाथ है,यह खोजी का पैर।


हो सकता इसके बिना,कभी नहीं संधान।।


 


शव्दकोश विज्ञान का,यह है अमित अथाह।


है वैज्ञानिक जगत का,मूल तत्व अनुमान।।


 


जीवन के हर क्षेत्र में,इसका है उपयोग।


अनुमानों पर है टिका,जीवन का संधान।।


 


रचनाकार:डॉ0रामबली मिश्र हरिहरपुरी 


9838453801


उत्तम मेहता उत्तम

मुस्कराना देख कर हम बेरुख़ी कैसे कहें।


बेसबब की दिल्लगी को आशिकी कैसे कहें।


 


खेलना दिल से रहा उसका पुराना है शगल।


हुस्न की इन हरकतों को गुदगुदी कैसे कहें।


 


वह पुरानी दोस्ती का वास्ता फ़िर दे रहा।


दुश्मनी थी मुद्दतों से अजनबी कैसे कहें।


 


मुंन्तज़िर थी ये निगाहें आपके ही ख़्वाब की।


नींद ने की बेवफ़ाई बेख़ुदी कैसे कहें।


 


जो रहा हमदर्द अब तक दर्द उसने ही दिया।


ग़म छुपा कर मुस्कुराती ज़िन्दगी कैसे कहें।


 


होश अपना हम सँभाले या सँभाले आपको।


ग़म जुदाई का मिला तो हम खुशी कैसे कहें।


 


खुबसूरत थे नज़ारे हर तरफ़ थी रागिनी।


तेरी महफ़िल में खली उत्तम कमी कैसे कहें।


 


®@ उत्तम मेहता 'उत्तम'


प्रीति शर्मा असीम

कोरोना काल और शिक्षक 


 


कोरोना काल में घर में बंद होकर।


सबको जिंदगी के अहम सबक याद आए ।।


 


कोरोना काल में घर में बंद होकर। 


सड़कों पर भटकते मजदूर ,


गरीब होने की सजा पा रहे थे।


 


 जिंदगी के अच्छे दिन आएंगे।    


 यह स्लोगन भी याद आ रहे थे।


 


 कोरोना ने कर दिया..क्या हाल।


 टीवी देख कर आंख में ,


कुछ के आंसू भी आ रहे थे।


 


 विडंबना देखिए .....    


हालात और शिक्षण नीतियों के मारे ।


 


शिक्षक किस हाल में है ।


ना किसी को प्राइवेट ,


और ना सरकारी शिक्षक याद आ रहे थे ।


 


जो इस महामारी में,


 समस्त विषमता से परे ।


 


 दुनिया को कोरोना क्या शिक्षा दे रहा है ।


इस बात से अनभिज्ञ ,


ऑनलाइन पाठ पुस्तकों के चित्र घूमा रहे थे ।


 


बस ऑनलाइन सिस्टम की, 


कठपुतलियां बन के,


 बच्चों को नोट- पाठ्यक्रम पहुंचा रहे थे।


 


 जिंदगी की सच्चाई से ना खुद शिक्षित हुए।


 ना इसका मूल्य समझा पा रहे थे।


 कोरोना जिंदगी को,


 जिस हाशिए पर खड़ा कर गया ।


 कहीं वेतन कट ना जाए।


 


 शिक्षक पाठ्यक्रम, 


पेपर ऑनलाइन का राग गा रहे थे।


 


 जिंदगी के असल सच से कितना परे थे।


 हमारे शिक्षक स्थल आज घर में बंद होकर भी,


 कुदरत का पाठ ना पढ़ पा रहे थे।


 न समझा पा रहे थे।


 


 स्वरचित रचना


 प्रीति शर्मा असीम,


नालागढ, हिमाचल प्रदेश


प्रीति शर्मा असीम

उलझनों के झूले


 


उलझनों के बीच भी मुस्कुराती हैं। 


अपने दर्द को दो घड़ी भूल जाती है।


 


 जिंदगी हर त्यौहार को ,


हर हाल में उदास होकर भी, 


 


खुशियों के झूले पर झूल जाती है।


 


उलझनों के बीच भी मुस्कुराती हैं।


 


अपने दर्द को दो घड़ी भूल जाती है ।


 


 


जिंदगी हर दिन ,


 


नयी लड़ाई के लिए तैयार हो जाती है ।


 


 


रोते हुए भी मुस्कुरा कर,


 


 सब ठीक है.......!!!!


 


 यह बात कह जाती है ।


 


 


उलझनों के बीच भी मुस्कुराती हैं। 


 


अपने दर्द को दो घड़ी भूल जाती है ।


 


 


जिंदगी में झूले ही ,


 


नहीं मिलते हर पल ।


 


रस्सियों पर झूलती ।


 


जिंदगी भी ,


 


अपनी बात कह जाती है।


 


 


खुशियां कीमतों से ही नहीं खरीदी जाती ।


 


 मुस्कुराने के लिए हर दर्द से उभरकर ,


 


जिंदगी हर बात कर जाती है।


 


 


स्वरचित रचना 


प्रीति शर्मा असीम नालागढ़ हिमाचल प्रदेश


डॉ0 रामबली मिश्र

इस प्यासे को आज जिला दो।


थोड़ा अमृत बूँद पिला दो।।


 


नहीं याचना सुनता कोई।


भूखे को अन्न खिला दो।।


 


अंधकार से आच्छादित इस।


इस निरीह को लोक दिला दो।।


 


विछड़ गया है यह अपनों से।


आत्मजनों से इसे मिला दो।।


 


व्यर्थ समझता अपना जीवन।


भाव-अर्थ इसको सिखला दो।।


 


पापों से बोझिल इस मन को।


पुण्यपुंज का पथ दिखला दो।।


 


जन्म-जन्म से विचलित मन को।


सत्कर्मों की घूँट पिला दो।।


 


भ्रमित मनुज इस घोर अपावन।


को अपना जलवा दिखला दो।।


 


घावों में कंपन है इसके।


उनको थोड़ा सा सहला दो।।


 


थके हुये इस मानव-जन को 


प्रेम गंग में कुछ नहला दो।।


 


व्यथित हृदय की करुण वेदना।


को अमृत की बूँद पिला दो।।


:


डॉ0रामबली मिश्र हरिहरपुरी 


 


निशा अतुल्य

दोस्त को कैसे मनाएं 


रूठे हो क्यों, कुछ तो बताएं 


बोलो, दोस्त को कैसे मनाएं


ये पल छिन लगते नहीं मीत अपने


मान जाओ,आओ गले तुम को लगाएं


 


हुई हैं अगर कुछ गुस्ताखियाँ तो 


करो माफ़,चलो दिल से दिल मिलाएं।


 


करों ना रुसवा ये सुहानी सी रुत है


आओ इसे साथ मिल कर जी जाएं।


 


तुम्हीं से रंगीन दुनियां है मेरी 


चलो साथ मिल पूरे सपने सजाएं ।


 


निशा"अतुल्य"


सुषमा दीक्षित शुक्ला लखनऊ

तमतोम मिटाते हैं जग का ,


शिक्षक धरती के दिनकर हैं।


 


हैं अंक सजे निर्माण प्रलय,


शिष्यों हित प्रभु सम हितकर हैं ।


 


शुचि दिव्य ज्ञान के दाता वह 


,सोने को पारस मे बदले।


 


वह सृजनकार वह चित्रकार ,


वह मात पिता सम सुधिकर हैं ।


 


कच्ची मिट्टी को गढ़कर के ,


वह सुन्दर रूप सजाते हैं ।


 


देते खुराक मे संस्कार ,


वह ज्ञानाहार कराते हैं ।


 


शिक्षक ही पंख लगाते हैं,


सपनों की भरने को उड़ान ।


 


पावन शिक्षा के मंदिर के ,


वह ही भगवान कहाते हैं ।


 


सुषमा दीक्षित शुक्ला लखनऊ


नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर

हलक को जलाती ,


उतरती हलक में शराब कहते है।।


लाख काँटों की खुशबू गुलाब कहते है।।


छुपा हो चाँद जिसके दामन में


हिज़ाब कहते है।।


ठंडी हवा के झोंके उड़ती जुल्फों


में छुपा चाँद सा चेहरा, बिखरी


जुल्फों में चाँद का दीदार कहते है।।


सुर्ख गालों की गुलाबी ,लवों की


लाली बहकती अदाओं को साकी


शवाब कहते है।।


लगा दे आग पानी में सर्द की


बर्फ पिघला दे जवानी की रवानी


जवानी कहते है।।


जमीं पे पाँव रखते ही जमीं के


जज्बे में हरकत जमीं


की नाज़ मस्ती की हस्ती को


मस्तानी ही कहते हैं।।


सांसों की गर्मी से बहक जाए


जग सारा जहाँ का गुलशन


गुलज़ार कहते है ।।           


 


धड़कते दिल की धड़कन से साज


की नाज़ मीत का गीत संगीत कहते है।।


सांसो की गर्मी से निकलती 


चिंगारी ,ज्वाला हद ,हसरत की दीवानी उसे कहते है।।


मिटा दे अपनी हस्ती को या


मिट जाए आशिकी में आशिक


नाम कहते है।।


नशे में चूर इश्क के जाम जज्बे


में हुस्न का इश्क में दीदार कहते


है।।


नादाँ दिल की शरारत में 


कमसिन बहक जाए कली


नाज़ुक का खिलना चमन


बहार कहते है।।


सावन के फुहारों में ,वासंती


बयारों में बलखाती बाला बंद


बोतल की शराब पैमाने का इंतज़ार कहते है।। इश्क के अश्क ,अक्स एक दूजे


के दिल नज़रों में उतर जाए इश्क की इबादत इश्क इज़हार कहते है।।


 


नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर


संजय जैन

हूँ जो कुछ भी आज मैं,


श्रेय में देता हूँ उन शिक्षकों। 


जिन्होंने हमें पढ़ाया लिखाया,


और यहां तक पहुंचाया।


भूल सकता नहीं जीवन भर, 


मैं उनके योगदानों को।


इसलिए सदा में उनकी, 


चरण वंदना करता हूँ ।।


 


माता पिता ने पैदा किया।


पर दिया गुरु ने ज्ञान।


तब जाकर में बना लेखक,


और बना एक कुशल प्रबंधक।


श्रेय में देता हूँ इन सबका,


अपने उनको शिक्षकों।


जिनकी मेहनत और ज्ञान से,


बन गया पढ़ा लिखा इंसान।।


 


रहे अँधेरा भले 


उनके जीवन में, 


पर रोशनी अपने


शिष्यों को दिखाते है।


जिस से कोई 


बन जाता कलेक्टर,


तो कोई वैज्ञानिक कहलाता है।


सुनकर उन शिक्षकों को,


तब गर्व बहुत ही होता है।


मैं कैसे भूल जाऊं उनको,


योग जिन्होंने हमें बनाया है।


देकर ज्ञान की शिक्षा,


हमें यहाँ तक पहुंचाया है। 


 


जय जिनेन्द्र देव 


संजय जैन (मुम्बई)


सत्यप्रकाश पाण्डेय

बन उर्वशी तू पिय की....


 


अजस्र ऊर्जा स्रोतस्विनी


अनन्त धारा सा प्रवाह


नहीं किंचित भी उन्मादी


उद्विग्नता नहीं परवाह


 


उत्कृष्टताओं की आकर


महत्वाकांक्षाओं से दूर


कर्मठता का अक्षय कोष


जिजीविषा से भरपूर


 


प्रांजल भावों की मलिका


दोषारोपण न उपालंभ


लिए कृतज्ञता अन्तर्मन में


जीवन की सुदृढ़ स्तंम्भ


 


तत्वदर्शी सी अनुरागनीया


मर्मस्पर्शी सत्य हिय की


च्युत न हो जाऊं प्रियतमा


बन उर्वशी तू पिय की।


 


सत्यप्रकाश पाण्डेय


डॉ० प्रभुनाथ गुप्त विवश

प्रेयसी तुम रूठ गयी हो.......


 


 


मुझे बता दो क्यों अकारण 


           प्रेयसी! तुम रूठ गयी हो,


क्या है तेरा यही निवारण 


             मेरे उर को लूट गयी हो।


 


मेरे आत्मनगर में कल-कल 


            तुम सरिता सी बहती थी, 


मैं ही हूँ जग से प्यारा 


          यह तुम मुझसे कहती थी।


 


पूनम की रजनी में चन्द्र की 


       किरणों से तुम खेल रही थी,


तेरे बिम्बाधरों पर भी तो 


    प्रणय की स्मिति खेल रही थी। 


 


मेरे आलिंगन में आकर तुम 


         मादकता बिखरा देती थी, 


चल रहे मलय पवन में तुम 


       अलकों को बिखरा देती थी।


 


वो चंचल चतुर नयन तुम्हारे 


        गुप-चुप सम्भाषण करते थे, 


हो जाते रोम-रोम प्रफुल्लित 


         मुझमें आकर्षण भरते थे।


 


मेरे स्वप्न लोक में आकर 


          स्नेहिल ऊर्जा भर देती थी,


जीने का साहस देती थी तुम 


          जीवन में रस भर देती थी।


 


उषाकाल में उपवन में तुम 


          संकेतों से मुझे बुलाती थी, 


नीहार नहाये फूलों से तुम 


           बरबस ही ललचाती थी।


 


तन्वंगी! तेरे उत्तुंग शिखर पर 


        काम अनल का वो..जलना, 


मेरे हृदय के वन-उपवन में 


      उन कोमल सपनों का पलना।


 


जब अतीत के दुर्दिन में भी 


           हम एक दूजे के साथ रहे,


विश्वास परस्पर इतना था 


       हम साथ-साथ दिन-रात रहे।


 


किंचित मतभेदों के कारण 


        प्रिय! कदापि रुष्ट नहीं होते, 


अपनों से जो त्रुटि हो जाये 


       तो अपने असंतुष्ट नहीं होते। 


 


डॉ० प्रभुनाथ गुप्त विवश


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