डॉ0 रामबली मिश्र

माँ शारदे को नमन


 


नमनीया माँ मातृ शारदे।


हे माँ हमको नियमित वर दे।।


 


करें सदा सेवकाई तेरी।


मिले सदा अति प्रीति घनेरी।।


 


रहो सदा अनुकूल विधाता।


हे जग जननी हे सुखदाता।।


 


ज्ञान रत्न दे प्रेम रत्न दे।


भक्ति रत्न दे शुभद रत्न दे।


 


अति निर्मल प्रिय पावन गंगा।


कर दो माँ मन शीतल चंगा।।


 


मोहनिशा को दूर भगा दे।


मन में उत्तम भाव जगा दे।।


 


अंधकार हर नित प्रकाश दे।


ज्ञान ब्रह्ममय शिवाकाश दे।।


 


हर जड़ता को चेतन कर दे।


विद्या वारिधि उर में भर दे ।।


 


एक तुम्हारी हमें आसरा।


देना माँश्री सदा सहारा।।


 


रचनाकार:डॉ0रामबली मिश्र हरिहरपुरी


 डॉ बीके शर्मा

जैसे गई हो लौट के आना


 


 जैसे गई हो लौट के आना


 बिना कहे तुम फिर ना जाना


 आत्म तत्व तुम मेरे उर का


 टूटे ना बंधन वादा निभाना


 जैसे गई हो लौट के आना -1


 


विचलित करती उर को पल पल 


तुम ही धड़कन तुम ही हल चल


है कब का दिल ने तुमको माना 


जैसे गई हो लौट के आना -2


 


मैं नाविक लहरों से लड़ाई 


कभी पथिक बन करता चढ़ाई 


चाहता रहा में लक्ष्य को पाना


जैसे गई हो लौट के आना-3


 


क्यों करती हो हेरा फेरी 


तुम ही गीत गजल हो मेरी


चाहती हो क्यों दिल को दुखाना 


जैसे गई हो लौट के आना-4


 


गगन से ज्यादा उर था मेरा 


करती थी तुम जिस में बसेरा 


तुम रुठे तो रुठे जमाना 


जैसे गई हो लौट के आना-5


 


अब आओ इंतजार तुम्हारा


 तुम जीत गई मैं तुम से हारा 


अब न करना कोई बहाना 


जैसे गई हो लौट के आना-6


 


 डॉ बीके शर्मा


 उच्चैन भरतपुर राजस्थान


 


डॉ. हरि नाथ मिश्र

रिम-झिम बरसात


 रिम-झिम हो बरसात,


नहीं पिया यदि साथ-कहो,क्या रह पाओगे?


सावन की हो रात,


नहीं पिया यदि साथ-कहो,क्या रह पाओगे?


    मेघ-गरजना से दिल दहले,


     बिजली आँख मिचौली खेले।


      लिए विरह-आघात-कहो, क्या रह पाओगे?


धरती ओढ़े धानी चुनरिया,


बलखाती-इठलाती गुजरिया।


वन-उपवन भरे पात-कहो, क्या रह पाओगे?


      सन-सन बहे पवन पुरुवाई,


       कारी बदरिया ले अँगड़ाई।


       सिहर उठे तन-गात-कहो, क्या रह पाओगे?


बस्ती-कुनबा, गाँव-गलिन में,


बाग़-बग़ीचा, खेत-नदिन में।


क़ुदरत की सौग़ात-कहो, क्या रह पाओगे?


     अनुपम प्रकृति-प्रेम-रस बरसे,


      निरखि-निरखि जेहि हिय-चित हर्षे।


      विह्वल मन न आघात-कहो, क्या रह पाओगे?


 


         ©डॉ. हरि नाथ मिश्र                                         9919446372


डॉ0 रामबली मिश्र

श्वेतपोश अपराध न करना


 


श्वेत वस्त्र में भले टहलना।


श्वेतपोश अपराध न करना।।


 


श्वेतपोश को दूषित मत कर।


श्वेत वस्त्र को प्रोन्नत करना।।


 


श्वेत वस्त्र पर काला धब्बा।


नहीं पोत कर कभी मचलना।।


 


श्वेत वसन गौरवशाली है।


इस गौरव को कायम रखना।।


 


यह कुलीनता का प्रतीक है।


पहनावे की रक्षा करना।।


 


बुरा कर्म मत करना वंदे।


मर्यादा का पालन करना।।


 


तड़क-भड़क कपड़े के पीछे।


पाप कर्म को कभी न करना।।


 


श्वेतपोश अति सात्विक पावन।


निर्मल मन को स्थापित करना।।


 


धोखा देना नहीं किसी को।


नहीं किसी का शोषण करना।।


 


श्वेतपोश ही ब्रह्म वस्त्र है।


ब्रह्मदेव से डरते रहना।।


 


यह समाज की ब्रहमण संस्कृति।


उच्च भाव को नियमित करना।।


 


है समाज का उच्चासन यह।


नहीं कलंकित इसको करना।।


 


श्वेत वस्त्र धारण कर प्यारे।


शुभ शिव प्रिय कृति रचते रहना।।


 


:डॉ0रामबली मिश्र हरिहरपुरी 


9838453801


कालिका प्रसाद सेमवाल

मां सरस्वती


**********


हे मां सरस्वती,


तू प्रज्ञामयी मां


चित्त में शुचिता भरो,


कर्म में सत्कर्म दो


बुद्धि में विवेक दो


व्यवहार में नम्रता दो।


 


हे मां सरस्वती


हम तिमिर से घिर रहे,


तुम हमें प्रकाश दो


भाव में अभिव्यक्ति दो


मां तुम विकास दो हमें।


 


हे मां सरस्वती


विनम्रता का दान दो


विचार में पवित्रता दो


व्यवहार में माधुर्य दो


मां हमें स्वाभिमान का दान दो।


 


हे मां सरस्वती


लेखनी में धार दो


चित्त में शुचिता भरो,


योग्य पुत्र बन सकें


ऐसा हमको वरदान दो।।


*****************


कालिका प्रसाद सेमवाल


मानस सदन अपर बाजार


रुद्रप्रयाग उत्तराखंड


सुनील कुमार गुप्ता

     जीवन में


इतनी न होती चाहत मन में,


जो पूरी होती न जीवन में।


भटकन ही भटकन होती यहाँ,


शांति न होती कभी जीवन में।।


त्यागमय जीवन भी फिर यहाँ,


दे न पाता कोई सुख मन में।


स्वार्थ संग डूबा साथी यहाँ,


दे न पाता वो अपनत्व जग में।।


संबंधों की गरिमा संग जो,


चलते साथी संग जीवन में।


चाहत कोई रहती न साथी,


अधूरी होती जो जीवन में।।


 


सुनील कुमार गुप्ता


राजेंद्र रायपुरी

ज्ञाता भूत-भविष्य के 


 


ज्ञाता भूत-भविष्य के, 


                दिखें न अबअखबार।


करने बाधा दूर जो,


                 रहते थे तैयार। 


रहते थे तैयार,


                हमेशा जैसे घोड़ा।


 देकर झाॅ॑सा जेब,


               जिन्होंने खूब निचोड़ा।


कोरोना की मार,


              पड़ी उनको भी भाई।


निज़ भविष्य तो बाॅ॑च, 


             कहे अब रोज लुगाई।


 


             ।। राजेंद्र रायपुरी।।


नूतन लाल साहू

माटी की महिमा


माटी का कोई भेद न जाने


माटी है अनमोल


माटी से है, बाग बगीचा


माटी से नदिया तरिया


धूप छांव,माटी की माया


माटी है बेजोड़,जगत में


माटी का कोई भेद न जाने


माटी है अनमोल


माटी में ही जल है


माटी में ही अन्न उपजत हे


माटी में ही हीरा मोती जवाहरात


माटी में ही जीवन मंगल है


माटी का कोई भेद न जाने


माटी है अनमोल


माटी में ही, बारी अउ बखरी


माटी में ही खेत खलिहान


माटी में ही संसार बसा है


मानव जीवन में भी,माटी का अंश है


माटी का कोई भेद न जाने


माटी है अनमोल


माटी में ही, किसम किसम के फूल फूले है


माटी की महिमा,न्यारी है


माटी में ही भालू अउ कोलिहा


जंगल में मंगल होत है


माटी का कोई भेद न जाने


माटी है अनमोल


ये माटी न तेरी है,ये माटी न मेरी है


माटी के नाम से ही,आपस में लड़ जाते हैं


माटी में ही मंदिर मस्जिद


माटी से ही,भगवान का मूर्ति बना है


माटी का कोई भेद न जाने


माटी है अनमोल


नूतन लाल साहू


डॉ निर्मला शर्मा

राजाराम 


युगो युगो से विराजे ह्रदय में


 करते सबकी नैया जो पार 


कलयुग में फिर से लौटे हैं 


अवध के भाग्य खुले हैं आज 


शमन किया राक्षसों का डटकर  


 धरती को दिया शांति का उपहार 


मर्यादा पुरुषोत्तम बनकर दिखलाया 


दुनिया को कल्याण का मार्ग 


वन, उपवन, नगरी ,देवालय 


सभी में गूंजे राम का नाम


 दशरथ सुत कौशल्या नंदन 


अवध पधारे सीताराम


 लड़ी लड़ाई लंबी हर युग में 


 किया विश्व में न्याय का संधान


 दीप जलाओ मंगल गाओ 


अवध में आए राजा राम 


तर्क वितर्क की लंका ढह गई 


मिला राम को कानूनी अधिकार 


परम ब्रह्म वो अगम अगोचर


 हर मन में उनका आधार 


प्राणी मात्र की सांसो में बसे हैं 


रघुपति राघव राजा राम 


डॉ निर्मला शर्मा


 दौसा राजस्थान


एस के कपूर श्री हंस

 शीर्षक - अहम अहंकार


 


मुक्तक. 1. 


सच से दूर. हर बात में


नई सजावट आ गई है।


रिश्तों में कुछ. नकली सी


अब बनावट आ गई है।।


मन भेद मति भेद आज


बस गये हैं भीतर तक।


कैसे करें यकीं कि यकीन


में भी मिलावट आ गई है।।


 *गरूर अभिमान मिटा देता है*


*तेरे निशां।*


*मुक्तक. 2. ।*


तुम्हारा चेहरा बनता कभी तेरी


पहचान नहीं है।


अभिमान से मिलता किसी को


कभी सम्मान नहीं है।।


लोग याद रखते हैं तुम्हारे दिल


व्यवहार को ही बस।


न जाने कितने सिकंदर दफन


कि नामो निशान नहीं है।।


 *न जाने कौन सी राह चल रहे।*


*मुक्तक. 3. ।*


जाने हम कहाँ से कहाँ 


अब आ गये हैं।


ईर्ष्या की दौलत को हम


आज पा गये हैं।।


सोने. के निवालों से अब


अरमान हो गए।


आधुनिकता में भावनायों


को ही खा गए हैं।।


 


एस के कपूर श्री हंस


बरेली।


मो 9897071046


            8218685464


डॉ0 हरि नाथ मिश्र

चौथा अध्याय (श्रीकृष्णचरितबखान)-1


 


सोरठा-पुनि कह मुनि सुकदेव,सुनहु परिच्छित धीर धरि।


          जब लवटे बसुदेव, भवा कपाटहिं बंद सभ।।


सिसू-रुदन सुनतै सभ जागे।


कंसहिं पास गए सभ भागे।।


   देवकि-गरभ सिसू इक जाता।


    कहे कंस तें सभ यहि बाता।।


पाइ खबर अस धावत कंसा।


गे प्रसूति-गृह ऐंठत बिहँसा।।


    लड़खड़ात पगु अरुझे केसा।


    कुपित-बिकल मन रहा नरेसा।।


काल-आगमन अबकी बारा।


सोचत रहा करब संहारा।।


   कंसहिं लखि कह देवकि माता।


    पुत्र-बधुहिं सम ई तव भ्राता।


कन्या-बध अरु स्त्री जाती।


नृप जदि करै न बाति सुहाती।।


    सुनहु भ्रात ई बाति हमारी।


    कहहुँ तमहिं तें सोचि-बिचारी।।


तेजवंत मम बहु सुत मारे।


तुम्हतें बचन रहे हम हारे।।


     अहहुँ लघू भगिनी मैं तोरी।


     बिनती करउँ न छोरउ छोरी।।


पापी रहा कंस बड़ भारी।


सुना न बिनती अत्याचारी।।


   झट-पट तुरतहिं लइकी छीना।


   किया देवकिहिं सुता बिहीना।।


दोहा-निष्ठुर-निर्मम कंस बहु,सुना न देवकि-बात।


       दियो फेंकि कन्या गगन,बरनन कइ नहिं जात।।


                      डॉ0 हरि नाथ मिश्र


                        9919र46372


डॉ0 हरि नाथ मिश्र

तृतीय चरण (श्रीरामचरितबखान)-1


 


देवाधिदेवम् गिरिजापतिम,कण्ठ गरल धारकम।


भालचंद्र अलंकृतम, देवसरिताम शिरसि वाहकम।।


कर्पूर गौर गातम, उर व्याल हार शोभितम।


नमाम्यहम महेश्वरम, रामप्रियम श्रीशंकरम।।


 


नमाम्यहम रघुनंदनम,इक्ष्वाक्कुलस्य भूषणम।


पीत वस्त्र धारकम,तापस जटा सुशोभितम।।


कटौ तूणीर वाहकम,पाणौ धनुष्च सायकम।


श्यामल शरीर शोभितम,पंकज विशाल लोचनम।


सानुजेन पत्नि-पथिगतम,श्री रामचंद्र सुंदरम।


नमाम्यहम-नमाम्यहम,नमाम्यहम-नमाम्यहम।।


जाको नेह नहीं प्रभु-चरना।


ताको मिलै कहीं नहिं सरना।।


    एकबेरि रघुबर बन माहीं।


    भूषन कुसुम सीय पहिनाहीं।।


बैठी फटिक-सिला सिय माता।


सुंदर छबि रह सुंदर गाता।।


    सुत इंद्रइ जयंत लखि सीतहिं।


    प्रभु-बल परखन आवा तुरतहिं।।


काग भेष धरि आय जयंता।


चोंच मारि सिय उड़ा तुरंता।।


    सीय-रुधिर रघुबर जब जाने।


    धरि धनु सींक बान संधाने।।


जदपि राम सभ जन हितकारी।


पर प्रभु करहिं दलन अपकारी।।


     ब्रह्म-बान प्रभु तेहिं पे झोंका।


     पावे सठ नहिं कतहूँ मोका।।


भागै बिकल होय भयभीता।


तिनहुँ लोक नहिं पावै मीता।।


    कोउ न हो सहाय प्रभु-द्रोही।


    जग नहिं सरन राम-बिद्रोही।।


देखि बिकल तब नारद कहहीं।


तव सहाय सठ कोउ नहिं करहीं।।


    तुरत जाहु तुम्ह प्रभु के पाहीं।


    सरन मिलै बस रामहिं छाहीं।।


तुरतयि जाइ गहेसि प्रभु-चरना।


रच्छ माम् कहि माँगा सरना।।


    जग जानै प्रभु-कृपा-सुभावा।


    कबहुँ न प्रभु मा कृपा-अभावा।।


दोहा-कृपा निधानइ प्रभु-कृपा,बहुत मिलै नहिं थोड़।


        एक नयन करि जयंतहिं,दियो प्रभू तेहि छोड़।।


         पाप जयंतहिं जदपि बड़,छिमा करन नहिं जोग।


         पर तिसु आरत बानि सुनि, दीन्ह नयन इक भोग।।


                     डॉ0 हरि नाथ मिश्र


                      9919446372


डॉ वीके शर्मा

तुम तो हो प्रिय दुश्मन मेरे 


तुम ही बसते तन मन मेरे 


तृष्णा बनकर क्यों हो जलाते 


क्यों तपते और हमें हो तपाते 


कैसे हो तुम साजन मेरे


तुम तो हो प्रिय दुश्मन मेरे ||-1


 


देख रहे हो यूं नजरों से


लगते क्या हम बेकद्रों से


हम तो भक्त परायण तेरे


तुम तो हो प्रिय दुश्मन मेरे ||-2


 


पाया है जो दिया है तुमने 


किया ग्रहण क्या त्यागा हमने 


यह तो है सब साधन तेरे


तुम तो हो प्रिय दुश्मन मेरे ||-3


 


तुम से वचन है तुम से लगन है 


तुमसे तन है तुम से ही मन है 


तुम ही सर्व सनातन मेरे 


तुम तो हो प्रिय दुश्मन मेरे ||-4


 


डॉ वीके शर्मा 


उच्चैन भरतपुर राजस्थान


9828863402


डॉ0 निर्मला शर्मा

गुरु शिष्य का भाग्य विधाता


गुरु शिष्य का भाग्य विधाता


 जीवन के गुर वही सिखलाता


 अक्षर वर्ण का ज्ञान हो चाहे जीवन का


 हर सबक सिखलाता है


क्या अच्छा है क्या चुनना है 


अनुभव शिष्य को वही करवाता


पथरीली राहों पर चलना 


साध कदम कैसे है निकलना


कदमों की चापों को समझना 


दिशा निर्देश वो ही करवाता


गुरु आशीष मिले जब शिष्य को


वह हर संकट से तर जाता


गढ़ता सुघड़ व्यक्तित्व बुद्धि से 


शिष्य की नैया पार कराता


गुरु शिष्य के जीवन में आया 


बनकर उसका भाग्यविधाता


सर्वांगीण विकास करे वह 


स्वार्थ लोभ से वह कतराता


शिष्य में देखे छवि वह अपनी 


उसे राष्ट्र निर्माता बनाता


हो चाणक्य अथवा द्रोणाचार्य


 गुरु वशिष्ठ या परशुराम


आदि शिव जगत गुरु ऐसे 


जिनकी कृपा से मंगल आता


गुरु है शिष्य का भाग्य विधाता।


 


डॉ0 निर्मला शर्मा


दौसा राजस्थान


डॉ0 रामबली मिश्र

श्रद्धेया को नित्य नमन कर


 


आदि शक्ति का सदा भजन कर।


श्रद्धेया को नित्य नमन कर।।


 


आदि शक्ति माँ सहज शारदा।


ज्ञान शक्ति को सदा ग्रहण कर।।


 


माँ सरस्वती दिव्य अमृता।


परम शान्त धवल अति सुन्दर।।


 


महा विनम्र सरस रस धारा।


सकल रसमयी सुधा समन्दर।।


 


धैर्यधारिणी विज्ञ सुविद्या।


सदा व्योममय धर्मधुरंधर।।


 


कर्मयोगिनी प्रिय सत्कर्मी।


प्रेमवाहिनी प्रीति निरंतर।।


 


प्रेम-भक्ति अरु ज्ञान त्रिवेणी।


महा प्रयागराज नित प्रियवर।।


 


क्षमा करो माँ दया दान दो।


जागे सबमें भाव परस्पर।।


 


:डॉ0रामबली मिश्र हरिहरपुरी 


9838453801


अमित दवे

सरल सहज वह जीवन जीता,


हर्ष क्षोभ में न विचलित होता,


नव ही नव नित करता जाता,


गुरु शिष्य का भाग्य विधाता।।


 


नित अनगढ़ माटी गढ़ता जाता,


तानाबाना वह सपनों का बुनता,


पर निज की नहीं गणना करता,


हाँ.गुरु शिष्य का भाग्य विधाता।।


 


रीति नीति का वह पाठ पढ़ाता,


सहज ही जीवन में साँसें भरता,


पथ जगत् में नित वही बतलाता,


सच!गुरु शिष्य का भाग्य विधाता।


 


©अमित दवे,खड़गदा


सुषमा दीक्षित शुक्ला

तुम बिन कौन उबारे 


 


थोड़ी सी मुस्कान कन्हैया ,


जग को दे दो प्यारे ।


हर कोई है व्यथित यहाँ तो ,


 अपने दुख से हारे।


 इस धरती पर आकर खुद,


 तुमने भी दुख क्रूर सहे ।


 कारागृह में जन्म लिया ,


निज मात-पिता से दूर रहे ।


नंद यशोदा के लाला बन ,


ग्वाल बाल संग मेल किया ।


 गोपी गइया मोर मुरलिया ,


 इन सब के संग खेल किया ।


राधा के कान्हा तुमने ,


अमर प्रेम इतिहास किया ।


नंद यशोदा के लाला बन 


रक्त नात को मात दिया ।


मैत्री का इतिहास रचाया ,


दीन सुदामा मीत बनाकर।


 उनके दुख दारिद्र्य मिटाया ,


 अद्भुत प्रेम निछावर देकर।


दुष्ट कंस पापी को मारा ,


 सब की सघन सुरक्षा की।


 गोवर्धन पर्वत करे धारण,


 शरणागत की रक्षा की ।


दुष्ट दैत्य पूतना बकासुर 


एक एक कर सब मारे ।


अब दुखों का नाम मिटा दो ,


राधा जी के तुम् प्यारे ।


बने सारथी जब अर्जुन के ,


कर्म योग संदेश दिया ।


स्वयं जटिल जीवन जीकर भी ,


 गीता का उपदेश दिया।


 तड़प उठी मानवता अब ,


ये केवल तुम्हें पुकारे ।


तुम बिन मेरे कान्हा ,


  अब ये नइया कौन उबारे ।


थोड़ी सी मुस्कान कन्हैया ,


जग को दे दो प्यारे ।


हर कोई है व्यथित यहाँ तो ,


अपने दुख से हारे ।


 


सुषमा दीक्षित शुक्ला


रवि रश्मि अनुभूति

उड़ते पक्षियों की हमने तो , चाल सदा पहचानी है ..... 


जो भी न समझे वही उसकी , ये तो नादानी है ..... 


 


हौसला रख कर ही तो सुनो , भरते हैं उड़ान ही वो 


उड़ते - उड़ते रहे देखते , सारा जहान ही वो 


दुनिया सुनो पंछियों की ही , हुई सदा दीवानी है ..... 


जो भी न समझे वही उनकी , ये तो नादानी है .....


 


पंछी प्यारे हैं रह सकते , नहीं कभी बंधन में  


खुश होते हैं आ कर ही तो , सारे ही आँगन में 


साथ पंछियों का तो लगता , बहुदा रूहानी है .....


जो भी न समझे वही उनकी , ये तो नादानी है .....


 


घोंसला बना घर में सुन लो , आते - जाते ही हैं 


जब मर्ज़ी वो जाते हैं जब , हो मर्ज़ी आते हैं 


कितनी ज़िदादिल सदा उनकी , रही ये रवानी है ..... 


जो भी न समझे वही उनकी , ये तो नादानी है .....


 


उड़ते पक्षियों की हमने तो , चाल पहचानी है .....


जो भी न समझे वही , उसकी नादानी है .....


 


(C) रवि रश्मि 'अनुभूति '


   मुंबई ( महाराष्ट्र ) ।


सुनील कुमार गुप्ता

गुरु शिष्य का भाग्य विधाता


जाने जग मे सब साथी,


गुरु बिन ज्ञान नहीं-


जीवन मे कही सम्मान नहीं।


गुरु ही शिष्य का भाग्य विधाता,


इसमें कही कोई -


साथी अभिमान नहीं।


माँ जीवन की प्रथम गुरु,


देती जीवन संस्कार-


फिर भी मिलता उसे सम्मान नहीं।


गुरु चरणो में बैठ जो साथी,


करे सम्मान पाता ज्ञान -


बनता जीवन में महान वहीं।


गुरु का स्थान प्रभु से भी ऊँचा,


देता वही प्रभु मिलन की-


साथी दिशा सही।


भटकते कदमो को दे दिशा,


दे सच्चा ज्ञान-


सद् गुरु की पहचान यही।


गुरु ही शिष्य का भाग्य विधाता,


सत्य है ये तो-


इसमे कही दो मत नहीं।।


 


 सुनील कुमार गुप्ता


संजय जैन

लूटकर सब कुछ अपना


तेरी शरण मे आया हूँ।


अब दवा दो या ये जहर


ये तेरे पर निर्भर करता है।


तेरी रहमत पर ही जिंदा हूँ


इसलिए तेरा आभारी हूँ।


और जिंदगी को अब 


धर्मानुसार जी रहा हूँ।।


 


न कोई किसी का होता


न कोई कोई रेहम करता है।


मिलता जिसको भी मौका


क्या अपना और पराया।


वो किसी को भी 


लूटने से नहीं चुकता है।


और धन को महत्व देकर


रिश्तों को भूल जाता है।।


 


आज कल इंसानों को


जानवरो से कम डरता है।


पर इंसानों से सबसे ज्यादा 


खुद इंसान डरता है।


क्योंकि अब इंसान और


इंसानियत पूरी मर चुकी है।


इसलिए वो अब अकेला 


जीना पसंद कर रहा है।।


 


जय जिनेन्द्र देव 


संजय जैन (मुम्बई)


डॉ0 हरि नाथ मिश्र

द्वितीय चरण (श्रीरामचरितबखान)-45


 


केहि बिधि हो सभ काजु सुचारू।


सभ मिलि आपसु करहिं बिचारू।।


     करि सुचारु सभ काजु प्रणाली।


     भरत गए गुरु-धामहिं हाली।।


गुरु-आयसु,मति-बुधि अनुसारा।


नंदिग्राम तब भरतु पधारा।।


    कास-साँधरी,राम-खड़ाऊँ।


    तापसु-भेष भरत तहँ जाऊँ।।


निर्मित करि तहँ परन-कुटीरा।


नेम-बरत जस संत-फकीरा।।


     रहहिं भरत अब नंदीग्रामा।


     राम-पादुका रखि ऊँचि धामा।।


निसि-दिन सुति-उठि साँझ-सकारू।


पूजैं प्रति-दिन पाँव-पाँवरू।।


     लइ आदेस राम-पादुका कै।


     करैं प्रसासन अवधपुरा कै।।


नेम-धरम अरु ब्रत-उपवासा।


दूबर भरत न हो बिसुवासा।।


      घटै बदन-बल,मुख-छबि वैसै।


       बिमल चंद्र-छबि पातर जैसै।।


अवधपुरी अति पुरी सुहावन।


बासन-बसन,असन अरु आसन।


     सभ बिधि लागै अमरपुरी जस।


     धन-कुबेर तरसैं लखि-लखि तस।।


अस सुख-सुविधा तजि रामानुज।


रहहिं गाँव लइ तप-बल निज भुज।।


      दसरथपुरी भरत जनु ऐसे।


       जल बिनु पिए मीन जल जैसे।।


जटा-जूट सिर,तापस-पट मा।


हरषहिं सुरन्ह देखि निज मन मा।।


      धरम-धुरंधर,नीयम-पालक।


      राज-काजु-भारहिं सिर धारक।।


भरत निरंतर करहिं प्रसासन।


राम-नाम धारे अनुसासन।।


     राम-पादुका सतत निहारैं।


     सुमिरि राम कहँ दिवस गुजारैं।।


दोहा-भरत-प्रेम जग-प्रेम कै,सभ जन करहु बिचार।


         भरत-जनम के कारनहिं,जग-त्रुटि होय सुधार।।


                         डॉ0हरि नाथ मिश्र


                          9919446372


डॉ0 हरि नाथ मिश्र

तीसरा अध्याय (श्रीकृष्णचरितबखान)-8


 


रह अचेत सोवत पुरवासी।


नंदहिं गोकुल गाँव-निवासी।।


    अस लखि तब बसुदेवा तुरंता।


    जसुमति-खाटहिं रखि भगवंता।।


तहँ तें लइ कन्या नवजाता।


बंदीगृह आए जहँ माता।।


    कन्या सुता देवकी-सैया।


     जसुमति-खाटहिं किसुन कन्हैया।।


निज पगु बँधि बेड़ी-जंजीरा।


गए बैठि तहँ धरि हिय धीरा।।


    सकीं न जानि जसोदा माता।


    कइसन अहहि तासु नवजाता।।


लइका अथवा लइकी अहही।


माया-जोग अचेतइ रहही।।


दोहा-जे केहु धारन प्रभु करै, हिय रखि प्रेम अपार।


         जग-बेड़ी-बंधन कटै,जाय सिंधु-भव पार।।


         जमुन-नाम कृष्ना अहहि,कृष्न जमुन कै नीर।


         अस बिचार करि जमुन-जल,कृष्न हेतु भे थीर।।


        सूर्यबंस मा जब रहा,राम प्रभुहिं अवतार।


        चंद्र पिता बाँधे रहे,सागर-नीर अपार।।


        चंद्रबन्स अब प्रभु अहहिं, सुता अहहुँ मैं भानु।


        अस बिचार जमुना भईं,थीर प्रभुहिं पहिचानु।।


        कहहिं जगत-सत्पुरुष सभ,रख जे हिय भगवान।


        लहहि अलौकिक सुख उहहि,रहइ उ पुरुष-प्रधान।।


       ह्रदय प्रभुहिं रखि जमुन-जल,भे पुनीत जल-नीर।


       करतै मज्जन जेहि मा,सुचि मन होय सरीर।।


                   डॉ0हरि नाथ मिश्र


                     9919446372


कालिका प्रसाद सेमवाल

हे मां वीणा धारणी


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हे मां शुभ्र वस्त्रधारिणी,


दिव्य दृष्टि निहारिणी,


 हे मां वीणा धारणी ,


पाती में वीणा धरै,


तू कमल विहारिणी।


 


पवित्रता की मूर्ति तू,


सद् भाव की प्रवाहिनी,


हे मां सुमति दायनी,


ज्ञान का वरदान दे,


मैं प्रणाम कर रहा हूँ।।


******************


कालिका प्रसाद सेमवाल


मानस सदन अपर बाजार


रूद्रप्रयाग उत्तराखंड


राजेंद्र रायपुरी

न जाना मुझे छोड़ करके बहाना।


किया था जो' वादा सनम तुम निभाना।


 


सहारा न कोई तुम्हारे सिवा है,


पड़ेगा मुझे क्या तुम्हें ये बताना।


 


 


नहीं जी सकूॅ॑गी तुम्हारे बिना मैं,


सदा याद रखना इसे मत भुलाना।


 


तुम्ही चाॅ॑द मेरे तुम्हीं तो हो' सूरज,


तुम्हारे बिना तो न कुछ भी ज़माना।


 


बसाया नज़र में मुझे ये सही है,


मगर अब न नज़रों से मुझको गिराना।


 


ख़ुदा की कसम तुम ख़ुदा ही हो' मेरे,


गुज़ारिश यही हर बला से बचाना।


 


नहीं और ख़्वाहिश ख़ुदा की कसम है,


सिवा ये जनाज़े को कंधा लगाना।


 


              ।। राजेंद्र रायपुरी।।


सुनील कुमार गुप्ता

सार्थक होता जीवन अपना,


पल-पल देखे ऐसा सपना।


सत्य-पथ पर चल कर साथी,


यहाँ रूठे न कोई अपना।।


मिले अपनत्व अपनो से साथी,


सच हो जाये जीवन सपना।


प्रेम-सेवा और त्याग संग,


सार्थक होता जीवन अपना।।


स्वार्थ की धरती पर फिर से,


बने न कोई साथी अपना।


त्यागमय होता जो जीवन,


सार्थक होता तन-मन अपना।।


 


 सुनील कुमार गुप्ता


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