सुनीता असीम

इश्क करके छिपा नहीं सकता।


औ किसीको बता नहीं सकता। 


***


दिल की बातें किसे कहूँ मैं भी।


हर किसीको सुना नहीं सकता।


***


ग़मजदा जो रहे सदा ही तो।


उसके दुख को बढ़ा नहीं सकता।


***


वो किसी और की अमानत है।


उसको अपना बना नहीं सकता।


****


जो समझदार खुद को समझे है।


कोई उसको पढ़ा नहीं सकता।


***


सुनीता असीम


डॉ0 रामबली मिश्र

इन्तजार


 


अपना काम छोडकर,


दूसरे का इंतजार क्यों कर रहे हो?


अपना काम रोककर,


दुसरे से अपेक्षा क्यों कर रहे हो?


दुसरे से आशा कर,


अपनी उपेक्षा क्यों कर रहे हो?


नादान दोस्त!


अगर तुम अपना काम करते 


और आगे बढ़ते रहते ,


तो तुम आगे होते 


सफलता के शीर्ष पर होते।


दूसरों के चक्कर में,


तुमने अपना सब कुछ मिटा दिया 


अपनी तमन्ना को धूल चटा दिया।


अब रो रहे हो 


जंगल में हो 


कोई सुननेवाला नहीं 


कोई आँसू पोंछनेवाला नहीं।


अगर तुम खुद को देखते 


तो आज आज आदर्श बनते।


पर अफसोस!


आज तुम सीमान्त हो 


भयाक्रांत हो।


डरे हो न 


मरे हो न 


अपने कारण 


अकारण 


चलो 


अब तो सोचो 


अब भी समय है 


चेत जाओ तो अच्छा है 


अन्यथा सब बुरा है।


 


: डॉ0 रामबली मिश्र हरिहरपुरी 


9838453801


डॉ0 रामबली मिश्र

आत्मतोष


बहुत बड़ी चीज है यार।


साक्षात ईश्वर का प्यार।।


इससे अधिक तो कुछ नहीं।


सबसे बड़ा तो है यही।।


यह मिला तो सब कुछ मिला।


नहीं मिला तो बहुत गिला।।


पाया यह तो सब पाया।


तब फीकी-फीकी माया।।


 


:डॉ0रामबली मिश्र हरिहरपुरी 


प्रिया चारण

 में लिखने का शोक रखती हूँ 


 


में लिखने का शोख रखती हूँ ,,।


पर क्या? लिखूं , लिखने से डरती हूँ,,।


मैं अपने कुछ जज़्बात अपने अंदर ही रखती हूँ ।


ल मैं लिखने से डरती हूँ , पर अंदर ही अंदर ,


सबसे छिपकर छिपाकर इतिहास रचती हूँ ।


 


मैं लिखने का शोक रखती हूँ ,,।


पर क्या ?लिखूं लिखने से डरती हूँ ।


मैं हर रोज़ उडान तो भरती हूँ, पर ज़माने से डरती हूँ ,,,।


 


क्या कहेंगे लोग, यहाँ सबकी है ,यही सोच


इस सोच से हर शाम बिखरती हूँ ।।


 


में लिखने का शोख रखती हूँ,


पर क्या? लिखूं लिखने से डरती हूँ ,,।।


मैं खुदको हार कर भी, 


दुनिया को जीतने का शोख़ रखती हूँ ।


नन्ही चिड़िया सी हुँ , घोसले को खोने से डरती हूँ ,,,


फिर भी दाना लेने को हर सवेरे उडान भरती हूँ ।।


 


मैं लोखन का शोख़ रखती हूँ 


पर क्या? लिखूं लिखने से डरती हूँ ।।


 


प्रिया चारण


सुनील कुमार गुप्ता

   दर्शन दे भगवान


जन-जन में कण-कण में साथी,


जहाँ दर्शन दे भगवान।


रहे न निर्धन कोई जग में,


सभी हो जाये धनवान।।


विकार न हो तन-मन में साथी,


अपनत्व का हो सम्मान।


परमार्थ में बीते जीवन,


स्वार्थ का न होगा नाम।।


भक्ति पथ संग चलते -चलते,


यहाँ पा जाये वो धाम।


सद्कर्मो संग जीवन पथ पर,


यहाँ दर्शन दे भगवान।।


 


 सुनील कुमार गुप्ता


नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर

बुझे तीर में धार नहीं आती


जंग खाई तलवार में मार नहीं आती।।


जरुरी नहीं की सांसो ,धड़कन का


आदमी ,इंसान जिन्दा हो ।


पुतला भो हो सकता है पुतलों के


कदमो की चाल आवाज नहीं


आती।।


जिन्दा आदमी उद्देश्यों के आसमान में उड़ता बाज़


अवनि की हद हस्ती गरिमा का जाबांज।।


जिसके तरकस के तीर नहीं


बुझते।


जिसके तलवारे जंग नहीं खाती


जिसके उद्देशोयो पथ पर नहीं


आती बाधा जिसके पथ पर अंधेरो का रहता नहीं नामो निशान।।


जिसके कदमों की आहट को लेता


समय काल पहचान


 


जिसकी सक्रियता का वर्तमान


पीढ़ियों का प्रेरक प्रसंग प्रेरणा का


युग में प्रमाण।।


जन्म मृत्यु के मध्य का भेद मिटा


रहता सदा वर्तमान गर चाहो गिनना नाम ।।                       


 


थक जाओगे 


परम् शक्ति सत्ता ईश्वर


की रचना का मानव या ईश्वर 


का प्रतिनिधि पराक्रम का 


परम प्रकाश।।


युग मानव कहती दुनियां 


पता नहीं खुद उसको चल 


पड़ा किस पथ पर धरा धन्य


युग में कहाँ पड़ाव।।


 


चलता जाता निष्काम कर्म के


पथ पर छड़ भंगुर पल दो


पल की सांसो धड़कन के संग


अकेला निर्धारित करने एक


नया आयाम।।


गुजर जाता जिधर से बूत पुतलो


में आ जाता अपने होने का विश्वाश।।


जड़ को भी चेतन कर देता सृष्टि


सार्थक का मानव।


कहता कोई महान कोई कहता


शूरबीर जाने क्या क्या कहती


दुनियां लेकिन निसफिक्र निर्विकार चलता जाता अपनी


धुन में नए जागरण जाग्रति का 


सदा वर्तमान।।                     


 


जिन्दा हो जागती कब्रो की


रूहे शमशान के मुर्द्रे भी जीवित


हो जाते ।


बुझे तीर को देता कोई धार


जंग लगी तलवारों से भी लड़ता


जीवन का संग्राम कभी अतीत


नहीं ह्रदय ह्रदय में जीवित का


आदर भाव युग तेज का शौर्य


सूर्य नित्य निरंतर प्रवाह।।


 


नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर


एस के कपूर श्री हंस

हमारे कर्मों से ही बनता जीवन


पत्थर या सोना है।।


 


मिट्टी का खिलौना और चंद


सांसों का मेहमान है।


जाने किस बात पर अहम


चढ़ रहा परवान है।।


मालूम है कि यह जीवन  


मिलता नहीं बार बार।


क्यों रहता किसी नफरत में


जाने कितना नादान है।।


 


जीवन सत्य को जानो कड़वा


पर लाजवाब है।


हज़ारों मुश्किलें पर ये जीवन


बहुत नायाब है।।


जान लो कि सत्य परेशान हो


सकता पराजित नहीं।


कठोर है अनमोल है नहीं इस


जीवन का कोई जवाब है।।


 


मिट्टी से बना तन एक दिन


तो फना होना है।


मायने जीवन के ही कुछ पाना


और कुछ खोना है।।


दुःख का दस्तावेज और है यह


सुख का संसार भी।


हमारे कर्मों से ही बन जाता


यह पत्थर या सोना है।।


 


एस के कपूर श्री हंस


बरेली।


नूतन लाल साहू

अब के जमाना में


रात दिन हरहर कटकट के


कलजुग ह खरागेहे


अइसन जिनगी ह,का जिनगी ये


अब के समय हा, दुभर होगे


आदमी पन ले,में बिट्टागेव


बमफार के, नहि ते


सुसक सुसक के,रो लेतेव


अइसन लागत हे


कोन अइसन, बइद हे


जोन सब मनखे के दुख हरे


झन आवय,नवा नवा बीमारी ह


अइसन उदीम करे


रात दिन हरहर कटकट के


कलजुग ह, खरागेहे 


अइसन जिनगी ह,का जिनगी ये


हाय समागे, राऊर छागे


भईसा सही कमावत हन


तभो ले पुर नी आवत हे


येती वोती रोटी खातिर


घुमत हन देश विदेश


फुटबाल कस,धक्का खावत हन


तभो ले घर म,करुवा गेहन


रात दिन हरहर कटकट के


कलजुग ह, खरागेहे


अइसन जिनगी ह,का जिनगी ये


अंधविसवास,गरीबी अउ लाचारी


संगे संगे अतियाचारी


सबो सन लड़त हन


दया ममता सलाह सुनता


दिनोदिन कमजोर पड़त हे


पुर वाही के पावन ला, कइसे में मनाव


बगरा दे तैहर, आस के अंजोर


अइसन हावे, ये जिनगी के खेल


रात दिन हरहर कटकट के


कलजुग ह, खरागेहे


अइसन जिनगी ह,का जिनगी ये


नूतन लाल साहू


कालिका प्रसाद सेमवाल

सरस्वती वंदना


************ 


हे मां सरस्वती


तुम प्रज्ञा रूपी किरण पुंज है,


हम तो निपट अंधेरा है मां।


हर दो मां अंधकार तन -मन का,


मां सबकी नयै पार कर दो।


 


मां हमरे अन्दर ऐसा भाव जगाओ,


हर जन का उपकार करे।


हममें जो भी कमियां हैं मां,


उनको हमसे दूर करो मां।


 


पनपें ना दुर्भाव कभी हृदय में,


घर -आंगन उजियारा करो मां।


बुरा न देखें बुरा कहें ना,


ऐसी सद् बुद्धि हमें दे दो मां।


 


मां हम तो निपट अज्ञानी है,


हमको सुमति तुम दे दो मां।


निर्मल करके तन-मन सारा,


सकल विकार मिटा दो मां।


********************


कालिका प्रसाद सेमवाल


मानस सदन अपर बाजार


रुद्रप्रयाग उत्तराखंड


राजेंद्र रायपुरी

दुख और सुख


 


दुख जीवन भर साथ दे,


               सुख की क्या औकात‌।


चाहे जिससे पूछ लो,


               झूठ नहीं यह बात।


 


दुख में ही पहचान हो, 


                कौन- कौन है साथ।


कौन छुड़ाकर चल दिया,


               दुख में अपना हाथ।


 


जीवन में यदि दुख नहीं,


            फिर सुख का क्या मोल।


चाय लगे मीठी कहाॅ॑,


                खाए मीठा बोल। 


 


साथी अपना मान ले,


             जो दुख इस संसार।


वही लगा पाता सुनो, 


                 जीवन नैया पार।


 


            ।। राजेंद्र रायपुरी।।


डॉ0 हरि नाथ मिश्र

चौथा अध्याय (श्रीकृष्णचरितबखान)-2


 


कर तें पकरि सिला पे पटका।


रहा मचावत उहाँ तहलका।।


    पर ऊ कन्या नहीं सधारन।


   देबी-बहिन किसुन-मन-भावन।।


तजि कर कंसइ उड़ी अकासा।


आयुध गहि अठ-भुजा उलासा।।


     चंदन मनिमय भूषन-भूषित।


     माला गरे बसन तन पूजित।।


धनु-त्रिसूल अरु बान-कटारा।


गदा-संख-चक-ढालहिं धारा।।


    सिद्ध-अपछरा-चारन-किन्नर।


    नागहिं अरु गंधरबहिं-सुर-नर।।


अर्पन करत समग्री नाना।


लगे करन स्तुति धरि ध्याना।।


    देबि स्वरूपा कन्या कहही।


    सुनहु कंस तू मूरख अहही।।


मारि मोंहि नहिं तुमहीं लाभा।


कहुँ जन्मा तव रिपु लइ आभा।।


    कहत अइसहीं अन्तर्धाना।


    माया भई जगत सभ जाना।।


देबि-बचन सुनि बिस्मित कंसा।


बसू-देवकी करत प्रसंसा।।


    कहा सुनहु मम अति प्रिय बहना।


    नहिं माना बसुदेव कै कहना।।


बधत रहे हम सभ सुत तोरा।


छमहुँ मोंहि तव भ्रात कठोरा।।


    मैं बड़ पापी-अधम-अघोरा।


   बंधुन तजा रहे जे मोरा।।


होंहुँ अवसि मैं नरकहि गामी।


घाती-ब्रह्म-कुटिल सरनामी।।


     मम जीवन भे मृतक समाना।


     बड़ आतम तुम्ह अब मैं जाना।।


नहिं लावहु निज मन-चित सोका।


पुत्र-सोक बिनु रहहु असोका।।


दोहा-सुनहु बसू अरु देवकी, कहा कंस गंभीर।


        कर्म प्रधानहिं जग अहहि,करमहि दे सुख-पीर।।


       माटी तन बिगड़इ-बनइ, पर रह माटी एक।


       अहहि आतमा एक बस,जदपि सरीर अनेक।।


       जानै जे नहिं अस रहसि,समुझइ नहिं ई भेद।


       बपुहिं कहइ आतम उहहि,आतम-बपु न बिभेद।।


                       डॉ0 हरि नाथ मिश्र


                          9919446372


दयानन्द त्रिपाठी व्याकुल

बिखर गये हैं बन निर्जन से


शिक्षा के सपनों के हीरे-मोती


सबने अब ये ठान लिया है


ढूंढ रहे शिक्षा में जीवन ज्योति।


 


जीवन का सपना पूरा होता है


शिक्षा को जीवन में अपनाते हो


प्रेम तुम्हारा सफल रहा है


यदि शिक्षा में घुल मिल जाते हो।


 


जीवन के तम को धो डाला


शिक्षा के ही हिमजल से


मन के आंगन में दीप


जल रहे तारे झिलमिल से।


 


शिक्षा की पुष्प वाटिका में


यदि भ्रमर बन मंडराते हो


जीवन - उपवन खिल जाता है


व्याकुल अनुराग उर में बसाते हो।



     -दयानन्द त्रिपाठी व्याकुल


       महराजगंज उत्तर प्रदेश।


डॉ0 हरि नाथ मिश्र

तृतीय चरण (श्रीरामचरितबखान)-3


 


अति बिनम्र तब छूईं सीता।


मुनि-पत्नी-पद परम पुनीता।।


    मुनि-पत्नी अनुसुइया हर्षित।


    सीय-रूप लखि बहु आकर्षित।।


देइ असीष निकट बैठाईं।


सीता पा सनेस मुस्काईं।।


     लेइ बसन-भूषन अति नूतन।


     पहिरावहिं सिय हर्षित तन-मन।।


दिब्य बस्त्र धारन करि सीता।


दीखहिं जनु छबि-धाम पुनीता।।


    नारी-धरम सियहिं तब जाना।


    अनुसुइया जब तिन्ह बतलाना।।


बिधिवत नारी-धरम-कहानी।


ऋषि-पत्नी त्रिय-चरित बखानी।।


    कहहिं मातु अनुसुइया सीतहिं।


    आवै काम नारि बहु बिपतहिं।।


बिपति-काल जे धीरज खोवै।


नहिं कोउ मीत तासु कै होवै।।


     धरम बिपति महँ होय सहाई।


     दइ बिबेक मन-चित्त जगाई।।


तुम्ह सम जग मा नहिं कोउ नारी।


नेमी-ब्रती,पती-ब्रत-धारी।।


     तुम्हरो नाम सुमिरि जग नारी।


     रखिहहिं पति-ब्रत सोचि-बिचारी।।


ऋषि-पत्नी सभ कहीं कहानी।


मधुर-सुकोमल-सीतल बानी।।


      सीता-राम-लखन मुनि-चरना।


      छूइ गमन बन चाहहिं करना।।


दोहा-दइ असीष मुनि अत्रि तब,कहहिं सुनहु प्रभु राम।


        भव-सागर जग तीरही, सुमिरि-सुमिरि तव नाम।।


        अंतरजामी राम तुम्ह,जानउ सबकर भेद ।


         धरम-सास्त्र-बिद,नीति-बिद,लिखा रहइ जे बेद।।


                         डॉ0 हरि नाथ मिश्र


                             9919446372


डॉ० प्रभुनाथ गुप्त विवश

भारत की सेना 


 


हम भारत की सेना हैं 


हमसे ना टकराना तुम, 


हम आज के भारत हैं


इसे भूल ना जाना तुम।..... 


 


तुम सेना का हुंकार सुनों 


डटी हुई नभ थल जल में, 


ब्रम्होस, अग्नि, नाग, पृथ्वी 


जो लक्ष्य भेदते हैं पल में।


 


भारत को प्राप्त महारथ है 


खुद को ही समझाना तुम।..... 


 


खड़ा हिमालय रक्षा में है 


सागर कदमों को चूम रहा है, 


देश के खातिर मर मिटने को 


हर हिन्दुस्तानी झूम रहा है। 


 


कतरा-कतरा संहारक है 


दुश्मन को बतलाना तुम।..... 


 


गंगा यमुना ब्रह्मपुत्र राप्ती 


कल-कल नदियाँ बहती हैं, 


सबसे पहले यहाँ पहुँच कर 


सूरज की किरणें कहती हैं। 


 


है शस्य-श्यामला वीर भूमि 


इसको ना आँख दिखाना तुम।...


 


डॉ० प्रभुनाथ गुप्त 'विवश' 


महराजगंज, उ० प्र० 


सारिका विजयवर्गीय वीणा

हाथ में लिए कमान , लड़ने चला है वीर , 


सात महारथियों ने , घेर उसको लिया।


 


छल से बिछाया जाल , करने लगे प्रहार , 


शस्त्रहीन बालक का, वध मिल के किया।


 


जयद्रथ ने लिया था , रोक पांडवों को तब , 


देखते रहे थे भीम , घूंट खून का पिया।


 


रथ का उठा के चक्का , सहे वार अभिमन्यु,


वीर योद्धा वो महान , ये सिद्ध कर दिया।


 


सारिका विजयवर्गीय "वीणा"


नागपुर ( महाराष्ट्र)


डॉ0 हरि नाथ मिश्र

जीवन-सपना पूरा होता,


यदि तुम कहीं नहीं जाते तो।


अपनी प्रीति सफल हो जाती-


तुम यदि प्रीति निभा पाते तो।।


 


और नहीं कुछ माँगे थे हम,


केवल माँगे थे प्यार ज़रा।


नहीं सुने तुम विनय हमारी,


हृद-भाव न जाने प्रेम भरा।


यादें तेरी नहीं सतातीं-


नहीं ख़्वाब में यदि आते तो।


      तुम यदि प्रीति निभा पाते तो।।


 


कितनी प्यारी दुनिया लगती,


प्यारे चाँद-सितारे भी सब।


बाग-बगीचे,वन-उपवन सँग,


झील-नदी-सर-झरने भी तब।


खग-कलरव सँग मधुकर-गुंजन-


अति प्रिय लगते यदि गाते तो।


    तुम यदि प्रीति निभा पाते तो।।


 


राग-रागिनी की धुन मधुरिम,


धीरे-धीरे दिल बहलाती।


कड़क दामिनी गगन मध्य से,


विरह-ज़ख्म रह-रह सहलाती।


हरित भाव सब उर के होते-


बादल बन यदि बरसाते तो।


      तुम यदि प्रीति निभा पाते तो।।


 


पुष्प-वाटिका बिना भ्रमर के,


रीती-रीती सी लगती है।


बिना गुलों के गुलशन की छवि,


फ़ीकी-फ़ीकी सी रहती है।


जीवन-उपवन फिर खिल जाता-


बन भौंरा यदि मँडराते तो।


       तुम यदि प्रीति निभा पाते तो।। प्रिती


 


बिना प्रीति के मानव-जीवन,


बहुत अधूरा सा लगता है।


तम छँट जाता प्रेम-दीप जब,


प्यारा पूरा सा जलता है।


ज्योतिर्मय हो जाता जीवन-


यदि आ दीप जला जाते तो।


     तुम यदि प्रीति निभा पाते तो।।


                 © डॉ0हरि नाथ मिश्र


                    9919446372


सुनीता असीम

दुनिया में रहा जिसका कोई न ठिकाना है।


बेशक है खुदा उसका कहता ये जमाना है।


****


मगरूर हुआ दुश्मन खतरे में वतन है अब।


अपना तो हमें दम भी दुश्मन को दिखाना है।


****


आँखें भी दिखाता है गैरत न बची इसमें।


मैदान में आके इसके छक्के छुड़ाना है।


****


ख्वाहिश नहीं पूरी जिसकी कोई है होती।


भगवान को देता रहता शख्स वो ताना है।


****


क्यूं भूल ये है जाता इंसान यहां आकर।


आया है यहाँ पर जो इक दिन उसे जाना है।


****


सुनीता असीम


काव्य रंगोली आज के सम्मानित रचनाकार संगीता श्रीवास्तव सुमन  छिंदवाड़ा मप्र

नाम - संगीता श्रीवास्तव 'सुमन'


कवयित्री / शायरा  


स्थाई पता - इलाहाबाद उप्र 


 


शिक्षा - पत्रकारिता एवं लोक प्रशासन में स्नातकोत्तर 


विधा - गीत ,ग़ज़ल , मुक्तक आदि


प्रकाशित - एकमात्र काव्य संग्रह 'झरते पलाश'


दो साझा संकलन 


पत्र पत्रिकाओं में गीत ग़ज़लों का नियमित प्रकाशन


आकाशवाणी से काव्य पाठ


सम्प्रति - स्वतंत्र लेखन कार्य से सम्बद्ध 


आकाशवाणी एवं दूरदर्शन हेतु स्वतंत्र लेखन एवं वाचन


 


 


गीतिका /ग़ज़ल ......


 


नदी हूँ मैं रवांँ रहना मेरी फितरत समझ लेना ,


किया कितना सफ़र मेैंने कभी हज़रत समझ लेना |


 


ये चुप्पी और दिल की धड़कनों का शोर कहता है,


मेरी ख़ामोशियों को तुमसे है निस्बत समझ लेना |


 


किसी चेहरे की रंगत से ही होती है ख़बर सबको,


कभी आकर मुझे देखो मेरी हालत समझ लेना |


 


हैं शिद्दत के ही धागों से बटन मैंने सभी टाँके ,


गुलाबी शर्ट जब पहनो मेरी कुरबत समझ लेना |


 


किसी दिन लौटकर आओगे तुम मेरी ही बाहों में ,


यही मेरी अक़ीदत है यही चाहत समझ लेना |


 


ये काले बादलों का झुंड उड़ता जा रहा है जो


गरज कर जब मिले तुमको किया स्वागत समझ लेना |


 


रज़ा जो कुछ तुम्हारी हो तुम्हें मालूम इतना हो , 


सुमन के ख़्वाब की तुम इक हसीं सूरत समझ लेना |


 


@संगीता श्रीवास्तव सुमन 


 छिंदवाड़ा मप्र


 


 


 


गीतिका. /ग़ज़ल


 


मौत से बढ़कर तेरी फुरक़त होती है,


अब जाना क्या चीज़ मुहब्बत होती है |


 


जानती हूँ अब तू है पराया फिर भी क्यूँ,


दिल को हरदम तेरी चाहत होती है |


 


इश्क़ अगर सच्चा हो तो फिर क्या कहना ,


हुस्न की आख़िरकार इनायत होती है |


 


मिट्टी के घर में होती है ये सीरत ,


सब मिलकर रहते हैं बरक़त होती है |


 


पास रहे तो ध्यान नहीं देता कोई,


दूर रहे तो कितनी क़ीमत होती है |


 


सब पे भरोसा कम करना ही है अच्छा ,


रिश्तों में अक्सर ये दिक्कत होती है |


 


सीधे साधे लोगों को ही हाय 'सुमन' 


सारी उलझन सारी गफ़लत होती है |


 


@


संजय जैन

सच्चे रिश्ते


 


अपने बचपन की बातें


आज याद कर रहा हूँ।


कितना सच्चा दिल हमारा


तब हुआ करता था।


बनाकर कागज की नाव,


छोड़ा करते थे पानी में।


बनाकर कागज के रॉकेट,


हवा में उड़ाया करते थे।


और दिल की बातें हम


किसी से भी कह देते थे।


और बच्चों की मांग को


सभी पूरा कर देते थे।।


 


न कोई भय न कोई डर,


हमें बचपन में लगता था।


मोहल्ले के सभी लोगों से


जो लाड प्यार मिलता था।


इसलिए आज भी उन्हें


में सम्मान देता हूँ।


और उन्हें अपने परिवार का


हिस्सा ही समझता हूँ।।


 


जो बचपन की यादों से 


अपना मुँह मोड़ता है।


और उन सभी रिश्तों को


समय के साथ भूलता है।


उससे बड़ा अभागा और


कोई हो नहीं सकता।


जो अपने स्वर्णयुग को 


कलयुग में भूल रहा है।।


 


सगे रिश्तो से बढ़कर 


होते मोहल्ले के रिश्ते।


तभी तो सुख दुख में


सदा ही खड़े हो जाते है।


और अपनों से बढ़कर


निभाते सभी रिश्ते।


इसलिए मातपिता जैसे


वो सभी लोग होते है।


और हमें ये लोग अपने 


परिवार का हिस्सा लगते है।।


 


जय जिनेन्द्र देव


संजय जैन (मुम्बई)


निशा अतुल्य

साक्षरता दिवस 


 


साक्षरता दिवस पर सभी साक्षरों से अनुरोध- आज प्रण नहीं ले सकते तो सोचें जरूर समाज में आपका क्या योगदान है।


 


हाथ में कलम और साथ में डिग्री ही 


साक्षरता अभियान को सफल नही बना सकती । जब तक हर हाथ को काम व बौद्धिक विकास न हो ये अभियान बेमानी है । 


  देश की परिस्थितियां बहुत विकट है क्यों कि 10 वी फेल की तादाद काफ़ी लंबी है जो न मजदूरी करतें हैं ना नौकरी मिलती है अंततः भटक कर नशे की गिरफ्त,चोरी और गुंडागर्दी में अटक कर रहजाते हैं । 


     आज संचार माध्यम सबके लिए सहज सुलभ है, मोबाइल ने जीवन को ओर विकट बना दिया । अब मोबाइल सब की जरूरत बन गया है और नेट आवश्यकता । जिसके चलते नई पीढ़ी भी बिना अक्षर ज्ञान के सब वो देख रही है सीख रही हैं जो सुलभता से उपलब्ध है।


      न जाने ये साक्षरता दिवस कहाँ जा रहा है आज भी सड़को पर कूड़ा बीनने वाले बच्चों की भरमार है जिनके माता पिता इस लिये विद्यालय नही भेजते की वो अपने पेट भरने का साधन स्वयं जुटाता है ।


     सच्ची साक्षरता उस दिन होगी जब हर बच्चा बौद्धिक स्तर से उठेगा और व्यवहारिक ज्ञान के साथ अक्षर ज्ञान ले अपने जीवन को सुधारेगा ।


       उसके लिए शिक्षा प्रणाली में सुधार की आवश्यकता है बिना अक्षर ज्ञान के बच्चे को दुसरीं कक्षा में उत्तीर्ण न किया जाए , कभी कभी शासनिक आदेश नई पीढ़ी के जीवन से खिलवाड़ कर जाता है ।


    अब क्या कहूँ आज विश्व साक्षर दिवस पर बस इतना ही कहना चाहूंगी जो साक्षर हैं एक बार आत्म निरीक्षण करें, अपने आस पास के निरक्षर को साक्षर सच में बनाने में सहयोग करें सिर्फ 1 घण्टा समाज के उन वंचितों को दे जो सच में देश की रीढ़ हैं उन्हें व्यवहारिक ज्ञान के साथ अक्षर ज्ञान दे जीवन स्तर कैसे उठाया जाए, बताया जाए । इसमें प्रबुद्ध जनों की भागीदारी होनी ही चाहिए ।


 


स्वतंत्र लेखन


निशा"अतुल्य"


एस के कपूर श्री हंस

युवायों से ही बनेगा भारत


सोने की चिड़िया जहान का।


 


आसमान को छूना और


तारों से आँख मिलानी है।


बस जाये जो हर दिल में


बात तुम्हें वह बनानी है।।


आप युवा राष्ट्र के


हैं भविष्य निर्माता।


आपको बनानी नायाब


ये अपनी जिंदगानी है।।


 


ऊर्जा,ज्ञान,ध्यान मिला कर


बनाना संसार में नाम है।


आपका दायित्व निर्वहन


से ही बनेगा भारत महान है।।


आपकी जिम्मेदारी ही तो है


धुरी राष्ट्र भविष्य की।


यह समर्पण ही सिद्ध करेगा


कि विश्व गुरु हिंदुस्तान है।।


 


आपकी शिक्षा ही तो आधार


है देश प्रगति मान का।


आपका भविष्य निश्चित


करेगा कार्य राष्ट्र निर्माण का।।


आप बेमिसाल तो देश भी


उभरेगा एक मिसाल बनकर।


तभी बनेगा देश फिर से


सोने की चिड़िया जहान का।


 


एस के कपूर श्री हंस


बरेली।


नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर

अबला नहीं तू शक्ति है


खुद में तू हस्ती है।


वक्त बदल डाले नया इतिहास


रच डाले साहस की सबला 


हिम्मत हौसला तू नारी है।।


जो कुछ भी चाहे हासिल करना


कर डाले तू वीणा पाणी है शौम्य,


विनम्रता ,भाषी परिभाषी हैं तू नारी है।।


क्रोध की ज्वाला में काली दुर्गा


रण चंडी है।


पर्वत की तू बाला तू हाला


मधुशाला मादकता का मर्म


नारी हो।।


कली ,फूल ,खुशियाँ ,खुशबू 


अवनि अवतारी हो ,अवतारों


की धारी हो नारी हो।।


भोली ,नाज़ुक ,नादाँ ,कमसिन


कोमल नूतन कली किसलय


ममता की दरिया सागर हो तुम नारी हो।।


घृणा ,क्रोध ,में काल कराल


संघारी हो तुम नारी हो


देवोँ की ताकत आधी युग


ब्रह्माण्ड सृष्टि की बुनियादी तुम


नारी हो।।


महिमा और महत्व हो गरिमा


गौरव समाज का सत्य हो 


नर की जननी भरणी तरणि तुम


नारी हो।।


 


नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर


कालिका प्रसाद सेमवाल

श्री हनुमान जी के चरणों में


********************


राम दूत तुम सबके रक्षक हो


तुम ही तो बल के धाम हो


हम सब तुमको वंदन करते है


तुम्हारे चरणों में एक फूल चढ़ाते है।


 


तुम ही प्रेम के सच्चे स्वरूप हो


तुम्ही दया के सागर हो


तुम कष्ट हरण नाशक हो


तुम्हारे चरणों में एक फूल चढ़ाते है।


 


तुम ही सबके रक्षक हो


जो भी तुम्हारा नाम जपे


उसकी हर विपदा टली


तुम्हारे चरणों में एक फूल चढ़ाते है।


 


प्रभु श्रीराम के तुम अति प्रिय हो


केसरी नंदन सबको सुमति का दान दो


विद्या विनय का दान दो


तुम्हारे चरणों में एक फूल चढ़ाते है।


********************


कालिका प्रसाद सेमवाल


रूद्रप्रयाग उत्तराखंड


राजेंद्र रायपुरी

तुम ही मेरे राम साजन,


            तुम ही मेरे श्याम हो।


तुम ही शिव हो,तुम ही विष्णु, 


           तुम ही तो बलराम हो।


 


तुम ही मेरे राम साजन,


             तुम ही मेरे श्याम हो।


 


जब तलक तुमको न देखूॅ॑, 


           चैन आता है नहीं।


सच कहूॅ॑ तो तुम बिना, 


          कुछ भी मुझे भाता नहीं।


तुम ही तो हो चैन मेरा, 


           तुम ही तो आराम हो।


 


तुम ही मेरे राम साजन, 


          तुम ही मेरे श्याम हो।


 


मन के मंदिर में बिठाया, 


            है सजन मैऩें तुम्हें।


चाह बस ये देव मेरे, 


            दूर मुझसे मत रहें।


पूजती हर दिन तुम्हें मैं, 


          जब सुबह या शाम हो। 


 


तुम ही मेरे राम साजन, 


          तुम ही मेरे श्याम हो।


 


तुम ही काशी,तुम ही मथुरा,


        तुम ही मेरे द्वारिका‌‌।‌


और कितने नाम लूॅ॑ मैं, 


        है ये लम्बी तालिका।


कुछ ही लफ़्ज़ों में कहूॅ॑ तो, 


        तुम ही चारो धाम हो।


 


तुम ही मेरे राम साजन, 


        तुम ही मेरे श्याम हो।


 


            ।। राजेंद्र रायपुरी।


सुनील कुमार गुप्ता

कहाँ-साथी होगा तेरा?


यौवन की दहलीज़ पर साथी,


भटका फिर जो कदम तेरा।


कैसे-मिलेगी मंज़िल साथी?


कहाँ -थमेगा कदम तेरा?


देख पल पल सपने सुहावने,


कहाँ-होगा साथी तेरा?


यथार्थ धरातल पर जो देखा,


साथी संग चला न मेरा।।


मंगल-अमंगल हो न हो यहाँ,


साथी साथ निभाये तेरा।


साथी-साथी कहते जिसे फिर,


कहाँ-साथी होगा तेरा?"


 


 सुनील कुमार गुप्ता


 


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