विनय साग़र जायसवाल

इस तरह हर इक ख़ुशी है अब मेरे दिल के करीब


जैसे इक मुफ़लिस झिझक जाता है महफ़िल के करीब


 


ज़िन्दगी की उलझनों में घिर गया मेरा वजूद


कोई तो मुश्किल कुशा मिल जाये मुश्किल के करीब


 


इश्क़ का इन्आम है या उनकी नज़रों का करम


इक ख़लिश महसूस होती है मुझे दिल के करीब


 


क्या बिगाड़ेंगी मेरा मोजें तेरे होते हुए


ग़म नहीं तूफान का जब तू है साहिल के करीब


 


कोई भी वादा वफ़ा यूँ वक़्त पर होता नहीं


वक़्त की भी अहमियत क्या मुझसे ग़ाफ़िल के करीब


 


मैं तो आदी हूँ हरिक ग़म से मेरी पहचान है


फिर कोई मुश्किल रहेगी कैसे मुश्किल के करीब


 


किस कदर शर्मिंदा है इन्सान से 


इंसानियत 


कोई रुकता ही नहीं है आज बिस्मिल के करीब 


 


वक़्त के गेसू वो *साग़र* किस तरह सुलझायेगा 


जो मुसाफिर सो गया हो थक के मंज़िल के करीब 


 


🖋️विनय साग़र जायसवाल


डॉ0 हरि नाथ मिश्र

हिंदी भाषा का माहात्म्य


हिंदी-भाषा के बिना,कभी न हो कल्यान।


आवो मिल कर सब करें,हिंदी का सम्मान।।


      हिंदी-भाषा राष्ट्र की,आन-बान औ शान।


      हिंदी में अभिव्यक्ति से,मिलती है पहचान।।


अपनी बोली बोल कर,तन-मन प्रमुदित होय।


मीरा-तुलसी-सूर ने,दिया बीज है बोय ।।


      करें प्रतिज्ञा आज हम,भारत-भाषा हेतु।


       करें पार हम ज्ञान-सर,चढ़ निज भाषा-सेतु।।


हो विकसित समुचित यहाँ, हिंदी-भाषा-ज्ञान।


होवे लेखन-कथन में,हिंदी का गुण-गान ।।


        चाहे हो इंग्लैंड भी,वा अमरीका देश।


         हिंदी का डंका बजे,चहुँ-दिशि,देश-विदेश।।


भारतेन्दु कविश्रेष्ठ ने,दिया चेतना खोल।


हमें कराया स्मरण,निज भाषा अनमोल।।


        उनके प्रति इस देश के,हैं कृतज्ञ सब लोग।


         निज भाषा का दे दिया,सुंदर-अनुपम भोग।।


हिंदी भाषा का हमें,करना है उत्थान।


इससे बढ़कर है नहीं,कोई कर्म महान।।


                  © डॉ0 हरि नाथ मिश्र


                      9919446372


सुनीता असीम

हसीना सिर्फ तुलना चाहती है।


क़सीदे-हुस्न सुनना चाहती है।


***


नहीं देखे वो औरों की तरफ को।


वो आशिक पे ही मरना चाहती है।


***


 नहीं मुंह खोलती करती इशारे।


न जाने क्या वो कहना चाहती है।


***


जो आंखें चार आंखों से हुईं फिर।


वो दिल में भी तो रहना चाहती है।


***


हुई है आशिकों की सिर्फ शामत।


जिसे चाहे वो पाना चाहती है।


***


सुनीता असीम


निशा अतुल्य

जब वाक्य में एक ही शब्द बार बार आता है उसे द्विरिक्ति कहतें हैं 


 


जैसे धीरे-धीरे, होल-होल, लाल-लाल,काले-काले इत्यादि


 


*नारी*


 


नारी धीरे- धीरे चले ,


काले-काले नैन तके ।


होंठ लाल-लाल सजे,


नैन भरे-भरे दिखे ।


 


जब पाँव-पाँव चले 


चल-चल थक रहे ।


साँस तेज-तेज चले


धक-धक दिल करे।


 


हरी-हरी दुब दिखे


ओस नन्ही-नन्ही खिले।


सुख नैन-नैन मिलें ,


धीरे-धीरे हवा चले।


 


गुन-गुन मन करे


धुन सुन-सुन चले ।


तक-तक नैन थके


पल-पल श्याम तके ।


 


निशा अतुल्य


सुनील कुमार गुप्ता 

किसे पता था


"किसे पता था जीवन में,


साथी ऐसा दिन भी-


देखने को आयेगा।


अपने-अपने होगे,


फिर भी-


अपनत्व को तरस जायेगा।


अपने ही घर में साथी,


कैद हो कर -


जीवन बितायेगा।


घर से बाहर जाते हुए भी,


मन पल पल-


डर से घबरायेगा।


सुरक्षित रह कर भी तो,


कोरोना का बढ़ता प्रकोप-


हर किसी को डरायेगा।


अशांति ही अशांति छाई,


इस जीवन में-


कब-तक मन को भरमायेगा?


किसे पता था जीवन में,


 


 साथी ऐसा दिन भी-


देखने को आयेगा।।"


 


          सुनील कुमार गुप्ता 


डॉ0 हरि नाथ मिश्र

तृतीय चरण (श्रीरामचरितबखान)-5


 


पुनः चले आगे प्रभु रामा।


संग सीय, लछिमन बलधामा।।


     ऋषि-मुनि बृंद राम सँग चलहीं।


      प्रभु-संसर्ग परम सुख पवहीं।।


नर-कंकाल-ढेर मग देखा।


प्रभु-हिय खिन्न-बिषाद बिसेखा।।


     भरि जल दृगन मुनिन्ह तें पूछहिं।


      कारन कवन बता बिनु सोचहिं।।


मुनि तब कहे असुर अस करहीं।


जगि करि नासु मुनिन्ह ते मरहीं।।


     सभ कंकाल मुनिन्ह कै हउवै।


      करम निंद्य असुरन्ह कै भउवै।।


तब प्रभु हस्त उठा प्रन करहीं।


निसिचर-नासु अवसि अब भवहीं।।


     सिष्य अगस्ति राम मग मिलही।


     जाकर नाम सुतीछन रहही।।


सिष्य सुतीछन रह बड़ भागी।


राम-दरस पायो बिनु माँगी।।


     बिनु जगि-तप अरु भगति-बिरागा।


     ग्यान-ध्यान-प्रभु-पद-अनुरागा।।


बिनु ब्रत-त्याग-धरम अरु नेमा।


नहिं कोउ पाइ सकत प्रभु-प्रेमा।।


    अस सोचत मग नाचत-गावत।


     दिकभ्रम होइ चलत मुनि धावत।।


अस विह्वल गति जानि मुनी कै।


लइ तरु-ओट लखहिं प्रभु वहि कै।।


     औचक जनु प्रभु धरि हिय ध्याना।


     भे अचेत जनु निकसा प्राना ।।


राम जानि तेहिं बहु झकझोरा।


जागै नहिं मुनि परम कठोरा।।


     प्रेम बिबस प्रभु तिसु हिय प्रगटे।


      रूप चतुर्भुज धरि तिन्ह लिपटे।।


होइ अचंभित मुनि जब जागे।


राम-लखन-सिय देखहिं आगे।।


    परम भागि प्रभु दरसन दीन्हा।


    मों सम दीन भगत प्रभु चीन्हा।।


पुनि मुनि प्रभु-गुन बहुत बखाना।


बिमल भगति बर प्रभु तें पाना।।


दोहा-लेइ लखन-सिय-राम कहँ,आश्रम गए सुतीक्ष्ण।


        रहहिं जहाँ गुरु कुम्भजइ, ब्रह्म-सक्ति-बल तीक्ष्ण।।


        राम कहे मुनि- दरस को,गए बहुत दिन बीत।


        दरस-लाभु मैं पाइ के,मेटहुँ टीस अतीत ।।


        जा सुतीक्ष्ण मुनि अगस्त्य पहँ, कहहि बिनू बिश्राम।


        मुनिवर तव दरसन-ललक,धरि हिय आयो राम।।


                        डॉ0 हरि नाथ मिश्र


                          9919446372


डॉ0 हरि नाथ मिश्र

चौथा अध्याय (श्रीकृष्णचरितबखान)-4


 


गया कंस तुरतै निज गेहा।


मन प्रसन्न अरु पुलकित देहा।।


    निसा-बिगत बुलाइ निज सचिवहिं।


   तिनहिं बताया माया-कथनहिं।।


मंत्री तासु न नीतिहिं निपुना।


असुर-सुभाउ, बोध तिन्ह किछु ना।।


    रखहिं सुरन्ह सँग रिपु कै भावा।


    अस मिलि सभ कंसहिं समुझावा।।


भोजराज! तव आयसु मिलतइ।


लघु-बड़ गाँव-नगर महँ तुरतइ।।


     हम सभ जाइ अहीरन्ह बस्ती।


     जे सिसु लिए जनम निज नियती।।


पकरि क तिनहिं बधहुँ तहँ जाई।


अस करनी महँ नाहिं बुराई।।


     नहिं करि सकहिं लराई देवा।


     समर-भीरु ते का करि लेवा।।


तव धनु कै सुनतै टंकारा।


भागहिं सभें बिनू ललकारा।।


    लखतै तव सायक-संधाना।


    इत-उत भागहिं देवहिं नाना।।


केचन तजहिं भूइँ निज सस्त्रा।


केचन खोलि चोटि-कछ-बस्त्रा।।


    आवहिं तुम्हरे सरनहिं नाथा।


     कर जोरे नवाय निज माथा।।


कहहिं नाथ भयभीतहिं हम सब।


रच्छा करहु नाथ तुमहीं अब।।


     मारउ तू नहिं तिनहीं नाथा।


     सस्त्र-बिहीन रथहिं नहिं साथा।।


दोहा-जुधि तजि जे भागै तुरत,मारहु तिन्ह नहिं नाथ।


          तुमहिं पुरोधा पुरुष हौ,कहा सचिव नइ माथ।।


                      डॉ0 हरि नाथ मिश्र


                       9919446372


 सुनील कुमार गुप्ता

अपनो के बीच


"मन के अंधेरो में साथी,


जला दें आशा के दीप।


कर दे यहाँ उज़ाला जग में,


पग-पग पर जला कर दीप।।


महका जीवन बगिया साथी,


संग स्नेंह जल से सींच।


त्यागमय जीवन संग साथी,


पा खुशी अपनो के बीच।।


अधर्म न हो जीवन में साथी,


कर्मो को सत्य संग सींच।


सद् कर्मो का फल मिले ऐसे,


खिले कमल कीचड़ के बीच।।"


 सुनील कुमार गुप्ता


नूतन लाल साहू

विज्ञान का कमाल


अखबार की कवर पर


उनका छपा था,फोटो


विज्ञान की खबर है


उसमे अजीब क्षमता है


बच्चे हुये है,बारह


पर चेहरे पर शिकन नहीं है


नक्शे कदम बता रहा है


अगला और भी आ रहा है


यही तो विज्ञान का कमाल है


पी करके देशी ठर्रा


कलाकार मंच पर जमे हुए हैं


पर,घर की शेरनी का डर


उनको सता रहा है


खुल कर हंस लो आज


कल का क्या भरोसा


आदमी बेमौत मर रहा है


पूरा करने रोबोट आ रहा है


यही तो विज्ञान का कमाल है


एक कलाकार का नाम धोखे से


रख दिया, फटाका


पता नही ऐसा क्या हुआ


हास्य जगत में कर दिया धमाका


सभी मंचो पर,बस वही शोर


वंस मोर, वंस मोर


यही तो विज्ञान का कमाल है


दिन दुनी रात चौगुनी,निरन्तर प्रगति करो


पहले का था,ये आशीर्वाद


अब दुर से मस्तक, झुकाते हैं और


हाथ के इसारे से,मिलता है आशीर्वाद


क्या सियान, क्या बच्चा


सभी का प्रिय बन गया है,यह ब्रांड


यही तो विज्ञान का कमाल है


हर रोज,अखबार पर यही धमाका


यहां अपहरण, यहां बलत्कार


वाहन दुर्घटना का,इतने लोग हो गया शिकार


इस राज्य का अचानक,बदल गया सरकार


जूता संस्कृति का,हो गया आविष्कार


जूता फेंकने वाले से कहीं ज्यादा


जूता खाने वाले का बढ़ जाता है, कद


इससे बढ़कर और क्या हो सकता है,चमत्कार


यही तो विज्ञान का कमाल है


नूतन लाल साहू


राजेंद्र रायपुरी

वोटों की बरसात 


 


टर्राएगी फिर अभी, नेताओं की जात।


 


होनी है कुछ प्रांत में, वोटों की बरसात।


 


वोटों की बरसात, इन्हें है भाती भाई।


 


इसके खातिर रोज, ज़ुबानी करें लड़ाई।


 


पाने इसको नोट, और ये बाॅ॑टें ठर्रा।


 


अब तो समझो राज़, रहे क्यों नेता टर्रा।


 


              ।। राजेंद्र रायपुरी।।


एस के कपूर श्री हंस

यह जीवन कभी


व्यर्थ नहीं जाने पाये।।


 


कभी हारना फिर जीतना यही


जिंदगी का फलसफा है।


कौन कहता कि तेरी किस्मत


तुझसे खफा है।।


कभी धूप कभी छाँव यही है


इस जीवन का नाम।


जीवन के हिसाब किताब में


कभी नुकसान ओ नफा है।।


 


जीवन पहेली नहीं बना कर


सहेली इसको जीना है।


कभी सुख की बहारें तो कभी


गमों का घूंट पीना है।।


माना मुश्किलें हज़ार जिन्दगी


में कदम कदम पर।


फिर भी हर दुःख पर भारी 


जीवन एक नगीना है।।


 


जीवन की आपाधापी में भी


मन अपना शांत रखो।


दैनिक आत्म विश्लेषण करते


समय कुछ एकांत रखो।।


स्वयं को पढ़िये कि आप भी


हैं एक पुस्तक समान।


निर्णय अपने तुम न्याय परक


और मस्तिष्क वेदांत रखो।।


 


यह एक ही मिला है जीवन कि


व्यर्थ नहीं जाने पाये।


करो जीवन में ऐसा कि कंही 


अर्थ नहीं निकल जाये।।


प्रभु ने दिया जन्म शक्ति ऊर्जा का


सदुपयोग करने को।


याद रहे जीवन तेरा हर दिन तुझे


कुछ समर्थ ही बनाये।।


 


 एस के कपूर श्री हंस


बरेली।


संजय जैन

दिलों का मिलन


चिराग ए दिल में जलाओगें


तो प्रेम बरसेगा।


दिल में निश्चित ही


प्यार का उदय होगा।


जो प्रेम को इबादत 


और साधना समझते है।


वो ही मोहब्बत के 


रस को पी पाते है।।


 


दिल-ए नादान जो होते है 


प्यार वो कर नहीं पाते।


क्योंकि प्यार करना इतना आसान नहीं होता।


ये तो वो तपस्या और


साधना होती है।


जो दिलों के मिलन 


से ही जन्म लेती है।।


 


आजकल तो मोहब्बत को


प्रेम वासना से देखते है।


जिस्म की प्यास बुझाने


के लिए मोहब्बत करते है।


पर रब ने भी ऐसा 


सबक सिखाया उनको।


और जीवन अधूरा 


बनाया उनका है।।


 


प्यार को प्यार से जीतोगें


तो प्यार तुम पाओगें।


पूणिमा के चांद की तरह से तुम दोनों खिल जाओगे।


और प्रेमरस को तुम 


हमेशा पी पाओगें।


और गुलाब की तरह 


तुम महक जाओगें।


और स्नेह प्यार को


जीवन भर पाओगें।।


 


जय जिनेन्द्र देव 


संजय जैन (मुम्बई)


10/09/2020


डॉ. राम कुमार झा निकुंज

"मानक है हिन्दी वतन"


 


हिन्दी पखवाड़ा दिवस, चलो मनाऊँ आज।


जनभाषा निज देश में , रक्षण निज मोहताज़।।१।।


 


अभिनंदन स्वागत करूँ,हिन्दी दिवस आगाज़।


इस स्वतंत्र गणतंत्र में , तरसे हिन्द समाज।।२।।


 


सिसक रही निज देश में , निज वजूद सम्मान। 


हिन्द देश हिन्दी वतन , निज रक्षण अपमान।।३।।


 


बाँध वतन जो एकता , दर्पण भारत शान।


जनभाषा तीसरी बड़ी , सहे हिन्द अवमान।।४।। 


 


साजीशें ये कबतलक , भिक्षाटन अस्तित्व।


जनभाषा हिन्दी वतन , माँग रहा है स्वत्व।।५।।


 


निज वाणी मधुरा प्रिया , हिन्दी नित सम्मान। 


भारत की जन अस्मिता , बने एकता शान।।६।।


 


नित यथार्थ सुन्दर सुलभ ,सूत्रधार जन देश।


संस्कृत तनया जोड़ती , हिन्द वतन संदेश।।७।।


 


कण्ठहार जनभाष बन , विविध रीति बन प्रीत।   


आन बान शाने वतन , हिन्दी है उद्गीत।।८।।


 


श्रवण कथन सम लेखनी , काव्यशास्त्र उद्गीत।


मानक है हिन्दी वतन , लोकतंत्र नवनीत।।९।।


 


शब्द अर्थ अधिगम सुलभ,साहित्यिक सत्काम। 


समरसता नवरंग से , हिन्दी है अभिराम।।१०।।


 


बने धरोहर राष्ट्र की , नव विकास आधार।


हिन्दी भाषा शुभ वतन , राष्ट्र भाष अधिकार।।११।।


 


कवि✍️डॉ. राम कुमार झा निकुंज


नवदेहली


आचार्य गोपाल जी

चंदन की खुशबू


 


 


घिसे जाओगे जब कर्तव्य शीला पर,


तभी फैलाओगे चंदन सी खुशबू।


 


जो उतरोगे दिलों में धड़कन बनकर, 


तो आएगी तुम से भी चंदन की खुशबू।


 


बैर-द्वेष और वैमनस्यता को त्यागोगे,


अंतरात्मा में महकेगी चंदन की खुशबू।


 


भाईचारे का दीपक जो जलेगा दिलों में,


तो भारत में महकेगी चंदन की खुशबू।


 


आचार्य गोपाल जी


             उर्फ 


आजाद अकेला बरबीघा वाले


डॉ निर्मला शर्मा 

हिंदी का सम्मान


हिंदी देश के वासी हम सब


 हिंदी है भाषा का नाम 


अपनी भाषा पर गर्व हमें


 हम करें इसी में काम 


संपूर्ण विश्व में डंका बजता है


 विश्व गुरु सी शान 


ये है हमारी मातृभाषा 


जिसकी है निराली आन


 हिंदी का सम्मान करें हम 


बढे हमारा मान


 संस्कृत भाषा जननी इसकी 


ये है बड़ी महान 


देवनागरी लिपि है इसकी 


व्याकरण बड़ी है समृद्ध


 वर्णमाला में छिपे हुए हैं 


स्वर, व्यंजन उच्चारण आबद्ध


विश्व में नहीं कोई ऐसी भाषा


 जिसका वैज्ञानिक है प्रकार 


प्रत्येक ध्वनि के लिए प्रयुक्त है


 जिसमें अलग-अलग आकार


 प्राणवायु से जुड़े हुए स्वर 


ओमाक्षर प्राण तत्व आधार


 उच्चारण करते जब हम सब 


मिले ऐंद्रिय सुख अपार 


हिंदी का सम्मान करो सब


 यह जोड़े है भारतवर्ष 


भाषा की ताकत को जाना जब 


हुआ देश का नवीन उत्कर्ष 


आजादी की डोर बनी जब


 जन आंदोलन गहराया 


शब्द से शब्द जुड़े बन शक्ति


 तब केसरिया लहराया 


विवेकानंद ने दस दिनों तक


 हिंदी का अलख जगाया


 विदेशी धरती पर जाकर 


निज भाषा का मान बढ़ाया 


दयानंद खुसरो भारतेंदु 


और महावीर प्रसाद द्विवेदी 


हिंदी के कर्णधार हमारे 


रची जिन्होंने भाषा रूपी वेदी


 राजभाषा मातृभाषा


 संपर्क भाषा के नाम से है विख्यात


 बने यही राष्ट्रभाषा हमारी 


सबके मन की चाह ये ख्यात।


 


डॉ निर्मला शर्मा 


दौसा राजस्थान


डॉ0 रामबली मिश्र

बना कबीरा चलते रहना


 


सदा फक्कड़ी बनक चलना।


बना कबीरा चलते रहना। ।


 


मत करना परवाह किसी की।


चिन्तन ध्यान लगाये रहना।।


 


करो अनसुनी सदा मस्त रह।


योगी बनकर विचरण करना।।


 


गन्दी राजनीती में पड़कर।


अपना जीवन नष्ट न करना।।


 


खैर मनाओ हर मानव की।


सदा निरापद बनकर रहना।।


 


मत सहना तुम कभी अनर्गल ।


सार्थक बातें कहना सुनना।।


 


चित से दुष्टों को उतार दो।


ले कबीर की लाठी चलना।।


 


सत्संगति का मजा लूट लो।


नहीं कुसंगति में तुम पड़ना।।


 


दांव-पेंच को दूर फेंककर।


सीधी-सादी बातें करना।।


 


दुनियादारी यही एक बस।


अपने में ही जीते रहना।।


 


लोई एक मात्र काफी है।


बन पत्नी का भक्त विचरना ।।


 


राग-द्वेष के ऊपर जाकर ।


सम मंत्रों को जपते रहना।।


 


डॉ0 रामबली मिश्र हरिहरपुरी 


9838453801


नूतन लाल साहू

खाली दिमाक, शैतान का घर है


सुखी वहीं, जो काम में व्यस्त हैं


दुसरो के बारे में,सोचने का वक्त नहीं है


जिनके पास काम नहीं है, बेकाम है


वो ही व्यक्ति,दुनिया में बदनाम है


खाली दिमाक, शैतान का घर है


बेकाम का घर,कर्ज में डूब गया


जिन्दगी का नाव,मझधार में गुम गया


उनका तन,धू धू कर जल रहा है


ऐसा व्यक्ति,मर मर के जी रहा है


खाली दिमाक, शैतान का घर है


काम में ही सोच और सोच से ही बुद्धि है


बुद्धि से दृष्टि और दृष्टि से ही सृष्टि है


काम में ही, व्यक्ति का सम्मान है


काम नहीं तो समझो, छुट गया जिन्दगी का पतवार है


खाली दिमाक, शैतान का घर है


आज नहीं तो कल,काम करना ही पड़ेगा


काम में जो लिप्त रहेगा,कलिया बन मुस्कुरायेगा


काम से ही भूख और काम में ही प्यास है


भूख मिटेगा पेट का और सतगति पा जायेगा


खाली दिमाक, शैतान का घर है


काम करने वाले को ही,नया नया साल


उत्साह और उमंग के साथ,नया नया ख्याल आता है


काम ही उसका हार और काम ही उसकी जीत है


काम ही उसका भक्ति और काम ही तीरथ धाम है


खाली दिमाक, शैतान का घर है हर संकट,काम करने वाले के लिए सहज


और बेकाम के लिए,महाकाल बन जाता है


सुख और समृद्धि आता है


काम करने वाले के जिन्दगी में


बेकाम वाले, हलाहल होते जाता है


 


नूतन लाल साहू


राजेंद्र रायपुरी

नारी, नवयुग की 


 


अबला अब मत समझो उसको,


 उसने करने की सब ठानी। 


  अपने दम पर कहलाएगी, 


   वो अपने राजा की रानी।


 


है बचा कौन सा क्षेत्र कहो,


 जिसमें परचम लहरा न सकी। 


  है मंज़िल ऐसा कौन कहो,


   जिसको नारी है पा न सकी।


 


वो गए ज़माने बीत सुनो,


 जब घूॅ॑घट नहीं उठाती थी।


  ड्योढ़ी के बाहर कदम कभी,


   ख़ुद होकर नहीं बढ़ाती थी‌।


 


वो खेतों में खलिहानों में,


 वो खेल-कूद मैदानों में।


  वो मिल जाएगी ड्यूटी पर,


   जाकर देखो तुम थानों में।


 


वो जल में, थल में, नभ में भी,


 अपना करतब है दिखलाती।


  हर मोर्चे पर डट कर ही वो,


   नवयुग की नारी कहलाती।


 


बन नहीं द्रौपदी रहना है,


 उसने मन है अब ठान लिया।


  नवयुग की नारी कैसी हो,


   उसने है अब पहचान लिया।


 


सर ऊॅ॑चा करके रहती है।


 अब नहीं ज़ुल्म वो सहती है। 


  बनकर नवयुग की सरिता वो,


   अब कल-कल कल-कल बहती है।


 


              ।। राजेंद्र रायपुरी।।


सुनील कुमार गुप्ता

शीतल-छाया


आहत मन को कही साथी,


मिल जाती शीतल छाया।


अपनत्व के अहसास संग फिर,


सुख पाती अपनी काया।।


मोह-माया के बंधन संग,


खोया अपनत्व का साया।


सुख के ही सब साथी-साथी,


दु:ख में वो काम न आया।।


आहत मन को फिर जो साथी,


मिलता जो प्रभु का साया।


भक्ति में डूबा तन-मन साथी,


संताप न फिर मन आया।।"


 सुनील कुमार गुप्ता


डॉ0 हरि नाथ मिश्र

चौथा अध्याय (श्रीकृष्णचरितबखान)-3


 


जब तक नर जानै नहिं अंतर।


सुख-दुख सदा रहहि अभ्यंतर।।


    जनम-मरन यहि कारन भवई।


    होतै ग्यान मुक्ति पुनि मिलई।।


'बध्य'-'बधिक' सम मन अग्याना।


देइ सतत दुख जग बिधि नाना।।


     मैं अब 'मरब'व'मारब'तुमहीं।


     अस बिचार अग्यानहिं अहहीं।।


'छमहु मोंहि तुम्ह' साधु-सुभाऊ।


दीनन्ह रच्छक सभ मन भाऊ।।


   अस कहि कंस पकरि तिन्ह चरना।


   रोवत रहा जाइ नहिं बरना ।।


तिनहिं मुक्त करि बंदी-गृह तें।


लगा दिखावन प्रेम हृदय तें।।


   देवकि लखि कंसइ पछितावा।


   दीन्ह छमा तेहिं प्रेम सुभावा।।


भूलि क तासु सकल अपराधू।


कह बसुदेवहिं नेह अगाधू।।


    तोर बचन हे कंस मनस्वी।


    परम उचित अस कहहिं तपस्वी।


जब 'मैं' भाव जीव महँ आवै।


जीवहि ग्यान-भ्रष्ट कहलावै।।


   'तव'-'मम'-भेद तुरत उपजावै।


   'अपुन'-'पराया'-पाठ पढ़ावै।।


उपजै सोक-लोभ-मद-द्वेषा।


भय उर बसै साथ लइ क्लेसा।।


   जीव न समुझइ भगवत माया।


   रहइ सदा माया-भरमाया ।।


सोरठा-कहे मुनी सुकदेव, सुनहु परिच्छित ध्यान धरि।


           देवकि अरु बसुदेव, छमा कीन्ह कंसहिं तुरत।।


                         डॉ0 हरि नाथ मिश्र


                          9919446372


डॉ0 हरि नाथ मिश्र

तृतीय चरण (श्रीरामचरितबखान)-4


 


तब मुनि सीष नवा प्रभु चलहीं।


लइ सिय संग लखन पथ बनहीं।।


     आगे राम लखन पुनि पाछे।


     तापस-भेष लगहिं सभ आछे।।


ब्रह्म-जीव बिच माया जैसे।


रामहिं-लखन मध्य सिय तैसे।।


     जेहि मग राम-लखन मग चलहीं।


      प्रकृति मनोरम सुख ते पवहीं।।


मंदहि पवन बहहि प्रभु-पथ मा।


छाया करहिं मेघ पल-पल मा।।


     असुर बिराध मिला मग माहीं।


     झपकत पलक बधे प्रभु ताहीं।।


राम-प्रताप पाइ रुचि रूपा।


गया असुर प्रभु-धाम अनूपा।।


    बन-पथ चलत मुनी सरभंगा।


    लखि सिय-लखन राम के संगा।।


बड़-बड़ भागि सरावहिं आपनु।


कहहीं सुफल आजु बन-यापनु।।


     अइहैं अवसि राम यहि राहीं।


     जब तें सुने रहे हम ताहीं।।


धाम बिरंचि जाइ इक बारा।


भयो साँच आजु एतबारा।।


     जोहत रहे बाट दिन-राती।


     लखि प्रभु राम जुड़ाइल छाती।।


पूरन होई अब प्रभु-परना।


दरस पाइ हम खोइब बदना।।


     जप-तप-जोग-जग्य ऋषि कीन्हा।


      प्रबल भगति-बर प्रभु तिन्ह दीन्हा।।


साँवर रूप लखन-सिय सँगहीं।


करहु निवास हृदय मम अबहीं।।


दोहा-लेइ क बर अनुकूल ऋषि,बारे तप-बल आगि।


       जारे निज तन अगिनि महँ,धनि-धनि ऋषि कै भागि।।


      देखि परम सरभंग-गति,मुनिगन भवहिं प्रसन्न।


      पुनि-पुनि भागि सराहहीं, लखि प्रभु तहँ आसन्न।।


                   डॉ0 हरि नाथ मिश्र


                     9919446372


डॉ निर्मला शर्मा

दर्पण से भी अधिक 


नाजुक होता है विश्वास 


जरा सा भी दरका--


 तो खंड -खंड हो टूट जाता है


 जब होता है किसी पर विश्वास


 तो आंखों पर -------


मानो पट्टी बंध जाती है


 दिखाई नहीं देता कुछ 


उस विश्वसनीय के सिवाय


 दुनिया सिमट जाती है


 उस क्षण उसी में 


पर कहते हैं ना ---------


विश्वास दूसरे नहीं


वही अपने तोड़ते हैं अपना


 जो सबसे करीब होते हैं 


दिल के पास 


जैसे ही-------


 टूट कर विश्वास बिखरता है


 तो फिर से मानो 


हवा में दूर तक बिखर जाता हैं 


आदमी के कदमों तले की


 जमीन भी नहीं रहती फिर वहां


 पैर लड़खड़ा कर


 जमीन पर गिरा जाते हैं


 आसमान में उड़ने वाले


 वह परिंदे पल में ही 


पंखों बिन तडपडाते हैं 


वर्तमान का-----


 यही है यथार्थ यही कहानी 


आज---------


 हर व्यक्ति की जबान पर


 यही है वाणी


 प्रतिदिन हर समाचार पत्र के


 मुख्य पृष्ठ पर 


और टीवी के हर चैनल पर 


दिखाई जा रही 


विश्वास टूटने की 


यही कहानी -------यही कहानी।


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 डॉ निर्मला शर्मा 


दौसा राजस्थान


संजय जैन

मोहब्बत में अक्सर लोग,


सब कुछ भूल जाते है।


दिल दिमाग में उसके,


मोहब्बत छाई रहती है।


न कुछ कहता न सुनता,


बस अपने में मस्त रहता।


और प्यार के सागर में,


वो डूब जाता है।।


मोहब्बत में अक्सर लोग,


सब कुछ भूल जाते है।।


 


नैन से नैन लड़ा के,


दिलमें उतर जाती है।


फिर दिल के अंदर जो,


मोहब्बत को बढ़ाती है। 


जिसके कारण ही वो,


आंखों में छाई रहती है।


और दीप मोहब्बत का,


दिलों में जला देती है।।


मोहब्बत में अक्सर लोग,


सब कुछ भूल जाते है।।


 


किसी से दिल लगाना,


आसान नहीं होता है।


प्यार में जीना मरना,


आसान नहीं होता है।


ये वो आग होती है जिसे,


कोई बूझा सकता नहीं।


इसलिए सच्ची प्रेमी,


आजकल कम होते हैं।।


मोहब्बत में अक्सर लोग,


सब कुछ भूल जाते है।।


 


जय जिनेन्द्र देव


संजय जैन मुंबई


विनय साग़र जायसवाल

हम बनायें चलो उस जगह आशियां


कोई आये न दूजा जहां दर्मियां


 


वो जगह कोई मंदिर से कम तो नहीं


मिल रहें को जहाँ पर ज़मीं आसमां


 


जब अकेला ही मैं आगे बढ़ने लगा


पीछे आने लगा इक मेरे कारवां


 


उसने घोले मेरी ज़ीस्त में ऐसे रंग 


लोग सुनते हैं अब तक मेरी दास्तां


 


गिरह---


उस जगह आशियाँ क्यों बनायेंगे हम


*सूख जाते हैं दरिया के दरिया जहां*


 


पर निकलते ही ताइर सभी उड़ गये


किस कदर है पशेमान अब बाग़बां


 


चंद सिक्के ही साग़र दिये थे उसे


दी दुआ उसने खिलता रहे गुलसितां


 


विनय साग़र जायसवाल


बरेली


8/9/2020


ताइर-पंछी


डॉ0 हरि नाथ मिश्र

साक्षरता


मानव बनता सभ्य तब,जब हो अक्षर-ज्ञान।


चलो चलाएँ मिल सभी,साक्षरता-अभियान।।


 


अक्षर-ज्ञान-अभाव तो,है जीवन-अभिशाप।


शिक्षा से सुधरे सभी,मानव-क्रिया-कलाप।।


 


विश्व-समस्या यह विकट,करें इसे निर्मूल।


करें सजग सबको अभी,बिना किसी को भूल।।


 


केवल भाषण से नहीं,होगा इसका काम।


घर-घर जाकर छेड़ना,है इसका संग्राम।।


 


जन-जागृति,जन-चेतना,शिक्षा-अभिरुचि साथ।


संभव होगी जब मिलें, सबके हाथ से हाथ ।।


 


शिक्षा से कल्याण हो,शिक्षा शान समाज।


शिक्षा को विकसित करें, दृढ़प्रतिज्ञ हो आज।।


 


साक्षरता का पर्व यह,दीपक ज्ञान-प्रकाश।


जले ज्ञान की ज्योति जग,रवि-शशि इव आकाश।।


              © डॉ0 हरि नाथ मिश्र


                  9919446372


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