एस के कपूर श्री हंस

अब भाग कॅरोना भाग।


 


कल कॅरोना से दूर से मुलाकात हो गई।


बस सामने सामने आंखों


आँखों में बात हो गई।।


कॅरोना बोला आयो गले मिलो, हाथ तो मिलायो।


मैंने कहा कि कहानी सब,


यह समाप्त हो गई।।


कॅरोना बोला बड़े ही, चालाक सयाने लगते हो।


जानते नहीं मेरे पास, जीवाणु विषाणु वाइरस है।।


तुम्हारे पास क्या है।


मैंने भी कह दिया कि,


मेरे पास मास्क,सैनिटाइजर, साबुन, अंगोछा, टोपी और दस्ताने भी हैं।


तुझे भगाने के और बहाने भी हैं।।


हमेशा सतर्क सावधान रहता हूँ।


स्वस्थ खानपान में ही मेरा


विश्वास है।।


रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाना, मेरे लिए बहुत खास है।।


काढ़ा, हर्बल,तुलसी,लौंग, इलायची का, सेवन नित करता हूँ।


प्रकृति से खूब निकटता रखता हूँ।।


व्यायाम योग ,मेरे जीवन का हिस्सा हैं।


यह सब रोज़, मेरे जीवन का किस्सा है।।


कॅरोना सुन, बकरे की माँ कब खैर मनायेगी।


एक दिन तेरी शामत ,तो जरूर आयेगी।


हर देश के कॅरोना योद्धा ,तुझे ढूंढ रहे हैं।


एन्टी बॉडी ,प्लाज्मा दान वाले भी हो रहे तैयार हैं।


तेरे लिए वैक्सीन बनाने को भी खूब होशियार हैं।।


खत्म पहले करने हमें सब तेरे यार है।


पी पी ई किट ,फेस शील्ड, हैंड वाश का खूब निर्माण हो रहा है।


लॉक डाउन खुल गया व्यापार हो रहा है।।


हमारी संस्कृति जीवन शैली खान पान की प्रकृति बहुत अलग है।


तुझे अधिक समय यह रास नहीं आयेगी।।


तेरी दाल ज्यादा दिन गल नहीं पायेगी।


तेरे अनुकूल वातावरण नही है यहाँ।।


तेरा ठिकाना है किसी और जहाँ।


बोरिया बिस्तर बांध और रुखसत हो जा।।


कॅरोना जा जा जा।


कॅरोना जा जा जा।।


 


एस के कपूर श्री हंस


बरेली।।


विनय साग़र जायसवाल

हमें शमा-ए -उल्फ़त जलानी पड़ेगी


अंधेरों की गर्दन झुकानी पड़ेगी


 


ख़ताएं जो हम करते आये हैं अब तक


कहीं उसकी क़ीमत चुकानी पड़ेगी


 


 कभी मेरी क़ुर्बत में था चैन तेरा


कहानी वो क्या अब भुलानी पड़ेगी


 


नदी तीर दोनों कभी बैठते थे 


वो तस्वीर क्या फिर बनानी पड़ेगी


 


ख़बर प्यार करने से पहले कहाँ थी


 हमें हाँ में हाँ ही मिलानी पड़ेगी


गिरह-


ज़रूरत यही आज के वक़्त की है


मुहब्बत दिलों में उगानी पड़ेगी


 


वफ़ादार साग़र यूँ लिख्खा है उसको 


 जफ़ा उसकी हर इक छुपानी पड़ेगी


 


🖋️विनय साग़र जायसवाल बरेली


नूतन लाल साहू

राम नाम ही सार है


सुमिरन कर ले, निशदिन राम नाम


हर दिन शुभ ही शुभ होगा


है घट घट के वासी,सुख के सागर है


ताप संताप मिटाने वाला,सबका दुःख हरता है


विश्वास कर भक्त प्रहलाद सा,वे बल के धाम है


प्रभु राम के दिव्य भजन से,बहुत आंनद मिलता है


सुमिरन कर ले, निशदिन राम नाम


हर दिन शुभ ही शुभ होगा


सब संपति तेरी, यही रहेगी


भाई बंधु कुटुंब कबीला


पाप पुण्य में कोई,सहभागी नहीं रहेगा


राम नाम अनमोल रतन है


जो जायेगा,संग में तेरा


सुमिरन कर ले, निशदिन राम नाम


हर दिन शुभ ही शुभ होगा


लख चौरासी भोग के आया


बड़े भाग मानुष तन पाया है


जिसने तुम्हे जन्म दिया है


उसका नाम,क्यों भुल रहा है


एक दिन ऐसा होगा बंदे


यमराज लेने को आयेगा


पूछेंगे हिसाब तेरा,पाप पुण्य का


तब तू क्या बतलायेगा


सुमिरन कर ले, निशदिन राम नाम


हर दिन शुभ ही शुभ होगा


कौड़ी को तो,खूब संभाला


लाल रतन क्यों छोड़ रहा है


छोड़ वृथा,अभिमान तू बंदे


अवसर बीता जा रहा है


चार दिनों का मेला है,जग


उड़ जायेगा,ये हंस अकेला


राम नाम को पतवार बना लेे


भवसागर पार हो जायेगा


सुमिरन कर ले, निशदिन राम नाम


हर दिन शुभ ही शुभ होगा


नूतन लाल साहू


सुनील कुमार गुप्ता

तन-मन रहता बेचैन


"मिले सम्मान इतना जग में,


साथी उपजे न अभिमान।


अपनो संग जीवन-पथ पर,


फिर बना रहे स्वाभिमान।।


इतना रखना ध्यान साथी,


अपनत्व का न हो अपमान।


पग-पग पर फूल खिले साथी,


अपनत्व को मिले सम्मान।।


सद् कर्मो संग जग में साथी,


मिलता है-मन को चैन।


स्वार्थ की धरती पर साथी,


तन-मन रहता बेचैन।।


 


 सुनील कुमार गुप्ता


डॉ0 हरि नाथ मिश्र

चौथा अध्याय (श्रीकृष्णचरितबखान)-5


 


हाँकहिं डींग देवता सबहीं।


जब जुधि-भूमिहिं बाहर रहहीं।।


    कहहिं बीर सबहीं अपुनै को।


    जब नहिं आस लराई तिन्हको।।


का करिहहिं बनबासी संकर।


बिषनू जे एकांत निरंतर ।।


    अल्पबीर्य इंद्रहिं बस नाहीं।


     ब्रह्म तपस्वी अपि डरि जाहीं।।


तदपि न करिअ उपेछा तिन्हकर।


रहहिं सत्रु जग सत्रुहिं बनकर।।


     हम सभ नाथ सुरच्छा करबै।


     जड़ उखाड़ि रिपुन्ह कै फेकबै।।


इंद्री-दमन सदा हितकारी।


सो रिपु-दलन अहहि सुखकारी।।


    सभ सुर कै जड़ बिष्नू आहीं।


    रहइ सनातन धरमहिं पाहीं।।


धरम सनातन कै जड़ बेदा।


गऊ-तपस्या-द्विजहिं अभेदा।।


     जग्य-दच्छिना औरउ दाना।


      अहहिं सनातन धरम-बिधाना।।


हम सभ करब नास यहि सबकर।


ब्रह्मन-बेद--तपस्या-गउ कर ।।


      ब्रह्मन-गऊ-तपस्या-बेदा।


      श्रद्धा-दया व सत्य अभेदा।।


मन-निग्रह अरु इंद्री-दमना।


जग्य-तितिच्छा बिषनुहिं बपुना।


     असुर-सत्रु अरु सुर कै स्वामी।


      भोजराज सुनु, बिष्नुहिं नामी।।


पर ऊ रहइ गुफा के अंदर।


उहइ अहइ जड़ ब्रह्मा-संकर।।


     तासु मृत्यु कै एक उपाया।


     ऋषि-मुनि कै जब होय सफाया।।


कंसइ दंभी-सत्यानासी।


भ्रष्ट-बुद्धि अरु धरम-बिनासी।।


     कंसहिं सचिव कंस तें बढ़कर।


     देहिं सलाह घृनित सभ मिलकर।।


हिंसा-प्रेमी राच्छस सबहीं।


नृप-आयसु पा मारन चलहीं।।


      संत पुरुष जे रहहिं सुधर्मी।


      मारैं तिनहिं उ सबहिं कुकर्मी।।


रजोगुनी रह प्रकृति असुर कै।


तमोगुनी रह चिंतहिं तिनहिं कै।।


   उचित न अनुचित समुझहिं असुरा।


   तिनहिं के सिर जनु कालहि पसरा।।


बिबिध रूप धरि इत-उत फिरहीं।


इरिषा-जलन संत सँग रखहीं।।


दोहा-करइ अनादर संत जे,कबहुँ न सुख ते पाहिं।


        संपति-आयुहि-धर्म-जसु, खोवहिं जग पछिताहिं।।


                       डॉ0 हरि नाथ मिश्र


                         9919446372


डॉ0 हरि नाथ मिश्र

तृतीय चरण (श्रीरामचरितबखान)-6


 


मुनि अगस्त्य धाइ प्रभु मिलहीं।


कुसलइ छेमु पूछि पुनि कहहीं।।


     हे प्रभु रामइ कृपा-निकेता।


     तुम्हरो दरस परम सुख देता।।


सुनि मुनि-बचन राम मुस्काने।


प्रनमहिं सानुज मुनि-सम्माने।।


    दइ असीष कुंभज तब कहऊ।


    मम हिय प्रभु सानुज-सिय रहऊ।।


प्रभु दुख-भंजन,कृपा-निकेतन।


बिनु प्रभु-कृपा न जग जड़-चेतन।।


     राम-प्रकास रहहि तिहुँ लोका।


     नाम सुमिरि जग भवहि असोका।


राम-नाम जग जे जन जपहीं।


भव-सागर झट ते नर तिरहीं।।


    जाको मुहँ प्रभु-नाम न आवा।


     ताकर जनम बिरथ होइ जावा।।


ऋषि-मुनि,सुर-जोगी अरु ध्यानी।


बेद-सास्त्र-पाठी अरु ग्यानी ।।


    सुमिरन सबहिं करैं दिन-राती।


    पा प्रभु-दरस जुड़ावैं छाती।।


तब रघुबर अगस्त्य तें कहहीं।


बिदित आपु हम काहें अवहीं।।


    हे मुनि नाथ आपु बड़ ग्यानी।


    काल-चक्र-गति सभ पहिचानी।।


चाहहुँ मैं राच्छस-कुल नासा।


मों बताउ कहँ करीं निवासा।।


    जहँ रहि मुक्त करउँ मैं धरती।


    असुर-अतंक-अनल जे जरती।।


करउँ नास मैं ऋषि-मुनि-द्रोही।


जप-तप,धरम-करम-बिद्रोही।।


    मुनि मुस्काइ कहे मृदु बानी।


     धामहिं एक नाम मैं जानी ।।


पंचबटी तिसु नाम मनोरम।


हरहु साप तहँ रहि मुनि गौतम।।


    पंचबटी दंडक बन माहीं।


    सापित मुनि गौतम की ताहीं।।


जाइ तहाँ प्रभु करउ निवासा।


मारउ असुरन्ह मुनि जे त्रासा।।


    दंडक बन गोदावरि-तीरा।


    रहन लगे प्रभु छाइ कुटीरा।।


दोहा-मिले जटायू सन प्रभू,वहि बन करत निवास।


        खग-मृग अरु बन-जीव सभ,प्रभु सँग रहहिं उलास।।


                     डॉ0 हरि नाथ मिश्र


                      9919446372


आरती पांडे इंदौर 

आरती


पाटनीपुरा चौराहा इंदौर 


मो..7566821772


 


आलेख दिमागी-आजादी   


                                                 लोग कहते हैं हम आजाद हैं,पर सोच तो आज भी बंदिशों मैं है। लोग कहते हैं 21वीं सदी का भारत हैं ,सदी तो बदली पर भारत नहीं। लोग कहते हैं सब आनलाइन हैं पर विचार तो आज भी आफलाइन हैं। हम आजाद भारत मैं 200 साल की गुलामी के बाद सांस तो आजादी की ले रहे हैं पर सोच आजादी की नहीं हैं। सोच, विचार, और मानसिकता से हम आज भी गुलाम हैं ।जिस भारत को आजाद कराने के लिए अनेकों भारतीय एकजुट हुए. थे आज वो एकजुटता देश से क्या भारत के हर घरों से गायब हैं । भारत की आन- बान- शान उसकी बेटियां होती थीं ,पर आज वहीं मासूम बेटियां घरों मैं भी असुरक्षित हैं।हम अंग्रेजों से आजाद हुए पर अंग्रेजी तरीकों से नहीं। आज देश का 18.साल का बच्चा सिगरेट, बीयर पीता हैं इसे आधुनिकता का नाम देता हैं । आज बच्चा हिंदी नहीं बोल पाता हैं ,और अपने को हिंदुस्तानी कहता हैं।आज की युवा पीढी अपने माता- पिता को वृद्धाआश्चम छोड़ कर आती हैं, और अपने को भारत का लाल कहती हैं।यदि हम वाकई भारतीय हैं और भारतीय होने का दावा करते हैं तो पुनः जरूरत हैं भारतीयता के उन पुराने मापदंडों को अपनाने की ,आज पुनः आवश्यकता हैं कि देश की आन -बान -शान के लिए हम फिर से गांधी, भगतसिंह, बाल गंगाधर तिलक बने ।सही मायनों मैं आजादी को समझे, और समझाये और एक स्वस्थ कुशल ,कोरोना मुक्त भारत के निर्माण मैं अपना योगदान दे।


संजय जैन

अकेलापन


तेरे प्यार का मुझको, 


यदि मिले जाए आसरा।


तो जिंदगी हंसकर के,  


गुजर जाएगी मेरी।


और अंधेरे दिल में, 


रोशनी हो जाएगी।


और अकेलापन मेरा,  


दूर हो जाएगा।।


 


तुझे देख कर दिल,


धड़कने लगा है।


बुझे हुए चिराग,


फिर से जल उठे।


कुछ तो बात है तुममें,


जो दिलकी धड़कन हो।


और फिरसे जीने की,


तुम ही किरन हो।।


 


दिलों का मिलना भी, 


एक इत्तफाक ही तो है।


तुमसे प्यार होना भी,


एक इत्तफाक ही तो है।


तभी तुम बार बार मेरे,  


सपनो में आते जाते हो।


और मेरे अकेलापन को,


दूर कर जाते हो।।


 


जय जिनेन्द्र देव की


संजय जैन (मुम्बई)


निशा अतुल्य

हिन्दी 


आज ढूंढती


स्वयं में स्वयं 


कहाँ है 


विकास ।


 


भाषा 


मातृ तुम्हारी


क्यों स्वीकार्य नही


कोई मुझे


बताएगा ।


 


साप्ताहिक


कार्यक्रम इतिश्री


मना कर पखवाड़ा


पल्ला मत


झाड़िये ।


 


छंदों


की परिभाषा


नवरसों से भरी


अलंकृत हो 


सजी ।


 


हिन्दी


प्रसार प्रचार


नही एक दिन 


जीवन में


उतारिए ।


 


हिन्दी 


हमारा आत्मसम्मान


अटल की पहचान


अंतरराष्ट्रीय बढ़ाया 


मान ।


 


हमें


अपनाना होगा


सम्मान दिलाना होगा


बना कर 


मातृभाषा ।


 


हिन्दी


सदा महान


जीवन मन प्राण


अंतर्मन मन 


बैठाइए ।


 


स्वरचित 


निशा अतुल्य


सुनीता असीम

तंगदिल कितने ये चहरे हो गए।


बस उदासी के ही पहरे हो गए।


*****


है बड़ा गुमसुम बशर हर आज तो।


जो निशाँ हल्के थे गहरे हो गए।


*****


कान होते हैं दिवारों के सुना।


आदमी लेकिन हैं बहरे हो गए।


*****


जो किया करते थे बातें प्यार की।


वक्त बीता वो भी बूढ़े हो गए।


*****


जो सरल लगते रहे थे रास्ते।


क्यूं बुढ़ापे में वो टेढ़े हो गए।


*****


सुनीता असीम


सुनील कुमार गुप्ता

पल भर का प्यार


 


पल भर का प्यार पाने को,


तरसता रहा -


मन हर बार।


बढ़ती कटुता और घुटन से ही,


टूटे संबंध और-


टूटे घर बार।


मन की मन में रहती जो,


कैसे-होते जीवन में-


सपने साकार।


व्यापार हो जब संबंधों का,


क्या-करेगा जीवन में-


पल भर का प्यार।


समझ ले साथी जीवन मे,


पल भर का प्यार ही-


बनता जीवन आधार।


अपनत्व होता जीवन में,


अपनो का तभी -


होता सत्कार।


पल भर का प्यार मिले,


जीवन सपने-


ले नव आकार।।


 


 सुनील कुमार गुप्ता


डॉ शिव शरण श्रीवास्तव अमल

आओ सब मिलजुल एकता के गीत गाएं,


सुख,शांति,शुचिता की सरिता बहाए हम ।


ममता की ज्योति जला, प्यार दिलो में उगाए,


फलती समाज की दरार को मिटाए हम ।


प्रगति की गति कहीं धीमी नही पड़ जाए,


सोए देश प्रेमियों की चेतना जगाए हम ।


हिदू,हिंदी,हिंदुस्तान पहचान अपनी है,


सारे जग में हिंदी का ही,अलख जगाये हम ।।


 


डॉ शिव शरण श्रीवास्तव "अमल,"


बिलासपुर CG


9424192318


दीपक तिवारी 'दिव्य' बदायूं

       


 


जंग 


 


सीमा पे खड़े राणबांकुरे का मन बोला 


इस जंग का समाधान होना चाहिए


नित नए धोखे स्वांग करते हैं आततायी


पापियों के पाप का निदान होना चाहिएं


शत्रु का तो हौंसला बढाता है क्षमादान


नहीं शांति संधि के वयान होने चाहिए


अब मेरे देश की तरफ डाले दृष्टि दुष्ट


काम उस देश का तमाम होना चाहिए


 


 


मातृभूमि की तरफ जो उठेगा आज हाथ 


उस पापी हाथ को साहस दिखाइए


उस पार सीमा के वो फेंक देंगे काट काट 


दुश्मन को उसकी औकात तो बताइए


हम जान लेके हाथ चल रहे साथ साथ


आप एक छोटा सा कदम तो बढ़ाइए


सीमा पे शोर्य का हम लिखेंगे नया पाठ


आप एक देश में अलख तो जगाइए


 


रचनाकार :


पिता का नाम :श्री वेदप्रकाश तिवारी


जन्मतिथि : 05/07/1986


पता :मो.कानूनगोयान कुरावली 


       जिला मैनपुरी


संप्रति: सहायक अध्यापक ,बेसिक शिक्षा परिषद


           बदायूं


 


डॉ0 रामबली मिश्र

रावण


अहंकार को रावण जानो।


इसका वध करने को ठानो।।


 


सबके मन में छिपा हुआ है।


प्रभुता पा कर तपा हुआ है।।


 


चाल-ढाल सब दनुज समाना।


करता रहता सब मनमाना।।


 


पूजनीय बनने की चाहत।


में मिलती है मन को राहत।।


 


ब्रह्मजनित अतिशय बलवाना।


खुद को कहता है भगवाना।।


 


अहंकारवश शीश कटाया।


सीता हरकर लंक गँवाया।।


 


अहंकार में सर्वनाश है।


यहाँ नहीं होता विकास है।।


 


यदि चाहत अपना कल्याणा।


अहंकार तज भज भगवाना।।


 


अहंकार अति दु:खद अपावन।


इसे समझना मत मनभावन।।


 


यही नष्ट करता जीवन को।


यह उजाड़ता खिले चमन को।।


 


पाप क्षेत्र इसको ही जानो।


इस पर सदा खड्ग को तानो।।


 


नीच अनैतिक को पहचानो।


इसको अपना दुश्मन जानो।।


 


इसको समझो गंदा नाला।


यह पीता है सड़ियल प्याला।।


 


इससे जो नफरत करता है।


वही राम संग रहता है।।


 


जो इसकी सेवा करता है।


वही पतित दानव बनता है।।


 


सदा राम की सेवा करना।


रामामृत रस पीते रहना।।


 


डॉ0 रामबली मिश्र हरिहरपुरी 


9838453801


निशुल्क प्रकाशन काव्य रंगोली

*काव्यरंगोली परिवार से जुड़े सभी पाठक दर्शक के सदस्य एवम पदाधिकारी भी ध्यान दे 15 सितंबर तक अपनी सामग्री दशहरा दीवाली पँचपर्व अक्टूबर अंक हेतु भेज दे उसके बाद प्राप्त सामग्री पर विचार नही किया जायेगा।*


*💐न दें*


 *काव्य रंगोली हिंदी साहित्य पत्रिका रजि0 RNI एवम ISSN युक्त* दशहरा दीपावली पंच पर्व अंक अक्टूबर 2020 में प्रकाशन हेतु रचनाएं आमंत्रित हैं गीत, लोकगीत ,कथा, लघुकथा, संस्मरण शोधपत्र, चुटकुले रेसिपी आदि पर सामग्री शीघ्रातिशीघ्र भेजे।


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आशुकवि नीरज अवस्थी


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डॉ0 हरि नाथ मिश्र

बहुत ज़िंदगी जी लिए,बहुत किए व्यापार।


परम धाम जाना हमें,होना है तैयार।।


 


वक्ष तान, तन ऐंठ कर,जिस पर किए गुमान।


दिवस एक मिट्टी मिले, यही सत्य है जान।।


तिनका-तिनका जोड़कर,हो जो गृह-निर्माण।


धोखा देता अंत वह,दे न प्राण को त्राण ।।


इस यथार्थ का गौर से,सब जन करें विचार।


परम धाम जाना हमें, होना है तैयार ।।


 


जीओ, जीने दो सदा,है यह उचित विधान।


इसी सूत्र का कर अमल,होते लोग महान।।


परहित से बढ़कर नहीं,दूजा मानव-धर्म।


पर पीड़ा निज मानना,होता अति शुचि कर्म।।


जीने का इस जगत में,सबका है अधिकार।


परम धाम जाना हमें,होना है तैयार ।।


 


बड़े भाग्य यह तन मिला,वह भी मानव- देह।


निश्चित यह है प्रभु-कृपा,बिना किसी संदेह।।


इस तन से शुभ कर्म हो,ऐसा रहे प्रयास।


यदि ऐसा होता रहे,मिले स्वर्ग-आवास।।


शुद्ध सोच,शुभ कर्म हैं,ठोस जीवनाधार।


परम धाम जाना हमें,होना है तैयार।।


 


मद-घमंड, छल-छद्म से,जो जन रहते दूर।


उन्हें मिले सम्मान जग,वे कहलाते शूर।।


मधुर बोल,उज्ज्वल चरित,यदि रह सरल स्वभाव।


निश्चित जग देता उसे,कभी न प्रेमाभाव ।।


'मैं'को तजकर मीत प्रिय,अब तो कर ले प्यार।


परम धाम जाना हमें, होना है तैयार ।।


           © डॉ0 हरि नाथ मिश्र


               9919446372


डॉ बीके शर्मा

कलम रोती है


 


क्यों धागों में तू आंसुओं के मोती पिरोती है


क्यों कलम हाथों में मेरे आ करके रोती है 


 


क्यों विरह बन के शब्द गिरता है कागज पर


क्यों यह कलम कागज की छाती भिगोती है 


क्यों कलम हाथों में मेरे ........


 


क्यों गोता जन बनकर मापती हृदय की गहराई 


क्यों करती उर का मंथन ना इस में तम है ना ज्योति है


क्यों कलम हाथों में मेरे .........


 


क्यों गिरते हैं जो हृदय से उठकर आंखों से अक्सर 


क्यों बीज तू ऐसे इस वीरान में बोती है 


क्यों कलम हाथों में मेरे..........


 


क्यों छोड़ती नहीं जर्जर हृदय का साथ कभी 


क्यों उर के घावों पर शब्दों का मरहम संजोती है 


क्यों कलम हाथों में मेरे.........


 


क्यों छेड़ती मुझको विरह पीड़ा और जलन में 


क्यों मगन होकर मेरी लगन में मुस्कुरा कर रो देती है 


क्यों कलम हाथों में मेरे.........


 


 


डॉ बीके शर्मा


उच्चैन भरतपुर राजस्थान


9828863402


एस के कपूर श्री हंस

हँसी ठहाके जैसे खुशी के 


तराने आज गुम हैं।


आने जाने मिलने मिलाने के


बहाने आज गुम हैं।।


दूर दूर से मिलना अभी तो


पास भी आना नहीं।


हमारे अपनों को तो छोड़िये


अनजाने आज गुम हैं।।


 


उदासी आज चेहरों पर कि


सड़कें भी सुनसान हैं।


घूमने फिरने के जैसे लगता


दब गए अरमान हैं।।


शादी ब्याह खाने पीने की बात


लगती आज पुरानी जैसे।


मास्क लगा कर ही घूम रहे


आज सारे इंसान हैं।।


 


पर याद रहे कॅरोना से जंग जारी


कॅरोना को हराना है।


वैक्सीन बनानी और फिर टीका


सबको ही लगाना है।।


हर महफ़िल को रोशन करना है


वैसे ही गुलज़ार हमें।


हर त्यौहार पर उत्साह से फिर


दीपक हमें जलाना है।।


 


बस जरूरत है अभी कुछ धैर्य


और जिम्मेदारी की।


लापरवाही नहीं बस सावधानी


से हर सवारी की।।


अभी दूर से नमस्कार और जरूरी


है अभी सामाजिक दूरी।


पर जान लो मिल कर करनी अर्थी


विसर्जित इस महामारी की।।


 


एस के कपूर श्री हंस


बरेली।


विनय साग़र जायसवाल

इस तरह हर इक ख़ुशी है अब मेरे दिल के करीब


जैसे इक मुफ़लिस झिझक जाता है महफ़िल के करीब


 


ज़िन्दगी की उलझनों में घिर गया मेरा वजूद


कोई तो मुश्किल कुशा मिल जाये मुश्किल के करीब


 


इश्क़ का इन्आम है या उनकी नज़रों का करम


इक ख़लिश महसूस होती है मुझे दिल के करीब


 


क्या बिगाड़ेंगी मेरा मोजें तेरे होते हुए


ग़म नहीं तूफान का जब तू है साहिल के करीब


 


कोई भी वादा वफ़ा यूँ वक़्त पर होता नहीं


वक़्त की भी अहमियत क्या मुझसे ग़ाफ़िल के करीब


 


मैं तो आदी हूँ हरिक ग़म से मेरी पहचान है


फिर कोई मुश्किल रहेगी कैसे मुश्किल के करीब


 


किस कदर शर्मिंदा है इन्सान से 


इंसानियत 


कोई रुकता ही नहीं है आज बिस्मिल के करीब 


 


वक़्त के गेसू वो *साग़र* किस तरह सुलझायेगा 


जो मुसाफिर सो गया हो थक के मंज़िल के करीब 


 


🖋️विनय साग़र जायसवाल


डॉ0 हरि नाथ मिश्र

हिंदी भाषा का माहात्म्य


हिंदी-भाषा के बिना,कभी न हो कल्यान।


आवो मिल कर सब करें,हिंदी का सम्मान।।


      हिंदी-भाषा राष्ट्र की,आन-बान औ शान।


      हिंदी में अभिव्यक्ति से,मिलती है पहचान।।


अपनी बोली बोल कर,तन-मन प्रमुदित होय।


मीरा-तुलसी-सूर ने,दिया बीज है बोय ।।


      करें प्रतिज्ञा आज हम,भारत-भाषा हेतु।


       करें पार हम ज्ञान-सर,चढ़ निज भाषा-सेतु।।


हो विकसित समुचित यहाँ, हिंदी-भाषा-ज्ञान।


होवे लेखन-कथन में,हिंदी का गुण-गान ।।


        चाहे हो इंग्लैंड भी,वा अमरीका देश।


         हिंदी का डंका बजे,चहुँ-दिशि,देश-विदेश।।


भारतेन्दु कविश्रेष्ठ ने,दिया चेतना खोल।


हमें कराया स्मरण,निज भाषा अनमोल।।


        उनके प्रति इस देश के,हैं कृतज्ञ सब लोग।


         निज भाषा का दे दिया,सुंदर-अनुपम भोग।।


हिंदी भाषा का हमें,करना है उत्थान।


इससे बढ़कर है नहीं,कोई कर्म महान।।


                  © डॉ0 हरि नाथ मिश्र


                      9919446372


सुनीता असीम

हसीना सिर्फ तुलना चाहती है।


क़सीदे-हुस्न सुनना चाहती है।


***


नहीं देखे वो औरों की तरफ को।


वो आशिक पे ही मरना चाहती है।


***


 नहीं मुंह खोलती करती इशारे।


न जाने क्या वो कहना चाहती है।


***


जो आंखें चार आंखों से हुईं फिर।


वो दिल में भी तो रहना चाहती है।


***


हुई है आशिकों की सिर्फ शामत।


जिसे चाहे वो पाना चाहती है।


***


सुनीता असीम


निशा अतुल्य

जब वाक्य में एक ही शब्द बार बार आता है उसे द्विरिक्ति कहतें हैं 


 


जैसे धीरे-धीरे, होल-होल, लाल-लाल,काले-काले इत्यादि


 


*नारी*


 


नारी धीरे- धीरे चले ,


काले-काले नैन तके ।


होंठ लाल-लाल सजे,


नैन भरे-भरे दिखे ।


 


जब पाँव-पाँव चले 


चल-चल थक रहे ।


साँस तेज-तेज चले


धक-धक दिल करे।


 


हरी-हरी दुब दिखे


ओस नन्ही-नन्ही खिले।


सुख नैन-नैन मिलें ,


धीरे-धीरे हवा चले।


 


गुन-गुन मन करे


धुन सुन-सुन चले ।


तक-तक नैन थके


पल-पल श्याम तके ।


 


निशा अतुल्य


सुनील कुमार गुप्ता 

किसे पता था


"किसे पता था जीवन में,


साथी ऐसा दिन भी-


देखने को आयेगा।


अपने-अपने होगे,


फिर भी-


अपनत्व को तरस जायेगा।


अपने ही घर में साथी,


कैद हो कर -


जीवन बितायेगा।


घर से बाहर जाते हुए भी,


मन पल पल-


डर से घबरायेगा।


सुरक्षित रह कर भी तो,


कोरोना का बढ़ता प्रकोप-


हर किसी को डरायेगा।


अशांति ही अशांति छाई,


इस जीवन में-


कब-तक मन को भरमायेगा?


किसे पता था जीवन में,


 


 साथी ऐसा दिन भी-


देखने को आयेगा।।"


 


          सुनील कुमार गुप्ता 


डॉ0 हरि नाथ मिश्र

तृतीय चरण (श्रीरामचरितबखान)-5


 


पुनः चले आगे प्रभु रामा।


संग सीय, लछिमन बलधामा।।


     ऋषि-मुनि बृंद राम सँग चलहीं।


      प्रभु-संसर्ग परम सुख पवहीं।।


नर-कंकाल-ढेर मग देखा।


प्रभु-हिय खिन्न-बिषाद बिसेखा।।


     भरि जल दृगन मुनिन्ह तें पूछहिं।


      कारन कवन बता बिनु सोचहिं।।


मुनि तब कहे असुर अस करहीं।


जगि करि नासु मुनिन्ह ते मरहीं।।


     सभ कंकाल मुनिन्ह कै हउवै।


      करम निंद्य असुरन्ह कै भउवै।।


तब प्रभु हस्त उठा प्रन करहीं।


निसिचर-नासु अवसि अब भवहीं।।


     सिष्य अगस्ति राम मग मिलही।


     जाकर नाम सुतीछन रहही।।


सिष्य सुतीछन रह बड़ भागी।


राम-दरस पायो बिनु माँगी।।


     बिनु जगि-तप अरु भगति-बिरागा।


     ग्यान-ध्यान-प्रभु-पद-अनुरागा।।


बिनु ब्रत-त्याग-धरम अरु नेमा।


नहिं कोउ पाइ सकत प्रभु-प्रेमा।।


    अस सोचत मग नाचत-गावत।


     दिकभ्रम होइ चलत मुनि धावत।।


अस विह्वल गति जानि मुनी कै।


लइ तरु-ओट लखहिं प्रभु वहि कै।।


     औचक जनु प्रभु धरि हिय ध्याना।


     भे अचेत जनु निकसा प्राना ।।


राम जानि तेहिं बहु झकझोरा।


जागै नहिं मुनि परम कठोरा।।


     प्रेम बिबस प्रभु तिसु हिय प्रगटे।


      रूप चतुर्भुज धरि तिन्ह लिपटे।।


होइ अचंभित मुनि जब जागे।


राम-लखन-सिय देखहिं आगे।।


    परम भागि प्रभु दरसन दीन्हा।


    मों सम दीन भगत प्रभु चीन्हा।।


पुनि मुनि प्रभु-गुन बहुत बखाना।


बिमल भगति बर प्रभु तें पाना।।


दोहा-लेइ लखन-सिय-राम कहँ,आश्रम गए सुतीक्ष्ण।


        रहहिं जहाँ गुरु कुम्भजइ, ब्रह्म-सक्ति-बल तीक्ष्ण।।


        राम कहे मुनि- दरस को,गए बहुत दिन बीत।


        दरस-लाभु मैं पाइ के,मेटहुँ टीस अतीत ।।


        जा सुतीक्ष्ण मुनि अगस्त्य पहँ, कहहि बिनू बिश्राम।


        मुनिवर तव दरसन-ललक,धरि हिय आयो राम।।


                        डॉ0 हरि नाथ मिश्र


                          9919446372


डॉ0 हरि नाथ मिश्र

चौथा अध्याय (श्रीकृष्णचरितबखान)-4


 


गया कंस तुरतै निज गेहा।


मन प्रसन्न अरु पुलकित देहा।।


    निसा-बिगत बुलाइ निज सचिवहिं।


   तिनहिं बताया माया-कथनहिं।।


मंत्री तासु न नीतिहिं निपुना।


असुर-सुभाउ, बोध तिन्ह किछु ना।।


    रखहिं सुरन्ह सँग रिपु कै भावा।


    अस मिलि सभ कंसहिं समुझावा।।


भोजराज! तव आयसु मिलतइ।


लघु-बड़ गाँव-नगर महँ तुरतइ।।


     हम सभ जाइ अहीरन्ह बस्ती।


     जे सिसु लिए जनम निज नियती।।


पकरि क तिनहिं बधहुँ तहँ जाई।


अस करनी महँ नाहिं बुराई।।


     नहिं करि सकहिं लराई देवा।


     समर-भीरु ते का करि लेवा।।


तव धनु कै सुनतै टंकारा।


भागहिं सभें बिनू ललकारा।।


    लखतै तव सायक-संधाना।


    इत-उत भागहिं देवहिं नाना।।


केचन तजहिं भूइँ निज सस्त्रा।


केचन खोलि चोटि-कछ-बस्त्रा।।


    आवहिं तुम्हरे सरनहिं नाथा।


     कर जोरे नवाय निज माथा।।


कहहिं नाथ भयभीतहिं हम सब।


रच्छा करहु नाथ तुमहीं अब।।


     मारउ तू नहिं तिनहीं नाथा।


     सस्त्र-बिहीन रथहिं नहिं साथा।।


दोहा-जुधि तजि जे भागै तुरत,मारहु तिन्ह नहिं नाथ।


          तुमहिं पुरोधा पुरुष हौ,कहा सचिव नइ माथ।।


                      डॉ0 हरि नाथ मिश्र


                       9919446372


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