बलिदानी फूल
स्वतन्त्रता से पूर्व के दिन थे। पूना में भयंकर प्लेग फैला हुआ था। प्रतिदिन सैैकड़ों लोग तड़प-तड़प कर दम तोड़ रहे थे। परन्तु अंग्रेजी सरकार को इससे कोई सरोकार नहीं था। उसका दमन चक्र और अधिक क्रूर होता जा रहा था। सरकार लोगों में फैल रही स्वतन्त्रता की चिंगारी को दबा देना चाहती थी।
ऐसे ही समय में नदी के किनारे बने एक वीरान मन्दिर के खंडहर में आज एक बैठक हो रही थी। बैठक में आए लोग ज़मीन पर अर्द्ध गोलाकार में बैठे थे। तभी पीछे से एक व्यक्ति आकर कोई सूचना देता है। लोगों में कानाफूसी शुरू हो जाती है-“दद्दा जी आ गए।“ सभी लोग इस नौजवान क्रान्तिकारी को देखने को बेहद उत्सुक थे।
दद्दा जी दो लोगों के साथ आए और मध्य में बैठ गए। बैठक शुरू हो गयी। बैठक में सम्मिलित अधिकांश नौजवान बेहद जोश में थे। सभी अंग्रेजों के अत्याचारों के विरुद्ध अपना रोष व्यक्त कर रहे थे।
दद्दा जी ने बताया सारे देश में अंग्रेजी सरकार निर्दोष भारतीयों पर अत्याचार कर रही है। इसलिए हम नौजवानों ने देश को आजाद कराने का बीड़ा उठाया है। यहाँ प्लेग से हजारों परिवार उजड़ चुके और सरकार के कान पर जूँ तक नहीं रेंग रही। प्लेग की रोकथाम करने के बजाय अंग्रेज अधिकारी रैंड लोगों के घर में जबरन घुस-घुस कर उनके घरों की तलाशी ले रहे थे। निर्दोष भारतीयों को तरह-तरह से तंग कर रहे थे। प्लेग तो एक बहाना था, वास्तव में सरकार क्रान्तिकारी गतिविधियों से भयभीत है और उन्हें दबा देना चाहती है। परन्तु हम उसकी चालों को कामयाब नहीं होने देंगे। दल ने क्रूर और अत्याचारी अंग्रेज अधिकारी रैंड को मारने का फैसला कर लिया है। तुममें से जो इस काम के लिए तैयार हो, वह हाथ उठाए।
सभा में उपस्थिति अधिकांष लोगों ने अपना-अपना हाथ उठा दिया।
दद्दा जी ने समझाया-“क्रान्ति की राह बहुत कठिन है। इस राह में काँटे ही काँटे हैं। जिसे जीवन का मोह न हो वही इस मार्ग पर आगे आए।“
बैठक में मौजूद बाल कृष्ण चाफेकर ने कहा- “मैं इस बैठक में सबसे छोटा हूँ। मैं चाहता हूँ कि मुझे यह काम सौंपकर भारत माँ की सेवा करने का अवसर दिया जाए। दामोदर चाफेकर और बालकृष्ण चाफेकर दोनों सगे भाई थे। अंत में दोनों के अनुरोध को स्वीकार कर उन्हें रैंड को मारने का दायित्व सौंपा गया।
इस बैठक से कुछ दिन बाद की बात है। बाईस जून का दिन था। उस दिन सारे देश में महारानी विक्टोरिया का जन्मदिन बड़ी धूम-धाम से मनाया जा रहा था। देश की राजधानी दिल्ली में एक विशाल समारोह का आयोजन किया गया था। समारोह में सुरक्षा व्यवस्था बनाए रखने के लिए देश के अन्य भागों से बड़ी संख्या में पुलिस बल को दिल्ली बुलाया गया था। पूना से भी काफी संख्या में पुलिस के अधिकारी और सिपाही दिल्ली गये हुए थे।
भयानक महामारी के बावजूद पूना में इस उपलक्ष्य में भव्य समारोह का आयोजन किया गया। अंग्रेज सिपाहियों को इस खुशी के मौके पर सरकार द्वारा मुफ्त शराब पीने को दी गई। सभी पुलिस वाले शराब पीने में मस्त थे।
रात के लगभग 11 बजे का वक्त था। समारोह अभी चल रहा था। उसी समय दो नौजवान समारोह स्थल पर आये। समारोह में इक्का-दुक्का ही पुलिस वाले दिखाई पड़ रहे थे और वे भी बातें करने में मशगूल थे। इसलिए दोनों नवयुवक निर्विघ्न अंदर पहुंच गए।
अंदर अंग्रेज अधिकारी रैंड बैठा हुआ लोगों को अपने कारनामे सुना रहा था। लोग हंस रहे थे। तभी दोनों नवयुवकों ने अपने रिवाल्वर निकाल लिए। वे बोले-“निर्दोष भारतीयों के रक्त से अपने हाथ रंगने वाले कुत्ते आज तुझे तेरी राज भक्ति का मज़ा चखाया जाएगा।“ और उन दोनों ने रैंड को गोली मार दी। गोली चलते ही भगदड़ मच गई। “पकड़ो-पकड़ो“ की आवाजें़ आने लगीं। परन्तु जब तक शराब में गाफिल पुलिस वाले आएं तब तक दोनों नवयुवक, बालकृष्ण और दामोदर चाफेकर वहाँ से फरार हो गए।
रैंड की हत्या से ब्रिटिश पुलिस चैकन्नी हो गई। सारे शहर की नाकेबंदी कर दी गई और अपराधियों की सरगर्मी से तलाश की जाने लगी। पूरे शहर में डोंढी पिटवाई जा रही थी कि जो रैंड के हत्यारों को पकड़वाएगा उसे बीस हज़ार रुपये का ईनाम दिया जाएगा।
एक जगह हरिशंकर और गणेश शंकर नामक दो नौजवान बैठे ताश खेल रहे थे। वे दोनों बालकृष्ण चाफेकर और दामोदर चाफेकर के मित्र थे। उन्होंने भी इस घोषणा को सुना। गणेश शंकर बीस हजार रुपये की बात सुनकर लालच में आ गया। वह बोला-“मैं बालकृष्ण चाफेकर और दामोदर चाफेकर को पकड़वा कर ईनाम के बीस हजार रुपये प्राप्त करूँगा।“ हरिशंकर ने कहा “तुम बालकृष्ण चाफेकर और दामोदर चाफेकर के मित्र हो। क्या मित्र का यही धर्म होता है ? और फिर तुमने भी तो उस दिन बैठक में देश के लिए कार्य करने की शपथ ली थी। अब क्या तुम बालकृष्ण चाफेकर और दामोदर चाफेकर को पकड़वाकर देश के साथ गद्दारी करोगे ?“ हरिशंकर के समझाने-बुझाने का गणेश शंकर पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा और वह दोनों को पकड़वाने की योजना बनाता हुआ घर की ओर चल दिया।
दूसरे दिन वह पुलिस अधिकारी बु्रइन के पास पहुँचा है। उसने बताया-“मिस्टर रैंड की हत्या बालकृष्ण चाफेकर नामक दो भाइयों ने की है। मैं उन दोनों को अच्छी तरह जानता हूँ और उन्हें गिरफ्तार करा सकता हूँ।“ पूरी तहकीकात करने के बाद ब्रुइन पुलिस को लेकर गणेश शंकर के साथ दामोदर चाफेकर और बालकृष्ण चाफेकर के घर पहुँच गया और उन्हें गिरफ्तार कर लिया। गणेश शंकर को सरकारी गवाह बना लिया गया।
ब्रिटिश न्याय की चक्की चल पड़ी। उस समय अंग्रेजों की अदालतों से भारतीय क्रान्तिकारियों को एक ही चीज मिलती थी- सज़ा-ए-मौत। रैंड की हत्या का केस अदालत में शुरू हो गया। दोनों अभियुक्तों ने अपना अभियोग स्वीकार कर लिया।
आज अदालत में मिस्टर रैंड की हत्या के केस का फैसला होने वाला था। मुकद्दमे का फैसला सुनने के लिए आए लोगों से अदालत खचाखच भरी थी।
अंग्रेज जज ने मुल्जिम दामोदर चाफेकर से बयान देने को कहा।
दामोदर चाफेकर ने अपने बयान में कहा-“अंग्रेज सरकार प्लेग के बहाने हमारी राष्ट्रीय गतिविधियों को दवा देना चाहती थी। अत्याचारी अंग्रेज अधिकारी रैंड अपने क्रूर कारनामों से हमारी क्रान्तिकारी गतिविधियों, राष्ट्रीय, भावना, संस्कृति, धर्म तथा हमारी आत्मा को कुचल देना चाहता था। अतः मैंने गोली मार कर उस नर-पिशाच को उसकी राज-भक्ति का उचित पुरस्कार दे दिया। मुझे उसको गोली मारने का खेद नहीं, गर्व है। भारत माँ शीघ्र ही स्वतन्त्र होगी।“
दामोदर चाफेकर के बयान से अदालत में भारी उत्तेजना फैल गई थी।
जज ने दूसरे अभियुक्त बालकृष्ण चाफेकर से बयान देने का आदेश दिया।
बालकृष्ण चाफेकर ने अपने बयान में कहा-“मैं अपने ऊपर लगाये गए रैंड की हत्या के आरोप को सहर्ष स्वीकार करता हूँ। जिस प्रकार मार्ग में चलता हुआ पथिक अपने मार्ग मंे आने वाले काँटों को हटा देता है, उसी तरह स्वतन्त्रता के मार्ग में आने वाले रैंड रूपी काँटे को हमने हटा दिया है। दमन और अत्याचारों के द्वारा अब स्वतन्त्रता को चिंगारी को अधिक दिनों तक नहीं दबाया जा सकता। एक दिन यह चिंगारी भयानक आग का रूप धारण करेगी। जिसमें जलकर यह ब्रिटिश साम्राज्य भस्म हो जाएगा।“
पुलिस अधिकारी ने सरकारी गवाह के रूप में गणेश शंकर को अदालत में पेश किया। गणेश शंकर ने बयान दिया कि -“मी लार्ड, दामोदर चाफेकर तथा बालकृष्ण चाफेकर ने मेरे सामने ही मिस्टर रैंड को गोली.....“
मगर उसका बयान अधूरा ही रह गया, अचानक अदालत में-“भारत माता की जय“ और “इंक्लाब ज़िन्दाबाद“ के नारे लगाते हुए गोपाल कृष्ण चाफेकर ने प्रवेश किया, और रिवाल्वर से मुखबिर गणेश शंकर को गोली मार दी।
अदालत में भारी अफरा-तफरी मच गई। जज ने गोपाल कृष्ण चाफेकर को फौरन हिरासत में लेने का आदेश दिया। अदालत में मौजूद पुलिस अधिकारियों ने उसे गिरफ्तार कर लिया।
बालकृष्ण चाफेकर और दामोदर चाफेकर दोनों अपने छोटे भाई गोपाल कृष्ण चाफेकर के इस साहसिक कार्य से हैरान रह गये।
बालकृष्ण ने गोपाल कृष्ण से पूछा, “भइया, अंधी और बूढ़ी माँ की सेवा के लिए तुम्हीं तो रह गए थे, तुम यहाँ क्यों चले आए ?“
गोपाल कृष्ण बोला-“मैं माँ से आज्ञा लेकर आया हूँ भइया। जब एक ही डाली के दो फूल माँ भारती के चरणों में न्योछावर हो रहे हों तो तीसरा फूल उस सौभाग्य से वंचित क्यों रहे ?“
गोपाल कृष्ण से जज ने बयान देने को कहा। गोपाल कृष्ण बोला, “पैसे के लिए अपनी आत्मा और मित्रता को बेचने वाले गणेश शंकर नामक गद्दार को मैं यह बताना चाहता था कि क्रान्तिकारी वीरों से गद्दारी करने का अंजाम क्या होता है। “मी लार्ड! मैंने यहाँ आकर उसे इसलिए गोली मारी जिससे अंग्रेज अधिकारी यह देख लें कि भारत माँ की कोख से गणेश शंकर जैसे मुखबिर नहीं देश पर प्राण न्योछावर करने वाले नवयुवक जन्म लेते हैं। मैं गणेश शंकर की हत्या के आरोप को सहर्ष स्वीकार करता हूँ।“
तीन अभियुक्तों के बयानों के बाद जज ने अपना फैसला सुनाया-“सारे सबूतों एवं आरोपों पर विचार करने के बाद अदालत इस निष्कर्ष पर पहुँची कि मिस्टर रैंड की हत्या दामोदर चाफेकर एवं बालकृष्ण चाफेकर तथा गणेश शंकर की हत्या गोपाल कृष्ण चाफेकर ने की है। तीनों अभियुक्तों ने अपने ऊपर लगाए गए आरोपों का खुद भी इकबाल किया है। अतः अदालत उन्हें हत्या और राजद्रोह का मुजरिम करार देती है और तीनों अभियुक्तों को भारतीय दण्ड सहिता की धारा 302 के तहत सज़ा-ए-मौत देती है।“ इसी के साथ अदालत बर्खास्त हो गई। फांसी देने से पूर्व अंग्रेज अधिकारी ने उन तीनों से उनकी आखिरी इच्छा पूछी। दामोदर चाफेकर बोला-“मैं ब्रिटिश साम्राज्य का विनाश चाहता हूँ।“
अंग्रेज अधिकारी बोला-“आज तुम लोगों का आखिरी दिन है, कम से कम मरने से पूर्व तो शांति की बातें करो।“
बालकृष्ण चाफेकर ने कहा-“मैं शाति नहीं क्रान्ति चाहता हूँ। मैं चाहता हूँ कि एक ऐसी आग लगे जिसमें यह ब्रिटिश साम्राज्य और भारत माँ की परतंत्रता जलकर भस्म हो जाए।“
अंग्रेज अधिकारी ने घबरा कर घड़ी देखी और फांसी लगाने की आज्ञा दी। तीनों भाई एक दूसरे से गले मिले और हाथ में गीता लिए हुए फांसी के फंदे पर झूल गए। भारत माँ की वेदी पर स्वतंत्रता की आस लिए हुए तीनों अधखिले फूल बलिदान हो गये।
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