गाँव की खुशबू
बहुत याद आए वो मंज़र सुहाना,
बगीचे में जाना,नदी में नहाना।
पीपल-तले बैठ कर हो मुदित नित-
मधुर तान मुरली का रह-रह बजाना।।
वो मंज़र सुहाना।
खेत को जोतते बजती बैलों की घंटी,
मंदिरों में भी घड़ियाल बजते सुहावन।
बहुत मन को भाता था गायों का चरना,
कूदते संग में उनके बछड़े मन-भावन।
कान में डाल उँगली जब गाता चरवाहा-
बहुत याद आए सुरीला वो गाना।।
वो मंज़र सुहाना।।
खेत की सारी फसलें जो थीं लहलहाती,
चना और अरहर-मटर भी थी भाती।
बगल बाग में आम-महुवा की खुशबू,
याद सबकी हमें आज रह-रह सताती।
नहीं भूल पाता मेरा मन ये कोमल-
किसी माँ का लोरी गा शिशु को खिलाना।।
वो मंज़र सुहाना।।
सरसों के फूलों का गहना पहन कर,
करतीं नर्तन थीं सीवान भी मस्त होकर।
होतीं थीं प्यारी सी सुबहें सुहानी जो,
रात के तम घनेरे को शबनम से धोकर।
गाँव का प्यारा-सीधा-सलोना सा जीवन-
नहीं भूलता नित वो शाला का जाना।।
वो मंज़र सुहाना।।
वो सावन की कजरी,वो फागुन का फगुवा,
झूलते झूले-रंगों के वो दिलकश नज़ारे।
आज भी जब-जहाँ भी रहूँ मैं अकेला,
उनकी आवाज़ें हो एक मुझको पुकारे।
हाट-बाजार-मेलों की तूफ़ानी हलचल-
हो गया है असंभव अब उनको भुलाना।।
वो मंज़र सुहाना।।
गाँव की गोरियों का वो पनघट पे जाना,
सभी का वो सुख-दुख को खुलके बतियाना।
पुनः निज घड़ों में रुचिर नीर भर कर ही,
मधुर गीत गा-गा कर,त्वरित घर पे आना।
चाह कर भी न भूलेगा वो प्यारा सा आलम-
था घूँघट तले उनका जो मुस्कुराना।।
वो मंज़र सुहाना।।
© डॉ0 हरि नाथ मिश्र
9919446372