डॉ0 हरि नाथ मिश्र

गाँव की खुशबू


 


बहुत याद आए वो मंज़र सुहाना,


बगीचे में जाना,नदी में नहाना।


पीपल-तले बैठ कर हो मुदित नित-


मधुर तान मुरली का रह-रह बजाना।।


              वो मंज़र सुहाना।


 


खेत को जोतते बजती बैलों की घंटी,


मंदिरों में भी घड़ियाल बजते सुहावन।


बहुत मन को भाता था गायों का चरना,


कूदते संग में उनके बछड़े मन-भावन।


कान में डाल उँगली जब गाता चरवाहा-


बहुत याद आए सुरीला वो गाना।।


             वो मंज़र सुहाना।।


 


खेत की सारी फसलें जो थीं लहलहाती,


चना और अरहर-मटर भी थी भाती।


बगल बाग में आम-महुवा की खुशबू,


याद सबकी हमें आज रह-रह सताती।


नहीं भूल पाता मेरा मन ये कोमल-


किसी माँ का लोरी गा शिशु को खिलाना।।


            वो मंज़र सुहाना।।


 


सरसों के फूलों का गहना पहन कर,


करतीं नर्तन थीं सीवान भी मस्त होकर।


होतीं थीं प्यारी सी सुबहें सुहानी जो,


रात के तम घनेरे को शबनम से धोकर।


गाँव का प्यारा-सीधा-सलोना सा जीवन-


नहीं भूलता नित वो शाला का जाना।।


              वो मंज़र सुहाना।।


 


वो सावन की कजरी,वो फागुन का फगुवा,


झूलते झूले-रंगों के वो दिलकश नज़ारे।


आज भी जब-जहाँ भी रहूँ मैं अकेला,


उनकी आवाज़ें हो एक मुझको पुकारे।


हाट-बाजार-मेलों की तूफ़ानी हलचल-


हो गया है असंभव अब उनको भुलाना।।


               वो मंज़र सुहाना।।


 


गाँव की गोरियों का वो पनघट पे जाना,


सभी का वो सुख-दुख को खुलके बतियाना।


पुनः निज घड़ों में रुचिर नीर भर कर ही,


मधुर गीत गा-गा कर,त्वरित घर पे आना।


चाह कर भी न भूलेगा वो प्यारा सा आलम-


था घूँघट तले उनका जो मुस्कुराना।।


          वो मंज़र सुहाना।।


          © डॉ0 हरि नाथ मिश्र


             9919446372


सुनील कुमार गुप्ता

महके जीवन बगिया साथी


 


"राग-विराग संग जीवन में,


चलना दुर्गम-पथ पर साथी।


दीपक जले नेह का पल-पल,


पग-पग सुख ही होगा साथी।।


आस्था संग ही जीवन को,


फिर मिलेगा आधार साथी।


खोये न आधार जीवन का,


इतना सोचो पल-पल साथी।।


मोह-माया के बंधन संग,


खिले न अपनत्व का फूल साथी।


प्रेम-सेवा-त्याग संग फिर,


महके जीवन बगिया साथी।।"


 सुनील कुमार गुप्ता


राजेंद्र रायपुरी

क्यों बनाया है ख़ुदा तू दिल बता दे।


क्यों किया जीना जहां मुश्किल बता दे।


 


कर सके इंसान के दुख दूर सारे,


कौन इतना इस जहां काबिल बता दे।


 


भेज दी तूने वो विपदा जो है कातिल,


क्या हुआ इससे तुझे हासिल बता दे।


 


रौनकें सब छिन गईं हैं इस जहां की,


अब कहाॅ॑ पहले सी वो महफ़िल बता दे।


 


कर रहे थे हम इबादत साथ मिलकर, 


कौन होता आज़-कल शामिल बता दे।


 


             ।। राजेंद्र रायपुरी।।


कालिका प्रसाद सेमवाल

मां सरस्वती


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हे मां सरस्वती,


तू प्रज्ञामयी मां


चित्त में शुचिता भरो,


कर्म में सत्कर्म दो


बुद्धि में विवेक दो


व्यवहार में नम्रता दो।


 


हे मां सरस्वती


हम तिमिर से घिर रहे,


तुम हमें प्रकाश दो


भाव में अभिव्यक्ति दो


मां तुम विकास दो हमें।


 


हे मां सरस्वती


विनम्रता का दान दो


विचार में पवित्रता दो


व्यवहार में माधुर्य दो


मां हमें स्वाभिमान का दान दो।


 


हे मां सरस्वती


लेखनी में धार दो


चित्त में शुचिता भरो,


योग्य पुत्र बन सकें


ऐसा हमको वरदान दो।।


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कालिका प्रसाद सेमवाल


मानस सदन अपर बाजार


रुद्रप्रयाग उत्तराखंड


पिनकोड 246171


डॉ0 हरि नाथ मिश्र

पाँचवाँ अध्याय (श्रीकृष्णचरितबखान)-4


 


कछु दिन बाद सौंपि ब्रज-भारा।


गाँव-गऊ गोपिहिं कहँ सारा।।


    गए नंद जहँ मथुरा नगरी।


    अरपन करन कंस -कर सगरी।।


नंद-आगमन सुनि बसुदेवा।


गए नंद जहँ आश्रय लेवा।।


     लखतै बसू नंद भे ठाढ़ा।


     बरनि न जाए प्रेम-प्रगाढ़ा।।


विह्वल तन-मन उरहिं लगावा।


मृतक सरीर प्रान जस पावा।।


    करि आदर-स्वागत-सतकारा।


    तुरतै दइ आसन बइठारा।।


रह न आस तुमहीं कोउ सुत कै।


पर अब पायो सुत निज मन कै।।


     बहुतै भागि मिलन भय हमरा।


      अद्भुत मिलन मोर अरु तुम्हरा।।


प्रेमी जन जग बिरलइ मिलहीं।


मिलहिं ज ते पुनि जन्महिं भवहीं।।


  जे बन रहहिं सुजन सँग अबहीं।


  बंधु-बांधव- गउहिं तुमहीं।।


      किम बन उहहिं अहहिं परिपुरना।


      घासहिं-लता-नीर अरु परना।।


अहहिं न पसु सभ कुसल-निरोगा।


मिलै घास किम तिनहिं सुजोगा।।


    कहहु भ्रात रह कस सुत मोरा।


   संग रोहिनी मातुहिं-छोरा ।।


लालन-पालन जसुमति करहीं।


माता-पिता तुमहिं सब अहहीं।।


    जातें जगत सुजन सुख लहहीं।


    धर्महिं-अर्थ-काम नर उहहीं।।


नंदयि कहे सुनहु बसुदेवा।


बहु सुत तोर कंस हरि लेवा।


    रही एक कन्या तव अंता।


     स्वर्गहिं गई उहउ तुरंता।।


सब जन सुख-दुख भागि सहारे।


निसि-दिन प्रानी उहहि निहारे।।


   सुख-दुख कारन केवल भागी।


   जानै जे न रहै अनुरागी ।।


दोहा-सुनहु भ्रात हे नंद तुम्ह,जाउ तुरत निज गाँव।


        इहाँ होत उत्पात बड़,रुकउ न अब यहि ठाँव।।


       सुनत बचन बसुदेव कै, नंद संग सभ गोप।


       बैठि बैलगाड़ी सभें,गोकुल गे बिनु कोप।।


                     डॉ0 हरि नाथ मिश्र


                       9919446372


डॉ0 हरि नाथ मिश्र

तृतीय चरण (श्रीरामचरितबखान)-9


 


लखि बहु चकित-थकित निज सेना।


कह खर-दूषन कोमल बैना ।।


    सचिव बुला कहहि एतबारा।


    लागत ई कोउ राजकुमारा।।


बहु सुर-असुर,नाग-मुनि देखे।


जीति मारि बहु नरन्ह बिसेखे।।


    कोउ नहिं अस सुंदर जग माहीं।


    जिन्ह तुलवहुँ नृप-बालक आहीं।।


जदपि कृत्य तिसु छिमा न जोगू।


श्रुति-नासा कटि सकत सँजोगू।।


     लेहु चोरा जा तिरिया तासू।


     कहहु लवटि जा गृहहिं निरासू।।


सुनि सनेस दूतन्ह अस रामहिं।


निज मन बातिन बिहँसि सुनावहिं।।


     हम आखेट हेतु बन बसहीं।


     छत्री-सुत हम कबहुँ न डरहीं।।


हो बलवंत भले रिपु मोरा।


डरहुँ न काल,हतउँ तन तोरा।।


    तुम्ह सम हिंसक पसु बन खोजहुँ।


    मिलहिं जे बन मा तिनहिं दबोचहुँ।।


हम मुनि-पालक जद्यपि बालक।


खल-कुल-दनुज होंहिं हम घालक।।


     जदि मन कह न लरन तुम्ह सबकै।


      जाहु प्रसन्न होहि तनि-तनि कै।।


हतउँ न केहू बिनु जुधि कइ के।


बधहुँ तिनहिं खलु लरहिं जे चढ़ि के।।


      जुधि रिपु-कृपा होय कदराई।


      मो सम जोधा कबहुँ न भाई।।


अस सुनि खर-दूषन भय क्रोधित।


निकसे जुद्ध करन बिनु रोधित।।


दोहा-लेइ असुर-दल चलि पड़े,खर-दूषन दोउ भ्रात।


        'मार'-'मार' उद्घोष कर,रन-भुइँ महँ बलखात।।


                      डॉ0 हरि नाथ मिश्र


                       9919446372


नूतन लाल साहू

पुरखा के सुरता


पुरखा के डिही म, दीया ल जला लेे


पुरखा के सुरता ल, कभू झन भुलाबे


पुरखा के चलाये,रीति रिवाज


सुमत म चलत हे,पूरा संसार


पुरखा नी चाहय, खरचा कर जादा


नाम चलत रहय, इही चाहत हे


पुरखा के डिही म, दीया ल जला लेे


पुरखा के सुरता ल, कभू झन भुलाबे


बर पीपर, अमरईया,पुरखा के निशानी


छइहा पावत हे, लइका अउ सियान ह


रघुकुल रीति,सब झन ल याद हे


परान दे दे, पुरखा नी चाहत हे


पुरखा के डिही म, दीया ल जला लेे


पुरखा के सुरता ल, कभू झन भुलाबे


पुरखा ल देवता कहवइया,समाज ह


वोला काबर भूलावत जात हे


पुछथव अपन आप सो,काबर होवत हे अइसना


कभू कुछु मागय नहीं,पुरखा ह अधिकार ल


पुरखा के डिही म, दीया ल जला लेे


पुरखा के सुरता ल, कभू झन भुलाबे


काबर नइ जानय,महू ल बनना हे पुरखा


नइ कहावन, कुलटा अउ कुलबोरनी


भीतरे भीतर कसकत हे,पुरखा के मन हा


काबर भूलावत हे,अपन पुरखा ल


पुरखा के डिही म, दीया ल जला लेे


पुरखा के सुरता ल, कभू झन भुलाबे


पुरखा कोन सो, कहय अपन पीरा ल


बच्छर दिन बाद, आथे सुरता ह


खोजत हव मय हा,अपन वो ही गांव ल


सपना म घलो,अपन पावव वो पल के आंनद ल


पुरखा के डिही म, दीया ल जला लेे


पुरखा के सुरता ल, कभू झन भुलाबे


नूतन लाल साहू


दुर्गा प्रसाद नाग

वो किताब अब भी जिंदा है...


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जिस पर तेरा नाम लिखा है,


रंग बिरंगे फूलों जैसा।


 


जिस पर मेरा दर्द लिखा है,


रेगिस्तान के शूलों जैसा।।


 


कितनी मिन्नत की थी मैने,


तब तुमने वो नाम लिखा था।


 


अपने आंसू की स्याही से,


सुबह-ओ-शाम लिखा था।।


 


मेरे जीवन की सांसों का,


एक वही स्वर- सजिंदा है।


 


वो किताब अब भी जिंदा है...


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जिसमें इक "तस्वीर" है तेरी,


जिससे हंसकर बात करूं मैं।


 


जिसमें इक तकदीर है मेरी,


जन्नत दिन और रात करूं मैं।।


 


कितनी कोशिश की थी मैने,


तब तुमने तस्वीर वो दी थी।


 


उससे वक्त कटेगा मेरा........,


समझो बस "शमशीर" वो दी थी।।


 


सारे पन्नों के समाज में,


जैसे वो भी बासिंदा है।


 


वो किताब अब भी जिंदा है...


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जिसमें एक गुलाब रखा है,


मरा हुआ है, सूख चुका है।


 


अपनी अंतिम सांसे देकर,


स्वाभिमान को फूंक चुका है।।


 


कितनी चाहत की थी मैने,


तब तुमने वो फूल दिया था।


 


सूनी आंखों में चुभता है,


ऐसा तुमने शूल दिया था।।


 


खुशबू उसकी अभी अमर है,


लेकिन फूल नहीं जिंदा है।


 


वो किताब अब भी जिंदा है...


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जिसके सीने पर रखा वो,


लाल- कलम अब भी रोता है।


 


जैसे इक मां के आंचल से,


"लाल" लिपटकर के सोता है।।


 


कितनी इज्जत की थी मैने,


तब तुमने वो कलम दिया था।


 


लिखने को ये गीत अधूरा,


तुमने साज-ए-अलम दिया था।।


 


तुम्हीं बताओ कैसे लिख दूं ,


तेरा प्यार कहीं जिंदा है।


 


वो किताब अब भी जिंदा है...


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कितनी बार कहा था तुमसे,


मुझको प्रिया गीत वो लिख दो।


 


मेरा मन बहलाने को ही,


मुझको पागल मीत ही लिख दो।।


 


कितनी हिम्मत की थी हमने,


तब तुमने वो गीत लिखा था,


 


याद रहे मुझको जीवन भर,


ऐसा स्वर- संगीत लिखा था।।


 


आज जुदा हो जाने पर भी


"दुर्गा" तुमसे शर्मिन्दा है।


 


वो किताब अब भी जिंदा है...


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दुर्गा प्रसाद नाग


नकहा- खीरी


मोo- 9839967711


डॉ.राम कुमार झा निकुंज

मन का उद्गार जीवन साथी के नाम


मधुर मीत बनूँ सुखधाम


 


मन माधव नव कलित ललित हृदय अविराम ,


मन का उद्गार जीवन साथी के नाम।


मुदित हृदय मकरन्द सुरभि मुख सरोज रसपान,


लोल कपोल कल्पित रसाल मधु प्रिय अभिराम।


गन्धमादन सम तनु सुगन्ध वल्लभ मन रतिभान।


कमलनयन अभिलाष मदन मनसि अभिराम।


पूर्णमास निशिचन्द्र प्रभा मुदित कुमुद रसभान। 


अभिनव कोकिल गान मधुर प्रियम सुखधाम।


कुसुमित निकुंज अलि गूँज पराग मधुपान।


घनश्याम घटा सावन अम्बर लखि मुस्कान।


सजन सखि चितचोर कहाँ बिन दर्शन विश्राम।


पुण्य मिलन आलिंगन उर स्थल प्रिय वाम।


गंगा सम नयनाश्रु सलिल प्रीति पुण्य स्नान।


सरसिज मन मकरन्द मुदित साजन रति काम।


शीतल मन्द सुगन्ध वायु मुदित मन भान।


प्रकृति मातु सुष्मित श्यामल साजन बस नाम।


कान्ता प्रिय कान्त शान्त चारु चित्त ललाम।    


नवकोपल किसलयतर कोमल विधि वरदान।


अनाघ्रात मुकुलित सुन्दर सखि शुभ शाम।


चन्द्रहास बिम्बाधर अस्मित मुख विधि काम।


सप्तसिन्धु रत्नाकर अनुपम विधि वरदान।


प्राणनाथ वल्लभ मनमोहन रट शुभ नाम।


अरुणिम प्रभात निच्छल भावन प्रियतम गान।


भव्य मनोरम चन्द्रप्रिये पुण्य सत्काम।


इन्द्रधनुष सतरंग रूपसी सखि महान।


सात जन्म तक मधुर मीत बनूँ सुखधाम।


 


 डॉ.राम कुमार झा निकुंज


नई दिल्ली


नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर

माँ बाप के उम्मीदों की


शान उनकी संतान।


ना जाने कितने सपनों


की सच्चाई का आधार


उनकी संतान।।


बुढापे की लाठी सहारा


दर्पण से तारने वाला।


जिंदगी की मेहनत कमाई


संतान को काबिल बनाने


में लगाई ।।


संतानो ने भी माँ बाप के मेहनत


की गाणी कमाई का मोल


दिन रात ईमानदारी से मेहनत


कर चुकाई।।


माँ बाप की दौलत मेहनत


संतानो की पल पल की मसक्कत


मेहनत की कीमत का कीमती वक्त लाई।।


वाजिब रोजी रोजगार की चाहत चाह नौकरी की करता नौजवान तलाश।।


नौकरी है तो सिपारिश नहीं 


बिना जुगाड़ के नौकरी नहीं।


लेकर डिग्रियों का अम्बार दर दर घूमता फिरता नौजवान ।।


कही काम का अनुभव नहीं आड़े 


काम मिलता ही नहीं तो अनुभव


कहाँ से लाये।।


टीवी अखबार में देखता रोजगार 


के प्रचार जाता जब लेकर डिग्रियों के अम्बार मिल जाता जबाब भाई जो काबिल था उसे


मिला रोजगार ।।


क्या जिन्हें नौकरी नहीं मिलती 


नाकाबिल अंगूठा छाप


कभी कहा था कवी घाघ ने 


निसिद्ध चाकरी भीख निदान।।


अब निषिद्ध से प्रसिद्ध चाकरी


ही जीवन की चाक।


जिसपे घूमते माँ बाप संतानो के


आरजू के अवनि आसमान।।


 सरकार के पास सिमित संसाधन


सिमित नौकरियों के अवसर


उसमे भी कोढ़ में खाज आरक्षण।।


कभी कभी तो रोजगार की तलाश


में बेहाल नौजवान भगवान् को


ही कर देता शर्मसार क्यों बनाया


ऊँची नस्ल की संतान।।


समाज में उंच नीच के भेद भाव से सैकड़ो साल रहा राष्ट्र गुलाम।


अब भी गुलामी का एहसास कराती उंच नीच का भेद भाव।।


रोजकार की तलाश में इधर उधर भटकता जाता थक हार।


मध्यम वान की बानगी करने


की हिम्मत नहीं जुटा पाता 


व्यपार में पैसे की दरकार पैसा 


है ही नहीं जाए तो जाए कहाँ।।


उत्तम खेती जनसंख्या के बोझ


में बाँट गयी झोपडी भी बन सके


इतनी भी नहीं रह गयी।।


माँ बाप की संतानो का अरमान


हताश निराश जिंदगी में साँसो


धड़कन की आश की करता 


तलाश।।


बहुत तो ऐसे भी जो जिंदगी


का ही छोड देते साथ खुद गर्ज़


संतान।।


करें तो क्या करे निचे अवनि ऊपर


सुना आसमान।


 शेष सिर्फ एक विश्वाश 


पढ़ा लिखा ऊर्जावान नौजवान।


बी पी एल की छतरी का मोहताज़


सरकार की मेहरबानी निषिद्ध भीख की जिंदगी घिसती पिसती


के दिन चार।।


मुफ़्त राशन ,मुफ़्त मकान ,मुफ़्त शिक्षा, मुफ़्त है बहुत कुछ लेकिन


जिंदगी भीख मंगो जैसी कटोरा


लिये खड़े है अपनी नम्बर का इंतज़ार।।


क्या होगा भविष्य राष्ट्र का 


जहाँ नौजवान पढा लिखा पास नहीं रोजी रोजकार नहीं नौकरी ना काम ना दाम।।


भीख दया की जिंदगी भय


भ्रम की मोहलत मोहताज़।।


 


नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर


एस के कपूर श्री हंस

क्या खूब किरदार


निभाते हैं लोग कई कई चेहरे


आज लगाते हैं लोग।


 


आज पराई जमीन पर लोग


अपना मकान बनाते हैं।


दूसरे के किरदार से काम


अपना बखूबी चलाते हैं।।


गजब की दुनिया और अजब


अंदाज़ है लोंगों का।


पराई आग में अपनी रोटी लोग


अब खूब पकाते हैं।।


 


कोई करता और नतीजा आज


कोई और भरता है।


लगा कर आग आज तमाशा


भी वही खूब करता है।।


हकदार बन जाता है बस


तमाशबीन दूर का।


कातिल ही आज इंसाफ की


दुहाई धरता है।।


 


अजब सा चलन आज गज़ब


की बनी कहानी है।


जिसकी लाठी उसकी भैंस


यही मनमानी है।।


सच का फैंसला हो रहा है आज


झूठ के हाथों से।


पैसे की आज वाह वाह इस की


आज सब मेहरबानी है।।


 


कहाँ जाकर रुकेगी यह अंधी


दौड़ कह नहीं सकते।


अब और नकाबों और चेहरों का


शगूफा सह नहीं सकते।।


बदलनी होगी सूरते हाल आज


नहीं तो कल को।


कयोंकि बिना तेलबाती के ये सब


चिराग रह नहीं सकते।।


 


एस के कपूर श्री हंस


बरेली।।


संजय जैन

पत्थर की कहानी


कहानी पत्थर की


सुनता हूँ तुमको।


बना कैसे ये पत्थर 


जरा तुम सुन लो।


नरम नरम मिट्टी और


रेत से बना हूँ में।


जो खेतो में और नदी के किनारे फैली रहती थी।


और सभी के काम में


बहुत आती थी सदा।।


 


परन्तु खुदगरजो ने 


मुझ पत्थर बना दिया।


न जो सोचता है और न 


पिघलता है किसी पर।


बस अपनी कठोरता के


कारण खड़ा रहता है।


और टूटकर भी अकड़


इसकी कम नहीं होती।।


 


बहुत सहा है दर्द को


और पीया है गमों को।


तभी जाकर ये


बन गया एक पत्थर।


न जो हंसता है और


न ही रोता है कभी।


और हिमालय की तरह अकड़कर खड़ा रहता है।।


 


बड़ी अजब कहानी है 


इस पत्थर की।


कोई इसको तराश कर


बना देते है भगवान।


और कोई इस पत्थर को 


लगा देता है कब्रो पर।


और पूजे जाते है दोनों


अपने अपने अंदाज से।।


 


जय जिनेन्द्र देव


संजय जैन (मुम्बई)


15/09/2020


निशा अतुल्य

महिमा विधाता तेरी


वाणी जपे सदा मेरी


अर्चन वन्दन करूँ


रटन लगाइए ।


 


राम राम जब जपूं


विपदा ही दूर करूँ


तन मन सौंप कर


कृपा मन चाहिए।


 


प्रभु तेरे गुण गान


जीवन मधुर खान


अमृत वाणी सुन के


सफलता पाइए ।


 


स्वयं जब सौंप दिया


चिंता मुक्त मन किया


प्रभु शरण बैठ के 


स्व से तर जाइए ।


 


निशा अतुल्य


डॉ0 रामबली मिश्र

मान न मान, मैं तेरा मेहमान


 


चाहे मानो या मत मान,पर मुझको मेहमान समझना।


आया हूँ मेहमानी आज , बहुत दिनों से सोच रहा था।


कल,कल,में बीते दो माह,आज मिला है मौका मुझको ।


बहुत दिनों से तुझ पर ध्यान,लगा हुआ था किन्तु विवश था।


घर में बहुत अधिक था काम,एक मिनट की नहिं थी फुरसत।


लगी थी चिन्ता मुझे विशेष,मौका आज मिला है प्यारे।


तुझसे मिलकर खुश हूँ आज,इच्छा पूरी हुई आज है।


भले करो तुम मत सत्कार,किन्तु बताओ हाल-चाल कुछ।


चाहे पानी को मत पूछ,किन्तु गर्मजोशी दिखलाओ।


भले बैठने को मत बोल,सुखा-दु:खा कुछ हो जाने दो।


मुझको मानो या मत मान,पर मेहमान तुम्हारा मैं हूँ।


 


डॉ0 रामबली मिश्र हरिहरपुरी 


9838453801


कालिका प्रसाद सेमवाल

हिन्दी का गुणगान करे


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आओ भारत के हित में


हिन्दी भाषा को अपनाते है,


सब रसो से भरी हुई है


आओ हिन्दी का गुणगान करे।


 


भारत की संस्कृति है इसमें


संस्कारों से भरी है हिन्दी,


तुलसी की मानस ने सब को


भक्ति भाव से परिपूरित किया।


 


कबीर सूर मीरा जयसी 


हिन्दी के ये सब सन्त हुए,


सभी बडें बडें रचना कारो ने


सबने हिन्दी को अपनाया है।


 


हिन्दी हमारी मातृ भाषा है


हिन्दी हमारी राष्ट्र भाषा है,


हिन्दी हमारी राज भाषा है


हिन्दी भारतीयों की भाषा है।


 


हिन्दी के हम बने उपासक


हिन्दी अपनी भाषा है,


हिन्दी से अपना पन लगता है


हिन्दी से सुरभित हो हर पल।


 


भारत मां की माथे की बिन्दी


तुम तो बडी ही महान हो,


हिन्दी भाषा सहज सरल है


हे हिन्दी तुम्हें बार -बार प्रणाम।।


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कालिका प्रसाद सेमवाल 


मानस सदन अपर बाजार


रुद्रप्रयाग उत्तराखण्ड


सुनीता असीम

मनाने में सजन को तो जमाने बीत जाते हैं।


सुने जो वस्ल के सारे तराने बीत जाते हैं।


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नहीं फिर वार भी लगते निगाहे-यार के पूरे।


जवानी जब निकल जाती निशाने बीत जाते हैं।


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जरूरी है मुहब्बत का अदब भी जानना हमको।


विसाले यार तब होता रिसाले बीत जाते हैं।


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नहीं काफी उमर भी इक मुहब्बत को समझने में।


समझ में जब तलक आता ठिकाने बीत जाते हैं।


****


मनाते हैं लुभाते हैं अदाओं से निगाहों से।


रिझाने में हसीना को दिवाने बीत जाते हैं।


****


सुनीता असीम


डॉ0 रामबली मिश्र

सुन्दर मन की रचना करना


 


चंचल मन को नियमित करना।


सुन्दर मन की रचना करना।।


 


बेलगाम का यह घोड़ा है।


इसको सदैव कसते रहना। 


 


इसे डराना अरु धमकाना।


भयाक्रांत करते रहना।।


 


करो समाजीकरण सुष्ठ नित।


समझाने की कोशिश करना।।


 


वैरागी बनने की शिक्षा-


देकर इसको गढ़ते रहना।।


 


हो अभ्यास निरन्तर पावन।


एक जगह पर इसको रखना।।


 


आध्यात्मिक हो नित्य प्रशिक्षण।


मन को पावन करते रहना।।


 


लौकिकता के मोहफाँस से।


इसे बचाते चलते रहना।।


 


काम क्रोध मद लोभ दरिन्दों।


से दूरी पर मन को रखना।।


 


सत्कर्मों में इसे लगाओ।


और लुभाते चलते रहना।।


 


मन में उत्तम संस्कार भर।


इसे सजाते चलते रहना।


 


उत्तम मानव उत्तम ग्रन्थों।


की संगति में इसको रखना।।


 


जड़ प्रधान यह क्लिष्ट निरंकुश।


इसको चेतन करते रहना।।


 


प्रेम,बुद्धि अरु सद्विवेक से।


सुन्दर मन की रचना करना।


 


डॉ0 रामबली मिश्र हरिहरपुरी 


9838453801


डाॅ-विवेकनिधि जी द्वारा रचित "कोरोना संसार" काव्य पुस्तक का लोकार्पण 


14 सितम्बर सोमवार को आर-बी-एस-नेशनल पब्लिक स्कूल सारंगविहार बालाजी पुरम नेशनल हाईवे मथुरा में कलांजलि जोनिरी इंडिया के संयुक्त तत्वावधान में हिन्दी दिवस का आयोजन वरिष्ठ साहित्यकार डॉ- दिनेश पाठक 'शशि'जी की अध्यक्षता में किया गया ।इस कार्यक्रम में मुख्य अतिथि के रूप में श्री राकेश सिंह ठैनुआ पार्षद प्रतिनिधि बालाजी पुरम नेशनल हाईवे मथुरा एवं विशिष्ट अतिथि पत्रकार भोलेश्वर उपमन्यु व डाॅ-धर्मराज जी थे।


          कार्य क्रम का शुभारंभ सुश्री अंजू सारस्वत की सरस्वती वंदना से हुआ ।तत्पश्चात सभी आगंतुक अतिथियों का कलांजलि के निदेशक डाॅ-के-उमराव 'विवेकनिधि' ने माल्यार्पण कर व दुपट्टा ओढाकर स्वागत किया ।


      इस अवसर पर डाॅ-विवेकनिधि जी द्वारा रचित "कोरोना संसार" काव्य पुस्तक का लोकार्पण सभी आगंतुक अतिथियों द्वारा किया गया। इसी क्रम में कलांजलि के अध्यक्ष इंजी- श्री संतोष कुमार सिंह जी द्वारा लिखी गई समीक्षा प्रस्तुत की गई ।इस अवसर पर सभी उपस्थित कवियों द्वारा काव्य पाठ किया गया ।जिनमें बाॅकेविहारी ,अंजू सारस्वत, श्री दिनेश सिंह चंदेल ,श्री चित्रांशु रजनीश जी,पत्रकार श्री भोलेश्वर उपमन्यु जी डाॅ-धर्म राज सिंह ,डाॅ-कृष्णावतार उमराव 'विवेकनिधि' एवं डाॅ-दिनेश पाठक 'शशि 'आदि प्रमुख थे।कैप्टन एस-डी-राय,श्री कान्त गुप्ता, रविकुमार सुशील कुमार जी,श्री मुकेश कुमार सिंह, ओमप्रकाश, श्री मती भावना शर्मा, श्री मती पूजा वर्मा एवं श्री मती ममता चौधरी, अथर्व उमराव व अद्विक उमराव, श्री सोनू गुप्ता आदि की उपस्थिति सराहनीय रही।


इस संपूर्ण कार्यक्रम की रिकॉर्डिंग आकाशवाणी व दूरदर्शन के संवाददाता मो-उमर कुरैशी एवं उनके सहयोगियों द्वारा की गई।कार्यक्रम का संचालन श्री दिनेश सिंह चंदेल ने किया एवं धन्यवाद ज्ञापन जोनरी इण्डिया लि-कंपनी के प्रभारी पत्रकार आशुतोष सिंह उर्फ दीपू ने किया।


                              डाॅ-कृष्णावतार उमराव 'विवेकनिधि'


                                       निदेशक- कलांजलि मथुरा


डॉ0 हरि नाथ मिश्र

तृतीय चरण (श्रीराचरितबखान)-8


 


तिसु श्रुति-नाक लहू अस बहही।


जनु गिरि रुधिर प्रपातइ श्रवही।।


    कहहि सुनहु तुम्ह हे मम भाई।


    बिलपत मग निज भ्रातहिं जाई।।


खर-दूषन तें ब्यथा बतावा।


धिक बल तोर जे काम न आवा।।


     लखि दुर्गति निज भगिनी कै तब।


     भए क्रुद्ध खर-दूषन सँग सब ।।


जोरि-जुहा-बुलाय निज सेना।


कह बिनास कुमार करि देना।।


   चलहिं भट्ट लइ आयुध नाना।


    आगे बहिन नाक बिनु काना।।


चलहिं भट्ट चढ़ि निज-निज बाहन।


झुंड-झुंड जनु बादर सावन ।।


     उछरत-कूदत धूरि अकासा।


     भरि ते चलहिं न होइ उदासा।।


गरजत-तरजत,भाँजत आयुध।


करहिं गुमानइ जीतब हम जुध।।


     बहु-बहु मुहँ अरु बहु-बहु बाता।


      कह मारब कोउ दुइनिउ भ्राता।।


लेइ चुरा हम तिरिया तिन्हकी।


अस कोउ कहहि देइ क धमकी।।


     आवत मग लखि असुरन्ह धावत।


      कहहिं राम लछिमन समुझावत।।


सियहिं कंदरा कहुँ लइ जाऊ।


असुर-लराई सिय नहिं भाऊ।।


     लछिमन लइ तब सीता माता।


     चले धारि आयसु निज भ्राता।।


बिहँसि राम कोदंड चढ़ाए।


देखि सत्रु-दल बिनु घबराए।।


दोहा-लागहिं राम चढ़ाइ धनु,बान्हि जटा सिर तंग।


         बाजत दुइ अहि पन्न-गिरि,कोटिक तड़ितहिं संग।।


        निज भुज धारि क चापु सिर,कटि तरकस रघुराज।


        चितवत मग जनु सिंह कोउ,अवत जूथ गजराज।।


       धरहु-धरहु कहि सत्रु-दल,बेगहिं पहुँचा धाइ।


        लगहिं राम जनु बाल रबि,घिरि मदेह बरिआइ।।


                                डॉ0 हरि नाथ मिश्र


                                  9919446372


डॉ0 हरि नाथ मिश्र

पाँचवाँ अध्याय (श्रीकृष्णचरितबखान)-3


 


एकमात्र स्वामी जग कृष्ना।


बैभव तासु बिपुल मधु रसना।।


     किसुन-जनम-उत्सव बड़ रोचक।


    दूध-दही लइ गोपिहिं मोहक।


इक-दूजहिं मुख लेपहिं सारी।


छिरकहिं मक्खन-घृत अरु बारी।।


   भूषन-बसन-गऊ बहु दीन्हा।


    नर्तक-मागध-सूतहिं चीन्हा।।


बंदी-गुनी सभें जन पाए।


बाबा नंद दीन्ह मन भाए।।


    भवहिं प्रसन्न बिष्नु भगवाना।


    होतै कर्म पुन्य अरु दाना ।।


अस बिचार करि बाबा नंदा।


दान-पुन्य बहु करहिं अनंदा।।


    करिहैं मंगल बिष्नु-बिधाता।


     अबहिं इ लइका जे नवजाता।।


भूषन-बसन धारि रोहिनी।


सूरत-सीरति जासु मोहिनी।


     स्वागत मगन सबहिं नारिन्ह कै।


     करैं रोहिनी हुलसि-हुलसि कै।।


भवा ब्रजहिं प्रभु-तेज-निवासा।


रिधि-सिधि औरु सकल गुन-बासा।।


दोहा-ब्रज मा मंगल-गान सभ,करहीं भरे उलास।


        पसु-पंछी अपि मनुज सँग,सभ हिय रहा उछाह।।


                       डॉ0 हरि नाथ मिश्र


                         9919446372


नूतन लाल साहू

सुग्घर दिन गवागे


आशा मा बइठे, जोहत हावव


अबक तबक आवत हो ही


एक नज़र देख लेतेव


सुग्घर दिन कइसन होथय


आशा मा बइठे, जोहत हावव


जब लेे मेहा जनम धरेव


मेहा कांटा सन पिरीत बदे हो


बरसा बन के आजा, तैहर


मै तो आंखी ल घोरत बइठे हावव


आशा मा बइठे, जोहत हावव


मोर मंदिर हा,तोर बिना


सुन्ना सुन्ना लागत हावय


सुरता तोला कब आ ही


सुग्घर दिन ला मेहा, जोहत हावव


आशा मा बइठे, जोहत हावव


टी बी,कैंसर, स्वाइनफ्लू, कोरोना


न जाने अउ का का बीमारी ह आ ही


बंधाय गेरवा मा बोकरा कस


चारो खुंट,मेहा घुमत हावव


आशा मा बइठे, जोहत हावव


अतेक निठुर, काबर होगेस


तोर संग भेट करेबर


चंदा सुरुज ला,बदना बदे हव


सुग्घर दिन आवत हो ही,दिया धरके बइठे हावव


आशा मा बइठे, जोहत हावव


बाढे बेटी, बाढ़े बेटा


बाचे खेती ह, घलो बेचागे


हाय हमागे, राउर छागे


थोरको नइ थिरावत हो


आशा मा बइठे, जोहत हावव


मंदिर गेव,मस्जिद अउ गुरुद्वारा गेव


आंखी के आंसू, घला सुखागे


लिख लिख पाती,भेजे हावव


सुग्घर दिन कहा गवागे


आशा मा बइठे, जोहत हावव


नूतन लाल साहू


सुनील कुमार गुप्ता

देख रहे वो सपना


आभास नहीं संबंधों का,


कैसे-कह दे उनको अपना?


तलाश अपनत्व की जीवन में,


यहाँ लगता रहा एक सपना।।


अपनत्व संग अपनत्व का यहाँ,


पल-पल देखे साथी सपना।


स्वार्थ की धरती पर पल-पल,


चलता रहा साथी अपना।।


अपनत्वहीन जीवन सारा,


फिर भी कहते रहे अपना,


सच हो न हो साथी जग में,


यहाँ देख रहे वो सपना।।


 


सुनील कुमार गुप्ता


राजेंद्र रायपुरी

दिया प्रकृति ने सब कुछ तुमको।


                        उसको ज़रा सहेजो। 


आभारी हम तेरे दाता,


                         ये संदेशा भेजो।


 


जीने को दी हवा सहज ही,


                       पीने को दी पानी।


इन्हें प्रदूषित करते हो तुम,


                     कर हर दिन मनमानी।


 


खाने को भी कंद-मूल फल,


                        बिन माॅ॑गे ही देती।


इसका भैया मोल न कुछ भी,


                       कभी प्रकृति है लेती।


 


लेकिन यही अपेक्षा उसकी,


                        वृक्ष नहीं तुम काटो।


ज़हरीले रासायन से तुम,


                        धरती को मत पाटो।


 


दिया प्रकृति ने जो भी तुमको,


                          यदि न कद्र करोगे।


मानो कहना बिना मौत ही,


                         एक न सभी मरोगे।


 


              ।। राजेंद्र रायपुरी।।


नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर

हिंदी माथे की बिंदिया 


हिंदी हिंदुस्तान है।


इसे दमकने और चमकने दो।।


क्यों कहते मेरे प्यारे देश को


इंडिया ।


हिंदी देश की शान है हिंदी


हिंदुस्तान है ,हिंदी माथे की बिंदिया इसे दमकने 


और चमकने दो।।


हिंदी भारत की प्राण है


हिंदी एकता की जान है 


हिंदी हिंदुस्तान है 


हिंदी हिन्द की शान है


हिंदी माथे की बिंदिया इसे


चमकने और निखरने दो।।


हिंदी सुबह और शाम


दिन और रात सूरज की गर्मी


चाँद की शीतल


छाया की साया बनने दो


हिंदी हिंदुस्तान है ,हिंदी माथे की


बिंदियाँ इसे चमकने


और निखरने दो।।


गुड बाय और टाटा छोड़ो


हिंदी नमस्कार प्रणाम है


हिंदी बैभव विकास मर्यादा


का मान है।


हिंदी हिंदुस्तान है 


हिंदी माथे की बिंदियां


इसे दमकने और चमकने दो।।


हिंदी आत्म भाव है


हिंदी संस्कृत संस्कार है


हिंदी पूरब पक्षिम उत्तर दखिन का भेद मिटाती स्वतंत्र राष्ट्र पहचान है।


हिंदी हिंदुस्तान है ।


हिंदी माथे की बिंदिया इसे दमकने


और चमकने दो।। हिंदी प्रेम सरोवर


हिंदी गागर में सागर


हिंदी दिनकर हिंदी जय शंकर


हिंदी नीर निराला 


महादेवी की महिमा गान है।


हिंदी हिन्दुस्तान है ।


हिंदी माथे की बिंदियाँ 


इसे दमकने और चमकने दो।।


हिंदी मीरा की भक्ति 


हिंदी रस की रस खान है


कबीर की सूफी बानी


दोहा रहीम की बान है


हिंदी हिंदुस्तान है


हिंदी माथे की बिंदियां


इसे दमकने और चमकने दो।।


हिंदी की मधुशाला है


वीरों की हाला प्याला है


हिंदी हिंदुस्तान है 


हिंदी माथे की बिंदियाँ इसे


दमकने और चमकाने दो।। हिंदी भाषा है हिंदी आशा हिंदी अटल विश्वाश है हिंदी अवनि


अम्बर है ।


हिंदी आचरण मूल्यों का सम्मान 


है ,हिंदी वंदे मातरम् हिंदी जन गण मन गान है ।


हिंदी हिंदुस्तान है 


हिंदी माथे की बिंदियाँ इसे चमकने और दमकने दो।।


 


नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर


अर्चना कटारे

हिन्दी हमारी अमर रहे


 


 मिलकर आह्वान करें


हिन्दी का सम्मान करें


उत्तर से दक्षिण तक.....


 पूरब से पश्चिम तक.....


हिन्दी गुंजायमान रहे


 


जांज पांत का भेद मिटाती


प्रेम भाव और मान बढाती


हिन्दी बोली प्यारी है


हिन्दी सबसे न्यारी है


 


आओ सभी को साक्षर करायें


हिन्दी मे हस्ताक्षर कराये


जन जन तक ये बात पहुचायें


हिन्दी से भारत माँ की मांग सजाये


 


अंग्रेजी भाषा ने बेडी बांधी


हम बोलने पर मजबूर हूऐ


अंग्रेज तो चले गये


हम पर लानत छोड गये


 


आओ इन बंधन को काटे


अब न हम मजबूर हुऐ


क्यों किसी की हुकूमत माने


हम तो आजाद पंक्षी विचर रहे


 


हम अपने भारत पर उपकार करे


हिन्दी का विकास करे


आओ लम्बी चैन बनायें


हिन्दी का मान बढायें


 


हर दिशा से हर फिंजा से


महके केशर की क्यारी


हर बच्चे बच्चे बोले 


हिन्दी की वाणीरहे


 


जांज पांत का भेद मिटाती


प्रेम भाव और मान बढाती


हिन्दी बोली प्यारी है


हिन्दी सबसे न्यारी है


 


आओ सभी को साक्षर करायें


हिन्दी मे हस्ताक्षर कराये


जन जन तक ये बात पहुचायें


हिन्दी से भारत माँ की मांग सजाये


 


अंग्रेजी भाषा ने बेडी बांधी


हम बोलने पर मजबूर हूऐ


अंग्रेज तो चले गये


हम पर लानत छोड गये


 


आओ इन बंधन को काटे


अब न हम मजबूर हुऐ


क्यों किसी की हुकूमत माने


हम तो आजाद पंक्षी विचर रहे


 


हम अपने भारत पर उपकार करे


हिन्दी कि विकास करे


आओ लम्बी चैन बनायें


हिन्दी का मान बढायें


 


हर दिशा से हर फिंजा से


महके केशर की क्यारी


हर बच्चे बच्चे बोले 


हिन्दी की वाणी


 


पूरे हिन्दोस्तां मे राज करे


हमारी मात्रृ भाषा रहे


हिंन्दी जन जन पर राज करे


हिन्दी हमारी अमर रहे


    


     अर्चना कटारे


   शहडोल (म,प्र,)


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