आशुकवि नीरज अवस्थी विश्वकर्मा जयंती

आज 17 सितम्बर भगवान विश्वकर्मा जी की जन्मोत्सव पर चन्द पंक्तियाँ


 


कला विज्ञान के दाता प्रदाता को नमन मेरा।


सकल ब्रम्हाण्ड निर्माणक विधाता को नमन मेरा।


बनाई द्वारिका सोने की लंका हाथ से अपने,


हमारे ईष्ट भगवन विश्वकर्मा को नमन मेरा।


 


सभी औजार के निर्माण प्रभुवर आप के द्वारा।


मेरी आजीविका जीवन रहा जी आप के द्वारा।


हमेशा कारखाने में मेरी रक्षा प्रभू करना,


हंमारी उन्नति का पथ प्रकाशित आपके द्वारा।


आशुकवि नीरज अवस्थी


विद्युत अभियंत्रण विभाग


गो0शु0मि0लि0 शुगर कोजेन एंड डिस्टलरी यूनिट जुआरी ग्रुप 262722 मो.-9919256950


फ़ोटो गूगल से साभार डाउनलोड करके रोचकता बढ़ाने (व्यवसायिक नहीं) हेतु अपलोड की गयी 


 


सुनीता असीम

इक कमाई धर्म की हम भी कमा ले जाएंगे।


मोह माया झूठ के नाते बहा ले जायेंगे।


***


जोड़ कर दौलत नहीं कुछ काम आती है यहां।


सोचती हूं हम खुदा के पास क्या ले जायेंगे।


***


जब बहीखाता बनेगा स्वर्ग में अपना कभी।


कर्म सारे कर सही खुद को बचाले जाएंगे। 


***


जो ग़रीबों की नहीं सुनते कभी भी आह को।


वो सभी तो आग में दोजख़ की डाले जायेंगे।


***


 आत्मा पर बोझ होगा ही नहीं कोई बड़ा।


गर दया के भाव मन में सिर्फ पाले जायेंगे।


***


सुनीता असीम


कालिका प्रसाद सेमवाल

तुम्हें गीत गाकर कहाँ तक भुँलाऊँ


****************


अधूरे मिलन की अधूरी कहानी,


मुझे छल रही हो मगर जी रहा हूँ।


न जाने ये कैसे जहर पी रही हो,


लिखूँ गीत कैसे प्रणय अधूरा।


पढूँ गीत कैसे मिलन जब न पूरा,


यहाँ पर पिपासित पड़ी जिन्दगानी।


कहाँ तक लिखू मैं अधूरी कहानी,


यही बात होगी कि तुम बोल दोगी।


पड़ेगी कही जिन्दगी जब अधोगी,


बिखरते सपन हैं बिखरती जवानी।


 


न तुम जानती हो न मैं जानता हूँ,


न तुम मानती हो न मैं मानता हूँ।


जरा देखना है कहाँ गीत ढलते,


जरा लेखना है कहाँ दीप जलते।


प्रणय की शिखा पर नयन को जलाऊँ,


तुम्हें गीत गाकर कहाँ तक भुलाऊँ।


विवश सोचता हूँ विवस रो रहा हूँ,


विवश जिन्दगानी प्रिये !ढो रहा हूँ।


मिटी जा रही है हृदय की रवानी,


क्या यही है हमारी कहानी।


 


तुम्हें कह रहा था, जरा पास आओ,


मिलन की लगन में प्रिये, मुस्कराओ।


न हम रह सकेंगे न तुम मिल सकोगी,


प्रणय की भिखारिन, कहाँ तक भगोगी।


प्रिये, आज मिलना असम्भवबना है,


बिछुड़ना बहुत प्राण, सम्भव बना है।


दुखों की कहानी न तुम जानती हो,


निठुर हो कहाँ कब मुझे मानती हो।


कहाँ आज मेरी ये जीवन निशानी,


 मुझे याद तुम्हारी बहुत सता रही है।।


*********************


कालिका प्रसाद सेमवाल


मानस सदन अपर बाजर


रुद्रप्रयाग उत्तराखण्ड


डॉ0 रामबली मिश्र

माँ सरस्वस्ती को भज प्रियवर


        


 


माँ सरस्वती की उपासना।


भजो सदा दे उच्च आसना।।


 


देख उन्हीं को सिंहासन पर ।


ध्यान धरो उनके वाचन पर ।।


 


प्रियदर्शनि माता अति प्यारी।


लोक हितैषी अजिर विहारों।।


 


ज्ञनामृत मधु रस बरसातीं।


बनी मोहिनी रूप दिखातीं।।


 


क्षुधा तृप्त करती रस बनकर।


दु:ख हरती हैं सहज निरन्तर।।


 


प्रेमविह्वला तुष्टि प्रदाता।


ऐसी कहाँ मिलेंगी माता।।


 


वीणा पुस्तक हंस त्रिवेणी।


उच्च शिखरमय केश सुवेणी।।


 


ज्ञान हिमालय से भी ऊपर।


विद्य महा सिन्धु से बढ़कर।।


 


यदि माँ होती नहीं धरा पर ।


होत सृष्टि अति ऊसर-वंजर।।


 


ज्ञानशुन्य हो जाता मानुष।।


बन जाता सच्चा वनमानुष।।


 


हो विवेकशून्य सब कटते।


आपस में लड़-भिड़कर मरते।।


 


पर माता की सहज प्रकृति यह।


बनी हुई सुन्दर जगती यह।।


 


माँ श्री का आशीष माँगिये।


माँ वन्दन में सदा जागिये।।


 


डॉ0 रामबली मिश्र हरिहरपुरी 


9838453801


डॉ0 रामबली मिश्र

मेरी अभिनव मधुशाला


 


सत्य लोक से चला भूमि की, ओर चमकता मम प्याला;


करुण सिंधु को लिये चक्षु में, भभक रही मेरी हाला:


दीनों को मधु पान कराने ,को दीवाना साकी है;


मधुर प्रतिष्ठित सरस गामिनी, मेरी अभिनव मधुशाला।


 


प्याले का कुछ हाल न पूछो, अति अद्भुत स्वर्णिम प्याला;


भरी हुई है मधुर भाषिणी,जिसमें दिव्य धवल हाला;


पीनेवालों का यह आलम, सभी प्रेम के आशिक हैं;


दिव्य लोक से आ धमकी है, मेरी अभिनव मधुशाला।


 


डॉ0 रामबली मिश्र हरिहरपुरी


9838453801


दयानन्द त्रिपाठी व्याकुल एवं चन्द्रभान प्रसाद को मिला काव्य रंगोली राजभाषा सम्मान 2020 एवं महादेवी वर्मा साहित्य शोध संस्थान सोनभद्र के राष्ट्रीय वेबिनार से सहभागिता सम्मान प्रमाण-पत्र मिला

दयानन्द त्रिपाठी व्याकुल एवं चन्द्रभान प्रसाद को मिला काव्य रंगोली राजभाषा सम्मान 2020 एवं महादेवी वर्मा साहित्य शोध संस्थान सोनभद्र के राष्ट्रीय वेबिनार से सहभागिता सम्मान प्रमाण-पत्र मिला


 



महराजगंज । हिन्दी दिवस पर काव्य रंगोली हिन्दी साहित्यिक पत्रिका द्वारा उत्तर प्रदेश के जनपद महराजगंज के शिक्षक साहित्यकार दयानन्द त्रिपाठी को उनके उत्कृष्ट काव्य लेखन के लिये "काव्य रंगोली राजभाषा सम्मान 2020" से नवाजा गया। 


 


 आप सबको यह भी बताते चलें कि महादेवी वर्मा साहित्य शोध संस्थान सोनभद्र द्वारा आयोजित दिनांक 14 सितम्बर 2020 को राष्ट्रीय वेबिनार में विषय "हिन्दी और हिन्दी भाषा" के लिए "सहभागिता प्रमाणपत्र" संस्था ने शिक्षक साहित्यकार दयानन्द त्रिपाठी व्याकुल एवं चन्द्रभान प्रसाद को संस्था के प्रधान सम्पादक डॉ बृजेश महादेव जी के द्वारा दिया गया।


 


काव्य रंगोली हिन्दी साहित्यिक पत्रिका के संस्थापक आशुकवि नीरज अवस्थी जी ने बताया कि 14 सितम्बर को हुए ऑनलाइन हिन्दी दिवस पर मंच से जुड़़े देशभर के तमाम साहित्यकारों में से चयनित साहित्यकारों को 'काव्य रंगोली राजभाषा सम्मान 2020' से सम्मानित किया जाएगा। 14 सितम्बर को चलने वाले हिन्दी दिवस कार्यक्रम के लिए चयनित 26 साहित्यकारों को सम्मानित किया गया। इस सम्मान समारोह में मुख्य अतिथि बंगलौर की डा इन्दू झुनझुनवाला रहीं तथा समारोह की अध्यक्षता कार्य रंगोली हिन्दी साहित्यक पत्रिका के संस्थापक/संपादक मंच आशुकवि नीरज अवस्थी जी ने की।


साहित्य साधक मंच सहरसा बिहार


हिंदी दिवस के अवसर पर साहित्य साधक अखिल भारतीय साहित्य मंच पर दिनांक 14 सितंबर 2020 को एक भव्य सम्मान समारोह का आयोजन किया गया। इस सम्मान समारोह का प्रारंभ राष्ट्रीय अध्यक्ष शशिकांत "शशि" जी के द्वारा मां शारदे को माल्यार्पण तथा दीप प्रज्ज्वलन और श्रीमती सपना सक्सेना दत्ता की सरस्वती वंदना से हुआ।


सम्मान समारोह दो चरणों में आयोजित हुआ। पहले चरण में "नशा ले जाता गर्त में" शीर्षक पर वेबीनार के माध्यम से आयोजित काव्य पाठ के प्रतिभागियों को सम्मानित किया गया। श्री कृष्ण कुमार क्रांति के सफल मंच संचालन में श्रीमती सपना सक्सेना दत्ता द्वारा प्रतिभागियों को सम्मान-पत्र प्रदान किया गया। "नशा ले जाता गर्त में" शीर्षक पर काव्य पाठ प्रस्तुत करने वाले सम्मानित रचनाकारों में श्री रणविजय यादव, श्रीमती नीलम व्यास, श्रीमती राधा तिवारी राधे गोपाल, श्री दर्शन जोशी, श्रीमती सपना सक्सेना दत्ता, श्रीमती व्यंजना आनंद, श्रीमती संतोष सिंह हसोर, डॉ राणा जयराम सिंह प्रताप, श्री दीपक क्रांति, श्री दिनेश पांडेय, श्री वशिष्ठ प्रसाद, अमर सिंह निधि,निक्की शर्मा रश्मि तथा डॉ राजेंद्र सिंह विचित्र थे।


सम्मान समारोह के दूसरे चरण में हिंदी दिवस पर आयोजित काव्य लेखन हेतु डॉ.राणा जयराम सिंह 'प्रताप' जी के द्वारा राष्ट्रीय स्तर के रचनाकारों को प्रशस्ति पत्र देकर सम्मानित किया गया। हिंदी दिवस पर सम्मानित होने वाले कलमकारों में सर्वेश उपाध्याय सरस,अवधेश कुमार वर्मा, श्री पुनीत कुमार, संदीप कुमार विश्नोई ,सारिका विजयवर्गीय वीणा ,मीना विवेक जैन, राम बिहारी पचौरी, डॉ असीम आनंद, सौरभ पांडे ,अमित कुमार बिजनौरी, डॉ लता, प्रीति चौधरी मनोरमा ,श्री सुभाष चंद्र झा ,प्रखर शर्मा, चंद्रगुप्त नाथ तिवारी, ज्योति भास्कर ज्योतिर्गमय ,अनुराग दीक्षित ,संतोष कुमार वर्मा ,जयश्री तिवारी ,अश्विनी कुमार शर्मा, रितु प्रज्ञा , अनवर हुसैन, सुमित दास रंजन,सीतादेवी राठी एवं अन्य कलमकार शामिल हुए। 


मंच संस्थापक कृष्ण कुमार क्रांति ने कहा मंच पर उपस्थित शीर्ष साहित्यकारों से नवांकुर साहित्यकारों को सदैव कुछ न कुछ सीखने का प्रयास करते रहना चाहिए। इस प्रकार के कार्यक्रमों से नवांकुर कवियों में उत्साह का जागरण होता रहता है और वह रचना के लिए प्रेरित होता है। हिंदी दिवस के शुभ अवसर पर कृष्ण कुमार क्रान्ति ने निम्न पंक्तियों के द्वारा उद्गार व्यक्त किया.... 


 


 '' हिंदी बोलें हर मानव, तब पूरी होगी मन की आशा।


हिंदी है भारत की भाषा, बढ़े अविरल है अभिलाषा।।


जन-जन से है यही अपेक्षा,करें नहीं हिंदी की उपेक्षा ।


साहित्यकार सृजन करें हिंदी, नित निखरे नभ निर्झर हिंदी।।'' 


वहीं मंच के राष्ट्रीय संरक्षक डॉ. राणा जयराम सिंह 'प्रताप' ने धन्यवाद ज्ञापित करते हुए कहा कि आजादी के इतने लंबे समय बीत जाने के बावजूद भी हमारी हिंदी को जो जगह व प्रतिष्ठा मिलनी चाहिए, वह अभी तक नहीं मिल पाई है। बहुत ही अफसोस के साथ यह व्यक्त करना पड़ रहा है कि अभी भी हमारी हिंदी जो जन-मानस की भाषा है, को अपनी वांछित पहचान व प्रतिष्ठा प्राप्त करने के लिए इन्तज़ार करना पड़ रहा है। राष्ट्र के राजनयिकों एवं पुरोधाओं को इस ओर ध्यान देने की सख्त आवश्यकता है। हम साहित्यकार भी अपना साझा प्रयास तब तक जारी रखेंगे, जब तक हिन्दी को वांछित प्रतिष्ठा प्राप्त नहीं हो जाती है। डाॅ. राणा ने अपने सम्बोधन में उत्कृष्ट रचना प्रस्तुत करने हेतु सभी प्रतिभागियों के प्रति आभार व्यक्त किया और उन्हें बधाई दी।


कालिका प्रसाद सेमवाल

न आओ अकेली न जाओ अकेली


 


प्रणय की पुजारिन, निवेदन है तुमसे,


न आओ अकेली, न जाओ अकेली।


यहाँ तो गगन के सितारे न आते,


यहां सच अभागे दुलारे न जाते,


यहां गीत के हर सपन पर प्रिये,


जिन्दगी के सपन भी सँवारे न जाते,


यहाँ विश्व छलता छलेगा, प्रिये,


हर कदम पर न रुठो, न जाओ नवेली।


 


अगम पथ मेरा सुगम पथ तेरा,


न छोड़ो सुहागिन ये जीवन अँधेरा,


सपन जा रहे हैं कि तुम जा रही हो,


बहुत दूर मंजिल कि जीवन सबेरा,


यहां जिन्दगी भी प्रिय , मौत होगी,


न छोड़ो विरह-सिन्धु-तट पर सहेली।


 


अरे , जिन्दगी में तुम्हें आज छोडूँ,


तुम्ही अब बताओ कहाँ राह मोडूँ,


मुझे हर कदम पर अँधेरा है दिखता,


सुहागिन बताओ कहाँ नेह जोडूँ,


मुझे शून्य लगते दिशा के किनारे,


अभी, शून्य मेरी हृदय की हवेली।


********************


कालिका प्रसाद सेमवाल


मानस सदन अपर बाजार


रुद्रप्रयाग उत्तराखण्ड


निशा अतुल्य

प्रकृति 


अंग अंग है नशीला प्रकृति का 


धूप छाँव का हुआ अज्जब खेला 


चमकता सूरज ,घिरता मेघों से 


प्रचंडता से फिर कहीं चमकता।


 


आह किसी की मुझे है लगती 


विरह वेदना किसी की जलती 


दुब सहेजे रखती शबनम को 


बड़े प्रेम से रोज ही मिलती । 


 


नन्ही शबनम के रूप निराले ,


भावनाओं के बुने हैं जाले ।


ये तो मानव तुझ पर निर्भर है ,


चाहे इसे जिस रूप में पाले ।


 


कभी बूंद बूंद नेह बरसता 


आँचल में भरा स्नेह ढ़ेर सा 


कभी लगे प्रियतमा के आँसू 


कभी माँ का आँचल सा दिखता ।


 


निशा अतुल्य


संजय जैन

सफर कठिन है


 


पग पग पर कांटे बिछे


चलना हमें पड़ेगा।


कठिन इस दौर में


हमको संभला पड़ेगा।


दूर रहकर भी अपनो से 


उनके करीब पहुंचना पड़ेगा।


और जीवन के लक्ष्य को


हमें हासिल करना पड़ेगा।।


 


जो चलते है कांटो पर


मंजिल उन्हें मिलती है।


और दुखके दिन बिताकर


सुख में प्रवेश करते है।


और अपनी सफलता को


मेहनत लगन का नाम देते है।


और जिंदगी की सच्चाई 


खुद व्या करते हैं।।


 


भले ही कांटो पर चलकर


छाले पावों में पड़ गए है। 


और दर्द सहते हुए भी


आगे बढ़ते गये है।


और लक्ष्य की खातिर


सब कुछ सह गये है।


इसलिए हम जीवन की 


ऊंचाइयों को छू पाएं है।।


 


जय जिनेन्द्र देव


संजय जैन (मुम्बई)


16/09/2020


एस के कपूर श्री हंस

तन मन का स्वास्थ्य


 


संशोधित


घर का खाना


सेहत का खजाना


क्यों है अंजाना


 


नमक चीनी


कम हों ये खाने में


यही हकीमी


 


दूध व दही


स्वास्थ्य की खाता बही


खूब है सही


 


रोजाना सेब


दूर ये रखे तेरे


डॉक्टर देव


 


ये हरी मिर्च 


सेहत का खजाना


दूर हो मर्ज


 


पेट हो साफ


शहद नींबू पियें


रोग हों हाफ


 


दूध व मठ्ठा


स्वास्थ्य के यह घर


रोज़ हो ठठ्ठा


 


सुबह ज्यादा


दिन में कम खायें


रात को आधा


 


मत लो स्वाद


जंक फूड नहीं लो


खाओ सलाद


 


खीरा ककड़ी


नित प्रतिदिन लें


बॉडी तगड़ी


 


यही हो सोच


योग भगाये रोग


जान लें लोग


 


ये अखरोट


यह ठीक करता


ह्रदय खोट


 


यह रसोई


मसालों की दुकान


रोग न होई


 


ये है कायदा


स्वाद छोड़ दीजिए


होगा फायदा


 


न हो विवाद


तो आता भोजन में


असली स्वाद


 


छोड़ दें चिंता


होती रोग का घर


जैसे हो चिता


 


स्वास्थ्य का अर्थ


समय से जानों या


जीवन व्यर्थ


 


अनार रस


दूर करे सौ रोग


जान लो बस


 


पेट की दवा


अमरूद खाना है


रोग हो दफा


 


वायु विकार


गरिष्ठ खाना नहीं


करो विचार।


 


एस के कपूर श्री हंस


बरेली


मोबाईल


9897071046


8218685464


एस के कपूर श्री हंस

एक ही कलम


दया,वीर,और अहंकार भी है।


 


कलम मेरी दुआ भी और


तलवार भी है।


गरीबों के लिए तो सदा ही


खिदमतगार भी है।।


एक ही कलम कभी शोला


तो शबनम है यह।


वंचितों के लिए बन जाती


पैगामे हकदार भी है।।


 


दिल को भी छूती कलम और


दूर की खबर भी है।


कभी तकरार तो कभी भर


जाता सबर भी है।।


इसकी हर बात का असर होता


है बहुत दूर तक।


कभी नरम तो कभी घबराता


इससे जबर भी है।।


 


कलम पूजन है, प्यार है और


हथियार भी है।


शब्द शिल्पी और समाज राष्ट्र


के प्रति सरोकार भी है।।


कलमऔर जुबान में अंतर नहीं


प्रयोग करें संभाल कर।


यही एक ही कलम मिश्री, वीर,


दया और अहंकार है।।


 


एस के कपूर श्री हंस


बरेली।


डॉ0 हरि नाथ मिश्र

गाँव की खुशबू


 


बहुत याद आए वो मंज़र सुहाना,


बगीचे में जाना,नदी में नहाना।


पीपल-तले बैठ कर हो मुदित नित-


मधुर तान मुरली का रह-रह बजाना।।


              वो मंज़र सुहाना।


 


खेत को जोतते बजती बैलों की घंटी,


मंदिरों में भी घड़ियाल बजते सुहावन।


बहुत मन को भाता था गायों का चरना,


कूदते संग में उनके बछड़े मन-भावन।


कान में डाल उँगली जब गाता चरवाहा-


बहुत याद आए सुरीला वो गाना।।


             वो मंज़र सुहाना।।


 


खेत की सारी फसलें जो थीं लहलहाती,


चना और अरहर-मटर भी थी भाती।


बगल बाग में आम-महुवा की खुशबू,


याद सबकी हमें आज रह-रह सताती।


नहीं भूल पाता मेरा मन ये कोमल-


किसी माँ का लोरी गा शिशु को खिलाना।।


            वो मंज़र सुहाना।।


 


सरसों के फूलों का गहना पहन कर,


करतीं नर्तन थीं सीवान भी मस्त होकर।


होतीं थीं प्यारी सी सुबहें सुहानी जो,


रात के तम घनेरे को शबनम से धोकर।


गाँव का प्यारा-सीधा-सलोना सा जीवन-


नहीं भूलता नित वो शाला का जाना।।


              वो मंज़र सुहाना।।


 


वो सावन की कजरी,वो फागुन का फगुवा,


झूलते झूले-रंगों के वो दिलकश नज़ारे।


आज भी जब-जहाँ भी रहूँ मैं अकेला,


उनकी आवाज़ें हो एक मुझको पुकारे।


हाट-बाजार-मेलों की तूफ़ानी हलचल-


हो गया है असंभव अब उनको भुलाना।।


               वो मंज़र सुहाना।।


 


गाँव की गोरियों का वो पनघट पे जाना,


सभी का वो सुख-दुख को खुलके बतियाना।


पुनः निज घड़ों में रुचिर नीर भर कर ही,


मधुर गीत गा-गा कर,त्वरित घर पे आना।


चाह कर भी न भूलेगा वो प्यारा सा आलम-


था घूँघट तले उनका जो मुस्कुराना।।


          वो मंज़र सुहाना।।


          © डॉ0 हरि नाथ मिश्र


             9919446372


सुनील कुमार गुप्ता

महके जीवन बगिया साथी


 


"राग-विराग संग जीवन में,


चलना दुर्गम-पथ पर साथी।


दीपक जले नेह का पल-पल,


पग-पग सुख ही होगा साथी।।


आस्था संग ही जीवन को,


फिर मिलेगा आधार साथी।


खोये न आधार जीवन का,


इतना सोचो पल-पल साथी।।


मोह-माया के बंधन संग,


खिले न अपनत्व का फूल साथी।


प्रेम-सेवा-त्याग संग फिर,


महके जीवन बगिया साथी।।"


 सुनील कुमार गुप्ता


राजेंद्र रायपुरी

क्यों बनाया है ख़ुदा तू दिल बता दे।


क्यों किया जीना जहां मुश्किल बता दे।


 


कर सके इंसान के दुख दूर सारे,


कौन इतना इस जहां काबिल बता दे।


 


भेज दी तूने वो विपदा जो है कातिल,


क्या हुआ इससे तुझे हासिल बता दे।


 


रौनकें सब छिन गईं हैं इस जहां की,


अब कहाॅ॑ पहले सी वो महफ़िल बता दे।


 


कर रहे थे हम इबादत साथ मिलकर, 


कौन होता आज़-कल शामिल बता दे।


 


             ।। राजेंद्र रायपुरी।।


कालिका प्रसाद सेमवाल

मां सरस्वती


**********


हे मां सरस्वती,


तू प्रज्ञामयी मां


चित्त में शुचिता भरो,


कर्म में सत्कर्म दो


बुद्धि में विवेक दो


व्यवहार में नम्रता दो।


 


हे मां सरस्वती


हम तिमिर से घिर रहे,


तुम हमें प्रकाश दो


भाव में अभिव्यक्ति दो


मां तुम विकास दो हमें।


 


हे मां सरस्वती


विनम्रता का दान दो


विचार में पवित्रता दो


व्यवहार में माधुर्य दो


मां हमें स्वाभिमान का दान दो।


 


हे मां सरस्वती


लेखनी में धार दो


चित्त में शुचिता भरो,


योग्य पुत्र बन सकें


ऐसा हमको वरदान दो।।


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कालिका प्रसाद सेमवाल


मानस सदन अपर बाजार


रुद्रप्रयाग उत्तराखंड


पिनकोड 246171


डॉ0 हरि नाथ मिश्र

पाँचवाँ अध्याय (श्रीकृष्णचरितबखान)-4


 


कछु दिन बाद सौंपि ब्रज-भारा।


गाँव-गऊ गोपिहिं कहँ सारा।।


    गए नंद जहँ मथुरा नगरी।


    अरपन करन कंस -कर सगरी।।


नंद-आगमन सुनि बसुदेवा।


गए नंद जहँ आश्रय लेवा।।


     लखतै बसू नंद भे ठाढ़ा।


     बरनि न जाए प्रेम-प्रगाढ़ा।।


विह्वल तन-मन उरहिं लगावा।


मृतक सरीर प्रान जस पावा।।


    करि आदर-स्वागत-सतकारा।


    तुरतै दइ आसन बइठारा।।


रह न आस तुमहीं कोउ सुत कै।


पर अब पायो सुत निज मन कै।।


     बहुतै भागि मिलन भय हमरा।


      अद्भुत मिलन मोर अरु तुम्हरा।।


प्रेमी जन जग बिरलइ मिलहीं।


मिलहिं ज ते पुनि जन्महिं भवहीं।।


  जे बन रहहिं सुजन सँग अबहीं।


  बंधु-बांधव- गउहिं तुमहीं।।


      किम बन उहहिं अहहिं परिपुरना।


      घासहिं-लता-नीर अरु परना।।


अहहिं न पसु सभ कुसल-निरोगा।


मिलै घास किम तिनहिं सुजोगा।।


    कहहु भ्रात रह कस सुत मोरा।


   संग रोहिनी मातुहिं-छोरा ।।


लालन-पालन जसुमति करहीं।


माता-पिता तुमहिं सब अहहीं।।


    जातें जगत सुजन सुख लहहीं।


    धर्महिं-अर्थ-काम नर उहहीं।।


नंदयि कहे सुनहु बसुदेवा।


बहु सुत तोर कंस हरि लेवा।


    रही एक कन्या तव अंता।


     स्वर्गहिं गई उहउ तुरंता।।


सब जन सुख-दुख भागि सहारे।


निसि-दिन प्रानी उहहि निहारे।।


   सुख-दुख कारन केवल भागी।


   जानै जे न रहै अनुरागी ।।


दोहा-सुनहु भ्रात हे नंद तुम्ह,जाउ तुरत निज गाँव।


        इहाँ होत उत्पात बड़,रुकउ न अब यहि ठाँव।।


       सुनत बचन बसुदेव कै, नंद संग सभ गोप।


       बैठि बैलगाड़ी सभें,गोकुल गे बिनु कोप।।


                     डॉ0 हरि नाथ मिश्र


                       9919446372


डॉ0 हरि नाथ मिश्र

तृतीय चरण (श्रीरामचरितबखान)-9


 


लखि बहु चकित-थकित निज सेना।


कह खर-दूषन कोमल बैना ।।


    सचिव बुला कहहि एतबारा।


    लागत ई कोउ राजकुमारा।।


बहु सुर-असुर,नाग-मुनि देखे।


जीति मारि बहु नरन्ह बिसेखे।।


    कोउ नहिं अस सुंदर जग माहीं।


    जिन्ह तुलवहुँ नृप-बालक आहीं।।


जदपि कृत्य तिसु छिमा न जोगू।


श्रुति-नासा कटि सकत सँजोगू।।


     लेहु चोरा जा तिरिया तासू।


     कहहु लवटि जा गृहहिं निरासू।।


सुनि सनेस दूतन्ह अस रामहिं।


निज मन बातिन बिहँसि सुनावहिं।।


     हम आखेट हेतु बन बसहीं।


     छत्री-सुत हम कबहुँ न डरहीं।।


हो बलवंत भले रिपु मोरा।


डरहुँ न काल,हतउँ तन तोरा।।


    तुम्ह सम हिंसक पसु बन खोजहुँ।


    मिलहिं जे बन मा तिनहिं दबोचहुँ।।


हम मुनि-पालक जद्यपि बालक।


खल-कुल-दनुज होंहिं हम घालक।।


     जदि मन कह न लरन तुम्ह सबकै।


      जाहु प्रसन्न होहि तनि-तनि कै।।


हतउँ न केहू बिनु जुधि कइ के।


बधहुँ तिनहिं खलु लरहिं जे चढ़ि के।।


      जुधि रिपु-कृपा होय कदराई।


      मो सम जोधा कबहुँ न भाई।।


अस सुनि खर-दूषन भय क्रोधित।


निकसे जुद्ध करन बिनु रोधित।।


दोहा-लेइ असुर-दल चलि पड़े,खर-दूषन दोउ भ्रात।


        'मार'-'मार' उद्घोष कर,रन-भुइँ महँ बलखात।।


                      डॉ0 हरि नाथ मिश्र


                       9919446372


नूतन लाल साहू

पुरखा के सुरता


पुरखा के डिही म, दीया ल जला लेे


पुरखा के सुरता ल, कभू झन भुलाबे


पुरखा के चलाये,रीति रिवाज


सुमत म चलत हे,पूरा संसार


पुरखा नी चाहय, खरचा कर जादा


नाम चलत रहय, इही चाहत हे


पुरखा के डिही म, दीया ल जला लेे


पुरखा के सुरता ल, कभू झन भुलाबे


बर पीपर, अमरईया,पुरखा के निशानी


छइहा पावत हे, लइका अउ सियान ह


रघुकुल रीति,सब झन ल याद हे


परान दे दे, पुरखा नी चाहत हे


पुरखा के डिही म, दीया ल जला लेे


पुरखा के सुरता ल, कभू झन भुलाबे


पुरखा ल देवता कहवइया,समाज ह


वोला काबर भूलावत जात हे


पुछथव अपन आप सो,काबर होवत हे अइसना


कभू कुछु मागय नहीं,पुरखा ह अधिकार ल


पुरखा के डिही म, दीया ल जला लेे


पुरखा के सुरता ल, कभू झन भुलाबे


काबर नइ जानय,महू ल बनना हे पुरखा


नइ कहावन, कुलटा अउ कुलबोरनी


भीतरे भीतर कसकत हे,पुरखा के मन हा


काबर भूलावत हे,अपन पुरखा ल


पुरखा के डिही म, दीया ल जला लेे


पुरखा के सुरता ल, कभू झन भुलाबे


पुरखा कोन सो, कहय अपन पीरा ल


बच्छर दिन बाद, आथे सुरता ह


खोजत हव मय हा,अपन वो ही गांव ल


सपना म घलो,अपन पावव वो पल के आंनद ल


पुरखा के डिही म, दीया ल जला लेे


पुरखा के सुरता ल, कभू झन भुलाबे


नूतन लाल साहू


दुर्गा प्रसाद नाग

वो किताब अब भी जिंदा है...


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जिस पर तेरा नाम लिखा है,


रंग बिरंगे फूलों जैसा।


 


जिस पर मेरा दर्द लिखा है,


रेगिस्तान के शूलों जैसा।।


 


कितनी मिन्नत की थी मैने,


तब तुमने वो नाम लिखा था।


 


अपने आंसू की स्याही से,


सुबह-ओ-शाम लिखा था।।


 


मेरे जीवन की सांसों का,


एक वही स्वर- सजिंदा है।


 


वो किताब अब भी जिंदा है...


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जिसमें इक "तस्वीर" है तेरी,


जिससे हंसकर बात करूं मैं।


 


जिसमें इक तकदीर है मेरी,


जन्नत दिन और रात करूं मैं।।


 


कितनी कोशिश की थी मैने,


तब तुमने तस्वीर वो दी थी।


 


उससे वक्त कटेगा मेरा........,


समझो बस "शमशीर" वो दी थी।।


 


सारे पन्नों के समाज में,


जैसे वो भी बासिंदा है।


 


वो किताब अब भी जिंदा है...


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जिसमें एक गुलाब रखा है,


मरा हुआ है, सूख चुका है।


 


अपनी अंतिम सांसे देकर,


स्वाभिमान को फूंक चुका है।।


 


कितनी चाहत की थी मैने,


तब तुमने वो फूल दिया था।


 


सूनी आंखों में चुभता है,


ऐसा तुमने शूल दिया था।।


 


खुशबू उसकी अभी अमर है,


लेकिन फूल नहीं जिंदा है।


 


वो किताब अब भी जिंदा है...


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जिसके सीने पर रखा वो,


लाल- कलम अब भी रोता है।


 


जैसे इक मां के आंचल से,


"लाल" लिपटकर के सोता है।।


 


कितनी इज्जत की थी मैने,


तब तुमने वो कलम दिया था।


 


लिखने को ये गीत अधूरा,


तुमने साज-ए-अलम दिया था।।


 


तुम्हीं बताओ कैसे लिख दूं ,


तेरा प्यार कहीं जिंदा है।


 


वो किताब अब भी जिंदा है...


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कितनी बार कहा था तुमसे,


मुझको प्रिया गीत वो लिख दो।


 


मेरा मन बहलाने को ही,


मुझको पागल मीत ही लिख दो।।


 


कितनी हिम्मत की थी हमने,


तब तुमने वो गीत लिखा था,


 


याद रहे मुझको जीवन भर,


ऐसा स्वर- संगीत लिखा था।।


 


आज जुदा हो जाने पर भी


"दुर्गा" तुमसे शर्मिन्दा है।


 


वो किताब अब भी जिंदा है...


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दुर्गा प्रसाद नाग


नकहा- खीरी


मोo- 9839967711


डॉ.राम कुमार झा निकुंज

मन का उद्गार जीवन साथी के नाम


मधुर मीत बनूँ सुखधाम


 


मन माधव नव कलित ललित हृदय अविराम ,


मन का उद्गार जीवन साथी के नाम।


मुदित हृदय मकरन्द सुरभि मुख सरोज रसपान,


लोल कपोल कल्पित रसाल मधु प्रिय अभिराम।


गन्धमादन सम तनु सुगन्ध वल्लभ मन रतिभान।


कमलनयन अभिलाष मदन मनसि अभिराम।


पूर्णमास निशिचन्द्र प्रभा मुदित कुमुद रसभान। 


अभिनव कोकिल गान मधुर प्रियम सुखधाम।


कुसुमित निकुंज अलि गूँज पराग मधुपान।


घनश्याम घटा सावन अम्बर लखि मुस्कान।


सजन सखि चितचोर कहाँ बिन दर्शन विश्राम।


पुण्य मिलन आलिंगन उर स्थल प्रिय वाम।


गंगा सम नयनाश्रु सलिल प्रीति पुण्य स्नान।


सरसिज मन मकरन्द मुदित साजन रति काम।


शीतल मन्द सुगन्ध वायु मुदित मन भान।


प्रकृति मातु सुष्मित श्यामल साजन बस नाम।


कान्ता प्रिय कान्त शान्त चारु चित्त ललाम।    


नवकोपल किसलयतर कोमल विधि वरदान।


अनाघ्रात मुकुलित सुन्दर सखि शुभ शाम।


चन्द्रहास बिम्बाधर अस्मित मुख विधि काम।


सप्तसिन्धु रत्नाकर अनुपम विधि वरदान।


प्राणनाथ वल्लभ मनमोहन रट शुभ नाम।


अरुणिम प्रभात निच्छल भावन प्रियतम गान।


भव्य मनोरम चन्द्रप्रिये पुण्य सत्काम।


इन्द्रधनुष सतरंग रूपसी सखि महान।


सात जन्म तक मधुर मीत बनूँ सुखधाम।


 


 डॉ.राम कुमार झा निकुंज


नई दिल्ली


नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर

माँ बाप के उम्मीदों की


शान उनकी संतान।


ना जाने कितने सपनों


की सच्चाई का आधार


उनकी संतान।।


बुढापे की लाठी सहारा


दर्पण से तारने वाला।


जिंदगी की मेहनत कमाई


संतान को काबिल बनाने


में लगाई ।।


संतानो ने भी माँ बाप के मेहनत


की गाणी कमाई का मोल


दिन रात ईमानदारी से मेहनत


कर चुकाई।।


माँ बाप की दौलत मेहनत


संतानो की पल पल की मसक्कत


मेहनत की कीमत का कीमती वक्त लाई।।


वाजिब रोजी रोजगार की चाहत चाह नौकरी की करता नौजवान तलाश।।


नौकरी है तो सिपारिश नहीं 


बिना जुगाड़ के नौकरी नहीं।


लेकर डिग्रियों का अम्बार दर दर घूमता फिरता नौजवान ।।


कही काम का अनुभव नहीं आड़े 


काम मिलता ही नहीं तो अनुभव


कहाँ से लाये।।


टीवी अखबार में देखता रोजगार 


के प्रचार जाता जब लेकर डिग्रियों के अम्बार मिल जाता जबाब भाई जो काबिल था उसे


मिला रोजगार ।।


क्या जिन्हें नौकरी नहीं मिलती 


नाकाबिल अंगूठा छाप


कभी कहा था कवी घाघ ने 


निसिद्ध चाकरी भीख निदान।।


अब निषिद्ध से प्रसिद्ध चाकरी


ही जीवन की चाक।


जिसपे घूमते माँ बाप संतानो के


आरजू के अवनि आसमान।।


 सरकार के पास सिमित संसाधन


सिमित नौकरियों के अवसर


उसमे भी कोढ़ में खाज आरक्षण।।


कभी कभी तो रोजगार की तलाश


में बेहाल नौजवान भगवान् को


ही कर देता शर्मसार क्यों बनाया


ऊँची नस्ल की संतान।।


समाज में उंच नीच के भेद भाव से सैकड़ो साल रहा राष्ट्र गुलाम।


अब भी गुलामी का एहसास कराती उंच नीच का भेद भाव।।


रोजकार की तलाश में इधर उधर भटकता जाता थक हार।


मध्यम वान की बानगी करने


की हिम्मत नहीं जुटा पाता 


व्यपार में पैसे की दरकार पैसा 


है ही नहीं जाए तो जाए कहाँ।।


उत्तम खेती जनसंख्या के बोझ


में बाँट गयी झोपडी भी बन सके


इतनी भी नहीं रह गयी।।


माँ बाप की संतानो का अरमान


हताश निराश जिंदगी में साँसो


धड़कन की आश की करता 


तलाश।।


बहुत तो ऐसे भी जो जिंदगी


का ही छोड देते साथ खुद गर्ज़


संतान।।


करें तो क्या करे निचे अवनि ऊपर


सुना आसमान।


 शेष सिर्फ एक विश्वाश 


पढ़ा लिखा ऊर्जावान नौजवान।


बी पी एल की छतरी का मोहताज़


सरकार की मेहरबानी निषिद्ध भीख की जिंदगी घिसती पिसती


के दिन चार।।


मुफ़्त राशन ,मुफ़्त मकान ,मुफ़्त शिक्षा, मुफ़्त है बहुत कुछ लेकिन


जिंदगी भीख मंगो जैसी कटोरा


लिये खड़े है अपनी नम्बर का इंतज़ार।।


क्या होगा भविष्य राष्ट्र का 


जहाँ नौजवान पढा लिखा पास नहीं रोजी रोजकार नहीं नौकरी ना काम ना दाम।।


भीख दया की जिंदगी भय


भ्रम की मोहलत मोहताज़।।


 


नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर


एस के कपूर श्री हंस

क्या खूब किरदार


निभाते हैं लोग कई कई चेहरे


आज लगाते हैं लोग।


 


आज पराई जमीन पर लोग


अपना मकान बनाते हैं।


दूसरे के किरदार से काम


अपना बखूबी चलाते हैं।।


गजब की दुनिया और अजब


अंदाज़ है लोंगों का।


पराई आग में अपनी रोटी लोग


अब खूब पकाते हैं।।


 


कोई करता और नतीजा आज


कोई और भरता है।


लगा कर आग आज तमाशा


भी वही खूब करता है।।


हकदार बन जाता है बस


तमाशबीन दूर का।


कातिल ही आज इंसाफ की


दुहाई धरता है।।


 


अजब सा चलन आज गज़ब


की बनी कहानी है।


जिसकी लाठी उसकी भैंस


यही मनमानी है।।


सच का फैंसला हो रहा है आज


झूठ के हाथों से।


पैसे की आज वाह वाह इस की


आज सब मेहरबानी है।।


 


कहाँ जाकर रुकेगी यह अंधी


दौड़ कह नहीं सकते।


अब और नकाबों और चेहरों का


शगूफा सह नहीं सकते।।


बदलनी होगी सूरते हाल आज


नहीं तो कल को।


कयोंकि बिना तेलबाती के ये सब


चिराग रह नहीं सकते।।


 


एस के कपूर श्री हंस


बरेली।।


संजय जैन

पत्थर की कहानी


कहानी पत्थर की


सुनता हूँ तुमको।


बना कैसे ये पत्थर 


जरा तुम सुन लो।


नरम नरम मिट्टी और


रेत से बना हूँ में।


जो खेतो में और नदी के किनारे फैली रहती थी।


और सभी के काम में


बहुत आती थी सदा।।


 


परन्तु खुदगरजो ने 


मुझ पत्थर बना दिया।


न जो सोचता है और न 


पिघलता है किसी पर।


बस अपनी कठोरता के


कारण खड़ा रहता है।


और टूटकर भी अकड़


इसकी कम नहीं होती।।


 


बहुत सहा है दर्द को


और पीया है गमों को।


तभी जाकर ये


बन गया एक पत्थर।


न जो हंसता है और


न ही रोता है कभी।


और हिमालय की तरह अकड़कर खड़ा रहता है।।


 


बड़ी अजब कहानी है 


इस पत्थर की।


कोई इसको तराश कर


बना देते है भगवान।


और कोई इस पत्थर को 


लगा देता है कब्रो पर।


और पूजे जाते है दोनों


अपने अपने अंदाज से।।


 


जय जिनेन्द्र देव


संजय जैन (मुम्बई)


15/09/2020


निशा अतुल्य

महिमा विधाता तेरी


वाणी जपे सदा मेरी


अर्चन वन्दन करूँ


रटन लगाइए ।


 


राम राम जब जपूं


विपदा ही दूर करूँ


तन मन सौंप कर


कृपा मन चाहिए।


 


प्रभु तेरे गुण गान


जीवन मधुर खान


अमृत वाणी सुन के


सफलता पाइए ।


 


स्वयं जब सौंप दिया


चिंता मुक्त मन किया


प्रभु शरण बैठ के 


स्व से तर जाइए ।


 


निशा अतुल्य


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