डॉ0 रामबली मिश्र

सन्त मिलन सम सुख जग नाहीं


 


संतों का मिलना अति दुर्लभ।


बड़े भाग्य से होते सुलभ।।


 


जन्म-जन्म के पुण्यार्जन से।


दरश-परश संत-सज्जन से।।


 


प्रभु प्रसाद से यह संभव है।


बिन प्रभु कृपा कहाँ संभव है।।


 


संत मिलन जो जन अनुरागी।


संत बिना मानव हतभागी।।


 


जिसपर पड़ती संत दृष्टि है।


उसपर हरि की कृपा वृष्टि है।।


 


जहाँ संत तहँ नहिं विपदा है।


संत समागम खुद शुभदा है।।


 


जहाँ संत तहँ ईश निवासा।


वहाँ नहीं दुर्जन का वासा।।


 


सभी देव-देवी का संगम।


होत जहाँ पर संत समागम।।


 


ऋद्धि-सिद्धियाँ वहीं रहत हैं।


सिद्ध संतजन जहाँ बसत हैं।


 


लक्ष्मी दौड़ी चल आती हैं।


संत मिलन सुख नित पाती हैं।।


 


संतों की महिमा अति पावन।


स्वर्गिक सुखमय पाप नशावन।।


 


डॉ0 रामबली मिश्र हरिहरपुरी


9838453801


सुनीता असीम

हराकर दिल मैं जितवाया गया हूँ।


मुहब्बत से भी बहलाया गया हूँ।


**** 


मुझे दिखला झलक गायब हुए वो।


दिवानावार तरसाया गयाहूँ।


****


जमाना जागता सोता रहा मैं।


पकड़कर हाथ उठवाया गया हूँ।


****


किया था जुर्म मैंने प्यार करके।


लगा आरोप फसवाया गया हूँ।


****


अगन बन सूखती धरती लगी जब।


 बनाकर मेघ बरसाया गया हूँ। 


****


सुनीता असीम


संजय जैन

तेरा मेरा हाल


 


प्यार दिल से करोगें, 


तो प्यार पाओगें।


दिल की गैहराइयों में,


तुम खो जाओगें।


प्रेम सागर में खुदको 


तुम डूबा पाओगें।


और जिंदगी में प्यार 


ही प्यार तुम पाओगें।।


 


प्यार क्या होता है,


जरा तुम तो बताओं।


दिल की धड़कनों में,


आवाज़ इसकी सुनाओ।


प्यार रक्त के समान होता है,


जो नशों में सदा बहता है।


इसलिए तो प्यार में 


इंसान जीत और मरता है।।


 


बड़े बदनसीब है वो,


इस जमाने में।


जिनको जिंदगी में, 


प्यार मिला ही नहीं।


और इस जन्नत में, 


वो रह पाए ही नहीं।


ऐसे लोग जिंदगी में,


सदा तन्हा होते है।।


 


खोलता हूँ जब भी 


घर की खिड़कीयों को।


सामने तुम ही तुम 


नजर आते हो।


देखकर तुम्हें दिलमें मेरे,


अजबसी तरंगे दौड़ जाती है।


 जो दिलकी बैचेनियों को,


दिनरात बहुत बढ़ाती है।


और तुम्हें बाहों में भरकर, 


सीने से लगाने को कहती है।।


 


दिल तेरा भी वहां धड़कता होगा,


मेरा दिल यहाँ धड़क रहा है।


प्यार की तड़प में करवटे बदलते होंगे,


मैं यहां कबसे बदल रहा हूँ।


तुमको देखे बिना अब, 


नींद कहाँ आती मुझको।


शायद तेरा भी यही, 


हाल हो रहा होगा।।


 


जय जिनेन्द्र देव 


संजय जैन (मुम्बई)


निशा अतुल्य

ये प्यार का जहान


है बड़ा ही महान


सहे सदा जग मार 


कुछ नहीं जीत हार।


 


बोलो क्या अब हाल


सुधरी नही न चाल


कर्मों की गति मान


बस ये जीवन जान ।


 


क्या है जीवन सार 


इसे मत समझ भार


रो नहीं जार जार 


होएगा भव पार ।


 


इसे समझों न खार


है ये जीवन सार


मन पर रहे न भार


सरल रखें व्यवहार ।


 


निशा अतुल्य


डॉ0 रामबली मिश्र

मात-पिता अरु पूर्वज पूजो


 


मात-पिता अरु पूर्वज पूजो।


इन्हें छोड़कर देख न दूजो।।


 


ये निवास धाम ईश्वर के।


ये प्रतिनिधि हैं परमेश्वर के।।


 


इनपर ध्यान लगाये रहना।


आदर्शों पर इनके चलना।।


 


आदर्शों के यही रचयिता।


माता-पिता पितामह प्रपिता ।।


 


आत्मा इनकी अजर-अमर है।


वंशज के अति प्रिय सहचर हैं।।


 


पितृ पक्ष में पिण्डदान कर।


गंगा तट पर बैठ स्नान कर।।


 


पितृ पक्ष पितरों का दिन है।


अति हितकारी शुभद सुदिन है।।


 


यह अति पावन मधु श्रद्धास्पद।


सदा सनातन दिव्य निररापद।।


 


श्रद्धा अरु विश्वास दिवस यह ।


पूर्वज का अहसास दिवस यह।।


 


करो श्राद्ध पितरों का नियमित ।


जीना सीखो सहज संयमित।।


 


जिनमें श्रद्धा पितरों के प्रति।


उनसे पूर्वज की शुभ सहमति।।


 


डॉ0 रामबली मिश्र हरिहरपुरी


9838453801


अर्चना द्विवेदी

सूक्ष्मजीव समझा गया,करो प्रकृति से प्रीत।


सब में ईश्वर अंश है,बनो सभी के मीत।।


 


लोभ लालसा छोड़कर,रहे संयमित काम।


कैसी भी हो आपदा,होगी निश्चित जीत।।


 


मोल नहीं धन धान्य का,समझ चुका इंसान


कम संसाधन में रहे,दिन खुशियों में बीत।।


 


 


पिंजर में रहना लगे,जैसे मृत्यु समान।


चार दिनों की क़ैद ने,समझायी यह रीत।।


 


जीने की आदत बने,कोरोना के संग।


दैनिक चर्या शुद्ध हो,आग्रह यही विनीत।।


 


जब जब अम्बर तक बढ़े,मानव अत्याचार।


धरती संहारक बने,देखे अगर अतीत।।


              अर्चना द्विवेदी


       अयोध्या


डॉ0 हरि नाथ मिश्र

पितृ-दिवस


जीवन-दाता जनक है,जैसे ब्रह्मा सृष्टि।


करे पिता-सम्मान जो,उसकी अनुपम दृष्टि।।


 


पिता देव के तुल्य है,इसका हो सम्मान।


इसका ही अपमान तो,कुल का है अपमान।।


 


चाल-चलन,शिक्षा-हुनर,सब सुख जो संसार।


चाहे देना हर पिता,सह कर कष्ट अपार ।।


 


पिता रहे चाहे जहाँ, रखे बराबर ध्यान।


सुख-सुविधा परिवार का,होता स्रोत महान।।


 


पिता-पुत्र,पुत्री-पिता,जग संबंध अनूप।


राजा दशरथ राम का,जनक-जानकी भूप।।


 


कभी तिरस्कृत मत करें,वृद्ध पिता को लोग।


बड़े भाग्य जग पितु मिले,बने सुखद संयोग।।


 


यही सनातन रीति है,पितु है देव समान।


पिता के कंधे पर रहे,कुल-उन्नति-उत्थान।।


 


पितृ-दिवस का है यही,बस उद्देश्य महान।


हर जन के हिय में बसे,पिता-भाव-सम्मान।।


               © डॉ0 हरि नाथ मिश्र


                  9919446372


कालिका प्रसाद सेमवाल

हे मां सरस्वती सद्गुण दे


********************


विद्या वाणी की देवी मां सरस्वती


मुझ पर मां तुम उपकार करो,


मैं बनूं परोपकारी करु मानव सेवा


मेरे अन्दर ऐसा विश्वास भरो।


 


मां जले ज्ञान दीपक, जीवन में उत्थान हो,


अवगुणों को खत्म कर दो


हो जाय कल्याण मां,


चुन चुन कर सद् गुण के मोती


मेरी झोली में तुम भर दो मां।


 


हे मां लेखनी वाणी में मधुरता दे


भाव सरस अभिव्यक्ति हो,


हे मां सरस्वती वीणा धारणी


सब के जीवन में रस तुम भरदों मां।


********************


कालिका प्रसाद सेमवाल


मानस सदन अपर बाजार


रुद्रप्रयाग उत्तराखंड।


एस के कपूर श्री हंस

यहीं इसी धरती को हमें


स्वर्ग बनाना है।


 


बैर विरोध कटुता तो फिर


बात प्यार की नहीं होती।


हर बार मतभेद मनभेद तो


बात इकरार की नहीं होती।।


जब दिल का कोना कोना


नफरत में लिपट जाता है।


तो फिर कोई बात आपस


के सरोकार की नहीं होती।।


 


हम भूल जाते अमर नहीं


कि एक दिन जाना है।


जाकर प्रभु से कर्मों का


अपना खाता जंचवाना है।।


ऊपर जाकर स्वर्ग नरक 


की चिंता मत कर अभी।


हो तेरी कोशिश हर क्षण


कि यहीं पर स्वर्ग बनाना है।।


 


एक ही मिला जीवन कि


इसे बर्बाद नहीं करना है।


मन में नकारात्मकता का


भाव आबाद नहीं करना है।।


चाहें सब के लिए सुख तो


हम भी सुख ही पायेंगे।


भूलसे किसीके लिए गलत


फरियाद नहीं करना है।।


 


एस के कपूर श्री हंस


बरेली।


सुनील कुमार गुप्ता

राह नई दिखाने लगे


भूल चुका यहाँ मन जिनको,


क्यों-याद वही आने लगे?


सपनो में छा कर संग वो,


नींद उनकी चुराने लगे।।


समझा न साथी कभी यहाँ,


क्यों-पल-पल तड़पाने लगे?


मिल कर पल भर को जगत में,


दुनियाँ नई बसाने लगे।।


देख सतरंगी सपने फिर,


क्यों-कदम डगमगाने लगे?


चाह जो पल भर को साथी,


राह नई दिखाने लगे।।


 


 सुनील कुमार गुप्ता


राजेंद्र रायपुरी

ओ यशोदा के दुलारे,


               नंद बाबा के भी प्यारे।


हो कहाॅ॑ तुम, हो कहाॅ॑, 


               हो कहाॅ॑ तुम, हो कहाॅ॑।


 


पूछतीं हैं तेरी गइया, 


             है कहाॅ॑ माखन खवइया।


पूछता वो तीर यमुना, 


               थी बजी बंशी जहाॅ॑।


      हो कहाॅ॑ तुम, हो कहाॅ॑।


 


ओ यशोदा के दुलारे, 


               नंद बाबा के भी प्यारे।


हो कहाॅ॑ तुम, हो कहाॅ॑।


               हो कहाॅ॑ तुम, हो कहाॅ॑।


 


पूछते हैं ग्वाल सारे, 


                 हैं कहाॅ॑ कान्हा हमारे।


मान देता हो जो सब को, 


                मीत ऐसा अब कहाॅ॑।


        हो कहाॅ॑ तुम, हो कहाॅ॑।


 


ओ यशोदा के दुलारे,


               नंद बाबा के भी प्यारे।


हो कहाॅ॑ तुम, हो कहाॅ॑।


               हो कहाॅ॑ तुम, हो कहाॅ॑।


 


आ भी जाओ, ऐ कन्हैया।


              द्रोपदी के तुम हो भैया।


द्रौपदी का चीर हरता,


              अब भी दु:शासन यहाॅ॑


      हो कहाॅ॑ तुम, हो कहाॅ॑।


 


ओ यशोदा के दुलारे,


               नंद बाबा के भी प्यारे।


हो कहाॅ॑ तुम, हो कहाॅ॑।


               हो कहाॅ॑ तुम, हो कहाॅ॑।


 


            ।। राजेंद्र रायपुरी।।


डॉ0 रामबली मिश्र

जरा......


 


जरा सँभल कर।


सावधान हो चलते रहना।।


 


जरा मचल कर।।


मुस्कानों से मोहित करना।।


 


जरा टहल कर 


स्वास्थ्य लाभ नित लेते रहना।।


 


जरा बदल कर।


परिवर्तन का मूल्य समझना।।


 


जरा नकल कर।


देव वेश धारण कर चलना।।


 


जरा कहल कर।


सबके मन को हरते रहना।।


 


जरा पहल कर।


सीखो सदा सुधरते रहना।।


 


जरा बहल कर।


सबका दिल बहलाते रहना।।


 


चहल-पहल कर ।


सबको प्रमुदित करते रहना।।


 


डॉ0 रामबली मिश्र हरिहरपुरी


9838453801


डॉ0 रामबली मिश्र

जीवन बीता जात निरंतर।


सुख-दु:ख़ का यह खेल स्वतंतर।।


 


यह अनुभव का गहन विषय है।


कभी हँसी या रुदन भयंकर।।


 


आता-जाता चलता रहता ।


बाहर कभी कभी अभ्यन्तर।।


 


कभी आत्म में कभी दंभ में।


जीवन डोलत रहत निरन्तर।।


 


गिरता कभी कभी उठता है।


चलता फिरता नीचे ऊपर।।


 


जीवन जटिल सरल भी है यह।


छिपा सोच में इसका अंतर।।


 


जीवन इक संग्राम भूमि है 


कभी जलंधर कभी सिकंदर।।


 


जीवन की गहराई नापो।


यह छोटा नद और समंदर।।


 


मत जीवन को हल्के में लो।


यह विपदाओं का है मंजर।।


 


कभी उजासी कभी उदासी।


कभी प्रकाशित कभी अंधकर ।।


 


कभी शांत है कभी विवादित।


कभी अमी है कभी जहर- घर ।।


 


कभी संतमय जीवन दिखता।


दिखता कभी यही है विषधर।।


 


उथल-पुथल है भीड़भाड़ में।


जीवन है इक गरल युद्धघर।।


 


आपा-धापी मची हुई है।


जीवन का यह व्यथित शहर।।


 


डॉ0 रामबली मिश्र हरिहरपुरी


9838453801


डॉ0 हरि नाथ मिश्र

ज़िंदगी के रूप


आज अपने जनम-दिन मना लीजिये,


कल न जाने कहाँ शाम हो जायेगी?


ज़िंदगी एक पल है उजाले भरी-


फिर अँधेरों भरी रात हो जायेगी।।


    धूप है,छाँव है,भूख है,प्यास है,


     घात-प्रतिघात है,आस-विश्वास है।


     चलते-चलते यूँ रस्ते बदल जाते हैं-


     देखते-देखते बात हो जायेगी।।


है ये पाषाण से भी कहीं सख़्तदिल,


पुष्प से स्निग्ध,स्नेहिल व कृपालु है।


तोला माशा बने,माशा रत्ती कभी-


जलते शोलों पे बरसात हो जायेगी।।


   ज़िंदगी दास्ताँ प्यार-नफ़रत की है,


   दोस्ती-दुश्मनी-इल्म-शोहरत की है।


    एक पल में हमें बख़्श देती अगर-


     दूसरे में हवालात हो जायेगी।।


स्वार्थ में है जगत सारा डूबा हुआ,


हित यहाँ ग़ैर का गौड़ अब हो गया।


लोग अपनों में गर इस तरह खो गए-


बदबख़्ती की हालत हो जायेगी।।


   लाख खुशियाँ यहाँ हम मनाएँ मगर,


   याद रखना हमेशा यही दोस्तों।


   आज हैं हम यहाँ, कल न जाने कहाँ-


   अजनबी से मुलाकात हो जायेगी।।


आज अपने जनम-दिन मना लीजिये।।


             © डॉ0 हरि नाथ मिश्र


              9919446372


सुनीता असीम

अपने जिनके रक़ीब होते हैं।


वो बड़े बदनसीब होते हैं।


 ***


चैन मिलता नहीं कभी उनको।


जाने कितने सलीब होते हैं।


***


सार रिश्तों का जो समझ जाते।


खास बनकर करीब होते हैं।


***


 रोज़ पढ़ते रहें रिसाले वो।


जो भी सच्चे अदीब होते हैं।


***


प्यार भरकर मिला करे झोली।


लोग वो खुशनसीब होते हैं।


***


सुनीता असीम


कालिका प्रसाद सेमवाल

अभी गीत की पक्तियां शेष हैं


*********************


अभी उम्र बाकी बहुत है प्रिये!


तुम न रुठो, अभी ज्योति मेरे नयन में।


 


इधर कल्पनाओं के सपन हम सजाते,


उधर भाव तेरे मुझे है बुलाते,


यहाँ, प्राण !मेरी नैया रुकेगी,


बहुत बात होगी न पलकें झुकेगी,


अभी राह मेरी न रोको सुहानी,


तुम्हीं रुठती हो, नहीं यह जवानी।


 


अभी गीत की पक्तियां शेष है!


रागनी की मधुर तान मेरे बयन में।


 


हँसी में न रुठो, हँसी में न जाओ,


विकल आज मानस न मन को रुलाओ,


कहीं तुम न बोलो, कहीं मै न बोलूँ,


कही तुम न जाओ, कहीं मैं न डोलूँ,


तुम्हीं रुपसी हो, तुम्हीं उर्वशी हो,


तुम्हीं तारिका हो,तुम्हीं तो शशी हो।


 


तुम्हें पूजता हूंँ लगाकर हृदय से!


तुम्हीं रश्मि की ज्योति मानस गगन में।


 


तुम्हें भूलना प्राण !संभव नहीं हैं,


तुम्हें पूजना अब असम्भव नहीं है,


प्रिये! तुम नहीं जिन्दगी रुठती है,


कलम रुक रही , कल्पना टूटती है,


न रुठो प्रिये! यह कसम है हमारी,


पुनः है बुलाती नयन की खुमारी।


 


सजनि ,पास आओ हँसो मन-मरोड़ो,


सभी साधना-तृप्ति तेरे नमन में।।


*********************


कालिका प्रसाद सेमवाल


मानस सदन अपर बाजार


रुद्रप्रयाग उत्तराखंड


डॉ0 हरि नाथ मिश्र

स्त्री और लालटेन(दोहे)


लालटेन ले हाथ में,किए आँख को बंद।


अद्भुत अनुभव कर रहा,नारी-मन आनंद।।


 


लालटेन की ज्योति में,देख पिया को ठाढ़।


मुँदी आँख जनु स्वयं ही,उमड़ा प्रेम प्रगाढ़।।


 


निशा तो तिमिराछन्न है,पर हिय भरा उजास।


कष्ट भरी रजनी कटे,जब पिय-मिलन उलास।।


 


लालटेन संकेत है,अन्तरहृदय-प्रकाश।


यह प्रकाश अनुभूति कर,हर्षित हृदय निराश।।


 


निबिड़ तिमिर की रात में,प्रियतम-आहट पाय।


लालटेन की ज्योति में,लख पिय अति शरमाय।।


 


पिय-वियोग में नारि के,पिचक गए हैं गाल।


मुँदी आँख पा पिय-दरश, मारे खुशी निहाल।।


 


नारी-हिय है गंग-जल,प्रियतम भक्त समान।


प्रेम-भक्ति के भाव से,शुचि मन कर स्नान।।


                डॉ0 हरि नाथ मिश्र


                  9919446372


संजय जैन

परवान चढ़ जाये


 


न दिल में गम है,


न ही गीले और सिखवे।


जब साथ हो तेरा,


तो क्या गम और सिखवे।


इसलिए तो दिल से,


तुम्हें चाहते है हम।


मेरी धड़कनों में अब,


तुम ही तुम बसते हो।।


 


क्या तेरा है पैमाना, 


मुझे आंक ने का।


तेरे मूल्यांकन से मुझे,


पता चल जायेगा।


कितनी पारदर्शी हो तुम,


समझ आयेगा अंको से।


की कितना तुम हमें,


अबतक जान पाये हो।।


 


माना कि मन सभी का, 


बहुत चंचल होता है।


जो दिलकी धड़कनों को,


जल्दी पढ़ नहीं पाता।


और बिना समझे ही वो,


मोहब्बत करने लगता है।


और अपनी जिंदगी को


बर्बाद कर लेते है।।


 


मोहब्बत करने वाले को,


संजय देता है दुआ।


की सफल हो जाओ,


अपनी अपनी मोहब्बत में।


और कर जाओ ऐसा की,


मोहब्बत परवान चढ़ जाएं।


और इतिहास के पन्नो में,


नाम तुम्हारा भी लिखा जाए।।


 


जय जिनेन्द्र देव की


संजय जैन (मुम्बई)


17/09/2019


विनय साग़र जायसवाल

तीर नज़रों के उन्हें जब से चलाना आ गया 


मेरी जानिब ही उधर से हर निशाना आ गया 


 


ज़िन्दगी मायूसियों की ज़द में थी खोई हुई


उनकी सोहबत में हमें हँसना हँसाना आ गया 


 


उनसे मिलते ही हमें होने लगा ऐसा गुमाँ 


वादिये-कशमीर सा मौसम सुहाना आ गया 


 


 हमने क्या दे दी उन्हें दिल के दरीचे में पनाह


रफ़्ता रफ़्ता उनको नखरे भी दिखाना आ गया 


 


दिल की साज़िश है या है मासूमियत जाने वही 


हुक़्म पर उनके हमें अब सर झुकाना आ गया


 


लाख कोशिश की छुपा लूँ प्यार की सौग़ात को 


उफ़ मगर सबके लबों पर यह फ़साना आ गया 


 


शायरों कवियों को कहना पड़ रहा पढ़िये हमें


देखते ही देखते यह क्या ज़माना आ गया


 


इश्क़ में किस मोड़ पर लाई है *साग़र* ज़िंदगी 


दर्द सहकर उनकी खातिर मुस्कुराना आ गया 


 


🖋️विनय साग़र जायसवाल


 एस के कपूर श्री हंस

है यह एक छोटी सी जिन्दगी


पर काम बहुत हैं।।


 


यह छोटी सी जिन्दगी पर


काम बहुत हैं।


इसी में पूरे करने को भी


अरमान बहुत हैं।।


मत जलते रहो बेवजह


किसी आग में।


अच्छे कर्मों से ही मिलती


पहचान बहुत है।।


 


हसरतें जरूर पालिये मगर


बे हिसाब न हों।


काम करो हकीकत में पर


बस ख्वाब न हों।।


किस्मत नहीं बस कर्म ही


होती पूजा है।


हो ऊपर उठने की बात पर


इरादे खराब न हो।।


 


सहयोग, सत्कर्म , सद्भावना


ही हमारा नियम हो।


जीवन में धैर्य,विवेक, लगन


और बसा संयम हो।।


एक सरल सफल सुखमय


जीवन बनेगा हमारा।


हो सब कुछ जीवन में कि 


बस नहीं अहम हो।।


 


 एस के कपूर श्री हंस


बरेली।


एस के कपूर श्री हंस

कॅरोना से बच कर रहो , कि यह


तुम्हारे खून का प्यासा है।


 


कॅरोना से बच कर रहना कि


तेरी जान का प्यासा है।


अभी ठहर जायो कि चल रहा


इसका खूनी तमाशा है।।


जिंदा रहे तो फिर सब कुछ


हांसिल हो जायेगा।


तुमसे ही परिवार की दुनिया


और सारी आशा है।।


 


जान लो अभी बस सावधानी


ही एक मात्र बचाव है।


तुम्हारी लापरवाही में छिपा


जीवन का बिखराव है।।


समय बहुत नाजुक कि चलना


है बस समझदारी से।


अब कॅरोना के साथ संभल कर


चलना बनाना स्वभाव है।।


 


अभी कॅरोना खत्म नहीं उससे


जंग लगातार जारी है।


दवा बनाने की भी चल रही


जोर शोर से तैयारी है।।


इन्तिज़ार करना है इस संकट


के समाप्त होने का।


तेरी एक छोटी सी भूल भी 


पड़ेगी बहुत भारी है।।


 


यह एक अदृश्य वाइरस इसकी


निगाह भी हत्यारी है।


यह महामारी एक बहुत ही दुष्ट


और दुराचारी है।।


इससे बचना और बचाना अभी


है बहुत ही जरूरी।


यही परिवार और समाज के प्रति


हमारी जिम्मेदारी है।।


 


एस के कपूर श्री हंस


बरेली।


सुनील कुमार गुप्ता

जीवन को


 


छाया-प्रतिछाया विचारो की,


बनाती-बिगाड़ती जन को।


विचारो की श्रृंखला पल-पल,


भटकाती रहती मन को।।


विचारो के मंथन संग ही,


यहाँ मिलती दिशा तन को।


भटके न कभी तन फिर जग में,


मिले शांति ऐसी मन को।।


सत्य-पथ पर चल कर ही साथी,


मिलती शांति फिर मन को।


स्वार्थ संग भटके जो यहाँ,


क्या-दोष दे इस जीवन को?


 


 सुनील कुमार गुप्ता


राजेंद्र रायपुरी

हरगीतिका छंद पर रचना-- 


 


है राम की निकली सवारी, 


                        हो रही जयकार भी।


मूरत बड़ी प्यारी प्रभो की,


                           है गले में हार भी।


मंगल कलश सिर पर लिए कुछ,


                          साथ में हैं नार भी।


बैठे प्रभो जिस स्वर्ण रथ वह,


                        है बृहद आकार भी।


 


             ।। राजेंद्र रायपुरी।।


कालिका प्रसाद सेमवाल

मां हंस वाहिनी ,सुमति दायिनी मैं तुम्हें बुला रहा


********************


मां हंस वाहिनी सुमति दायिनी,


अपनी करुणा बरसाओं मां,


स्फटिक माला सुंदर शोभिता,


करुणा रुपेण वीणा वादिनी,


शुभ्र धवल कमलासिनी मां।


 


मां मैं तुम्हारे चरणों में शीश झुकाऊं,


मैं भी काव्य का राही बन जाऊं,


भावों की लड़ियों को मैं भी गूथू,


मुझ पर तुम अपनी कृपा बरसाओं मां,


यही वंदना मैं नित तुमसे करु।


 


हे मां अंधकार को दूर कर


दिव्य प्रकाश बिखराओ मां,


तेरी महिमा कैसे बखान करु मां,


काम ,क्रोध ,मद लोभ मन से हटा दो,


इस दुर्लभ काया को इतनी शक्ति दें दो मां


********************


कालिका प्रसाद सेमवाल


मानस सदन अपर बाजार


रुद्रप्रयाग उत्तराखण्ड


डॉ0 हरि नाथ मिश्र

छठवाँ अध्याय (श्रीकृष्णचरितबखान)-1


 


सोचत चले नंद मग माहीं।


बसु कै कथन असत जनु नाहीं।।


    करिहैं रच्छा नाथहिं ओनकर।


    जे केहु सरन जाइ नाथकर।।


क्रूर निसिचरी पुतना नामा।


सिसु-बध बस रह जाकर कामा।।


    कंसहिं आयसु लेइ पूतना।


     ग्राम-नगर जा बिनू सूचना।।


मारै सिसुहिं बिनू सकुचाई।


घुमि-फिरि,इत-उत,धाई-धाई।।


    जहँ प्रभु-किर्तन-भजन न भवहीं।


    तहँ प्रभाव खलु निसिचर रहहीं।।


नभ-मग चलै पूतना डाइन।


सकै बदलि रूपहि जस चाहिन।।


     आइ नंद-गोकुल के पासा।


     सुघड़ जुवति इव पहिरि लिबासा।।


प्रबिसि पूतना गोकुल ग्रामा।


इत-उत फिरन लगी छबि-धामा।।


     सुंदर-सुरुचि रूप धरि नारी।


     बेला-पुष्पन्ह केस सवाँरी।।


भूषन-बसन सुसज्जित होके।


मटकत डाइन चलै बेरोके।।


    पतरी कमर पूतना नारी।


     तासु नितम्भ-कुचन्ह रहँ भारी।।


तिरछी चितवन,मधु मुस्काना।


रहें पूतना निर्मम बाना।।


    घायल होइ सकल पुरवासी।


    पाछे दौरहिं होय उलासी।।


लगै पूतना रमणी-रूपा।


कमल धारि कर लक्ष्मि अनूपा।।


   निज पति दरसन हेतू आई।


  अस गोपिन्ह मन परी लखाई।।


प्रबिसी झटपट नंदहिं गेहा।


बालक हेतू बिनु संदेहा।।


   लखी कृष्न तहँ सैया ऊपर।


   नैन मूँदि रहँ किसुनहिं वहिं पर।।


रहे छुपाय तेज निज किसुना।


जस रह राख अगन अदर्सना।।


    आतम कृष्न चराचर प्रानी।


     सिसु-ग्रह अहहि पूतना जानी।।


अवरु पूतना जानि अबिद्या।


नैन न खोले प्रभू अभेद्या।।


    तेज प्रकास अबिद्या नासा।


    नासहि तासु न लीला आसा।।


यहिं तें प्रभु रहँ मूँदे नैना।


बाल-घातिनी जानि पूतना।।


    रज्जु जानि जन पकरहिं अहिहीं।


    रखी गोद प्रभु पुतना भ्रमहीं ।।


मखमल खोल खडग जस रहही।


भूषन-बसन पूतना अहही ।।


     जानि ताहि इक सुंदर नारी।


      जसुमति-रोहिनि बिनू बिचारी।।


गृहहिं प्रबेस पूतना दीन्हा।


जाने बिनू न कोऊ चीन्हा।।


    लइ सिसु किसुनहिं गोद बिधाना।


    लगी करावन स्तन पाना ।।


प्रखर गरल रह तिसु पय माहीं।


विषमय स्त�


Featured Post

दयानन्द त्रिपाठी निराला

पहले मन के रावण को मारो....... भले  राम  ने  विजय   है  पायी,  तथाकथित रावण से पहले मन के रावण को मारो।। घूम  रहे  हैं  पात्र  सभी   अब, लगे...