कालिका प्रसाद सेमवाल

हे माँ शारदे वर दे


 


माँ शारदे सद विद्या बुद्धि दायनी,


स्वर को लय प्रदान कर दो,


सृजन अभिव्यक्ति से मुझे भर दो,


ज्ञान से मुझे पूरित कर दो माँ।


 


माँ शारदे तेरी शरण में आया हूँ,


तू ही जग तारिणी है माँ,


तुझ से आलोकित यह संसार है,


अपने आशीष का उपहार दे माँ।


 


मैं नित नित तेरा ध्यान करु माँ,


तेरा ही गुण गान करु मां,


सद मार्ग मिले हे माँ शारदे,


माँ तू वीणा की झंकार बजा दे।


 


हे दयामयि माँ शारदे,


पुण्य पथं प्रशस्त कर माँ,


तिमिर का तू नाश करती,


ज्योति का संसार दे -दे माँ।


 


कालिका प्रसाद सेमवाल


मानस सदन अपर बाजार


रुद्रप्रयाग उत्तराखंड


नूतन लाल साहू

, आलस को तू त्याग दे बंदे


 


बड़ कठिनाई से तुमने, नरतन पाया है


जगत में जीवन है,चार दिनों का


आलस छोड़,मानुष जन्म सुधार


नहीं तो,कुछ भी हाथ नहीं आयेगा


तेरा निर्मल रूप,अनूप है


नहीं हाड मांस की काया


सब दिन होत न एक समान


जिंदगी बेकार न हो जाये


कैसे बैठे हो,आलस में बंदे


बातन बातन में,सब दिन खो रहा है


बड़ कठिनाई से तुमने, नरतन पाया है


जगत में जीवन है,चार दिनों का


आलस छोड़,मानुष जन्म सुधार


नहीं तो,कुछ भी हाथ नहीं आयेगा


सोवत सोवत,उमर बीत गई


काल शीश पर,मंडरा रहा है


सुनहरा अवसर,चूक न जावे


बड़े भाग तू,मानुष तन पाया है


बड़ कठिनाई से तुमने, नरतन पाया है


जगत में जीवन है,चार दिनों का


आलस छोड़,मानुष जन्म सुधार


नहीं तो,कुछ भी हाथ नहीं आयेगा


तेज भवर में फंस गई हैं, नैया


तू ही बता,अब कौन है खिवैया


देव देव आलसी पुकारे


सुकृत कर्म करो,बिनु स्वारथ के


बड़ कठिनाई से तुमने, नरतन पाया है


जगत में जीवन है,चार दिनों का


आलस छोड़,मानुष जन्म सुधार


नहीं तो,कुछ भी हाथ नहीं आयेगा


नूतन लाल साहू


डॉ0 हरि नाथ मिश्र

छठवाँ अध्याय (श्रीकृष्णचरितबखान)-6


 


सभ लइ जसुमति-रोहिनि संगा।


किसुनहिं धरि निज गोद उमंगा।।


    गउ कै पूँछि छुआवन लागी।


    अस उपाय करतै भय भागी।।


लइ गो-मूत्र कृष्न नहवावा।


सकल अंग गो-धूरि लगावा।।


    पुनि बारह अंगन महँ तासू।


     गोबर-लेपन कीन्ह उलासू।।


लइ-लइ 'केशव' प्रभु कै नामा।


रच्छा करउ सबहिं बलधामा।।


    संगहिं 'अंग न्यास'-'कर न्यासा'।


   ग्यारह बीज-मंत्र 'अज' बासा।।


कीन्ह आचमन गोपिन्ह तहवाँ।


'बीज न्यास' कृष्न करि जहवाँ।।


     'अज' प्रभु तव पगु रच्छा करिहैं।


      प्रभु 'मणिमान' घुटन तव रखिहैं।।


'यज्ञ पुरुष' जंघा-रखवारा।


'अच्युत' दैहैं कटि-बल सारा।।


     रच्छा उदर करहिं 'हयग्रीवा'।


     'केशव' हृदय-सुरच्छा लीवा।।


करिहैं 'सूर्य' कंठ कै रच्छा।


 'विष्णु' बाँह कहँ देहिं सुरच्छा।।


     'उरुक्रम' मुखहिं व 'ईश्वर' माथा।


     बालक कृष्न सुरछिहैं नाथा ।।


दोहा-बिबिध मंत्र अरु देव सभ,करिहैं रच्छा नाथ।


        ब्रज-गोपिहिं मिलि सभ कहहिं, करि अवनत निज माथ।।


             डॉ0 हरि नाथ मिश्र


             9919446372


डॉ0 हरि नाथ मिश्र

तृतीय चरण (श्रीरामचरितबखान)-13


 


धिक भाई तव बल-बुधि-ग्याना।


समुझि न सकत बहिन-अपमाना।।


     कस हम रहब नाक बिनु काना।


     रहि ना सकब खोइ पहिचाना।।


सुनि अस बाति बहिन- मुख रावन।


जरि-भुनि उठा जरै जस कानन ।।


     पूछा उठि दसकंधर भगिनी।


     मोंहि बता अस केकर करनी।।


कोसलेस दसरथ- सुत दोऊ।


मुख सुंदर बल केहरि होऊ।।


     जनु आखेट करन बन आए।


     तिन्हकर करनी मो नहिं भाए।।


चाहहिं जनु महि मुक्त-निसाचर।


पाइ तिनहिं मुनि फिरैं बिनू डर।।


    मैं तिन्ह पहँ यहि कारन गयऊ।


    बूझै मरम जहाँ ते रहऊ ।।


राम नाम दसरथ-सुत ज्येष्ठा।


स्यामल गात सुमुख कुल-श्रेष्ठा।।


     तेहि सँग तिसु पत्नी बड़ नीकी।


     सहस कोटि छबि रति कै फीकी।।


जानि मोंहि भगिनी तव ताता।


नाक-कान काटा लघु भ्राता।।


    खर-दूषन पहँ तब मैं जाई।


    तिनहिं ब्यथा निज मन बतलाई।।


खर-दूषन-त्रिसिरा अरु सेना।


लरे किंतु जुधि जीति सके ना।।


    राम मारि खर-दूषन-त्रिसिरा।


    बधे सबहिं जे इत-उत पसरा।।


खर-दूषन-त्रिसिरा-बध रावन।


सुनि भे क्रोधित औरु डरावन।।


सोरठा-भेजि बहिन समुझाइ,गया भवन निज रावनइ।


            सोइ न पाया जाइ,लखि निज भवन न भावनइ।।


                             डॉ0 हरि नाथ मिश्र


                              9919446372


डॉ0 रामबली मिश्र

रोना छोड़ो


 


रोना छोड़ो।


मेरे प्यारे हँसते रहना।।


 


खोना छोड़ो।


मेरे प्यारे बीते रहना।।


 


सोना छोड़ो।


प्यारे सदा जागते रहना।।


 


ढोना छोड़ो।


हल्का बनकर चलते रहना।।


 


कोना छोड़ो।


सरपट धावक बनकर चलना।।


 


टोना छोड़ो।


धर्म पंथ पर चलते रहना।।


 


दोना छोड़ो।


करपात्री बन चलते रहना।।


 


'दो ना' छोड़ो ।


दाता बनकर देते रहना।।


 


'नू ना' छोड़ो।


स्वीकृति सबको देते रहना।।


 


धोना छोड़ो।


सबका प्रिय बन जीते रहना।।


 


डॉ0 रामबली मिश्र हरिहरपुरी


9838453801


डॉ0 रामबली मिश्र

अंतस्थल में है पड़ी, नैसर्गिक संपत्ति।


जिसके सफल प्रयोग से, जाती भाग विपत्ति।।


 


एक-एक से रत्न का, देखो सदा कमाल।


आत्म निवेदन प्रेम से ,जाती दूर विपत्ति।।


 


श्रद्धा अरु विश्वास से, खुश होते हैं ईश।


अंत:पुर की है यही, आध्यात्मिक संपत्ति।।


 


सच्चाई-ईमान का, करते रहना ख्याल।


इनके आगे टिक नहीं, सकती कभी विपत्ति।।


 


धर्म और सत्कर्म ही, सुंदर मन की सोच।


इन्हीं सुरक्षा कवच को, समझ मूल संपत्ति।।


 


मानव मूल्यों का करो, सत शिव शुभ उपयोग।


मानव मूल्य महान ही, जीवन की संपत्ति।।


 


नैतिकता इंसानियत ,ही जीवन के स्रोत।


मानव देव स्वरूप है, पा कर यह संपत्ति।।


 


मनसा वाचा कर्मणा, करते रह सहयोग।


सबसे उत्तम संपदा, है सहयोग-प्रवृत्ति।।


 


सुंदर-उत्तम सोच रख, गन्दे से रह दूर।


सुंदर भावों पर भला, कौन करे आपत्ति।।


 


दूषित चिंतन मत करो, यह विपत्ति का गेह।


पावन चिंतन -खनन में, है अद्भुत संपत्ति।।


 


डॉ0 रामबली मिश्र हरिहरपुरी


9838453801


डॉ0 हरि नाथ मिश्र

अष्टावक्र गीता-12


जग झूठा, तुम शुद्ध हो,करो ब्रह्म सँग योग।


बने न,अष्टावक्र कह,किसी से तव संयोग।।


 


विश्व-मूल है आत्मा,जैसे बुदबुद सिंधु।


करो ब्रह्म सँग मेल तुम,प्राप्त ज्ञान यह बंधु।।


 


नहीं विश्व वह जो दिखे,जैसे रज्जु न सर्प।


रखो योग तुम ब्रह्म से,होत बोध तज दर्प।।


 


सुख-दुख,जीवन-मृत्यु सम,आशा अरु नैराश्य।


रखकर भाव समान तुम,पाओ ब्रह्म उपास्य।।


               © डॉ0 हरि नाथ मिश्र


                   9919446373


सुनीता असीम

लोग कहां पर ऐसे होंगे।


मिलजुल कर जो रहते होंगे।


 


इक दिन तो आए ऐसा भी।


रिश्ते गुड़ से मीठे होंगे।


 


हरियाली छाएगी हरसू।


दूर डगर से कांटे होंगे।


 


प्यार मिला जी भरकर उनको।


मात पिता ये कहते होंगे।


 


हसना देख ज़रा प्रेमी का।


प्रेम समझ कर रोते होंगे।


 


राह दिखाए सबको सच्ची।


रस्ते ऐसे होते होंगे।


 


जान लुटा दें सिर्फ वतन पर।


लोग वही तो भाते होंगे।


 


सुनीता असीम


डॉ.राम कुमार झा निकुंज

प्रिय राग तजो कर मधुर मिलन


 


जीवन की सारी खुशियाँ ले,


पुष्पित प्रसून मुस्कान बनो।


नयी प्रगति नित कीर्ति लता में,


गन्धमाद सजन मन रंग भरो।


 


सरस मधुर जीवन्त सुधा प्रिय,


तुम जीवन मधु संगीत बनो।


नव प्रभात अरुणिम छाया बन,


प्रियतम दिल कानन रमण करो।


 


अभिलाष हृदय मुखचन्द्र ललित,


बन सोम प्रभा प्रिय चमन करो।


मधुमास हृदय कोमल किसलय,


सुष्मित सरोज सज सदा खिलो।


 


मुकुलित रसाल तरु सुन्दरतम,


अभिनव कोकिल स्वर गान करो।


अभिसार प्रियम राजीव नयन,


रति बाण मदन संधान करो। 


 


घरघोर घटा जल भींगा तन ,


भींगें बालें प्रिय गलहार बनो।


पीन पयोधर रस गागर बन,


चंचल यौवन मधुशाल बनो।


 


बन स्थूल हृदय साजन कबतक,


सखी शुष्क हृदय घनश्याम बनो।


हूँ पड़ी विरह अवसादित मन,


श्रावण भावन चितचोर बनो। 


 


रजनी गन्धा महकाऊँ तन,


निशिचन्द्र प्रभा उद्गार बनो।


विरही प्रिय लखि नभ तारा गण,


उपहास लाज प्रिय शमन करो।


 


सोलह शृङ्गारों में साजन,


हूँ सजी धजी सुखधाम बनो।


मधुश्रावण रस गुलज़ार मधुप,


सहला चितवन अभिराम बनो। 


 


मैं नव कोपल पाटल पादप,


नित स्नेह सलिल दिलवर सींचो।


प्रिय मूर्ति बना भज मन मन्दिर,


तज राग प्रियम शुभ दर्शन दो।


 


मैं प्रेमवशी कचनार कली,


खिल चारु कुसुम अरुणाभ बनो।


मनुहार प्रिया नैनाश्रु नयन,


करयुगल विनत उपहार बनो।  


 


सब कुछ अर्पण तन मन जीवन,


राधा मीरा गोपी समझो।


फँस जलप्लावन मँझधार प्रलय,


प्रिय प्रीति नाव पतवार बनो।


 


प्रिय राग तजो कर मधुर मिलन,


जूगनू बन निशि न तरसाओ।


विलसित निकुंज फिर प्रेमयुगल,


नवनीत प्रीत रस बरसाओ।   


 


नवगीत सृजन मनमीत सजन,


मन मोरमुकुट दिलराज बनो।


नव उषाकिरण फिर नवजीवन,


चिर स्वप्न प्रीत गुलज़ार करो।


 


डॉ.राम कुमार झा निकुंज


नवदिल्ली


निशा अतुल्य

शब्द सीढ़ी काव्य सृजन 


रंग,तरंग, अंतरंग, जलतरंग, अंग-प्रत्यंग


 


रंग इंद्रधनुषी बिखरे चहुँ ओर


नैनो ने नए ख़्वाब सजाए ।


 


तुमसे मिलने की ख़्वाईश 


मन में अज्जब तरंग जगाए।


 


अंतरंग भाव बतलाऊँ कैसे अपने


पिया तुम बिन सावन सूना जाए।


 


हिये में उठे शूल जलतरंग से


नैनन रात रात नीर बहाए।


 


विरह अग्नि साजन तुम बिन


अंग-प्रत्यंग मेरा धहकाए ।


 


निशा अतुल्य


कालिका प्रसाद सेमवाल

ये जिन्दगी


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क्या बताऊँ कैसी है ये जिन्दगी


कभी तो फूल सी लगती है


और कभी दुखों का घर लगती है


ये जिन्दगी।


 


कभी तो काँटों में गुलाब सी


मुस्कुराती है ये जिन्दगी


कभी दूर डूबते सूरज सी


लगती है ये जिन्दगी।


 


कभी सूरज की पहली किरण


सी लगती है यह जिन्दगी


कभी कल्पनाओं के सागर में


गोते लगाती है ये जिन्दगी।


 


कभी दूसरे का दर्द को देख कर


रो पड़ती है ये जिन्दगी


कभी मौत के भय से


बदहवास सी दौड़ती है ‌ये जिन्दगी।


 


कभी अवसादो के क्षणों में


बहुत विचलित होती है


और कभी खुश हो जाती है


ये जिंदगी।


 


आज जीवन कितना ऊबाऊ है


यहां सब कुछ बिकाऊ है


कभी बहुत सूना पन लगता है


 कभी मजेदार लगती ये जिन्दगी। 


 


कभी मंजिल के बहुत करीब


लगती है ये जिन्दगी


कभी एक -एक पग 


पीछे धकेलती है ये जिन्दगी।


 


कैक्टस के पौधो को


घरों मे लगाते जा रहे हो


फूलो सी सुन्दर जिन्दगी को


क्यों काटों से सजा रहे हो।


 


क्या कहूँ कैसी है ये जिन्दगी


जैसे भी है


बहुत सुहावनी है ये जिन्दगी


ईश्वर का कृपा प्रसाद है ये जिन्दगी।।


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कालिका प्रसाद सेमवाल


मानस सदन अपर बाजार


रूद्रप्रयाग उत्तराखंड 246171


डॉ0 रामबली मिश्र

मेरी अभिनव मधुशाला


 


परम सुनहरा दिव्य चमकता, अति अद्भुत मेरा प्याला;


परम सुगंधित अतिशय मादक, अति सुरभित मेरी हाला;


परम रुपायन अति मन भावन, सभ्य लुभावन प्रिय साकी;


परम रूपसी सहज मोहिनी, सुघर सलोनी मधुशाला।


 


सौरभ सुंदर मॄदुल मनोहर, स्वर्ण वदन मेरा प्याला;


अतिशय भावुकता से सिंचित है, परम मनोरम मधु हाला;


अति बड़भागी जन अनुरागी, घोर तपस्वी साकी है;


सदा सुधाकर चन्द्र वदन प्रिय, अति शुभदा है मधुशाला।


 


डॉ0 रामबली मिश्र हरिहरपुरी


9838453801


नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर

महामारी के दहसत खौफ 


मर जाता इंसान


गर इलाज़ मिल जायें


जिंदगी हो जाती आसान।।


 


बेरोजगारी महामारी पर


भारी घुट घुट कर तड़फ


तड़फ कर मरता इंसान


बेवस लाचार इधर उधर 


मारता हाथ पाँव।।


 


माँ बाप ने जाने कितने


अरमानों से अपने लाडलों


का लालन पालन पोषण


किया पढ़ाया और लिखाया।


 


अपने मेहनत श्रम ,कर्म ,धर्म


से कर्तव्य दायित्व निभाया।।


 


पढ लिख कर इधर उधर


घूम रहा नौजवान रोजी


रोटी रोजगार की तलाश में।


 


रोजगार के अवसर समाप्त


सरकार भी परेशान क्या करे


उपाय ।।


 


शिक्षा परीक्षा पद्धति की


परम्परा का करे पुनर्निर्माण


या सृजन करे रोजगार ।


 


काम मिलता ही नहीं सोच


समझ नहीं पाता बेरोजगार


नौजवान करे क्या?


 


अवसर उपलब्धि का करे


स्वयं निर्माण धन का कहाँ


से करे जुगाड़। 


 


 मन मस्तिष्क पर बोझ लिए


आत्म हत्या को करता अंगीकार


कभी कही हत्या और लूट के


आपराध को ही कर लेता साथ।।


 


सामजिक विकृतियों को अपनाकर दहसत दंश का


बेताज बादशाह।।


ऐसा मार्ग चुनता राष्ट्र समाज


हो जाता परेशान खुद एक 


महामारी का बन जाता पर्याय।।


 


डिग्री के बोझ के निचे दब जाता


संस्कृति संस्काए


 


जन संख्या संसाधन 


की भयावह यह मार।


सिमित संसाधन पर बोझ


असीमित क्या है कोई निदान।।


 


पद एक प्रत्याशी अनेक चयन प्रणाली की प्रक्रिया में दोष अनेक


हर प्रक्रिया में न्याय न्यायालय


का हस्तक्षेप।।                   


 


नौकरी की चयन


प्रकिया में वर्षो का घाल मेल।।


 


कितने ही नवजवान काल


कलवित हो जाते चयन तो


पा जाते जीवन से मुक्त हो


चैन ही पा जाते।।


 


विडम्बना और भयंकर जो


भी जन जिम्मेदार देने को


रोजी रोजगार। 


 


 


 आकंठ भ्रष्ट


भ्रष्टाचार के प्रतिनिधि


अपने ही बच्चे नौजवान


को अंधेरों में धकेलते जाते


बारम्बार।।


 


चाहे स्व रोजगार हो या 


सरकारी नौकरी हर जगह


अफरा तफरी ।।                    


 


लोक तंत्र


के महाकुम्भ में बेरोजगारी


मुद्दा होता शासन में आते


ही रोजगार का हाल खस्ता 


होता।।


 


रोजी और रोजगार समाज


नौजवान राष्ट्र की चुनौती


हर नौजवान राष्ट्र का


कीमती हीरा मोती।।


 


नौजवान के सपनो के


सौदागर जागो 


बहुत हुआ वादा कोशिश


जिम्मेदारी से मत भागो।।


 


नौजवान को काम दाम


और दो नेवाला।


मुफ़्त मुफ़्त मुफ़्त से कर्मबीर


भारत के नौजवान को कायर


असहाय परपोषी का नशा


अफीम बंद करो ना होने दो


हताश निराश का बवाला।।


 


नौजवान के जज्बे का सृजन


सम्मान करों भारत के योग्य उत्तम


सर्वोत्तम उत्कृष्ट नौजवान के


भारत का निर्माण करों।।


 


नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर


संजय जैन

घर गृहस्थी समझा


 


न गम का अब साया है,


न खुशी का माहौल है।


चारो तरफ बस एक,


घना सा सन्नाटा है।


जो न कुछ कहता है,


और न कुछ सुनता है।


बस दूर रहने का,


इशारा सबको करता है।।


 


हुआ परिवर्तन जीवन में,


इस कोरोना काल में।


बदल दिए विचारों को,


उन रूड़ी वादियों के।


जो घरकी महिलाओं को, 


काम की मशीन समझते थे।


और घरके कामो से सदा,


अपना मुँह मोड़ते थे।।


 


घर में इतने दिन रहकर, 


समझ आ गये घरके काम।


घर की महिलाओं को


कितना होता है काम।


जो समयानुसार करती है,


और सबको खुश रखती है।


पुरुषवर्ग एकही काम करते है,


और उसी पर अकड़ते है।।


 


देखकर पत्नी की हालत,


खुद शर्मिदा होने लगा।


और बटाकर कामों में हाथ,


पतिधर्म निभाना शुरू किया।


और पत्नी का मुरझाया चेहरा, 


कमल जैसा खिल उठा।


और मुझे सच्चे अर्थों में,


घरगृहस्थी समझ आ गया।।


 


जय जिनेन्द्र देव 


संजय जैन मुम्बई


19/09/2020


डॉ0 हरि नाथ मिश्र

बेफ़िक्र जिंदगी


बेफ़िक्र हो कर ज़िंदगी जीना है अति भला।


गर रोड़ें आएँ राह में तो करना नहीं गिला।।


 


आए गमों का दौर तो न धैर्य छोड़ना,


खोना नहीं विवेक जंग से मुख न मोड़ना।


जीवन का है ये फ़लसफ़ा समझ लो दोस्तों-


जिसने जिया है इस तरह,उसी को सब मिला।।


        गर रोड़ें आएँ राह में........।।


पर्वत-शिखर पे झूम के बादल हैं बरसते,


नदियों के जल-प्रवाह तो थामे नहीं थमते।


जिन शोखियों से शाख पे निकलतीं हैं कोपलें-


थमने न देना ऐसा कभी शोख़ सिल-सिला।।


          गर रोड़ें आएँ राह में.........।।


क़ुदरत का ही कमाल है ये सारी क़ायनात,


रहता कहीं पे दिन है तो रहती कहीं पे रात।


गुम होते नहीं तारे चमका करे यह सूरज-


महके है सारी वादी यह फूल जो खिला।।


          गर रोड़ें आएँ राह में..........।।


जब नाचता मयूर है सावन में झूम के,


कहते हैं होती वर्षा अति झूम-झूम के।


जो श्रम किया है तुमने वह फल अवश्य देगा-


मेहनतकशों के श्रम का मीठा है हर सिला।।


        गर रोड़ें आएँ राह में तो करना नहीं गिला।।


                     © डॉ0 हरि नाथ मिश्र


                        9919446372


डॉ0 रामबली मिश्र

जाना-पीना-जीना सीखो


 


जाने का अभ्यास करो अब।


पा जाओगे मधुशाला तब।।


 


गये बिना कैसे पहुँचोगे ?


मधुशाला कैसे देखोगे??


 


जा कर ही तुम पी सकते हो।


पी करके ही जी सकते हों।।


 


समझो जाना बहुत जरूरी।


बिना गये कामना अधूरी।।


 


ईश्वर से कर यही याचना।


पूरी कर दें वही कामना।।


 


मय बिन जीवन सदा निरर्थक।


मय-मधु-हाला से ही सार्थक।।


 


पागल बनना बहुत जरूरी।


मय ही तोड़ेगा मगरूरी।।


 


अहंकार से मुक्ति मिलेगी।


जब उर में मयधार गिरेगी।।


 


मय पी कर चहुँओर चलूँगा।


दौड़ लगाता सदा फिरूँगा।।


 


देखूँगा मैं सकल लोक को।


सकल लोक में ब्रह्मलोक को।।


 


ब्रह्मलोक में बस परमेश्वर।


परमेश्वरमय श्री रामेश्वर।।


 


शिव में राम राम में शंकर।


देखूँगा रामेश्वर सुंदर।।


 


सुंदर में आत्म का ज्ञाना।


सहज ज्ञानमय सत-शिव ध्याना।।


 


एकनिष्ठ हो ध्यानमग्न हो।


हो विदेह तब सहज नग्न हो।।


 


मत पूछो मेरी हालत को।


देखो केवल मय के लत को।।


 


कितनी सुंदर यह लत न्यारी।


सारी जगती अतिशय प्यारी।।


 


धर्म-नशा जब छा जायेगा।


जीवन सार्थक हो जायेगा।।


 


मय-मदिरा-मधु-हाला पीना।


आध्यात्मिक भावों में जीना।।


 


मैं ही साकी, पीनेवाला।


तुम भी पी बन जा मतवाला।।


 


मधुशाला को छोड़ न जाना।


मधुशाला से ही सब पाना।।


 


कर प्रचार नित मधुशाला का।


मतवाला पीनेवाला का।।


 


डॉ0 रामबली मिश्र हरिहरपुरी


9838453801


विनय साग़र जायसवाल

उनका महफ़िल में जैसे ही आना हुआ


सारा माहौल ही आशिक़ाना हुआ 


 


गुफ्तगू उसने ऐसी अदाओं से की


गोशा गोशा ये दिल शायराना हुआ 


 


हम उसी दिन से बन ठन के रहने लगे


उनकी आँखों में जबसे ठिकाना हुआ 


 


दिल के टुकड़ों पे उफ तक न हम भर सके


वार ही इस कदर क़ातिलाना हुआ


 


इस मुहब्बत ने ऐसे खिलाये हैं गुल 


रोज़ तैयार ही इक तराना हुआ


 


मेरे महबूब के सिर्फ़ आने से ही 


ख़ूबसूरत मेरा आशियाना हुआ 


 


उनसे साग़र बढ़ीं निस्बतें इस कदर 


मेरा अंदाज़ भी सूफ़ियाना हुआ 


 


🖋️विनय साग़र जायसवाल


एस के कपूर श्री हंस

वृक्षों से ही हमारे जीवन में


आती हरियाली है।


प्रकृति पोषित और हर ओर


होती खुशहाली है।।


पर्यावरण सरंक्षण धुरी है


जीवन के रक्षा की।


जानो तभी मनेगी नई पीढ़ी


की होली दीवाली है।।


 


रक्षा पर्यावरण की तेरी मेरी


सबकी जिम्मेदारी है।


हम अभी से हों समझदार


इसी में होशियारी है।।


नहीं तो बर्बाद ए गुलिस्तां को


होगी जवाबदारी ।


यही आज समय का तकाजा


और खबरदारी है।।


 


जो हम सिखायेंगे नई पीढ़ी


वही करेगी आगे जाकर।


पर्यावरण के प्रति जागरूक


होगी हमसे सीख लाकर।।


आज कर्तव्य नई पीढ़ी को हमें


सौंपना स्वच्छ पर्यावरण।


अन्यथा आने वाली पीढ़ी दुःख


भरेगी ये विरासत पाकर।।


 


एस के कपूर श्री हंस


बरेली।


डॉ0 हरि नाथ मिश्र

तृतीय चरण (श्रीरामचरितबखान)-12


 


सीता चितइ स्याम प्रभु-गाता।


होंहिं मुदित प्रभु-प्रेम समाता।।


    पंचबटी रहि रघुकुल-नायक।


   देहिं सबहिं सुख सिद्धि-बिनायक।।


लखि खर-दूषन सभें बिनासा।


चली सुपुनखा तजि सभ आसा।।


   क्रोधित हो रावन पहँ जाई।


   ताको गूढ़ बाति बतलाई।।


सुरा-सुंदरी बस तोहिं भावै।


देस-काल कै सुधि नहिं आवै।।


     भूलि गयो करि मदिरा-पाना।


      का हो धरम-करम नहिं जाना।।


खाइ-सोइ दिन-राति बितावत।


नहिं जानसि का नीति कहावत।।


      राज होय बिनु नीति न भाई।


      बिनु धन धरम पनपि ना पाई।।


बिनय-बिबेक बिद्या तें आवै।


प्रभुहिं नवहिं श्रम-फल जग पावै।।


    बिषय-भोग नहिं जोगी भाए।


    कुमति सलाह न राज चलाए।।


मानइ सत्रु ग्यान कै होवै।


मदिरा-पान लाजि जग खोवै।।


     बिनु भय नम्र प्रीति नहिं भ्राता।


     मद-घमंड तें गुन छिन जाता।।


सिर पे चढ़ि सुनु रिपु इक आवा।


लागत अब ऊ बोली धावा ।।


    अस कहि बहु बिलाप करि भगिनी।


     फफकहि जस फुफकारै अहिनी।।


दोहा-रोग-अगिनि-स्वामी-सरप,पाप सत्रु-दल आहिं।


        जे आकहिं अति लघु इनहिं,डूबहिं दल-दल माहिं।।


                           डॉ0 हरि नाथ मिश्र


                             9919446372


डॉ0 हरि नाथ मिश्र

छठवाँ अध्याय (श्रीकृष्णचरितबखान)-3


 


रही पूतना ब्रज-सिसु-घालक।


यहिं तें बधे कृष्न जग-पालक।।


     कृष्न-सखा अरु भगत सिसुहिं सब।


     बधे पूतना यहिं तें प्रभु तब ।।


कृष्न-पिता अरु माता सकला।


देव-दनुज अरु अबला-सबला।।


     पाइ क कृपा कृष्न भगवाना।


     मुक्त सबहिं जग आना-जाना।।


मरन पूतना अचरज भयऊ।


सभ सुनि जहँ-तहँ ठाढ़हि रहऊ।।


   परत पूतना भूइँ सरीरा।


    बड़-बड़ तरुवर गिरे गँभीरा।।


जे छे कोस भूमि पे रहऊ।


ते सभ तासु सरीरहिं दबऊ।।


    हल समान मुख-मंडल तासू।


     दाढ़-बाल सभ लगै डरासू।।


गहिर नथुन गिरि-गुहा समाना।


बड़ गिरि-खंडहिं स्तन जाना।।


     अंध कूप इव गहरे लोचन।


     नदी-कूल नितम्भ सुख-मोचन।।


जाँघ-भुजा अरु तासू लाता।


पुल इव कोऊ सरित लखाता।।


     उदर पूतना सुष्क सरोवर।


      लखहिं सभें जन डरत बरोबर।।


उछरत-कूदत पीए स्तन।


धन्य नाथ तव लीला वहि छन।।


    पूरन कीन्ह तासु अभिलाषा।


    बलि-कन्या रत्नावलि-आसा।।


एक बेरि बामन-अवतारा।


बलि-गृह नाथहिं जबहिं पधारा।।


    लखतै प्रभु कै बामन-रूपा।


    तब तनया रत्नावलि भूपा।।


निज उर धारि भाव बतसल्या।


भइ जननी इव मातु कुसिल्या।।


    चाहेसि स्तन-पान कराना।


   तासु बिचार प्रभू पहिचाना।।


लइ द्वापर कृष्णहिं अवतारा।


करि पय-पान पूतना तारा।।


सोरठा-सभ गोपिहिं तहँ धाइ, किसुनहिं धरि निज गोद मा।


           इत-उत भागत जाइ,जनु डरपैं सिसु कृष्न तहँ।।


                              डॉ0 हरि नाथ मिश्र


                               9919446372


नूतन लाल साहू

कोशिश


कुछ किये बिना,किसी का भी


जय जयकार,नहीं होती है और


कोशिश करने वालों की


कभी हार नहीं होती है


मंजिले मिले या ना मिले


ये तो मुकद्दर की बात है


हम कोशिश न करें


ये तो बहुत ग़लत बात है


जिंदगी जख्मों से भरी हुई है


वक्त को मरहम,बनाना सीख लो


हारना तो है, एक दिन मौत से हमें


फिलहाल,कोशिश करते हुये


निश्चिन्त होकर, जिंदगी जीना सीख लो


कुछ किये बिना,किसी का भी


जय जयकार नहीं होती है और


कोशिश करने वालों की


कभी हार नहीं होती है


जो सफ़र की शुरुआत करते हैं


वे मंजिल भी पा लेते हैं


बस एक बार चलने का


हौसला रखना जरूरी है,क्योंकि


अच्छे इंसानो का तो


रास्ते भी इंतजार करते हैं


कड़ी से कड़ी,जोड़ते जाओ तो


जंजीर बन जाती हैं,और


कोशिश पे कोशिश करो तो


तकदीर बन जाती हैं


कुछ किये बिना,किसी का भी


जय जयकार नहीं होती और 


कोशिश करने वालों की


कभी हार नहीं होती है


जिंदगी जीना आसान नहीं होता है


बिना कोशिश कोई महान नहीं होता है


जब तक न पड़े,हथौड़े की चोट


पत्थर भी भगवान,नहीं होता है


मंजिले यू ही नहीं मिलती, राही को


जुनून सा दिल में जगाना पड़ता है


मैंने पूछा चिड़ियो से कि,तुम


घोसला कैसे बना लेते हो


चिड़ियों ने कहा,तिनका तिनका उठाना पड़ता है


कुछ किये बिना,किसी का भी


जय जयकार नहीं होती है और


कोशिश करने वालों की


कभी हार नहीं होती है


नूतन लाल साहू


राजेंद्र रायपुरी

 दोहा छंद पर एक मुक्तक 


 


नहीं बुढ़ापा बोझ है, काहे चिंतित होय।


यही समय जब चैन से,लेता है जन सोय।


और किया जो पाप है,जाकर चारो धाम,


मरने से पहले सभी, लेता है वो धोय।


 


              ।। राजेंद्र रायपुरी।।


कालिका प्रसाद सेमवाल

माँ सरस्वती मुझ पर उपकार करो


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विद्या वाणी की देवी माँ सरस्वती,


मुझ पर तुम उपकार करो,


करुं मैं मानव सेवा बनू परपकारी,


मेरे अन्दर माँ तुम ऐसा विश्वास भरो।


 


माँ ज्ञान की लय दे और विचारों में सहजता,


भावो में ऊंची उडान दो माँ,


मुख से हमेशा ही जब भी बोलो,


मधुर बचन ही बोलो माँ सरस्वती।


 


विचलित मन को स्थिरता दे दो माँ,


दूर करो मेरी सब दुविधाओं को,


चलो हमेशा सत्य के पथ पर माँ,


ऐसी तुम मुझे राह दिखाओ माँ सरस्वती।


 


सुख -समृद्धि और सुसंस्कार दो,


जीवन में कभी किसी का बुरा न सोचू,


ऐसी मुझे सुमति तुम दे दो माँ,


  ज्ञानदायिनी,वीणावादिनी माँ सरस्वती।।


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कालिका प्रसाद सेमवाल


मानस सदन अपर बाजार


रुद्रप्रयाग उत्तराखण्ड


सुनील कुमार गुप्ता

    आधार


पल-पल देखे सपने साथी,


कैसे-हो सपने साकार?


सपने न हो संग में साथी,


जीवन को मिले न आकार।।


रंग भरे जीवन में साथी,


फिर संग हो ऐसा विचार।


सपने तो सपने है साथी,


उनको मिलता न विस्तार।।


यथार्थ संग देखे जो सपने,


कुछ तो ले लेते आकार।


रह जाते जो सपने-सपने,


ढूँढ़ो न उनका आधार।।


 


 सुनील कुमार गुप्ता


डॉ.राम कुमार झा निकुंज

शान्ति सहज जीवन सुखी


 


शान्ति सहज जीवन सुखी , मानवता सम्मान।


यही मूल नित सत्य है, ब्रह्म सृजन अभिधान।।१।।


 


परहित यदि मन भावना , तजे मोह मद स्वार्थ । 


सर्व सुखी मुस्कान मुख, शान्ति मिले परमार्थ।।२।।


 


सुष्मित सुन्दरतम प्रकृति , मिला ईश वरदान।


त्याग शील गुण कर्म पथ , शान्ति करें अवदान।।३।।


 


जीवन होता तब सफल , मिले शान्ति आलोक।


दीन धनी समतुल्य है , मिटे त्रासदी शोक।।४।।


 


युद्ध लक्ष्य बस शान्ति का, ध्येय मात्र सत्कर्म।


प्रभु लेते अवतार जग , शान्ति दूत बन धर्म।।५।।


 


लोभ मूल हर व्याधि का ,घृणा राग छल मोह।


अहंकार रिपु शान्ति का ,विश्व शान्ति अवरोह।।६।।


 


शान्ति मार्ग जग श्रेष्ठ है , चहुँदिश जन उत्थान।   


खिले चमन मकरन्द बन , धन वैभव मुस्कान।।७।।


 


विश्व शान्ति जग स्वस्ति ही,कारण हरि अवतार।


मीन कूर्म वाराह बन , किये दुष्ट संहार।।८।।


 


वामन बलि मद नाश कर , शान्ति रूप संसार। 


बार बार क्षत्रिय दमन, किया परशु अवतार।।९।।


 


लिया राम अवतार जग , हरे प्राण लंकेश।


नृसिंह रूप भगवान हरि , काल बने असुरेश।।१०।।


 


शान्ति दूत श्रीकृष्ण बन , ले द्वापर अवतार।


पापी कौरव नाश कर , रखा शान्ति आधार।।११।।


 


बुद्ध शान्ति अवतार दस,देख व्यथित जग पाप।


सत्य प्रेम करुणा दया , हरे लोक संताप।।१२।।


 


महावीर शंकर सुमन , सत्य प्रीति पथ शान्ति।


तीर्थंकर अरुणाभ जग , मिटे मोह जग भ्रान्ति।।१३।।


 


शान्ति सुखद सोपान है , शान्ति ईश उपहार।


शान्ति चारु कारण प्रगति,शान्ति कीर्ति आधार।।१४।।


 


शान्ति जगत दुर्जेय है , नवरस का शृङ्गार।


शान्ति सत्य नीलाभ सम , शीतल गन्ध बहार।।१५।। 


 


महायुद्ध शान्त्यर्थ ही , लड़ा गया हर बार।


जब प्रश्न धर्म स्थापना , हुआ शत्रु संहार।।१६।।


 


दहशत का माहौल जग , विस्तारक खल नीति।


दे कोरोना त्रासदी , भूल बन्धुता प्रीति।।१७।। 


 


हृदय रखें सद्भावना , समरसता मकरन्द।


शान्ति पुष्प रस पान कर , मुदित मधुप आनंद।।१८।।


 


परशु गदा गाण्डीव भी , पड़े उठाना चक्र।


विश्व शान्ति अनिवार्य फिर,विनाश शत्रु दुश्चक्र।।१९।।


 


शान्ति मार्ग कल्याण जग, सत्य प्रीति अभिराम।


विश्वबन्धु जब भाव मन , त्याग स्वार्थ सुखधाम।।२०।। 


 


डॉ.राम कुमार झा निकुंज


नई दिल्ली


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