दुनिया के रीति रिवाजों से,
एक रोज बगावत कर बैठे।
महबूब की गलियों से गुजरे,
तो हम भी मोहब्बत कर बैठे।।
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मन्दिर-मस्जिद से जब गुजरे,
पूजा व इबादत कर बैठे।
जब अाई वतन की बारी तो,
उस रोज सहादत कर बैठे।।
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दुनिया दारी के चक्कर में,
जाने की हिम्मत कर बैठे।
गैरों के लिए हम भी इक दिन,
अपनों से शिकायत कर बैठे।।
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जो लोग बिछाते थे कांटे,
हम उनसे इनायत कर बैठे।
पीछे से वार किये जिसने,
हम उनसे सराफत कर बैठे।।
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हमने अहसानों को माना,
वो लोग अदावत कर बैठे।
हर बात सही समझी हमने,
वो लोग शरारत कर बैठे।।
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उनके जीवन की हर उलझन,
हम सही सलामत कर बैठे।
पर मेरी हंसती दुनिया में,
कुछ लोग कयामत कर बैठे।।
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दुर्गा प्रसाद नाग
नकहा- खीरी
मोo- 9839967711