डॉ. रामबली मिश्र

शिक्षक दे बस शिष्य को, मन से सुंदर ज्ञान।


शिक्षक अपने धर्म से, बनता सदा महान।।


 


शिक्षक हो कर जो नहीं, करता शिक्षण-कर्म।


समझो वह नित कर रहा, पापाचार अधर्म।।


 


सहज समर्पण भाव से, शिक्षक महा सुजान।


अच्छे शिक्षक को मिलत, आजीवन सम्मान।।


 


पढिये और पढ़ाइये, यह शिक्षक का धर्म।


पढ़ता-लिखता है नहीं, जो वह करत अधर्म।।


 


शिक्षक पावन वृत्ति है,शिक्षक पावन भाव।


शिक्षक सुंदर धर्म है, शिक्षक दिव्य स्वभाव।।


 


शिक्षक बनना अति कठिन,वह तपसी विद्वान।


घोर तपस्या का सुखद, फल शिक्षक-भगवान।।


 


निष्ठा अरु कर्तव्य ही, शिक्षक का है धर्म।


कामचोर शिक्षक सदा, करता घोर अधर्म।।


 


कक्षा में जाते नहीं, राजनीति से प्रीति।


ऐसे शिक्षक कर रहे, सतत अधर्म अनीति।।


 


छिपी हुई है सर्जना, पढ़ना-लिखना काम।


सदा काम से काम जो, उस शिक्षक का नाम।।


 


छात्र हितैषी गुरु सदा, करता रोशन नाम।


अपना आसन सिद्ध कर, रचता सुंदर धाम।।


 


गुरु वशिष्ठ संदीपनी, का यह पावन स्थान।


हर शिक्षक सत्कर्म से, पा सकता सम्मान ।


 


शिक्षक बनना है अगर, अर्जन कर शिव ज्ञान।


गहन तपस्या से बनो, अति विनम्र विद्वान।।


 


डॉ. रामबली मिश्र हरिहरपुरी


9838453801


डॉ. रामबली मिश्र

प्रेमाभिव्यक्ति


प्रेम प्रदर्शन का सभी,करें सहज सत्कार।


प्रेम रत्न धन -संपदा ,पर सबका अधिकार।।


 


सात्विक प्रेम बना रहे,सभी रहें खुशहाल।


कपहीनता है जहाँ, वहीं प्रेम का द्वार।।


 


जहाँ नकारे जा रहे, हों सब गंदे मूल्य।


वहीं प्रेम उद्भूत हो, दिखता सत साकार।।


 


छिपा हुआ है प्रेम में,अति आकर्षण शक्ति।


करते रहना प्रेम का, सुंदर साक्षात्कार।।


 


मीठी बोली निष्कपट, बोल करो मनुहार।


मीठे-मीठे वचन में ,छिपा महकता प्यार।।


 


ऐसी वाणी बोलिये, दे सबको आनंद।


अति आनंदक शव्द से, बहत प्रेम की धार।।


 


दिल की सारी प्रिति को ,देना खूब उड़ेल।


सराबोर हो सकल जग, पी हो तृप्त अपार।।


 


मत चूको बाँटो सदा, यह वितरण की चीज।


प्रेम गेह के द्वार पर, लगे सदा दरबार।।


 


मानुष हो करते रहो, सतत प्रेम का पाठ।


कदम-कदम पर प्रेम का, करते रहो प्रचार।।


 


प्रेम मंत्र का जाप कर, बन पण्डित विद्वान।


प्रेम ग्रंथ पढ़ता रहे ,यह सारा संसार।।


 


डॉ. रामबली मिश्र हरिहरपुरी


डाॅ. सीमा श्रीवास्तव

      शब्द 


 


शब्दों में संसार बसा है 


शब्दों से ही शब्द कसा है। 


 


शब्द आकाश है, शब्द अवनि है 


शब्द वायु है और शब्द ध्वनि है।


 


शब्द ब्रम्ह है , शब्द तेज है 


शब्द मंत्र हैं, शब्द वेद है। 


 


शब्द भाव हैं, शब्द स्वर है


शब्द शांत हैं, शब्द मुखर है। 


 


शब्द सुधा है, शब्द जहर है


शब्द सागर है, शब्द लहर है। 


 


शब्द गति है, शब्द यति है 


शब्द शक्ति है, शब्द मति है। 


 


शब्द साज है, शब्द गीत है 


शब्द हार है, शब्द जीत है। 


 


शब्दों में संसार बसा है 


शब्दों में ही प्यार बसा है। 


 


    डाॅ. सीमा श्रीवास्तव 


       रायपुर छ. ग.


डॉ. रामबली मिश्र

मन को भाती अच्छी-सच्ची।


नहीं लुभाती गोली कच्ची।।


 


मन को जो प्रसन्न कर देता।


वही मनोरम दुःख हर लेता।।


 


जो करता है सदा मन-रमण।


गहो उसी की सतत नित शरण।।


 


प्रेम मनोरम अतिशय जानो।


रमण करो इसको पहचानो।।


 


जो मन हर ले वही मनोरम।


वही मनोहर अतिशय अनुपम।।


 


सबके मन को हरते रहना।


अति प्रिय पात्र सभी का बनना।।


 


रमना सीखो रहना सीखो।


परम मनोरम बनना सीखो।।


 


 बहुत मनोरम सुंदरता है।


उससे बढ़कर मानवता है।।


 


मानवता में नैतिकता है।


नैतिकता में सात्विकता है।।


 


सात्विकता में पावन ज्ञाना।


सहज मनोरम वेद पुराना।।


 


वेद-पुराणों को जो पढ़ता।


हृदयांगम कर मनहर लगता।।


 


खिलता जग में बना दिवाकर।


देता अमृत बना सुधाकर।।


 


लिखत मनोरम प्रिय रामायण।


दिखत मनोरम कर पारायण।।


 


डॉ. रामबली मिश्र हरिहरपुरी


सुषमा दीक्षित शुक्ला

जीवन किस ओर चला 


 


पल की सुधि में युग बीत गए,


 जाने जीवन किस ओर चला ।


 


 जिस पल से मन के मीत गए,


 जाने दर्पण किस ओर चला।


 


 प्रिय लाली चूनर तार-तार ,


जाने कंगन किस ओर चला ।


 


प्रियतम का अप्रतिम दुलार ,


मन बन जोगन किस ओर चला।


 


पल की सुधि में युग बीत गए ,


जाने जीवन किस ओर चला।


 


 जिस पल से मन के मीत गए,


 जाने दर्पण किस ओर चला ।


 


वह माँग सिंदूरी श्वेत हुई ,


जाने यौवन किस ओर चला।


 


 वह मीठी बातें प्रियतम की,


 वो मधुर मिलन किस ओर चला।


 


पल की सुधि मे युग बीत गये ,


जाने जीवन किस ओर चला ।


 


 जिस पल से मन के मीत गए ,


जाने दर्पण किस ओर चला ।


 


सुषमा दीक्षित शुक्ला


संजय जैन

कल्याण का पथ


छोड़कर सब कुछ अपना


शरण तुम्हारी आया हूँ।


अब अपनाओं या ठुकराओं


तुम्हें ही निर्णय करना है।


मेरी तो एक ही ख़्यास


गुरुवर तुम से है।


की अपने चरणों में


मुझे जगह तुम दे दो।।


 


किया बहुत काला गोरा


मैंने अपने जीवन में।


कमाया बहुत पैसा 


मैंने अपनी करनी से।


पर मुझको मिली नहीं


कभी भी मन में शांति।


जो तेरा दर्शन करके 


मिला मुझको जो शुकुन।।


 


ये दौलत और सौहरत


सभी कुछ बेकार है।


कमालो जितना भी तुम


अपने जीवन में यहाँ।


यही छोड़ जाओगें सारी


अपनी दौलत सौहरत को।


तेरे संग जाएंगे केवल 


तेरे किये गये कर्म।।


 


तेरे कर्मो के कारण ही


तुझे मिलेगा नया जन्म।


और अपनी करनी का


तुझे भोगना होगा फल।


यदि किया होगा तुमने


जीवन में कुछ दानधर्म।


तो अच्छी पर्याय पाओगें


फिर से लेकर मनुष्य जन्म।।


 


धर्म से बढक़र जीवन में


और कुछ होता ही नहीं।


धर्म पर चलने से तुमको


मिलेगा मुक्ति का पथ।


इसलिए समझ लो तुम


पैसा ही सब कुछ नहीं।


जीवन जीने का आनंद


धर्म ध्यान करने से मिलता।।


 


जय जिनेन्द्र देव


संजय जैन मुंबई


कुमकुम पंकज

शक्ति इतनी माँगती हूँ


 


राग शोषण के जला दूँ,


द्वैष अन्तर के मिटा दूँ,


दर्द मानव का निगल कर,


धार अमृत की पिला दूँ।


          शक्ति इतनी माँगती हूँ।


 


पंथ भूलों को दिखा दूँ,


शूल राहों के मिटा दूँ ,


नेह की गंगा बहाकर,


फूल शान्ति के खिला दूँ।


           शक्ति इतनी माँगती हूँ । 


 


रक्त में कर्तव्य घोलूँ,


विश्व शांति की बात बोलूँ,


निज हृदय कंचन कलश से,


शान्ति का अमृत उड़ेलूँ ।


           शक्ति इतनी माँगती हूँ।


 


             कुमकुम पंकज


               जिला गोण्डा


                     उ.प्र.


डॉ0 हरि नाथ मिश्र

चमन की कली जब मुक़म्मल खिली,


मस्त खुशबू से गुलशन गमकने लगा।


भनभनाते भ्रमर पा महक प्रीति की-


प्रेम का भाव दिल में दिये हैं जगा।।


 


मछलियाँ चंचला भी मचलने लगीं,


खुल परिंदों के पर फड़फड़ाने लगे।


एक सिहरन सी देती हवाएँ नरम-


उलझनों को तुरत मन से दीं हैं भगा।।


 


झूमता व्योम भी चाँद-तारों सहित,


है उतरता दिखे महि से मिलने गले।


मिटा दूरियाँ दरमियाँ अपनी सारी-


भूल शिक़वे-गिले बन के उसका सगा।।   


 


 नव पल्लवों से सँवर वन-विटप भी,


जानो देता सतत यह सन्देशा नया।


प्यारे,काटो नहीं,बस बसाओ हमें-


हैं हमीं तेरी दौलत,न देंगे दगा ।।


 


वादियों में भी हलचल बहारें करें,


बर्फ भी पा इन्हें लेती अँगड़ाइयाँ।


हो मुदित जल-प्रपातों से बहने लगें-


देख विरही हृदय ख़ुद को समझे ठगा।।


 


वनों-उपवनों-खेतों-खलिहानों में,


प्रकृति कामिनी-यौवना-नायिका।


हाथ में ले के अपने यह कहती फिरे-


ले लो पत्रक मेरा,प्रेम-रस से पगा।।


              डॉ0 हरि नाथ मिश्र


               9919446372


डॉ. रामबली मिश्र

परहित हेतु संत दुःख सहते।


अति प्रसन्न फिर भी वे रहते।।


 


नहीं किसी से याचन करते।


शुभ वाक्यों का वाचन करते।।


 


नहीं किसी को कुछ देते हैं।


केवल पीड़ा हर लेते हैं।।


 


शीतलता का परिचय देते।


निष्कामना का विषय बनते।।


 


चन्दन की खुशबू बन जाते।


सबके मन को सदा लुभाते।।


 


काम-क्रोध का नाम नहीं है।


सिद्ध संत का ग्राम वहीं है।।


 


थोड़ा भोजन शयन बहुत कम।


आत्मतुष्ट संत शंकर सम।।


 


आत्मतोष का पंथ दिखाते।


आत्मज्ञान का ग्रन्थ पढ़ाते।।


 


इच्छाओं पर अंकुश रखते।


अमृत वाणी बोला करते।।


 


ब्रह्म क्षेत्र में विचरण करते।


नियमित शुद्ध आचरण करते।।


 


देते हैं उपदेश मनोरम।


अनुकरणीय सन्त अति अनुपम।।


 


डॉ. रामबली मिश्र हरिहरपुरी


सुनीता असीम

जो भूखे हैं ऐसे हजारों को देखो।


कभी ऐसे किस्मत के मारों को देखो।


 


बिगड़ते रहे हैं जो बन बनके अपने।


उबर डूबते उन विचारों को देखो।


 


सियासत में रेंगें सभी नाग बनके।


जहां वो रहें उन पिटारों को देखो।


 


भंवर को न देखो कज़ा से न डरना।


बचाएं तुम्हें उन किनारों को देखो।


 


जो अपने ही हाथों से घर तोड़ते हैं।


ज़रा नासमझ उन गंवारों को देखो।


 


सुनीता असीम


संदीप कुमार विश्नोई रुद्र

ठोड़ी पर तिल काला , नागिन से है नयन ,


लहराते शिरोधरा , काले काले बाल है।


 


काजल सजा है कोर , अधर रसीले लाल ,


आपका स्वरूप देख , हृद ये बेहाल है। 


 


पतले मंजुल ओष्ठ , कमल की पत्तियों से , 


टपका अनार से ज्यों , रस लाल लाल है।


 


मेनका व रंभा तेरे , रूप की है जूठन सी , 


रूप राशि देख तेरी , मन ये निढाल है।


 


संदीप कुमार विश्नोई रुद्र


गाँव दुतारांवाली तह0 अबोहर जिला फाजिल्का पंजाब


डॉ. रामबली मिश्र

मद में चकनाचूर न होना।


अंधा बन प्रकाश मत खोना।।


 


बहुत भयानक मद को जानो।


मद को रोक इसे पहचानो।।


 


मद को समझो अपना दुश्मन।


मद से विचलित कभी न हो मन।।


 


मद को मित्रों खूब कुचलना।


इससे मत समझौता करना।।


 


प्रभुता पा कर नहीं मचलना।


प्रभुता को कुछ नहीं समझना।।


 


जो प्रभुता को शून्य समझता।


जग में महा पुरुष वह बनता।।


 


है मदान्धता अतिशय दुःखदा।


मद विहीन मानव शिव शुभदा।।


 


मद करता मानव को दुर्बल।


मद से रहित मनुज अति निर्मल।।


 


प्रभु बनकर मद कभी न करना।


प्रभुताई से नहीं लिपटना।।


 


सहज रहो प्रभुता को पा कर।


सबको खुश रख शीश झुकाकर।।


 


ऐंठन से कुछ नहीं मिलेगा।


अपना सीना सिर्फ जलेगा।।


 


मद का कभी प्रदर्शन मत कर।


अंधा बनकर नहीं चला कर।।


 


बनो करुण रस प्रभुता पा कर।


मिलो पास में सबके जा कर।।


 


डॉ. रामबली मिश्र हरिहरपुरी


9838453801


काव्यकुल संस्थान का अंतरराष्ट्रीय काव्योत्सव

काव्यकुल संस्थान(पंजी) की अमेरिका इकाई के तत्वावधान में अंतरराष्ट्रीय डिजिटल काव्य आयोजन संस्था के राष्ट्रीय अध्यक्ष डॉ राजीव पाण्डेय की अध्यक्षता और अमेरिका इकाई की संयोजिका प्राची चतुर्वेदी के संयोजन/संचालन 20 सितम्बर को किया गया। 


डॉ राजीव पाण्डेय ने संस्था का विस्तृत परिचय देते हुए सभी रचनाकारों का स्वागत किया। 


झांसी भारत की सुमधुर कण्ठ की धनी सुश्री कुंती जी की वाणी वन्दना से प्रारम्भ काव्य समागम अपनी ऊंचाइयों पर पहुंचा।


कनाडा से कवयित्री प्राची चतुर्वेदी रंधावा ने माँ की दोपहर कविता पढ़कर भाव विभोर कर दिया-


 


... खटती है पर थकती नहीं है, थकती है पर रूकती नहीं है,


माँ मेरी हर दिन पिरो कर कल मेरा बुनती रही है।


सुन दोपहर तू दो पहर जो और रुक जाती,


क्योकि माँ मेरी की हर सुबह बस खर्च हो जाती।


 


मास्को से बहुविधा विशेषज्ञ कोमल भावों की कवयित्री श्वेता सिंह"उमा" आज की विसंगतियों पर रचनापाठ किया तो तालियां स्वतः बज उठी


दरख़्तों से बिछड़ते पत्तों की सरसराहट तो देखो।


इंसान के ईमान में हो रही गिरावट तो देखो।


नवाज़िशें-करम पाने के लिए वो रिश्वत देता है ।


उसकी इबादत में ये ख़ुदगर्ज़ी की मिलावट तो देखो।


भारत से सर्वमङ्गला सोम की कविता 'किसी से' ने अनुपम संवेदना को व्यक्त किया


 


यूँ तो हम नज़रें चुराते नही किसे से


पर क्या करें कि अपनी अभी तक बनती नही किसे से,


शायद किसी को अपने आप पर भरोसा नही रहा,तभी अपना राज-ए-दिल बताते नहीं किसे से।


तरीकीयाँ हैं हर तरफ राह-ए-मुहब्बत में,लेकिन वफ़ा कि शम्मा जलती नहीं किसी से।


आशावादी कविता पढ़ते हुए भारत के कवि सुधीर आनन्द ने आशा का संचार कर दिया


अंधियारी रातों को रौशन करने के लिए


एक जलते दीपक का हौसला बड़ा होता है


दीपो की दीवाली से अमावस भी हारा होता है 


बड़े शुरुआत की बड़ी जरूरत नहीं है सदा


एकल प्रयास से भी जीवन हरा होता है


लखनऊ भारत से वरिष्ठ कवयित्री साधना मिश्रा ने जब हिन्दी की प्रतिष्ठा की पंक्तियां पढ़कर वाहवाही बटोरी-


मां भारती के वैभव का गुण गान बने हिंदी 


प्रत्येक भारतवासी का दिन मान  बने हिंदी


सीखें  कितनी हीभाषाएं,ना भूलें निज मातृभाषा 


जाएं यदि विदेश भी ,तो  सम्मान बने हिंदी ।


संयुक्त अरब अमीरात से हिंदी की प्राध्यापिका कहानीकार,कवयित्री ललिता मिश्रा ने नारी के गौरव की शानदार रचना पढ़ी तो वाह वाह अनायास ही स्वरों से निकलने लगा-


 


ऐ नारी !!!


 जीवन के संधि पत्र पर ये तेरे हस्ताक्षर हैं 


युगों युगों से संचित ये ,


प्रेम के संचालक है 


बचपन में माँ बन तुने 


आँचल की छाँव झुलाया था 


सपनों के पंख लगा 


तुने ही उड़ना सिखलाया था।


 


अबुधावी से अजीत झा ने समय की विसंगतियों पर करारा प्रहार करते हुए कविता का वाचन किया।


अपनों का अपनों से किनारा हो गया।


रिश्तों का पानी अब तो खारा हो गया।


 


 


झांसी की कवयित्री कुंती जी सुमधुर कण्ठ से कविता पढ़ते हुए सबका दिल जीत लिया-


हर स्त्री को बचाकर 


रखना चाहिए अपने 


पास कुछ ऐसा खास


जोआ सके उसके काम


आड़े वक्त के साथ


ठीक धरती की तरह 


लौटाने की क्षमता के साथ


गन्दगी को भी ऊर्जा में बदलने की शक्ति के साथ


ताकि,जब भी कोई मिले


तो उसे लगे , कि उसने एक


उजाले की किरण को छुआ हे।


कार्यक्रम की संयोजिका प्राची चतुर्वेदी ने 'जलती मशाल' जैसी सार्थक रचना पढ़कर सोचने पर विवश कर दिया।


चले चलो न डरना तुम,


आने वाली आँधी से


गर लड़खड़ाओ कभी जो


डटकर पैर जमाना तुम।


मत ढूँढ कोई बैसाखी,


दूजों के लंबे हाथों में 


खुद जलो और रौशन हो,


एक जलती मशाल बन जाना तुम।


कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त कवि डॉ राजीव पाण्डेय ने एक मुक्तक के माध्यम से राम की महिमा का गुणगान किया


राम को वन का गमन होना जरूरी था।


मंथरा का नाटकीय रोना जरूरी था।


राक्षसों से राष्ट्र को मुक्त करने के लिए,


कैकेयी का कोप में सोना जरूरी था।


 


अमेरिका से मनीष कुमार गुप्ता ने पड़ाव कविता पढ़ी और वाहवाही बटोरी।


जब मन देता चंचलता को त्याग


खत्म हो जाती भागमभाग


शांति की शीतलता में 


पनपती नहीं अधीरता की आग


पार हो जाते उफनते बहाव से


गुजरता है हर कोई इस पड़ाव से।


 


नोयडा भारत से युवा कवयित्री नेहा शर्मा ने आत्मविश्वास के साथ डर कविता पढ़ी -


मुझे अपने निडर होने का डर है,


मेरे बारे में ये , ना किसी को खब़र है। 


मेरी खामोशी को कभी कमजोरी तो कभी समझदारी का पहना देते है चोगा,


ना जानते है इस चुप्पी को तोड़ने पर मंजर कैसा होगा।


 


अंत में कार्यक्रम की संयोजिका प्राची चतुर्वेदी ने सभी का आभार प्रकट किया।


 


प्रस्तुति 


डॉ राजीव पाण्डेय


कवि,कथाकार, हाइकुकार


राष्ट्रीय अध्यक्ष


काव्यकुल संस्थान(पंजी)


दुर्गा प्रसाद नाग

दुनिया के रीति रिवाजों से,


एक रोज बगावत कर बैठे।


 


महबूब की गलियों से गुजरे,


तो हम भी मोहब्बत कर बैठे।।


_____________________


 


मन्दिर-मस्जिद से जब गुजरे,


पूजा व इबादत कर बैठे।


 


जब अाई वतन की बारी तो,


उस रोज सहादत कर बैठे।।


_____________________


 


दुनिया दारी के चक्कर में,


जाने की हिम्मत कर बैठे।


 


गैरों के लिए हम भी इक दिन,


अपनों से शिकायत कर बैठे।।


_____________________


 


जो लोग बिछाते थे कांटे,


हम उनसे इनायत कर बैठे।


 


पीछे से वार किये जिसने,


हम उनसे सराफत कर बैठे।।


_____________________


 


हमने अहसानों को माना,


वो लोग अदावत कर बैठे।


 


हर बात सही समझी हमने,


वो लोग शरारत कर बैठे।।


_____________________


 


उनके जीवन की हर उलझन,


हम सही सलामत कर बैठे।


 


पर मेरी हंसती दुनिया में,


कुछ लोग कयामत कर बैठे।।


_____________________


दुर्गा प्रसाद नाग


नकहा- खीरी


मोo- 9839967711


दुर्गा प्रसाद नाग

चीन को चेतावनी


___________________


जीवन की अंधेरी राहों में,


हम दीप जलाया करते हैं।


जब आंच वतन पर आती है


हम लहू बहाया करते हैं।।


_____________________


तुम भोग भूमि पर रहते हो,


हम कर्म भूमि के वासी हैं।


तुम सुरा- सुन्दरी के कीड़े,


हम भारत के सन्यासी हैं।।


 


तुम फूलों पर मंडराते हो,


हम कांटों में गुजारा करते हैं।


जब आंच वतन पर आती है,


हम लहू बहाया करते हैं।।


_____________________


तुम जख्म पे जख्म देते हो,


हम हंस के उसे सह लेते हैं।


तुम हमे कसाई कहते हो,


हम भाई तुम्हे कह लेते हैं।।


 


तुम कांटे चुभोया करते हो,


हम फूल बिछाया करते हैं।


जब आंच वतन पर आती है,


हम लहू बहाया करते हैं।।


_____________________


शैतान तुम्हे यदि कहते हैं,


शैतानी हमें भी आती है।


पर शांति प्रतीक हमारा है,


व शांति ही हमको भाती है।।


 


तुम शूल बिछाया करते हो,


हम डगर बुहारा करते हैं।


जब आंच वतन पर आती है,


हम लहू बहाया करते हैं।।


_____________________


तुम वार पीठ पर करते हो,


हम सीना फाड़ दिखा देंगे।


यदि भारत में चिंगारी भड़की,


दुनिया को आग लगा देंगे।।


 


तुम अंधेरा फैलाते हो,


हम ज्योति जलाया करते हैं।


जब आंच वतन पर आती है,


हम लहू बहाया करते हैं।।


_____________________


कहीं होटल ताज फूंकते हो,


कहीं दंगे भड़काते हो।


जब आती मेरी बारी तो,


झट से बिल में छुप जाते हो।।


 


क्या कर सकते हो तुम चूहों,


यह पता लगाया करते हैं।


जब आंच वतन पर आती है,


हम लहू बहाया करते हैं।।


_____________________


तुम छुपकर खेल खेलते हो,


हम खुलकर खेला करते हैं।


तुम मिलकर धोखा करते हो,


हर दुख हम झेला करते हैं।।


 


जिस दिन हत्थे चढ़ गए कहीं,


हम जड़ से सफाया करते हैं।


जब आंच वतन पर आती है,


हम लहू बहाया करते हैं।।


_____________________


तुम दहशत यहां फैलाते हो,


हम चैन-ओ-अमन फैलाते हैं।


तुम चोटें देकर जाते हो,


हम भावुक हो सहलाते हैं।।


 


तुम कौमी कोम से जलते हो,


हम नीर बहाया करते हैं।


जब आंच वतन पर आती है,


हम लहू बहाया करते हैं।।


_____________________


तुम शांति भंग करते रहते,


हम शांति पाठ सिखलाते हैं।


तुम देख देख जलते रहते,


हम ठाठ बाट बल खाते हैं।।


 


तुम मिर्ची जैसे कड़वे हो,


हम रंग चढ़ाया करते हैं।


जब आंच वतन पर आती है,


हम लहू बहाया करते हैं।।


_____________________


तुम आगे पैर बढ़ाओगे,


हम पैर काटकर रख देंगे।


यद्यपि अहिंसावादी हैं,


यह व्रत ताख पर रख देंगे।।


 


जिस दिन हत्थे चढ़ गए कहीं,


हम जड़ से सफाया करते हैं।


जब आंच वतन पर आती है,


हम लहू बहाया करते हैं।।


_____________________


दुर्गा प्रसाद नाग


नकहा खीरी


मोo- 9839967711


डॉ. रामबली मिश्र

प्रेम प्रदर्शन का सभी,करें सहज सत्कार।


प्रेम रत्न धन -संपदा ,पर सबका अधिकार।।


 


सात्विक प्रेम बना रहे,सभी रहें खुशहाल।


कपहीनता है जहाँ, वहीं प्रेम का द्वार।।


 


जहाँ नकारे जा रहे, हों सब गंदे मूल्य।


वहीं प्रेम उद्भूत हो, दिखता सत साकार।।


 


छिपा हुआ है प्रेम में,अति आकर्षण शक्ति।


करते रहना प्रेम का, सुंदर साक्षात्कार।।


 


मीठी बोली निष्कपट, बोल करो मनुहार।


मीठे-मीठे वचन में ,छिपा महकता प्यार।।


 


ऐसी वाणी बोलिये, दे सबको आनंद।


अति आनंदक शव्द से, बहत प्रेम की धार।।


 


दिल की सारी प्रिति को ,देना खूब उड़ेल।


सराबोर हो सकल जग, पी हो तृप्त अपार।।


 


मत चूको बाँटो सदा, यह वितरण की चीज।


प्रेम गेह के द्वार पर, लगे सदा दरबार।।


 


मानुष हो करते रहो, सतत प्रेम का पाठ।


कदम-कदम पर प्रेम का, करते रहो प्रचार।।


 


प्रेम मंत्र का जाप कर, बन पण्डित विद्वान।


प्रेम ग्रंथ पढ़ता रहे ,यह सारा संसार।।


 


डॉ. रामबली मिश्र हरिहरपुरी


9838453801


डॉ0 हरि नाथ मिश्र

चंदन


चंदन शीतल चंद्र सम,रुचिकर लिए सुगंध।


विषधर का यह प्रिय विटप,पर न गरल-संबंध।।


 


चंदन-शीतल लेप से,घटे मानसिक ताप।


संत लगा चंदन-तिलक,करें ईश का जाप।।


 


चंदन शोभा भाल की,करता दिव्य स्वरूप।


मुख-मंडल आभा बढ़े,औषधि एक अनूप।।


 


दे सुगंध दुर्गंध को,चंदन देव समान।


बनकर व्याल-निवास यह,दे शीतल अनुदान।।


 


जाती चंदन-लेप से,विरही हिय की पीर।


यह अमोघ औषधि बने,जब हो हृदय अधीर।।


 


भक्त-संत-प्रेमी सदा,इसका करें प्रयोग।


शुद्ध रखे परिवेश बस,चंदन का उपभोग।।


 


रक्षा चंदन विटप की,सब जन का है धर्म।


इससे बढ़कर इस समय,और नहीं है कर्म।।


          © डॉ0 हरि नाथ मिश्र


               9919446372


दयानन्द त्रिपाठी व्याकुल

नीम सी लगती जीवन धारा


उठा पटक सी चलती रहती है


धूप छांव है जीवन में पर 


मीठी सी जीवन लगती है।


 


समीर अमन का चलता है


कौशल की सरिता बहती है, 


प्रभु तेरी कृपा अकिंचन पर  


मेरे उर में कविता बसती है।


 


श्रद्धा अरू विश्वास का देखो


रोज गला दबायी जाती है


मधुमास हृदय कोमल मन को


जलप्लावन में उलझायी जाती है।


 


जीवन मृत्यु का अर्थ यहां 


कब किसे समझ में आती है


मानव बनने के चाहत में


बस सच्चाई छुपाई जाती है।


 


काम क्रोध मद लोभ से 


जीवन नरक बनायी जाती है


अहम भाव को त्याग सदा


मानव प्रेम बसायी जाती है।



 दयानन्द त्रिपाठी व्याकुल


 महराजगंज उत्तर प्रदेश।


दुर्गा प्रसाद नाग

काव्य रंगोली की दीपमाला सजी,


प्रेम के रंग से तुम सजाओ प्रिया।


 


एक दीपक जलाऊं तेरे पथ में मै,


मेरे उर में दिया तुम जलाओ प्रिया।।


_____________________


जाने क्या हो गया है मुझे आज कल,


याद में खुद तुम्हारी भटकने लगा।


 


लोग कहते थे गिरकर संभल जाऊंगा,


पर मुझे लग रहा, मै बिगड़ने लगा।।


 


मैने सोचा था गागर में सागर भरूं,


खुद ही सागर में गोते लगाने लगा।


 


मेरे वैरागी मन में कहां से प्रिया,


आज अनुराग फिर से उमड़ने लगा।।


 


बनके इक रोशनी इस दीवाली में तुम,


मेरे आंगन में इक बार आओ प्रिया।


 


काव्य रंगोली की दीपमाला सजी,


प्रेम के रंग में तुम सजाओ प्रिया।।


_____________________


खुद गुनहगार हूं मैं तुम्हारा प्रिया,


जो तेरे भाव को कुछ समझ न सका।


 


तुमने मेरे लिए क्या नहीं कुछ किया,


तेरी खातिर किसी से उलझ न सका।।


 


मै मृदा का दिया, तुम हो बाती प्रिया,


तेरे संग में रहा और जल न सका।


 


तुम जली रात भर नाम मेरा हुआ,


खुद ही अपने तिमिर से निकल न सका।।


 


अपने दिल को सजाया तेरी याद में,


आओ आओ तुम इक बार आओ प्रिया।


 


काव्य रंगोली की दीपमाला सजी,


प्रेम के रंग से तुम सजाओ प्रिया।।


_____________________


 


(काव्य-रंगोली पत्रिका में प्रकाशित)


................ दुर्गा प्रसाद नाग


                     नकहा- खीरी


        मोo- 9839967711


दुर्गा प्रसाद नाग

हिंदी हिय का मूल है,


हिंदी सुख की खान।


हिंदी का सम्मान कर,


होते मनुज महान।।


 


इसलिए अगर सुख पाना है, तो हिंदी का सम्मान करो।


 


जो नाम अमर कर जाना है,


तो हिंदी का सम्मान करो।।


 


कृति में वह व्यक्ति उठा ऊंचा,


जिसने हिंदी का मान किया।


 


हो गए अमर वे प्रेमचंद,


जिसने इसका सम्मान किया।


 


पूर्व काल के वे बालक जो,


हिंदी की विधा संजोते थे।


 


हरिश्चन्द्र, कविवर दिनकर,


मैथिली से ज्ञानी होते थे।।


 


थे पंडित सूर्यकांत भी तो,


हिंदी ने "निराला" बना दिया।


 


और बच्चन जी की हिंदी ने,


सच में मधुशाला बना दिया।।


 


भारत की नव किशोर पीढ़ी,


निज गौरव भूला जाता है।


 


अपनी भाषा से विमुख हुआ,


पाश्चात्य विषय अपनाता है।


 


इसलिए देश यह सदियों से,


हो रहा रात दिन गारत है।


 


अब तो बस नाम ही भारत है,


भारत अब नहीं वो भारत है।।


 


दुर्गा प्रसाद नाग


नकहा - खीरी


मोo- 9839967711


एस के कपूर श्री हंस

मिलकर चलो तो ही हर जीत


समझो पक्की है।।


 


गैरों का क्या आज अपनों


का भी जिक्र नहीं करते।


यूँ बदला है माहौल किअब


किसी की फिक्र नहीं करते।।


आज स्वार्थ सिद्धि हो गई


बात सबसे ज्यादा जरूरी।


आज किसी और का क्या


खुद पर भी फ़ख्र नहीं करते।।


 


बहुत जरूरी है जोड़ना और


सबसे ही जुड़ कर रहना।


सुख दुःख में साथ देना और


सवेंदनायों में बंध कर बहना।।


एकाकीपन और एकांत का


अंतर तो समझना है जरूरी।


एक और एक होते ग्यारह हैं


जरूरी बात मिल कर कहना।।


 


भूल गए हैं लोग कि जरूरी है


मिल कर चलना आगे बढ़ना।


नये नये कीर्तिमान स्थापित   


हमें हैं मिल कर ही करना।।


सहयोग सामंजस्य का ही तो


दूसरा नाम अपना जीवन है।


यदि चाहते हो जीत पक्की तो


हर मुश्किल पर मिलकर चढ़ना।।


 


एस के कपूर श्री हंस


बरेली।


सुनील कुमार गुप्ता

 दूर हो मन का अंधेरा


 


जला दीप ज्ञान के पग-पग,


दूर हो मन का अंधेरा।


संग आशाओं के साथी ,


होगा जीवन में सवेरा।।


भूले कटुता मन की यहाँ,


ऐसा मिले साथी तेरा।


सच हो सपने मन के यहाँ,


जग में हो खुशियों का डेरा।।


महक उठे धरती अम्बर,


गम का न हो कही बसेरा।


जला दीप ज्ञान के पग-पग,


दूर हो मन का अंधेरा।।


 


 सुनील कुमार गुप्ता


राजेंद्र रायपुरी

 नेता हो तो ऐसा 


 


हास्य रस पर एक रचना--


 


नेताजी ने जब किया,भरी सभा ऐलान।


 


देगा मुझको वोट जो, देंगे उसे मकान।


 


देंगे उसे मकान, कहा सच मानो भाई।


 


दे आए हम वोट, उन्हें ही संग लुगाई।


 


हुई उन्हीं की जीत,कहें अब पैसे लाओ।


 


दूॅ॑गा मुफ़्त मकान,कहा ये कहाॅ॑ बताओ।


 


              ।। राजेंद्र रायपुरी।।


कालिका प्रसाद सेमवाल

वीणा पाणि मां सरस्वती


**************


वीणा पाणी मां सरस्वती


सुन लो मेरी करुण पुकार।


 


झोली मेरी ज्ञान से भर दो


दूर करो मां जीवन से अंधकार।


 


जन-जन की वाणी निर्मल कर दो


हर मुख में अमृत धार बहे।


 


हर एक प्राणी दूसरे से प्यार करें


ऐसा हो मां ये सारा संसार ।


 


विद्या वाणी की देवी मां तुम हो


मुझ पर भी कुछ उपकार करो।


 


अंहकार ना आए कभी जीवन में


करो मां मैं सबका सम्मान ।


********************


कालिका प्रसाद सेमवाल


मानस सदन अपर बाजार


रुद्रप्रयाग उत्तराखंड


डॉ0 हरि नाथ मिश्र

तृतीय चरण (श्रीरामचरितबखान)-14


 


नर इ होहि कि होय अवतारा।


अस दसमुख मन करै बिचारा।।


    खर-दूषन-त्रिसिरा बलवाना।


    मारि सकत इन्ह बस भगवाना।।


चित-रंजक,भंजक दुख भारी।


लइ प्रसाद प्रभु जगत सुखारी।।


     चाहेहुँ मैं भव-सागर तरना।


      बिनु प्रभु-कृपा न हो अस करना।।


मैं बड़ अघी-अबुध-अग्यानी।


तामस तन-मन कस प्रभु जानी।।


    ठानि क रारि राम सँग कबहूँ।


    छल करि तासु नारि मैं हरहूँ।।


यहि बिधि मोर होय कल्याना।


राम-हस्त मरि सुर-सुख पाना।।


    मनहिं बिचार अकेल दसानन।


    गया मरिच पहँ आनन-फानन।।


करय मरीच सिंधु-तट बासा।


भगवत-कृपा राखि उर आसा।।


     सीष नाइ रावन तब कहऊ।


     भगिनी-कथा-ब्यथा जे रहऊ।।


तबहिं नीच अवनत सिर करहीं।


स्वारथ-सिद्धि जबहिं ते चहहीं।।


     धनु-हँसुवा अरु ब्याल-बिलारी।


      नवत होंहि नहिं जग-हितकारी।।


मधु तिष्ठति खल-जिह्वा अग्रे।


गरल-कलश-मुख दुग्ध समग्रे।।


छंद-रावन कहेसि मरीच तुम्ह,जावहु कपट-मृग बनि उहाँ।


       सीता सहित दसरथ-तनय,करते निवासइ बन जहाँ।।


        आनहु त्रिया तुम्ह राम कै, करि के कपट-छल जस बनै।


      करि के हरन मैं राम-नारी, लेहुँ बदला सभ इहाँ।।


                  डॉ0 हरि नाथ मिश्र


                   9919446372


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