शिवेन्द्र मिश्र शिव

उन्नीस सौ सन आठ में, जन्म 'सिमरिया' ग्राम।


'दिनकर' के माता-पिता, 'रूप' 'रवि सिंह' नाम।।


 


'कुरुक्षेत्र', व 'रश्मिरथी', 'रसवन्ती', हुंकार।


'धूप-छाँह' अरु उर्वशी, 'दिल्ली' हाहाकार।।


 


'नील-कुसुम','संचीयता', 'चक्रवाल','प्रणभंग'।


'दिनकर जी के गीत' में, 'नये सुभाषित' रंग।।


 


'शिव' "आँसू इतिहास के", अरु "आत्मा की आँख"।


हो "दिनकर की सूक्तियाँ" काव्य सृजन की शाख।।


 


संस्कृति के अध्याय हो, या रेती के फूल।


दिनकर की रचना सभी, रहीं समय अनुकूल।।


 


'कवि-श्री', 'बापू', 'रेणुका', 'हारे को हरिनाम'।


'वट-पीपल', 'चेतन-शिला', 'प्रतीक्षा-परशुराम'।।


 


शिवेन्द्र मिश्र शिव


कालिका प्रसाद सेमवाल

जाग भी जाओ


****************


भोर हुई है जाग भी जाओ।


कर्म राह मिल कदम बढ़ाओ।


 


पंछी नव धुन गीत गा रहे।


उप वन स्वर तंरग छाय रहे।


तरुवर उतरी स्वर्ण रश्मियाँ,स्वागत मंगल साज सजाओ।


भोर हुई....।


 


मस्ती में बह रही मंद पवन ।


भौंरे भी करते हैं गुन गुन।


विधि ने रच दी सुन्दर काया,


दिनकर पूजन थाल सजाओ।


भोर हुई....


 


हरियाली उपवन में छाई।


खिले फूल कलियाँ मुस्काई।


मस्त प्रसूनन की खूशबू से,


दिशा सभी अब तुम महकाओ।


भोर हुई....।


 


 


किसलय झूल रहे डालों पर।


वसुधा हरषी सुधा बिंदु धर।


कठिन परिश्रम के बल पर तुम, 


धरती पर मिल स्वर्ग बनाओ।


भोर हुई....।


*********************


कालिका प्रसाद सेमवाल


मानस सदन अपर बाजार


रुद्रप्रयाग उत्तराखंड


संदीप कुमार विश्नोई रुद्र

रामधारी सिंह दिनकर जी की जयंती पर कुछ पंक्तियां


 


वीर रस के महान , कवियों में नाम आए , 


रामधारी दिनकर , लिखते तमाम है। 


 


रेणुका , हुँकार लिखी , रसवंती , द्वन्द्वगीत , 


कुरुक्षेत्र काव्य लिख , किया बड़ा काम है। 


 


सामधेनी , इतिहास , पढ़ो धूप और धुँआ , 


रश्मिरथी का कुसुम , दिल्ली का पैगाम है। 


 


उर्वशी , परशुराम , आत्मा की आँखे कहती , 


कोयले की कविता से , हारे हरिनाम है। 


 


नीम के पत्ते चुराए , वटपीपल पे खाए , 


सीपी और शंख बाद , संस्कृति अध्याय है। 


 


हाहाकार रचना भी , इनकी है मेरे भाई , 


राष्ट्रीय जागरण का , अनल कविराय है। 


 


उर्वशी पे ज्ञानपीठ , इनको मिला है देखो , 


साहित्य अकादमी भी , दिया गुण गाय है। 


 


संदीप कुमार विश्नोई रुद्र


गाँव दुतारांवाली तह0 अबोहर जिला फाजिल्का


पंजाब


सुनीता असीम

जो जैसा भी बोऐंगे।


फसलें वैसी काटेंगे।


***


बिगड़ेंगे सब बच्चे वो।


बाप जिन्हें बस डांटेगे।


***


दोस्त बड़े गहरे सुख दुख।


मिलकर दोनों उट्ठेंगे।


***


बिन सोचे मत कुछ कहना ।


सोच समझकर बोलेंगे।


***


इक दिन ऐसा आएगा।


लोग हमें भी समझेंगे।


***


अपने मन में जो आया।


खोल जुबां को कह देंगे।


***


बीते दिन भी रह रहके।


खूब सभी को सालेंगे।


***


सुनीता असीम


कोरोना की आत्मकथा अर्चना शुक्ला


जब मैं भारत आया तो मेरा यहाँ भारतीय संस्कारों के साथ बहुत स्वागत हुआ | जब भी मैं किसी के घर जाकर किसी सदस्य को अपने गिरफ्त में ले लेता तो बाकायदा मेरी अगवानी के लिए पूरी गाड़ी आती साथ में श्वेत वस्त्रों से सजे चार पांच लोग होते | मुझे अच्छे से अच्छे हस्पताल में ले जाया जाता| हस्पताल का पूरा स्टाफ मिलकर नाचता और मेरा मनोरंजन किया जाता| मेरे ऊपर कई गाने भी बनाये गये | मेरे ऊपर साक्षात्कार लिए गये | मेरे आगमन की ख़ुशी में देश भर में दीवाली के उत्सव जैसा माहोल हो गया था | थालियाँ बजाई गयीं ,दीपक जलाये गये | घर घर में पकवान बन रहे थे | नयी नयी गतिविधियाँ चल रहीं थी| मैं अपनेआप पर फूला नहीं समा रहा था | बहुत खुश था मैं भारत आकर |


जब लोग हस्पताल से वापस जाते तो उनका स्वागत फूलों और तालियों से होता मैं तो अपनी प्रसिद्धि पर इतरा रहा था | पूरा घर अब साथ मिलकर रहता था | आपस में सुख दुःख बंटने लगे थे |नदियाँ ,नाले ,हवा सब कुछ स्वक्ष हो गये थे | लोग अपने पुराने संस्कारो में वापस आ गये थे | कुछ लोग तो मेरी तारीफ़ भी कर रहे थे की मेरे आने से उनकी जिन्दगी में बदलाव आया है| कुछ लोगों ने तकनीकी कुशलता भी हांसिल कर ली थी| कुछ का कहना था की मेरी वजह से वो दो पल परिवार के साथ चैन से बैठ पा रहे हैं | घर घर सा लगता है ,बच्चे भी आकर अब साथ बैठते थे| 


पर धीरे धीरे सब कुछ बदलने लगा है | अब मुझे पहले जैसी इज्ज़त नहीं मिलती| जिस घर में जाओ लोग मुंह बनाए लगते हैं | बाहर वालों को तो छोड़ दो घर वाले ही परायों जैसा व्यवहार करने लगते हैं | मुझे अलग थलग दल दिया जाता है | हस्पताल वाले जो पहले मेरे आगमन की सूचना सुनते ही अगवानी के लिए दोड़े- दोड़े आते थे ,मेरा अतिथि जैसा सम्मान किया जाता था ,अब मैं खुद 


जाता हूँ तो भी लम्बी लम्बी लाइनों मैं लगना पड़ता है| इधर से उधर सिफारिश लगाकर फोन मिलाओ तो वो पहले तो फ़ोन उठाते ही नहीं है, अगर भूल से उठा भी लिया तो कहते हैं घर मैं ही पड़े रहो ,अगर सांसे ऊपर नीचे होने लगें तब फ़ोन करना 


अब आप ही बताइए पहले मैं दूल्हे के जीजा की तरह इतराया इतराया घूमता था और अब मेरी इज्ज़त धोबी के कुत्ते जैसी हो गयी है | 


नौबत तो यहाँ तक पहुँच गयी है की लोग मेरे सामने ही बोल देते हैं, पता नहीं ये बवाल कब जायेगा| मिष्ठान तो छोड़िये साहब ये लोग तो मुझे काढ़ा पिला पिलाकर मारना चाहते हैं| दिनरात कोसते रहते हैं |कई लोग तो मेरे साथ -साथ मैं जिस देश से आया हूँ उसको भी भला बुरा कहते हैं| ये बेईज्जती मैं कब तक बर्दाश्त करूँ | मेरी तो कोई बात नहीं अपने देश का अपमान कैसे सहन करूँ |अब थक चूका हूँ,इनलोगों के तिरस्कार से |सोच रहा हूँ अब वापस ही चला जाऊँ,जहाँ से आया था कम से कम वो मेरा अपना देश तो होगा | 


अर्चना शुक्ला


नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर

चाँद अब भी मुस्कुराता 


अपने अंदाज़ में चलता


जाता।।


 


चाँदनी संग निकालता ढलता


जाता।


चाँद को देखता हूँ याद आता


गुजरा हुआ ज़माना।।


 


जवाँ मोहब्बत की अगन 


चाँद ,चाँदनी की मोहब्बत का


दीदार बुझाता।।


 


एक दूजे की नज़रो से दिल में


उतरते ख्याब ,हकीकत


का चाँद नज़र आता।।


 


सर्द मौसम की गलन 


चाँद चाँदनी एक जिस्म


दो जान का आना सर्द की


बर्फ पिघलना इश्क गर्मी का


याराना।।


 


सावन का सुहाना मौसम ठंडी


हवा के झोंके बिखरी जुल्फे


चाँद से चेहरे का शर्माना।।


 


रिम झिम सावन की फुहारों में


भीगा बदन साँसों की गर्मी


चाँद का जमीं पर उतर जाना।।


 


सावन की घटाओं में 


चाँद का छुप जाना घाना


अँधेरा मोहब्बत के चाँद


का जहाँ में उजाला।।


 


वासंती बयारों की मादकता 


हाला प्याला पायल की


छम छम चाँद चाँदनी


का आना।।


 


मोहब्बत की गर्मी से जलता बदन साँसों धड़कन में अजीब सी हलचल।


जिस्म से टपकता पसीना मोती


जैसा चाँद की चांदनी में चाँद का


मुस्कुराराना।।


 


 जमीं पे आज भी हूँ 


अम्बर पर चाँद का नाज़ भी है।


जवां इश्क हुस्न का चाँद 


जाने कहाँ चला गया आता


नहीं दोबारा।।


 


तब चाँद जवां जज्बा जज्बात


चाँद अब यादों के तरानों में तड़पाता।।


 


आज भी इंताज़र जाने कब आएगी नादाँ ,कमसिन,


नाज़ुक ,भोली चाँद ।


आशिकी जिंदगी का जूनून 


आशिक की चाँद नाज़रांना।।


 


जिंदगी में मोहब्बत मकसद का


चाँद जिंदगी में मोहब्बत कशिश काश गुजरा अफसाना दिल दर्द चाँद का सफ़र सुहाना।।


 


नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर


काव्य रंगोली आज के सम्मानित रचनाकार श्रीकांत त्रिवेदी ,लखनऊ'  

श्रीकांत त्रिवेदी,


प्रबंधक(से.नि.)


भारतीय स्टेट बैंक,


स्थानीय प्रधान कार्यालय,


लखनऊ,


 


603, पार्क अल्टीमा


सीतापुर रोड,


लखनऊ,


जन्मस्थान महोली,सीतापुर,


कर्मभूमि, अयोध्या


 कविता ,गीत, ग़ज़ल, व्यंग्य,आदि विधाओं में स्वांत: सुखाय लेखन !


दक्षिणपंथी विचारधारा!


मो.7607778640


 


 


 


   


🙏मेरे आराध्य तुम ,तुमको मेरा नमन! 🙏


**********************************


तुम मेरी*आस्था,*


अर्चना के सुमन!


मेरा विश्वास तुम


तुमको मेरा नमन!!


            मेरे आराध्य तुम ,


            तुमको मेरा नमन!


तुम सिया, राम तुम,


राधिका ,कृष्ण तुम ,


गौरि शंकर तुम्हीं,


तुम रमा,विष्णु तुम,


     मेरे आराध्य तुम ,


    तुमको मेरा नमन!!


तुम धरा,तुम गगन!


नीर ,पावक, पवन!


हो तुम्हीं अग्नि भी,


तुमको मेरा नमन!!


     मेरा  संसार  तुम ,


     तुमको मेरा नमन!


सृष्टि भी हो तुम्हीं ,


हां,प्रलय भी तुम्हीं,


जन्म तुमने दिया,


मृत्यु भी हो तुम्हीं!


         मेरे  सर्वस्व  तुम,


        तुमको मेरा नमन!!


मेरे सुख तुमसे ही,


मेरे दुख में तुम्हीं ,


जो मिला है मुझे,


सबके दाता तुम्हीं!


     मेरा अस्तित्व तुम,


     तुमको मेरा नमन !!


सब तुम्हीं ने दिया,


क्या है मेरा किया,


तेरा अर्पण तुम्हें ,


मेरे मन का दिया!


     भाव सारे हो तुम, 


     तुमको मेरा नमन!!


तेरे चरणों में मैं,


मेरी सांसों में तुम,


मेरी आशा तुम्हीं,


मेरा विश्वास तुम !


       लो शरण में मुझे,


       तुमको मेरा नमन!! 


मेरा साधन तुम्हीं,


हो मेरे साध्य भी ,


मेरा अर्चन तुम्हीं,


मेरे आराध्य भी!


      मेरा हर कर्म तुम!


      तुमको मेरा नमन!!


जानता धर्म कुछ,


पर प्रवृत्ति नहीं ,


जानता पाप भी


पर निवृत्ति नहीं,


       मेरा हर मार्ग तुम,


       तुमको मेरा नमन!!


         


         मेरे आराध्य तुम ,


         तुमको मेरा नमन!!


 


 


 


********


कलम आज कुछ ऐसा लिख,


हल्दी घाटी जैसा लिख।


रक्त उबल ही जाए सबका,


अब अंगारों जैसा लिख।।


      कलम आज कुछ ऐसा लिख..


आज कारगिल विजय दिवस पर


सेना  के  इस  शौर्य   दिवस  पर,


रिपु दल दहल जाए जिसको सुन,


सिंह  गर्जना  जैसा   लिख ।।


      कलम आज कुछ ऐसा लिख..


याद कारगिल विजय दिवस कर,


अश्रु  पुष्प  से उन्हें  नमन  कर ,


अर्पण किए शीश जिस मां  पर,


वो  फिर  हंस  दे  वैसा लिख ।।


      कलम आज कुछ ऐसा लिख..


कायर शत्रु सदा से ही है,


घात करे पीछे से ही है ,


छिपता सदा जयद्रथ जैसा,


सूर्य ग्रहण के जैसा लिख।।


      कलम आज कुछ ऐसा लिख....


हाथों की मेहंदी थी रोई,


कंगन,बिछुआ,चूड़ी रोई,


बहुत हो चुका आर्तनाद अब,


दुश्मन बिलखे, ऐसा लिख ।।


      कलम आज कुछ ऐसा लिख....


नयनों में न देख मधुशाला ,


भूल अभी तू साकी ,प्याला।


अभी हलाहल ही पीना है,


शिव के तांडव जैसा लिख।।


      कलम आज कुछ ऐसा लिख..


अभी भूल तू गीत प्रणय के,


स्वर भी भूल विनय अनुनय के।


शत्रु खड़ा है सम्मुख तेरे,


प्रलय घटाओं जैसा लिख।।


      कलम आज कुछ ऐसा लिख..


आज सत्य की राह यही है,


जिएं देश हित चाह यही है।


मरना है तो मरें देश पर ,


शौर्य अमर हो ऐसा लिख।।


      कलम आज कुछ ऐसा लिख..


तू है उन ऋषियों का वंशज,


वज्र बना था जिनका अंशज।


याद अस्थियां कर दधीचि की,


वृत्तासुर वध जैसा लिख ।।


      कलम आज कुछ ऐसा लिख..


वंशी के स्वर को विराम दे,


अभी रास का भुला नाम दे,


आज महाभारत की बेला,


चक्र सुदर्शन जैसा  लिख।।


      कलम आज कुछ ऐसा लिख.


आज शब्द को बाण बना ले,


गीतों  का  तूणीर  बना  ले,


अपने स्वर को धनुष बनाकर,


लक्ष्य वेध के जैसा लिख।।


      कलम आज कुछ ऐसा लिख....


अक्षर अक्षर एक वज्र हो,


हर कवि जैसे एक शक्र हो,


नभ से विद्युत प्रलय आज हो,


अरि दल भस्म बने ऐसा लिख।।


      कलम आज कुछ ऐसा लिख....


 


           श्रीकांत त्रिवेदी


                  लखनऊ


          25 ,07, 2020


 


 


 


  🌸*पर्युषण पर्व* 🌸


नमन मेरा पर्युषण पर्व को,


जैन धर्म के महा पर्व को ,


आज तिलांजलि दे देनी है,


अपने मन में बसे गर्व को !


            नमन मेरा पर्युषण पर्व को,


तन से ,मन से और वचन से,


मेरे कर्म से, मेरे कथन से ,


अगर किसी ने पीड़ा पाई,


क्षमा याचना करूं सर्व को!


           नमन मेरा पर्युषण पर्व को,


मुझसे , जाने, अनजाने में, 


दुख किसी को मिल जाने में,


पाप हुए जो भी उन सबका,


प्रायश्चित इस परम पर्व को!


          नमन मेरा पर्युषण पर्व को,


भले किसी ने बुरा कहा हो,


खुद मैंने अन्याय  सहा हो ,


पर मन में प्रतिशोध न आए,


क्षमा कर सकूं महा गर्व को!


          नमन मेरा पर्युषण पर्व को,


          जैन धर्म  के महा पर्व को!!


 


श्रीकांत त्रिवेदी


लखनऊ


7697778640


 


 


         ****शिक्षक****       


मैं कच्ची मिट्टी जैसा था ,


जब मुझे एक आकार दिया,


या तो कोरा कागज सा था,


जिस पर हर  शब्द उभार दिया,


माँ मेरी पहली शिक्षक थी,


जिसने ही यह संसार दिया ! 


यह जीवन मुझे उधार दिया।।


 


पिता बाद में जाना हमने,


सब कुछ है वो माना हमने,


जीवन जीने की शिक्षा दी,


तब जग को पहचाना हमने,


इस जीवन का नैपुण्य दिया! 


फिर रण में मुझे उतार दिया!!


 


सदा ज्ञान की भिक्षा देकर , 


बहु आयामी  शिक्षा  देकर,


वंदन उन्हीं शिक्षकों का कर,


दे निज आशीषों का शुभ वर,


ये यश,वैभव सब दान दिया!


फिर जीवन पुष्प निखार दिया!


 


ज्ञान अभी तक रहा अधूरा,


मन व्याकुल ,कैसे हो पूरा ,


सच्चे गुरु की दीक्षा पाकर


मन पर रहे नियंत्रण पूरा,


तो प्रभु ने उपकार किया!


उस भवसागर से तार दिया!!


 


---


डॉ. रामबली मिश्र

मेरी अभिनव मधुशाला


 


ताकत का अहसास नहीं, पर अति ताकतवर है प्याला.,


सौरभ की अनुभूति नहीं, पर अतिशय सुरभित है हाला.,


जीने की परवाह नहीं, पर अति संजीदा साकी है.,


मधु-पयोधरी निष्कामी बहु, मेरी अभिनव मधुशाला ।


 


है सुहाग की पावन प्रतिमा, सा मेरा सुंदर प्याला.,,


अति आह्लादित प्रिया प्रमुदिता, मन- रंजक मेरी हाला.,


युवा अमर रस का दाता है, प्रेम प्रतिष्ठित युग साकी.,


चन्द्रमुखी मधुमय मृनयनी, प्रसन्न वदना मधुशाला।।


 


डॉ. रामबली मिश्र हरिहरपुरी


9838453801


संजय जैन

मन की पीड़ा


 


न कोई हमारा है


न हम किसी के।


यही सब कहता है


जमाना आज का।


इसलिए तो आज


सीमित है अपनो तक।


नहीं करते चिंता अब


किसी और की हम।।


 


पहले हम क्या थे


अब क्या बन गये।


जमाने ने हमें


कहा पहुंचा दिया।


और खो दी आत्मीयता


और दिल के रिश्ते।


तभी तो अपने घर


तक के हो गये।।


 


बना बनाया समाज


अब बिखर गया।


और आत्मीयता का


अब अंत हो गया।


बने थे जो भी रिश्ते


उनसे भी दूर हो गये।


और खुदकी पहचान


खुद ही भूल गए।।


 


जय जिनेन्द्र देव


संजय जैन (मुम्बई)


डॉ0 हरि नाथ मिश्र

तृतीय चरण (श्रीरामचरितबखान)-16


 


ई रहस्य लछिमन बिनु जाने।


सेवा करहिं प्रभू-सम्माने।।


   तब मरीच रावन सँग गयऊ।


   जेहि बन राम रहहिं सिय सँगऊ।।


भजत मरीच जाइ प्रभु-नामा।


मरि प्रभु-बान चलब सुर-धामा।।


    पहुँचि उहाँ तब रावन कहऊ।


    धरहु मरीच रूप जस चहऊ।।


धरि के कपट-कनक-मृग-रूपा।


इत-उत धावै रुचिर अनूपा।।


   मग लखि अस बिचित्र मृग सीता।


   कौतुक बस कह राम सभीता।।


आनहु प्रभु अस मृग कै चर्मा।


मृगछाला ऋषि-बसन सुधर्मा।।


     लखन सौंपि सीतहिं प्रभु रामा।


      करन चले पुनीत अस कामा।।


कारन समुझि राम तब उठहीं।


बान्हि जटा लइ तरकस-धनुहीं।।


     मग धावत कंचन मृग उत-इत।


    साधन लगे लछ्य लखि हरषित।।


सिव-सनकादि जिनहिं नहिं पावा।


 मृग के पाछे सो प्रभु धावा ।।


      जानि-बूझि मृग दूरि ले जावा।


       बूझहिं राम मरीचि-छलावा।।


लछ्य साधि प्रभु सर संधाना।


'लखन' बोलि मृग त्यागा प्राना।।


     मृत मृग धरि तब रूप मरीचा।


     प्रगटा कर जोरे सिर नीचा।।


दोहा-जग तारन प्रभु राम तब,समुझि दनुज कै प्रेम।


        तारे तेहिं भव-सिंधु तें, बिधिवत स्नेह-सनेम।।


        लखि प्रभु कै करतब विमल,सुर गन भए प्रसन्न।


        सुमन-बृष्टि करने लगे,देखि मरिचि सम्पन्न।।


                     डॉ0 हरि नाथ मिश्र


                        9919446372


डॉ0 हरि नाथ मिश्र

छठवाँ अध्याय (श्रीकृष्णचरितबखान)-9


 


प्रभु-पद-पंकज जे मन लागा।


जाके हृदय नाथ-अनुरागा।।


    पाई उहहि अवसि सतधामा।


    निसि-दिन भजन करत प्रभु-नामा।।


ब्रह्मा-संकर-बंदित चरना।


करहिं सुरच्छा जे वहिं सरना।।


   प्रभु निज चरनन्ह दाबि पूतना।


   पिए दूध तिसु जाइ न बरना।।


दियो परम गति ताहि अनूपा।


मिली सुगति जस मातुहिं रूपा।।


    बड़ भागी ऊ गउवहिं माता।


    जाकर स्तन पियो बिधाता।।


अमरपुरी-सुख ते सभ पहिहैं।


किसुनहिं-कृपा-अनुग्रह लहिहैं।।


     प्रभू-अनुग्रह होतै मिलई।


     मुक्ति 'केवल्य' जगत जे कहई।।


जे जे गोपिहिं औरउ गैया।


जाकर दुधय पिए कन्हैया।।


    जीवन-मरन-मुक्ति ते पाई।


    भव-सागर तुरतै तरि जाई।।


तिनहिं न होई भौतिक-तापा।


माया-मोह न आपा-धापा।।


    सुनहु परिच्छित मोरी बचना।


    मुनि सुकदेवहिं कह मधु रसना।।


भए सकल ब्रजबासी चकितै।


बालक कृष्न सुरच्छित लखतै।।


     निकसत धुवाँ सुगंधित तन कहँ।


     अचरज भवा तहाँ सभ जन कहँ।।


बाबा नंद छूइ सिर कृष्ना।


पुनि-पुनि सूँघि बिगत जनु तृष्ना।।


     होंहिं अनंदित अपरम्पारा।


     धारे किसुनहिं निज अकवारा।।


दोहा-एक बेरि ब्रह्मा हरे,सकलइ ग्वाल व बच्छ।


        बछवा बनि तब कृष्न तहँ,दूध पिए गउ स्वच्छ।।


        सकल गऊ तब तें भईं,किसुनहिं जनु निज मातु।


       धन्य-धन्य लीला किसुन, बरनत जी न अघातु।।


                    डॉ0 हरि नाथ मिश्र


                       9919446372


नूतन लाल साहू

बेटी


दुनिया के विधि को


विधि ने बनाई है


दो कुलो की मान बढ़ाने वाली


बेटी,क्यों पराई होती हैं


बेटी ही, मां सरस्वती


बेटी ही, मां लक्ष्मी हैं


बेटी ही, मां नव दुर्गा है


फिर भी,राज दरबार में थिरकने वाली


बेटी ही,क्यों होती हैं


दो कूलो की मान बढ़ाने वाली


बेटी,क्यों पराई होती हैं


बेटी ही,संगी जौहरिया


बेटी ही,वंश बढ़ाती हैं


बेटी ही बनाती हैं,भोजन


भोजन में आंनद होता है


फिर भी बेटी


नर की अबला,क्यों होती हैं


दो कूलो की मान बढ़ाने वाली


बेटी, क्यों पराई होती हैं


लक्ष्मी बाई भी,बेटी थी


जो अंग्रेजो को ललकारी थी


इंदिरा गांधी भी,बेटी थी


जो भारत मां को संवारी थी


मां सीता भी बेटी थी


महाकाली भी बेटी थी


फिर भी बेटी से,खिलवाड़ क्यों होता है


दो कूलो की मान बढ़ाने वाली


बेटी,क्यों पराई होती हैं


जब दर्द देते हैं, बेटे


तब मरहम, लगाती हैं बेटियां


छोड़ जाते है, बेटे तो


काम आती हैं,बेटियां


आशा रहती हैं, बेटो से पर


पूर्ण करती हैं,बेटियां


फिर भी क्यों,कन्या भ्रूण हत्या हो रही हैं


दो कूलो की मान बढ़ाने वाली


बेटी,क्यों पराई होती हैं


नूतन लाल साहू


कालिका प्रसाद सेमवाल

मां सरस्वती


**********


हे मां सरस्वती,


तू प्रज्ञामयी मां


चित्त में शुचिता भरो,


कर्म में सत्कर्म दो


बुद्धि में विवेक दो


व्यवहार में नम्रता दो।


 


हे मां सरस्वती


हम तिमिर से घिर रहे,


तुम हमें प्रकाश दो


भाव में अभिव्यक्ति दो


मां तुम विकास दो हमें।


 


हे मां सरस्वती


विनम्रता का दान दो


विचार में पवित्रता दो


व्यवहार में माधुर्य दो


मां हमें स्वाभिमान का दान दो।


 


हे मां सरस्वती


लेखनी में धार दो


चित्त में शुचिता भरो,


योग्य पुत्र बन सकें


ऐसा हमको वरदान दो।।


*****************


कालिका प्रसाद सेमवाल


मानस सदन अपर बाजार


रुद्रप्रयाग उत्तराखंड


पिनकोड 246171


सुनील कुमार गुप्ता

स्वार्थ संग जीवन में खेला


 


छट जाये अंधेरे जीवन के,


ऐसा हो भोर का उजाला।


छाये न कोई गम की बदली,


जीवन हो ख़ुशियों का मेला।।


आशाओं के अम्बर में साथी,


सुनहरे पलो संग खेला।


यथार्थ धरातल पर साथी फिर,


क्यों-जीवन में रहा अकेला?


संग-संग चले जीवन पथ पर,


कैसे-रहा साथी अकेला?


मैं-ही-मैं बसा तन-मन साथी,


स्वार्थ संग जीवन में खेला।।


 


सुनील कुमार गुप्ता


एस के कपूर श्री हंस

सावधानी से


कॅरोना अँधेरों को हटाना है और


उजालों को बुलाना है।


आज बहुत जरूरी हो गया है


मानव जीवन को बचाना।


कॅरोना सावधानियों को सुनना


और फिर सबको सुनाना।।


अभी भी फैल रही ये महामारी


यहाँ वहाँ और कहाँ कहाँ।


अभी भी बहुत आवश्यक हर


लापरवाही को भूलाना।।


 


पर मत उदास हो कि फिर वही


अपनों का मिलन होगा।


मिल कर बैठेंगें सब और फिर


वैसे हर मन किरण होगा।।


मंजिल दूर पर पाना कुछ भी


नामुमकिन होता नहीं।


देखना फिर वही हँसी ठहाकों


का दौरे चलन भी होगा।।


 


बस कुछ धैर्य की जरूरत और


कुछ तकलीफ उठानी है।


रोग प्रतिरोधक क्षमता आज 


हमें खूब बढ़ानी है।।


अभी कॅरोना के साथ ही हमको


जीवन मेंआगे चलना होगा।


इसलिए उचित दिनचर्या और


जीवनशैली अपनानी है।।


 


हम सब सोचते हैं कि तुरंत


कॅरोना की हार चाहिये।


हो जाये कॅरोना बाहर कि नहीं


और इन्तिज़ार चाहिये।।


लेकिन यह यूँ ही बस चाहने से


सम्भव नहीं होगा।


हमें बचाव की हर नई तकनीकओ


प्रबंधन असरदार चाहिये।।


 


हर आदमी जागरूक चाहिये इस


महामारी के प्रति।


हर मनुष्य अपना कर्तव्य पालन


करे इस बीमारी के प्रति।।


यह एक विश्व्यापी त्रासदीऔर इसे


हल्के में नहीं लेना है।


व्यक्ति से समाज से राष्ट्र सा सचेत


हो जिम्मेदारी के प्रति।


 


 


एस के कपूर श्री हंस


बरेली


संदीप कुमार विश्नोई रुद्र

न शायरी लिखी कभी दिमाग को न धार दी


न जीत भी मिली हमें न हार भी कुबूल है ।


 


सदा खिली बहार में बहार ढूंढते रहे


बहार जो मिली हमें वही अभी कुबूल है ।


 


न साहिबा मिली हमें न आशिकी हुई कभी


मिली सदैव धूप ये हमें यही कुबूल है। 


 


अमन मिले सुमन खिले रहे सदा खुशी यहां


खिला रहे वतन सदा हमें वही कुबूल है ।


 


न इश्क चाहिए हमें न आशिकी करें कभी


हरी भरी रहे धरा हमें यही कुबूल है। 


 


संदीप कुमार विश्नोई रुद्र 


गाँव दुतारांवाली तह0 अबोहर जिला फाजिल्का पंजाब


निशा अतुल्य

कागज और कलम का साथ 


एक जीवन साथी जैसा ही है 


मनोभावों की अभिव्यक्ति 


कागज पर उकेर कर क़लम


निश्चिंत हो जाती है 


चैन से सो जाती है।


कागज भावनाओं का बोझ लिए 


दूसरों को समर्पित कर अपना जीवन


धीरे धीरे खो जाता है कहीं 


दूसरों के हाथों में खेल खेल कर ।


बंध एक सूत्र में पन्ने


है पुस्तक कहलाती


पुस्तक देती ज्ञान, ध्यान, समझ


मन के भावों को समझाती ।


नई राह दिखाती 


मुसीबतों से बचाती


हाँ पुस्तक ही है ये 


जो कभी बन रामायण 


त्याग सिखाती है ।


कभी गीता का पढ़ा पाठ


कर्मक्षेत्र सिखाती है 


शास्त्रों पुराण की बातें


प्रकृति व जीवन सार समझाती ।


हाँ पुस्तक ही है जो


बन मित्र जीवन पथ पार कराती 


चाहे करे कोई दुश्मनी कैसी भी


ये हमेशा मित्र बन साथ निभाती ।


ज्ञान प्रज्ञा बढ़ाती 


जीवन आसान बनाती ।


 


निशा अतुल्य


विनय साग़र जायसवाल

कैसा है रंगे-गर्मीये-बाज़ार देखिये


मायूस सा खड़ा है खरीदार देखिये


हुस्ने-मतला 


 


इतनी है तेज़ वक़्त की रफ़्तार देखिये


मेरी थकन ही बन गई दीवार देखिये


 


बौना हूँ मैं भी वक़्त के इंसान की तरह 


झुक कर ज़रा मुझे मेरे सरकार देखिये


 


मुँह खोलने की कोशिशें जब-जब भी हम करें


आ जाता है उधर से तो इंकार देखिये


 


 फैली हुई है तीरगी आँगन में हर तरफ़


सूरज की रौशनी पसे-दीवार देखिये


 


उठ्ठी नहीं नज़र ही मेरी उसके सामने


कैसे करूँ मैं प्यार का इज़हार देखिये


 


गरदन हमारी क्या झुकी साग़र जहां में आज


उठती है हर तरफ़ नई तलवार देखिये


 


🖋️विनय साग़र जायसवाल बरेली यूपी


तीरगी-अंधेरा 


डॉ0 हरि नाथ मिश्र

वन-पर्वत को लाँघती, मिलन हेतु प्रिय संग।


अल्हड़ सरिता बह चली,हिय में लिए उमंग।।


 


गाँव-नगर होती हुई,खेत और खलिहान।


प्यासे को जल बाँटती, मिलती सिंधु-तरंग।।


 


स्वयं तो प्यासी आत्मा,किंतु हरे जग-प्यास।


अमर प्रेम की यह कथा,प्रेम-अनूठा ढंग।।


 


पिया सिंधु से अंत में,मिले नदी जा दूर।


जीव-ब्रह्म के मिलन इव, विमल रूप यह रंग।।


 


इठलाती यह अवनि पर,चंचल-प्रबल-प्रवाह।


बलखाती-गाती बहे,शिला-खंड कर भंग।।


 


मिलकर प्रीतम सिंधु से,होती शीघ्र अदृश्य।


सरित-सिंधु अद्भुत मिलन,ज्यों रति-मिलन अनंग।।


 


महि की शोभा है नदी,हर प्राणी का प्राण।


जल दे जीवन तृप्त कर,बहती लगे विहंग।।


            © डॉ0 हरि नाथ मिश्र


               9919446372


डॉ. रामबली मिश्र

चंदन बनकर जीते रहना


 


गम -हाला को पीते रहना।


चंदन बनकर जीते रहना।।


 


चारोंतरफ़ भुजंग खड़े हैं।


मत प्रभाव में इनके पड़ना।।


 


रहो मस्त परवाह किये बिन।


हो निश्चिंत विचरते रहना।।


 


दुष्टों की छाया से बचकर।


राह बनाते चलते रहना।।


 


नहीं छेड़ना कभी किसी को।


भारतीय संस्कृति को गहना।।


 


परेशान मत करो किसी को।


खुशबू बनकर जीते रहना।।


 


रहो कमल सा जग-सरिता में।


जल के चक्कर में मत पड़ना।।


 


खिलो विश्व में चमक गगन में।


नि:स्पृह भावों ही जगना।।


 


अपने में ही जीना सीखो।


खुद को अपना जगत समझना।।


 


बहुरंगी दुनिया को त्यागो।


सत्व रंग में रंगे थिरकना।।


 


करो प्रदर्शन सत्य मनोहर।


सबके मन को हरते रहना।।


 


खुशबू बनकर गंध विखेरो।


चंदन बनकर दिव्य गमकना।।


 


डॉ. रामबली मिश्र हरिहरपुरी


9838453801


डॉ. रामबली मिश्र

मनबंजारा


 


बहुत रम्य है मन बंजारा।


करता भ्रमण सकल संसारा।।


मौज उड़ाता आजीवन है।


उड़ता जैसे प्रेम पवन है।।


मस्ताना अंदाज निराला।


पीने को आतुर मधु प्याला।।


सुंदरता का सहज पुजारी।


बातें करता प्यारी-प्यारी।।


यहाँ-वहाँ सर्वत्र घूमता।


प्रेम पात्र दिन-रात चूमता।।


नहीं किसी से कुछ कहता है।


सबका सबकुछ पा चलता है।।


अति स्वच्छंद सकल रस भोगी।


मायावी खुशहाल सुयोगी।।


अति चंचल अति मादक चितवन।


घुमा करता सारा वन-वन।।


इसको सुख-आनंद चाहिये।


धन वैभव अभिनन्द चाहिये।।


 


डॉ. रामबली मिश्र हरिहरपुरी


9838453801


दयानन्द त्रिपाठी हिन्दी दिवस के अवसर पर आयोजित "हिन्दी हैं हम विश्व मैत्री मंच, हैदराबाद" तेलंगाना के राष्ट्रीय ई-संगोष्ठी ने प्रतिभागिता प्रमाण-पत्र देकर किया सम्मानित

दयानन्द त्रिपाठी हिन्दी दिवस के अवसर पर आयोजित "हिन्दी हैं हम विश्व मैत्री मंच, हैदराबाद" तेलंगाना के राष्ट्रीय ई-संगोष्ठी ने प्रतिभागिता प्रमाण-पत्र देकर किया सम्मानित



महराजगंज । हिन्दी दिवस के अवसर पर हिन्दी हैं हम विश्व मैत्री मंच, हैदराबाद द्वारा उत्तर प्रदेश के जनपद महराजगंज के शिक्षक साहित्यकार दयानन्द त्रिपाठी को राष्ट्रीय ई-संगोष्ठी में प्रतिभाग लेने के उपलक्ष्य में प्रतिभागिता प्रमाण-पत्र देकर सम्मानित करते हुए इनके उज्जवल भविष्य की कामना भी करता है।


 


हिन्दी दिवस के अवसर पर हिन्दी हैं हम विश्व मैत्री मंच, हैदराबाद के संयोजक और संस्थापक अध्यक्ष डॉ रियाज-उल अंसारी और संचालक डॉ विद्याधर जी ने बताया कि 20 सितम्बर को हुए राष्ट्रीय ई-संगोष्ठी हिन्दी दिवस के अवसर पर मंच से देशभर के हिन्दी के पुरोधा ने जुड़कर मंच को गौरवान्वित किया। इसके साथ मंच ने 84 प्रतिभागियों को प्रतिभागिता प्रमाण-पत्र देकर सम्मानित करते हुए उनके उज्जवल भविष्य की कामना भी करता है।


  


आप सबको बताते चलें हिन्दी दिवस के अवसर पर हिन्दी हैं हम विश्व मैत्री मंच, हैदराबाद के मुख्य वक्ता श्री गिरीश्वर मिश्र पूर्व कुलपति महात्मा गांधी हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा ने हिन्दी विश्व और नई सदी की सांस्कृतिक चुनौतियां विषय पर सारगर्भित व्याख्यान से सभी को मंत्रमुग्ध कर दिया । तकनीकी विषय पर श्री विजय प्रभाकर नगरकर जी जो सेवानिवृत्त राजभाषा अधिकारी बीएसएनएल, महाराष्ट्र ने स्मार्ट फोन से स्मार्ट हिन्दी विषय पर तकनीकी जानकारियों को देते हुए अपना व्याख्यान दिया जिससे मंच से जुड़े सभी लोग लाभान्वित होते हुए तकनीकी जानकारियों के बारे में ज्ञानवर्धक जानकारी प्राप्त की। इसी क्रम में श्री ऋषभदेव शर्मा जी पूर्व हिन्दी विभागाध्यक्ष द०भा०हि०प्र०स०, हैदराबाद सहित और तमाम मनीषीयों ने अपना सारगर्भित व्याख्यान प्रस्तुत किया जो सभी के लिए हिन्दी विषय की महत्ता और समाजिक पकड़ पर विचार रखने का श्रेष्ठतम माध्यम है।


 


अन्त में संयोजक और संस्थापक अध्यक्ष डॉ रियाज-उल अंसारी जी ने अलमारी, साबुन, कप्तान, तंबाकू, तौलिया (टावेल)बाल्टी, कमरा, पिस्तौल, पादरी, गिरजा किस भाषा के शब्द हैं, बताइए तो जरा? ये पुर्तगाली भाषा से हिन्दी में आए हैं। यदि आप इनका प्रयोग करते हैं तो इसका मतलब यह हुआ कि आप पुर्तगाली शब्द बोलते हैं।उस्ताद, रेशम, जहान, चाकू, आदमी, गुलाब, चश्मा, बाग (बगीचा), दुकान, कलम, दोस्त, कारखाना, खरगोश, जमीन, रूमाल, साकी, सिपाही, सितार, शहर, रास्ता, सुराही,फारसी के शब्द हैं । साथ ही गरीब, अमीर, ईमानदार, इन शब्दों से भला कौन परिचित न होगा? और दुनिया, अदालत, किताब, दौलत, हुक्का, किस्सा और मालिक शब्दों का प्रयोग भला ऐसा कौन होगा जो न करता होगा? ये सभी अरबी भाषा के शब्द हैं। जो बहुधा हिन्दी प्रयोग में आते हैं। ऐसे तमाम शब्द हैं जो हिन्दी के बोलचाल में प्रयोग होते हैं। हिन्दी हैं हम विश्व मैत्री मंच, हैदराबाद तेलंगाना, भारत ने हिन्दी को विश्व की भाषा बनाने के लिए बीड़ा उठाया लिया है । सबका अभिवादन और धन्यवाद ज्ञापित करते हुए राष्ट्रीय ई-संगोष्ठी के समापन की घोषणा की।


नूतन लाल साहू

समस्या


कहते हैं, सागर की अपनी


    होती हैं, मर्यादा


    पर, समस्या तो


अमर्यादित हो गया है


दिनोदिन तांडव कर रहा है


वाणी भी मौन हो रहा है


कल्पना नहीं कर सकते है हम,समस्या


इतना विकराल रूप, क्यों ले रहा है


अब तक नहीं हिला था मै, पर


अब हिलना स्वाभाविक, हो गया है


यो न करते,प्रकृति से खिलवाड़, हम


तो टूट टूटकर,बिखरना न पड़ता हमे


कहते है,सागर की अपनी


     होती हैं मर्यादा


     पर, समस्या तो


अमर्यादित हो गया है


डुब गया,पलको में सपने


समस्या,हर पल तांडव कर रही हैं


लहर लहर बन,कहर बरपा रही है


सुख की आशा,हमने छोड़ दिया है


जब चाहा आघात कर रहा है


कलियुग में समस्या,इतना बढ़ गया है


कहते है,सागर की अपनी


     होती हैं मर्यादा


     पर, समस्या तो


अमर्यादित हो गया है


जब भी चाहा,विस्फोट कर दिया


चंदन सी प्यारी,भारत मां की माटी पर


लक्षण बता रहे हैं,युग के


धरती भी, डावा डोल हो रही है


कैसे चलाऊ, जीवन रथ को पथ पर


समस्या ही समस्या,दिख रहा है


कहते हैं, सागर की अपनी


      होती हैं मर्यादा


      पर समस्या तो


अमर्यादित हो गया है।


 


नूतन लाल साहू


डॉ0 हरि नाथ मिश्र

तृतीय चरण (श्रीरामचरितबखान)-15


 


कह मरीच सुनु रावन भ्राता।


बैर राम सँग तुमहिं न भाता।।


     राम-लखन अतुलित बलधामा।


     बधि सुबाहु किय कौसिक-कामा।।


कीन्ह ताड़का बध ते तबहीं।


सर चढ़ाइ फेंके मों असहीं।।


     छिन भर मा मैं आयहुँ इहवाँ।


     सत जोजन जनु उड़ि तें तहवाँ।।


बैर-बियाहहि औरु मिताई।


समता करहु त होय भलाई।।


     रावन कहा सुनहु मारीचा।


     सिखा न मोंहि तू ऊँचा-नीचा।।


जदि तू कहा सुनउ नहिं मोरा।


तोर परान जगत बस थोरा।।


     थोरे मा समुझा मारीचा।


     रावन बड़ पापी अरु नीचा।


सुगति मृत्यु नहिं रावन-कर तें।


बड़ भल होय मरउँ प्रभु-सर तें।।


     अवसर पाइ राम कह सीता।


     सुनहु प्रिये मम जीवन-मीता।।


लछिमन अबहिं गयो बन माहीं।


कंद-मूल-फल आनय ताहीं।।


     बसहु अगिनि मा सीते तबतक।


     असुरन्ह बधि लौटहुँ मैं जबतक।।


नर-लीला अब बन मैं करऊँ।


पापी-अघी-निसाचर बधऊँ।।


दोहा-सीता कीन्ह प्रबेस तब,तुरत अगिनि बन माहिं।


         वहि स्वरूप,वहि रूप-रँग, पीछे छाँड़ि के ताहिं।।


                    डॉ0 हरि नाथ मिश्र।


                      9919446372


डॉ0 हरि नाथ मिश्र

छठवाँ अध्याय (श्रीकृष्णचरितबखान)-8


 


स्तन-पान कराइ क माता।


पलना माहिं सुताय बिधाता।।


    निरखन लगीं जसोदा मैया।


    प्रमुदित मन जब सिसुहिं कन्हैया।।


बाबा नंद तहाँ तब आए।


गोपिन्ह सँग मथुरा तें धाए।।


    देखि पूतना भीम सरीरा।


    अचरज भे सबहीं गम्भीरा।।


अवसि इहाँ बसुदेवहिं रूपा।


जनम लियो जनु ऋषी अनूपा।।


    अस सभ कहन लगे ब्रजबासी।


     काटत अंग पूतना नासी।


रखि लकड़ी पे अंग-प्रत्यंगा।


दिए जरा सभ अंगहिं-अंगा।।


     धूम्र सुगंधित निकसन लागा।


      पुतना-तन तें जरत सुभागा।।


पिबत दूध तन भयो पुनीता।


पाइ क किसुनहिं मुख-अमरीता।।


     तुरत परम गति पाइ पूतना।


      सत्पुरुषहिं जग मिलई जितना।


प्रभु-पद-पंकज जे मन लागा।


जाके हृदय नाथ अनुरागा।।


     पाई उहहि अवसि सतधामा।


     निसि-दिन भजन करत प्रभु-नामा।।


ब्रह्मा-संकर बंदित चरना।


करहिं सुरच्छा जे उन्ह सरना।।


     प्रभु निज चरनहिं दाबि पूतना।


     पिए दूध तिसु जाइ न बरना।।


दियो परमगति ताहि अनूपा।


मिली सुगति जस मातुहिं रूपा।।


दोहा-कथा पूतना मोच्छई,अद्भुत, परम पुनीत।


         बालकृष्ण लीला इहइ, सुनि जन होंहिं अभीत।।


                         डॉ0 हरि नाथ मिश्र


                           9919446372


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