डॉ0 हरि नाथ मिश्र

तृतीय चरण (श्रीरामचरितबखान)-17


 


सुनि पुकार लछिमन के नामा।


सीता समुझि बिकल प्रभु रामा।।


    चिंतित हो लछिमन तें कहहीं।


    लछिमन प्रभु जनु संकट परहीं।।


जाहु तुरत तहँ प्रभु की ताईं।


संकट काटि क लाहु गोसाईं।।


      बिहँसि लखन सीतहिं पुनि बोले।


      जासु भृकुटि भूमंडल डोले ।।


अस प्रभु संकट कबहुँ न आवे।


कस अस कहेउ मातु नहिं भावे।।


     कस हम छोड़ीं तोहें माई।


     थाती सौंपि गए मोंहि भाई।।


सीता मरम बचन तब कहही।


प्रभु-प्रेरित लछिमन-मन भवही।।


      सियहिं सौंपि तब बन-दिसि-देवा।


      लछिमन चले राम की सेवा।।


खैंचि भूमि तब लछिमन रेखा।


सीय मातु कहँ पुनः सरेखा।।


     अवसर पाइ कुकुर की नाईं।


     रावन तहँ सीता की ताईं।।


जती भेष धरि पहुँचा तहवाँ।


सून-अकेल सीय रहँ जहवाँ।।


    लगा सुनावै बहु बिधि नाना।


    प्रेम-नीति-सुचि कथा-पुराना।।


भिच्छा देहु मोंहि हे सुमुखी।


आरत बचन कहा जनु दूखी।।


     सुनि अस बचन सीय तब धाई।


     कंद-मूल-फल लइ तहँ आई।।


बँधी भीख मैं कबहुँ न चाहहु।


भीख लेइ तुम्ह बाहर आवहु।।


      बिधि-गति समुझि सकीं नहिं सीता।


      रेख लाँघि तहँ गईं सभीता ।।


दोहा-जदपि सीय सुर-काजु पटु,कुसल सकल गुन-ग्यान।


         बिनु समुझे रावन-कपट, बहि निकसीं अनजान।।


                        डॉ0 हरि नाथ मिश्र


                         9919446372


राजेंद्र रायपुरी

मदिरा सवैया छंद पर एक रचना- -


 


सावन आवन को कही साजन,


आ न सके किस कारन से।


 


पूछ रही सजनी नित रो कर,


ऑ॑गन चाॅ॑द सितारन से।


 


कौन बताय भला उसको सच,


खेल रहे हथियारन से।


 


बीच ठनी जब बात बनी कब,


लोग कहें सरकारन से।


 


           ।। राजेंद्र रायपुरी।।


डॉ निर्मला शर्मा

एक रोटी की खातिर


 घर छूटा, छूटा आंगन, 


छूटा रिश्ता, छूटा है सारा गांव 


एक रोटी की खातिर छूटी 


मनमोहक वह छांव 


समय है बीता बीती रैना


 दिन भी ढल- ढल जाए


 रोटी की खातिर मानव यूँ


 इत-उत भटका जाए 


बेरोजगारी से भुखमरी बढी है


 पेट ना जान पाए 


सुरसा के मुख सी भूख ये


 पेट में अगन बढ़ाए


 गांव छोड़ शहर का रुख कर


 मैं चलता चलूं निरुपाय


 दौड़-धूप मजदूरी करके 


रोटी का करूं उपाय


 एक रोटी की खातिर ही तो 


मनुज है लड़ता जाए 


राणा प्रताप सा


 स्वाभिमान ना किसी में


 जो घास की रोटी खाय


रोटी ही ईमान डिगा दे 


रोटी ही ईमान सजा दे 


कहते हैं बड़े बुजुर्ग ये


रोटी मन की दशा बदल दे


 जैसा खाओगे अन्न


 वैसा ही तन मन 


करो परिश्रम कठिन न लाओ


 बेईमानी का अन्न


एक रोटी की खातिर बनो ना 


मानव से तुम दानव 


रखो धैर्य ,संतुष्टि मन में


 करो ना तुम लालच लाघव


 ~~~~~~~~~~~~~


 


परिवार


सुनता मा मीठ लागे


कलह मा मीठ भागे


सरी दुःख ला, मिल जुरके झेल


अइसन हावे,ये परिवार के खेल ह


अपन मै ला छोड़ के


परिवार ला संवारे के सोच


झन दे कोनो ला लेच्चर जादा


तभे परिवार ह सुग्घर चल थे


सरी दुःख ला, मिल जुरके झेल


अइसन हावे, ये परिवार के खेल ह


नवा उमर जान के


कोनो ह झन इतरावे


देखके अागू म बुढ़वा ला


सबो झन माथ नवावे


आशीष पावे, बड़े बुजुर्ग के


तभे बड़े परिवार म चल पाबे


सरी दुःख ला, मिल जुरके झेल


अइसन हावे, ये परिवार के खेल ह


ददा के तोला मया मिले


दाई के मिले तोला आंचल


सपना ह तोर सच हो जाही


जब पूरा परिवार ह तोला भाही


सरी दुःख ला, मिल जुरके झेल


अइसन हावे, ये परिवार के खेल ह


सुरता आगे बीते जमाना के


अब तो उज्जर उज्जर भेष होगे


काम मा कारी पसीना तन लेे छूटे


भीजे अंग के कपड़ा ह


नइ परे बीमार जादा


सूखी रहय परिवार ह


सुनता मा मीठ लागे


कलह मा मीठ भागे


सरी दुःख ला, मिल जुरके झेल


अइसन हावे, ये परिवार के खेल ह


नूतन लाल साहू


कालिका प्रसाद सेमवाल

वीणा पुस्तक धारणी


********************


हे मां वीणा पुस्तक धारणी


मां मेरी लेखनी में धार दे


कभी कहीं ये रुके नहीं


दिव्य रुप सा इनमें प्रवाह दे।


 


हे मां वीणा पुस्तक धारणी


बुद्धि की दाता तुम ही हो


विवेक की जननी मां तुम्हीं हो


जीवन संवारने की आस तुम्हीं हो।


 


हे मां वीणा पुस्तक धारणी


मुझे शक्ति दे मां और बुद्धि दे


मां ज्ञान में निखार दे दो


आस केवल मां तुममें ही दिखती।


 


हे मां वीणा पुस्तक धारणी


मेरे कंठ में मां सदा रहो


वाणी में मिठास दे दो मां


मैं तुम्हें बार बार प्रणाम कर रहा।


********************


तुम्हें गीत गाकर कहाँ तक भुँलाऊँ


अधूरे मिलन की अधूरी कहानी,


मुझे छल रही हो मगर जी रहा हूँ।


न जाने ये कैसे जहर पी रही हो,


लिखूँ गीत कैसे प्रणय अधूरा।


पढूँ गीत कैसे मिलन जब न पूरा,


यहाँ पर पिपासित पड़ी जिन्दगानी।


कहाँ तक लिखू मैं अधूरी कहानी,


यही बात होगी कि तुम बोल दोगी।


पड़ेगी कही जिन्दगी जब अधोगी,


बिखरते सपन हैं बिखरती जवानी।


 


न तुम जानती हो न मैं जानता हूँ,


न तुम मानती हो न मैं मानता हूँ।


जरा देखना है कहाँ गीत ढलते,


जरा लेखना है कहाँ दीप जलते।


प्रणय की शिखा पर नयन को जलाऊँ,


तुम्हें गीत गाकर कहाँ तक भुलाऊँ।


विवश सोचता हूँ विवस रो रहा हूँ,


विवश जिन्दगानी प्रिये !ढो रहा हूँ।


मिटी जा रही है हृदय की रवानी,


क्या यही है हमारी कहानी।


 


तुम्हें कह रहा था, जरा पास आओ,


मिलन की लगन में प्रिये, मुस्कराओ।


न हम रह सकेंगे न तुम मिल सकोगी,


प्रणय की भिखारिन, कहाँ तक भगोगी।


प्रिये, आज मिलना असम्भवबना है,


बिछुड़ना बहुत प्राण, सम्भव बना है।


दुखों की कहानी न तुम जानती हो,


निठुर हो कहाँ कब मुझे मानती हो।


कहाँ आज मेरी ये जीवन निशानी,


 मुझे याद तुम्हारी बहुत सता रही है।।


*********************


कालिका प्रसाद सेमवाल


मानस सदन अपर बाजर


रुद्रप्रयाग उत्तराखण्ड


नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर

---------सैनिक-----


 


आन मान सम्मान 


गर्व अभिमान 


भारत का स्वाभिमान


सैनिक जवान।।


 


सीमाओं पर देश की


रक्षा करता देश भक्त


एक हाथ लिए तिरंगा


एक हाथ संगीन।।


 


फक्र से इतराता विश्व


युग को बतलाता मैं हूँ


हिन्द शान सौकत सैनिक


सैनिक जवान सपूत वीर।।


 


शपथ माँ भारती की


देश की माटी चन्दन


वंदेमातरम् जन गण 


मन भारत माता जय


जयकार हमारा गीत


सैनिक जवान भारत की


तकदीर।।


 


मेरी अभिलाषा ना क़ोई 


चाहे रहूँ भूखा प्यासा सर


भारत का झुकने ना देता


चाहे हो जाऊं शहीद।।


 


भारत की खुशहाली सुरक्षा


मेरा मार्ग संतुष्टि राष्ट्र की हसरत


हस्ती माँ ने मुझको जन्म दिया


माँ भारती का आँचल मेरा 


कर्म धर्म जीवन की मंजिल।।


 


जय भवानी जय माँ काली


हर हर महादेव का शंखनाद


विजय घोष का भाव मन मीत


सैनिक जवान हूँ शौर्य पराक्रम


मेरा संकल्प का धैर्य धीर।।


 


साहस शक्ति का फौलाद


हौसलों की उड़ान बाज़


बाज़ पंख परवाज़ जवां


जाबाज रण भूमि का 


खूंखार सैनिक जवान।।


 


थल हो नभ् हो जल हो


रण के कौशल का कुशल


पल प्रहर का प्रहरी संग्राम की


महिमा सैनिक सच्चा राष्ट्र ईमान


हूँ ।।


 


.


डॉ. रामबली मिश्र

बहुत कठिन है ऊपर चढ़ना।


समझ असंभव शीर्ष पहुँचना।।


 


जोर लगाता मानव हरदम।


किन्तु कठिन है वहाँ पहुँचना।।


 


करता इक एड़ी-चोटी है।


पर मुश्किल है शीर्ष पहुँचना।।


 


सिर्फ शीर्ष पर अंतिम सत्ता।


नहिं संभव है अंतिम बनना।।


 


अंतिम सत्ता का वंदन कर।


पूजन और निवेदन करना।।


 


भक्ति भाव में शीर्ष छिपा है।


भक्ति भाव से वहाँ पहुँचना।।


 


और दूसरा नहिं उपाय है।


लोक शीर्ष बेकार समझना।।


 


लोक शीर्ष क्षणभंगुर वंदे।


इसका मिलना भी क्या मिलना।।


 


जो मिलकर भी होत संसरित ।


उसका मिलना या ना मिलना।।


 


अंतिम शीर्ष ब्रह्म की दुनिया।


बनकर भक्त विचरते रहना।।


 


डॉ. रामबली मिश्र हरिहरपुरी


9838453801


संजय जैन

एक आस


 


न खुशी की कोई लहर, 


हमे आगे दिखती है।


जीवन और मृत्यु का डर, 


अब हमें नहीं लगता है।


बस एक आस दिल में,


सदा में रखता हूँ।


अकाल मृत्यु मेरी,


इस काल में न हो।।


 


न कर पाते क्रिया कर्म,


न बेटा निभा पता धर्म।


अनाथो की तरह से,


किया जाता अंतिम क्रियाकर्म।


न मुझको चैन मिलेगा,


न परिवारवालो को शांति।


मुक्ति पाई भी तो,


बिना लोगो के कंधों से।।


 


किये होंगे पूर्वभव में,


कुछ हमने बुरे कर्म।


तभी इस तरह से,


हमनें मिली है मुक्ति।


इसलिए मैं कहता हूँ,


करो अच्छे कर्म तुम।


और सार्थक जीवन जीकर,


पाओ अपनी मुक्ति को।।


 


जय जिनेन्द्र देव


संजय जैन (मुम्बई)


सुनीता असीम

हसीना खूब लगती है संवर कर।


वही आती नज़र देखो जिधर कर।


***


चले गजगामिनी बनकर कभी वो।


दिखे है हुस्न उसका उफ़ निखर कर।


***


सभी भंवरे बने रसपान करते।


गुलाबों सी महकती कुछ चटक कर। 


***


चरागे इश्क से जलता बदन फिर।


दिवाने कह रहे इक तो नज़र कर।


***


जो लहराए कभी आंचल वो अपना।


गिरे फिर आशिकों के दिल बिखर कर।


***


सुनीता असीम


काव्य रंगोली आज के सम्मानित रचनाकार स्वर्ण ज्योति पॉण्डिचेरी

नाम –स्वर्ण ज्योति 


शिक्ष - एम ए अर्थ शास्त्र और एम ए हिंदी साहित्य


डिप्लोमा इन सृजनात्मक लेखन, रेडियो लेखन 


मातृ भाषा – कन्नड़ 


• मैं स्वर्ण ज्योति पॉण्ड़िचेरी से अपना परिचय प्रेषित कर रही हूं 


• मेरी मातृ भाषा कन्नड़ है लेकिन मैं हिंदी में कार्य करती हूं ।


• किसी सरकारी संस्था या शिक्षण संस्था से नहीं जुड़ी हूं केवल हिंदी से जुड़ी हूँ । 


• पिछले 25-28 वर्षों से पॉण्डिचेरी में हिंदी के प्रचार-प्रसार में कार्यरत हूँ।  


• जब आम जनता से हिंदी जुड़ेगी तभी हिंदी देश की भाषा बन सकेगी ऐसा मेरा विश्वास है । 


• हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए मुझे पॉण्ड़िचेरी के उप राज्यपाल ड़ॉ किरण बेदी से दो बार सम्मानित होने का गौरव प्रप्त हुआ है । 


• इसी संदर्भ में उत्तर प्रदेश के कला एवं सांस्कृतिक मंत्री से भी सम्मान प्रप्त हुआ है ।


• भारत उत्थान न्यास के द्वारा " उत्तर और दक्षिण के मध्य सेतु" की उपाधि से नवाजा गया है ।


• हिंदी के प्रचार-प्रसार हेतु लगभग 20 से भी अधिक सम्मानों से सम्मानित किया गया है ।


• साथ ही कर्नाटक के कई संस्थाओं के द्वारा कन्नड़ भाषा में श्रेष्ठ कार्य के लिए सम्मनित किया गया है ।


• कर्नाटक के राज्यपाल जी के द्वारा , आठवीं सदी में लिखित एक अंक काव्य जिसका मैंने हिंदी में अनुवाद किया , के लिए सम्मानित हुई। 


• मेरी स्वरचित तीन पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी है जिनमें दो काव्य संग्रह एवं एक कहानी संग्रह है । 


• एक उपन्यास प्रकाशाधीन है


• इसके साथ ही विभिन्न विषयों पर लगभग आठ अनुदित पुस्तके प्रकाशित हो चुकी हैं । 


• मृदुला सिन्हा द्वारा लिखित परितप्त लंकेशवरी का कन्नड़ में अनुवाद किया जो बहुत चर्चित रहा ।


• साथ ही देश भर की अनेक संस्थाओं में एवं राष्ट्रीय एवं अंतर र्राष्ट्रीय संगोष्ठियों में मुख्य वक्ता के रूप में पॉण्ड़िचेरी का प्रतिनिधित्व किया।


• आगरा एवं वृंदावन में हुई अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी में मेरा व्यक्तव्य बहुत चर्चित रहा हुई जिसे फेसबुक एवं अनेक स्थानीय टी.वी. चैनलों से प्रसारित भी किया गया। 


• साहित्य के साथ –साथ मेरा रुझान समाज सेवा की ओर भी रहा है । इसी संदर्भ में मैं एक वृद्धाश्रम में तथा अंधाश्रम में स्वयं सेवी के रूप में कार्य करती हूँ। 


• साथ ही बेंगलुरु में आर्थिक रूप से पिछड़े परिवारों के बच्चों के लिए एक निःशुल्क विद्यालय भी चलाती हूँ। 


• इस प्रकार हिंदी, कन्नड़ और तमिल के बीच में तालमेल करते हुए मैं अपनी साहित्यिक यात्रा में निरंतर आगे बढ़ रही हूँ। 


 


 


 


Swarna jyothi 


#30, 1st floor, 1st cross


Brindawan


Saram post


Pondicherry


605613


 


आज के सम्मानित रचनाकार कौलम हेतु 


 


 


 


1. साजन का दीदार


 


 


बैचेन हो जाती हूँ बार बार


याद आता है जब तेरा प्यार


प्यारे प्यारे सब यादों के तार


पल भर में हो जाते हैं साकार


 


जब मैं रूठूं तुम करते मनुहार


कितना सुख मिलता प्रिय भरतार


अब न कर सकूँ स्वागत न सत्कार


कि तुम मथुरा मैं रह गई उस पार


 


पा न सकहुँ तेरा कोई समाचार


विरह वेदना की पड़ी है बड़ी मार


मिल आती गर मिलते पंख उधार


कर आती सखी साजन का दीदार


 


स्वर्ण जयोति


 


 


 


2. साँचा बंधन 


 


 


सतवर्णी रंगों से सज कर 


जब प्रियतम तेरी प्रीत खिले


 


राग अनुराग भाव अनुभाव 


सब जीवन ज्योति को मिले...


 


अधखुले नयन मद से भरे 


लरजते अधर रस से भरे


गोल कपोल लाल लाज भरे


हुलस के हिय हिलोर करे


 


न पंडित न वेदी न फेरे 


मंत्र न सिंदूर भाल मेरे 


बांधा साँचा बंधन तुझ्से


सजन वचन भी न चाहूं तेरे


 


देह का रखूं न मान


मन- सम्मिलन को दिया मान 


तुझमे ही समा जाऊंगी 


चाहे रहे या जाए प्राण 


 


 


स्वर्ण ज्योति


 


 


 


3. हम होंगे 


 


अक्षरों और शब्दों से बने वाक्य होंगे


बोलों और धुनों से सजे गीत होंगे


तेरे-मेरे बीच बंधे सब बन्धन


समय के पन्नों पर अंकित होंगे


 


हर तरफ खूबसूरत फ़िज़ा होगी


दिल के साज़ पर गूंजती सदा होगी


तेरे-मेरे प्यार का चाहे जो हो अंजाम


मोहब्बत की दास्तां हमेशा जवां होगी


 


तुझसे बिछड़ जाऊं इसका ग़म तो होगा


पर मेरे बाद मेरी वफाओं का संग होगा


तेरी मुस्कुराहट का वही गज़ब ढंग होगा


कि मेरे प्यार का उसमें घुला गहरा रंग होगा


 


ज़मी से फ़लक तक तेरा नाम होगा


मेरी भी यादों का पैग़ाम होगा


जाने वो कैसा मुक़ाम होगा


जब ज़मी पर फिर आशियाँ न होगा 


 


कि तेरे-मेरे बीच बंधे सब बन्धन


समय के पन्नों पर अंकित होंगे


 


 



दयानन्द त्रिपाठी

जिस धरा पर जन्म लिया 


उसका कर्ज चुकाना बाकी है


मृत्यु वरण से पहले ही 


कुछ तथ्य बताना बाकी है।


 


चुपचाप देख रहे हैं हम सब


मानव बनना बाकी है


फूलों के पहरों पर देखो


सांपों की पहरेदारी है।


 


विश्वास ठगा जा रहा जहां


रिश्ते की दिवारों में


निस्सीम प्रेम की प्रासंगिकता


अब जीवन पर भारी है।


 


सम्बंध बड़े तो होते हैं


पर दु:ख में साथ निभाते तो


दु:ख में साथ नहीं है तो


ऐसे सम्बंध तोड़ना बाकी है।


 


तेईस सितंबर 1908 को जन्में थे जो


राष्ट्रकवि दिनकर सा चमक गये


साहित्य पद्यभूषण ज्ञानपीठ पुरस्कार ले


वीररस के हुंकारों से रश्मिरथी सा दमक गये।



 -दयानन्द त्रिपाठी 


महराजगंज उत्तर प्रदेश।


डॉ. रामबली मिश्र

समदर्शिता


सुंदर मन -मानव समदर्शन ।


सबके प्रति हार्दिक आकर्षण।।


 


कोई नहीं पराया होता।


हर कोई अपनाया होता।।


 


मन में सबके प्रति संवेदन।


सुरभित आग्रह और निवेदन।।


 


सदा कुशलता की अति चाहत।


करता नहीं किसी को आहत।।


 


भाग्यमान अति परम दयालू।


नहीं किसी के प्रति ईर्ष्यालू।।


 


सबके प्रति समता अति ममता।


सकल चराचर के प्रति नमता।।


 


विनम्रता वैभव अनुकूला।


नहीं यहाँ कुछ भी प्रतिकूला।।


 


ऊँच-नीच का भेद नहीं है।


शोक-कष्ट-दुःख-खेद नहीं है।


 


समतामूलक ज्ञान संपदा।


नहीं किसी प्रकार की विपदा।।


 


समतल में विश्वास अलौकिक।


सदा घृणित है काम अनैतिक।।


 


नैतिक-मानवता का पोषण।


न्याय पंथ का शुभ उद्घोषण ।।


 


वैरागी आदर्श महातम ।


सत्यप्रकाशित मिटत गहन तम।।


 


सदानंद संतुष्ट सदा प्रिय।


आत्मतोषमय परम दिव्य हिय।।


 


इच्छारहित समादृत सममय।


निष्कामी शिवगेहदेहमय।।


 


समदर्शिता सहज परिभाषित।


हो जिसपर यह जग आधारित।।


 


सबमें पावन भाव जगे बस।


समत्वयोगी ज्ञान पगे बस।।


 


डॉ. रामबली मिश्र हरिहरपुरी


9838453801


शिवेन्द्र मिश्र शिव

उन्नीस सौ सन आठ में, जन्म 'सिमरिया' ग्राम।


'दिनकर' के माता-पिता, 'रूप' 'रवि सिंह' नाम।।


 


'कुरुक्षेत्र', व 'रश्मिरथी', 'रसवन्ती', हुंकार।


'धूप-छाँह' अरु उर्वशी, 'दिल्ली' हाहाकार।।


 


'नील-कुसुम','संचीयता', 'चक्रवाल','प्रणभंग'।


'दिनकर जी के गीत' में, 'नये सुभाषित' रंग।।


 


'शिव' "आँसू इतिहास के", अरु "आत्मा की आँख"।


हो "दिनकर की सूक्तियाँ" काव्य सृजन की शाख।।


 


संस्कृति के अध्याय हो, या रेती के फूल।


दिनकर की रचना सभी, रहीं समय अनुकूल।।


 


'कवि-श्री', 'बापू', 'रेणुका', 'हारे को हरिनाम'।


'वट-पीपल', 'चेतन-शिला', 'प्रतीक्षा-परशुराम'।।


 


शिवेन्द्र मिश्र शिव


कालिका प्रसाद सेमवाल

जाग भी जाओ


****************


भोर हुई है जाग भी जाओ।


कर्म राह मिल कदम बढ़ाओ।


 


पंछी नव धुन गीत गा रहे।


उप वन स्वर तंरग छाय रहे।


तरुवर उतरी स्वर्ण रश्मियाँ,स्वागत मंगल साज सजाओ।


भोर हुई....।


 


मस्ती में बह रही मंद पवन ।


भौंरे भी करते हैं गुन गुन।


विधि ने रच दी सुन्दर काया,


दिनकर पूजन थाल सजाओ।


भोर हुई....


 


हरियाली उपवन में छाई।


खिले फूल कलियाँ मुस्काई।


मस्त प्रसूनन की खूशबू से,


दिशा सभी अब तुम महकाओ।


भोर हुई....।


 


 


किसलय झूल रहे डालों पर।


वसुधा हरषी सुधा बिंदु धर।


कठिन परिश्रम के बल पर तुम, 


धरती पर मिल स्वर्ग बनाओ।


भोर हुई....।


*********************


कालिका प्रसाद सेमवाल


मानस सदन अपर बाजार


रुद्रप्रयाग उत्तराखंड


संदीप कुमार विश्नोई रुद्र

रामधारी सिंह दिनकर जी की जयंती पर कुछ पंक्तियां


 


वीर रस के महान , कवियों में नाम आए , 


रामधारी दिनकर , लिखते तमाम है। 


 


रेणुका , हुँकार लिखी , रसवंती , द्वन्द्वगीत , 


कुरुक्षेत्र काव्य लिख , किया बड़ा काम है। 


 


सामधेनी , इतिहास , पढ़ो धूप और धुँआ , 


रश्मिरथी का कुसुम , दिल्ली का पैगाम है। 


 


उर्वशी , परशुराम , आत्मा की आँखे कहती , 


कोयले की कविता से , हारे हरिनाम है। 


 


नीम के पत्ते चुराए , वटपीपल पे खाए , 


सीपी और शंख बाद , संस्कृति अध्याय है। 


 


हाहाकार रचना भी , इनकी है मेरे भाई , 


राष्ट्रीय जागरण का , अनल कविराय है। 


 


उर्वशी पे ज्ञानपीठ , इनको मिला है देखो , 


साहित्य अकादमी भी , दिया गुण गाय है। 


 


संदीप कुमार विश्नोई रुद्र


गाँव दुतारांवाली तह0 अबोहर जिला फाजिल्का


पंजाब


सुनीता असीम

जो जैसा भी बोऐंगे।


फसलें वैसी काटेंगे।


***


बिगड़ेंगे सब बच्चे वो।


बाप जिन्हें बस डांटेगे।


***


दोस्त बड़े गहरे सुख दुख।


मिलकर दोनों उट्ठेंगे।


***


बिन सोचे मत कुछ कहना ।


सोच समझकर बोलेंगे।


***


इक दिन ऐसा आएगा।


लोग हमें भी समझेंगे।


***


अपने मन में जो आया।


खोल जुबां को कह देंगे।


***


बीते दिन भी रह रहके।


खूब सभी को सालेंगे।


***


सुनीता असीम


कोरोना की आत्मकथा अर्चना शुक्ला


जब मैं भारत आया तो मेरा यहाँ भारतीय संस्कारों के साथ बहुत स्वागत हुआ | जब भी मैं किसी के घर जाकर किसी सदस्य को अपने गिरफ्त में ले लेता तो बाकायदा मेरी अगवानी के लिए पूरी गाड़ी आती साथ में श्वेत वस्त्रों से सजे चार पांच लोग होते | मुझे अच्छे से अच्छे हस्पताल में ले जाया जाता| हस्पताल का पूरा स्टाफ मिलकर नाचता और मेरा मनोरंजन किया जाता| मेरे ऊपर कई गाने भी बनाये गये | मेरे ऊपर साक्षात्कार लिए गये | मेरे आगमन की ख़ुशी में देश भर में दीवाली के उत्सव जैसा माहोल हो गया था | थालियाँ बजाई गयीं ,दीपक जलाये गये | घर घर में पकवान बन रहे थे | नयी नयी गतिविधियाँ चल रहीं थी| मैं अपनेआप पर फूला नहीं समा रहा था | बहुत खुश था मैं भारत आकर |


जब लोग हस्पताल से वापस जाते तो उनका स्वागत फूलों और तालियों से होता मैं तो अपनी प्रसिद्धि पर इतरा रहा था | पूरा घर अब साथ मिलकर रहता था | आपस में सुख दुःख बंटने लगे थे |नदियाँ ,नाले ,हवा सब कुछ स्वक्ष हो गये थे | लोग अपने पुराने संस्कारो में वापस आ गये थे | कुछ लोग तो मेरी तारीफ़ भी कर रहे थे की मेरे आने से उनकी जिन्दगी में बदलाव आया है| कुछ लोगों ने तकनीकी कुशलता भी हांसिल कर ली थी| कुछ का कहना था की मेरी वजह से वो दो पल परिवार के साथ चैन से बैठ पा रहे हैं | घर घर सा लगता है ,बच्चे भी आकर अब साथ बैठते थे| 


पर धीरे धीरे सब कुछ बदलने लगा है | अब मुझे पहले जैसी इज्ज़त नहीं मिलती| जिस घर में जाओ लोग मुंह बनाए लगते हैं | बाहर वालों को तो छोड़ दो घर वाले ही परायों जैसा व्यवहार करने लगते हैं | मुझे अलग थलग दल दिया जाता है | हस्पताल वाले जो पहले मेरे आगमन की सूचना सुनते ही अगवानी के लिए दोड़े- दोड़े आते थे ,मेरा अतिथि जैसा सम्मान किया जाता था ,अब मैं खुद 


जाता हूँ तो भी लम्बी लम्बी लाइनों मैं लगना पड़ता है| इधर से उधर सिफारिश लगाकर फोन मिलाओ तो वो पहले तो फ़ोन उठाते ही नहीं है, अगर भूल से उठा भी लिया तो कहते हैं घर मैं ही पड़े रहो ,अगर सांसे ऊपर नीचे होने लगें तब फ़ोन करना 


अब आप ही बताइए पहले मैं दूल्हे के जीजा की तरह इतराया इतराया घूमता था और अब मेरी इज्ज़त धोबी के कुत्ते जैसी हो गयी है | 


नौबत तो यहाँ तक पहुँच गयी है की लोग मेरे सामने ही बोल देते हैं, पता नहीं ये बवाल कब जायेगा| मिष्ठान तो छोड़िये साहब ये लोग तो मुझे काढ़ा पिला पिलाकर मारना चाहते हैं| दिनरात कोसते रहते हैं |कई लोग तो मेरे साथ -साथ मैं जिस देश से आया हूँ उसको भी भला बुरा कहते हैं| ये बेईज्जती मैं कब तक बर्दाश्त करूँ | मेरी तो कोई बात नहीं अपने देश का अपमान कैसे सहन करूँ |अब थक चूका हूँ,इनलोगों के तिरस्कार से |सोच रहा हूँ अब वापस ही चला जाऊँ,जहाँ से आया था कम से कम वो मेरा अपना देश तो होगा | 


अर्चना शुक्ला


नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर

चाँद अब भी मुस्कुराता 


अपने अंदाज़ में चलता


जाता।।


 


चाँदनी संग निकालता ढलता


जाता।


चाँद को देखता हूँ याद आता


गुजरा हुआ ज़माना।।


 


जवाँ मोहब्बत की अगन 


चाँद ,चाँदनी की मोहब्बत का


दीदार बुझाता।।


 


एक दूजे की नज़रो से दिल में


उतरते ख्याब ,हकीकत


का चाँद नज़र आता।।


 


सर्द मौसम की गलन 


चाँद चाँदनी एक जिस्म


दो जान का आना सर्द की


बर्फ पिघलना इश्क गर्मी का


याराना।।


 


सावन का सुहाना मौसम ठंडी


हवा के झोंके बिखरी जुल्फे


चाँद से चेहरे का शर्माना।।


 


रिम झिम सावन की फुहारों में


भीगा बदन साँसों की गर्मी


चाँद का जमीं पर उतर जाना।।


 


सावन की घटाओं में 


चाँद का छुप जाना घाना


अँधेरा मोहब्बत के चाँद


का जहाँ में उजाला।।


 


वासंती बयारों की मादकता 


हाला प्याला पायल की


छम छम चाँद चाँदनी


का आना।।


 


मोहब्बत की गर्मी से जलता बदन साँसों धड़कन में अजीब सी हलचल।


जिस्म से टपकता पसीना मोती


जैसा चाँद की चांदनी में चाँद का


मुस्कुराराना।।


 


 जमीं पे आज भी हूँ 


अम्बर पर चाँद का नाज़ भी है।


जवां इश्क हुस्न का चाँद 


जाने कहाँ चला गया आता


नहीं दोबारा।।


 


तब चाँद जवां जज्बा जज्बात


चाँद अब यादों के तरानों में तड़पाता।।


 


आज भी इंताज़र जाने कब आएगी नादाँ ,कमसिन,


नाज़ुक ,भोली चाँद ।


आशिकी जिंदगी का जूनून 


आशिक की चाँद नाज़रांना।।


 


जिंदगी में मोहब्बत मकसद का


चाँद जिंदगी में मोहब्बत कशिश काश गुजरा अफसाना दिल दर्द चाँद का सफ़र सुहाना।।


 


नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर


काव्य रंगोली आज के सम्मानित रचनाकार श्रीकांत त्रिवेदी ,लखनऊ'  

श्रीकांत त्रिवेदी,


प्रबंधक(से.नि.)


भारतीय स्टेट बैंक,


स्थानीय प्रधान कार्यालय,


लखनऊ,


 


603, पार्क अल्टीमा


सीतापुर रोड,


लखनऊ,


जन्मस्थान महोली,सीतापुर,


कर्मभूमि, अयोध्या


 कविता ,गीत, ग़ज़ल, व्यंग्य,आदि विधाओं में स्वांत: सुखाय लेखन !


दक्षिणपंथी विचारधारा!


मो.7607778640


 


 


 


   


🙏मेरे आराध्य तुम ,तुमको मेरा नमन! 🙏


**********************************


तुम मेरी*आस्था,*


अर्चना के सुमन!


मेरा विश्वास तुम


तुमको मेरा नमन!!


            मेरे आराध्य तुम ,


            तुमको मेरा नमन!


तुम सिया, राम तुम,


राधिका ,कृष्ण तुम ,


गौरि शंकर तुम्हीं,


तुम रमा,विष्णु तुम,


     मेरे आराध्य तुम ,


    तुमको मेरा नमन!!


तुम धरा,तुम गगन!


नीर ,पावक, पवन!


हो तुम्हीं अग्नि भी,


तुमको मेरा नमन!!


     मेरा  संसार  तुम ,


     तुमको मेरा नमन!


सृष्टि भी हो तुम्हीं ,


हां,प्रलय भी तुम्हीं,


जन्म तुमने दिया,


मृत्यु भी हो तुम्हीं!


         मेरे  सर्वस्व  तुम,


        तुमको मेरा नमन!!


मेरे सुख तुमसे ही,


मेरे दुख में तुम्हीं ,


जो मिला है मुझे,


सबके दाता तुम्हीं!


     मेरा अस्तित्व तुम,


     तुमको मेरा नमन !!


सब तुम्हीं ने दिया,


क्या है मेरा किया,


तेरा अर्पण तुम्हें ,


मेरे मन का दिया!


     भाव सारे हो तुम, 


     तुमको मेरा नमन!!


तेरे चरणों में मैं,


मेरी सांसों में तुम,


मेरी आशा तुम्हीं,


मेरा विश्वास तुम !


       लो शरण में मुझे,


       तुमको मेरा नमन!! 


मेरा साधन तुम्हीं,


हो मेरे साध्य भी ,


मेरा अर्चन तुम्हीं,


मेरे आराध्य भी!


      मेरा हर कर्म तुम!


      तुमको मेरा नमन!!


जानता धर्म कुछ,


पर प्रवृत्ति नहीं ,


जानता पाप भी


पर निवृत्ति नहीं,


       मेरा हर मार्ग तुम,


       तुमको मेरा नमन!!


         


         मेरे आराध्य तुम ,


         तुमको मेरा नमन!!


 


 


 


********


कलम आज कुछ ऐसा लिख,


हल्दी घाटी जैसा लिख।


रक्त उबल ही जाए सबका,


अब अंगारों जैसा लिख।।


      कलम आज कुछ ऐसा लिख..


आज कारगिल विजय दिवस पर


सेना  के  इस  शौर्य   दिवस  पर,


रिपु दल दहल जाए जिसको सुन,


सिंह  गर्जना  जैसा   लिख ।।


      कलम आज कुछ ऐसा लिख..


याद कारगिल विजय दिवस कर,


अश्रु  पुष्प  से उन्हें  नमन  कर ,


अर्पण किए शीश जिस मां  पर,


वो  फिर  हंस  दे  वैसा लिख ।।


      कलम आज कुछ ऐसा लिख..


कायर शत्रु सदा से ही है,


घात करे पीछे से ही है ,


छिपता सदा जयद्रथ जैसा,


सूर्य ग्रहण के जैसा लिख।।


      कलम आज कुछ ऐसा लिख....


हाथों की मेहंदी थी रोई,


कंगन,बिछुआ,चूड़ी रोई,


बहुत हो चुका आर्तनाद अब,


दुश्मन बिलखे, ऐसा लिख ।।


      कलम आज कुछ ऐसा लिख....


नयनों में न देख मधुशाला ,


भूल अभी तू साकी ,प्याला।


अभी हलाहल ही पीना है,


शिव के तांडव जैसा लिख।।


      कलम आज कुछ ऐसा लिख..


अभी भूल तू गीत प्रणय के,


स्वर भी भूल विनय अनुनय के।


शत्रु खड़ा है सम्मुख तेरे,


प्रलय घटाओं जैसा लिख।।


      कलम आज कुछ ऐसा लिख..


आज सत्य की राह यही है,


जिएं देश हित चाह यही है।


मरना है तो मरें देश पर ,


शौर्य अमर हो ऐसा लिख।।


      कलम आज कुछ ऐसा लिख..


तू है उन ऋषियों का वंशज,


वज्र बना था जिनका अंशज।


याद अस्थियां कर दधीचि की,


वृत्तासुर वध जैसा लिख ।।


      कलम आज कुछ ऐसा लिख..


वंशी के स्वर को विराम दे,


अभी रास का भुला नाम दे,


आज महाभारत की बेला,


चक्र सुदर्शन जैसा  लिख।।


      कलम आज कुछ ऐसा लिख.


आज शब्द को बाण बना ले,


गीतों  का  तूणीर  बना  ले,


अपने स्वर को धनुष बनाकर,


लक्ष्य वेध के जैसा लिख।।


      कलम आज कुछ ऐसा लिख....


अक्षर अक्षर एक वज्र हो,


हर कवि जैसे एक शक्र हो,


नभ से विद्युत प्रलय आज हो,


अरि दल भस्म बने ऐसा लिख।।


      कलम आज कुछ ऐसा लिख....


 


           श्रीकांत त्रिवेदी


                  लखनऊ


          25 ,07, 2020


 


 


 


  🌸*पर्युषण पर्व* 🌸


नमन मेरा पर्युषण पर्व को,


जैन धर्म के महा पर्व को ,


आज तिलांजलि दे देनी है,


अपने मन में बसे गर्व को !


            नमन मेरा पर्युषण पर्व को,


तन से ,मन से और वचन से,


मेरे कर्म से, मेरे कथन से ,


अगर किसी ने पीड़ा पाई,


क्षमा याचना करूं सर्व को!


           नमन मेरा पर्युषण पर्व को,


मुझसे , जाने, अनजाने में, 


दुख किसी को मिल जाने में,


पाप हुए जो भी उन सबका,


प्रायश्चित इस परम पर्व को!


          नमन मेरा पर्युषण पर्व को,


भले किसी ने बुरा कहा हो,


खुद मैंने अन्याय  सहा हो ,


पर मन में प्रतिशोध न आए,


क्षमा कर सकूं महा गर्व को!


          नमन मेरा पर्युषण पर्व को,


          जैन धर्म  के महा पर्व को!!


 


श्रीकांत त्रिवेदी


लखनऊ


7697778640


 


 


         ****शिक्षक****       


मैं कच्ची मिट्टी जैसा था ,


जब मुझे एक आकार दिया,


या तो कोरा कागज सा था,


जिस पर हर  शब्द उभार दिया,


माँ मेरी पहली शिक्षक थी,


जिसने ही यह संसार दिया ! 


यह जीवन मुझे उधार दिया।।


 


पिता बाद में जाना हमने,


सब कुछ है वो माना हमने,


जीवन जीने की शिक्षा दी,


तब जग को पहचाना हमने,


इस जीवन का नैपुण्य दिया! 


फिर रण में मुझे उतार दिया!!


 


सदा ज्ञान की भिक्षा देकर , 


बहु आयामी  शिक्षा  देकर,


वंदन उन्हीं शिक्षकों का कर,


दे निज आशीषों का शुभ वर,


ये यश,वैभव सब दान दिया!


फिर जीवन पुष्प निखार दिया!


 


ज्ञान अभी तक रहा अधूरा,


मन व्याकुल ,कैसे हो पूरा ,


सच्चे गुरु की दीक्षा पाकर


मन पर रहे नियंत्रण पूरा,


तो प्रभु ने उपकार किया!


उस भवसागर से तार दिया!!


 


---


डॉ. रामबली मिश्र

मेरी अभिनव मधुशाला


 


ताकत का अहसास नहीं, पर अति ताकतवर है प्याला.,


सौरभ की अनुभूति नहीं, पर अतिशय सुरभित है हाला.,


जीने की परवाह नहीं, पर अति संजीदा साकी है.,


मधु-पयोधरी निष्कामी बहु, मेरी अभिनव मधुशाला ।


 


है सुहाग की पावन प्रतिमा, सा मेरा सुंदर प्याला.,,


अति आह्लादित प्रिया प्रमुदिता, मन- रंजक मेरी हाला.,


युवा अमर रस का दाता है, प्रेम प्रतिष्ठित युग साकी.,


चन्द्रमुखी मधुमय मृनयनी, प्रसन्न वदना मधुशाला।।


 


डॉ. रामबली मिश्र हरिहरपुरी


9838453801


संजय जैन

मन की पीड़ा


 


न कोई हमारा है


न हम किसी के।


यही सब कहता है


जमाना आज का।


इसलिए तो आज


सीमित है अपनो तक।


नहीं करते चिंता अब


किसी और की हम।।


 


पहले हम क्या थे


अब क्या बन गये।


जमाने ने हमें


कहा पहुंचा दिया।


और खो दी आत्मीयता


और दिल के रिश्ते।


तभी तो अपने घर


तक के हो गये।।


 


बना बनाया समाज


अब बिखर गया।


और आत्मीयता का


अब अंत हो गया।


बने थे जो भी रिश्ते


उनसे भी दूर हो गये।


और खुदकी पहचान


खुद ही भूल गए।।


 


जय जिनेन्द्र देव


संजय जैन (मुम्बई)


डॉ0 हरि नाथ मिश्र

तृतीय चरण (श्रीरामचरितबखान)-16


 


ई रहस्य लछिमन बिनु जाने।


सेवा करहिं प्रभू-सम्माने।।


   तब मरीच रावन सँग गयऊ।


   जेहि बन राम रहहिं सिय सँगऊ।।


भजत मरीच जाइ प्रभु-नामा।


मरि प्रभु-बान चलब सुर-धामा।।


    पहुँचि उहाँ तब रावन कहऊ।


    धरहु मरीच रूप जस चहऊ।।


धरि के कपट-कनक-मृग-रूपा।


इत-उत धावै रुचिर अनूपा।।


   मग लखि अस बिचित्र मृग सीता।


   कौतुक बस कह राम सभीता।।


आनहु प्रभु अस मृग कै चर्मा।


मृगछाला ऋषि-बसन सुधर्मा।।


     लखन सौंपि सीतहिं प्रभु रामा।


      करन चले पुनीत अस कामा।।


कारन समुझि राम तब उठहीं।


बान्हि जटा लइ तरकस-धनुहीं।।


     मग धावत कंचन मृग उत-इत।


    साधन लगे लछ्य लखि हरषित।।


सिव-सनकादि जिनहिं नहिं पावा।


 मृग के पाछे सो प्रभु धावा ।।


      जानि-बूझि मृग दूरि ले जावा।


       बूझहिं राम मरीचि-छलावा।।


लछ्य साधि प्रभु सर संधाना।


'लखन' बोलि मृग त्यागा प्राना।।


     मृत मृग धरि तब रूप मरीचा।


     प्रगटा कर जोरे सिर नीचा।।


दोहा-जग तारन प्रभु राम तब,समुझि दनुज कै प्रेम।


        तारे तेहिं भव-सिंधु तें, बिधिवत स्नेह-सनेम।।


        लखि प्रभु कै करतब विमल,सुर गन भए प्रसन्न।


        सुमन-बृष्टि करने लगे,देखि मरिचि सम्पन्न।।


                     डॉ0 हरि नाथ मिश्र


                        9919446372


डॉ0 हरि नाथ मिश्र

छठवाँ अध्याय (श्रीकृष्णचरितबखान)-9


 


प्रभु-पद-पंकज जे मन लागा।


जाके हृदय नाथ-अनुरागा।।


    पाई उहहि अवसि सतधामा।


    निसि-दिन भजन करत प्रभु-नामा।।


ब्रह्मा-संकर-बंदित चरना।


करहिं सुरच्छा जे वहिं सरना।।


   प्रभु निज चरनन्ह दाबि पूतना।


   पिए दूध तिसु जाइ न बरना।।


दियो परम गति ताहि अनूपा।


मिली सुगति जस मातुहिं रूपा।।


    बड़ भागी ऊ गउवहिं माता।


    जाकर स्तन पियो बिधाता।।


अमरपुरी-सुख ते सभ पहिहैं।


किसुनहिं-कृपा-अनुग्रह लहिहैं।।


     प्रभू-अनुग्रह होतै मिलई।


     मुक्ति 'केवल्य' जगत जे कहई।।


जे जे गोपिहिं औरउ गैया।


जाकर दुधय पिए कन्हैया।।


    जीवन-मरन-मुक्ति ते पाई।


    भव-सागर तुरतै तरि जाई।।


तिनहिं न होई भौतिक-तापा।


माया-मोह न आपा-धापा।।


    सुनहु परिच्छित मोरी बचना।


    मुनि सुकदेवहिं कह मधु रसना।।


भए सकल ब्रजबासी चकितै।


बालक कृष्न सुरच्छित लखतै।।


     निकसत धुवाँ सुगंधित तन कहँ।


     अचरज भवा तहाँ सभ जन कहँ।।


बाबा नंद छूइ सिर कृष्ना।


पुनि-पुनि सूँघि बिगत जनु तृष्ना।।


     होंहिं अनंदित अपरम्पारा।


     धारे किसुनहिं निज अकवारा।।


दोहा-एक बेरि ब्रह्मा हरे,सकलइ ग्वाल व बच्छ।


        बछवा बनि तब कृष्न तहँ,दूध पिए गउ स्वच्छ।।


        सकल गऊ तब तें भईं,किसुनहिं जनु निज मातु।


       धन्य-धन्य लीला किसुन, बरनत जी न अघातु।।


                    डॉ0 हरि नाथ मिश्र


                       9919446372


नूतन लाल साहू

बेटी


दुनिया के विधि को


विधि ने बनाई है


दो कुलो की मान बढ़ाने वाली


बेटी,क्यों पराई होती हैं


बेटी ही, मां सरस्वती


बेटी ही, मां लक्ष्मी हैं


बेटी ही, मां नव दुर्गा है


फिर भी,राज दरबार में थिरकने वाली


बेटी ही,क्यों होती हैं


दो कूलो की मान बढ़ाने वाली


बेटी,क्यों पराई होती हैं


बेटी ही,संगी जौहरिया


बेटी ही,वंश बढ़ाती हैं


बेटी ही बनाती हैं,भोजन


भोजन में आंनद होता है


फिर भी बेटी


नर की अबला,क्यों होती हैं


दो कूलो की मान बढ़ाने वाली


बेटी, क्यों पराई होती हैं


लक्ष्मी बाई भी,बेटी थी


जो अंग्रेजो को ललकारी थी


इंदिरा गांधी भी,बेटी थी


जो भारत मां को संवारी थी


मां सीता भी बेटी थी


महाकाली भी बेटी थी


फिर भी बेटी से,खिलवाड़ क्यों होता है


दो कूलो की मान बढ़ाने वाली


बेटी,क्यों पराई होती हैं


जब दर्द देते हैं, बेटे


तब मरहम, लगाती हैं बेटियां


छोड़ जाते है, बेटे तो


काम आती हैं,बेटियां


आशा रहती हैं, बेटो से पर


पूर्ण करती हैं,बेटियां


फिर भी क्यों,कन्या भ्रूण हत्या हो रही हैं


दो कूलो की मान बढ़ाने वाली


बेटी,क्यों पराई होती हैं


नूतन लाल साहू


कालिका प्रसाद सेमवाल

मां सरस्वती


**********


हे मां सरस्वती,


तू प्रज्ञामयी मां


चित्त में शुचिता भरो,


कर्म में सत्कर्म दो


बुद्धि में विवेक दो


व्यवहार में नम्रता दो।


 


हे मां सरस्वती


हम तिमिर से घिर रहे,


तुम हमें प्रकाश दो


भाव में अभिव्यक्ति दो


मां तुम विकास दो हमें।


 


हे मां सरस्वती


विनम्रता का दान दो


विचार में पवित्रता दो


व्यवहार में माधुर्य दो


मां हमें स्वाभिमान का दान दो।


 


हे मां सरस्वती


लेखनी में धार दो


चित्त में शुचिता भरो,


योग्य पुत्र बन सकें


ऐसा हमको वरदान दो।।


*****************


कालिका प्रसाद सेमवाल


मानस सदन अपर बाजार


रुद्रप्रयाग उत्तराखंड


पिनकोड 246171


सुनील कुमार गुप्ता

स्वार्थ संग जीवन में खेला


 


छट जाये अंधेरे जीवन के,


ऐसा हो भोर का उजाला।


छाये न कोई गम की बदली,


जीवन हो ख़ुशियों का मेला।।


आशाओं के अम्बर में साथी,


सुनहरे पलो संग खेला।


यथार्थ धरातल पर साथी फिर,


क्यों-जीवन में रहा अकेला?


संग-संग चले जीवन पथ पर,


कैसे-रहा साथी अकेला?


मैं-ही-मैं बसा तन-मन साथी,


स्वार्थ संग जीवन में खेला।।


 


सुनील कुमार गुप्ता


Featured Post

दयानन्द त्रिपाठी निराला

पहले मन के रावण को मारो....... भले  राम  ने  विजय   है  पायी,  तथाकथित रावण से पहले मन के रावण को मारो।। घूम  रहे  हैं  पात्र  सभी   अब, लगे...