नूतन लाल साहू

वर्षा ऋतु प्यारी


 


न तो छियालिस डिग्री गर्मी


न तो कपकपाती ठंड


वर्षा ऋतु, सबसे प्यारा लगता है


काला बादल,छलके सागर


झमाझम बरसता है,पानी


झुम झुम कर,मोरनी नांचे


कोयली गीत सुनाती हैं


न तो छियालिस डिग्री गर्मी


न तो कपकपाती ठंड


वर्षा ऋतु, सबसे प्यारा लगता है


जब छलकता है, नरवा नदिया


तब लहराता है, गंगा मैया


पुरवाही चलती है,प्यारी प्यारी


हरियर हरियर धरती माता,सुंदर लगती हैं


न तो छियालिस डिग्री गर्मी


न तो कपकपाती ठंड


वर्षा ऋतु, सबसे प्यारा लगता है


हरा हरा श्रृंगार कर,धरती मां


सबके मन को,हर्षाती है


जब कड़कती है बिजली,तब बादल गरजता है


बरसते हुए पानी में,मौसम सुहाना लगता हैं


न तो छियालिस डिग्री गर्मी


न तो कपकपाती ठंड


वर्षा ऋतु, सबसे प्यारा लगता है


प्रफुल्लित होती हैं,तितलियां


भौरे गुनगुनाता है


पेड़ पौधे,हर्षाती है


कलिया, फुल बन मुस्कुराता है


न तो छियालिस डिग्री गर्मी


न तो कपकपाती ठंड


वर्षा ऋतु, सबसे प्यारा लगता है


नूतन लाल साहू


सुनील कुमार गुप्ता

क्यों-न ढूंढे सुख अपना?


 


देखा था एक सुंदर सपना,


सच होता न होता अपना।


चाहत के रंगो संग फिर,


कब-होता वो साथी अपना?


सपनो की शहजादी बन कर,


जो छलती वो जीवन सपना।


मिल कर बिछुड़ने को फिर,


क्यों-हरती सुख अपना?


सुख की चाहत संग जग में,


कभी बीता न एक पल अपना।


सपने तो सपने साथी फिर,


क्यों-न ढूंढे सुख अपना?


 


सुनील कुमार गुप्ता


कालिका प्रसाद सेमवाल

मां शारदे


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हे मां शारदे


रोशनी दे ज्ञान की,


तू तो ज्ञान का भंडार है


हाथों में वीणा पुस्तक ,


 हंस वाहनी ,कमल धारणी


ओ ममतामयी मां शारदे।


 


इतनी कृपा मुझ पर करना


मैं सदाचारी बनूं,


सत्य पथ पर ही चलूं


हृदय में दया भाव रहे,


मुस्किलों में भी न घबराओ


सुमति मुझे दे दो 


राष्ट्र प्रेम भाव हृदय में रहे,


हे मां शारदे।


 


दूर कर अज्ञानता


उर में दया का वास हो


ज्योति से भर दे वसुंधरा


यही मेरी नित्य प्रार्थाना


यही मेरी कामना


हे मां शारदे।


 


करुणा का दान दे मां


सत्य मार्ग पर मैं चलता रहू


यही मेरी वंदना,


हे मां मुझे रोशनी दे ज्ञान दे


विद्या विनय का दान दें


हे मां शारदे 


हे मां शारदे।।


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कालिका प्रसाद सेमवाल


          मानस सदन अपर बाजार


             रूद्रप्रयाग उत्तराखंड


                  246171


डॉ0 हरि नाथ मिश्र

तृतीय चरण (श्रीरामचरितबखान)-19


 


होंहिं बिकल सुनि सीता-बानी।


जड़-चेतन सभ जग कै प्रानी।।


    सुनि सीता कै आरत बचना।


    गीधराज कै रह अस कहना।।


तुम्ह सीते मत होहु भयातुर।


कहा जटायू हम बध आतुर।।


    आइ तुरत रावन-बध करहूँ।


    करि सेवा मैं चाहहुँ तरहूँ।।


रावन-रथ सिय लागहिं ऐसे।


बधिक-फाँस महँ चिरई जैसे।।


     की मैनाक कि खगपति होई।


     जानन चह लंकापति सोई।।


तब लखि उमिरि जटायू जाना।


रावन गीधराज पहिचाना।।


     जो चाहेसि निज हित दसकंधर।


      छाँड़ि सियहिं तुम्ह भागहु निज घर।।


नहिं त राम-तप-पावक तुमऊ।


निज कुल सहित सलभ इव जरऊ।।


     गीध-बचन अस सुनि तब रावन।


     भगा सभीत हाँकि रथ वहिं छन।।


उड़ि-उड़ि गीध सबल निज चोंचहि।


करि प्रहार रावन बपु नोचहि।।


    गहि रावन-लट चोंच घसीटा।


    धम भुइँ गिरा दसानन पीटा।।


तब लंकेस निकारि कटारा।


कतरि जटायू-पंखहिं डारा।।


दोहा-भूईं जटायू तहँ परा, राखि न मन महँ रोष।


         रघुपति-काजु सहाइ बनि, परम मुदित हिय तोष।।


                            डॉ0 हरि नाथ मिश्र


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सातवाँ अध्याय (श्रीकृष्णचरितबखान)-2


पुनि उठाइ क गोद कन्हैया।


स्तन-पान करवनी मैया।।


    मिलि सभ गोप उठाइ क लढ़िया।


    सीधा करि क दीन्ह वहिं ठढ़िया।।


दधि-अछत अरु कुस-जल लइ के।


लढ़िया पूजे पुनि सभ मिलि के।।


    इरिषा-हिंसा-दंभ बिहीना।


    सत्यसील द्विज आसिष दीना।।


बाल कृष्न कै भे अभिषेका।


पढ़ि-पढ़ि बेद क मंत्र अनेका।।


    पाठ 'स्वस्त्ययन' अरु 'हवनादी'।


    नंद कराइ लीन्ह परसादी।।


बिधिवत ब्रह्मन-भोज करावा।


गऊ-दच्छिना-दान दिलावा।।


     कंचन-भूषन-सज्जित गैया।


     द्विजहिं दान दिय बाबा-मैया।।


एक बेरि जब मातु जसोदा।


लइके किसुनहिं आपुन गोदा।।


     रहीं दुलारत हिय भरि नेहा।


     कृष्न-भार तहँ भारी देहा।।


सहि नहिं सकीं कृष्न कै भारा।


तुरत कृष्न कहँ भूइँ उतारा।।


     लगीं करन सुमिरन भगवाना।


     लीला बाल कृष्न जनु जाना।।


रहा दनुज इक कंसहिं दासा।


त्रिनावर्त तिसु नाम उदासा।।


     आया गोकुल होइ बवंडर।


     किसुनहिं लइ नभ उड़ा भयंकर।।


बहु-बहु धूरि उड़ाइ अकासा।


ब्रजहिं ढाँकि जन किया हतासा।।


    उठत बवंडर गर्जन घोरा।


    रजकन-तम पसरा चहुँ-ओरा।।


सब जन बेसुध अरु उदबिगना।


इत-उत भागहिं लउके किछु ना।।


दोहा-घटना अद्भुत घटत लखि,बाबा नंद बिचार।


         सत्य कथन बसुदेव कै, भयो मोंहि एतबार।।


                    डॉ0 हरि नाथ मिश्र


                     9919446372


विनय साग़र जायसवाल

पहुँच से दूर साहिल देखता हूँ


करीब-ऐ-मौत तिल-तिल देखता हूँ


 


नज़र जाती है जब भी आइने पर


मुक़ाबिल अपना क़ातिल देखता हूँ 


 


मुलाकातें बढ़ीं जब से यकायक


उसे मैं ख़ुद में शामिल देखता हूँ


 


निगाहें चीख उठती हैं उसी दम


अगर उल्फ़त में बिस्मिल देखता हूँ 


 


नज़र जिस सम्त भी जाती है अब तो


तेरी यादों की महफ़िल देखता हूँ


 


तेरे नक़्श-ऐ-क़दम की ही बदौलत 


निगाहों में मैं मंज़िल देखता हूँ


 


 उसे पूजा है जब से मैंने *साग़र* 


जहां से ख़ुद को ग़ाफ़िल देखता हूँ


 


 🖋️विनय साग़र जायसवाल


मधु शंखधर स्वतंत्र

राष्ट्रकवि दिनकर जी को समर्पित रचना


 


अद्भुत अनुपम लेखनी, दिनकर से विस्तार।


राष्ट्र कवि के रूप में, छवि बसती खुद्दार।


वीरों की गाथा कहे, कुरुक्षेत्र के रूप ,


खण्डकाव्य शोभित करे,अभिव्यक्ति आधार।।


 


ओजपूर्ण श्रृंगार भी, दोनों रूप समान।


कुरुक्षेत्र अरु उर्वशी, लेखन का प्रतिमान।


हिन्दी के साहित्य का,दिनकर बने प्रभात,


राष्ट्रकवि ये ओज के, भारत का सम्मान।।


 


गौरव गाथाएँ लिखे, लिखे प्रेम का रूप।


श्रंगारिक है छाँव तो, ओज लगे ज्यूँ धूप।


दिनकर सा साहित्य ही,सजा देश के भाल,


शब्द लेखनी है प्रबल, लेखन के हैं भूप।।


मधु शंखधर स्वतंत्र


एस के कपूर श्री हंस

धन नहीं रिश्तों


की पूंजी अनमोल होती है।


 


पैसा ही उनकी हर चाल


पैसे से उनकी हर बात है।


कुछ लोग हैं जिनके लिए


पैसा ही हर सौगात है।।


पैसे से ही आँकते हैं वह


हर आदमी की औकात।


पैसा ही मानो उनके लिए


जैसे हर जज्बात है।।


 


जानते नहीं सुंदर व्यक्तित्व


की पूंजी बेमोल अमूल्य है।


इंसानियत को पहचानो कि


कीमत इसकी अनमोल है।।


प्यार देने और बाँटने से ही


मिलती है प्रतिष्ठा और प्रेम।


देखेंगें बदले में प्यार इज़्ज़त


फिर मिलती निःमूल्य है।।


 


जान लो एक सच्चा रिश्ता


बहुत अनमोल होता है।


होता इसमें केवल निस्वार्थ


प्यार नहीं झोल होता है।।


जान लो प्यार कहीं किसी


बाजार में बिकता है नहीं।


यही सत्य है सच्चा रिश्ता


समय पर नहीं गोल होता है।।


 


सच्चे रिश्ते की कदर और


पहचान वक़्त पर होती है।


मित्रता की असली परीक्षा


समय सख्त पर होती है।।


अपनापन तो दिल से दिल


का अदृश्य होता है मिलन।


कहना गलत होगा कि रिश्तों


की डोर संबंधरक्त से होती है।।


 


एस के कपूर श्री हंस


बरेली।


डॉ0 निर्मला शर्मा

कोरोनाकाल में जीवन का स्वरूप


 कोरोना काल में बदल गया 


मानव जीवन का स्वरूप 


तीज त्योहार जन्म -मरण हो


 हर उत्सव का बदला रूप


 शादी -ब्याह की रौनक खो गई 


संस्कृति का बदला हर ढंग 


खुशी का अवसर या की गमी हो


 आज नहीं होता कोई संग


कोरोना के भय से सिमटा


 सारा जहाँ हमारा है


 हर कोई कहता दूर रहो भाई 


जीवन हमको प्यारा है 


भ्रमण ,तीर्थाटन ,मंदिर, मस्जिद


 सब पर पड़ गया ताला है 


आज याद आते वो दिन हैं 


जहाँ ये जीवन पला है।


 


डॉ0 निर्मला शर्मा


दौसा राजस्थान


नूतन लाल साहू

मां गायत्री की जय


 


अंतस के ज्योति ला जला दे मइया


दे दे सदबुद्धी के भंडार


घोर तप, नइ कर सकन अब


पाप ताप संताप ला मिटा दे


मन हे मितवा,मन हे दुश्मन


जीवन म घपटे, अंधियारी दिखत हे


सबके मन निर्मल हो


अइसन वरदान दे दे


हंसा में होके संवार,हाथ में कमंडल धर


आ जाओ गायत्री माता,हमर घर आंगन


ब्रम्हा विष्णु महेश तीनों देवता


गाईन तोरेच महिमा


वेद मंत्र,सन्मार्ग के हे दुआर


ज्ञान कर्म अउ भक्ति जगा दे


तोर मंत्र म, अडबड़ शक्ति समाये हे


वशिष्ठ गुरु हा,ब्रह्मर्षि बनगे


हमर जिनगी हा,जाहरा होगे हे


अंधियारी परगे हे,आंखी मा


मर मर के हमन, जियत हन


हांस हांस के जियन हम मन हा


अइसन किरपा, ते बरसा दे


हंसा में होके संवार, हाथ में कमंडल धर


आ जाओ गायत्री माता, हमर घर आंगन


मैंहा बड़े हो कहिके, मनखे काटत हे


मनखे के गोड


अइसन कलजुग ह, खरागे हे


सुख दुःख प्रेम मया के गोठ


दिनोदिन नदावत हवय


माता तोर चरण मनावव


दुख पीरा गोहरावत हव


सप्त ऋषि के प्राण बिराजे


माता तोर मंदिर में


करो मंत्र जप,साधना मौन


भवसागर पार लगा दे


हंसा में होके संवार, हाथ में कमंडल धर


आ जाओ गायत्री माता, हमर घर आंगन


नूतन लाल साहू


संजय जैन

रूठ न जाये


इस बात का डर है,


वो कहीँ रूठ न जायेंI


नाजुक से है अरमान मेरे, 


कही टूट न जायें।।


 


फूलों से भी नाजुक है, 


उनके होठों की नरमी I


सूरज झुलस जाये, 


ऐसी सांसों की गरमी I


इस हुस्न की मस्ती को,  


कोई लूट न जाये I


इस बात का डर है,


वो कहीँ रूठ न जायें I।


 


चलते है तो नदियों की, 


अदा साथ लेके वो।


घर मेरा बहा देते है,


बस मुस्कुराके वो I


लहरों में कहीँ साथ,


मेरा छूट न जाये I


इस बात का डर है,


वो कहीँ रूठ न जायें I।


 


छतपे गये थे सुबह तो, 


दीदार कर लिया I


मिलने को कहा शामको, 


तो इनकार कर दिया I


ये सिलसिला भी फ़िरसे, 


कहीँ टूट न जाये।


इस बात का डर है,


वो कहीँ रूठ न जायें I।


 


क्या गारंटी है की फिरसे, 


कही वो रूठ न जाये।


मिलाने का बोल कर 


कही भूल न जाये।


हम बैठे रहे बाग़ में,


उनका इंतजार करके।


इस बात का डर है,


वो कहीँ रूठ न जायें I।


 


जय जिनेन्द्र देव 


संजय जैन (मुंबई )


कालिका प्रसाद सेमवाल

हे मां जगत कल्याणी


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हे मां शारदे


तुम्ही जगत कल्याणी हो


अज्ञानता से हमें तार दे


लेखनी में धार दे मां।


 


हे मां वीणा पुस्तक धारणी वरदे


हे ज्ञान दायिनी ज्ञान दे वर दे


तेरे चरणों में आज मैं पड़ा हूं


ज्ञान का उपहार दे मां।


 


हे मां शारदे 


तुम ही अज्ञानता का नाश करती हो


कण्ठ में बसो इतना उपकार कर दो


जन जन की वाणी को निर्मल कर दो।


 


हे मां सरस्वती


श्वेत साड़ी में तुम चमकती हो


हर लोक में तुम चमकती हो।


ज्ञान की देवी तुम्हें मैं प्रणाम करता हूं।


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कालिका प्रसाद सेमवाल


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लगता है कि तुम हो


 


सुबह सबेरे चिडिया जब चहकती है,


सूर्य की किरण धरती जब आती है,


वर्षा की फुहार जब पडती है


तब ऐसा लगता है कि तुम हो।


 


प्रातःकाल मन्दिर की घंटियाँ बजती है


श्रद्धालु जलाभिषेक करता है,


माथे पर पुजारी चन्दन का लेप लगता 


तब ऐसा लगता है कि तुम हो।


 


पर्वत से कोई झरना गिरता है


फूलों पर कोई भौरा गुनगुनाता है,


आसमान में इन्द्र धनुष जब दिखती है


तब ऐसा लगता है कि तुम हो।


 


सर्दियों में गुनगुनी धूप जब होती है,


खेतो में लहलहाती फसल होती है,


सावन में पपीहे की चहकती आवाज


तब ऐसा लगता है कि तुम हो।


 


पहाड़ो के तलहटी में दौडती नदी


देवदार के घने जंगलों के बीच,


पूनम की खिली चांदनी जब होती है


तब ऐसा लगता है कि तुम हो।


 


गौ धूलि के समय गाये आंगन में आती 


किसान अपनी फसलों को काटता है,


माली बाग में पौधों को पानी देता है


तब ऐसा लगता है कि तुम हो।


 


कालिका प्रसाद सेमवाल


 


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गुनगुना रहा हूं गीति के लिए


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न राग के लिए न रीति के लिए


कि दीप जल रहा अनीति के लिए।


 


न सांझ में सिमट सकी मधुर ये जिन्दगी,


न भोर में विहँस सकी निठुर ये जिन्दगी,


न कल्पना के कोर पर हँसा भोर का दीया,


न चाँदनी से बुझ सका चकोर का हिया,


 


न हार के लिए न जीत के लिए


कि चाँद चल रहा अतीत के लिए,


 


गर हँसो जो प्राण , तुम तो जिंदगी हँसे,


खिल सको जो प्राण, तुम तो जिंदगी लसे,


एक प्रीति के लिए अलभ्य रीतिका चलें,


एक भाव के लिए प्रगल्भ गीतियां ढलें।


 


न जीत के लिए न प्रीति के लिए


गुनगुना रहा हूँ गीति के लिए।


 


साँझ को समेट ले जब विरानगी निशा,


रात्रि को सहेज ले जब सुहागिनी उषा,


रश्मि नूपुरों से जब झनझना उठे धरा,


एक ही अपांग से मन करो हरा-भरा।


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कालिका प्रसाद सेमवाल


मानस सदन अपर बाजार


रुद्रप्रयाग उत्तराखंड


सुनील कुमार गुप्ता

     नव-रंग


"मिट जाती तन-मन की घुटन,


रह कर फिर अपनों के संग।


सोचता रहा मन पल-पल,


जीवन में छाये कुछ रंग।।


हरती उदासी तन-मन की,


ऐसा साथी होता संग।


छटती गम की बदली यहाँ,


जीवन में छाती उमंग।।


अंधेरे न हो जीवन में,


साथी जो चलते तुम संग।


भोर के उजाले में खिलते,


साथी जीवन के नव-रंग।।


 


 सुनील कुमार गुप्ता


राजेंद्र रायपुरी

हे गिरधारी, बंशीवाले,(२)


मुझको भी पहचानो,हे प्रभु,


मुझको भी पहचानो।


 


मैं हूॅ॑ तुम्हारी राधा जैसी, (२)


दूजा मत तुम जानो,हे प्रभु,


दूजा मत तुम जानो। 


 


निश दिन तेरे गुण मैं गाऊॅ॑। (२)


माखन -मिश्री भोग लगाऊॅ॑। (२)


हाथ जोड़ कर कहती हे प्रभु,(२)


खा लो, ज़िद मत ठानो।


 


मुझको भी पहचानो,हे प्रभु,


मुझको भी पहचानो।


 


नाचूॅ॑ मंदिर में मैं तेरे। (२)


मोहन हर दिन, शाम-सबेरे। (२)


लोक-लाज सब छोड़ दिया है,(२)


कहो न घूंघट तानो।


 


मुझको भी पहचानो,हे प्रभु,


मुझको भी पहचानो।


 


तुमको सब-कुछ मान लिया है।(२)


जग विरथा ये जान लिया है। (२)


निज़ चरनन में ही रहने दो,। (२)


जग बैरी है मानो।


 


मुझको भी पहचानो,हे प्रभु,


मुझको भी पहचानो।


 


हे गिरधारी, बंशी वाले।(२)


मुझको भी पहचानो,हे प्रभु,


मुझको भी पहचानो।


 


मैं हूॅ॑ तुम्हारी राधा जैसी। (२)


दूजा मत तुम जानो, हे प्रभु,


दूजा मत तुम जानो। 


 


       ।। राजेंद्र रायपुरी।।


डॉ. रामबली मिश्र

वाह, क्या खूब


 


वाह, क्या खूब।


कितना सुंदर नाम तुम्हारा।।


 


वाह, क्या खूब।


काम तुम्हारा अतिशय प्यारा।।


 


वाह, क्या खूब।


अति मनमोहक रूप तुम्हारा।


 


वाह, क्या खूब।


कविता-लेखन कितना न्यारा।।


 


वाह,क्या खूब।


कितनी अनुपम रचना तेरी।


 


वाह, क्या खूब।


कितनी मादक प्रीति घनेरी।।


 


वाह, क्या खूब।


मनमोहक विद्वान तुम्हीं हो।


 


वाह,क्या खूब।


मानव में भगवान तुम्हीं हो।।


 


वाह, क्या खूब।


महा तपस्वी बहुत निराला।।


 


वाह, क्या खूब।


तुम देते खुशियों का प्याला।।


 


वाह, क्या खूब।


घोर परिश्रम तुम करते हो।।


 


वाह, क्या खूब।


अति जाड़ा-गर्मी सहते हो।।


 


वाह, क्या खूब।


तुम इक सुंदर जीवन शैली।


 


वाह, क्या खूब।


तेरे कारण शुचिता फैली।।


 


वाह, क्या खूब।


तेरे कारण मानवता है।।


 


वाह, क्या खूब।


तेरे कारण मधुमयता है।।


 


वाह, क्या खूब।


तुम्हीं परस्पर प्रिति निभाते।।


 


वाह, क्या खूब।


सबको प्रियतम राह दिखाते।।


 


डॉ. रामबली मिश्र हरिहरपुरी


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जरा ठहर जाओ


 


जरा ठहर जाओ।


कुछ बात तो होने दो।।


 


जरा ठहर जाओ।


कुछ रात तो होने दो।।


 


जरा ठहर जाओ।


कुछ रात तो कटने दो।।


 


जरा ठहर जाओ।


कुछ राह तो चलने दो।।


 


जरा ठहर जाओ।


कुछ प्रेम से कहने दो।।


 


जरा ठहर जाओ।


कुछ प्रेम तो करने दो।।


 


जरा ठहर जाओ।


कुछ प्रेम से रहने दो।।


 


जरा ठहर जाओ।


न जाने कब मिलना हो।।


 


डॉ. रामबली मिश्र हरिहरपुरी


9838453801


डॉ0 हरि नाथ मिश्र

तृतीय चरण (श्रीरामचरितबखान)-18


 


कपटी-कुटिल-दुष्ट सम बानी।


सुनहु जती तव बचन सुहानी।।


     लछिमन-रेख लाँघि जब सीता।


     बाहर आईं कंप सभीता।।


तब रावन निज रूप देखावा।


कहि रावन निज नाम बतावा।।


    धरि धीरज तब सीता कहहीं।


     ठाढ़ि रहहु खल रघुबर अवहीं।।


जस कोउ ससक सेरनी चाहहि।


बिनु न्योते निज काल बोलावहि।।


    तस तव काल अवहि तव पाछे।


    असुभ होय तव नहिं कछु आछे।।


सुनि अस बाति क्रुद्ध दसकंधर।


मन महँ बंदि चरन सीता धर।।


    रथ बिठाइ सीतहिं अति आतुर।


    चला गगन-पथ हाँकि भयातुर।


सुमिरि नाम प्रभु बिलपहिं सीता।


जाहिं दुष्ट सँग दुखी- सभीता।।


      का कारन कि प्रभु नहिं आयो।


      परम कृपालु मोंहि बिसरायो।।


लछिमन तोर दोषु कछु नाहीं।


फल निज करम आजु मैं पाहीं।।


दोहा-बिलपत सिय रावन-रथहिं,नभ-पथ अस चलि जाँय।


        जस मलेछ सँग बिकल रह,परबस कपिला गाय ।।


                      डॉ0हरि नाथ मिश्र


                      9919446372


 


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सातवाँ अध्याय (श्रीकृष्णचरितबखान)-1


 


उतरहिं जगत बिबिध अवतारा।


लीला मधुर करहिं संसारा।।


    बिषय-बासना-तृष्ना भागै।


    सुमिरत नाम चेतना जागै।।


मोंहि बतावउ औरउ लीला।


कहे परिच्छित हे मुनि सीला।।


    सुनत परिच्छित कै अस बचना।


    कहन लगी लीला मुनि-रसना।।


एकबेरि सभ मिलि ब्रजबासी।


उत्सव रहे मनाइ उलासी।।


     करवट-बदल-कृष्न-अभिषेका।


     जनम-नखत अपि तरह अनेका।।


नाच-गान अरु उत्सव माहीं।


भवा कृष्न अभिषेक उछाहीं।।


      मंत्रोचार करत तहँ द्विजहीं।


      दिए असीष कृष्न कहँ सबहीं।।


ब्रह्मन-पूजन बिधिवत माता।


जसुमति किन्ह जस द्विजहिं सुहाता।।


    अन्न-बस्त्र-माला अरु गाई।


    दानहिं दीन्ह जसोदा माई।।


कृष्न लला कहँ तब नहलावा।


सयन हेतु तहँ पलँग सुलावा।।


     कछुक देरि पे किसुन कन्हाई।


     खोले लोचन लेत जम्हाई।।


लागे करन रुदन बहु जोरा।


स्तन-पान हेतु जसु-छोरा।।


     रह बहु ब्यस्त जसोदा मैया।


     सुनि नहिं पाईं रुदन कन्हैया।।


प्रभु रहँ सोवत छकड़ा नीचे।


रोवत-उछरत पाँव उलीचे।।


     छुवतै लाल-नरम पद प्रभु कै।


     भुइँ गिरि लढ़िया पड़ी उलटि कै।।


दूध-दही भरि मटका तापर।


टूटि-फाटि सभ गे छितराकर।।


     पहिया-धुरी व टूटा जूआ।


     निन्ह पाँव जब लढ़िया छूआ।।


करवट-बदल क उत्सव माहीं।


जसुमति-नंद-रोहिनी ताहीं।।


    गोपी-गोप सकल ब्रजबासी।


    कहन लगे सभ हियहिं हुलासी।।


अस कस भयो कि उलटी लढ़िया।


जनु कछु काम होय अब बढ़िया।।


    तहँ खेलत बालक सभ कहई।


    उछरत पाँव कृष्न अस करई।।


बालक-बाति न हो बिस्वासा।


भए मुक्त सभ कारन-आसा।।


सोरठा-होय ग्रहन कै कोप,अस बिचार करि जसुमती।


          लेइ द्विजहिं अरु गोप,पाठ कराईं सांति कै।।


                     डॉ0 हरि नाथ मिश्र


                      9919446372


सुनीता असीम

ख़ास रिश्ते कुछ बनाना और है।


पर उन्हें दिल से निभाना और है।


***


सामने सबके दया दिखला रहे।


दांत हाथी के दिखाना और है।


***


दिल दुखाना है बड़ा आसान सा।


ज़ख़्म पर मरहम लगाना और है।


***


अब सितारों में नहीं अपना जहां।


आज अपना आशियाना और है।


***


आज कच्ची डोर रिश्तों की हुई।


 हीर रांझा का फ़साना और है।


~~~~~~~~~~~~~~~~


दिलजलों का इक ठिकाना और था।


 घर कहीं अपना बसाना और था।


***


लुट गए थे आशिकी में दिल लगा।


पास आने का बहाना और था।


***


कह रहे हैं आज बच्चों से यही।


के रहा उनका जमाना और था।


***


इक खड़ी दीवार उनके बीच थी।


जात का बंधन पुराना और था।


***


उम्र के इस दौर में यादें बचीं।


वो रहा मौसम सुहाना और था।


***


सुनीता असीम


काव्य रंगोली आज के सम्मानित रचनाकार सुरेश लाल श्रीवास्तव

सुरेश लाल श्रीवास्तव 


     प्रधानाचार्य


राजकीय इण्टर कालेज


अकबरपुर-अम्बेडकर नगर


(उ०प्र०) 224122


मो०न०- 9415789969


WhatsApp no.- 9838866840


स्थायी पता:-


ग्राम-शिवपुर गयासपुर


पो० गयासपुर (किद्दौद्दा)


जिला-अम्बेडकर नगर


पिन कोड - 224155


 


जीवन का मुख्य उद्देश्य:-


 


 सामाजिक एवं मानवीय मूल्यों की सरोकारिता पर आधारित मेरी ये रचनाएं हैं।


गद्य एवं काव्य दोनों विधाओं के अतिरिक्त समाचार पत्रों में सम्पादकीय लेखन मेरे द्वारा किया जाता है।


 


 


--------ईश-वन्दना-------


 


 दया कर दयानिधि मुझे ये दुआ दो,


कि परहित में अपना जीवन लगा दूँ।


 


नहीं चाहिए मुझको दौलत-खज़ाना,


नहीं चाहिए बहु व्यंजन का खाना ।


रहे जीवन सादा विचारों में दम हो,


निर्धन की सेवा में जीवन निरत हो।।


 


दया कर दयानिधि-------


कि परहित में------------


 


करूँ जो कमाई निष्ठा लगन से,


औरों की सेवा में समर्पित हो मन से।


हो पापों से दूरी मन में खुशी हो,


सुकर्मों की इच्छा हमेशा प्रबल हो।।


 


दया कर दयानिधि----------


कि परहित में---------------


 


यही प्रार्थना है मेरे ईश तुमसे,


सकल जन धरा के रहें दूर गम से।


मिले गम मुझे तो नहीं कोई गम हो,


जीवन सफर चाहे जितना भी कम हो।।


 


दया कर दयानिधि--------------


कि परहित में -----------------------


 


मैं जब तक रहूं मेरी इच्छा है प्रभुवर,


धरा को सजाऊँ लगाके मैं तरुवर।


न जीने की चिंता न मरने का गम हो,


मगर कर्म नेकी का किंचिद न कम हो।।


 


दया कर दयानिधि----------------


कि परहित में--------------------


 


मुझे निसि व वासर रहे ध्यान तेरा,


अहम मेरे मन में लगाये न फेरा।


करूँ मातृ सेवा पिता में हृदय हो,


मनोकर्म मेरे पावन प्रबल हों।।


 


दया कर दयानिधि---------------


कि परहित में--------------------


 


  ------------सुरेश लाल श्रीवास्तव---


                       प्रधानाचार्य


             राजकीय इण्टर कालेज


         अकबरपुर, अम्बेडकरनगर


      उत्तर प्रदेश


 


 


हे तात! तुम्हें हम याद करें


 


         आशाओं के दीप जला,


          अर्चन की पूजा-थाली ले।


         हे तात! तुम्हें हम याद करें,


        आ जाओ मेरे मन-मन्दिर में।।


 


     तेरे पथ पर हो मेरा पथशीलन,


      ये चाहत मेरे दिल की है ।


      जो चाहा वह पाया तुमसे,


      हर इच्छा पूरी तुमसे है।।


 


      जब कठिन समस्या आती है,


       कोई निदान नहि सूझता है।


       तब पिता मेरे माली बनकर,


       संकट से मुझे बचाते हैं ।।


 


       है याद मुझे वह सब बातें,


       दुःख के दिन थे कितने आते।


       धर धीर नीर नयनों में छिपा ,


       कैसे गुजरी दिन व रातें ।।


 


        थी तंग गृहस्थी की पीड़ा,


         बीमारी भी कुछ कम न थी।


         विचलित न हुए तुम संकट से,


         धीरता तुम्हारी ऐसी थी ।।


 


         यादें असीम दिल में रमती,


         सब यादों में तुम रमते हो।


         ये यादें उर में वास करें,


         यादों में तेरा वास जो हो।।


 


          खेतों में खलिहानों में,


           बाजारों में घर-आंगन में।


          तुम जहाँ चले मैं वहीं चला,


          तेरे साथ रहा मैं रातों में।।


 


           तेरी सूरत की मूरत न बनी,


           ये कसक आज भी दिल में रहे।


           हर सूरत में इस सूरत की,


           मूरत मेरे दिल उमें वास करे।।


 


           कर्मों की कठिन तपस्या से,


           घर और गृहस्थी सही किये।


           निज ज्ञान बुद्धि बल से तूने,


      क्या क्या न किये जब तक थे जिये।।


 


             खेती और किसानी से,


            जो यत्न किये थे पिता मेरे।


            उससे घर की स्थिति सुधरी,


             खुशियां आई थीं जीवन में।।


       


            श्रम-साधित जीवन की खुशियां,


              अत्यल्प रहीं मेरे चाचा की।


              प्रौढ़ काल में स्वांस रोग,


             लाचारी बनी मेरे चाचा की।।


 


             दुःख भरी कहानी को तूने,


             सुख अर्थ सुनाये थे मुझसे।


             संवेदित हो सुत इस दुःख से,


            पितु मर्म को माना मैं दिल से।।


 


            निज पिता के जीवन कष्टों की,


             प्रतिमूर्ति समाई उर में मेरे।


             बनकर प्रेरक जीवन पथ का,


             जो राह सुझाये आप मुझे।।


 


            निज तात के जीवन दर्शन ही,


            मेरा जीवन दर्शन होवे।


            जो सबक उन्होंने सिखलायी,


           उस पर चलना मकसद होवे।।


 


             सूखी रोटी टूटी खाटें,


          जो नहीं बिछौना तो भी क्या?


            घर की दीवारें गिरी-पड़ीं,


          जो नहीं किताबें तो भी क्या?


 


           बाधाओं से न मुख मोड़ो,


            जो सही उसे करके छोड़ो।


          पथ विचलन से न रिश्ता हो,


          पथशीलन का अनुकूलन हो।।


 


          सारी सुविधाओं के होते,


          यदि आगे बढ़े तो तेरा क्या?


          पथ आप प्रशस्त करे जो खुद,


          उसके जीवन जैसा है क्या?


 


             राहों पर राही जो हैं चलते,


             खुद राह सृजन नहीं करते।


              ऐसे लीक के अनुगामी,


             इतिहास सृजित नहीं करते।।


 


              महनीय कर्म तो उनका है,


             जो स्वयं राह सृजन करते।


             इतिहास उन्हीं के लिए बना,


          जो जीवन में कुछ अलग करते।।


 


            जीवन की मूल जरूरत को,


           अपने श्रम से तुम प्राप्त करो।


            शुभ कर्मों से, सुविचारों से,


           निज जीवन में तुम मान भरो।।


 


            तुम मदद करो, लो मदद नहीं,


             कर्मों का ऐसा विधान करो।


             सच्चे जीवन का सबक यही,


              इससे जीवन में रंग भरो।।


 


          -------सुरेश लाल श्रीवास्तव-----


                         प्रधानाचार्य


                  राजकीय इण्टर कालेज


               अकबरपुर, अम्बेडकरनगर


                          उत्तर प्रदेश


 


 


 


सावन मनभावन


 


    मनभावन सावन आते ही,


    भू-छटा मनोरम होती है ।


     अति हरे-भरे परिधानों से,


     यह धरा रम्य हो जाती है।।


 


              खग कलरव से वन उपवन की,


              चारुता अधिक बढ़ जाती है ।


              गुड़हल-कनेर के पुष्पों की,


              शोभा अति न्यारी लगती है ।।


 


    जल भरे खेत को देख -देख,


    खुश कृषक अधिक हो जाते हैं।


    गांव-गांव के नर - नारी मिल ,


    गा-गा कर धान बैठाते हैं ।।


 


            नाचे मयूर वन उपवन में ,


            मोरनी साथ जो रहती है।


            सुन केक-केक की आवाजें,


            मन-मुदित मोरनी होती है।।


 


    बारिस के दिन गदबेरिया में,


    पांखियाँ बहुत उधिराती हैं।


    दीपक की लौ से उमड़-घुमड़,


    स्वाहा उसमें हो जाती हैं ।।


 


          टर-टर करते हैं दादुर,


         तालों और तलैया में ।


         नाना विहग नव गान करें,


         नित बनन और बागन में ।।


 


   गांवों में नीम के पेड़ों पर,


   सावन के झूले पड़ते हैं ।


   नारियां पीत-परिधानों में,


   गा कजरी झूला झूलती हैं।।


 


            तिथि नागपंचमी के दिन का,


            त्यौहार विशेष ही रहता है।


            धान का लावा दूध चढ़ा ,


            सर्पों को पूजा जाता है ।।


 


    गांवों के ताल -तलैया पर,


    छोरे व छोरियां जाती हैं ।


    छोरियां फेंकती गुड़िया-गुड्डा,


    जिसे छोरे खूब पीटते हैं।।


 


           इस दिन बनता ठोकवा-पूरी,


           घुघुरी भी चबाया जाता है ।


          गुलगुले खूब खाये जाते ,


          अनरसा बहुत ही भाता है।।


 


   सावन की हरियाली देख-देख,


   नयनों की ज्योति बढ़ जाती है।


   अति रम्य छटा नभ-धरती की,


     जन-जन का मन हर लेती है ।।


 


 


         -------सुरेश लाल श्रीवास्तव--------


                        प्रधानाचार्य


                राजकीय इण्टर कॉलेज


             अकबरपुर, अम्बेडकरनगर


                        उत्तर प्रदेश


 


 


 


00:33:39 Aug 12 2020


★★माँ का प्यार★★


 


माँ के जैसा इस दुनिया में,


कोई दूजा नहीं है ।


निज माँ की पूजा से बढ़कर,


कोई पूजा नहीं है ।।


 


नौ माह पेट में पाली, 


हँस के दुःखों को झेलीं ।


हर दुःख सही जो अकेली,


फिर भी न मुख को खोली ।।


 


उस माँ के जीवन जैसा,


कोई जीवन नहीं है ।


माँ के ममत्व जैसा,


कोई प्रेम नहीं है।


 


बेटा मेरा दुलारा, 


लगता है कितना प्यारा ।


राजा मेरा रहेगा,


 आंखों का मेरे तारा ।।


 


सुत के सुखों के खातिर,


धूपों में जो है जलती ।


बेटे को पीठ बाँधे, 


भट्ठे पर काम करती ।।


 


जीवन की सारी खुशियां, 


बेटे पर वार जाती ।


लाखों सितम है सहती,


और ऊफ तक न करती ।।


 


देवों ने भी कही है,


मनुजों ने भी कही है ।


जननी के प्यार जैसा, 


कोई प्यार ही नही है ।।


 ~~~सुरेश लाल श्रीवास्तव


    रा०इ०का० अकबरपुर


  अम्बेडकर नगर(उ० प्र०)


 


 


भारत की ऋतुएं न्यारी हैं


 


 


           साल के काल विभाजन को,


           ऋतु या मौसम हशम कहते हैं।


            रवि की प्रदक्षिणा जो धरा करे,


             सो ऋतुओं के दर्शन होते हैं ।।


 


           ऋतु अनुसारी प्रकृति छटा,


           निज देश की कितनी न्यारी है।


           ऋतुओं के विविध स्वरूपों से,


           भू- लोक का गौरव भारत है ।।


 


           ऋतु-जीवन रूपी फलकों में,


           ऋतुराज प्रथम पर आता है।


           जो काल-खंड है जरा रूप,


          वह शिशिर काल कहलाता है।।


 


           ऋतु-जीवन का द्वितीय फलक,


           ऋतु ग्रीष्म पुकारा जाता है।


           ऋतु-रानी इसके बाद चलीं,


            शरद काल फिर आता है ।।


 


            हेमन्त के आगमन होने से ,


            जो खायें सो पच जाता है।


            जो छठा रूप है मौसम का,


            वह शिशिर काल कहलाता है।।


 


           ऋतु बसन्त के आने से,


            यह धरा अलौकिक होती है।


             बहु रंग-विरंगे पुष्पों से,


             यह मही नवोढ़ा लगती है ।।


 


             मनमोहक वातावरण लगे,


              सुरभित पवन चहुँ ओर चले।


              उन्मत्त रूप इस मौसम की,


              मादकता अति तेज रहे।।


 


             ऋतुराज की शोभा होली है ,


              रंगों की चलती टोली है।


             नव-पल्लव मंडित तरुओं पर,


             मन हरती कोयल बोली है ।।


 


             सुख की अंतिम सीमा ही,


             दुख दारुण की भी सूचक है।


             बसन्त बयार के थमते ही,


             तपने की बारी आती है।।


 


             प्रचण्ड भानु के आतप से ,


             पथ बीच पथिक थक जाता है।


              धूप से तपती धरती पर,


               लू का प्रकोप बढ़ जाता है।।


 


             दिनकर के आतप से राहत,


             ऋतु रानी हमें दिलाती हैं ।


             घन-गर्जन से जल वर्षण से,


             झुलसे तरु खिल जाते हैं।।


 


              पावस मनभावन आते ही,


              केकी पग नृत्य बंध जाता है।


              त्यौहार तीज अरु रक्षा बंधन,


              इस ऋतु में अधिक सुहाता है।।


 


              ऋतु-रानी पावस के जाते ही,


              शुद्ध शरद ऋतु आती है।


               सुबह घास पर ओस की बूंदें,


               कितनी सुन्दर लगती हैं।।


 


              इस शरद सुन्दरी के ऋतु में,


              जीवन की ऊर्जा बढ़ती है।


              पर्व दशहरा और दिवाली ,


             शरद काल में मनती है।।


 


             हेमन्त काल के आते ही ,


             ठंड शुरू हो जाती है।


             पर्यावरण की चारुता भी,


             इस समय बहुत बढ़ जाती है।।


 


             गेंदा-गुलाब के पुष्पों की,


             कांति आलौकिक लगती है।


             तितली,भौंरे अरु मधु-मक्खी,


             रस चूषण को मंडराते हैं ।।


 


             शिशिर काल है जरा काल,


             ऋतु-जीवन रूपी फलकों में।


              मानव,पशु-पक्षी अरु तरुवर,


              उठते हैं कांप इसी ऋतु में।।


 


              शिशिर काल में शीत लहर,


              जब अपना प्रभाव दिखलातीहै।


              दिन में भी दिनकर के दर्शन,


               तब विरले दिन हो पाता है।।


 


               बहु रूप यहाँ हैं ऋतुओं के,


                सबके सब हितकारी हैं।


                अखिल विश्व में इसीलिए,


                निज देश की धरती न्यारी है।।


 


         ----------- 


                      प्रधानाचार्य


                  राजकीय इण्टर कालेज


                अकबरपुर, अम्बेडकरनगर


                            उत्तर प्रदेश


रामकेश एम. यादव

बातें अच्छी नहीं !


 


नफा-नुकसान की बातें तिज़ारत के लिए अच्छी, 


मगर दोस्ती में इस तरह की बातें अच्छी नहीं। 


बारिश हुई है और फूल खिलकर हँसने लगे, 


पतझड़ के मौसम की चर्चा इस वक़्त अच्छी नहीं। 


सारे काम छोड़ो ऊपरवाले की रजा पर, 


चलाओ अपनी मर्जी, ये बात अच्छी नहीं। 


सुकून औ चैन सबका खो गया है आजकल, 


निकलो नहीं घर से, बाहर की हवा अच्छी नहीं। दुनिया परेशां है कोरोना वायरस से, 


बरस रही है मौत इस वक़्त , हँसी अच्छी नहीं। 


लूट रहे हैं कुछ हॉस्पिटल दोनों हाथों से, 


इस तरह की खिदमतगारी बिलकुल अच्छी नहीं। 


कोई नहीं है अपना इस भरे जमाने में, 


हो सके नेक काम करो, दुश्मनी अच्छी नहीं। 


क़ातिलों के मोहल्ले में घर लेना ठीक नहीं, 


उनसे नजदीकियां बढ़े, ये बात अच्छी नहीं। 


प्यार करना कोई बुरी बात नहीं जहां में,


झांसेवाली आवारगी, बात अच्छी नहीं। 



रामकेश एम. यादव (कवि, साहित्यकार)मुंबई 


अध्यक्ष शब्दाक्षर महाराष्ट्र,


ज्योति तिवारी

बिटिया‌ का ससुराल से घर ‌आना


यूं खिलखिलाना


ऐसा लगे जैसे चिड़िया चहचहाना


वो खाली सा आंगन


लगे आज पूरा


वो गुड़िया का घर भी जो


कल तक था अधूरा


वो उम्मीद मेरी वो अहसास है


वो जन्मों ‌जनम‌ की बुझी


प्यास है


उसके आने से घर घर सा लगे


नहीं तो अधूरा सा लगे


वो पायल की छम-छम


वो चूड़ी की खनखन


वो है परिवार की अविरल


सी धड़कन


एक मां को सबकुछ मिल गया देख उसका‌ मुस्कुराना


वो पापा से मिलकर


उसको लिपटाना


वो भाई की कलाई में राखी का बंधना


उसी से तो घर में त्योहार है


वहीं मेंरी खुशियों का


असली ठिकाना


मुझे यह पता है


कल चली जाएगी वो


फिर अगले सावन मे


आप पाएंगी वो


इसलिए जी भर के मनुहारना


सभी ‌कुछ उसी‌पर है वारना



ज्योति तिवारी


बैंगलोर


डॉ0 हरि नाथ मिश्र

जलाओ चराग़ 


जलाओ चराग़ मिल के सभी,


अभी भी यहाँ अँधेरा है।


हर तरफ़-हर दिशा-हर गली में-


दुश्मने रौशनी का बसेरा है।।


     बारो भले तेल-बाती का दीया,


     मग़र ध्यान देना ज़रूरी है।


     मन की इस गंदी बस्ती में-


 तनिक भी नहीं उजेरा है।।


                 दुश्मने रौशनी.........।।


सभ्यता के लबादे को ओढ़े,


फ़ख्र से कहते हमीं श्रेष्ठ कृति हैं।


खेद है ये मग़र हम न समझे-


अपने अंदर छुपा इक सवेरा है।।


              दुश्मने रौशनी...........।।


अपने अंदर का दीपक जलाओ,


जिसकी आभा से छँटता अँधेरा।


दीप इंसानियत का ही जलने से-


ग़ायब होता तुरत तम घनेरा है।।


             दुश्मने रौशनी..........।।


हम जलाते हैं रावण को नाहक,


अपने अंदर का रावण जलाओ।


ताकि जल के तुरत खाक़ होवे-


जो अंदर अमानुष का डेरा है।।


           दुश्मने रौशनी...........।।


ज्ञान का दीप मिल कर जलाओ,


जैसे दीये की लौ जलती रहती।


तम बेअदबी का झट-पट छटेगा-


जो अब तक धरा को भी घेरा है।।


          दुश्मने रौशनी............।।


धूमिल न हो दीप्ति इल्मो-हुनर,


प्रेम की तेल-बाती जलाते रहो।


फिर से होगा कभी भी न मुमकिन-


जो लगता गुनाहों का फेरा है।।


       दुश्मने रौशनी का बसेरा है।।


              © डॉ0 हरि नाथ मिश्र


               9919446372


डॉ.राम कुमार झा निकुंज

 सोच सदा जग स्वस्ति की


 


जय सुधीर गंभीर नर , उद्यमशील विनीत।


सफल कीर्ति अनमोल धन , निशिचन्द्र मधुप्रीत।।१।।


 


अर्थ बने सम्बन्ध के, अपनापन विश्वास। 


साथ खड़े सुख त्रासदी , हो रिश्ते आभास।।२।।


 


बँटे सहोदर स्वार्थ में , भूले सब दायित्व।


लखि हर्षित दुखार्त में , खोए गुण अस्तित्व।।३।।


 


साथ खड़े जो मीत हो , त्यागमूर्ति परमार्थ।


सौ जीवन उस प्रीत दूँ , सखा कृष्ण सम पार्थ।।४।।


 


सोच सदा जग स्वस्ति की , साधुचित्त समुदार।


सचमुच जीये सफल जन , नश्वर जीवन सार।।५।।


 


करो भला जो कर सको , रहो मुदित संसार।


कौन कहे कब हो यहाँ , परहित रत जग पार।।६।।


 


राष्ट्रधर्म नित ध्येय हो , जीवन दो निज देश।


निर्माणक अवदान जो , प्रगति शान्ति संदेश।।७।।


 


खिलो पुष्प अरुणिम किरण , महकाओ गुण देश।


इन्द्रधनुष सतरंग से , बने चारु परिवेश।।८।।


 


बने सदा विरुदावली , शौर्य वीर बलिदान।


दें जीवन माँ भारती , जन गण सेवा मान।।९।


 


शब्दाक्षर कवि भाव मन, हो निकुंज आह्लाद।


सुखद सुरभि मुस्कान से , जन भारत आबाद।।१०।।


 


जनता बने प्रबोधिनी , कविता नित जनक्रान्ति।


संगति हो सद्कर्म की , मिटे घृणा मन भ्रान्ति।।११।।


 


सुखद शान्ति अरुणाभ जग,सरसिज मुख मुस्कान।


प्रीति भक्ति नव चेतना, भारतमय अवदान।।१२।।


 


सादर स्नेहिल परहिता, साधु संग मकरन्द।


जीवन अर्पित देश को , सद्चर्चा आनन्द।।१।।


 


डॉ.राम कुमार झा निकुंज


नई दिल्ली


डॉ. रामबली मिश्र

शुभ कारज को बहुत शीघ्र कर।


रुको नहीं अविलंब उसे कर।।


 


अवरोधी तत्वों से बचना।


यह अत्युत्तम बौद्धिक वचना।।


 


वाधाएँ अक्सर आती हैं।


काम विगाड़ चली जाती हैं।।


 


शुभ को अति जल्दी जो करता।


वही बहाले चलता-फिरता।।


 


शुभ कारज को नहीं टालना।


यथा शीघ्र का नियम पालना।।


 


दृढ़ प्रतिज्ञ जो नियमबद्ध है।


वही सफल इंसान बुद्ध है।।


 


जो करता आलस्य हमेशा।


देता रहत गलत संदेशा।।


 


शुभ कार्यों को परित्याग मत।


इस पर सारा जग है सहमत।।


 


जो करता शुभ की रक्षा है।


वही मंत्रमय शिव दीक्षा है।।


 


जो चलता शुभ-शीघ्र पंथ पर।


गढ़ता बौद्धिक मानव रचकर।।


 


रचनाकार:डॉ. रामबली मिश्र हरिहरपुरी


9838453801


[24/09, 11:26 am] +91 98384 53801: *शीर्ष*


*(चौपाई ग़ज़ल)*


 


बहुत कठिन है ऊपर चढ़ना।


समझ असंभव शीर्ष पहुँचना।।


 


जोर लगाता मानव हरदम।


किन्तु कठिन है वहाँ पहुँचना।।


 


करता इक एड़ी-चोटी है।


पर मुश्किल है शीर्ष पहुँचना।।


 


सिर्फ शीर्ष पर अंतिम सत्ता।


नहिं संभव है अंतिम बनना।।


 


अंतिम सत्ता का वंदन कर।


पूजन और निवेदन करना।।


 


भक्ति भाव में शीर्ष छिपा है।


भक्ति भाव से वहाँ पहुँचना।।


 


और दूसरा नहिं उपाय है।


लोक शीर्ष बेकार समझना।।


 


लोक शीर्ष क्षणभंगुर वंदे।


इसका मिलना भी क्या मिलना।।


 


जो मिलकर भी होत संसरित ।


उसका मिलना या ना मिलना।।


 


अंतिम शीर्ष ब्रह्म की दुनिया।


बनकर भक्त विचरते रहना।।


~~~~~~~~~~~~~~


हंसवाहिनी का दर्शन कर


 


परम अलौकिक ज्ञान समंदर।


हंसवाहिनी का दर्शन कर।।


 


विद्या महा तपस्विनि योगिनि।


ज्ञानवती का शुभ स्पर्शन कर।।


 


सहज अमृता अमी अमर रस।


खुश रहना अमृत रस पी कर।।


 


लिपटो माँ के प्रिय चरणों में।


सदा झुकाये शीश चरण पर।।


 


भावुकता का वस्त्र लपेटे।


माँगो विनयशीलता का वर।।


 


हंसवाहिनी के दर्शन से।


सद्विवेकिनी बुद्धि प्रखर कर।।


 


वीणपाणी संगीता माँ।


मधुर राग का आस्वादन कर।।


 


पुस्तक लिखना पढ़-पढ़ कहना।


रहना मस्त पवित्र ग्रन्थ पर।।


 


माँ का आशीर्वाद माँगना।


दे देंगी माता खुश हो कर।।


 


बहुत कृपालू करुणामृत माँ।


माँ चरणों का नित दर्शन कर।।


 


आँखों में जिसके प्रेमामृत।


प्रेममयी का सदा भजन कर।।


 


दुर्दिन में जो साथ निभातीं।


उस माँ श्री को सदा नमन कर।।


 


नहीं छोड़तीं कभी भक्त को।


कर न्योछावर खुद को माँ पर।।


 


करते जा माँ पर कविताई।


माँ सरस्वती का अर्चन कर।।


###############


थोड़ा.....।


 


थोड़ा ही चल।


पर अच्छा चल  


 


थोड़ा ही कर।


पर अच्छा कर।।


 


थोड़ा ही खा।


पर अच्छा खा


 


थोड़ा बोलो।


अच्छा बोलो।।


 


थोड़ा सोचो।


सुंदर सोचो।।


 


थोड़ा मिलना।


दिल से मिलना।।


 


थोड़ा करना।


मन से करना।।


 


थोड़ा दौड़ो।


प्रातः दौड़ो।।


 


थोड़ा पढ़ना।


मन से पढ़ना।।


 


थोड़ा लिखना।


सुंदर रचना।।


 


थोड़ा रचना।


दिल की कहना।।


 


थोड़ा कहना।


मीठा बनना।।


 


थोड़ा भोजन।


अच्छा व्यंजन।।


 


थोड़ी बातें।


सार्थक बातें।।


 


थोड़ा चढ़ना।


बनकर रहना।।


 


थोड़ा चलकर।


चहक-चहक कर।।


 


थोड़ा नर्तन।


मादक थिरकन।।


 


थोड़ा मचलन।


दिल का पिघलन ।।


 


थोड़ा सावन।


शिव मन भावन।।


 


डॉ. रामबली मिश्र हरिहरपुरी


9838453801


एस के कपूर श्री हंस

 हमारे अपने


कर्मों का हिसाब है जिंदगी।


 


बस चलते चले जाइये


यही जिंदगी है जनाब।


हर मुश्किल का यह


जिंदगी लिये है जवाब।।


रुकना थमना मना बस


बस चलना ही है हल।


तभी पूरे करती यह


जिंदगी है हर ख्वाब।।


 


रिश्तों को समझों तो ये


फिर सुलझते जाते हैं।


जितना समझायोगे तो


फिर ये उलझते जाते हैं।।


जो ताउम्र निभाते रिश्ते


वह तो होते हैं फरिश्ते।


उतर जायो दिल में तो


ये रिश्ते सुलटते जाते हैं।।


 


तन की सुंदरता बस मन


को आकर्षित करती है।


ह्रदय की सुंदरता तो जैसे


आत्माभी हर्षित करती है।।


अच्छा व्यवहार और


स्वाभव हैं अनमोल देन।


तेरी सहयोग सहायता


ही तुझे चर्चित करती है।।


 


बस यूँ समझों कि कभी


उदासी की आग जिंदगी।


कभी कभी खुशियों का


बाग है यह जिंदगी।।


हँसना रोना हिस्सा हैं


हर किसी के जीवन का।


बस कड़वे मीठे अनुभवों


का जैसे स्वाद है जिन्दगी।।


~~~~~~~~~~~~~~


प्रकृति से हवा पानी


जीवन की है आसानी


मत कर यूँ नादानी


*अनमोल प्रकृति।।*


धरा बहुत विशेष


मत बिगाड़ ये भेष


न रहेगा अवशेष


*जीवदायी प्रकृति ।।*


वृक्ष हैं अमृत पुत्र


पालें इन्हें ये सुपुत्र


जो काटे वो हैं कुपुत्र


*श्वासदायी प्रकृति।।*


बाढ़ और सुनामी है


हर ओर ये पानी है


रक्षा करें जुबानी है


*लाभकारी प्रकृति।।*


*2,,,,,,,,,,,,,*


हमारी ये जीवन शैली


करे धरती विषैली


न हो पॉलीथिन थैली


*प्रकृति से जीवन।।*


ऊर्जा सीमित भंडार


नष्ट हो रहा अंगार


शीघ्र करो उपचार


*ऊर्जा से ही जीवन।।*


बदलो ये व्यवहार


प्रकृति पालनहार


बचे जीवन आकार


*रक्षण से जीवन।।*


ये धुंआ और गुबार


बारिश मूसलाधार


बह जाये ये संसार


नियम से जीवन।।


 


एस के कपूर श्री हंस


बरेली


मो 9897071046


         8218685464


सुनील कुमार गुप्ता

 जीवन का उद्धार


 


सींच नेह से संबंधों को,


यहाँ ऐसा करे-व्यवहार।


कुछ तो जीवन जग में साथी,


अपने सपने होते साकार।।


सपने तो सपने है-साथी,


कहाँ-लेते वो नव-आकार?


सत्य-पथ चल कर फिर साथी,


जीवन को मिलता कुछ आधार।।


रहती गरिमा संबंधों की,


कब-करता साथी विचार?


करता विचार कुछ पल जग में,


होति इस जीवन का उद्धार।।


 


 सुनील कुमार गुप्ता


डॉ0 हरि नाथ मिश्र

सातवाँ अध्याय (श्रीकृष्णचरितबखान)-1


 


उतरहिं जगत बिबिध अवतारा।


लीला मधुर करहिं संसारा।।


    बिषय-बासना-तृष्ना भागै।


    सुमिरत नाम चेतना जागै।।


मोंहि बतावउ औरउ लीला।


कहे परिच्छित हे मुनि सीला।।


    सुनत परिच्छित कै अस बचना।


    कहन लगी लीला मुनि-रसना।।


एकबेरि सभ मिलि ब्रजबासी।


उत्सव रहे मनाइ उलासी।।


     करवट-बदल-कृष्न-अभिषेका।


     जनम-नखत अपि तरह अनेका।।


नाच-गान अरु उत्सव माहीं।


भवा कृष्न अभिषेक उछाहीं।।


      मंत्रोचार करत तहँ द्विजहीं।


      दिए असीष कृष्न कहँ सबहीं।।


ब्रह्मन-पूजन बिधिवत माता।


जसुमति किन्ह जस द्विजहिं सुहाता।।


    अन्न-बस्त्र-माला अरु गाई।


    दानहिं दीन्ह जसोदा माई।।


कृष्न लला कहँ तब नहलावा।


सयन हेतु तहँ पलँग सुलावा।।


     कछुक देरि पे किसुन कन्हाई।


     खोले लोचन लेत जम्हाई।।


लागे करन रुदन बहु जोरा।


स्तन-पान हेतु जसु-छोरा।।


     रह बहु ब्यस्त जसोदा मैया।


     सुनि नहिं पाईं रुदन कन्हैया।।


प्रभु रहँ सोवत छकड़ा नीचे।


रोवत-उछरत पाँव उलीचे।।


     छुवतै लाल-नरम पद प्रभु कै।


     भुइँ गिरि छकड़ा पड़ा उलटि कै।।


दूध-दही भरि मटका तापर।


टूटि-फाटि सभ गे छितराकर।।


     पहिया-धुरी व टूटा जूआ।


     निन्ह पाँव जब छकड़ा छूआ।।


करवट-बदल क उत्सव माहीं।


जसुमति-नंद-रोहिनी ताहीं।।


    गोपी-गोप सकल ब्रजबासी।


    कहन लगे सभ हियहिं हुलासी।।


अस कस भयो कि उलटी लढ़िया।


जनु कछु काम होय अब बढ़िया।।


    तहँ खेलत बालक सभ कहई।


    उछरत पाँव कृष्न अस करई।।


बालक-बाति न हो बिस्वासा।


भए मुक्त सभ कारन-आसा।।


सोरठा-होय ग्रहन कै कोप,अस बिचार करि जसुमती।


          लेइ द्विजहिं अरु गोप,पाठ कराईं सांति कै।।


                     डॉ0 हरि नाथ मिश्र


                      9919446372


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