डॉ0 हरि नाथ मिश्र

तृतीय चरण (श्रीरामचरितबखान)-18


 


कपटी-कुटिल-दुष्ट सम बानी।


सुनहु जती तव बचन सुहानी।।


     लछिमन-रेख लाँघि जब सीता।


     बाहर आईं कंप सभीता।।


तब रावन निज रूप देखावा।


कहि रावन निज नाम बतावा।।


    धरि धीरज तब सीता कहहीं।


     ठाढ़ि रहहु खल रघुबर अवहीं।।


जस कोउ ससक सेरनी चाहहि।


बिनु न्योते निज काल बोलावहि।।


    तस तव काल अवहि तव पाछे।


    असुभ होय तव नहिं कछु आछे।।


सुनि अस बाति क्रुद्ध दसकंधर।


मन महँ बंदि चरन सीता धर।।


    रथ बिठाइ सीतहिं अति आतुर।


    चला गगन-पथ हाँकि भयातुर।


सुमिरि नाम प्रभु बिलपहिं सीता।


जाहिं दुष्ट सँग दुखी- सभीता।।


      का कारन कि प्रभु नहिं आयो।


      परम कृपालु मोंहि बिसरायो।।


लछिमन तोर दोषु कछु नाहीं।


फल निज करम आजु मैं पाहीं।।


दोहा-बिलपत सिय रावन-रथहिं,नभ-पथ अस चलि जाँय।


        जस मलेछ सँग बिकल रह,परबस कपिला गाय ।।


                      डॉ0हरि नाथ मिश्र


                      9919446372


 


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सातवाँ अध्याय (श्रीकृष्णचरितबखान)-1


 


उतरहिं जगत बिबिध अवतारा।


लीला मधुर करहिं संसारा।।


    बिषय-बासना-तृष्ना भागै।


    सुमिरत नाम चेतना जागै।।


मोंहि बतावउ औरउ लीला।


कहे परिच्छित हे मुनि सीला।।


    सुनत परिच्छित कै अस बचना।


    कहन लगी लीला मुनि-रसना।।


एकबेरि सभ मिलि ब्रजबासी।


उत्सव रहे मनाइ उलासी।।


     करवट-बदल-कृष्न-अभिषेका।


     जनम-नखत अपि तरह अनेका।।


नाच-गान अरु उत्सव माहीं।


भवा कृष्न अभिषेक उछाहीं।।


      मंत्रोचार करत तहँ द्विजहीं।


      दिए असीष कृष्न कहँ सबहीं।।


ब्रह्मन-पूजन बिधिवत माता।


जसुमति किन्ह जस द्विजहिं सुहाता।।


    अन्न-बस्त्र-माला अरु गाई।


    दानहिं दीन्ह जसोदा माई।।


कृष्न लला कहँ तब नहलावा।


सयन हेतु तहँ पलँग सुलावा।।


     कछुक देरि पे किसुन कन्हाई।


     खोले लोचन लेत जम्हाई।।


लागे करन रुदन बहु जोरा।


स्तन-पान हेतु जसु-छोरा।।


     रह बहु ब्यस्त जसोदा मैया।


     सुनि नहिं पाईं रुदन कन्हैया।।


प्रभु रहँ सोवत छकड़ा नीचे।


रोवत-उछरत पाँव उलीचे।।


     छुवतै लाल-नरम पद प्रभु कै।


     भुइँ गिरि लढ़िया पड़ी उलटि कै।।


दूध-दही भरि मटका तापर।


टूटि-फाटि सभ गे छितराकर।।


     पहिया-धुरी व टूटा जूआ।


     निन्ह पाँव जब लढ़िया छूआ।।


करवट-बदल क उत्सव माहीं।


जसुमति-नंद-रोहिनी ताहीं।।


    गोपी-गोप सकल ब्रजबासी।


    कहन लगे सभ हियहिं हुलासी।।


अस कस भयो कि उलटी लढ़िया।


जनु कछु काम होय अब बढ़िया।।


    तहँ खेलत बालक सभ कहई।


    उछरत पाँव कृष्न अस करई।।


बालक-बाति न हो बिस्वासा।


भए मुक्त सभ कारन-आसा।।


सोरठा-होय ग्रहन कै कोप,अस बिचार करि जसुमती।


          लेइ द्विजहिं अरु गोप,पाठ कराईं सांति कै।।


                     डॉ0 हरि नाथ मिश्र


                      9919446372


सुनीता असीम

ख़ास रिश्ते कुछ बनाना और है।


पर उन्हें दिल से निभाना और है।


***


सामने सबके दया दिखला रहे।


दांत हाथी के दिखाना और है।


***


दिल दुखाना है बड़ा आसान सा।


ज़ख़्म पर मरहम लगाना और है।


***


अब सितारों में नहीं अपना जहां।


आज अपना आशियाना और है।


***


आज कच्ची डोर रिश्तों की हुई।


 हीर रांझा का फ़साना और है।


~~~~~~~~~~~~~~~~


दिलजलों का इक ठिकाना और था।


 घर कहीं अपना बसाना और था।


***


लुट गए थे आशिकी में दिल लगा।


पास आने का बहाना और था।


***


कह रहे हैं आज बच्चों से यही।


के रहा उनका जमाना और था।


***


इक खड़ी दीवार उनके बीच थी।


जात का बंधन पुराना और था।


***


उम्र के इस दौर में यादें बचीं।


वो रहा मौसम सुहाना और था।


***


सुनीता असीम


काव्य रंगोली आज के सम्मानित रचनाकार सुरेश लाल श्रीवास्तव

सुरेश लाल श्रीवास्तव 


     प्रधानाचार्य


राजकीय इण्टर कालेज


अकबरपुर-अम्बेडकर नगर


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जीवन का मुख्य उद्देश्य:-


 


 सामाजिक एवं मानवीय मूल्यों की सरोकारिता पर आधारित मेरी ये रचनाएं हैं।


गद्य एवं काव्य दोनों विधाओं के अतिरिक्त समाचार पत्रों में सम्पादकीय लेखन मेरे द्वारा किया जाता है।


 


 


--------ईश-वन्दना-------


 


 दया कर दयानिधि मुझे ये दुआ दो,


कि परहित में अपना जीवन लगा दूँ।


 


नहीं चाहिए मुझको दौलत-खज़ाना,


नहीं चाहिए बहु व्यंजन का खाना ।


रहे जीवन सादा विचारों में दम हो,


निर्धन की सेवा में जीवन निरत हो।।


 


दया कर दयानिधि-------


कि परहित में------------


 


करूँ जो कमाई निष्ठा लगन से,


औरों की सेवा में समर्पित हो मन से।


हो पापों से दूरी मन में खुशी हो,


सुकर्मों की इच्छा हमेशा प्रबल हो।।


 


दया कर दयानिधि----------


कि परहित में---------------


 


यही प्रार्थना है मेरे ईश तुमसे,


सकल जन धरा के रहें दूर गम से।


मिले गम मुझे तो नहीं कोई गम हो,


जीवन सफर चाहे जितना भी कम हो।।


 


दया कर दयानिधि--------------


कि परहित में -----------------------


 


मैं जब तक रहूं मेरी इच्छा है प्रभुवर,


धरा को सजाऊँ लगाके मैं तरुवर।


न जीने की चिंता न मरने का गम हो,


मगर कर्म नेकी का किंचिद न कम हो।।


 


दया कर दयानिधि----------------


कि परहित में--------------------


 


मुझे निसि व वासर रहे ध्यान तेरा,


अहम मेरे मन में लगाये न फेरा।


करूँ मातृ सेवा पिता में हृदय हो,


मनोकर्म मेरे पावन प्रबल हों।।


 


दया कर दयानिधि---------------


कि परहित में--------------------


 


  ------------सुरेश लाल श्रीवास्तव---


                       प्रधानाचार्य


             राजकीय इण्टर कालेज


         अकबरपुर, अम्बेडकरनगर


      उत्तर प्रदेश


 


 


हे तात! तुम्हें हम याद करें


 


         आशाओं के दीप जला,


          अर्चन की पूजा-थाली ले।


         हे तात! तुम्हें हम याद करें,


        आ जाओ मेरे मन-मन्दिर में।।


 


     तेरे पथ पर हो मेरा पथशीलन,


      ये चाहत मेरे दिल की है ।


      जो चाहा वह पाया तुमसे,


      हर इच्छा पूरी तुमसे है।।


 


      जब कठिन समस्या आती है,


       कोई निदान नहि सूझता है।


       तब पिता मेरे माली बनकर,


       संकट से मुझे बचाते हैं ।।


 


       है याद मुझे वह सब बातें,


       दुःख के दिन थे कितने आते।


       धर धीर नीर नयनों में छिपा ,


       कैसे गुजरी दिन व रातें ।।


 


        थी तंग गृहस्थी की पीड़ा,


         बीमारी भी कुछ कम न थी।


         विचलित न हुए तुम संकट से,


         धीरता तुम्हारी ऐसी थी ।।


 


         यादें असीम दिल में रमती,


         सब यादों में तुम रमते हो।


         ये यादें उर में वास करें,


         यादों में तेरा वास जो हो।।


 


          खेतों में खलिहानों में,


           बाजारों में घर-आंगन में।


          तुम जहाँ चले मैं वहीं चला,


          तेरे साथ रहा मैं रातों में।।


 


           तेरी सूरत की मूरत न बनी,


           ये कसक आज भी दिल में रहे।


           हर सूरत में इस सूरत की,


           मूरत मेरे दिल उमें वास करे।।


 


           कर्मों की कठिन तपस्या से,


           घर और गृहस्थी सही किये।


           निज ज्ञान बुद्धि बल से तूने,


      क्या क्या न किये जब तक थे जिये।।


 


             खेती और किसानी से,


            जो यत्न किये थे पिता मेरे।


            उससे घर की स्थिति सुधरी,


             खुशियां आई थीं जीवन में।।


       


            श्रम-साधित जीवन की खुशियां,


              अत्यल्प रहीं मेरे चाचा की।


              प्रौढ़ काल में स्वांस रोग,


             लाचारी बनी मेरे चाचा की।।


 


             दुःख भरी कहानी को तूने,


             सुख अर्थ सुनाये थे मुझसे।


             संवेदित हो सुत इस दुःख से,


            पितु मर्म को माना मैं दिल से।।


 


            निज पिता के जीवन कष्टों की,


             प्रतिमूर्ति समाई उर में मेरे।


             बनकर प्रेरक जीवन पथ का,


             जो राह सुझाये आप मुझे।।


 


            निज तात के जीवन दर्शन ही,


            मेरा जीवन दर्शन होवे।


            जो सबक उन्होंने सिखलायी,


           उस पर चलना मकसद होवे।।


 


             सूखी रोटी टूटी खाटें,


          जो नहीं बिछौना तो भी क्या?


            घर की दीवारें गिरी-पड़ीं,


          जो नहीं किताबें तो भी क्या?


 


           बाधाओं से न मुख मोड़ो,


            जो सही उसे करके छोड़ो।


          पथ विचलन से न रिश्ता हो,


          पथशीलन का अनुकूलन हो।।


 


          सारी सुविधाओं के होते,


          यदि आगे बढ़े तो तेरा क्या?


          पथ आप प्रशस्त करे जो खुद,


          उसके जीवन जैसा है क्या?


 


             राहों पर राही जो हैं चलते,


             खुद राह सृजन नहीं करते।


              ऐसे लीक के अनुगामी,


             इतिहास सृजित नहीं करते।।


 


              महनीय कर्म तो उनका है,


             जो स्वयं राह सृजन करते।


             इतिहास उन्हीं के लिए बना,


          जो जीवन में कुछ अलग करते।।


 


            जीवन की मूल जरूरत को,


           अपने श्रम से तुम प्राप्त करो।


            शुभ कर्मों से, सुविचारों से,


           निज जीवन में तुम मान भरो।।


 


            तुम मदद करो, लो मदद नहीं,


             कर्मों का ऐसा विधान करो।


             सच्चे जीवन का सबक यही,


              इससे जीवन में रंग भरो।।


 


          -------सुरेश लाल श्रीवास्तव-----


                         प्रधानाचार्य


                  राजकीय इण्टर कालेज


               अकबरपुर, अम्बेडकरनगर


                          उत्तर प्रदेश


 


 


 


सावन मनभावन


 


    मनभावन सावन आते ही,


    भू-छटा मनोरम होती है ।


     अति हरे-भरे परिधानों से,


     यह धरा रम्य हो जाती है।।


 


              खग कलरव से वन उपवन की,


              चारुता अधिक बढ़ जाती है ।


              गुड़हल-कनेर के पुष्पों की,


              शोभा अति न्यारी लगती है ।।


 


    जल भरे खेत को देख -देख,


    खुश कृषक अधिक हो जाते हैं।


    गांव-गांव के नर - नारी मिल ,


    गा-गा कर धान बैठाते हैं ।।


 


            नाचे मयूर वन उपवन में ,


            मोरनी साथ जो रहती है।


            सुन केक-केक की आवाजें,


            मन-मुदित मोरनी होती है।।


 


    बारिस के दिन गदबेरिया में,


    पांखियाँ बहुत उधिराती हैं।


    दीपक की लौ से उमड़-घुमड़,


    स्वाहा उसमें हो जाती हैं ।।


 


          टर-टर करते हैं दादुर,


         तालों और तलैया में ।


         नाना विहग नव गान करें,


         नित बनन और बागन में ।।


 


   गांवों में नीम के पेड़ों पर,


   सावन के झूले पड़ते हैं ।


   नारियां पीत-परिधानों में,


   गा कजरी झूला झूलती हैं।।


 


            तिथि नागपंचमी के दिन का,


            त्यौहार विशेष ही रहता है।


            धान का लावा दूध चढ़ा ,


            सर्पों को पूजा जाता है ।।


 


    गांवों के ताल -तलैया पर,


    छोरे व छोरियां जाती हैं ।


    छोरियां फेंकती गुड़िया-गुड्डा,


    जिसे छोरे खूब पीटते हैं।।


 


           इस दिन बनता ठोकवा-पूरी,


           घुघुरी भी चबाया जाता है ।


          गुलगुले खूब खाये जाते ,


          अनरसा बहुत ही भाता है।।


 


   सावन की हरियाली देख-देख,


   नयनों की ज्योति बढ़ जाती है।


   अति रम्य छटा नभ-धरती की,


     जन-जन का मन हर लेती है ।।


 


 


         -------सुरेश लाल श्रीवास्तव--------


                        प्रधानाचार्य


                राजकीय इण्टर कॉलेज


             अकबरपुर, अम्बेडकरनगर


                        उत्तर प्रदेश


 


 


 


00:33:39 Aug 12 2020


★★माँ का प्यार★★


 


माँ के जैसा इस दुनिया में,


कोई दूजा नहीं है ।


निज माँ की पूजा से बढ़कर,


कोई पूजा नहीं है ।।


 


नौ माह पेट में पाली, 


हँस के दुःखों को झेलीं ।


हर दुःख सही जो अकेली,


फिर भी न मुख को खोली ।।


 


उस माँ के जीवन जैसा,


कोई जीवन नहीं है ।


माँ के ममत्व जैसा,


कोई प्रेम नहीं है।


 


बेटा मेरा दुलारा, 


लगता है कितना प्यारा ।


राजा मेरा रहेगा,


 आंखों का मेरे तारा ।।


 


सुत के सुखों के खातिर,


धूपों में जो है जलती ।


बेटे को पीठ बाँधे, 


भट्ठे पर काम करती ।।


 


जीवन की सारी खुशियां, 


बेटे पर वार जाती ।


लाखों सितम है सहती,


और ऊफ तक न करती ।।


 


देवों ने भी कही है,


मनुजों ने भी कही है ।


जननी के प्यार जैसा, 


कोई प्यार ही नही है ।।


 ~~~सुरेश लाल श्रीवास्तव


    रा०इ०का० अकबरपुर


  अम्बेडकर नगर(उ० प्र०)


 


 


भारत की ऋतुएं न्यारी हैं


 


 


           साल के काल विभाजन को,


           ऋतु या मौसम हशम कहते हैं।


            रवि की प्रदक्षिणा जो धरा करे,


             सो ऋतुओं के दर्शन होते हैं ।।


 


           ऋतु अनुसारी प्रकृति छटा,


           निज देश की कितनी न्यारी है।


           ऋतुओं के विविध स्वरूपों से,


           भू- लोक का गौरव भारत है ।।


 


           ऋतु-जीवन रूपी फलकों में,


           ऋतुराज प्रथम पर आता है।


           जो काल-खंड है जरा रूप,


          वह शिशिर काल कहलाता है।।


 


           ऋतु-जीवन का द्वितीय फलक,


           ऋतु ग्रीष्म पुकारा जाता है।


           ऋतु-रानी इसके बाद चलीं,


            शरद काल फिर आता है ।।


 


            हेमन्त के आगमन होने से ,


            जो खायें सो पच जाता है।


            जो छठा रूप है मौसम का,


            वह शिशिर काल कहलाता है।।


 


           ऋतु बसन्त के आने से,


            यह धरा अलौकिक होती है।


             बहु रंग-विरंगे पुष्पों से,


             यह मही नवोढ़ा लगती है ।।


 


             मनमोहक वातावरण लगे,


              सुरभित पवन चहुँ ओर चले।


              उन्मत्त रूप इस मौसम की,


              मादकता अति तेज रहे।।


 


             ऋतुराज की शोभा होली है ,


              रंगों की चलती टोली है।


             नव-पल्लव मंडित तरुओं पर,


             मन हरती कोयल बोली है ।।


 


             सुख की अंतिम सीमा ही,


             दुख दारुण की भी सूचक है।


             बसन्त बयार के थमते ही,


             तपने की बारी आती है।।


 


             प्रचण्ड भानु के आतप से ,


             पथ बीच पथिक थक जाता है।


              धूप से तपती धरती पर,


               लू का प्रकोप बढ़ जाता है।।


 


             दिनकर के आतप से राहत,


             ऋतु रानी हमें दिलाती हैं ।


             घन-गर्जन से जल वर्षण से,


             झुलसे तरु खिल जाते हैं।।


 


              पावस मनभावन आते ही,


              केकी पग नृत्य बंध जाता है।


              त्यौहार तीज अरु रक्षा बंधन,


              इस ऋतु में अधिक सुहाता है।।


 


              ऋतु-रानी पावस के जाते ही,


              शुद्ध शरद ऋतु आती है।


               सुबह घास पर ओस की बूंदें,


               कितनी सुन्दर लगती हैं।।


 


              इस शरद सुन्दरी के ऋतु में,


              जीवन की ऊर्जा बढ़ती है।


              पर्व दशहरा और दिवाली ,


             शरद काल में मनती है।।


 


             हेमन्त काल के आते ही ,


             ठंड शुरू हो जाती है।


             पर्यावरण की चारुता भी,


             इस समय बहुत बढ़ जाती है।।


 


             गेंदा-गुलाब के पुष्पों की,


             कांति आलौकिक लगती है।


             तितली,भौंरे अरु मधु-मक्खी,


             रस चूषण को मंडराते हैं ।।


 


             शिशिर काल है जरा काल,


             ऋतु-जीवन रूपी फलकों में।


              मानव,पशु-पक्षी अरु तरुवर,


              उठते हैं कांप इसी ऋतु में।।


 


              शिशिर काल में शीत लहर,


              जब अपना प्रभाव दिखलातीहै।


              दिन में भी दिनकर के दर्शन,


               तब विरले दिन हो पाता है।।


 


               बहु रूप यहाँ हैं ऋतुओं के,


                सबके सब हितकारी हैं।


                अखिल विश्व में इसीलिए,


                निज देश की धरती न्यारी है।।


 


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                      प्रधानाचार्य


                  राजकीय इण्टर कालेज


                अकबरपुर, अम्बेडकरनगर


                            उत्तर प्रदेश


रामकेश एम. यादव

बातें अच्छी नहीं !


 


नफा-नुकसान की बातें तिज़ारत के लिए अच्छी, 


मगर दोस्ती में इस तरह की बातें अच्छी नहीं। 


बारिश हुई है और फूल खिलकर हँसने लगे, 


पतझड़ के मौसम की चर्चा इस वक़्त अच्छी नहीं। 


सारे काम छोड़ो ऊपरवाले की रजा पर, 


चलाओ अपनी मर्जी, ये बात अच्छी नहीं। 


सुकून औ चैन सबका खो गया है आजकल, 


निकलो नहीं घर से, बाहर की हवा अच्छी नहीं। दुनिया परेशां है कोरोना वायरस से, 


बरस रही है मौत इस वक़्त , हँसी अच्छी नहीं। 


लूट रहे हैं कुछ हॉस्पिटल दोनों हाथों से, 


इस तरह की खिदमतगारी बिलकुल अच्छी नहीं। 


कोई नहीं है अपना इस भरे जमाने में, 


हो सके नेक काम करो, दुश्मनी अच्छी नहीं। 


क़ातिलों के मोहल्ले में घर लेना ठीक नहीं, 


उनसे नजदीकियां बढ़े, ये बात अच्छी नहीं। 


प्यार करना कोई बुरी बात नहीं जहां में,


झांसेवाली आवारगी, बात अच्छी नहीं। 



रामकेश एम. यादव (कवि, साहित्यकार)मुंबई 


अध्यक्ष शब्दाक्षर महाराष्ट्र,


ज्योति तिवारी

बिटिया‌ का ससुराल से घर ‌आना


यूं खिलखिलाना


ऐसा लगे जैसे चिड़िया चहचहाना


वो खाली सा आंगन


लगे आज पूरा


वो गुड़िया का घर भी जो


कल तक था अधूरा


वो उम्मीद मेरी वो अहसास है


वो जन्मों ‌जनम‌ की बुझी


प्यास है


उसके आने से घर घर सा लगे


नहीं तो अधूरा सा लगे


वो पायल की छम-छम


वो चूड़ी की खनखन


वो है परिवार की अविरल


सी धड़कन


एक मां को सबकुछ मिल गया देख उसका‌ मुस्कुराना


वो पापा से मिलकर


उसको लिपटाना


वो भाई की कलाई में राखी का बंधना


उसी से तो घर में त्योहार है


वहीं मेंरी खुशियों का


असली ठिकाना


मुझे यह पता है


कल चली जाएगी वो


फिर अगले सावन मे


आप पाएंगी वो


इसलिए जी भर के मनुहारना


सभी ‌कुछ उसी‌पर है वारना



ज्योति तिवारी


बैंगलोर


डॉ0 हरि नाथ मिश्र

जलाओ चराग़ 


जलाओ चराग़ मिल के सभी,


अभी भी यहाँ अँधेरा है।


हर तरफ़-हर दिशा-हर गली में-


दुश्मने रौशनी का बसेरा है।।


     बारो भले तेल-बाती का दीया,


     मग़र ध्यान देना ज़रूरी है।


     मन की इस गंदी बस्ती में-


 तनिक भी नहीं उजेरा है।।


                 दुश्मने रौशनी.........।।


सभ्यता के लबादे को ओढ़े,


फ़ख्र से कहते हमीं श्रेष्ठ कृति हैं।


खेद है ये मग़र हम न समझे-


अपने अंदर छुपा इक सवेरा है।।


              दुश्मने रौशनी...........।।


अपने अंदर का दीपक जलाओ,


जिसकी आभा से छँटता अँधेरा।


दीप इंसानियत का ही जलने से-


ग़ायब होता तुरत तम घनेरा है।।


             दुश्मने रौशनी..........।।


हम जलाते हैं रावण को नाहक,


अपने अंदर का रावण जलाओ।


ताकि जल के तुरत खाक़ होवे-


जो अंदर अमानुष का डेरा है।।


           दुश्मने रौशनी...........।।


ज्ञान का दीप मिल कर जलाओ,


जैसे दीये की लौ जलती रहती।


तम बेअदबी का झट-पट छटेगा-


जो अब तक धरा को भी घेरा है।।


          दुश्मने रौशनी............।।


धूमिल न हो दीप्ति इल्मो-हुनर,


प्रेम की तेल-बाती जलाते रहो।


फिर से होगा कभी भी न मुमकिन-


जो लगता गुनाहों का फेरा है।।


       दुश्मने रौशनी का बसेरा है।।


              © डॉ0 हरि नाथ मिश्र


               9919446372


डॉ.राम कुमार झा निकुंज

 सोच सदा जग स्वस्ति की


 


जय सुधीर गंभीर नर , उद्यमशील विनीत।


सफल कीर्ति अनमोल धन , निशिचन्द्र मधुप्रीत।।१।।


 


अर्थ बने सम्बन्ध के, अपनापन विश्वास। 


साथ खड़े सुख त्रासदी , हो रिश्ते आभास।।२।।


 


बँटे सहोदर स्वार्थ में , भूले सब दायित्व।


लखि हर्षित दुखार्त में , खोए गुण अस्तित्व।।३।।


 


साथ खड़े जो मीत हो , त्यागमूर्ति परमार्थ।


सौ जीवन उस प्रीत दूँ , सखा कृष्ण सम पार्थ।।४।।


 


सोच सदा जग स्वस्ति की , साधुचित्त समुदार।


सचमुच जीये सफल जन , नश्वर जीवन सार।।५।।


 


करो भला जो कर सको , रहो मुदित संसार।


कौन कहे कब हो यहाँ , परहित रत जग पार।।६।।


 


राष्ट्रधर्म नित ध्येय हो , जीवन दो निज देश।


निर्माणक अवदान जो , प्रगति शान्ति संदेश।।७।।


 


खिलो पुष्प अरुणिम किरण , महकाओ गुण देश।


इन्द्रधनुष सतरंग से , बने चारु परिवेश।।८।।


 


बने सदा विरुदावली , शौर्य वीर बलिदान।


दें जीवन माँ भारती , जन गण सेवा मान।।९।


 


शब्दाक्षर कवि भाव मन, हो निकुंज आह्लाद।


सुखद सुरभि मुस्कान से , जन भारत आबाद।।१०।।


 


जनता बने प्रबोधिनी , कविता नित जनक्रान्ति।


संगति हो सद्कर्म की , मिटे घृणा मन भ्रान्ति।।११।।


 


सुखद शान्ति अरुणाभ जग,सरसिज मुख मुस्कान।


प्रीति भक्ति नव चेतना, भारतमय अवदान।।१२।।


 


सादर स्नेहिल परहिता, साधु संग मकरन्द।


जीवन अर्पित देश को , सद्चर्चा आनन्द।।१।।


 


डॉ.राम कुमार झा निकुंज


नई दिल्ली


डॉ. रामबली मिश्र

शुभ कारज को बहुत शीघ्र कर।


रुको नहीं अविलंब उसे कर।।


 


अवरोधी तत्वों से बचना।


यह अत्युत्तम बौद्धिक वचना।।


 


वाधाएँ अक्सर आती हैं।


काम विगाड़ चली जाती हैं।।


 


शुभ को अति जल्दी जो करता।


वही बहाले चलता-फिरता।।


 


शुभ कारज को नहीं टालना।


यथा शीघ्र का नियम पालना।।


 


दृढ़ प्रतिज्ञ जो नियमबद्ध है।


वही सफल इंसान बुद्ध है।।


 


जो करता आलस्य हमेशा।


देता रहत गलत संदेशा।।


 


शुभ कार्यों को परित्याग मत।


इस पर सारा जग है सहमत।।


 


जो करता शुभ की रक्षा है।


वही मंत्रमय शिव दीक्षा है।।


 


जो चलता शुभ-शीघ्र पंथ पर।


गढ़ता बौद्धिक मानव रचकर।।


 


रचनाकार:डॉ. रामबली मिश्र हरिहरपुरी


9838453801


[24/09, 11:26 am] +91 98384 53801: *शीर्ष*


*(चौपाई ग़ज़ल)*


 


बहुत कठिन है ऊपर चढ़ना।


समझ असंभव शीर्ष पहुँचना।।


 


जोर लगाता मानव हरदम।


किन्तु कठिन है वहाँ पहुँचना।।


 


करता इक एड़ी-चोटी है।


पर मुश्किल है शीर्ष पहुँचना।।


 


सिर्फ शीर्ष पर अंतिम सत्ता।


नहिं संभव है अंतिम बनना।।


 


अंतिम सत्ता का वंदन कर।


पूजन और निवेदन करना।।


 


भक्ति भाव में शीर्ष छिपा है।


भक्ति भाव से वहाँ पहुँचना।।


 


और दूसरा नहिं उपाय है।


लोक शीर्ष बेकार समझना।।


 


लोक शीर्ष क्षणभंगुर वंदे।


इसका मिलना भी क्या मिलना।।


 


जो मिलकर भी होत संसरित ।


उसका मिलना या ना मिलना।।


 


अंतिम शीर्ष ब्रह्म की दुनिया।


बनकर भक्त विचरते रहना।।


~~~~~~~~~~~~~~


हंसवाहिनी का दर्शन कर


 


परम अलौकिक ज्ञान समंदर।


हंसवाहिनी का दर्शन कर।।


 


विद्या महा तपस्विनि योगिनि।


ज्ञानवती का शुभ स्पर्शन कर।।


 


सहज अमृता अमी अमर रस।


खुश रहना अमृत रस पी कर।।


 


लिपटो माँ के प्रिय चरणों में।


सदा झुकाये शीश चरण पर।।


 


भावुकता का वस्त्र लपेटे।


माँगो विनयशीलता का वर।।


 


हंसवाहिनी के दर्शन से।


सद्विवेकिनी बुद्धि प्रखर कर।।


 


वीणपाणी संगीता माँ।


मधुर राग का आस्वादन कर।।


 


पुस्तक लिखना पढ़-पढ़ कहना।


रहना मस्त पवित्र ग्रन्थ पर।।


 


माँ का आशीर्वाद माँगना।


दे देंगी माता खुश हो कर।।


 


बहुत कृपालू करुणामृत माँ।


माँ चरणों का नित दर्शन कर।।


 


आँखों में जिसके प्रेमामृत।


प्रेममयी का सदा भजन कर।।


 


दुर्दिन में जो साथ निभातीं।


उस माँ श्री को सदा नमन कर।।


 


नहीं छोड़तीं कभी भक्त को।


कर न्योछावर खुद को माँ पर।।


 


करते जा माँ पर कविताई।


माँ सरस्वती का अर्चन कर।।


###############


थोड़ा.....।


 


थोड़ा ही चल।


पर अच्छा चल  


 


थोड़ा ही कर।


पर अच्छा कर।।


 


थोड़ा ही खा।


पर अच्छा खा


 


थोड़ा बोलो।


अच्छा बोलो।।


 


थोड़ा सोचो।


सुंदर सोचो।।


 


थोड़ा मिलना।


दिल से मिलना।।


 


थोड़ा करना।


मन से करना।।


 


थोड़ा दौड़ो।


प्रातः दौड़ो।।


 


थोड़ा पढ़ना।


मन से पढ़ना।।


 


थोड़ा लिखना।


सुंदर रचना।।


 


थोड़ा रचना।


दिल की कहना।।


 


थोड़ा कहना।


मीठा बनना।।


 


थोड़ा भोजन।


अच्छा व्यंजन।।


 


थोड़ी बातें।


सार्थक बातें।।


 


थोड़ा चढ़ना।


बनकर रहना।।


 


थोड़ा चलकर।


चहक-चहक कर।।


 


थोड़ा नर्तन।


मादक थिरकन।।


 


थोड़ा मचलन।


दिल का पिघलन ।।


 


थोड़ा सावन।


शिव मन भावन।।


 


डॉ. रामबली मिश्र हरिहरपुरी


9838453801


एस के कपूर श्री हंस

 हमारे अपने


कर्मों का हिसाब है जिंदगी।


 


बस चलते चले जाइये


यही जिंदगी है जनाब।


हर मुश्किल का यह


जिंदगी लिये है जवाब।।


रुकना थमना मना बस


बस चलना ही है हल।


तभी पूरे करती यह


जिंदगी है हर ख्वाब।।


 


रिश्तों को समझों तो ये


फिर सुलझते जाते हैं।


जितना समझायोगे तो


फिर ये उलझते जाते हैं।।


जो ताउम्र निभाते रिश्ते


वह तो होते हैं फरिश्ते।


उतर जायो दिल में तो


ये रिश्ते सुलटते जाते हैं।।


 


तन की सुंदरता बस मन


को आकर्षित करती है।


ह्रदय की सुंदरता तो जैसे


आत्माभी हर्षित करती है।।


अच्छा व्यवहार और


स्वाभव हैं अनमोल देन।


तेरी सहयोग सहायता


ही तुझे चर्चित करती है।।


 


बस यूँ समझों कि कभी


उदासी की आग जिंदगी।


कभी कभी खुशियों का


बाग है यह जिंदगी।।


हँसना रोना हिस्सा हैं


हर किसी के जीवन का।


बस कड़वे मीठे अनुभवों


का जैसे स्वाद है जिन्दगी।।


~~~~~~~~~~~~~~


प्रकृति से हवा पानी


जीवन की है आसानी


मत कर यूँ नादानी


*अनमोल प्रकृति।।*


धरा बहुत विशेष


मत बिगाड़ ये भेष


न रहेगा अवशेष


*जीवदायी प्रकृति ।।*


वृक्ष हैं अमृत पुत्र


पालें इन्हें ये सुपुत्र


जो काटे वो हैं कुपुत्र


*श्वासदायी प्रकृति।।*


बाढ़ और सुनामी है


हर ओर ये पानी है


रक्षा करें जुबानी है


*लाभकारी प्रकृति।।*


*2,,,,,,,,,,,,,*


हमारी ये जीवन शैली


करे धरती विषैली


न हो पॉलीथिन थैली


*प्रकृति से जीवन।।*


ऊर्जा सीमित भंडार


नष्ट हो रहा अंगार


शीघ्र करो उपचार


*ऊर्जा से ही जीवन।।*


बदलो ये व्यवहार


प्रकृति पालनहार


बचे जीवन आकार


*रक्षण से जीवन।।*


ये धुंआ और गुबार


बारिश मूसलाधार


बह जाये ये संसार


नियम से जीवन।।


 


एस के कपूर श्री हंस


बरेली


मो 9897071046


         8218685464


सुनील कुमार गुप्ता

 जीवन का उद्धार


 


सींच नेह से संबंधों को,


यहाँ ऐसा करे-व्यवहार।


कुछ तो जीवन जग में साथी,


अपने सपने होते साकार।।


सपने तो सपने है-साथी,


कहाँ-लेते वो नव-आकार?


सत्य-पथ चल कर फिर साथी,


जीवन को मिलता कुछ आधार।।


रहती गरिमा संबंधों की,


कब-करता साथी विचार?


करता विचार कुछ पल जग में,


होति इस जीवन का उद्धार।।


 


 सुनील कुमार गुप्ता


डॉ0 हरि नाथ मिश्र

सातवाँ अध्याय (श्रीकृष्णचरितबखान)-1


 


उतरहिं जगत बिबिध अवतारा।


लीला मधुर करहिं संसारा।।


    बिषय-बासना-तृष्ना भागै।


    सुमिरत नाम चेतना जागै।।


मोंहि बतावउ औरउ लीला।


कहे परिच्छित हे मुनि सीला।।


    सुनत परिच्छित कै अस बचना।


    कहन लगी लीला मुनि-रसना।।


एकबेरि सभ मिलि ब्रजबासी।


उत्सव रहे मनाइ उलासी।।


     करवट-बदल-कृष्न-अभिषेका।


     जनम-नखत अपि तरह अनेका।।


नाच-गान अरु उत्सव माहीं।


भवा कृष्न अभिषेक उछाहीं।।


      मंत्रोचार करत तहँ द्विजहीं।


      दिए असीष कृष्न कहँ सबहीं।।


ब्रह्मन-पूजन बिधिवत माता।


जसुमति किन्ह जस द्विजहिं सुहाता।।


    अन्न-बस्त्र-माला अरु गाई।


    दानहिं दीन्ह जसोदा माई।।


कृष्न लला कहँ तब नहलावा।


सयन हेतु तहँ पलँग सुलावा।।


     कछुक देरि पे किसुन कन्हाई।


     खोले लोचन लेत जम्हाई।।


लागे करन रुदन बहु जोरा।


स्तन-पान हेतु जसु-छोरा।।


     रह बहु ब्यस्त जसोदा मैया।


     सुनि नहिं पाईं रुदन कन्हैया।।


प्रभु रहँ सोवत छकड़ा नीचे।


रोवत-उछरत पाँव उलीचे।।


     छुवतै लाल-नरम पद प्रभु कै।


     भुइँ गिरि छकड़ा पड़ा उलटि कै।।


दूध-दही भरि मटका तापर।


टूटि-फाटि सभ गे छितराकर।।


     पहिया-धुरी व टूटा जूआ।


     निन्ह पाँव जब छकड़ा छूआ।।


करवट-बदल क उत्सव माहीं।


जसुमति-नंद-रोहिनी ताहीं।।


    गोपी-गोप सकल ब्रजबासी।


    कहन लगे सभ हियहिं हुलासी।।


अस कस भयो कि उलटी लढ़िया।


जनु कछु काम होय अब बढ़िया।।


    तहँ खेलत बालक सभ कहई।


    उछरत पाँव कृष्न अस करई।।


बालक-बाति न हो बिस्वासा।


भए मुक्त सभ कारन-आसा।।


सोरठा-होय ग्रहन कै कोप,अस बिचार करि जसुमती।


          लेइ द्विजहिं अरु गोप,पाठ कराईं सांति कै।।


                     डॉ0 हरि नाथ मिश्र


                      9919446372


डॉ0 हरि नाथ मिश्र

तृतीय चरण (श्रीरामचरितबखान)-17


 


सुनि पुकार लछिमन के नामा।


सीता समुझि बिकल प्रभु रामा।।


    चिंतित हो लछिमन तें कहहीं।


    लछिमन प्रभु जनु संकट परहीं।।


जाहु तुरत तहँ प्रभु की ताईं।


संकट काटि क लाहु गोसाईं।।


      बिहँसि लखन सीतहिं पुनि बोले।


      जासु भृकुटि भूमंडल डोले ।।


अस प्रभु संकट कबहुँ न आवे।


कस अस कहेउ मातु नहिं भावे।।


     कस हम छोड़ीं तोहें माई।


     थाती सौंपि गए मोंहि भाई।।


सीता मरम बचन तब कहही।


प्रभु-प्रेरित लछिमन-मन भवही।।


      सियहिं सौंपि तब बन-दिसि-देवा।


      लछिमन चले राम की सेवा।।


खैंचि भूमि तब लछिमन रेखा।


सीय मातु कहँ पुनः सरेखा।।


     अवसर पाइ कुकुर की नाईं।


     रावन तहँ सीता की ताईं।।


जती भेष धरि पहुँचा तहवाँ।


सून-अकेल सीय रहँ जहवाँ।।


    लगा सुनावै बहु बिधि नाना।


    प्रेम-नीति-सुचि कथा-पुराना।।


भिच्छा देहु मोंहि हे सुमुखी।


आरत बचन कहा जनु दूखी।।


     सुनि अस बचन सीय तब धाई।


     कंद-मूल-फल लइ तहँ आई।।


बँधी भीख मैं कबहुँ न चाहहु।


भीख लेइ तुम्ह बाहर आवहु।।


      बिधि-गति समुझि सकीं नहिं सीता।


      रेख लाँघि तहँ गईं सभीता ।।


दोहा-जदपि सीय सुर-काजु पटु,कुसल सकल गुन-ग्यान।


         बिनु समुझे रावन-कपट, बहि निकसीं अनजान।।


                        डॉ0 हरि नाथ मिश्र


                         9919446372


राजेंद्र रायपुरी

मदिरा सवैया छंद पर एक रचना- -


 


सावन आवन को कही साजन,


आ न सके किस कारन से।


 


पूछ रही सजनी नित रो कर,


ऑ॑गन चाॅ॑द सितारन से।


 


कौन बताय भला उसको सच,


खेल रहे हथियारन से।


 


बीच ठनी जब बात बनी कब,


लोग कहें सरकारन से।


 


           ।। राजेंद्र रायपुरी।।


डॉ निर्मला शर्मा

एक रोटी की खातिर


 घर छूटा, छूटा आंगन, 


छूटा रिश्ता, छूटा है सारा गांव 


एक रोटी की खातिर छूटी 


मनमोहक वह छांव 


समय है बीता बीती रैना


 दिन भी ढल- ढल जाए


 रोटी की खातिर मानव यूँ


 इत-उत भटका जाए 


बेरोजगारी से भुखमरी बढी है


 पेट ना जान पाए 


सुरसा के मुख सी भूख ये


 पेट में अगन बढ़ाए


 गांव छोड़ शहर का रुख कर


 मैं चलता चलूं निरुपाय


 दौड़-धूप मजदूरी करके 


रोटी का करूं उपाय


 एक रोटी की खातिर ही तो 


मनुज है लड़ता जाए 


राणा प्रताप सा


 स्वाभिमान ना किसी में


 जो घास की रोटी खाय


रोटी ही ईमान डिगा दे 


रोटी ही ईमान सजा दे 


कहते हैं बड़े बुजुर्ग ये


रोटी मन की दशा बदल दे


 जैसा खाओगे अन्न


 वैसा ही तन मन 


करो परिश्रम कठिन न लाओ


 बेईमानी का अन्न


एक रोटी की खातिर बनो ना 


मानव से तुम दानव 


रखो धैर्य ,संतुष्टि मन में


 करो ना तुम लालच लाघव


 ~~~~~~~~~~~~~


 


परिवार


सुनता मा मीठ लागे


कलह मा मीठ भागे


सरी दुःख ला, मिल जुरके झेल


अइसन हावे,ये परिवार के खेल ह


अपन मै ला छोड़ के


परिवार ला संवारे के सोच


झन दे कोनो ला लेच्चर जादा


तभे परिवार ह सुग्घर चल थे


सरी दुःख ला, मिल जुरके झेल


अइसन हावे, ये परिवार के खेल ह


नवा उमर जान के


कोनो ह झन इतरावे


देखके अागू म बुढ़वा ला


सबो झन माथ नवावे


आशीष पावे, बड़े बुजुर्ग के


तभे बड़े परिवार म चल पाबे


सरी दुःख ला, मिल जुरके झेल


अइसन हावे, ये परिवार के खेल ह


ददा के तोला मया मिले


दाई के मिले तोला आंचल


सपना ह तोर सच हो जाही


जब पूरा परिवार ह तोला भाही


सरी दुःख ला, मिल जुरके झेल


अइसन हावे, ये परिवार के खेल ह


सुरता आगे बीते जमाना के


अब तो उज्जर उज्जर भेष होगे


काम मा कारी पसीना तन लेे छूटे


भीजे अंग के कपड़ा ह


नइ परे बीमार जादा


सूखी रहय परिवार ह


सुनता मा मीठ लागे


कलह मा मीठ भागे


सरी दुःख ला, मिल जुरके झेल


अइसन हावे, ये परिवार के खेल ह


नूतन लाल साहू


कालिका प्रसाद सेमवाल

वीणा पुस्तक धारणी


********************


हे मां वीणा पुस्तक धारणी


मां मेरी लेखनी में धार दे


कभी कहीं ये रुके नहीं


दिव्य रुप सा इनमें प्रवाह दे।


 


हे मां वीणा पुस्तक धारणी


बुद्धि की दाता तुम ही हो


विवेक की जननी मां तुम्हीं हो


जीवन संवारने की आस तुम्हीं हो।


 


हे मां वीणा पुस्तक धारणी


मुझे शक्ति दे मां और बुद्धि दे


मां ज्ञान में निखार दे दो


आस केवल मां तुममें ही दिखती।


 


हे मां वीणा पुस्तक धारणी


मेरे कंठ में मां सदा रहो


वाणी में मिठास दे दो मां


मैं तुम्हें बार बार प्रणाम कर रहा।


********************


तुम्हें गीत गाकर कहाँ तक भुँलाऊँ


अधूरे मिलन की अधूरी कहानी,


मुझे छल रही हो मगर जी रहा हूँ।


न जाने ये कैसे जहर पी रही हो,


लिखूँ गीत कैसे प्रणय अधूरा।


पढूँ गीत कैसे मिलन जब न पूरा,


यहाँ पर पिपासित पड़ी जिन्दगानी।


कहाँ तक लिखू मैं अधूरी कहानी,


यही बात होगी कि तुम बोल दोगी।


पड़ेगी कही जिन्दगी जब अधोगी,


बिखरते सपन हैं बिखरती जवानी।


 


न तुम जानती हो न मैं जानता हूँ,


न तुम मानती हो न मैं मानता हूँ।


जरा देखना है कहाँ गीत ढलते,


जरा लेखना है कहाँ दीप जलते।


प्रणय की शिखा पर नयन को जलाऊँ,


तुम्हें गीत गाकर कहाँ तक भुलाऊँ।


विवश सोचता हूँ विवस रो रहा हूँ,


विवश जिन्दगानी प्रिये !ढो रहा हूँ।


मिटी जा रही है हृदय की रवानी,


क्या यही है हमारी कहानी।


 


तुम्हें कह रहा था, जरा पास आओ,


मिलन की लगन में प्रिये, मुस्कराओ।


न हम रह सकेंगे न तुम मिल सकोगी,


प्रणय की भिखारिन, कहाँ तक भगोगी।


प्रिये, आज मिलना असम्भवबना है,


बिछुड़ना बहुत प्राण, सम्भव बना है।


दुखों की कहानी न तुम जानती हो,


निठुर हो कहाँ कब मुझे मानती हो।


कहाँ आज मेरी ये जीवन निशानी,


 मुझे याद तुम्हारी बहुत सता रही है।।


*********************


कालिका प्रसाद सेमवाल


मानस सदन अपर बाजर


रुद्रप्रयाग उत्तराखण्ड


नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर

---------सैनिक-----


 


आन मान सम्मान 


गर्व अभिमान 


भारत का स्वाभिमान


सैनिक जवान।।


 


सीमाओं पर देश की


रक्षा करता देश भक्त


एक हाथ लिए तिरंगा


एक हाथ संगीन।।


 


फक्र से इतराता विश्व


युग को बतलाता मैं हूँ


हिन्द शान सौकत सैनिक


सैनिक जवान सपूत वीर।।


 


शपथ माँ भारती की


देश की माटी चन्दन


वंदेमातरम् जन गण 


मन भारत माता जय


जयकार हमारा गीत


सैनिक जवान भारत की


तकदीर।।


 


मेरी अभिलाषा ना क़ोई 


चाहे रहूँ भूखा प्यासा सर


भारत का झुकने ना देता


चाहे हो जाऊं शहीद।।


 


भारत की खुशहाली सुरक्षा


मेरा मार्ग संतुष्टि राष्ट्र की हसरत


हस्ती माँ ने मुझको जन्म दिया


माँ भारती का आँचल मेरा 


कर्म धर्म जीवन की मंजिल।।


 


जय भवानी जय माँ काली


हर हर महादेव का शंखनाद


विजय घोष का भाव मन मीत


सैनिक जवान हूँ शौर्य पराक्रम


मेरा संकल्प का धैर्य धीर।।


 


साहस शक्ति का फौलाद


हौसलों की उड़ान बाज़


बाज़ पंख परवाज़ जवां


जाबाज रण भूमि का 


खूंखार सैनिक जवान।।


 


थल हो नभ् हो जल हो


रण के कौशल का कुशल


पल प्रहर का प्रहरी संग्राम की


महिमा सैनिक सच्चा राष्ट्र ईमान


हूँ ।।


 


.


डॉ. रामबली मिश्र

बहुत कठिन है ऊपर चढ़ना।


समझ असंभव शीर्ष पहुँचना।।


 


जोर लगाता मानव हरदम।


किन्तु कठिन है वहाँ पहुँचना।।


 


करता इक एड़ी-चोटी है।


पर मुश्किल है शीर्ष पहुँचना।।


 


सिर्फ शीर्ष पर अंतिम सत्ता।


नहिं संभव है अंतिम बनना।।


 


अंतिम सत्ता का वंदन कर।


पूजन और निवेदन करना।।


 


भक्ति भाव में शीर्ष छिपा है।


भक्ति भाव से वहाँ पहुँचना।।


 


और दूसरा नहिं उपाय है।


लोक शीर्ष बेकार समझना।।


 


लोक शीर्ष क्षणभंगुर वंदे।


इसका मिलना भी क्या मिलना।।


 


जो मिलकर भी होत संसरित ।


उसका मिलना या ना मिलना।।


 


अंतिम शीर्ष ब्रह्म की दुनिया।


बनकर भक्त विचरते रहना।।


 


डॉ. रामबली मिश्र हरिहरपुरी


9838453801


संजय जैन

एक आस


 


न खुशी की कोई लहर, 


हमे आगे दिखती है।


जीवन और मृत्यु का डर, 


अब हमें नहीं लगता है।


बस एक आस दिल में,


सदा में रखता हूँ।


अकाल मृत्यु मेरी,


इस काल में न हो।।


 


न कर पाते क्रिया कर्म,


न बेटा निभा पता धर्म।


अनाथो की तरह से,


किया जाता अंतिम क्रियाकर्म।


न मुझको चैन मिलेगा,


न परिवारवालो को शांति।


मुक्ति पाई भी तो,


बिना लोगो के कंधों से।।


 


किये होंगे पूर्वभव में,


कुछ हमने बुरे कर्म।


तभी इस तरह से,


हमनें मिली है मुक्ति।


इसलिए मैं कहता हूँ,


करो अच्छे कर्म तुम।


और सार्थक जीवन जीकर,


पाओ अपनी मुक्ति को।।


 


जय जिनेन्द्र देव


संजय जैन (मुम्बई)


सुनीता असीम

हसीना खूब लगती है संवर कर।


वही आती नज़र देखो जिधर कर।


***


चले गजगामिनी बनकर कभी वो।


दिखे है हुस्न उसका उफ़ निखर कर।


***


सभी भंवरे बने रसपान करते।


गुलाबों सी महकती कुछ चटक कर। 


***


चरागे इश्क से जलता बदन फिर।


दिवाने कह रहे इक तो नज़र कर।


***


जो लहराए कभी आंचल वो अपना।


गिरे फिर आशिकों के दिल बिखर कर।


***


सुनीता असीम


काव्य रंगोली आज के सम्मानित रचनाकार स्वर्ण ज्योति पॉण्डिचेरी

नाम –स्वर्ण ज्योति 


शिक्ष - एम ए अर्थ शास्त्र और एम ए हिंदी साहित्य


डिप्लोमा इन सृजनात्मक लेखन, रेडियो लेखन 


मातृ भाषा – कन्नड़ 


• मैं स्वर्ण ज्योति पॉण्ड़िचेरी से अपना परिचय प्रेषित कर रही हूं 


• मेरी मातृ भाषा कन्नड़ है लेकिन मैं हिंदी में कार्य करती हूं ।


• किसी सरकारी संस्था या शिक्षण संस्था से नहीं जुड़ी हूं केवल हिंदी से जुड़ी हूँ । 


• पिछले 25-28 वर्षों से पॉण्डिचेरी में हिंदी के प्रचार-प्रसार में कार्यरत हूँ।  


• जब आम जनता से हिंदी जुड़ेगी तभी हिंदी देश की भाषा बन सकेगी ऐसा मेरा विश्वास है । 


• हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए मुझे पॉण्ड़िचेरी के उप राज्यपाल ड़ॉ किरण बेदी से दो बार सम्मानित होने का गौरव प्रप्त हुआ है । 


• इसी संदर्भ में उत्तर प्रदेश के कला एवं सांस्कृतिक मंत्री से भी सम्मान प्रप्त हुआ है ।


• भारत उत्थान न्यास के द्वारा " उत्तर और दक्षिण के मध्य सेतु" की उपाधि से नवाजा गया है ।


• हिंदी के प्रचार-प्रसार हेतु लगभग 20 से भी अधिक सम्मानों से सम्मानित किया गया है ।


• साथ ही कर्नाटक के कई संस्थाओं के द्वारा कन्नड़ भाषा में श्रेष्ठ कार्य के लिए सम्मनित किया गया है ।


• कर्नाटक के राज्यपाल जी के द्वारा , आठवीं सदी में लिखित एक अंक काव्य जिसका मैंने हिंदी में अनुवाद किया , के लिए सम्मानित हुई। 


• मेरी स्वरचित तीन पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी है जिनमें दो काव्य संग्रह एवं एक कहानी संग्रह है । 


• एक उपन्यास प्रकाशाधीन है


• इसके साथ ही विभिन्न विषयों पर लगभग आठ अनुदित पुस्तके प्रकाशित हो चुकी हैं । 


• मृदुला सिन्हा द्वारा लिखित परितप्त लंकेशवरी का कन्नड़ में अनुवाद किया जो बहुत चर्चित रहा ।


• साथ ही देश भर की अनेक संस्थाओं में एवं राष्ट्रीय एवं अंतर र्राष्ट्रीय संगोष्ठियों में मुख्य वक्ता के रूप में पॉण्ड़िचेरी का प्रतिनिधित्व किया।


• आगरा एवं वृंदावन में हुई अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी में मेरा व्यक्तव्य बहुत चर्चित रहा हुई जिसे फेसबुक एवं अनेक स्थानीय टी.वी. चैनलों से प्रसारित भी किया गया। 


• साहित्य के साथ –साथ मेरा रुझान समाज सेवा की ओर भी रहा है । इसी संदर्भ में मैं एक वृद्धाश्रम में तथा अंधाश्रम में स्वयं सेवी के रूप में कार्य करती हूँ। 


• साथ ही बेंगलुरु में आर्थिक रूप से पिछड़े परिवारों के बच्चों के लिए एक निःशुल्क विद्यालय भी चलाती हूँ। 


• इस प्रकार हिंदी, कन्नड़ और तमिल के बीच में तालमेल करते हुए मैं अपनी साहित्यिक यात्रा में निरंतर आगे बढ़ रही हूँ। 


 


 


 


Swarna jyothi 


#30, 1st floor, 1st cross


Brindawan


Saram post


Pondicherry


605613


 


आज के सम्मानित रचनाकार कौलम हेतु 


 


 


 


1. साजन का दीदार


 


 


बैचेन हो जाती हूँ बार बार


याद आता है जब तेरा प्यार


प्यारे प्यारे सब यादों के तार


पल भर में हो जाते हैं साकार


 


जब मैं रूठूं तुम करते मनुहार


कितना सुख मिलता प्रिय भरतार


अब न कर सकूँ स्वागत न सत्कार


कि तुम मथुरा मैं रह गई उस पार


 


पा न सकहुँ तेरा कोई समाचार


विरह वेदना की पड़ी है बड़ी मार


मिल आती गर मिलते पंख उधार


कर आती सखी साजन का दीदार


 


स्वर्ण जयोति


 


 


 


2. साँचा बंधन 


 


 


सतवर्णी रंगों से सज कर 


जब प्रियतम तेरी प्रीत खिले


 


राग अनुराग भाव अनुभाव 


सब जीवन ज्योति को मिले...


 


अधखुले नयन मद से भरे 


लरजते अधर रस से भरे


गोल कपोल लाल लाज भरे


हुलस के हिय हिलोर करे


 


न पंडित न वेदी न फेरे 


मंत्र न सिंदूर भाल मेरे 


बांधा साँचा बंधन तुझ्से


सजन वचन भी न चाहूं तेरे


 


देह का रखूं न मान


मन- सम्मिलन को दिया मान 


तुझमे ही समा जाऊंगी 


चाहे रहे या जाए प्राण 


 


 


स्वर्ण ज्योति


 


 


 


3. हम होंगे 


 


अक्षरों और शब्दों से बने वाक्य होंगे


बोलों और धुनों से सजे गीत होंगे


तेरे-मेरे बीच बंधे सब बन्धन


समय के पन्नों पर अंकित होंगे


 


हर तरफ खूबसूरत फ़िज़ा होगी


दिल के साज़ पर गूंजती सदा होगी


तेरे-मेरे प्यार का चाहे जो हो अंजाम


मोहब्बत की दास्तां हमेशा जवां होगी


 


तुझसे बिछड़ जाऊं इसका ग़म तो होगा


पर मेरे बाद मेरी वफाओं का संग होगा


तेरी मुस्कुराहट का वही गज़ब ढंग होगा


कि मेरे प्यार का उसमें घुला गहरा रंग होगा


 


ज़मी से फ़लक तक तेरा नाम होगा


मेरी भी यादों का पैग़ाम होगा


जाने वो कैसा मुक़ाम होगा


जब ज़मी पर फिर आशियाँ न होगा 


 


कि तेरे-मेरे बीच बंधे सब बन्धन


समय के पन्नों पर अंकित होंगे


 


 



दयानन्द त्रिपाठी

जिस धरा पर जन्म लिया 


उसका कर्ज चुकाना बाकी है


मृत्यु वरण से पहले ही 


कुछ तथ्य बताना बाकी है।


 


चुपचाप देख रहे हैं हम सब


मानव बनना बाकी है


फूलों के पहरों पर देखो


सांपों की पहरेदारी है।


 


विश्वास ठगा जा रहा जहां


रिश्ते की दिवारों में


निस्सीम प्रेम की प्रासंगिकता


अब जीवन पर भारी है।


 


सम्बंध बड़े तो होते हैं


पर दु:ख में साथ निभाते तो


दु:ख में साथ नहीं है तो


ऐसे सम्बंध तोड़ना बाकी है।


 


तेईस सितंबर 1908 को जन्में थे जो


राष्ट्रकवि दिनकर सा चमक गये


साहित्य पद्यभूषण ज्ञानपीठ पुरस्कार ले


वीररस के हुंकारों से रश्मिरथी सा दमक गये।



 -दयानन्द त्रिपाठी 


महराजगंज उत्तर प्रदेश।


डॉ. रामबली मिश्र

समदर्शिता


सुंदर मन -मानव समदर्शन ।


सबके प्रति हार्दिक आकर्षण।।


 


कोई नहीं पराया होता।


हर कोई अपनाया होता।।


 


मन में सबके प्रति संवेदन।


सुरभित आग्रह और निवेदन।।


 


सदा कुशलता की अति चाहत।


करता नहीं किसी को आहत।।


 


भाग्यमान अति परम दयालू।


नहीं किसी के प्रति ईर्ष्यालू।।


 


सबके प्रति समता अति ममता।


सकल चराचर के प्रति नमता।।


 


विनम्रता वैभव अनुकूला।


नहीं यहाँ कुछ भी प्रतिकूला।।


 


ऊँच-नीच का भेद नहीं है।


शोक-कष्ट-दुःख-खेद नहीं है।


 


समतामूलक ज्ञान संपदा।


नहीं किसी प्रकार की विपदा।।


 


समतल में विश्वास अलौकिक।


सदा घृणित है काम अनैतिक।।


 


नैतिक-मानवता का पोषण।


न्याय पंथ का शुभ उद्घोषण ।।


 


वैरागी आदर्श महातम ।


सत्यप्रकाशित मिटत गहन तम।।


 


सदानंद संतुष्ट सदा प्रिय।


आत्मतोषमय परम दिव्य हिय।।


 


इच्छारहित समादृत सममय।


निष्कामी शिवगेहदेहमय।।


 


समदर्शिता सहज परिभाषित।


हो जिसपर यह जग आधारित।।


 


सबमें पावन भाव जगे बस।


समत्वयोगी ज्ञान पगे बस।।


 


डॉ. रामबली मिश्र हरिहरपुरी


9838453801


शिवेन्द्र मिश्र शिव

उन्नीस सौ सन आठ में, जन्म 'सिमरिया' ग्राम।


'दिनकर' के माता-पिता, 'रूप' 'रवि सिंह' नाम।।


 


'कुरुक्षेत्र', व 'रश्मिरथी', 'रसवन्ती', हुंकार।


'धूप-छाँह' अरु उर्वशी, 'दिल्ली' हाहाकार।।


 


'नील-कुसुम','संचीयता', 'चक्रवाल','प्रणभंग'।


'दिनकर जी के गीत' में, 'नये सुभाषित' रंग।।


 


'शिव' "आँसू इतिहास के", अरु "आत्मा की आँख"।


हो "दिनकर की सूक्तियाँ" काव्य सृजन की शाख।।


 


संस्कृति के अध्याय हो, या रेती के फूल।


दिनकर की रचना सभी, रहीं समय अनुकूल।।


 


'कवि-श्री', 'बापू', 'रेणुका', 'हारे को हरिनाम'।


'वट-पीपल', 'चेतन-शिला', 'प्रतीक्षा-परशुराम'।।


 


शिवेन्द्र मिश्र शिव


कालिका प्रसाद सेमवाल

जाग भी जाओ


****************


भोर हुई है जाग भी जाओ।


कर्म राह मिल कदम बढ़ाओ।


 


पंछी नव धुन गीत गा रहे।


उप वन स्वर तंरग छाय रहे।


तरुवर उतरी स्वर्ण रश्मियाँ,स्वागत मंगल साज सजाओ।


भोर हुई....।


 


मस्ती में बह रही मंद पवन ।


भौंरे भी करते हैं गुन गुन।


विधि ने रच दी सुन्दर काया,


दिनकर पूजन थाल सजाओ।


भोर हुई....


 


हरियाली उपवन में छाई।


खिले फूल कलियाँ मुस्काई।


मस्त प्रसूनन की खूशबू से,


दिशा सभी अब तुम महकाओ।


भोर हुई....।


 


 


किसलय झूल रहे डालों पर।


वसुधा हरषी सुधा बिंदु धर।


कठिन परिश्रम के बल पर तुम, 


धरती पर मिल स्वर्ग बनाओ।


भोर हुई....।


*********************


कालिका प्रसाद सेमवाल


मानस सदन अपर बाजार


रुद्रप्रयाग उत्तराखंड


संदीप कुमार विश्नोई रुद्र

रामधारी सिंह दिनकर जी की जयंती पर कुछ पंक्तियां


 


वीर रस के महान , कवियों में नाम आए , 


रामधारी दिनकर , लिखते तमाम है। 


 


रेणुका , हुँकार लिखी , रसवंती , द्वन्द्वगीत , 


कुरुक्षेत्र काव्य लिख , किया बड़ा काम है। 


 


सामधेनी , इतिहास , पढ़ो धूप और धुँआ , 


रश्मिरथी का कुसुम , दिल्ली का पैगाम है। 


 


उर्वशी , परशुराम , आत्मा की आँखे कहती , 


कोयले की कविता से , हारे हरिनाम है। 


 


नीम के पत्ते चुराए , वटपीपल पे खाए , 


सीपी और शंख बाद , संस्कृति अध्याय है। 


 


हाहाकार रचना भी , इनकी है मेरे भाई , 


राष्ट्रीय जागरण का , अनल कविराय है। 


 


उर्वशी पे ज्ञानपीठ , इनको मिला है देखो , 


साहित्य अकादमी भी , दिया गुण गाय है। 


 


संदीप कुमार विश्नोई रुद्र


गाँव दुतारांवाली तह0 अबोहर जिला फाजिल्का


पंजाब


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