नूतन लाल साहू

ममा भांचा


सुन ले सगा,ये गोठ ला


कुटुंब गंगा में,आज नहाके


दरसन परसन कर ले


आशीर्वाद,तोला मिलही


अपन भांचा के


छत्तीसगढ़ मा अडबड़ नाता हे


पर पवित्र नाता हे,ममा भांचा के


धरम झोली ल, तैहर भर ले


भवसागर पार यदि जाना हे,ते


सुन ले सगा


मरजादा कोंहू, लांघो झन


आज समाज मा,नवा सोच के


जिनगी मा कुछू बने के बात कर ले


पर मत भूलना,पवित्र रिश्ता हे ममा भांचा के


सुन ले सगा


ददा के तोला,मया मिले


दाई के तोला मिले,आंचल


धरती मा पुण्य कमा ले


अपन भांचा के पांव पखार के


सुन ले सगा


कभू बडोरा डराही तोला


कभू शरद गरम के ताव


जियत मरत लेे,तै झन भुलाबे


अपन भांचा के पांव ला


सुन ले सगा


मदिरा मांस ला त्याग दे भाई


सनमारग के बात सुहाही


लाहरा ह रोक लिही तोला


तब भांचा के आशीर्वाद,काम आ ही


सुन ले सगा ये गोठ ला


कुटुंब गंगा में आज नहाके


दरसन परसन कर ले


आशीर्वाद, तोला मिलही


अपन भांचा के


नूतन लाल साहू


डॉ0 निर्मला शर्मा

संस्कृति


विश्व की हर संस्कृति से मेरी संस्कृति निराली है


अध्यात्म योग का समन्वय ये


दर्शन और ज्ञान का क्षेत्र प्रबल


कल कल करती नदियाँ बहती


झर झर झरनों से बहता जल


अतिथि को देव तुल्य माने


नहीं कोई ये भेदभाव जाने


सबका ही किया स्वागत हर क्षण


कर लिया समन्वित न किया क्षरण


हैं विविध नृत्य संगीत यहाँ


परिधानों में दिखता भारत


हर रंग निराला है जिसका


है विश्व शांति ध्येय इसका


है खान पान की विविधता यहाँ


जीने का ढंग निराला है


भारतीय संस्कृति में वसुधा को


माता कहकर के पुकारा है


वसुधैव कुटुम्बकम समझ के हम


संसार को अपना बनाते हैं


करें नमस्कार करें दण्डवत


आदर से शीश नवाते हैं


है विश्व गुरु भारत जग में


अगुवाई विश्व की करता है


हिंदी जिसकी मीठी बोली


संसार भी उसे बोलता है


अपनी संस्कृति पर मै गर्व करूँ


उसे शीश झुका कर नमन करूँ।


 


डॉ0 निर्मला शर्मा


दौसा राजस्थान


डॉ. राम कुमार झा निकुंज

जीवन्त हृदय अरुणिम प्रभात,


नवजीवन की प्रिय आभा हो।


बन इन्द्रधनुष नीलाभ हृदय,


सतरंग ललित मधु छाया हो।


 


शृङ्गार शतक सज पाटल तन,


अभिराम मुदित विधि माया हो।


आह्लाद चारु मादकता मन,


बिम्बाधर मधुरिम साया हो।


 


चारुचन्द्र प्रभा मुखरित आनन,


मधुवन कानन मधुश्रावण हो।


मुख चारु दन्त नक्षत्रजटित,


नखशिख ललाम मनभावन हो।


 


अम्बुज कपोल कोमल रसमय,


विशाल भाल नीलाम्बर हो।


मधुशाल बने कज़रार नयन,


मदहोश सजन मन मधुकर हो।


 


निशि चन्द्र सुधाकर रसिक हृदय,


मदमत्त चपल प्रिय गागर हो।


लज्जा श्रद्धा चिन्तामणि शुभ,  


कामायिनी उरोज मधु सागर हो। 


 


पलकों में छिपा मृगनैन युगल,


तन्वी श्यामा सुख दामिनी हो।


खन खन पायल पद कुमुद मृदुल,


नितम्ब शिखर गजगामिनी हो। 


 


खनक रही विरुदावली सम,


घन श्याम घटा नभ बिजुरी हो।


रजनी गंधा सज केश बन्ध,


नागिन सी लहराती कजरी हो। 


 


मरुभूमि सजन आकुल चितवन,


मधुर निर्मल मन्दाकिनी हो।


विश्रान्त हृदय प्रिय अवगाहन,


अनुराग सुभग सौदामिनी हो। 


 


रतिकाम श्याम घन जल प्लावन,


सखि प्रीति प्रलय नौकायन हो।


पतवार प्रिये अभिसार धिये,


नित प्राणप्रिये पिकगायन हो।  


 


अलिवृन्द भ्रमित मधुपान रसिक,


कोमल किसलय प्रिय साजन हो।


लाजवन्त पुष्प नत पौध पत्र,


अर्पित साजन नित यौवन हो। 


 


सिन्धु सलिल लहरें तरंग,


रत्नाकर दिल मुक्तामणि हो।


हो चन्द्रहास शीतल मधुरिम,


अविरल प्रवाह तरंगिणी हो। 


 


लालित्य मधुर अभिलाष मधुर,


मृदुभाष मुखर नवनीता हो।


कुसमित निकुंज अलिगूंज सरस,


संगीत चित्त परिणीता हो।


 


डॉ. राम कुमार झा निकुंज


नई दिल्ली


सुनीता असीम

के द्वार बन्द पड़े हैं सभी मकानों के।


समेटके बैठे हैं पंख सब उड़ानों के।


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न रास्ते में नज़र आए इक बशर कोई ।


लगे हुए हैं यहां ताले सब दुकानों में।


****


कि कह रहे हैं सभी बात को बढ़ा करके।


न रोकते हैं करोना के पर मुहानों को।


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बड़ा था नाम निशाने लगाने में जिनका।


चले हैं तीर सभी खाली उन कमानों के।


****


बिना ही बात बखेड़ा किए सभी जाते।


कि स्वर बन्द करो उन सभी बख़ानो के।


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सुनीता असीम


कालिका प्रसाद सेमवाल

मां तुम जीवन का आधार हो


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माँ परिवार की आत्मा होती है,


माँ आदिशक्ति माया होती है,


माँ घर की आरती होती है,


माँ जीवन की आस होती है,


माँ ही घर का प्रकाश होती है,


माँ गंगा सी पावन होती है,


माँ वृक्षों में पीपल सी होती है,


माँ देवियों में गायत्री होती है,


माँ फलों में श्रीफल होती है,


माँ शहद सी मीठी होती है,


माँ ममता का प्याला होती है,


माँ ऋतुराज वसंत होती है,


माँ ईद दिवाली और होली होती है,


माँआन ,बान ,शान होती है,


माँ रामायण वेद पुराण होती है,


माँ वीणा की झंकार होती है,


माँ जीवन का मधुमास होती है,


माँ तन, मन, धन होती है,


माँ ईश्वर की अनुपम कृति होती है,


माँ ही इस जहां में हमें लाईं है,


माँ ही जीवन का आधार होती है।


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कालिका प्रसाद सेमवाल


मानस सदन अपर बाजार


रुद्रप्रयाग उत्तराखंड


संजय जैन

रिश्तो को बनाये रखे


 


रिश्तो का बंधन 


कही छूट न जाये।


और डोर रिश्तों की


कही टूट न जाये।


रिश्ते होते है बहुत


जीवन में अनमोल।


इसलिए रिश्तो को


हृदय में सजा के रखे।।


 


बदल जाए परिस्थितियां 


भले ही जिंदगी में।


थाम के रखना डोर


अपने रिश्तों की।


पैसा तो आता जाता है


सबके जीवन में।


पर काम आते है


विपत्तियों में रिश्ते ही।।


 


जीवन की डोर 


बहुत नाजुक होती है।


जो किसी भी समय


टूट सकती है।


इसलिए कहता हूँ में


रिश्तो से आंनद वर्षता है।


बाकी जिंदगी में अब


रखा ही क्या है।।


 


जय जिनेन्द्र देव 


संजय जैन (मुम्बई)


डॉ. रामबली मिश्र

रामरसायन पान कर, यह अमृत अनुपान।


इसके पीने से मनुज, बनता दिव्य महान।।


 


जिसने इसको पी लिया, बना सहज चैतन्य।


लगा घूमने व्योम में, बनकर सिद्ध सुजान।।


 


हुई राम से प्रिति तब, माँ सीता से स्नेह।


सदा राम दरबार में, देता सुंदर ज्ञान।।


 


खुश होते हैं राम जी, सीता मात प्रसन्न।


पीनेवाला लोक में, पाता है सम्मान।।


 


अहोभाग्य जिसका वही, पाता अमृत- भोग।


सतत बनाकर श्रृंखला, देत रसायन दान।।


 


जन्म-जन्म के योग का, आध्यात्मिक परिणाम।


पुण्योदय जब होत है, मिलता निर्भय दान।।


 


करते-करते ध्यान जब, होत ध्यान संपुष्ट।


राम रसायन स्रवित हो, भरत स्वयं मुस्कान।।


 


जिसने पाया राम रस, उसका हाल न पूछ।


इस सारे संसार में, बना वही हनुमान।।


 


राम-जानकी की कृपा, से बरसत रस मेघ।


कोई विरला ही करत, इस रस का अनुपान।।


 


शर्दी गर्मी देत है, गर्मी शर्दी देत।


रामरसायन शुभद की,यह है दिव्य निशान।।


 


पीनेवाला रामधुन, में हो करके मस्त।


सहज छेड़ता रात-दिन, राम ज्ञानमय तान।।


 


राम भक्ति में लीन हो, करत मयूरी नृत्य।


महा प्रभू चैतन्य बन, करत राम घन ध्यान।।


 


हो जाता है लीन नित, अपने में अनुरक्त।


रामकृपा रस अमर पी, पाता आतम ज्ञान।।


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सन्देश शुभद प्यारा


उपदेश भरा है


लगे प्रीति का नारा।


 


सब मिलकर सदा चलें


भावों का गुंफन


हर दिल में प्यार पले।


 


नफरत की ज्वाला पर


प्रेम -नीर बरसे


थिरकें प्याला ले कर।


 


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मातृ शारदा बनें सहायक


 


मातृ शारदा का हो वंदन।


बनें सहायक माँ सुखनंदन।।


 


माँ श्री का आशीष लीजिये।


करते रह माँ का अभिनंदन।।


 


माँ से ही सद्बुद्धि मिलेगी।


माँ विद्यामृत शीतल चन्दन।।


 


माँ ही ज्ञानधाम शुभ राशी।


देती माँ हैं सबको शिव धन।।


 


करो सदा माँ श्री की संगति।


बनो सभ्य संस्कार सुयश मन।।


 


माँ चरणों में लिप्त रहो नित।


रहना चाहो सदा प्रिय मगन।।


 


सबमें माँ की छाया देखो।


करें सदा माँ दुःख-कष्ट हरन।।


 


डॉ. रामबली मिश्र हरिहरपुरी


9838453801


श्री मती व्यंजना आनन्द की गीता का लोकार्पण

बिहार की बेटी ने दिया जनमानस को प्रेरणा स्रोत- गीता


गत दिनाँक 23-09-2020 को सनातन धर्म के पवित्र ग्रंथ काव्य गीता के हिन्दी अनुवाद का सफलतापूर्वक विमोचन हुआ जो कि बेतिया(बिहार) के जी जो साहित्य साधक अखिल भारतीय साहित्यिक मंच के उपाध्यक्षा भी है उसी की लेखनी की देन है।


23-09-2020 के शाम को व्यञ्जना आनन्द जी के हिन्दी गीता ग्रन्थ समीक्षात्मक विमोचन ऑनलाइन ज़ूम एप्पलीकेशन द्वारा भव्यता के साथ हुआ। गत कार्यक्रम की अध्यक्षता डा.कवि कुमार निर्मल ने किया जिन्होंने बताया कि ये ग्रंथ समाज को सरलता के साथ नैतिकता की राह दिखायेगा। वहीं कार्यक्रम के मुख्य अतिथि रामनाथ साहू "ननकी भईया" जी व्यञ्जना आनन्द जी को ढेरों शुभकामनाएं देते हुए काव्यवक पाठ किया। विशिष्ट अतिथि विजय बागरी जी एवं डॉ० राणा जयराम सिंह प्रताप संरक्षक साहित्य साधक अखिल भारतीय साहित्यिक मंच से थे। इस कार्यक्रम में सम्पूर्ण भारतवर्ष के कोने कोने से साहित्यकार उपस्थित हुए और इस ग्रन्थ पर अपना-अपना मत एवं काव्यपाठ प्रस्तुत किये कहीं पर  पंकज बजाज जी द्वारा बंगाली भाषा में भजन रोमांचित रहा तो वहीं सोलापुर (मुम्बई) की बेटी क्षितिजा व जयपुर की शान इशिता ने अपने नृत्य से सबके हृदय पर गहरा छाप छोड़ दिया कार्यक्रम में आदरणीया डा.सुनीता सिंह, आचार्य गुनिंद्रानंद अवधूत, पंकज बजाज, , शिव प्रकाश पाण्डेय, शर्मा, डॉ० राम प्रकाश पथिक, अशोक कुमार झाखड़, आदि साहित्यकार उपस्थित रहे एवं अपना मन्तव्य व प्रस्तुति दिए।


कार्यक्रम का संचालन श्री मती माधुरी मंजूषा जी एवं ग़ाज़ीपुर के शिव प्रकाश पाण्डेय जी ने सफलता पूर्वक किया। कहीं मंजूषा जी ने दोहे का रस छलकाया तो कहीं पाण्डेय जी ने मुक्तक द्वारा पत्थर में संवेदना जगाई। कार्यक्रम के सम्पन्नता की घड़ी में सभी उपस्थित साहित्यकारों को श्रीमती व्यञ्जना आनन्द द्वारा धन्यवाद ज्ञापित करते समय उनके चक्षुओं में हर्ष के अंबार दिखाई दे रहे थे और उन्होंने बताया कि उनकी प्रेरणा के स्रोत उनके दादा जी कविवर विमल राजस्थानी जो बहुत अच्छे कवि थे वही रहें । वे सदा सृजन ऐसी कर जो जन कल्याण हेतु काम आए कहा करते थे और यह बताते हुए वह भाव विभोर हो गईं ।


इस लोकार्पण कार्यक्रम में साहित्य साधक मंच के संरक्षक डॉ.राणा जयराम सिंह प्रताप, सपना सक्सेना दत्ता, अध्यक्ष शशिकांत शशि , प्रियदर्शनी जी ,अमर सिंह निधि एवं संस्थापक कृष्ण कुमार क्रांति भी शामिल हुए और श्री कृष्ण कुमार क्रांति ने कहा व्यंजना आनंद जी द्वारा रचित श्रीमद्भगवद्गीता का सृजन जनमानस के लिए अमृत के समान है इनके पाठन एवं श्रवण से मनुष्य को मोक्ष की प्राप्ति होगी।


सुनील दत्त मिश्रा

छम गिरती बारिश की बूंदों का दिल से नाता है


और यह रिश्ता हमको भी बहुत निभाना आता है


फिसल न जाए पांव कहीं नीचे काई सी लगती है


लिखते जाओ लिखते जाओ सूखी स्याही लगती है


आज बरसती छत पर टप टप


कल नदियों में मिल जाएंगी।


फिर अपना अस्तित्व मिटा कर जल में कल कल कर जाएंगी


तन भी भीगा मनभी भीगा


यह तो बात पुरानी है


एक बूंद जो गिरी जीभ पर


गंगाजल सी मानी है


क्या लिखूं मैं मन की बातें


बौछारें क्या लायी है।


अब मौसम सूखा सूखा सा


किसने बात बताई है


तुम्हें निभाना आता है तो हमें बताना आता है


दोनों हाथों से सिर पर छाता भी बनाना आता है


 


सुनील दत्त मिश्रा फिल्म एक्टर राइटर की कलम से सुरक्षित सर्वाधिकार बिलासपुर छत्तीसगढ़


डॉ0 हरि नाथ मिश्र

रक्तबीज कोरोना


है बढ़ रहा कोरोना रक्तबीज की तरह,


सबको डरा रहा है, बुरी चीज़ की तरह।


डरना नहीं है इससे मगर,सुन लो दोस्तों-


संयम-नियम को धारो, ताबीज़ की तरह।।


 


क़ुदरत के साथ धोखा करने का फल है ये,


गिरि-सिंधु-सर-अरण्य को ठगने का फल है ये।


क़ुदरत के ही तो ख़ौफ़ का,उछाल कोरोना-


है साज़िशे क़ुदरत कोई, नाचीज़ की तरह।।


 


यद्यपि चला ये चीन से,कुछ लोग कह रहे,


पहुँचा है देश पश्चिम,जहाँ लोग मर रहे।


भारत पे भी प्रभाव इसका,कम तो है नहीं-


लगता यही है दलदल, दैत्य कीच की तरह।।


 


दूरी बना के रहने में,सबकी ही ख़ैर है,


अपने घरों में रहना,करनी न सैर है।


थोड़े दिनों का कष्ट ये,इसे है झेलना-


संकट में धैर्य है दवा,मुफ़ीद की तरह।।


 


सर्दी-जुक़ाम-खाँसी-बुख़ार कोरोना,


स्पर्श-रक्तबीज इव पनपे है कोरोना।


बस स्वच्छता इलाज है,एकमात्र कोरोना-


बनना नहीं समूह,उत्सव-तीज की तरह।।


 


करुणा-दया दिखानी, है अब गरीब पे,


घड़ी मदद की उनकी,मिलती नसीब से।


मिलना मग़र जो उनसे, मुँह ढाँक के मिलो-


उपकार तो होता सदा,तहज़ीब की तरह।।


 


करना विनाश सबको, है रक्तबीज का,


है रोकना फैलाव इसी,रक्तबीज का।


होगा भला जगत का,बस कर विनाश इसका-


जीवन है भोज इसका एक,लजीज़ की तरह।।


                 © डॉ0 हरि नाथ मिश्र


                    9919446372


नूतन लाल साहू

वर्षा ऋतु प्यारी


 


न तो छियालिस डिग्री गर्मी


न तो कपकपाती ठंड


वर्षा ऋतु, सबसे प्यारा लगता है


काला बादल,छलके सागर


झमाझम बरसता है,पानी


झुम झुम कर,मोरनी नांचे


कोयली गीत सुनाती हैं


न तो छियालिस डिग्री गर्मी


न तो कपकपाती ठंड


वर्षा ऋतु, सबसे प्यारा लगता है


जब छलकता है, नरवा नदिया


तब लहराता है, गंगा मैया


पुरवाही चलती है,प्यारी प्यारी


हरियर हरियर धरती माता,सुंदर लगती हैं


न तो छियालिस डिग्री गर्मी


न तो कपकपाती ठंड


वर्षा ऋतु, सबसे प्यारा लगता है


हरा हरा श्रृंगार कर,धरती मां


सबके मन को,हर्षाती है


जब कड़कती है बिजली,तब बादल गरजता है


बरसते हुए पानी में,मौसम सुहाना लगता हैं


न तो छियालिस डिग्री गर्मी


न तो कपकपाती ठंड


वर्षा ऋतु, सबसे प्यारा लगता है


प्रफुल्लित होती हैं,तितलियां


भौरे गुनगुनाता है


पेड़ पौधे,हर्षाती है


कलिया, फुल बन मुस्कुराता है


न तो छियालिस डिग्री गर्मी


न तो कपकपाती ठंड


वर्षा ऋतु, सबसे प्यारा लगता है


नूतन लाल साहू


सुनील कुमार गुप्ता

क्यों-न ढूंढे सुख अपना?


 


देखा था एक सुंदर सपना,


सच होता न होता अपना।


चाहत के रंगो संग फिर,


कब-होता वो साथी अपना?


सपनो की शहजादी बन कर,


जो छलती वो जीवन सपना।


मिल कर बिछुड़ने को फिर,


क्यों-हरती सुख अपना?


सुख की चाहत संग जग में,


कभी बीता न एक पल अपना।


सपने तो सपने साथी फिर,


क्यों-न ढूंढे सुख अपना?


 


सुनील कुमार गुप्ता


कालिका प्रसाद सेमवाल

मां शारदे


********************


हे मां शारदे


रोशनी दे ज्ञान की,


तू तो ज्ञान का भंडार है


हाथों में वीणा पुस्तक ,


 हंस वाहनी ,कमल धारणी


ओ ममतामयी मां शारदे।


 


इतनी कृपा मुझ पर करना


मैं सदाचारी बनूं,


सत्य पथ पर ही चलूं


हृदय में दया भाव रहे,


मुस्किलों में भी न घबराओ


सुमति मुझे दे दो 


राष्ट्र प्रेम भाव हृदय में रहे,


हे मां शारदे।


 


दूर कर अज्ञानता


उर में दया का वास हो


ज्योति से भर दे वसुंधरा


यही मेरी नित्य प्रार्थाना


यही मेरी कामना


हे मां शारदे।


 


करुणा का दान दे मां


सत्य मार्ग पर मैं चलता रहू


यही मेरी वंदना,


हे मां मुझे रोशनी दे ज्ञान दे


विद्या विनय का दान दें


हे मां शारदे 


हे मां शारदे।।


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कालिका प्रसाद सेमवाल


          मानस सदन अपर बाजार


             रूद्रप्रयाग उत्तराखंड


                  246171


डॉ0 हरि नाथ मिश्र

तृतीय चरण (श्रीरामचरितबखान)-19


 


होंहिं बिकल सुनि सीता-बानी।


जड़-चेतन सभ जग कै प्रानी।।


    सुनि सीता कै आरत बचना।


    गीधराज कै रह अस कहना।।


तुम्ह सीते मत होहु भयातुर।


कहा जटायू हम बध आतुर।।


    आइ तुरत रावन-बध करहूँ।


    करि सेवा मैं चाहहुँ तरहूँ।।


रावन-रथ सिय लागहिं ऐसे।


बधिक-फाँस महँ चिरई जैसे।।


     की मैनाक कि खगपति होई।


     जानन चह लंकापति सोई।।


तब लखि उमिरि जटायू जाना।


रावन गीधराज पहिचाना।।


     जो चाहेसि निज हित दसकंधर।


      छाँड़ि सियहिं तुम्ह भागहु निज घर।।


नहिं त राम-तप-पावक तुमऊ।


निज कुल सहित सलभ इव जरऊ।।


     गीध-बचन अस सुनि तब रावन।


     भगा सभीत हाँकि रथ वहिं छन।।


उड़ि-उड़ि गीध सबल निज चोंचहि।


करि प्रहार रावन बपु नोचहि।।


    गहि रावन-लट चोंच घसीटा।


    धम भुइँ गिरा दसानन पीटा।।


तब लंकेस निकारि कटारा।


कतरि जटायू-पंखहिं डारा।।


दोहा-भूईं जटायू तहँ परा, राखि न मन महँ रोष।


         रघुपति-काजु सहाइ बनि, परम मुदित हिय तोष।।


                            डॉ0 हरि नाथ मिश्र


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सातवाँ अध्याय (श्रीकृष्णचरितबखान)-2


पुनि उठाइ क गोद कन्हैया।


स्तन-पान करवनी मैया।।


    मिलि सभ गोप उठाइ क लढ़िया।


    सीधा करि क दीन्ह वहिं ठढ़िया।।


दधि-अछत अरु कुस-जल लइ के।


लढ़िया पूजे पुनि सभ मिलि के।।


    इरिषा-हिंसा-दंभ बिहीना।


    सत्यसील द्विज आसिष दीना।।


बाल कृष्न कै भे अभिषेका।


पढ़ि-पढ़ि बेद क मंत्र अनेका।।


    पाठ 'स्वस्त्ययन' अरु 'हवनादी'।


    नंद कराइ लीन्ह परसादी।।


बिधिवत ब्रह्मन-भोज करावा।


गऊ-दच्छिना-दान दिलावा।।


     कंचन-भूषन-सज्जित गैया।


     द्विजहिं दान दिय बाबा-मैया।।


एक बेरि जब मातु जसोदा।


लइके किसुनहिं आपुन गोदा।।


     रहीं दुलारत हिय भरि नेहा।


     कृष्न-भार तहँ भारी देहा।।


सहि नहिं सकीं कृष्न कै भारा।


तुरत कृष्न कहँ भूइँ उतारा।।


     लगीं करन सुमिरन भगवाना।


     लीला बाल कृष्न जनु जाना।।


रहा दनुज इक कंसहिं दासा।


त्रिनावर्त तिसु नाम उदासा।।


     आया गोकुल होइ बवंडर।


     किसुनहिं लइ नभ उड़ा भयंकर।।


बहु-बहु धूरि उड़ाइ अकासा।


ब्रजहिं ढाँकि जन किया हतासा।।


    उठत बवंडर गर्जन घोरा।


    रजकन-तम पसरा चहुँ-ओरा।।


सब जन बेसुध अरु उदबिगना।


इत-उत भागहिं लउके किछु ना।।


दोहा-घटना अद्भुत घटत लखि,बाबा नंद बिचार।


         सत्य कथन बसुदेव कै, भयो मोंहि एतबार।।


                    डॉ0 हरि नाथ मिश्र


                     9919446372


विनय साग़र जायसवाल

पहुँच से दूर साहिल देखता हूँ


करीब-ऐ-मौत तिल-तिल देखता हूँ


 


नज़र जाती है जब भी आइने पर


मुक़ाबिल अपना क़ातिल देखता हूँ 


 


मुलाकातें बढ़ीं जब से यकायक


उसे मैं ख़ुद में शामिल देखता हूँ


 


निगाहें चीख उठती हैं उसी दम


अगर उल्फ़त में बिस्मिल देखता हूँ 


 


नज़र जिस सम्त भी जाती है अब तो


तेरी यादों की महफ़िल देखता हूँ


 


तेरे नक़्श-ऐ-क़दम की ही बदौलत 


निगाहों में मैं मंज़िल देखता हूँ


 


 उसे पूजा है जब से मैंने *साग़र* 


जहां से ख़ुद को ग़ाफ़िल देखता हूँ


 


 🖋️विनय साग़र जायसवाल


मधु शंखधर स्वतंत्र

राष्ट्रकवि दिनकर जी को समर्पित रचना


 


अद्भुत अनुपम लेखनी, दिनकर से विस्तार।


राष्ट्र कवि के रूप में, छवि बसती खुद्दार।


वीरों की गाथा कहे, कुरुक्षेत्र के रूप ,


खण्डकाव्य शोभित करे,अभिव्यक्ति आधार।।


 


ओजपूर्ण श्रृंगार भी, दोनों रूप समान।


कुरुक्षेत्र अरु उर्वशी, लेखन का प्रतिमान।


हिन्दी के साहित्य का,दिनकर बने प्रभात,


राष्ट्रकवि ये ओज के, भारत का सम्मान।।


 


गौरव गाथाएँ लिखे, लिखे प्रेम का रूप।


श्रंगारिक है छाँव तो, ओज लगे ज्यूँ धूप।


दिनकर सा साहित्य ही,सजा देश के भाल,


शब्द लेखनी है प्रबल, लेखन के हैं भूप।।


मधु शंखधर स्वतंत्र


एस के कपूर श्री हंस

धन नहीं रिश्तों


की पूंजी अनमोल होती है।


 


पैसा ही उनकी हर चाल


पैसे से उनकी हर बात है।


कुछ लोग हैं जिनके लिए


पैसा ही हर सौगात है।।


पैसे से ही आँकते हैं वह


हर आदमी की औकात।


पैसा ही मानो उनके लिए


जैसे हर जज्बात है।।


 


जानते नहीं सुंदर व्यक्तित्व


की पूंजी बेमोल अमूल्य है।


इंसानियत को पहचानो कि


कीमत इसकी अनमोल है।।


प्यार देने और बाँटने से ही


मिलती है प्रतिष्ठा और प्रेम।


देखेंगें बदले में प्यार इज़्ज़त


फिर मिलती निःमूल्य है।।


 


जान लो एक सच्चा रिश्ता


बहुत अनमोल होता है।


होता इसमें केवल निस्वार्थ


प्यार नहीं झोल होता है।।


जान लो प्यार कहीं किसी


बाजार में बिकता है नहीं।


यही सत्य है सच्चा रिश्ता


समय पर नहीं गोल होता है।।


 


सच्चे रिश्ते की कदर और


पहचान वक़्त पर होती है।


मित्रता की असली परीक्षा


समय सख्त पर होती है।।


अपनापन तो दिल से दिल


का अदृश्य होता है मिलन।


कहना गलत होगा कि रिश्तों


की डोर संबंधरक्त से होती है।।


 


एस के कपूर श्री हंस


बरेली।


डॉ0 निर्मला शर्मा

कोरोनाकाल में जीवन का स्वरूप


 कोरोना काल में बदल गया 


मानव जीवन का स्वरूप 


तीज त्योहार जन्म -मरण हो


 हर उत्सव का बदला रूप


 शादी -ब्याह की रौनक खो गई 


संस्कृति का बदला हर ढंग 


खुशी का अवसर या की गमी हो


 आज नहीं होता कोई संग


कोरोना के भय से सिमटा


 सारा जहाँ हमारा है


 हर कोई कहता दूर रहो भाई 


जीवन हमको प्यारा है 


भ्रमण ,तीर्थाटन ,मंदिर, मस्जिद


 सब पर पड़ गया ताला है 


आज याद आते वो दिन हैं 


जहाँ ये जीवन पला है।


 


डॉ0 निर्मला शर्मा


दौसा राजस्थान


नूतन लाल साहू

मां गायत्री की जय


 


अंतस के ज्योति ला जला दे मइया


दे दे सदबुद्धी के भंडार


घोर तप, नइ कर सकन अब


पाप ताप संताप ला मिटा दे


मन हे मितवा,मन हे दुश्मन


जीवन म घपटे, अंधियारी दिखत हे


सबके मन निर्मल हो


अइसन वरदान दे दे


हंसा में होके संवार,हाथ में कमंडल धर


आ जाओ गायत्री माता,हमर घर आंगन


ब्रम्हा विष्णु महेश तीनों देवता


गाईन तोरेच महिमा


वेद मंत्र,सन्मार्ग के हे दुआर


ज्ञान कर्म अउ भक्ति जगा दे


तोर मंत्र म, अडबड़ शक्ति समाये हे


वशिष्ठ गुरु हा,ब्रह्मर्षि बनगे


हमर जिनगी हा,जाहरा होगे हे


अंधियारी परगे हे,आंखी मा


मर मर के हमन, जियत हन


हांस हांस के जियन हम मन हा


अइसन किरपा, ते बरसा दे


हंसा में होके संवार, हाथ में कमंडल धर


आ जाओ गायत्री माता, हमर घर आंगन


मैंहा बड़े हो कहिके, मनखे काटत हे


मनखे के गोड


अइसन कलजुग ह, खरागे हे


सुख दुःख प्रेम मया के गोठ


दिनोदिन नदावत हवय


माता तोर चरण मनावव


दुख पीरा गोहरावत हव


सप्त ऋषि के प्राण बिराजे


माता तोर मंदिर में


करो मंत्र जप,साधना मौन


भवसागर पार लगा दे


हंसा में होके संवार, हाथ में कमंडल धर


आ जाओ गायत्री माता, हमर घर आंगन


नूतन लाल साहू


संजय जैन

रूठ न जाये


इस बात का डर है,


वो कहीँ रूठ न जायेंI


नाजुक से है अरमान मेरे, 


कही टूट न जायें।।


 


फूलों से भी नाजुक है, 


उनके होठों की नरमी I


सूरज झुलस जाये, 


ऐसी सांसों की गरमी I


इस हुस्न की मस्ती को,  


कोई लूट न जाये I


इस बात का डर है,


वो कहीँ रूठ न जायें I।


 


चलते है तो नदियों की, 


अदा साथ लेके वो।


घर मेरा बहा देते है,


बस मुस्कुराके वो I


लहरों में कहीँ साथ,


मेरा छूट न जाये I


इस बात का डर है,


वो कहीँ रूठ न जायें I।


 


छतपे गये थे सुबह तो, 


दीदार कर लिया I


मिलने को कहा शामको, 


तो इनकार कर दिया I


ये सिलसिला भी फ़िरसे, 


कहीँ टूट न जाये।


इस बात का डर है,


वो कहीँ रूठ न जायें I।


 


क्या गारंटी है की फिरसे, 


कही वो रूठ न जाये।


मिलाने का बोल कर 


कही भूल न जाये।


हम बैठे रहे बाग़ में,


उनका इंतजार करके।


इस बात का डर है,


वो कहीँ रूठ न जायें I।


 


जय जिनेन्द्र देव 


संजय जैन (मुंबई )


कालिका प्रसाद सेमवाल

हे मां जगत कल्याणी


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हे मां शारदे


तुम्ही जगत कल्याणी हो


अज्ञानता से हमें तार दे


लेखनी में धार दे मां।


 


हे मां वीणा पुस्तक धारणी वरदे


हे ज्ञान दायिनी ज्ञान दे वर दे


तेरे चरणों में आज मैं पड़ा हूं


ज्ञान का उपहार दे मां।


 


हे मां शारदे 


तुम ही अज्ञानता का नाश करती हो


कण्ठ में बसो इतना उपकार कर दो


जन जन की वाणी को निर्मल कर दो।


 


हे मां सरस्वती


श्वेत साड़ी में तुम चमकती हो


हर लोक में तुम चमकती हो।


ज्ञान की देवी तुम्हें मैं प्रणाम करता हूं।


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कालिका प्रसाद सेमवाल


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लगता है कि तुम हो


 


सुबह सबेरे चिडिया जब चहकती है,


सूर्य की किरण धरती जब आती है,


वर्षा की फुहार जब पडती है


तब ऐसा लगता है कि तुम हो।


 


प्रातःकाल मन्दिर की घंटियाँ बजती है


श्रद्धालु जलाभिषेक करता है,


माथे पर पुजारी चन्दन का लेप लगता 


तब ऐसा लगता है कि तुम हो।


 


पर्वत से कोई झरना गिरता है


फूलों पर कोई भौरा गुनगुनाता है,


आसमान में इन्द्र धनुष जब दिखती है


तब ऐसा लगता है कि तुम हो।


 


सर्दियों में गुनगुनी धूप जब होती है,


खेतो में लहलहाती फसल होती है,


सावन में पपीहे की चहकती आवाज


तब ऐसा लगता है कि तुम हो।


 


पहाड़ो के तलहटी में दौडती नदी


देवदार के घने जंगलों के बीच,


पूनम की खिली चांदनी जब होती है


तब ऐसा लगता है कि तुम हो।


 


गौ धूलि के समय गाये आंगन में आती 


किसान अपनी फसलों को काटता है,


माली बाग में पौधों को पानी देता है


तब ऐसा लगता है कि तुम हो।


 


कालिका प्रसाद सेमवाल


 


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गुनगुना रहा हूं गीति के लिए


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न राग के लिए न रीति के लिए


कि दीप जल रहा अनीति के लिए।


 


न सांझ में सिमट सकी मधुर ये जिन्दगी,


न भोर में विहँस सकी निठुर ये जिन्दगी,


न कल्पना के कोर पर हँसा भोर का दीया,


न चाँदनी से बुझ सका चकोर का हिया,


 


न हार के लिए न जीत के लिए


कि चाँद चल रहा अतीत के लिए,


 


गर हँसो जो प्राण , तुम तो जिंदगी हँसे,


खिल सको जो प्राण, तुम तो जिंदगी लसे,


एक प्रीति के लिए अलभ्य रीतिका चलें,


एक भाव के लिए प्रगल्भ गीतियां ढलें।


 


न जीत के लिए न प्रीति के लिए


गुनगुना रहा हूँ गीति के लिए।


 


साँझ को समेट ले जब विरानगी निशा,


रात्रि को सहेज ले जब सुहागिनी उषा,


रश्मि नूपुरों से जब झनझना उठे धरा,


एक ही अपांग से मन करो हरा-भरा।


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कालिका प्रसाद सेमवाल


मानस सदन अपर बाजार


रुद्रप्रयाग उत्तराखंड


सुनील कुमार गुप्ता

     नव-रंग


"मिट जाती तन-मन की घुटन,


रह कर फिर अपनों के संग।


सोचता रहा मन पल-पल,


जीवन में छाये कुछ रंग।।


हरती उदासी तन-मन की,


ऐसा साथी होता संग।


छटती गम की बदली यहाँ,


जीवन में छाती उमंग।।


अंधेरे न हो जीवन में,


साथी जो चलते तुम संग।


भोर के उजाले में खिलते,


साथी जीवन के नव-रंग।।


 


 सुनील कुमार गुप्ता


राजेंद्र रायपुरी

हे गिरधारी, बंशीवाले,(२)


मुझको भी पहचानो,हे प्रभु,


मुझको भी पहचानो।


 


मैं हूॅ॑ तुम्हारी राधा जैसी, (२)


दूजा मत तुम जानो,हे प्रभु,


दूजा मत तुम जानो। 


 


निश दिन तेरे गुण मैं गाऊॅ॑। (२)


माखन -मिश्री भोग लगाऊॅ॑। (२)


हाथ जोड़ कर कहती हे प्रभु,(२)


खा लो, ज़िद मत ठानो।


 


मुझको भी पहचानो,हे प्रभु,


मुझको भी पहचानो।


 


नाचूॅ॑ मंदिर में मैं तेरे। (२)


मोहन हर दिन, शाम-सबेरे। (२)


लोक-लाज सब छोड़ दिया है,(२)


कहो न घूंघट तानो।


 


मुझको भी पहचानो,हे प्रभु,


मुझको भी पहचानो।


 


तुमको सब-कुछ मान लिया है।(२)


जग विरथा ये जान लिया है। (२)


निज़ चरनन में ही रहने दो,। (२)


जग बैरी है मानो।


 


मुझको भी पहचानो,हे प्रभु,


मुझको भी पहचानो।


 


हे गिरधारी, बंशी वाले।(२)


मुझको भी पहचानो,हे प्रभु,


मुझको भी पहचानो।


 


मैं हूॅ॑ तुम्हारी राधा जैसी। (२)


दूजा मत तुम जानो, हे प्रभु,


दूजा मत तुम जानो। 


 


       ।। राजेंद्र रायपुरी।।


डॉ. रामबली मिश्र

वाह, क्या खूब


 


वाह, क्या खूब।


कितना सुंदर नाम तुम्हारा।।


 


वाह, क्या खूब।


काम तुम्हारा अतिशय प्यारा।।


 


वाह, क्या खूब।


अति मनमोहक रूप तुम्हारा।


 


वाह, क्या खूब।


कविता-लेखन कितना न्यारा।।


 


वाह,क्या खूब।


कितनी अनुपम रचना तेरी।


 


वाह, क्या खूब।


कितनी मादक प्रीति घनेरी।।


 


वाह, क्या खूब।


मनमोहक विद्वान तुम्हीं हो।


 


वाह,क्या खूब।


मानव में भगवान तुम्हीं हो।।


 


वाह, क्या खूब।


महा तपस्वी बहुत निराला।।


 


वाह, क्या खूब।


तुम देते खुशियों का प्याला।।


 


वाह, क्या खूब।


घोर परिश्रम तुम करते हो।।


 


वाह, क्या खूब।


अति जाड़ा-गर्मी सहते हो।।


 


वाह, क्या खूब।


तुम इक सुंदर जीवन शैली।


 


वाह, क्या खूब।


तेरे कारण शुचिता फैली।।


 


वाह, क्या खूब।


तेरे कारण मानवता है।।


 


वाह, क्या खूब।


तेरे कारण मधुमयता है।।


 


वाह, क्या खूब।


तुम्हीं परस्पर प्रिति निभाते।।


 


वाह, क्या खूब।


सबको प्रियतम राह दिखाते।।


 


डॉ. रामबली मिश्र हरिहरपुरी


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जरा ठहर जाओ


 


जरा ठहर जाओ।


कुछ बात तो होने दो।।


 


जरा ठहर जाओ।


कुछ रात तो होने दो।।


 


जरा ठहर जाओ।


कुछ रात तो कटने दो।।


 


जरा ठहर जाओ।


कुछ राह तो चलने दो।।


 


जरा ठहर जाओ।


कुछ प्रेम से कहने दो।।


 


जरा ठहर जाओ।


कुछ प्रेम तो करने दो।।


 


जरा ठहर जाओ।


कुछ प्रेम से रहने दो।।


 


जरा ठहर जाओ।


न जाने कब मिलना हो।।


 


डॉ. रामबली मिश्र हरिहरपुरी


9838453801


डॉ0 हरि नाथ मिश्र

तृतीय चरण (श्रीरामचरितबखान)-18


 


कपटी-कुटिल-दुष्ट सम बानी।


सुनहु जती तव बचन सुहानी।।


     लछिमन-रेख लाँघि जब सीता।


     बाहर आईं कंप सभीता।।


तब रावन निज रूप देखावा।


कहि रावन निज नाम बतावा।।


    धरि धीरज तब सीता कहहीं।


     ठाढ़ि रहहु खल रघुबर अवहीं।।


जस कोउ ससक सेरनी चाहहि।


बिनु न्योते निज काल बोलावहि।।


    तस तव काल अवहि तव पाछे।


    असुभ होय तव नहिं कछु आछे।।


सुनि अस बाति क्रुद्ध दसकंधर।


मन महँ बंदि चरन सीता धर।।


    रथ बिठाइ सीतहिं अति आतुर।


    चला गगन-पथ हाँकि भयातुर।


सुमिरि नाम प्रभु बिलपहिं सीता।


जाहिं दुष्ट सँग दुखी- सभीता।।


      का कारन कि प्रभु नहिं आयो।


      परम कृपालु मोंहि बिसरायो।।


लछिमन तोर दोषु कछु नाहीं।


फल निज करम आजु मैं पाहीं।।


दोहा-बिलपत सिय रावन-रथहिं,नभ-पथ अस चलि जाँय।


        जस मलेछ सँग बिकल रह,परबस कपिला गाय ।।


                      डॉ0हरि नाथ मिश्र


                      9919446372


 


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सातवाँ अध्याय (श्रीकृष्णचरितबखान)-1


 


उतरहिं जगत बिबिध अवतारा।


लीला मधुर करहिं संसारा।।


    बिषय-बासना-तृष्ना भागै।


    सुमिरत नाम चेतना जागै।।


मोंहि बतावउ औरउ लीला।


कहे परिच्छित हे मुनि सीला।।


    सुनत परिच्छित कै अस बचना।


    कहन लगी लीला मुनि-रसना।।


एकबेरि सभ मिलि ब्रजबासी।


उत्सव रहे मनाइ उलासी।।


     करवट-बदल-कृष्न-अभिषेका।


     जनम-नखत अपि तरह अनेका।।


नाच-गान अरु उत्सव माहीं।


भवा कृष्न अभिषेक उछाहीं।।


      मंत्रोचार करत तहँ द्विजहीं।


      दिए असीष कृष्न कहँ सबहीं।।


ब्रह्मन-पूजन बिधिवत माता।


जसुमति किन्ह जस द्विजहिं सुहाता।।


    अन्न-बस्त्र-माला अरु गाई।


    दानहिं दीन्ह जसोदा माई।।


कृष्न लला कहँ तब नहलावा।


सयन हेतु तहँ पलँग सुलावा।।


     कछुक देरि पे किसुन कन्हाई।


     खोले लोचन लेत जम्हाई।।


लागे करन रुदन बहु जोरा।


स्तन-पान हेतु जसु-छोरा।।


     रह बहु ब्यस्त जसोदा मैया।


     सुनि नहिं पाईं रुदन कन्हैया।।


प्रभु रहँ सोवत छकड़ा नीचे।


रोवत-उछरत पाँव उलीचे।।


     छुवतै लाल-नरम पद प्रभु कै।


     भुइँ गिरि लढ़िया पड़ी उलटि कै।।


दूध-दही भरि मटका तापर।


टूटि-फाटि सभ गे छितराकर।।


     पहिया-धुरी व टूटा जूआ।


     निन्ह पाँव जब लढ़िया छूआ।।


करवट-बदल क उत्सव माहीं।


जसुमति-नंद-रोहिनी ताहीं।।


    गोपी-गोप सकल ब्रजबासी।


    कहन लगे सभ हियहिं हुलासी।।


अस कस भयो कि उलटी लढ़िया।


जनु कछु काम होय अब बढ़िया।।


    तहँ खेलत बालक सभ कहई।


    उछरत पाँव कृष्न अस करई।।


बालक-बाति न हो बिस्वासा।


भए मुक्त सभ कारन-आसा।।


सोरठा-होय ग्रहन कै कोप,अस बिचार करि जसुमती।


          लेइ द्विजहिं अरु गोप,पाठ कराईं सांति कै।।


                     डॉ0 हरि नाथ मिश्र


                      9919446372


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