हे मां जगत कल्याणी
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हे मां शारदे
तुम्ही जगत कल्याणी हो
अज्ञानता से हमें तार दे
लेखनी में धार दे मां।
हे मां वीणा पुस्तक धारणी वरदे
हे ज्ञान दायिनी ज्ञान दे वर दे
तेरे चरणों में आज मैं पड़ा हूं
ज्ञान का उपहार दे मां।
हे मां शारदे
तुम ही अज्ञानता का नाश करती हो
कण्ठ में बसो इतना उपकार कर दो
जन जन की वाणी को निर्मल कर दो।
हे मां सरस्वती
श्वेत साड़ी में तुम चमकती हो
हर लोक में तुम चमकती हो।
ज्ञान की देवी तुम्हें मैं प्रणाम करता हूं।
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कालिका प्रसाद सेमवाल
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लगता है कि तुम हो
सुबह सबेरे चिडिया जब चहकती है,
सूर्य की किरण धरती जब आती है,
वर्षा की फुहार जब पडती है
तब ऐसा लगता है कि तुम हो।
प्रातःकाल मन्दिर की घंटियाँ बजती है
श्रद्धालु जलाभिषेक करता है,
माथे पर पुजारी चन्दन का लेप लगता
तब ऐसा लगता है कि तुम हो।
पर्वत से कोई झरना गिरता है
फूलों पर कोई भौरा गुनगुनाता है,
आसमान में इन्द्र धनुष जब दिखती है
तब ऐसा लगता है कि तुम हो।
सर्दियों में गुनगुनी धूप जब होती है,
खेतो में लहलहाती फसल होती है,
सावन में पपीहे की चहकती आवाज
तब ऐसा लगता है कि तुम हो।
पहाड़ो के तलहटी में दौडती नदी
देवदार के घने जंगलों के बीच,
पूनम की खिली चांदनी जब होती है
तब ऐसा लगता है कि तुम हो।
गौ धूलि के समय गाये आंगन में आती
किसान अपनी फसलों को काटता है,
माली बाग में पौधों को पानी देता है
तब ऐसा लगता है कि तुम हो।
कालिका प्रसाद सेमवाल
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गुनगुना रहा हूं गीति के लिए
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न राग के लिए न रीति के लिए
कि दीप जल रहा अनीति के लिए।
न सांझ में सिमट सकी मधुर ये जिन्दगी,
न भोर में विहँस सकी निठुर ये जिन्दगी,
न कल्पना के कोर पर हँसा भोर का दीया,
न चाँदनी से बुझ सका चकोर का हिया,
न हार के लिए न जीत के लिए
कि चाँद चल रहा अतीत के लिए,
गर हँसो जो प्राण , तुम तो जिंदगी हँसे,
खिल सको जो प्राण, तुम तो जिंदगी लसे,
एक प्रीति के लिए अलभ्य रीतिका चलें,
एक भाव के लिए प्रगल्भ गीतियां ढलें।
न जीत के लिए न प्रीति के लिए
गुनगुना रहा हूँ गीति के लिए।
साँझ को समेट ले जब विरानगी निशा,
रात्रि को सहेज ले जब सुहागिनी उषा,
रश्मि नूपुरों से जब झनझना उठे धरा,
एक ही अपांग से मन करो हरा-भरा।
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कालिका प्रसाद सेमवाल
मानस सदन अपर बाजार
रुद्रप्रयाग उत्तराखंड