नूतन लाल साहू

विस्मरण व्यथा


कैसे बढ़ाये,स्मरण शक्ति


कैसे करें,समस्यायों का समाधान


अनेकोनेक समस्या निर्मित हो रही है


विस्मरण व्यथा, हो रहा है विकराल


व्यक्ति व्यर्थ के बातो में झूल रहा है


नित्य कर्म भी भुल रहा है


कहते हैं,भगवान ने समस्या निर्मित की है


तो,वहीं करेंगे समाधान


विस्मरण व्यथा,हो रहा है विकराल


एक जनाब,कोर्ट में पेशी जाने


फ़ाइल घर पर,निकाल कर रखी


पर,फाइल लाना ही भुल गया


वकीलों का बहस का दिन था


मामला हाथ से छुट गया


कैसे चलेगी,जीवन नैया


विस्मरण व्यथा,हो रहा है विकराल


तर्क कुतर्क,उलझन में डाल रहा है


दूरदर्शन के बोर कार्यक्रमों का,प्रभाव हो रहा है


निशदिन नया नया,समस्या देखकर


आदमी गहरी नींद, कहां सो रहा है


सच कहता हूं,यह चिंतन का विषय है


विस्मरण व्यथा,हो रहा है विकराल


व्यक्ति कार चलाते समय,मन ही मन


कोई किस्सा, गढ़ रहा है


दुर्घटना से कैसे बचे,चौराहे का बोर्ड पढ़ रहा है


होश आया तो देखा,अस्पताल के बिस्तर पर पड़ा है


सच कहता हूं,अनुसंधान का विषय है


विस्मरण व्यथा, हो रहा है विकराल


नूतन लाल साहू


एस के कपूर श्री हंस

कर्म ही महान है।


 


जान लो जन्म निश्चित तो


मरण भी निश्चित है।


अगर हैं करम अच्छे. तो


स्मरण भी निश्चित है।।


याद रहे कि मेहनत कभी


व्यर्थ नहीं जाती।


परिश्रम से भाग्य भी तेरी


शरण निश्चित है।।


 


बो कर पेड़ बबूल का आम


कोई पाता नहीं है।


करके करम बुरे कोई स्वर्ग


भी जाता नहीं है।।


करनी का फल मिलता है


कैसे भी संसार में।


बिना ऊंचा उठे तारे तोड़ कर


कोई लाता नहीं है।।


 


जान लो हमारे अच्छे कर्म ही


हमारी रक्षा करते हैं।


पुरुषार्थ से ही जीवन में हम


दक्षा बनते हैं।।


भावी पीढ़ी लिए कर्म ही है


कसौटी भाग्य की।


सीखाकरआचरण अच्छा नींव


सुरक्षा की धरते हैं।।


 


एस के कपूर श्री हंस


बरेली।


विनय साग़र जायसवाल

किस कदर इल्तिफ़ात करते हैं


उनसे हम जब भी बात करते हैं


 


उनसे बस एक यह शिकायत है


बातो बातों में मात करते हैं 


 


जब भी मिलती है यह नज़र उनसे


एक पल में क़नात करते हैं


 


फूल खिलते हैं दिल के गुलशन में


जब वो नज़रों से घात करते हैं


 


प्यार के यह हसीन लम्हे ही


ख़ूबसूरत हयात करते हैं 


 


शाद चेहरे हैं शेर पढ़कर यूँ 


हम लहू को दवात करते हैं


 


शामे-ग़म अपनी यूँ गुज़रती है 


आँसुओं को फ़रात करते हैं


 


आदमी सोच भी नहीं सकता


काम वो हादसात करते हैं


 


हमसे दीवाने ही फ़कत साग़र


रंगी-ऐ-कायनात करते हैं 


 


🖋️विनय साग़र जायसवाल


इल्तिफ़ात-कृपा ,मेहरबानी ,दया 


क़नात--कपड़े की दीवार 


हयात-जीवन ,ज़िन्दगी


शाद-- ख़ुश, प्रसन्न 


फ़रात-एक नदी 


कायनात-दुनिया, संसार


डॉ0 हरि नाथ मिश्र

वक़्त की बात


वक़्त का ऐसा बदला मिजाज़,


मौत को भाग जाना पड़ा।


शर्म से झुक कर तूफ़ान को-


कश्ती साहिल पे लाना पड़ा।।


 


सर उठाकर चले जो ज़रा,


सर उसे ही झुकाना पड़ा।


देख मजबूरियाँ बर्फ़ को-


ख़ुद को बिजली बनाना पड़ा।।


 


दे सकी जो न ये सारी दुनिया,


ख़ुद ख़ुदा को वो लाना पड़ा।


ख़ुद की ख़ुद्दारी को जो न समझा-


मुहँ की उसको ही खाना पड़ा।।


 


जिसने पाला है मन में भरम,


अश्क़ उसको बहाना पड़ा।


प्रेम के भाव को जो न समझा-


हाथ मल-मल के जाना पड़ा।।


 


नाम रौशन किया जिसने जग में,


बुद्धि-कौशल दिखाना पड़ा।


जो चढ़ा पर्वतों की शिखर पर-


जोखिम उसको उठाना पड़ा।।


        वक़्त का ऐसा बदला मिजाज़,


        मौत को भाग जाना पड़ा।।


                  ©डॉ0 हरि नाथ मिश्र


                       9919446372


संजय जैन

सोच बदल गई है


 


लड़का हो या लड़की, 


दोनों एक समान है।


हर काम करने लगी, 


आजकल की लड़कियां।


इसलिए तो लोगों की,


अब सोच बदल रही ।


और लड़की के जन्म पर, 


अब खुशियां मनाने लगे।।


 


लड़को से बढ़कर आजकल,


लड़कियां निकल रही।


समाज को आईना,


अब लड़कियां दिखा रही।


इसलिए तो मां बाप को, 


अब लड़कियां भा रही।


और कोक में अब इनकी 


हत्याएं कम हो रही।।


 


मोती अगर लड़का है तो,


हीरा है लड़कियां।


लड़के से ज्यादा भरोसे मंद,


है आजकल की लड़कीयां।


इसलिए समाज को दर्पण,


दिखा रही है लड़कियां।


दो दो जिम्मेदारियां,


उठती है लड़कीयां।।


 


एक घर की वो लक्ष्मी है,


तो दूसरे घर की वो सीता।अगर विपत्ति आये तो,


दुर्गा बन जाती है लड़कियाँ।


घर को मुसीबतों से, 


बचा लेती है लड़कियां।


स्नेह प्यार के रिश्ते भी,


खूब निभाती है लड़कियां।।


लड़का हो या लड़की, 


दोनों एक समान है।


हर काम करने लगी, 


आजकल की लड़कियां।।


 


जय जिनेन्द्र देव की


संजय जैन (मुम्बई)


सुनीता असीम

मुझको नफरत से नहीं प्यार से डर लगता है।


चाहने वालों के इजहार से डर लगता है


***


तीरगी दूर करे देखूँ जो चहरा उसका।


रोशनी के बिन अंधकार से डर लगता है।


***


सिर्फ फूलों की तरह रक्खे हैं रिश्ते हमने।


बस कभी चुभते हुए ख़ार से डर लगता है।


***


हर ख़बर मौत का संदेश लिए आए बस।


रोज़ आने वाले अख़बार से डर लगता है।


***


अब न संस्कार रहे आज के बच्चों में भी।


उनके बिगड़े हुए आचार से डर लगता है।


***


सुनीता असीम


 डॉ बीके शर्मा

चल साकी


पग-पायल झनकार लिए 


नयनों में कटार लिए आ


भला बुरा यह कहती दुनिया 


पल दो पल तू प्यार लिए


 


रोना-गाना तो दुनिया में


यूं ही चलता रहता है


लगता आंगन छोटा मुझको 


तू सारा संसार लिए आ


 


आने वाला जग जाता यहां


जाने वाला सो जाता


तेरा मेरा संबंध यहां है 


सांसों के दो तारे लिए आ


 


एक दूजे का हाथ थाम कर


एक दूजे की बात मानकर 


"चल साकी" इस जगती से


चलने को रफ्तार लिए आ


 


 डॉ बीके शर्मा


 उच्चैन भरतपुर( राजस्थान)


9828863402


कालिका प्रसाद सेमवाल

माँ शारदे


तुम्हारी वंदना कैसे करूं


माँ तुम्हारी अर्चना कैसे करूं


सभी शब्दों में समाहित तुम्हीं हो


सभी रागों की प्रतिध्वनित तुम ही हो


सभी देवों कि बुद्धि विवेक दाता तुम्हीं हो ।


 


मांँ शारदे


तुम सत्य के आधार हो


माँ तुम्हीं ज्ञान दायिनी हो


तुम्ही विघा की भण्डार हो


तुम्हीं विवेक और सौन्दर्य हो


प्रकृति में भी तुम्ही हो माँ


 


माँ शारदे


तुम दिव्य स्वरूपा हो


माँ तुम्हारी मूर्त्ति को कैसे गढूं 


मांँ मुझे विद्या विनय का दान दें


मुझ अज्ञानी का कल्याण कर


माँ मुझे वरदान दे, माँ मुझे वरदान दे।


 


कालिका प्रसाद सेमवाल


==================


तुम्हीं सच बताओ मुझे मान दोगी


********************


तुम्हें गीत की हर लहर पर संवारूँ,


तुम्हें जिन्दगी में सदा यदि दुलारूँ,


तुम्हीं सच बताओ मुझे मान दोगी,


बहुत मैं चला हूँ बहुत मैं चलूंगा,


कहीं गीत बनकर तुम्हारा ढलूंगा,


तुम्हीं सच बताओ मुझे गान दोगी।


 


प्रणय की निशानी नहीं रह सकेगी,


भले यह जवानी नहीं रह सकेगी,


तुम्हीं सच बताओ मुझे प्रान दोगी,


हृदय में कहो या सुमन में बिठाऊँ,


तरसते नयन है कहाँ देख पाऊँ,


तुम्हीं सच बताओ कहां ध्यान दोगी।


********************


कालिका प्रसाद सेमवाल


मानस सदन अपर बाजार


रूद्रप्रयाग उत्तराखंड


पिनकोड 246171


डॉ0 हरि नाथ मिश्र

तृतीय चरण (श्रीरामचरितबखान)-21


 


देखि लखन भे राम अधीरा।


कारन कवन कहहु कस पीरा।।


     बहु भयभीत लखन तब कहहीं।


     सुनि प्रभु राम बिकल बहु भवहीं।।


सुनहु लखन बहु राच्छस यहि बन।


इत-उत बिचरैं हर-पल,हर-छन।।


     कहहि मोर मन सिय नहिं तहवाँ।


     वाको तजि आयो तुम्ह इहवाँ।।


करि अनुमान तुरत प्रभु धावहिं।


तट गोदावरि कुटिया जावहिं।।


     पाइ न सीतहिं कुटिया माहीं।


     हो बहु बिकल राम बिलखाहीं।।


खोजत-फिरत राम चहुँ-ओरा।


जनु कोउ चकई चकित चकोरा।।


     खग-मृग,पसु-पंछी जे मिलहीं।


     राम बिकल मन सभतें पुछहीं।।


गिरि-तरु, पुष्प-लता सभ सुनहू।


कहँ सिय रहहिं मोर तुम्ह कहहू।।


    होंहिं मुदित निज भागि सराहहिं।


    सुक-कपोत-खंजन मिलि गावहिं।।


भ्रमर-कोकिला,मीन-कुमुदिनी।


गज-केहरि,ससि-हंस-कमलिनी।।


    सब मिलकर मनोज-धनु-हंसा।


     प्रभु-मुख सुनि भे मुदित प्रसंसा।।


सिय बिनु राम बिकल जनु ऐसे।


ब्याकुल बिरही-कामुक जैसे।।


    सुखदायक प्रभु अज-अबिनासी।


    मनुज-चरित लखि आवै हाँसी।।


मिला जटायू तब मग माहीं।


सुमिरत राम-नाम वहिं ठाहीं।।


     निज गति कारन राम बतावा।


     सीता-हरन व गमन जतावा।।


दसकंधर लइ सीयहिं भागा।


पंखहीन करि मोंहि अभागा।।


     दक्खिन-दिसि लइ रावन गयऊ।


     जेहिं दिसि प्रभु तिसु लंका भयऊ।।


प्रभु सुनि दुखद गीध कै बैना।


तिसु तन छूइ दीन्ह सुख-चैना।।


     भइ प्रसन्न तुम्ह तव तन राखहु।


      जीवन भर सुख पूरा पावहु।।


पावहिं अधम सुगति चररन्ह तें।


मैं त्यागहुँ तन तिनहिं छुवन तें।।


दोहा-करहु कृपा प्रभु मोंहि पे,गीध कहा सबिषाद।


         राम परसि तिसु बदन कह,सुर-पुर होहु अबाद।।


         गीध-प्रार्थना सुनि प्रभू,भेजि ताहि हरि-धाम।


         करि तिसु सभ अंतिम-क्रिया,चले बिनू बिश्राम।।


        जात समय प्रभु तब कहे,गीधराजु समुझाइ।


         मम पितु सन तुम्ह मत कह्यो,सीय-हरन तहँ जाइ।।


मम सर मरि जब रावन जाई।


स्वयं कथा सभ पितुहिं बताई।।


                  डॉ0हरि नाथ मिश्र


====================


आठवाँ अध्याय (श्रीकृष्णचरितबखान)-1


 


रहे पुरोहित जदुकुल नीका।


पंडित गर्गाचारहिं ठीका।।


    आए गुरु गोकुल इक बारा।


    जा पहुँचे वै नंद-दुवारा ।।


पाइ गुरुहिं तहँ नंदयिबाबा।


करि प्रनाम लीन्ह असबाबा।।


     ब्रह्मइ गुरु अरु गुरु भगवाना।


     अस भावहिं पूजे बिधि नाना।।


बिधिवत पाइ अतिथि-सत्कारा।


भए मगन गुरु नंद-दुवारा।।


     करि अभिवादन निज कर जोरे।


      कहे नंद अति भाव-बिभोरे ।।


तुमहीं पूर्णकाम मैं मानूँ।


केहि बिधि सेवा करउँ न जानूँ।।


    बड़े भागि जे नाथ पधारे।


     अवसि होहि कल्यान हमारे।।


निज प्रपंच अरु घर के काजा।


अरुझल रहहुँ सुनहु महराजा।।


     पहुँचि पाउँ नहिं आश्रम तोहरे।


      छमहु नाथ अभागि अस मोरे।।


भूत-भविष्य-गरभ का आहे।


जानै नहिं नर केतनहु चाहे।।


     ब्रह्म-बेत्ता हे गुरु ग्यानी।


     जोतिष-बिद्या तुमहिं बखानी।।


करि के नामकरन-सँस्कारा।


मम दुइ सुतन्ह करउ उपकारा।।


    मनुज जाति कै ब्रह्मन गुरुहीं।


    धरम-करम ना हो बिनु द्विजहीं।।


                डॉ0 हरि नाथ मिश्र


                 9919446372


डॉ. रामबली मिश्र

मुड़ कर देखो मीत


 


मुड़ कर देखो मीत।


तुम्हारा प्रियतम आया है।।


 


मुड़कर देखो मीत।


तुम्हारा मोहन आया है।।


 


मुड़कर देखो मीत।


तुम्हारा दीवाना है यह।


 


मुड़कर देखो मीत।


तुम्हारा मस्ताना है यह।।


 


भूल करो मत मीत।


तुम्हारे पास रहेगा यह।।


 


मुड़कर देखो मीत।


तुम्हारी राह चलेगा यह।।


 


दिल में प्रेम समुद्र।


बनकर लहर उठेगा नित यह।।


 


अब तो देखो मीत।


दर पर तेरे खड़ा आज यह।।


 


इसके दिल को देख।


है दिलदार गुलाब -अतर यह।।


===================


अब मुझे तुम भूल जाओ


 


अब मुझे तुम भूल जाओ।


मुझको कभी याद मत करना।।


 


अब मुझे तुम भूल जाओ।


मेरे दिल से बाहर रहना।।


 


अब मुझे तुम भूल जाओ।


मेरे दिल में नहीं उतरना।।


 


अब मुझे तुम भूल जाओ।


मुलाकात को गलत समझना।।


 


अब मुझे तुम भूल जाओ।


मिलने की मत कोशिश करना।।


 


अब मुझे तुम भूल जाओ।


अपने मन से मुझे झटकना।।


 


अब मुझे तुम भूल जाओ।


मुझपर गुस्सा करते रहना।।


 


अब मुझे तुम भूल जाओ।


मुझको देख विदकते रहना।।


 


अब मुझे तुम भूल जाओ।


मेरे शव पर सतत थूंकना।।


 


आया था अब चलता हूँ।


मुझपर मत तुम कभी तरसना ।।


 


अब मुझे तुम भूल जाओ ।


राम नाम है सत्य न कहना।।


===================


रहे सिलसिला सदा मिलन का।


भागे प्रति क्षण भाव जलन का।।


 


मिलें खोल दिल साफ-स्वच्छ हो।


कर्म कदापि न हो विचलन का।।


 


सुख-दुःख बाँटें हम मिलजुल कर।


गाँव बसे प्रिय रतन-भलन का।।


 


माँगें मिन्नत एक यही सब।


बने पंथ सुंदर प्रचलन का।।


 


सबको मिले प्रीति का प्याला।


शंखनाद हो दुष्ट दलन का ।।


 


हो सर्वत्र अमी- वट -रोपण ।


उर-उपवन हो मधुर फलन का।।


=====================


सर्वसाधिका मातृ शारदा


 


रसमृता अति परम सुबोधिनि।


ज्ञानामृता विवेकदायिनी।।


 


विद्यामृता विनीत महारथ।


शान्ताकारं प्रिय नि:स्वारथ।।


 


अच्युत आनंदी उत्प्रेरक।


महा सिंधु शुभ भाव उकेरक।।


 


करुणा तरुणा शिवा स्वामिनी।


सत शिव सुंदर स्वाभिमानिनी।।


 


श्रेष्ठ वरेण्य दिव्य ब्रह्माणी।


सुयशदायिनी मधु कल्याणी।।


 


सहज प्रतापपुंज दिनकर सम।


महा शीतला चन्द्रमुखी नम।।


 


धन धनतेरस धर्म धुरंधर।


परम पर्व पावन पति प्रियवर।।


 


नित्यानंदी नर नारायण।


महाव्योमनाद उच्चारण।।


 


मात्रिक वर्णिक छंद तुम्हीं हो।


महाकाव्य स्वच्छंद तुम्हीं हो।।


 


करो कृपा माँ सबके ऊपर।


सम्मोहित हों हम सब तुझ पर।।


 


डॉ. रामबली मिश्र हरिहरपुरी


9838453801


नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर

 जब जब अत्याचार का


क्रूर दामन करता खुनी


खेल ।


निरंकुश हो जाता करता


अंह का अट्टहास।।


 


तब निरीह नर में नारायण 


आता खुद जगाने विश्वाश।।


 


धरती पर रखता जब पाँव


स्वागत में पुलकित होती


माता ,कोख पर करती अभिमान।।


 


विरले पल प्रहर आते जब 


माताये भगत सिंह जनती 


समय काल भी अभिमान से


बतलाता धरती के वीर सपूतों


से अपना नाता।।


 


वर्तमान इतराता भविष्य अपने


दामन में वतर्मान की सौगात 


समेटे जाता।।


 


भगत भाव है स्वतंत्रता की


चिंगारी ,अंगार।।


भगत सिंह कराहती तलासती


आँखों की रौशनी उजियार।।


 


भगत युवा चेतना का हुंकार हनक


शंख नाद।


भगत सोच भगत त्याग बलिदान


मर्म ज्ञान का बैराग्य।।


 


रोज भगत सिंह नहीं पैदा होता


परम् शक्ति सत्ता का पराक्रम


प्रतिनिधि युग चेतना पुकार की


संतान ।।


 


मकसद का जीवन मकसद


पर कुर्बान।


सरफरोसि विचार क्रांति 


शंख नाद जोर कातिलों के बाजुओं का सर्वनाश के


आवाहन आवाज़।।


 


दुष्ट ,दमन कारी ,अत्याचारी


अन्याय का प्रबल प्रतिकार


निडर, निर्भीक साहस की


चुनौती का भयमुक्त भगत


नौजवान।।


 


धरती माँ की संतान धरती


के कण कण का रौशन चिराग


भगत धीर ,वीर, धैर्य ,धन्य वर्तमान युवा प्रेरणा महिमा गौरव गान।।


 


जीवन के कुछ वसंत ,सावन 


ही युगों युगों के जीवन का


सार ।।


 


वीरों की गाथा इबारत का


जाबांज भगत।


शौर्य सूर्य की चमक छितिज


का युवा उत्सव उल्लास की


शान।।


################


बेटी है दुनियां का नाज


बेटी करती हर काज आज


बेटी अरमानों का अवनि


आकाश।।


 


शिक्षित बेटी नैतिक समाज


बेटी संरक्षण संरक्षित समाज


बेटी बुढापे का सहारा


बेटी माँ बाप के लिये 


ज्यादा संवेदन साज।।


 


बेटी बेटा एक सामान 


बेटी गर कोख में मारी


जाती दांवन दरिद्रता 


दुःख क्लेश का आवाहन


साम्राज्।।


 


बेटी लक्ष्मी है बेटी है


वरदान


 


लिंग भेद का पतन पतित


समाज।


बढती बेटी बढ़ाता गौरव मान


बेटी का सम्मान सशक्त राष्ट


समाज की बुनियाद।।


 


बेटी गुण ज्ञान धन धान्य


की पहचान खान


बेटी से मर्यादा का मान


बेटी निश्चिन्त निर्भय विकास


न्याय का पर्याय।।


 


बेटी नगर हाट चौराहे पर


दानवता का गर हुई शिकार


पीढ़ी का घुट घुट कर प्राश्चित 


 दमघुटता शर्मशार समाज।।


 


बेटी प्यारी न्यारी 


जीवन का आभार


बेटी का रीती ,निति राजनीती


ध्यान, ज्ञान ,बैराग्य ,विज्ञानं


यत्र तंत्र सर्वत्र अधिकार।।


 


बेटी गौरव गूँज गर्जना


बेटी स्वर ,संगीत ,व्यंजना


बेटी अक्षय ,अक्षुण, पुण्य ,कर्म


बेटी संस्कृति संस्कार।।


 


बेटी का ना तिरस्कार 


बेटी संग ना भेद भाव


बेटी शिवा शिवाला ईश्वर


रचना की बाला बला नहीं


सृष्टि की ज्योति ज्वाला।।


 


***********************************


 


 वर्षा ऋतु प्यारी न्यारी 


जिंदगी का एहसास जगावे।।


 


कभी बचपन के अठखेली


कागज़ की कश्ती बारिश 


का पानी बालपन वर्षा का


आनन्द बतावे।।


 


सावन की वर्षा मन हर्षा


जवां प्यार की बहार 


रिम झिम फुहार प्यार का


खुमार ह्रदय भाव से पानी पानी।।


सावन की घटाओं में ख्वाबों की


अदाओ अदा बहार आरजू आसमान अंतर्मन पाये।।


 


वर्षा ऋतु में सावन के सुहाने मौसम में चाँद बादलो के आगोश में इश्क इज़हार की प्यास प्यार में दिल पानी पानी कशिश काश की


प्यास बुझाये।।


 


सावन वर्षा मन हर्षा वो आएगी


मन भायेगी भीगा बदन गालो पे सावन की बुँदे शबनम।          


 


नादां इश्क का जज्बा जूनून जोश जश्न का हाल प्याला मधुशाला का रस मकरंद बतायेगी।।


 


उमड़ घुमण वर्षा के बादल 


मन भबराये जीया तरसाये


कभी घनघोर कभी आये


जायें।।


 


वर्षा ऋतु शुख दुःख दोनों आश


विश्वाश धरती की प्यास बुझायें


सुखी धरती के दामन को ऊसर


बंजर से बचाये।।


 


वर्षा ऋतू प्यारी चुहू ओर


हरियाली अँधा भी हरियाली


खुशहाली का राग सुनाये।।


 


वर्षा ऋतु तीज त्योहारों का


अलख जगाये कृष्ण जन्म


युग दृष्ट्री का देव आयें।।


 


रक्षाबंधन स्वतंत्र राष्ट्र का


वन्दे मातरम् जन गण मंगल


दयाक जय हो गाये।।


 


वर्षा ऋतु प्रकृति प्राण की


बुनियाद इश्क मोहब्बत प्यार


यार का इंतज़ार का अवसर


ऋतु ख़ास गीत गाये।।


 


वर्षा ऋतु हरियाली तीज सावन का झूला सखियो का मेला राधा और कान्हा मधुबन का रास रचावे।।


वर्षा ऋतु का बचपन वर्षा का युवा यौवन पहली कर्षा पहला


सावन गोरी छोरी की मादकता


मस्ती मौसम आये।।


 


नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर


काव्य रंगोली आज के सम्मानित रचनाकार मुक्ता तैलंग, बीकानेर

 


परिचय


---------- 


 मुक्ता तैलंग 


पिता का नाम- गजानंद राव तैलंग 


जन्म- 10 जुलाई 1969 भोपाल मध्य प्रदेश। 


शैक्षणिक योग्यता m.a. हिंदी/ m.a. संस्कृत/ जर्नलिज्म एंड मास कम्युनिकेशन।        


वरिष्ठ अध्यापिका संस्कृत। मास्टर ट्रेनर, 


शोधार्थी (11 से अधिक शैक्षिक शोध) 


ऑल इंडिया रेडियो कंपेयर 1995 से लगातार। 


लेखक एवं स्वतंत्र पत्रकार,     


1988 से 1995 तक आकाशवाणी बीकानेर से काव्य-पाठ का प्रसारण। 


1988 से विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं (भास्कर, पत्रिका, युगपक्ष, राष्ट्रदूत, लोकमत, हनी-मनी, कर्मशीला, शिविरा, शुभिका एवं स्थानीय अखबारों ) आदि में लेख, कविता, कहानी प्रकाशन।    


10 से अधिक मौलिक पुस्तकों का लेखन। भूमिका एवं पुस्तक समीक्षा। 


मंचों से कविता पाठ। 


पता -- 7- द -34 पवनपुरी दक्षिण विस्तार बीकानेर। राजस्थान ।334001 


मोबाइल 9829361964. ≠==============


 


 राज़ रहने दो। ------------------------------ 


छुपे है राज़ जितने दिल में,


उनको राज़ रहने दो।


गुज़ारिश है मेरी तुमसे,


ये तोहमत आज रहने दो।।


 


सच को सच कहने की, 


जल्दी में हो क्यूं इतने।


जुबां हक़ में ज़रा खोली, 


कहा आवाज़ रहने दो।।


 


हौसलों के जब खुले पर, 


नापने को आसमां।


वो पर काट कर बोले,  


बस परवाज़ रहने दो।।


 


रश्क तो हमको बहुत है, 


तराशे कोहिनूरों पर।


जहां चाहो वहां चमको, 


मगर यह ताज रहने दो।।


 


सुनेगा आसमां वाला, 


तो पूरी ख्वाहिशें होंगी।


मिलेगी तुमको ये दौलत, 


अभी सरताज रहने दो।।


 


इबारत झूठ सच सारी, 


आंखों में पढ़ी सबने।


तकलीफ ए जुबां छोड़ो,


ये अल्फाज़ रहने दो।। 


 


छुपे है राज जितने दिल में,


उनको राज़ रहने दो।


गुजारिश है मेरी तुमसे,


ये तोहमत आज रहने दो।।


   


                         


  रोटियां। ------------------------------ 


आदमी की भूख को छलती हैं रोटियां। 


वादों की तसल्ली की बनती है रोटियां।।  


 


परवाह नहीं घर के चूल्हे की किसी को।


अब चिता की आग पे सिकती है रोटियां।।


 


चीखती चिल्लाती सी दिखती हैं हसरतें।


जब कभी अचानक जलती है रोटियां।‌।


 


मिलनी तो चाहिए ये सबके हक की बात है।             


कुछ खास कीमतों पर बिकती है रोटियां।।


 


उम्र भर हम्माली का हासिल सिफ़र रहा।


किस जमीं किस पेड़ पर फलती हैं रोटियां।।


 


  - मुक्ता तैलंग,बीकानेर. =============== 


                                                       समाज के जिस्म पे नासूर ना ये फोड़े होते।


कुछ बे लगाम घोड़े इतने भी ना दौड़े होते। 


 


उनकी ज़ुबां खुलती न टापों से दहलते दिल।


साइसों के हाथ में उस वक्त जो कोड़े होते।।


 


हवा में ना जहर होता बाकी ना प्यास रहती।


रुख़ यूं ज़लज़लों के इस ओर न मोड़ें होते।।


 


ये नफरत की आंधियां जो सांसों में है तुम्हारी।


बस्तियां न लुटती गर दिल से दिल जोड़े होते।।


 


ये चीखो पुकार सारी दहशत का नतीजा है।


रोते न बि्लबिलाते घर तुमने न तोड़ें होते।।


 


जो दर्द दूसरों का भी दिल में तुम्हारे होता।


इकतरफा धाराओं के संदर्भ ना जोड़े होते।।


 


पट्टी पढ़ानी कौन सी अब रह गई है बाकी।


न नींव खोदते तुम न हम राह के रोड़े होते।।


 


-मुक्ता तैलंग, बीकानेर। ===============


                                                            कौन परवाह करे ज़माने की।


हमें तो आदत है मुस्कुराने की।।


 


लोग जो आपको नहीं समझें।


क्या ज़रूरत उन्हें समझाने की।।


 


वो अकीदत पे वार करके भी।


ख्वाहिशें रख रहे भुलाने की।।


 


आज उल्फत पे लोग हंसते हैं।


ये भी एक चीज है भुनाने की।।


 


छोड़ भी दीजिए बुरी आदत। 


टूटे रिश्तों को आजमाने की।।


 


ये बारिशें भी अब तेज़ाब हैं।


कोशिशें है तुम्हें जलाने की।।


 


लेके हक़ की मशाल फिरता है।


कौन सुनता है इस दीवाने की।।


    


         -मुक्ता तैलंग, बीकानेर।


 


चेहरे पे चेहरा लगा लीजिएगा।


बातें भी थोड़ी बना लीजिएगा।। 


 


कीमत कहां है सच्चाईयों की।


अच्छाईयों को दबा लीजिएगा।। 


 


बातों में मिश्री सी तुम घोले रखना।


अश्कबार आंखें चुरा लीजिएगा।। 


 


लगी आग घर में बुझानी तो होगी। 


जल जाए दामन जला लीजिएगा।।


 


अपनों को सब कुछ बताने से पहले।


कुछ खास बातें छुपा लीजिएगा।‌।


 


छोड़ो भी दुनिया के रिश्ते निभाना।


बदले में किस से वफ़ा लीजिएगा।।  


 


खुद की मुसीबत ही टलती नहीं है। 


किस-किस की सर पे बला लीजिएगा।।


 


नाहक क्यों खुद को परेशान करना। 


जां बाकी है जब तक मजा लीजिएगा।।


 


पाबंदियों के भी दोहरे है तेवर।


चल जाए जैसे चला लीजिएगा।।


 


-


सुरेन्द्र पाल मिश्र

सबसे प्यारा रिश्ता बिटिया ईश्वर का उपहार।


 बिन बेटी परिवार अधूरा बेटी है उजियार।


          बिटिया है प्रभु का उपहार।


 जीवन लागे सूना सूना अन्तर सूना बाहर सूना।


 वो आंगन क्या हो ना जिसमें बेटी की किलकार।


          बिटिया है प्रभु का उपहार।


 मांगो तुम ना हीरा मोती मांगो तुम नयनों की ज्योती।


 रिश्ते के फूलों का मांगो बेटी जैसा हार।


          बिटिया है प्रभु का उपहार।


 नन्हीं मुन्नी गोदी खेले डगमग डगमग आंगन डोले।


 ममता और स्नेह के आंचल बचपन का संसार।


          बिटिया है प्रभु का उपहार।


 बड़ी हुई कालेज को जाये आकर मां का हाथ बटाये।


 साफ़ सफाई करके राखे घर को साज संवार।


          बिटिया है प्रभु का उपहार।


 लाल सोहागी जोड़ा बिंदिया पहने चूड़ी कंगन बिछिया।


 बहू रूप में चली सजाने एक नया परिवार।


          बिटिया है प्रभु का उपहार।


 सदा सुखी हो बिटिया रानी धूमिल कभी न याद पुरानी।


 कष्ट ताप में प्यारी बिटिया शीतल मलय बयार।


          बिटिया है प्रभु का उपहार।


 भाग्यवान पुत्री जो पाये श्री सम्पति उसके घर आये।


 डाटर्स डे आशीष हमारा दुःख आये ना द्वार।


          बिटिया है प्रभु का उपहार।


    सुरेन्द्र पाल मिश्र


विवेक दुबे निश्चल

बहुत कुछ लिख गया मैं वक़्त में बहकर ।


 साथ राह यूँ वक़्त , वक़्त पर मेरा होकर ।


रूठते रहे अपने कभी वक़्त की राहों पे ।


 यूँ सहारा दिया अल्फ़ाज़ ने मेरा होकर ।


 


बहुत कुछ...


 


 अश्क़ गिरे पन्नो पर , लफ्ज़ बनकर ।


  दर्द निगाहों से , चले ग़जल बनकर ।


  सफ़े-दर-सफ़े सफर रहा कलम का 


  लफ्ज़ लफ्ज़ मेरा हिसाब बनकर ।


 


बहुत कुछ...


 


  ख़्वाब सहेजे कुछ ख़्याल समेटे हुए।


 कुछ सँग उठ खड़े कुछ अधलेटे हुए ।


 थी जमीं हक़ीक़त ख़्वाब के ख़यालों में।


 रही अंगूर की बेटी काँच के प्यालो में ।


 


बहुत कुछ ...


 


 ख़ामोश थीं वो खुशियाँ , दर्द बोलते रहे ।


 तूफ़ान के इशारों से ,समन्दर डोलते रहे ।


 मैं होश में रहा, मगर , मदहोश रहकर।


 इश्क़ तेरे अंदाज से, मैं हैरां होकर ।


 


          .. विवेक दुबे निश्चल


 डॉ. राम कुमार झा निकुंज

मिटे भोर पा अरुणिमा


 


सुन्दर मधुरिम मांगलिक , हो जीवन उल्लास।


हो उदार मानस मधुर , नवप्रभात उद्भास।।१।।


 


प्रतिमानक लेखन बने , देश काल परिवेश।


सत्य पूत अभिव्यक्ति से ,जन जागृति संदेश।।२।।


 


चहुँ विकास सतरंग बन , इन्द्रधनुष नीलाभ।


खिले अधर आगम युवा,खिले प्रगति अरुणाभ।।३।।


 


करें शान्ति अभिलाष मन , रखें भाव कल्याण।


मिटे वतन से त्रासदी , दीन हीन जन त्राण।।४।।


 


गेह गेह दीपक जले , शिक्षा शुभ आलोक।


खुशियाँ सुखमय जिंदगी , मिटें रोग भय शोक।।५।।


 


उदरानल तृषार्त जब , बुझे अन्न जल काश।


गेह वसन तन सुलभ हो ,कटे तभी दुख पाश।।६।।


 


जीवन जन अहसास मन, शासन में विश्वास।


अगड़े पिछड़े भेद का , मिटे हृदय आभास।।७।।


 


जाति पाँति अरु धर्म ही , है अवनति का मूल।


आरक्षण की फाँस से , हो उन्नति प्रतिकूल।।८।।


 


लोभ मोह ईर्ष्या कपट , झूठ लूट मद चाह। 


ये विनाश की कालिमा , हो विकास गुमराह।।९।।


 


लोकतंत्र हो तब सफल, शासक हो ईमान।


भाव मनसि इन्सानियत , हो सबका सम्मान।।१०।।


 


क्षतविक्षत अभिलाष मन , सौरभ विरत निकुंज।


पतझड़ बन आहें भरे , मुरझाये दलपूँज।।११।। 


 


कुलीनता बाधक सदा , विद्योत्तम बेकार।


फँस आरक्षण दीनता , लूट घूस सरकार।।१२।।


 


जीवन बस अपमान पा , सहा सदा उपहास।


नीति त्याग सद्कर्म पथ,कठिन जटिल आभास।।१३।।


 


कविरा है अवसाद मन , शोकाकूल आगम्य।


मिटे भोर पा अरुणिमा , जाति धर्म वैषम्य।।१४।।


 


 डॉ. राम कुमार झा निकुंज


नई दिल्ली


रवि रश्मि अनुभूति

लो प्रभु के गुण गावत ।


शांति सुख सब पावत ।।


सुन्दर सी छवि भावत ।


ध्यान सभी प्रभु आवत । ।


 


छोड़ कहाँ अब जावत ।


ये जीवन अब भावत ।।


लो तम अब मिटावत ।  


ज्ञान प्रकाश दिखावत ।।


 


दूर कहाँ अब धावत ।


दर्शन पावत जावत ।।


मंदिर तो सब जा कर ।


भोर भयी सब गा कर ।।


 


आज नहीं अब सोवत ।


सोवत जो वह खोवत ।।


खोये सभी कुछ रोवत ।


पाप कहाँ अब धोवत ।।


 


(C) रवि रश्मि अनुभूति


कालिका प्रसाद सेमवाल

संस्कृति की पोषक होती है बेटियां


★★★★★★★★★★


हिमालय की चोटियां होती है बेटियां,


प्रेरणा की मूरत होती है बेटियां,


शहद सी मिठास जैसी होती है बेटियां,


पतित पावनी गंगा सी होती है बेटियां।


 


मां बाप की दुलारी होती बेटियां,


भोर की किरण होती है बेटियां,


बासन्ती बयार जैसी होती है बेटियां,


जीवन की व्याख्या होती है बेटियां।


 


दो परिवारो की लाडली होती बेटियां,


धर्म, न्याय की रक्षक होती है बेटियां,


प्रातःकाल की प्रार्थना होती है बेटियां,


संकट में राह बताती है बेटियां।


 


त्याग-तप की खान होती बेटियां,


कुल का गौरब होती है बेटियां,


बेटे से ज्यादा जिम्मेदार होती बेटियां,


अपनी कक्षा में प्रथम आती है बेटियां।


 


वैदिक ऋचाएं जैसी होती है बेटियां,


गुरु ग्रंथ की वाणी जैसी होती बेटियां,


भोर की शीतल हवा होती है बेटियां,


दक्षता का दीप होती है बेटियां।


 


जन्नत का नूर होती है बेटियां,


सबका ध्यान रखती है बेटियां,


ईश्वर की विलक्षण रचना है बेटियां,


परिवार की रौनक होती है बेटियां।


 


बेटा बेटी में न करो कोई भेद भाव,


दोनों को दे बराबर का प्यार,


आओ करें बेटियों का संरक्षण,


दे इनको महत्व और अभिरक्षण।।


★★★★★★★★★★


कालिका प्रसाद सेमवाल


मानस सदन अपर बाजार


रुद्रप्रयाग उत्तराखण्ड


डॉ0 हरि नाथ मिश्र

अष्टावक्र गीता-13


महासिंधु सम मैं वृहद,यह जग उर्मि समान।


त्याग-ग्रहण बिन मैं रहूँ,एकरूप सँग ज्ञान।।


 


चाँदी रहती सीप में,ज्यों मुझमें संसार।


रहूँ ज्ञान सँग मान मैं, त्याग-ग्रहण बिन सार।।


 


सब प्राणी मुझमें रहें,सब में मेरा वास।


त्याग-ग्रहण बिन मैं रहूँ,कर यह ज्ञानाभास।।


              © डॉ0 हरि नाथ मिश्र


                 9919446372


डॉ0 हरि नाथ मिश्र

भारत की बेटियाँ


भारत का नाम रौशन,करतीं हैं बेटियाँ,


नित-नित नवीन शोधन,करतीं हैं बेटियाँ।


 


यद्यपि ये कोमलांगी,होतीं हैं बेटियाँ,


कर लेतीं श्रम कठिन,फिर भी ये बेटियाँ।।


 


जल में हों,चाहे नभ में,होवें धरा पे वे,


नारी-प्रभा को शोभन,करतीं हैं बेटियाँ।।


 


वतन की आन-बान थीं,पहले भी बेटियाँ,


झंडे का आज रोहण, करतीं हैं बेटियाँ।।


k


कर्तव्य शासकीय,या हो प्रशासकीय,


सियासती सुयोजन,करतीं हैं बेटियाँ।।


 


होतीं अक्षुण्ण कोष ये,असीम शक्ति का,


कुरीतियों का रोधन,करतीं हैं बेटियाँ।।


 


साहस अदम्य इनमें,रहता विवेक है,


संघर्ष का ही भोजन,करतीं हैं बेटियाँ।।


 


घर में रहें या बाहर,चाहे विदेश में,


शर्मो-हया का लोचन,रहतीं हैं बेटियाँ।।


 


जीवित हैं मूर्ति त्याग की,अपनी ये बेटियाँ,


नहीं कभी प्रलोभन,करतीं हैं बेटियाँ ।।


     


रिक्शा चला भी लेतीं,भारत की बेटियाँ,


परिवार का प्रबंधन,करतीं हैं बेटियाँ।।


             © डॉ0 हरि नाथ मिश्र


                 9919446372


सुषमा दीक्षित शुक्ला

प्यार मेरा आजमा कर देख लो।


इक दफा मुझको बुला कर देख लो।


 


रात ओ दिन जल रही शम्मे वफ़ा।


 हो सके तो पास आकर देख लो।


 


 खाक का इक ढेर हूं तुम बिन सनम ।


इक दफा आंखें उठाकर देख लो।


 


 जोगने बन चुकी रातें दिन हुए बेनूर हैं।


 और भी मुझको मिटा कर देख लो ।


 


अश्क सूखे आंख में अब लव सिले हैं।


 रूह की चादर उठाकर देख लो।


 


 वक्त कितना बेरहम था एक दिन।


 दर्द के लम्हे छुपा कर देख लो ।


 


तेरे बिना बिल्कुल चला जाता नहीं।


फिर मुझे दिल से लगाकर देख लो। 


 


 तुम न आओ तो बुला लो यार मेरे।


 सुष पुराने पल चुरा कर देख लो।


 


सुषमा दीक्षित शुक्ला


डॉ. रामबली मिश्र

भविष्य


 


अति उज्ज्वल भविष्य तब होगा।


जब मानव मन सुंदर होगा।।


 


जब तक उत्तम भाव नहीं है।


तब तक उसका भाव नहीं है।।


 


अच्छा बनने की इच्छा ही।


देती सर्वोत्तम शिक्षा ही।।


 


जागरूक जो वर्तमान में।


वह जाता कल आसमान में।।


 


वर्तमान को सदा सँवारो।


कल को अब अरु अभी उतारो।।


 


कल का देखो सुंदर सपना।


हो भविष्य अति सुंदर अपना।।


 


डॉ. रामबली मिश्र हरिहरपुरी


9838453801


 


*आओ साथी बनकर*


   


आओ साथी बनकर ।


साथ निभाना चलकर।।


 


तेरा एक सहारा।


जाना नहीं छोड़कर।।


 


मैं मासूम बहुत हूँ।


आ हमराही बनकर।।


 


मेरा चलना मुश्किल ।


ले चल हाथ पकड़कर।।


 


 अपनों के सहयोगी।


हैं पृथ्वी पर अक्सर।।


 


बेगानों का साथी।


बनने का यह अवसर।।


 


बेगानों को जोड़ो।


दीवार तोड़ चलकर।।


 


भेद मिटाते रहना।


बेगानों को अपनाकर।।


 


बेगाना मन का भ्रम।


 भ्रम को रौंद चलाकर।।


 


कठिन नहीं संभव यह।


अभ्यास निरन्तर कर।।


 


जीने का अर्थ यही।


जीना सबका बनकर।।


 


जो करता सबका है।


 मरने पर वही अमर।।


 


डॉ.रामबली मिश्र हरिहरपुरी


9838453801


डॉ. राम कुमार झा निनिनिक

जीवन की पहली किरण , पड़ी मनुज इह लोक।


बेटी बहना माँ कहो , पत्नी बन हर शोक।।१।।


 


प्रथम सृष्टि की अरुणिमा , करती जग आलोक।


निर्भय नित सबला करो , बिन बाधा या रोक।।२।।


 


बढ़ा मनोबल बेटियाँ , करो साहसी धीर।


पढ़ा लिखा समरथ करो , निर्माणक तकदीर।।३।।


 


ममता समता प्रीति की , तनया नित आगार।


भरी सदा करुणा दया , खुशियाँ दे संसार।।४।।


 


गेह रोशनी बेटियाँ , दीपशिखा सम्मान।


परहित रत मेधाविनी , परकीया बन शान।।५।।


 


सरला सहजा मिहनती , चढ़ तनया सोपान।


रचे कीर्ति संसार को , पाती हर अरमान।।६।।


 


शक्तिशालिनी बेटियाँ , भरो मनसि उत्साह।


रक्षण नित बेटी करो , पूर्ण करो हर चाह।।७।।


 


सींचो स्नेहिल बेटियाँ , बिना किसी मनभेद।


जीवन हो हर्षित सुलभ , करो नहीं उच्छेद।।८।।


 


मानक कुल की बेटियाँ , विधलेखी उपहार।


जननी भगिनी बेटियाँ , महाशक्ति अवतार।।९।।


 


बेटी है शृङ्गार जग , रखो लाज सम्मान। 


साधन बन उत्थान का , नार्यशक्ति वरदान।।१०।।


 


धीर वीर योद्धा वतन , शिक्षित ज्ञान विज्ञान।


कुशला नित नेत्री वतन , अभिनेत्री कृति गान।।११।। 


 


लालटेन प्रतिबिम्ब। नित , दर्शाती अरमान।


चढ़े ऊँचाई प्रगति पथ , बेटी कुल अभिमान।।१२।।


 


संकल्पित यायावरित , सहने को संघर्ष।


हर बाधा को पार कर , चढ़े सुता उत्कर्ष।।१३।।


 


खिले निकुंज कीर्ति प्रभा ,बने चारु निशि सोम।


लघु जीवन अनमोल धन,सुता विहग यश व्योम।।१४।। 


 


डॉ. राम कुमार झा निनिनिक


नई दिल्ली


निशा अतुल्य

बेटी चली


रात तारों भरी धीरे धीरे चली है


चाँद सँग जैसे चाँदनी चली है 


सकुचाई सी एक नाजुक कली है


सोलह शृंगार से सजी दुल्हन बन चली है।


छोड़ बाबुल का अँगना बीटिया चली ।


 


बाबुल का आँगन छूटा चला


भाई बहनों का नेह पीछे खड़ा


मैया की आँखे हुई है सजल 


सोलह शृंगार से सजी दुल्हन है चली ।


छोड़ बाबुल का अँगना बीटिया चली ।


 


ये अम्बुवा की डारी पे झूला पड़ा


सखियों का सँग छूट पीछे खड़ा 


वो बचपन की यादें वो प्यारी सी बातें


सभी आँचल में भर कर चली 


सोलह शृंगार से सजी दुल्हन है चली।


छोड़ बाबुल का अँगना बीटिया चली ।


 


अब नए रिश्ते नाते निभाने ही होंगे


जो कल थे पराए आज अपनाने होंगे


प्यार का सागर नैनो में भर चली है 


नन्ही कली फूल बनने चली है 


सोलह शृंगार से सजी दुल्हन है चली।


छोड़ बाबुल का अँगना बीटिया चली ।


 


पराए थे जो हुए सभी उसके अपने 


अपनो को छोड़ जो आज चली है 


कैसी ये दुनिया की रीति बनाई 


बेटी कभी नही होती पराई 


उसे तो दो घर इस जन्म में मिलें है 


दो कुल की मर्यादा बन वो खिले है ।


सोलह शृंगार से सजी दुल्हन है चली।


छोड़ बाबुल का अँगना बीटिया चली ।


 


निशा अतुल्य


डॉ निर्मला शर्मा

मेरी बिटिया


मेरी बगिया का ऐसा वो फूल है


 मुस्कुराए करें दुख दूर है 


मेरी बिटिया ,मेरी बिटिया


मेरी बिटिया ,मेरा गुरूर है


 


बिटिया मेरी लाडो, वो नीलम परी 


उसके कदमों से है ,मेरी बगिया हरी 


 मेरी आंखों में चमके,जो नूर है 


वो है मेरी छवि, मेरा प्रतिरूप है 


 


मेरी बगिया का ऐसा, वो फूल है


 मुस्कुराए करें ,दुख दूर है


 मेरी बिटिया ,मेरी बिटिया


मेरी बिटिया मेरा, गुरूर है 


 


मेरे जीवन में ,उपहार है वो


 करती पूरा ये परिवार है वो


 मेरे बेटे की बहना, वह प्यारी प्यारी 


अपने पापा की नन्ही सी, कोमल परी


 


 मेरी बगिया का ऐसा, वो फूल है


 मुस्कुराए करे, दुख दूर है


मेरी बिटिया, मेरी बिटिया


मेरी बिटिया, मेरा गुरुर है


 


 करेगी वो एक दिन, नाम रोशन 


बनेगी सरल सौम्य, पावन 


अपने पैरों पे, एक दिन खड़ी होगी वो


 हमको जानेगा ये जग, होगा नाम वो


 


 मेरी बगिया का ऐसा, वो फूल है 


मुस्कुराए करें ,दुख दूर है


 मेरी बिटिया मेरी बिटिया 


मेरी बिटिया मेरा गुरूर है


 मेरी बिटिया मेरी बिटिया-----------------------


 


डॉ निर्मला शर्मा


 दौसा राजस्थान


संजय जैन

बेटियां


 


घर आने पर,


दौड़कर पास आये।


और सीने से लिपट जाएं,


उसे कहते हैं बिटिया।।


 


थक जाने पर,


स्नेह प्यार से।


माथे को सहलाए,


उसे कहते हैं बिटिया।।


 


कल दिला देंगे,


कहने पर मान जाये।


और जिद्द छोड़ दे,


उसे कहते हैं बिटिया।।


 


रोज़ समय पर 


दवा की याद दिलाये।


और साथ खिलाये,


उसे कहते हैं बिटिया।।


 


घर को मन से,


फूल सा सजाये।


और सुंदर बनाए।


उसे कहते हैं बिटिया।।


 


सहते हुए भी, 


दुख छुपा जाये।


और खुशियां बाटे,


उसे कहते हैं बिटिया।।


 


दूर जाने पर,


जो बहुत रुलाये।


याद अपनी दिलाये,


उसे कहते हैं बिटिया।।


 


पति की होकर भी,


पिता को भूल पाये।


सुबह शाम बात करे,


उसे कहते हैं बिटिया।।


 


मीलों दूर होकर भी, 


जो पास होने का।


एहसास दिलाये, 


उसे कहते हैं बिटिया।।


 


इसलिए अनमोल "हीरा" 


बेटियां कहलाती है।


और घरों में संस्कार,


भर पूर फैलती है।।


 


इसलिए इन्हें सरस्वती,


दुर्गा और लक्ष्मी कहते है।


और ये कविता संजय,


बेटी दिवस पर बेटियों को समर्पित करता है।।


 


जय जिनेन्द्र देव की


संजय जैन (मुम्बई)


Featured Post

दयानन्द त्रिपाठी निराला

पहले मन के रावण को मारो....... भले  राम  ने  विजय   है  पायी,  तथाकथित रावण से पहले मन के रावण को मारो।। घूम  रहे  हैं  पात्र  सभी   अब, लगे...