सुनीता असीम

एक दुनिया से ये गिला है मुझे।


दर्द उससे सिरफ़ मिला है मुझे।


***


स्वांग करते सभी सिखाने का।


संग उनका लगे कज़ा है मुझे।


***


नफरतों से भरा रहा रस्ता।


पर खुदा की फली दुआ है मुझे।


***


कुछ खुदा से नहीं मुझे शिकवा।


हद से ज्यादा सभी दिया है मुझे।


***


दिल सुनीता का है नहीं काबू।


प्रेम भगवान का मिला है मुझे।


***


सुनीता असीम


काव्य रंगोली आज के सम्मानित रचनाकार ओंकार त्रिपाठी  अयोध्या - अम्बेडकर नगर

ओंकार त्रिपाठी। लगभग 30 वर्ष से साहित्य साधना। आकाशवाणी दिल्ली के युव वाणी केंद्र, विदेश प्रसारण प्रभाग से लगातार 8 वर्षों तक काव्य पाठ। नव भारत टाइम्स, पंजाब केसरी, अमर उजाला जैसे राष्ट्रीय समाचार पत्रों एवं अनेक स्थानीय दैनिक समाचार पत्रों तथाच पत्रिकाओं में रचनाओं का प्रकाशन। दो पुस्तकों का प्रकाशन।


मो0 99536 31374


 


(1) बंद खिड़की चलो खोल दें याद की


 


 


चैत की चांदनी में जरुरत पड़ी


फागुनी आग की,


बंद खिड़की चलो खोल दें याद की।


 


फिर मिलें चलके डल झील के नीर से


मन की कश्ती को बांधे किसी तीर से


याद आती मसूरी की वे वादियां


जिनमें शीतल हुईं जून की गर्मियां


साथ नाची हिमाचल की शहजादियां


रूप के गांव की 


धूप ने यह कहा


फिर से छलका दो गगरी किसी राग की 


बंद खिड़की चलो खोल दें याद की।


चैत की --------------


 


हम भी मालिक रहे, प्यार जागीर के


हम भी रांझा थे मनहर किसी हीर के


देवताओं से ज्यादा विभव सम्पदा


एक नंदन विपिन था सुमन से लदा 


दूध की उस नदी का था रंग साँवला


प्राण की मौन वंशी ने फिर यह कहा


चूनरी पर है गाथा किसी फाग की


बंद खिड़की चलो खोल दें याद की।


चैत की चांदनी---------


 


नयन में सिमटती वो गोदावरी


ओठ पर धर गई आस आसावरी 


केश घन मंजु आनन पे बिखरे हुए


रातरानी के घर के बने पहरुए


तन को पुलकन मिली है बिना तन छुए


एक चिड़िया फुदककर कहे डाल पर 


अनमनी मंजरी है अभी बाग की


बंद खिड़की चलो खोल दें याद की।


चैत की चांदनी------


 


आग दहकेगी जब शबनमी देह में


दीप खुद जल उठेगा किसी गेह में


क्यों बहे जा रहे हो निराधार से


नीर लाओ तो मानेंगे मझधार से


मत उड़ो व्योम में व्यर्थ घनसार से


स्वाति कोई तो भर दो खुली सीप में


है जरुरत न मुझको गुणा भाग की


बंद खिड़की चलो खोल दें याद की।


 


चैत की चांदनी में--------------


 


(2) कच्चे धागे से


 


कच्चे धागे में बधा हुआ


भाई- बहना का प्यार


है लाया राखी का त्यौहार।


 


ये रिश्ता है सबसे अनमोल


न इसको किसी तुला में तोल


है इसमें रक्षा का विश्वास


बहन का भाई का अहसास 


यही इस रिश्ते का आधार 


है लाया राखी का त्यौहार।


 


ये पावनता का बन्धन है 


भावना का अभिनंदन है 


बहन भाई के माथे पर


लगाती रोली चन्दन है


बहन का भाई पर मनुहार


है लाया राखी का त्यौहार।


 


(3) उठो! अब भोर हो गयी


 


उठो !अब, भोर हो गयी।


प्रात झुरमुट से झाँके,


नींद करवट ले जागे।


शोर पायल करती है,


फिर से पनघट के आगे।


 


दिवाकर धीरे-धीरे 


पर्वतों से नीचे आते।


ओस कण मोती बनकर,


धरा के मन को सरसाते।


 


उषा अंगड़ाई लेती


पवन मकरंद बो गयी।


उठो! अब भोर हो गयी।


 


 


(4)मेरे मन में क्यों हलचल है


 


पुरवा के झोंके लिपटे हैं गदराई बदरी के तन से।


मेरे मन में क्यों हलचल है मुझसे मत पूंछो, खुद समझो।


 


टपक-टपक कर, क्या कहता है, पेड़ों की साखों से पानी।


प्रीत सरोवर में बिन डूबे, शापित है हर एक जवानी।


घन गर्जन ने जगा दिया है, सोयी हुई कामनाओं को।


आलिंगन में बांध धरा को, पहनाता है चूनर धानी।


 


दो गुलाब के फूल, चुराकर लाए हैं पराग नंदन से।


मेरे मन में क्यों हलचल है, मुझसे मत पूंछो, खुद समझो।


पुरवा के झोंके लिपटे हैं गदराई बदरी के तन से।


मेरे मन में क्यों हलचल है मुझसे मत पूंछो, खुद समझो।


 


टपक-टपक कर, क्या कहता है, पेड़ों की साखों से पानी।


प्रीत सरोवर में बिन डूबे, शापित है हर एक जवानी।


घन गर्जन ने जगा दिया है, सोयी हुई कामनाओं को।


आलिंगन में बांध धरा को, पहनाता है चूनर धानी।


 


दो गुलाब के फूल, चुराकर लाए हैं पराग नंदन से।


मेरे मन में क्यों हलचल है, मुझसे मत पूंछो, खुद समझो।


पुरवा के झोंके लिपटे हैं गदराई बदरी के तन से।


मेरे मन में क्यों हलचल है मुझसे मत पूंछो, खुद समझो।


 


 


(5) मेरे गीत जलेंगे निशि-दिन


 


परिवर्तन को 


मेरे गीत जलेंगे निशि-दिन


जग पीड़ा ले


छन्द बुनूंगा 


मैं गीतों में गंध बुनूंगा 


छल छल भाव


छलक जाएगा 


मानस घन से


मेरे मन से


लेकिन यह सब कैसे होगा


रोटी के बिन।


परिवर्तन को


मेरे गीत जलेंगे निशि-दिन।


 


भूख लगी तो


आग लिखूंगा।


आज़ादी पर 


दाग लिखूंगा।


टप-टप क्रांति 


टपक जायेगी


शब्द-शब्द से


गीत-छ्न्द से।


जयचन्दों से बदला ले लेगी


वह गिन-गिन।


परिवर्तन को


मेरे गीत जलेंगे निशि-दिन।


 



काव्य रंगोली आज के सम्मानित रचनाकार सविता वर्मा "ग़ज़ल"

सविता वर्मा


साहित्यिक नाम -सविता वर्मा "ग़जल" 


जन्म- १ जुलाई


पति - श्री कृष्ण गोपाल वर्मा


जन्म-स्थान- कस्बा छपार जनपद मुज़फ्फरनगर (उत्तर प्रदेश) 


अध्यक्ष -मन-आँगन साहित्यिक समूह" ।


 


देश विदेश की पत्र पत्रिकाओं में सतत रचनाएँ प्रकाशित. ।


अनेक साझा संग्रहों में कहानी व काव्य रचनाएँ प्रकाशित।


आकाशवाणी के अनेक केंद्रों से रचनाओं का प्रसारण।


"वीरांगना सावित्री बाई फुले फैलोशिप सम्मान ,हिंदी गौरव सम्मान सहित अनेकों पुरस्कार व सम्मानों से अलंकृत।


 


प्रकाशित पुस्तक-"पीड़ा अंतर्मन की" काव्य संग्रह 2012।


 


विधा-गीत,ग़ज़ल,काव्य,नाटक,कहानी,बाल रचनाएँ आदि।।


सम्पादन-अनेक काव्य पुस्तकों का सम्पादन।


 


 


विशेष-1."नारी सशक्तिकरण पर आधारित लघुफिल्म "शक्ति हूँ मैं" में भूमिका के लिये प्रयत्न संस्था द्वारा "नारी शक्ति सम्मान"।


विशेष-2. आकाशवाणी व दैनिक जागरण,दैनिक जनवाणी के साथ ही अनेक पत्र-पत्रिकाओं में साक्षात्कार।


अनेक साहित्य संस्थाओं की सदस्य।


 


मोबाइल नं-8755315155


मेल आईडी - savita.gazal@gmail.com


 


पता-


230,कृष्णापुरी ,


मुजफ्फरनगर,पिन-251001


(उ.प्र.)


 


 


"नारी और प्रतीक्षा"


 


नारी और प्रतीक्षा


दोनों का


मानों है


अटूट रिश्ता ..


जन्मों-जन्मों का ...


कहीँ द्रौपदी बन करती हैं


प्रतीक्षा ...


जगत के पालन हार की ...


तो कहीँ ....


अहिल्या बनती है


पाने को मुक्ति


पत्थर के स्वरूप से ...


भगवान श्री राम की..


कभी भीलनी बन


आजीवन बुहारती है


भक्ति-पथ ...


और कभी....


सीता बनकर जीती हैं


एक-एक पल


मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम की


प्रतीक्षा में ...


और अंतत मिलता हैं


तो वही वनवास ....


प्रतीक्षा ही तो की थी ...


शकुन्तला ने ....


जिसकी कोख में


अपना अंश रोपकर


..पहचान भी ना पाये


महाराज दुष्यंत ....


और वो एक अँगूठी पर


विश्वास कर बैठी ....


हैं न विडम्बना ...


युग कोई भी हो ...


रुप कोई भी हो ....


नहीँ छूटता दामन


नारी और प्रतीक्षा का ....


यॆ तो जन्मों का साथ हैं


हर युग में .....


जनम लेगी नारी


और फ़िर


बंधती रहेगी ....


बंधनों में ...


माँ -बेटी ,बहन ,पत्नी ....


या फ़िर प्रेयसी ही


क्यों ना हो .....


कभी-कभी तो तोड़ देती हैं दम


यॆ प्रतीक्षा की घड़ी ....


फ़िर भी बँधी हैं


एक-दूसरे से


नारी और प्रतीक्षा !!!!


 


 


 


"चोर"


 


शोर मचा है हर तरफ़...


चोर-चोर और चोर....


मगर कहाँ है चोर ?


मैंने तो नहीँ देखा....हैरान सी मैं


देख रही थी दायें-बांये...


तभी सामने कुछ शोर सुनकर देखा तो


टूट पड़ती है भीड़ लोगों की


एक नन्ही सी जान पर....


जिसकी उम्र शायद आठ या नौ साल रही होगी ।


और छीन लेती है उसके


पीछे की तरफ़ छुपाये दोनों हाथों से


चुराई हुई रोटी....


सबको मौका मिल गया...उसे चोरटी...कहीँ की...


या शर्म नहीँ आयी तुझे चोरी करते हुये..आदि.... आदि....मगर


कोशिश नहीँ की किसी ने भी ...


उसकी मासूम और...


मजबूर आँखों मॆं उमडे दर्द और पीडा को...


पढ़ने की ।


खुश हो रहे होते हैं सभी तो...


पकड़ जो लिया है चोर उन्होंने


पा ली हो मानों


जीत दुनियाँ भर पर....और घर आकर


खिला रहे हैं ...


अपने कुत्ते को दूध मॆं भिगोकर


डबल रोटी ॥


 


 


"रिवाज"


 


रात भर...


जलता रहा अलाव..


और खुलती रही बोतलों पर बोतलें...


और वो हँस रहे थे ..


बेहूदा और फूहड़ हँसी.....


अजीब अट्टहास के साथ...ही


वो मशगूल थे ....


खाने मॆं चिकन ,मटन और....और


जाने क्या-क्या अनाप-शनाप और


ले रहे थे चटकारे.....


यहीं तक होता तो ठीक था.....


हालाँकि अखर रहा था , ये सब मुझे.....


क्योंकि मैं ठहरा....


गाँव मॆं छाछ और चटनी के साथ


नमक लगी मिस्सी रोटी खाने वाला....


वो धरती पर रेंगने वाले विषैले सर्प के


जैसे....


रेंग रही थी उनकी उँगलियाँ...


उनके जिस्म पर...खुलेआम....


कुछ को इसी मॆं आ रहा ज़िंदगी का मजा मगर


कुछ अपने आप मॆं सिहर कर सिमट जाने की कर रही थी...नाकाम कोशिश....


रक्षक ही भक्षक जो बन कर रह गये थे उनके ।


छी...क्या यही होता है हाई सोसायटी का प्रमोशन


के बाद का जश्न....तो


नहीँ...चाहिये मुझे ऐसा प्रमोशन....


घिन आ रहे थी जब..


वो रिवाज़ के नाम पर


बदल रहे थे ...


पत्नी अपनी अपनी और मैं


सुबह की ट्रेन से जा रहा था गाँव की ओर अपने ॥


 


 


 


"तलाश"


 


वो बता रहे हैं रस्ता


कुछ नये मुसाफिरों को....


और मुसाफिर अंजान....


नहीँ जानते कि...


उतरे हैं सौदागर मौत के...


और चल पड़ते हैं...


करते उनका अनुसरण....


आज़ एक डोज मॆं....


जन्नत का मजा था मानों...


मुफ्त की दो दिन और.....


और फ़िर तीसरे दिन


बदलने लगते रास्ता....


अब नये मुसाफिर....


खुद ब खुद कुत्ते की भाँति


सूंघते सूंघते....


आखिर ढूँढ ही लेते हैं पता-ठिकाना..


राह दिखाने वाले का और


बन जाते है धीरे धीरे बुत.....


ऐसा बुत जो कर देता है


बर्बाद.....घर-बार और....


ज़िंदगी नये मुसाफिरों की....


ख़त्म होती सांसे माँगती रह जाती हैं...


बस एक पुड़िया और...


किंतु खेल यहीं ख़त्म नहीँ हो जाता?


वो फ़िर अपने-अपने बिल से निकल


पड़ते हैं तलाश मॆं...


नये मुसाफिर की ॥


 


 


"सौदागर"


 


रात भर टी.वी.के लगभग


सभी न्यूज चैनलों पर....


मची थी हाहाकार...


महिलाएँ....


बच्चे.....


बड़े सभी की चीत्कार कानों को


चीर रही थी....


लाशें भरी जा रही थी....


एम्बुलेंस मॆं....


मौत का तांडव पूरे जोरों पर था....


उफ़्फ़....


दिल तड़प गया....


रूह काँप गई...


और आँखें पथरा गई थी मानों....


मौत के साये मॆं सोये....ये कौन लोग थे ?


ये सब गरीब मजदूर....थे शायद...क्योंकि


कोई भी अमीर क्यों करेगा सेवन


इस बिष का....


सुना है ये सब नकली शराब....


के पीने से....


उफ़्फ़ !


जिम्मेदार कौन ?


क्या कोई एक ?


नहीँ....नहीँ....


पूरा सिस्टम ही दोषी हैं....


वहाँ खड़े एक बुजुर्ग की आवाज़ कानों मॆं


सुनायी पड़ी....


आखिर बँद क्यों नहीँ हो जाती


मौत की येँ भट्टिया...


काश !


न पनपता ये कारोबार मौत का...


तो गरीब मजदूर....


सस्ते के चक्कर मॆं....


आज़ न जाते यूँ


बिन मौत मारे ॥


अब शुरू होगा सिलसिला....


कागज के टुकडों मॆं ....


किसी का सिंदूर...


किसी के घर का चिराग या


मासूमों के सिर से उठा पिता का साया


बाँटा जायेगा ।


मगर !


नहीँ होती बँद आखिर क्यों ?


मौत की ये भट्टिया ॥


 


"किसान"


 


खेत जोत रहा था किसान....


बैलों के गले मॆं बज रही थी घन्टियां....


खुश थी धरती भी बहुत....


होगी खूब अन्न की पैदावार...


खुश था किसान....


मिलेगी दो जून की रोटी....


पेट की कूछ तो होंगी


कम सिलवटें....


खुश थे बैल कि हो रहे हैं


हर रोज़ कर्जमुक्त.....


किसान के घर बज रहा था


थाली मॆं चमचा.....


बेटी के पैदा होने पर....


खुश नहीँ था किसान अब....


इसलिये नहीँ कि पैदा हुई है बेटी....


बल्कि....


चिंतित था कैसे करेगा रखवाली उसकी....


जहाँ देखो ,वहाँ पनप रहे हैं


कुकुरमुत्ते की तरह....


इंसानी भेडिये ॥


 


"टाई"


 


वो बैठे हैं....


पूरी अकड़ के साथ...


स्टाइलिश सूट-बूट मॆं....


गले मॆं बँधी टाई....


बता रही थी....


नयी नयी बँधी हैं आज़....


उससे पहले कभी नहीँ....


आज़ ही क्यों ?


मैंने पूछा तो


मुस्कुरा कर थोड़ा शरमाते


थोड़ा इठलाते हुये...


बोली टाई....


अरे...वो आज़ सौदा...


करने आये हैं न ?


सौदा ? मैंने फ़िर थोड़ी ढीली पड़ती टाई


का मन टटोला....


हाँ.....भई लड़की देखने आये हैं...


और अच्छी कीमत मिले....


जनाब को खुद की....


बस ! इसीलिए....


हमॆं सजाकर लायें हैं...आज़


गले मॆं ..


टाई फ़िर इधर-उधर हिलने लगी...


धीमे-धीमे....मुस्कुरा रही थी...


मैं सोचने लगी....


ये निर्जीव होकर भी समझ रही है


इंसानी फितरत को....


और इंसान हैं कि..


मुखौटे पर मुखौटा....


चढाने से नहीँ आ रहा बाज ॥


डॉ.रामकुमार चतुर्वेदी

 बेटी


  जिसे आज अपना,बनाकर चले हैं।


  वही दाग घर में, लगाकर चले हैं।।


 


  सुरक्षित नही है, यहां पाल्य घर में।


नजर अब पड़ोसी, गड़ाकर चले हैं।।


 


अजब मस्त मानव,करे कृत्य दानव।


 सही आग मन में, लगाकर चले हैं।।


 


     यहाँ कोख बेटी, मशीनें दिखाये।


    भला वंश बेटा, चलाकर चले हैं।।


 


   पले कोख बेटी, पता जो किये थे।


 अजन्में शिशु को,मिटाकर चले हैं।।


 


    अजन्मी धरा पर, बने ये कसाई।


  उसे कोख में ही, सुलाकर चले हैं।।


 


    सुता क्यों पराई , करें भेद ज्ञानी।


  दिये मौत उसको,गड़ाकर चले हैं।।


 


 बिना जग दिखाये,किये जीव हत्या।


 अनैतिक किये ये, पताकर चले हैं।।


 


   हुए चार दिन ही,बियाही गयी थी।


  दहेजी बली में, चढ़ाकर चले हैं।।


 


   यहाँ हर कदम पर ,पले है दरिंदे ।


हवस भूख अपनी,मिटाकर चले हैं।।


 


         डॉ.रामकुमार चतुर्वेदी


सुनील कुमार गुप्ता

मन ढूँढ़ रहा सहारा


मैं तो मैं से हारा साथी,


मन ढूँढ़ रहा सहारा।


भक्ति संग डूबा जो मन फिर,


जीवन को मिला कीनारा।।


कुछ न कहे मन की फिर साथी,


ये मन तो मन से हारा।पग-पग भटकन भरी मन यहाँ,


किसका-मिले फिर सहारा?


सोचता रहा मन जग में साथी,


कौन-जीता,कौन -हारा?


मैं तो मैं से हारा साथी,


मन ढूँढ़ रहा सहारा।।


 


         सुनील कुमार गुप्ता


नूतन लाल साहू

विस्मरण व्यथा


कैसे बढ़ाये,स्मरण शक्ति


कैसे करें,समस्यायों का समाधान


अनेकोनेक समस्या निर्मित हो रही है


विस्मरण व्यथा, हो रहा है विकराल


व्यक्ति व्यर्थ के बातो में झूल रहा है


नित्य कर्म भी भुल रहा है


कहते हैं,भगवान ने समस्या निर्मित की है


तो,वहीं करेंगे समाधान


विस्मरण व्यथा,हो रहा है विकराल


एक जनाब,कोर्ट में पेशी जाने


फ़ाइल घर पर,निकाल कर रखी


पर,फाइल लाना ही भुल गया


वकीलों का बहस का दिन था


मामला हाथ से छुट गया


कैसे चलेगी,जीवन नैया


विस्मरण व्यथा,हो रहा है विकराल


तर्क कुतर्क,उलझन में डाल रहा है


दूरदर्शन के बोर कार्यक्रमों का,प्रभाव हो रहा है


निशदिन नया नया,समस्या देखकर


आदमी गहरी नींद, कहां सो रहा है


सच कहता हूं,यह चिंतन का विषय है


विस्मरण व्यथा,हो रहा है विकराल


व्यक्ति कार चलाते समय,मन ही मन


कोई किस्सा, गढ़ रहा है


दुर्घटना से कैसे बचे,चौराहे का बोर्ड पढ़ रहा है


होश आया तो देखा,अस्पताल के बिस्तर पर पड़ा है


सच कहता हूं,अनुसंधान का विषय है


विस्मरण व्यथा, हो रहा है विकराल


नूतन लाल साहू


एस के कपूर श्री हंस

कर्म ही महान है।


 


जान लो जन्म निश्चित तो


मरण भी निश्चित है।


अगर हैं करम अच्छे. तो


स्मरण भी निश्चित है।।


याद रहे कि मेहनत कभी


व्यर्थ नहीं जाती।


परिश्रम से भाग्य भी तेरी


शरण निश्चित है।।


 


बो कर पेड़ बबूल का आम


कोई पाता नहीं है।


करके करम बुरे कोई स्वर्ग


भी जाता नहीं है।।


करनी का फल मिलता है


कैसे भी संसार में।


बिना ऊंचा उठे तारे तोड़ कर


कोई लाता नहीं है।।


 


जान लो हमारे अच्छे कर्म ही


हमारी रक्षा करते हैं।


पुरुषार्थ से ही जीवन में हम


दक्षा बनते हैं।।


भावी पीढ़ी लिए कर्म ही है


कसौटी भाग्य की।


सीखाकरआचरण अच्छा नींव


सुरक्षा की धरते हैं।।


 


एस के कपूर श्री हंस


बरेली।


विनय साग़र जायसवाल

किस कदर इल्तिफ़ात करते हैं


उनसे हम जब भी बात करते हैं


 


उनसे बस एक यह शिकायत है


बातो बातों में मात करते हैं 


 


जब भी मिलती है यह नज़र उनसे


एक पल में क़नात करते हैं


 


फूल खिलते हैं दिल के गुलशन में


जब वो नज़रों से घात करते हैं


 


प्यार के यह हसीन लम्हे ही


ख़ूबसूरत हयात करते हैं 


 


शाद चेहरे हैं शेर पढ़कर यूँ 


हम लहू को दवात करते हैं


 


शामे-ग़म अपनी यूँ गुज़रती है 


आँसुओं को फ़रात करते हैं


 


आदमी सोच भी नहीं सकता


काम वो हादसात करते हैं


 


हमसे दीवाने ही फ़कत साग़र


रंगी-ऐ-कायनात करते हैं 


 


🖋️विनय साग़र जायसवाल


इल्तिफ़ात-कृपा ,मेहरबानी ,दया 


क़नात--कपड़े की दीवार 


हयात-जीवन ,ज़िन्दगी


शाद-- ख़ुश, प्रसन्न 


फ़रात-एक नदी 


कायनात-दुनिया, संसार


डॉ0 हरि नाथ मिश्र

वक़्त की बात


वक़्त का ऐसा बदला मिजाज़,


मौत को भाग जाना पड़ा।


शर्म से झुक कर तूफ़ान को-


कश्ती साहिल पे लाना पड़ा।।


 


सर उठाकर चले जो ज़रा,


सर उसे ही झुकाना पड़ा।


देख मजबूरियाँ बर्फ़ को-


ख़ुद को बिजली बनाना पड़ा।।


 


दे सकी जो न ये सारी दुनिया,


ख़ुद ख़ुदा को वो लाना पड़ा।


ख़ुद की ख़ुद्दारी को जो न समझा-


मुहँ की उसको ही खाना पड़ा।।


 


जिसने पाला है मन में भरम,


अश्क़ उसको बहाना पड़ा।


प्रेम के भाव को जो न समझा-


हाथ मल-मल के जाना पड़ा।।


 


नाम रौशन किया जिसने जग में,


बुद्धि-कौशल दिखाना पड़ा।


जो चढ़ा पर्वतों की शिखर पर-


जोखिम उसको उठाना पड़ा।।


        वक़्त का ऐसा बदला मिजाज़,


        मौत को भाग जाना पड़ा।।


                  ©डॉ0 हरि नाथ मिश्र


                       9919446372


संजय जैन

सोच बदल गई है


 


लड़का हो या लड़की, 


दोनों एक समान है।


हर काम करने लगी, 


आजकल की लड़कियां।


इसलिए तो लोगों की,


अब सोच बदल रही ।


और लड़की के जन्म पर, 


अब खुशियां मनाने लगे।।


 


लड़को से बढ़कर आजकल,


लड़कियां निकल रही।


समाज को आईना,


अब लड़कियां दिखा रही।


इसलिए तो मां बाप को, 


अब लड़कियां भा रही।


और कोक में अब इनकी 


हत्याएं कम हो रही।।


 


मोती अगर लड़का है तो,


हीरा है लड़कियां।


लड़के से ज्यादा भरोसे मंद,


है आजकल की लड़कीयां।


इसलिए समाज को दर्पण,


दिखा रही है लड़कियां।


दो दो जिम्मेदारियां,


उठती है लड़कीयां।।


 


एक घर की वो लक्ष्मी है,


तो दूसरे घर की वो सीता।अगर विपत्ति आये तो,


दुर्गा बन जाती है लड़कियाँ।


घर को मुसीबतों से, 


बचा लेती है लड़कियां।


स्नेह प्यार के रिश्ते भी,


खूब निभाती है लड़कियां।।


लड़का हो या लड़की, 


दोनों एक समान है।


हर काम करने लगी, 


आजकल की लड़कियां।।


 


जय जिनेन्द्र देव की


संजय जैन (मुम्बई)


सुनीता असीम

मुझको नफरत से नहीं प्यार से डर लगता है।


चाहने वालों के इजहार से डर लगता है


***


तीरगी दूर करे देखूँ जो चहरा उसका।


रोशनी के बिन अंधकार से डर लगता है।


***


सिर्फ फूलों की तरह रक्खे हैं रिश्ते हमने।


बस कभी चुभते हुए ख़ार से डर लगता है।


***


हर ख़बर मौत का संदेश लिए आए बस।


रोज़ आने वाले अख़बार से डर लगता है।


***


अब न संस्कार रहे आज के बच्चों में भी।


उनके बिगड़े हुए आचार से डर लगता है।


***


सुनीता असीम


 डॉ बीके शर्मा

चल साकी


पग-पायल झनकार लिए 


नयनों में कटार लिए आ


भला बुरा यह कहती दुनिया 


पल दो पल तू प्यार लिए


 


रोना-गाना तो दुनिया में


यूं ही चलता रहता है


लगता आंगन छोटा मुझको 


तू सारा संसार लिए आ


 


आने वाला जग जाता यहां


जाने वाला सो जाता


तेरा मेरा संबंध यहां है 


सांसों के दो तारे लिए आ


 


एक दूजे का हाथ थाम कर


एक दूजे की बात मानकर 


"चल साकी" इस जगती से


चलने को रफ्तार लिए आ


 


 डॉ बीके शर्मा


 उच्चैन भरतपुर( राजस्थान)


9828863402


कालिका प्रसाद सेमवाल

माँ शारदे


तुम्हारी वंदना कैसे करूं


माँ तुम्हारी अर्चना कैसे करूं


सभी शब्दों में समाहित तुम्हीं हो


सभी रागों की प्रतिध्वनित तुम ही हो


सभी देवों कि बुद्धि विवेक दाता तुम्हीं हो ।


 


मांँ शारदे


तुम सत्य के आधार हो


माँ तुम्हीं ज्ञान दायिनी हो


तुम्ही विघा की भण्डार हो


तुम्हीं विवेक और सौन्दर्य हो


प्रकृति में भी तुम्ही हो माँ


 


माँ शारदे


तुम दिव्य स्वरूपा हो


माँ तुम्हारी मूर्त्ति को कैसे गढूं 


मांँ मुझे विद्या विनय का दान दें


मुझ अज्ञानी का कल्याण कर


माँ मुझे वरदान दे, माँ मुझे वरदान दे।


 


कालिका प्रसाद सेमवाल


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तुम्हीं सच बताओ मुझे मान दोगी


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तुम्हें गीत की हर लहर पर संवारूँ,


तुम्हें जिन्दगी में सदा यदि दुलारूँ,


तुम्हीं सच बताओ मुझे मान दोगी,


बहुत मैं चला हूँ बहुत मैं चलूंगा,


कहीं गीत बनकर तुम्हारा ढलूंगा,


तुम्हीं सच बताओ मुझे गान दोगी।


 


प्रणय की निशानी नहीं रह सकेगी,


भले यह जवानी नहीं रह सकेगी,


तुम्हीं सच बताओ मुझे प्रान दोगी,


हृदय में कहो या सुमन में बिठाऊँ,


तरसते नयन है कहाँ देख पाऊँ,


तुम्हीं सच बताओ कहां ध्यान दोगी।


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कालिका प्रसाद सेमवाल


मानस सदन अपर बाजार


रूद्रप्रयाग उत्तराखंड


पिनकोड 246171


डॉ0 हरि नाथ मिश्र

तृतीय चरण (श्रीरामचरितबखान)-21


 


देखि लखन भे राम अधीरा।


कारन कवन कहहु कस पीरा।।


     बहु भयभीत लखन तब कहहीं।


     सुनि प्रभु राम बिकल बहु भवहीं।।


सुनहु लखन बहु राच्छस यहि बन।


इत-उत बिचरैं हर-पल,हर-छन।।


     कहहि मोर मन सिय नहिं तहवाँ।


     वाको तजि आयो तुम्ह इहवाँ।।


करि अनुमान तुरत प्रभु धावहिं।


तट गोदावरि कुटिया जावहिं।।


     पाइ न सीतहिं कुटिया माहीं।


     हो बहु बिकल राम बिलखाहीं।।


खोजत-फिरत राम चहुँ-ओरा।


जनु कोउ चकई चकित चकोरा।।


     खग-मृग,पसु-पंछी जे मिलहीं।


     राम बिकल मन सभतें पुछहीं।।


गिरि-तरु, पुष्प-लता सभ सुनहू।


कहँ सिय रहहिं मोर तुम्ह कहहू।।


    होंहिं मुदित निज भागि सराहहिं।


    सुक-कपोत-खंजन मिलि गावहिं।।


भ्रमर-कोकिला,मीन-कुमुदिनी।


गज-केहरि,ससि-हंस-कमलिनी।।


    सब मिलकर मनोज-धनु-हंसा।


     प्रभु-मुख सुनि भे मुदित प्रसंसा।।


सिय बिनु राम बिकल जनु ऐसे।


ब्याकुल बिरही-कामुक जैसे।।


    सुखदायक प्रभु अज-अबिनासी।


    मनुज-चरित लखि आवै हाँसी।।


मिला जटायू तब मग माहीं।


सुमिरत राम-नाम वहिं ठाहीं।।


     निज गति कारन राम बतावा।


     सीता-हरन व गमन जतावा।।


दसकंधर लइ सीयहिं भागा।


पंखहीन करि मोंहि अभागा।।


     दक्खिन-दिसि लइ रावन गयऊ।


     जेहिं दिसि प्रभु तिसु लंका भयऊ।।


प्रभु सुनि दुखद गीध कै बैना।


तिसु तन छूइ दीन्ह सुख-चैना।।


     भइ प्रसन्न तुम्ह तव तन राखहु।


      जीवन भर सुख पूरा पावहु।।


पावहिं अधम सुगति चररन्ह तें।


मैं त्यागहुँ तन तिनहिं छुवन तें।।


दोहा-करहु कृपा प्रभु मोंहि पे,गीध कहा सबिषाद।


         राम परसि तिसु बदन कह,सुर-पुर होहु अबाद।।


         गीध-प्रार्थना सुनि प्रभू,भेजि ताहि हरि-धाम।


         करि तिसु सभ अंतिम-क्रिया,चले बिनू बिश्राम।।


        जात समय प्रभु तब कहे,गीधराजु समुझाइ।


         मम पितु सन तुम्ह मत कह्यो,सीय-हरन तहँ जाइ।।


मम सर मरि जब रावन जाई।


स्वयं कथा सभ पितुहिं बताई।।


                  डॉ0हरि नाथ मिश्र


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आठवाँ अध्याय (श्रीकृष्णचरितबखान)-1


 


रहे पुरोहित जदुकुल नीका।


पंडित गर्गाचारहिं ठीका।।


    आए गुरु गोकुल इक बारा।


    जा पहुँचे वै नंद-दुवारा ।।


पाइ गुरुहिं तहँ नंदयिबाबा।


करि प्रनाम लीन्ह असबाबा।।


     ब्रह्मइ गुरु अरु गुरु भगवाना।


     अस भावहिं पूजे बिधि नाना।।


बिधिवत पाइ अतिथि-सत्कारा।


भए मगन गुरु नंद-दुवारा।।


     करि अभिवादन निज कर जोरे।


      कहे नंद अति भाव-बिभोरे ।।


तुमहीं पूर्णकाम मैं मानूँ।


केहि बिधि सेवा करउँ न जानूँ।।


    बड़े भागि जे नाथ पधारे।


     अवसि होहि कल्यान हमारे।।


निज प्रपंच अरु घर के काजा।


अरुझल रहहुँ सुनहु महराजा।।


     पहुँचि पाउँ नहिं आश्रम तोहरे।


      छमहु नाथ अभागि अस मोरे।।


भूत-भविष्य-गरभ का आहे।


जानै नहिं नर केतनहु चाहे।।


     ब्रह्म-बेत्ता हे गुरु ग्यानी।


     जोतिष-बिद्या तुमहिं बखानी।।


करि के नामकरन-सँस्कारा।


मम दुइ सुतन्ह करउ उपकारा।।


    मनुज जाति कै ब्रह्मन गुरुहीं।


    धरम-करम ना हो बिनु द्विजहीं।।


                डॉ0 हरि नाथ मिश्र


                 9919446372


डॉ. रामबली मिश्र

मुड़ कर देखो मीत


 


मुड़ कर देखो मीत।


तुम्हारा प्रियतम आया है।।


 


मुड़कर देखो मीत।


तुम्हारा मोहन आया है।।


 


मुड़कर देखो मीत।


तुम्हारा दीवाना है यह।


 


मुड़कर देखो मीत।


तुम्हारा मस्ताना है यह।।


 


भूल करो मत मीत।


तुम्हारे पास रहेगा यह।।


 


मुड़कर देखो मीत।


तुम्हारी राह चलेगा यह।।


 


दिल में प्रेम समुद्र।


बनकर लहर उठेगा नित यह।।


 


अब तो देखो मीत।


दर पर तेरे खड़ा आज यह।।


 


इसके दिल को देख।


है दिलदार गुलाब -अतर यह।।


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अब मुझे तुम भूल जाओ


 


अब मुझे तुम भूल जाओ।


मुझको कभी याद मत करना।।


 


अब मुझे तुम भूल जाओ।


मेरे दिल से बाहर रहना।।


 


अब मुझे तुम भूल जाओ।


मेरे दिल में नहीं उतरना।।


 


अब मुझे तुम भूल जाओ।


मुलाकात को गलत समझना।।


 


अब मुझे तुम भूल जाओ।


मिलने की मत कोशिश करना।।


 


अब मुझे तुम भूल जाओ।


अपने मन से मुझे झटकना।।


 


अब मुझे तुम भूल जाओ।


मुझपर गुस्सा करते रहना।।


 


अब मुझे तुम भूल जाओ।


मुझको देख विदकते रहना।।


 


अब मुझे तुम भूल जाओ।


मेरे शव पर सतत थूंकना।।


 


आया था अब चलता हूँ।


मुझपर मत तुम कभी तरसना ।।


 


अब मुझे तुम भूल जाओ ।


राम नाम है सत्य न कहना।।


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रहे सिलसिला सदा मिलन का।


भागे प्रति क्षण भाव जलन का।।


 


मिलें खोल दिल साफ-स्वच्छ हो।


कर्म कदापि न हो विचलन का।।


 


सुख-दुःख बाँटें हम मिलजुल कर।


गाँव बसे प्रिय रतन-भलन का।।


 


माँगें मिन्नत एक यही सब।


बने पंथ सुंदर प्रचलन का।।


 


सबको मिले प्रीति का प्याला।


शंखनाद हो दुष्ट दलन का ।।


 


हो सर्वत्र अमी- वट -रोपण ।


उर-उपवन हो मधुर फलन का।।


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सर्वसाधिका मातृ शारदा


 


रसमृता अति परम सुबोधिनि।


ज्ञानामृता विवेकदायिनी।।


 


विद्यामृता विनीत महारथ।


शान्ताकारं प्रिय नि:स्वारथ।।


 


अच्युत आनंदी उत्प्रेरक।


महा सिंधु शुभ भाव उकेरक।।


 


करुणा तरुणा शिवा स्वामिनी।


सत शिव सुंदर स्वाभिमानिनी।।


 


श्रेष्ठ वरेण्य दिव्य ब्रह्माणी।


सुयशदायिनी मधु कल्याणी।।


 


सहज प्रतापपुंज दिनकर सम।


महा शीतला चन्द्रमुखी नम।।


 


धन धनतेरस धर्म धुरंधर।


परम पर्व पावन पति प्रियवर।।


 


नित्यानंदी नर नारायण।


महाव्योमनाद उच्चारण।।


 


मात्रिक वर्णिक छंद तुम्हीं हो।


महाकाव्य स्वच्छंद तुम्हीं हो।।


 


करो कृपा माँ सबके ऊपर।


सम्मोहित हों हम सब तुझ पर।।


 


डॉ. रामबली मिश्र हरिहरपुरी


9838453801


नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर

 जब जब अत्याचार का


क्रूर दामन करता खुनी


खेल ।


निरंकुश हो जाता करता


अंह का अट्टहास।।


 


तब निरीह नर में नारायण 


आता खुद जगाने विश्वाश।।


 


धरती पर रखता जब पाँव


स्वागत में पुलकित होती


माता ,कोख पर करती अभिमान।।


 


विरले पल प्रहर आते जब 


माताये भगत सिंह जनती 


समय काल भी अभिमान से


बतलाता धरती के वीर सपूतों


से अपना नाता।।


 


वर्तमान इतराता भविष्य अपने


दामन में वतर्मान की सौगात 


समेटे जाता।।


 


भगत भाव है स्वतंत्रता की


चिंगारी ,अंगार।।


भगत सिंह कराहती तलासती


आँखों की रौशनी उजियार।।


 


भगत युवा चेतना का हुंकार हनक


शंख नाद।


भगत सोच भगत त्याग बलिदान


मर्म ज्ञान का बैराग्य।।


 


रोज भगत सिंह नहीं पैदा होता


परम् शक्ति सत्ता का पराक्रम


प्रतिनिधि युग चेतना पुकार की


संतान ।।


 


मकसद का जीवन मकसद


पर कुर्बान।


सरफरोसि विचार क्रांति 


शंख नाद जोर कातिलों के बाजुओं का सर्वनाश के


आवाहन आवाज़।।


 


दुष्ट ,दमन कारी ,अत्याचारी


अन्याय का प्रबल प्रतिकार


निडर, निर्भीक साहस की


चुनौती का भयमुक्त भगत


नौजवान।।


 


धरती माँ की संतान धरती


के कण कण का रौशन चिराग


भगत धीर ,वीर, धैर्य ,धन्य वर्तमान युवा प्रेरणा महिमा गौरव गान।।


 


जीवन के कुछ वसंत ,सावन 


ही युगों युगों के जीवन का


सार ।।


 


वीरों की गाथा इबारत का


जाबांज भगत।


शौर्य सूर्य की चमक छितिज


का युवा उत्सव उल्लास की


शान।।


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बेटी है दुनियां का नाज


बेटी करती हर काज आज


बेटी अरमानों का अवनि


आकाश।।


 


शिक्षित बेटी नैतिक समाज


बेटी संरक्षण संरक्षित समाज


बेटी बुढापे का सहारा


बेटी माँ बाप के लिये 


ज्यादा संवेदन साज।।


 


बेटी बेटा एक सामान 


बेटी गर कोख में मारी


जाती दांवन दरिद्रता 


दुःख क्लेश का आवाहन


साम्राज्।।


 


बेटी लक्ष्मी है बेटी है


वरदान


 


लिंग भेद का पतन पतित


समाज।


बढती बेटी बढ़ाता गौरव मान


बेटी का सम्मान सशक्त राष्ट


समाज की बुनियाद।।


 


बेटी गुण ज्ञान धन धान्य


की पहचान खान


बेटी से मर्यादा का मान


बेटी निश्चिन्त निर्भय विकास


न्याय का पर्याय।।


 


बेटी नगर हाट चौराहे पर


दानवता का गर हुई शिकार


पीढ़ी का घुट घुट कर प्राश्चित 


 दमघुटता शर्मशार समाज।।


 


बेटी प्यारी न्यारी 


जीवन का आभार


बेटी का रीती ,निति राजनीती


ध्यान, ज्ञान ,बैराग्य ,विज्ञानं


यत्र तंत्र सर्वत्र अधिकार।।


 


बेटी गौरव गूँज गर्जना


बेटी स्वर ,संगीत ,व्यंजना


बेटी अक्षय ,अक्षुण, पुण्य ,कर्म


बेटी संस्कृति संस्कार।।


 


बेटी का ना तिरस्कार 


बेटी संग ना भेद भाव


बेटी शिवा शिवाला ईश्वर


रचना की बाला बला नहीं


सृष्टि की ज्योति ज्वाला।।


 


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 वर्षा ऋतु प्यारी न्यारी 


जिंदगी का एहसास जगावे।।


 


कभी बचपन के अठखेली


कागज़ की कश्ती बारिश 


का पानी बालपन वर्षा का


आनन्द बतावे।।


 


सावन की वर्षा मन हर्षा


जवां प्यार की बहार 


रिम झिम फुहार प्यार का


खुमार ह्रदय भाव से पानी पानी।।


सावन की घटाओं में ख्वाबों की


अदाओ अदा बहार आरजू आसमान अंतर्मन पाये।।


 


वर्षा ऋतु में सावन के सुहाने मौसम में चाँद बादलो के आगोश में इश्क इज़हार की प्यास प्यार में दिल पानी पानी कशिश काश की


प्यास बुझाये।।


 


सावन वर्षा मन हर्षा वो आएगी


मन भायेगी भीगा बदन गालो पे सावन की बुँदे शबनम।          


 


नादां इश्क का जज्बा जूनून जोश जश्न का हाल प्याला मधुशाला का रस मकरंद बतायेगी।।


 


उमड़ घुमण वर्षा के बादल 


मन भबराये जीया तरसाये


कभी घनघोर कभी आये


जायें।।


 


वर्षा ऋतु शुख दुःख दोनों आश


विश्वाश धरती की प्यास बुझायें


सुखी धरती के दामन को ऊसर


बंजर से बचाये।।


 


वर्षा ऋतू प्यारी चुहू ओर


हरियाली अँधा भी हरियाली


खुशहाली का राग सुनाये।।


 


वर्षा ऋतु तीज त्योहारों का


अलख जगाये कृष्ण जन्म


युग दृष्ट्री का देव आयें।।


 


रक्षाबंधन स्वतंत्र राष्ट्र का


वन्दे मातरम् जन गण मंगल


दयाक जय हो गाये।।


 


वर्षा ऋतु प्रकृति प्राण की


बुनियाद इश्क मोहब्बत प्यार


यार का इंतज़ार का अवसर


ऋतु ख़ास गीत गाये।।


 


वर्षा ऋतु हरियाली तीज सावन का झूला सखियो का मेला राधा और कान्हा मधुबन का रास रचावे।।


वर्षा ऋतु का बचपन वर्षा का युवा यौवन पहली कर्षा पहला


सावन गोरी छोरी की मादकता


मस्ती मौसम आये।।


 


नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर


काव्य रंगोली आज के सम्मानित रचनाकार मुक्ता तैलंग, बीकानेर

 


परिचय


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 मुक्ता तैलंग 


पिता का नाम- गजानंद राव तैलंग 


जन्म- 10 जुलाई 1969 भोपाल मध्य प्रदेश। 


शैक्षणिक योग्यता m.a. हिंदी/ m.a. संस्कृत/ जर्नलिज्म एंड मास कम्युनिकेशन।        


वरिष्ठ अध्यापिका संस्कृत। मास्टर ट्रेनर, 


शोधार्थी (11 से अधिक शैक्षिक शोध) 


ऑल इंडिया रेडियो कंपेयर 1995 से लगातार। 


लेखक एवं स्वतंत्र पत्रकार,     


1988 से 1995 तक आकाशवाणी बीकानेर से काव्य-पाठ का प्रसारण। 


1988 से विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं (भास्कर, पत्रिका, युगपक्ष, राष्ट्रदूत, लोकमत, हनी-मनी, कर्मशीला, शिविरा, शुभिका एवं स्थानीय अखबारों ) आदि में लेख, कविता, कहानी प्रकाशन।    


10 से अधिक मौलिक पुस्तकों का लेखन। भूमिका एवं पुस्तक समीक्षा। 


मंचों से कविता पाठ। 


पता -- 7- द -34 पवनपुरी दक्षिण विस्तार बीकानेर। राजस्थान ।334001 


मोबाइल 9829361964. ≠==============


 


 राज़ रहने दो। ------------------------------ 


छुपे है राज़ जितने दिल में,


उनको राज़ रहने दो।


गुज़ारिश है मेरी तुमसे,


ये तोहमत आज रहने दो।।


 


सच को सच कहने की, 


जल्दी में हो क्यूं इतने।


जुबां हक़ में ज़रा खोली, 


कहा आवाज़ रहने दो।।


 


हौसलों के जब खुले पर, 


नापने को आसमां।


वो पर काट कर बोले,  


बस परवाज़ रहने दो।।


 


रश्क तो हमको बहुत है, 


तराशे कोहिनूरों पर।


जहां चाहो वहां चमको, 


मगर यह ताज रहने दो।।


 


सुनेगा आसमां वाला, 


तो पूरी ख्वाहिशें होंगी।


मिलेगी तुमको ये दौलत, 


अभी सरताज रहने दो।।


 


इबारत झूठ सच सारी, 


आंखों में पढ़ी सबने।


तकलीफ ए जुबां छोड़ो,


ये अल्फाज़ रहने दो।। 


 


छुपे है राज जितने दिल में,


उनको राज़ रहने दो।


गुजारिश है मेरी तुमसे,


ये तोहमत आज रहने दो।।


   


                         


  रोटियां। ------------------------------ 


आदमी की भूख को छलती हैं रोटियां। 


वादों की तसल्ली की बनती है रोटियां।।  


 


परवाह नहीं घर के चूल्हे की किसी को।


अब चिता की आग पे सिकती है रोटियां।।


 


चीखती चिल्लाती सी दिखती हैं हसरतें।


जब कभी अचानक जलती है रोटियां।‌।


 


मिलनी तो चाहिए ये सबके हक की बात है।             


कुछ खास कीमतों पर बिकती है रोटियां।।


 


उम्र भर हम्माली का हासिल सिफ़र रहा।


किस जमीं किस पेड़ पर फलती हैं रोटियां।।


 


  - मुक्ता तैलंग,बीकानेर. =============== 


                                                       समाज के जिस्म पे नासूर ना ये फोड़े होते।


कुछ बे लगाम घोड़े इतने भी ना दौड़े होते। 


 


उनकी ज़ुबां खुलती न टापों से दहलते दिल।


साइसों के हाथ में उस वक्त जो कोड़े होते।।


 


हवा में ना जहर होता बाकी ना प्यास रहती।


रुख़ यूं ज़लज़लों के इस ओर न मोड़ें होते।।


 


ये नफरत की आंधियां जो सांसों में है तुम्हारी।


बस्तियां न लुटती गर दिल से दिल जोड़े होते।।


 


ये चीखो पुकार सारी दहशत का नतीजा है।


रोते न बि्लबिलाते घर तुमने न तोड़ें होते।।


 


जो दर्द दूसरों का भी दिल में तुम्हारे होता।


इकतरफा धाराओं के संदर्भ ना जोड़े होते।।


 


पट्टी पढ़ानी कौन सी अब रह गई है बाकी।


न नींव खोदते तुम न हम राह के रोड़े होते।।


 


-मुक्ता तैलंग, बीकानेर। ===============


                                                            कौन परवाह करे ज़माने की।


हमें तो आदत है मुस्कुराने की।।


 


लोग जो आपको नहीं समझें।


क्या ज़रूरत उन्हें समझाने की।।


 


वो अकीदत पे वार करके भी।


ख्वाहिशें रख रहे भुलाने की।।


 


आज उल्फत पे लोग हंसते हैं।


ये भी एक चीज है भुनाने की।।


 


छोड़ भी दीजिए बुरी आदत। 


टूटे रिश्तों को आजमाने की।।


 


ये बारिशें भी अब तेज़ाब हैं।


कोशिशें है तुम्हें जलाने की।।


 


लेके हक़ की मशाल फिरता है।


कौन सुनता है इस दीवाने की।।


    


         -मुक्ता तैलंग, बीकानेर।


 


चेहरे पे चेहरा लगा लीजिएगा।


बातें भी थोड़ी बना लीजिएगा।। 


 


कीमत कहां है सच्चाईयों की।


अच्छाईयों को दबा लीजिएगा।। 


 


बातों में मिश्री सी तुम घोले रखना।


अश्कबार आंखें चुरा लीजिएगा।। 


 


लगी आग घर में बुझानी तो होगी। 


जल जाए दामन जला लीजिएगा।।


 


अपनों को सब कुछ बताने से पहले।


कुछ खास बातें छुपा लीजिएगा।‌।


 


छोड़ो भी दुनिया के रिश्ते निभाना।


बदले में किस से वफ़ा लीजिएगा।।  


 


खुद की मुसीबत ही टलती नहीं है। 


किस-किस की सर पे बला लीजिएगा।।


 


नाहक क्यों खुद को परेशान करना। 


जां बाकी है जब तक मजा लीजिएगा।।


 


पाबंदियों के भी दोहरे है तेवर।


चल जाए जैसे चला लीजिएगा।।


 


-


सुरेन्द्र पाल मिश्र

सबसे प्यारा रिश्ता बिटिया ईश्वर का उपहार।


 बिन बेटी परिवार अधूरा बेटी है उजियार।


          बिटिया है प्रभु का उपहार।


 जीवन लागे सूना सूना अन्तर सूना बाहर सूना।


 वो आंगन क्या हो ना जिसमें बेटी की किलकार।


          बिटिया है प्रभु का उपहार।


 मांगो तुम ना हीरा मोती मांगो तुम नयनों की ज्योती।


 रिश्ते के फूलों का मांगो बेटी जैसा हार।


          बिटिया है प्रभु का उपहार।


 नन्हीं मुन्नी गोदी खेले डगमग डगमग आंगन डोले।


 ममता और स्नेह के आंचल बचपन का संसार।


          बिटिया है प्रभु का उपहार।


 बड़ी हुई कालेज को जाये आकर मां का हाथ बटाये।


 साफ़ सफाई करके राखे घर को साज संवार।


          बिटिया है प्रभु का उपहार।


 लाल सोहागी जोड़ा बिंदिया पहने चूड़ी कंगन बिछिया।


 बहू रूप में चली सजाने एक नया परिवार।


          बिटिया है प्रभु का उपहार।


 सदा सुखी हो बिटिया रानी धूमिल कभी न याद पुरानी।


 कष्ट ताप में प्यारी बिटिया शीतल मलय बयार।


          बिटिया है प्रभु का उपहार।


 भाग्यवान पुत्री जो पाये श्री सम्पति उसके घर आये।


 डाटर्स डे आशीष हमारा दुःख आये ना द्वार।


          बिटिया है प्रभु का उपहार।


    सुरेन्द्र पाल मिश्र


विवेक दुबे निश्चल

बहुत कुछ लिख गया मैं वक़्त में बहकर ।


 साथ राह यूँ वक़्त , वक़्त पर मेरा होकर ।


रूठते रहे अपने कभी वक़्त की राहों पे ।


 यूँ सहारा दिया अल्फ़ाज़ ने मेरा होकर ।


 


बहुत कुछ...


 


 अश्क़ गिरे पन्नो पर , लफ्ज़ बनकर ।


  दर्द निगाहों से , चले ग़जल बनकर ।


  सफ़े-दर-सफ़े सफर रहा कलम का 


  लफ्ज़ लफ्ज़ मेरा हिसाब बनकर ।


 


बहुत कुछ...


 


  ख़्वाब सहेजे कुछ ख़्याल समेटे हुए।


 कुछ सँग उठ खड़े कुछ अधलेटे हुए ।


 थी जमीं हक़ीक़त ख़्वाब के ख़यालों में।


 रही अंगूर की बेटी काँच के प्यालो में ।


 


बहुत कुछ ...


 


 ख़ामोश थीं वो खुशियाँ , दर्द बोलते रहे ।


 तूफ़ान के इशारों से ,समन्दर डोलते रहे ।


 मैं होश में रहा, मगर , मदहोश रहकर।


 इश्क़ तेरे अंदाज से, मैं हैरां होकर ।


 


          .. विवेक दुबे निश्चल


 डॉ. राम कुमार झा निकुंज

मिटे भोर पा अरुणिमा


 


सुन्दर मधुरिम मांगलिक , हो जीवन उल्लास।


हो उदार मानस मधुर , नवप्रभात उद्भास।।१।।


 


प्रतिमानक लेखन बने , देश काल परिवेश।


सत्य पूत अभिव्यक्ति से ,जन जागृति संदेश।।२।।


 


चहुँ विकास सतरंग बन , इन्द्रधनुष नीलाभ।


खिले अधर आगम युवा,खिले प्रगति अरुणाभ।।३।।


 


करें शान्ति अभिलाष मन , रखें भाव कल्याण।


मिटे वतन से त्रासदी , दीन हीन जन त्राण।।४।।


 


गेह गेह दीपक जले , शिक्षा शुभ आलोक।


खुशियाँ सुखमय जिंदगी , मिटें रोग भय शोक।।५।।


 


उदरानल तृषार्त जब , बुझे अन्न जल काश।


गेह वसन तन सुलभ हो ,कटे तभी दुख पाश।।६।।


 


जीवन जन अहसास मन, शासन में विश्वास।


अगड़े पिछड़े भेद का , मिटे हृदय आभास।।७।।


 


जाति पाँति अरु धर्म ही , है अवनति का मूल।


आरक्षण की फाँस से , हो उन्नति प्रतिकूल।।८।।


 


लोभ मोह ईर्ष्या कपट , झूठ लूट मद चाह। 


ये विनाश की कालिमा , हो विकास गुमराह।।९।।


 


लोकतंत्र हो तब सफल, शासक हो ईमान।


भाव मनसि इन्सानियत , हो सबका सम्मान।।१०।।


 


क्षतविक्षत अभिलाष मन , सौरभ विरत निकुंज।


पतझड़ बन आहें भरे , मुरझाये दलपूँज।।११।। 


 


कुलीनता बाधक सदा , विद्योत्तम बेकार।


फँस आरक्षण दीनता , लूट घूस सरकार।।१२।।


 


जीवन बस अपमान पा , सहा सदा उपहास।


नीति त्याग सद्कर्म पथ,कठिन जटिल आभास।।१३।।


 


कविरा है अवसाद मन , शोकाकूल आगम्य।


मिटे भोर पा अरुणिमा , जाति धर्म वैषम्य।।१४।।


 


 डॉ. राम कुमार झा निकुंज


नई दिल्ली


रवि रश्मि अनुभूति

लो प्रभु के गुण गावत ।


शांति सुख सब पावत ।।


सुन्दर सी छवि भावत ।


ध्यान सभी प्रभु आवत । ।


 


छोड़ कहाँ अब जावत ।


ये जीवन अब भावत ।।


लो तम अब मिटावत ।  


ज्ञान प्रकाश दिखावत ।।


 


दूर कहाँ अब धावत ।


दर्शन पावत जावत ।।


मंदिर तो सब जा कर ।


भोर भयी सब गा कर ।।


 


आज नहीं अब सोवत ।


सोवत जो वह खोवत ।।


खोये सभी कुछ रोवत ।


पाप कहाँ अब धोवत ।।


 


(C) रवि रश्मि अनुभूति


कालिका प्रसाद सेमवाल

संस्कृति की पोषक होती है बेटियां


★★★★★★★★★★


हिमालय की चोटियां होती है बेटियां,


प्रेरणा की मूरत होती है बेटियां,


शहद सी मिठास जैसी होती है बेटियां,


पतित पावनी गंगा सी होती है बेटियां।


 


मां बाप की दुलारी होती बेटियां,


भोर की किरण होती है बेटियां,


बासन्ती बयार जैसी होती है बेटियां,


जीवन की व्याख्या होती है बेटियां।


 


दो परिवारो की लाडली होती बेटियां,


धर्म, न्याय की रक्षक होती है बेटियां,


प्रातःकाल की प्रार्थना होती है बेटियां,


संकट में राह बताती है बेटियां।


 


त्याग-तप की खान होती बेटियां,


कुल का गौरब होती है बेटियां,


बेटे से ज्यादा जिम्मेदार होती बेटियां,


अपनी कक्षा में प्रथम आती है बेटियां।


 


वैदिक ऋचाएं जैसी होती है बेटियां,


गुरु ग्रंथ की वाणी जैसी होती बेटियां,


भोर की शीतल हवा होती है बेटियां,


दक्षता का दीप होती है बेटियां।


 


जन्नत का नूर होती है बेटियां,


सबका ध्यान रखती है बेटियां,


ईश्वर की विलक्षण रचना है बेटियां,


परिवार की रौनक होती है बेटियां।


 


बेटा बेटी में न करो कोई भेद भाव,


दोनों को दे बराबर का प्यार,


आओ करें बेटियों का संरक्षण,


दे इनको महत्व और अभिरक्षण।।


★★★★★★★★★★


कालिका प्रसाद सेमवाल


मानस सदन अपर बाजार


रुद्रप्रयाग उत्तराखण्ड


डॉ0 हरि नाथ मिश्र

अष्टावक्र गीता-13


महासिंधु सम मैं वृहद,यह जग उर्मि समान।


त्याग-ग्रहण बिन मैं रहूँ,एकरूप सँग ज्ञान।।


 


चाँदी रहती सीप में,ज्यों मुझमें संसार।


रहूँ ज्ञान सँग मान मैं, त्याग-ग्रहण बिन सार।।


 


सब प्राणी मुझमें रहें,सब में मेरा वास।


त्याग-ग्रहण बिन मैं रहूँ,कर यह ज्ञानाभास।।


              © डॉ0 हरि नाथ मिश्र


                 9919446372


डॉ0 हरि नाथ मिश्र

भारत की बेटियाँ


भारत का नाम रौशन,करतीं हैं बेटियाँ,


नित-नित नवीन शोधन,करतीं हैं बेटियाँ।


 


यद्यपि ये कोमलांगी,होतीं हैं बेटियाँ,


कर लेतीं श्रम कठिन,फिर भी ये बेटियाँ।।


 


जल में हों,चाहे नभ में,होवें धरा पे वे,


नारी-प्रभा को शोभन,करतीं हैं बेटियाँ।।


 


वतन की आन-बान थीं,पहले भी बेटियाँ,


झंडे का आज रोहण, करतीं हैं बेटियाँ।।


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कर्तव्य शासकीय,या हो प्रशासकीय,


सियासती सुयोजन,करतीं हैं बेटियाँ।।


 


होतीं अक्षुण्ण कोष ये,असीम शक्ति का,


कुरीतियों का रोधन,करतीं हैं बेटियाँ।।


 


साहस अदम्य इनमें,रहता विवेक है,


संघर्ष का ही भोजन,करतीं हैं बेटियाँ।।


 


घर में रहें या बाहर,चाहे विदेश में,


शर्मो-हया का लोचन,रहतीं हैं बेटियाँ।।


 


जीवित हैं मूर्ति त्याग की,अपनी ये बेटियाँ,


नहीं कभी प्रलोभन,करतीं हैं बेटियाँ ।।


     


रिक्शा चला भी लेतीं,भारत की बेटियाँ,


परिवार का प्रबंधन,करतीं हैं बेटियाँ।।


             © डॉ0 हरि नाथ मिश्र


                 9919446372


सुषमा दीक्षित शुक्ला

प्यार मेरा आजमा कर देख लो।


इक दफा मुझको बुला कर देख लो।


 


रात ओ दिन जल रही शम्मे वफ़ा।


 हो सके तो पास आकर देख लो।


 


 खाक का इक ढेर हूं तुम बिन सनम ।


इक दफा आंखें उठाकर देख लो।


 


 जोगने बन चुकी रातें दिन हुए बेनूर हैं।


 और भी मुझको मिटा कर देख लो ।


 


अश्क सूखे आंख में अब लव सिले हैं।


 रूह की चादर उठाकर देख लो।


 


 वक्त कितना बेरहम था एक दिन।


 दर्द के लम्हे छुपा कर देख लो ।


 


तेरे बिना बिल्कुल चला जाता नहीं।


फिर मुझे दिल से लगाकर देख लो। 


 


 तुम न आओ तो बुला लो यार मेरे।


 सुष पुराने पल चुरा कर देख लो।


 


सुषमा दीक्षित शुक्ला


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