नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर

चलो आज हम राम बताएं


राम मर्यादा अपनाएँ।।


 


राम रिश्ता मानवता की


अलख जगाएं।।


 


प्रभु राम का समाज बनाएं


मात पिता की आज्ञा सेवा 


स्वयं सिद्ध का राम बनाएं।।


 


भाई भाई के अंतर मन का


मैल मिटाए।


भाई भाई में बैर नहीं भाई


भाई को भारत का भरत बनाएं।।


 


लोभ ,क्रोध का त्याग करे समरस


सम्मत समाज बनाएं।।


 


सम्मत सनमत बैभव राम नियत


का दीप जलाए।।


 


कर्म धर्म श्रम शक्ति निष्ठां


धन चरित पाएं।।


 


पावन सरयू की धाराएं 


कलरव करती जन्म जीवन


का अर्थ सुनाएँ।।


 


भव सागर का स्वर्ग नर्क 


केवट खेवनहार बनाये


भेद भाव रहित राम भव


सागर पार कराएं।।          


 


निर्विकार निराकार राम 


सबमें साकार राम बोध


प्राणी प्राण का दर्शन पाएं।।


 


राम नाम नहीं राम मौलिक


मानवता सिद्धान्त राम रहित


जीवन बेकार।


सांसो धड़कन पल प्रहर में


राम बसाएं।।


 


राम बन वास का रहस्य


जल ,वन ,जीवन का राम


दैत्य ,दानव से भयमुक्त


धर्म ,दया ,दान ऋषिकुल


बैराग्य विज्ञान का राम।।


 


सेवक राम यत्र तंत्र सर्वत्र राम


राम से बिमुख ना जाए ।।


चलो आज हम राम बताएं


राम मर्यादा का युग अपनाएं।।


 


नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर


संजय जैन

संस्कारो ने बनाया दिया


 


जब मेरा जन्म हुआ था


तब बुआ की उम्र थी 25।


खानदान में दूसरी पीढ़ी का 


में पहला चिराग था।


इसलिए खानदान में हर्ष उल्लास बहुत हुआ था।


क्योंकि जमीदार के यहां


पुत्र का जन्म हुआ था।


इसलिए गाँव में और रिश्तेदारों में खुशियां आपार थी।।


 


समय गुजरता गया


मैं बड़ा होता गया।


दादादादी नानानानी


बुआ चाचाचाची आदि


सबसे प्रेम मिलता था।


परन्तु पिताजी की गोद


कभी नहीं चढ़ सका।


क्योंकि वो जमाना शर्म 


लज्जा संस्कारो के साथ


बड़ो को इज्जत देने वाला था।।


 


मांगे मेरी सब पूरी की जाती थी


पर पूरी करने वाले


मेरे पिता नहीं होते थे।


ये बात नहीं थी कि 


पिताजी प्यार नहीं करते थे।


परन्तु उस समय की मान मर्यादाओं के अनुसार चलते थे।


जिसके कारण ही संयुक्त परिवार चलते थे।।


 


डरता नहीं अगर पिताजी से उस जमाने में।


तो आज इस शिखर पर नहीं पहुँच सकता था।


और हिंदी साहित्य के लिए इतना आदर नहीं रख पाता।


ये सब दादा दादी नाना नानी और परिवार के संस्कारो का ही परिणाम है।।


 


पर आज के हालात बहुत अलग है


जिसमें मान मर्यादाओं और संस्कारो का अभाव है।


जिसके चलते ही बाप बेटा साथ बैठकर पीते है।


और नशा हो जाने के बाद


एक दुसरो को गालियां देते है।


और अपनी खानदान को


सड़क पर नंगा कर देते है।


और आज के लोग इसे मॉडर्न जमाना कहते है।।


 


जय जिनेन्द्र देव 


संजय जैन (मुम्बई)


मदन मोहन शर्मा सजल

प्रेम ही पूजा


कली ने इशारा किया अलि भागा दौड़ा आया


परिणय की लालसा, मन में समाई है।


 


गुँजन गुंजित शोर, खिल उठा पोर-पर


राधा कृष्ण बन जाये, बाँसुरी बजाई है।


 


कली ने निहारा अलि, लज्जा आँखों बीच पली


लेकर सहारा डाल, थोड़ा शरमाई है।


 


होटों पे तराना आया, प्रीत ज्वर ज्वार छाया


बाहों में समाया अलि, प्रणय बेला आई है।


 


डूबता ही चला गया, होश तन सारा खोया


निशा की सवारी आई, शाम गहराई है।


 


भूल गया सब कुछ, नही रहा याद कुछ


बन्द हुए कली पट, मौत चली आई है।


 


साँसों में घुटन हुई, प्राणों की अटक हुई


छूटे प्राण संग-संग, जहां से विदाई है।


 


प्रेम में ही मिट जाना, ऐसा प्रेम अपनाना


प्रीत याद बन जाये, अलि ने जताई है।


 


समर्पित भाव रहें, लोभ मोह दूर रहें


स्वार्थ का न नाम कहीं, सच्चाई बताई है।


 


प्रेम नहीं राजा रंक, प्रेम में नहीं आशंक


प्रेम पूजा भगवान, वेदों ने जताई है।


 


मदन मोहन शर्मा सजल


डॉ0 हरि नाथ मिश्र

किसान


चोर-लुटेरों की चंगुल से,


अब तो मुक्त किसान हुआ।


हो स्वतंत्र अब अन्न बिकेगा-


उसका अब कल्यान हुआ।।


 


अपनी फसल उगा किसान अब,


बिना बिचौलिया साथ लिए।


करेगा विक्रय उपज का अपनी,


बिना दलाली दाम दिए।


मिलेगा उसको उचित मूल्य -


उसका अब सम्मान हुआ।


      अब तो मुक्त किसान हुआ।।


 


उत्तर-दक्षिण,पूरब-पश्चिम,


सभी प्रांतों में जाकर।


उन्मुक्त भाव से बेच सके,


वह उचित दाम अब पाकर।


देकर उसके श्रम की कीमत-


अद्भुत श्रम-गुणगान हुआ।।


       अब तो मुक्त किसान हुआ।।


 


नहीं सियासत शोभित लगती,


इसे बनाकर मुद्दा अब।


तोड़-फोड़-हिंसा अपनाना,


कितना लगता भद्दा अब।


करके हित कृषकों का मित्रों-


भारत देश महान हुआ।।


      अब तो मुक्त किसान हुआ।।


 


दाता अन्न कृषक हैं सबके,


इनका सुख है सबका सुख।


इनको दुख यदि मिला कभी तो,


समझो वह है सबका दुख।


देकर इनको सुख-सुविधा ही-


जन-जन का ही मान हुआ।।


      अब तो मुक्त किसान हुआ।।


         © डॉ0 हरि नाथ मिश्र


             9919446372


विनय साग़र जायसवाल

इस दर्जा शोखियों को जताया न कीजिए


बेताबियों को मेरी बढ़ाया न कीजिए


 


होश-ओ-हवास पर ही मैं काबू न रख सकूँ 


भर भर के जामे-हुस्न पिलाया न कीजिए


 


इतनी सी सिर्फ़ आप से है इल्तिजा सनम


शर्तें लगा के पास बुलाया न कीजिए 


 


मुद्दत से तशनगी में सुलगते हैं रोज़ो-शब


बीमारे-ग़म को अपने सताया न कीजिए 


 


उल्फ़त की रौशनी से चमक जायेगी हयात 


जलते हुए चराग़ बुझाया न कीजिए


 


मिन्नत के बावजूद पसीजे नहीं हुज़ूर


इतना सितम ग़रीब पे ढाया न कीजिए 


 


*साग़र* न दर्दो-ग़म से तड़प उठ्ठे ज़िन्दगी


नज़रों के तीर इतने चलाया न कीजिए 


 


🖋️विनय साग़र जायसवाल


तशनगी-प्यास


रोज़ो-शब--दिन रात


संदीप कुमार विश्नोई रुद्र

जय माँ शारदे


 


क्यों भारत के अन्दर हरपल अस्मत लूटी जाती है , 


क्यों गुण्डों की टोली भारत में दहशत फैलाती है। 


क्यों भारत की संसद अंधी क्यों विधवा कानून हुआ , 


क्यों बाबुल की राजदुलारी का यूं ऐसे खून हुआ। 


क्यों भारत की जनता हरपल अपने दुखड़े गाती है , 


क्यों सड़कों पर जाती टोली केंडल रोज जलाती है। 


 


संदीप कुमार विश्नोई रुद्र


दुतारांवाली तह0 अबोहर पंजाब


डॉ.राम कुमार झा निकुंज

मन वेदना


 


अहंकार निज बुद्धि का ,तिरष्कार नित अन्य।


दावानल अज्ञानता , करते कृत्य जघन्य।।१।।


 


श्रवणशक्ति की नित कमी,कोपानल नित दग्ध।


तर्कहीन थोथी बहस , सुन हो जनता स्तब्ध।।२।।


 


सत्ता सुख मद मोह में , राजनीति आगाज़।


फँसी मीडिया सूर्खियाँ , दबी आम आवाज़।।३।।


 


नित होता नैतिक पतन , हाथरसी दुष्काम।


शर्म हया सब भूल जन , मानवता बदनाम।।४।।


 


सुरसा सम चाहत मनुज , बनता तिकरमबाज़।


झूठ लूट हिंसा कपट , धन वैभव सरताज।।५।।


 


पाएँ कहँ इन्सानियत , सत्य धर्म ईमान।


दीन सदा श्रीहीन है , होता नित अवसान।।६।।


 


किसको चिन्ता देश की , प्रगति प्रजा सम्मान।


जाति धर्म प्रसरित घृणा ,नारी का अपमान।।७।।


 


दया धर्म करुणा अभी , कहँ पाएँ अब देश।


जिसकी है जैसी पहुँच , गढ़ता निज परिवेश।।८।।


 


हो समाज दुर्भाष बस , मर्यादा उपहास।


बदले की चिनगारियाँ , तुली दहन विश्वास।।९।।


 


रीति नीति रचना विधा , बदली लेखन भाव।


आज वही नफ़रत वतन , जाति धर्म दे घाव।।१०।।


 


स्वार्थ सिद्धि में सब दफ़न,न्याय त्याग कर्तव्य।


मान दान अवदान यश , दीन हीन हन्तव्य।।११।।


 


कवि निकुंज मन वेदना , आरक्षण का दंस।


अमन प्रीति मुस्कान हर ,सुख वैभव बन कंस।।१२।।


 


सिसक रही माँ भारती , देख स्वार्थ दुष्कर्म।


लज्जा श्रद्धा गुमसुदा , कहँ परहित सद्धर्म।।१३।।


 


कवि✍️डॉ.राम कुमार झा "निकुंज"


नई दिल्ली


 डा.नीलम

पिता


 


हाँ पिता हूँ मैं


समाज की दकियानुसी


सोच का कायल


चंद नारों में या


निनादों में


*बेटी बचाओ,बेटी पढ़ाओ*


का कायल हो कर भी


मोक्ष की चाहत में


पुत्र -लालसा रखता हूँ


 


कहीं कोई बेटी की


खून से लथपथ 


लाश देख कर भी


खून नहीं खौलता मेरा


बल्कि कछुए -सा मैं


अपने खोल में


छुप जाता हूँ


 


सच कहुँ तो.......


पुरूष हूँ न


झूठी मर्दानगी दिखाने


की खातिर


माँ की कोख को 


बेटी की कब्र 


बनाते भी मन


विचलित नहीं होता


ऐसा दिखाता हूँ


 


पर सच कहुँ तो


पिता हूँ ,काष्ठ नहीं


हृदय में मेरे भी


बहती है निर्मल -निर्झरिणी


भीगती है आँख भी


बस ऐकांत में 


बहती हैं 


 


सच पुरूष हूँ,पिता हूँ


पर बेटी का नहीं


बेटे का।


 


       डा.नीलम


डॉ. रामबली मिश्र

**भज लो माता सरस्वती को।*


 


श्री माता जी नित वरदानी।


महा तपस्वी दिव्य सुजानी।।


 


माँ श्री से ही नाता जोड़ो।


लौकिकता से नाता तोड़ो।।


 


भज लो माँ को कर नित वन्दन।


मँहकोगे तुम जैसे चन्दनं।।


 


करो उन्हीं से ज्ञान प्रसंगा।


चलते रह नित माँ के संगा।।


 


ज्ञान रत्न माँ दिव्य खजाना।


माँ को श्रद्धा सुमन चढ़ाना।।


 


सब कुछ सीखो माँ से केवल।


माँ देती रहतीं शुभ मधु फल।।


 


माँ से प्रीति लगाओ भाई।


करते रह उनकी सेवकाई।।


 


बैठी हंस चली आयेंगी।


शुभप्रद ज्ञान सीखा जायेंगी।।


 


आयेंगी पुस्तक को ले कर।


दे जायेंगी मधुर बोल वर।।


 


वीणापाणी बन आयेंगी।


मोहक गीत सुना जायेंगी।।


 


माँ श्री का आशीष मिलेगा।


हरदम पाल्हा बीस रहेगा।।


 


दिग्विजयी बन सदा रहोगे।


विश्व धरा पर सहज बहोगे।।


 


तेरी बातें सब मानेंगे।


तुमको देव तुल्य जानेंगे।।


 


ज्ञान गंग आँगन में होगा।


स्नेह मान सम्मान सुयोगा।।


 


बुद्धि-सरित उर-आलाय आये।


विद्या महा व्योम गहराये।।


 


करना माँ का प्रिय सत्संगा।।


रहना सुधि-बुधि से अति चंगा।।


 


डॉ. रामबली मिश्र हरिहरपुरी


9838453801


सुनीता असीम

एक दुनिया से ये गिला है मुझे।


दर्द उससे सिरफ़ मिला है मुझे।


***


स्वांग करते सभी सिखाने का।


संग उनका लगे कज़ा है मुझे।


***


नफरतों से भरा रहा रस्ता।


पर खुदा की फली दुआ है मुझे।


***


कुछ खुदा से नहीं मुझे शिकवा।


हद से ज्यादा सभी दिया है मुझे।


***


दिल सुनीता का है नहीं काबू।


प्रेम भगवान का मिला है मुझे।


***


सुनीता असीम


काव्य रंगोली आज के सम्मानित रचनाकार ओंकार त्रिपाठी  अयोध्या - अम्बेडकर नगर

ओंकार त्रिपाठी। लगभग 30 वर्ष से साहित्य साधना। आकाशवाणी दिल्ली के युव वाणी केंद्र, विदेश प्रसारण प्रभाग से लगातार 8 वर्षों तक काव्य पाठ। नव भारत टाइम्स, पंजाब केसरी, अमर उजाला जैसे राष्ट्रीय समाचार पत्रों एवं अनेक स्थानीय दैनिक समाचार पत्रों तथाच पत्रिकाओं में रचनाओं का प्रकाशन। दो पुस्तकों का प्रकाशन।


मो0 99536 31374


 


(1) बंद खिड़की चलो खोल दें याद की


 


 


चैत की चांदनी में जरुरत पड़ी


फागुनी आग की,


बंद खिड़की चलो खोल दें याद की।


 


फिर मिलें चलके डल झील के नीर से


मन की कश्ती को बांधे किसी तीर से


याद आती मसूरी की वे वादियां


जिनमें शीतल हुईं जून की गर्मियां


साथ नाची हिमाचल की शहजादियां


रूप के गांव की 


धूप ने यह कहा


फिर से छलका दो गगरी किसी राग की 


बंद खिड़की चलो खोल दें याद की।


चैत की --------------


 


हम भी मालिक रहे, प्यार जागीर के


हम भी रांझा थे मनहर किसी हीर के


देवताओं से ज्यादा विभव सम्पदा


एक नंदन विपिन था सुमन से लदा 


दूध की उस नदी का था रंग साँवला


प्राण की मौन वंशी ने फिर यह कहा


चूनरी पर है गाथा किसी फाग की


बंद खिड़की चलो खोल दें याद की।


चैत की चांदनी---------


 


नयन में सिमटती वो गोदावरी


ओठ पर धर गई आस आसावरी 


केश घन मंजु आनन पे बिखरे हुए


रातरानी के घर के बने पहरुए


तन को पुलकन मिली है बिना तन छुए


एक चिड़िया फुदककर कहे डाल पर 


अनमनी मंजरी है अभी बाग की


बंद खिड़की चलो खोल दें याद की।


चैत की चांदनी------


 


आग दहकेगी जब शबनमी देह में


दीप खुद जल उठेगा किसी गेह में


क्यों बहे जा रहे हो निराधार से


नीर लाओ तो मानेंगे मझधार से


मत उड़ो व्योम में व्यर्थ घनसार से


स्वाति कोई तो भर दो खुली सीप में


है जरुरत न मुझको गुणा भाग की


बंद खिड़की चलो खोल दें याद की।


 


चैत की चांदनी में--------------


 


(2) कच्चे धागे से


 


कच्चे धागे में बधा हुआ


भाई- बहना का प्यार


है लाया राखी का त्यौहार।


 


ये रिश्ता है सबसे अनमोल


न इसको किसी तुला में तोल


है इसमें रक्षा का विश्वास


बहन का भाई का अहसास 


यही इस रिश्ते का आधार 


है लाया राखी का त्यौहार।


 


ये पावनता का बन्धन है 


भावना का अभिनंदन है 


बहन भाई के माथे पर


लगाती रोली चन्दन है


बहन का भाई पर मनुहार


है लाया राखी का त्यौहार।


 


(3) उठो! अब भोर हो गयी


 


उठो !अब, भोर हो गयी।


प्रात झुरमुट से झाँके,


नींद करवट ले जागे।


शोर पायल करती है,


फिर से पनघट के आगे।


 


दिवाकर धीरे-धीरे 


पर्वतों से नीचे आते।


ओस कण मोती बनकर,


धरा के मन को सरसाते।


 


उषा अंगड़ाई लेती


पवन मकरंद बो गयी।


उठो! अब भोर हो गयी।


 


 


(4)मेरे मन में क्यों हलचल है


 


पुरवा के झोंके लिपटे हैं गदराई बदरी के तन से।


मेरे मन में क्यों हलचल है मुझसे मत पूंछो, खुद समझो।


 


टपक-टपक कर, क्या कहता है, पेड़ों की साखों से पानी।


प्रीत सरोवर में बिन डूबे, शापित है हर एक जवानी।


घन गर्जन ने जगा दिया है, सोयी हुई कामनाओं को।


आलिंगन में बांध धरा को, पहनाता है चूनर धानी।


 


दो गुलाब के फूल, चुराकर लाए हैं पराग नंदन से।


मेरे मन में क्यों हलचल है, मुझसे मत पूंछो, खुद समझो।


पुरवा के झोंके लिपटे हैं गदराई बदरी के तन से।


मेरे मन में क्यों हलचल है मुझसे मत पूंछो, खुद समझो।


 


टपक-टपक कर, क्या कहता है, पेड़ों की साखों से पानी।


प्रीत सरोवर में बिन डूबे, शापित है हर एक जवानी।


घन गर्जन ने जगा दिया है, सोयी हुई कामनाओं को।


आलिंगन में बांध धरा को, पहनाता है चूनर धानी।


 


दो गुलाब के फूल, चुराकर लाए हैं पराग नंदन से।


मेरे मन में क्यों हलचल है, मुझसे मत पूंछो, खुद समझो।


पुरवा के झोंके लिपटे हैं गदराई बदरी के तन से।


मेरे मन में क्यों हलचल है मुझसे मत पूंछो, खुद समझो।


 


 


(5) मेरे गीत जलेंगे निशि-दिन


 


परिवर्तन को 


मेरे गीत जलेंगे निशि-दिन


जग पीड़ा ले


छन्द बुनूंगा 


मैं गीतों में गंध बुनूंगा 


छल छल भाव


छलक जाएगा 


मानस घन से


मेरे मन से


लेकिन यह सब कैसे होगा


रोटी के बिन।


परिवर्तन को


मेरे गीत जलेंगे निशि-दिन।


 


भूख लगी तो


आग लिखूंगा।


आज़ादी पर 


दाग लिखूंगा।


टप-टप क्रांति 


टपक जायेगी


शब्द-शब्द से


गीत-छ्न्द से।


जयचन्दों से बदला ले लेगी


वह गिन-गिन।


परिवर्तन को


मेरे गीत जलेंगे निशि-दिन।


 



काव्य रंगोली आज के सम्मानित रचनाकार सविता वर्मा "ग़ज़ल"

सविता वर्मा


साहित्यिक नाम -सविता वर्मा "ग़जल" 


जन्म- १ जुलाई


पति - श्री कृष्ण गोपाल वर्मा


जन्म-स्थान- कस्बा छपार जनपद मुज़फ्फरनगर (उत्तर प्रदेश) 


अध्यक्ष -मन-आँगन साहित्यिक समूह" ।


 


देश विदेश की पत्र पत्रिकाओं में सतत रचनाएँ प्रकाशित. ।


अनेक साझा संग्रहों में कहानी व काव्य रचनाएँ प्रकाशित।


आकाशवाणी के अनेक केंद्रों से रचनाओं का प्रसारण।


"वीरांगना सावित्री बाई फुले फैलोशिप सम्मान ,हिंदी गौरव सम्मान सहित अनेकों पुरस्कार व सम्मानों से अलंकृत।


 


प्रकाशित पुस्तक-"पीड़ा अंतर्मन की" काव्य संग्रह 2012।


 


विधा-गीत,ग़ज़ल,काव्य,नाटक,कहानी,बाल रचनाएँ आदि।।


सम्पादन-अनेक काव्य पुस्तकों का सम्पादन।


 


 


विशेष-1."नारी सशक्तिकरण पर आधारित लघुफिल्म "शक्ति हूँ मैं" में भूमिका के लिये प्रयत्न संस्था द्वारा "नारी शक्ति सम्मान"।


विशेष-2. आकाशवाणी व दैनिक जागरण,दैनिक जनवाणी के साथ ही अनेक पत्र-पत्रिकाओं में साक्षात्कार।


अनेक साहित्य संस्थाओं की सदस्य।


 


मोबाइल नं-8755315155


मेल आईडी - savita.gazal@gmail.com


 


पता-


230,कृष्णापुरी ,


मुजफ्फरनगर,पिन-251001


(उ.प्र.)


 


 


"नारी और प्रतीक्षा"


 


नारी और प्रतीक्षा


दोनों का


मानों है


अटूट रिश्ता ..


जन्मों-जन्मों का ...


कहीँ द्रौपदी बन करती हैं


प्रतीक्षा ...


जगत के पालन हार की ...


तो कहीँ ....


अहिल्या बनती है


पाने को मुक्ति


पत्थर के स्वरूप से ...


भगवान श्री राम की..


कभी भीलनी बन


आजीवन बुहारती है


भक्ति-पथ ...


और कभी....


सीता बनकर जीती हैं


एक-एक पल


मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम की


प्रतीक्षा में ...


और अंतत मिलता हैं


तो वही वनवास ....


प्रतीक्षा ही तो की थी ...


शकुन्तला ने ....


जिसकी कोख में


अपना अंश रोपकर


..पहचान भी ना पाये


महाराज दुष्यंत ....


और वो एक अँगूठी पर


विश्वास कर बैठी ....


हैं न विडम्बना ...


युग कोई भी हो ...


रुप कोई भी हो ....


नहीँ छूटता दामन


नारी और प्रतीक्षा का ....


यॆ तो जन्मों का साथ हैं


हर युग में .....


जनम लेगी नारी


और फ़िर


बंधती रहेगी ....


बंधनों में ...


माँ -बेटी ,बहन ,पत्नी ....


या फ़िर प्रेयसी ही


क्यों ना हो .....


कभी-कभी तो तोड़ देती हैं दम


यॆ प्रतीक्षा की घड़ी ....


फ़िर भी बँधी हैं


एक-दूसरे से


नारी और प्रतीक्षा !!!!


 


 


 


"चोर"


 


शोर मचा है हर तरफ़...


चोर-चोर और चोर....


मगर कहाँ है चोर ?


मैंने तो नहीँ देखा....हैरान सी मैं


देख रही थी दायें-बांये...


तभी सामने कुछ शोर सुनकर देखा तो


टूट पड़ती है भीड़ लोगों की


एक नन्ही सी जान पर....


जिसकी उम्र शायद आठ या नौ साल रही होगी ।


और छीन लेती है उसके


पीछे की तरफ़ छुपाये दोनों हाथों से


चुराई हुई रोटी....


सबको मौका मिल गया...उसे चोरटी...कहीँ की...


या शर्म नहीँ आयी तुझे चोरी करते हुये..आदि.... आदि....मगर


कोशिश नहीँ की किसी ने भी ...


उसकी मासूम और...


मजबूर आँखों मॆं उमडे दर्द और पीडा को...


पढ़ने की ।


खुश हो रहे होते हैं सभी तो...


पकड़ जो लिया है चोर उन्होंने


पा ली हो मानों


जीत दुनियाँ भर पर....और घर आकर


खिला रहे हैं ...


अपने कुत्ते को दूध मॆं भिगोकर


डबल रोटी ॥


 


 


"रिवाज"


 


रात भर...


जलता रहा अलाव..


और खुलती रही बोतलों पर बोतलें...


और वो हँस रहे थे ..


बेहूदा और फूहड़ हँसी.....


अजीब अट्टहास के साथ...ही


वो मशगूल थे ....


खाने मॆं चिकन ,मटन और....और


जाने क्या-क्या अनाप-शनाप और


ले रहे थे चटकारे.....


यहीं तक होता तो ठीक था.....


हालाँकि अखर रहा था , ये सब मुझे.....


क्योंकि मैं ठहरा....


गाँव मॆं छाछ और चटनी के साथ


नमक लगी मिस्सी रोटी खाने वाला....


वो धरती पर रेंगने वाले विषैले सर्प के


जैसे....


रेंग रही थी उनकी उँगलियाँ...


उनके जिस्म पर...खुलेआम....


कुछ को इसी मॆं आ रहा ज़िंदगी का मजा मगर


कुछ अपने आप मॆं सिहर कर सिमट जाने की कर रही थी...नाकाम कोशिश....


रक्षक ही भक्षक जो बन कर रह गये थे उनके ।


छी...क्या यही होता है हाई सोसायटी का प्रमोशन


के बाद का जश्न....तो


नहीँ...चाहिये मुझे ऐसा प्रमोशन....


घिन आ रहे थी जब..


वो रिवाज़ के नाम पर


बदल रहे थे ...


पत्नी अपनी अपनी और मैं


सुबह की ट्रेन से जा रहा था गाँव की ओर अपने ॥


 


 


 


"तलाश"


 


वो बता रहे हैं रस्ता


कुछ नये मुसाफिरों को....


और मुसाफिर अंजान....


नहीँ जानते कि...


उतरे हैं सौदागर मौत के...


और चल पड़ते हैं...


करते उनका अनुसरण....


आज़ एक डोज मॆं....


जन्नत का मजा था मानों...


मुफ्त की दो दिन और.....


और फ़िर तीसरे दिन


बदलने लगते रास्ता....


अब नये मुसाफिर....


खुद ब खुद कुत्ते की भाँति


सूंघते सूंघते....


आखिर ढूँढ ही लेते हैं पता-ठिकाना..


राह दिखाने वाले का और


बन जाते है धीरे धीरे बुत.....


ऐसा बुत जो कर देता है


बर्बाद.....घर-बार और....


ज़िंदगी नये मुसाफिरों की....


ख़त्म होती सांसे माँगती रह जाती हैं...


बस एक पुड़िया और...


किंतु खेल यहीं ख़त्म नहीँ हो जाता?


वो फ़िर अपने-अपने बिल से निकल


पड़ते हैं तलाश मॆं...


नये मुसाफिर की ॥


 


 


"सौदागर"


 


रात भर टी.वी.के लगभग


सभी न्यूज चैनलों पर....


मची थी हाहाकार...


महिलाएँ....


बच्चे.....


बड़े सभी की चीत्कार कानों को


चीर रही थी....


लाशें भरी जा रही थी....


एम्बुलेंस मॆं....


मौत का तांडव पूरे जोरों पर था....


उफ़्फ़....


दिल तड़प गया....


रूह काँप गई...


और आँखें पथरा गई थी मानों....


मौत के साये मॆं सोये....ये कौन लोग थे ?


ये सब गरीब मजदूर....थे शायद...क्योंकि


कोई भी अमीर क्यों करेगा सेवन


इस बिष का....


सुना है ये सब नकली शराब....


के पीने से....


उफ़्फ़ !


जिम्मेदार कौन ?


क्या कोई एक ?


नहीँ....नहीँ....


पूरा सिस्टम ही दोषी हैं....


वहाँ खड़े एक बुजुर्ग की आवाज़ कानों मॆं


सुनायी पड़ी....


आखिर बँद क्यों नहीँ हो जाती


मौत की येँ भट्टिया...


काश !


न पनपता ये कारोबार मौत का...


तो गरीब मजदूर....


सस्ते के चक्कर मॆं....


आज़ न जाते यूँ


बिन मौत मारे ॥


अब शुरू होगा सिलसिला....


कागज के टुकडों मॆं ....


किसी का सिंदूर...


किसी के घर का चिराग या


मासूमों के सिर से उठा पिता का साया


बाँटा जायेगा ।


मगर !


नहीँ होती बँद आखिर क्यों ?


मौत की ये भट्टिया ॥


 


"किसान"


 


खेत जोत रहा था किसान....


बैलों के गले मॆं बज रही थी घन्टियां....


खुश थी धरती भी बहुत....


होगी खूब अन्न की पैदावार...


खुश था किसान....


मिलेगी दो जून की रोटी....


पेट की कूछ तो होंगी


कम सिलवटें....


खुश थे बैल कि हो रहे हैं


हर रोज़ कर्जमुक्त.....


किसान के घर बज रहा था


थाली मॆं चमचा.....


बेटी के पैदा होने पर....


खुश नहीँ था किसान अब....


इसलिये नहीँ कि पैदा हुई है बेटी....


बल्कि....


चिंतित था कैसे करेगा रखवाली उसकी....


जहाँ देखो ,वहाँ पनप रहे हैं


कुकुरमुत्ते की तरह....


इंसानी भेडिये ॥


 


"टाई"


 


वो बैठे हैं....


पूरी अकड़ के साथ...


स्टाइलिश सूट-बूट मॆं....


गले मॆं बँधी टाई....


बता रही थी....


नयी नयी बँधी हैं आज़....


उससे पहले कभी नहीँ....


आज़ ही क्यों ?


मैंने पूछा तो


मुस्कुरा कर थोड़ा शरमाते


थोड़ा इठलाते हुये...


बोली टाई....


अरे...वो आज़ सौदा...


करने आये हैं न ?


सौदा ? मैंने फ़िर थोड़ी ढीली पड़ती टाई


का मन टटोला....


हाँ.....भई लड़की देखने आये हैं...


और अच्छी कीमत मिले....


जनाब को खुद की....


बस ! इसीलिए....


हमॆं सजाकर लायें हैं...आज़


गले मॆं ..


टाई फ़िर इधर-उधर हिलने लगी...


धीमे-धीमे....मुस्कुरा रही थी...


मैं सोचने लगी....


ये निर्जीव होकर भी समझ रही है


इंसानी फितरत को....


और इंसान हैं कि..


मुखौटे पर मुखौटा....


चढाने से नहीँ आ रहा बाज ॥


डॉ.रामकुमार चतुर्वेदी

 बेटी


  जिसे आज अपना,बनाकर चले हैं।


  वही दाग घर में, लगाकर चले हैं।।


 


  सुरक्षित नही है, यहां पाल्य घर में।


नजर अब पड़ोसी, गड़ाकर चले हैं।।


 


अजब मस्त मानव,करे कृत्य दानव।


 सही आग मन में, लगाकर चले हैं।।


 


     यहाँ कोख बेटी, मशीनें दिखाये।


    भला वंश बेटा, चलाकर चले हैं।।


 


   पले कोख बेटी, पता जो किये थे।


 अजन्में शिशु को,मिटाकर चले हैं।।


 


    अजन्मी धरा पर, बने ये कसाई।


  उसे कोख में ही, सुलाकर चले हैं।।


 


    सुता क्यों पराई , करें भेद ज्ञानी।


  दिये मौत उसको,गड़ाकर चले हैं।।


 


 बिना जग दिखाये,किये जीव हत्या।


 अनैतिक किये ये, पताकर चले हैं।।


 


   हुए चार दिन ही,बियाही गयी थी।


  दहेजी बली में, चढ़ाकर चले हैं।।


 


   यहाँ हर कदम पर ,पले है दरिंदे ।


हवस भूख अपनी,मिटाकर चले हैं।।


 


         डॉ.रामकुमार चतुर्वेदी


सुनील कुमार गुप्ता

मन ढूँढ़ रहा सहारा


मैं तो मैं से हारा साथी,


मन ढूँढ़ रहा सहारा।


भक्ति संग डूबा जो मन फिर,


जीवन को मिला कीनारा।।


कुछ न कहे मन की फिर साथी,


ये मन तो मन से हारा।पग-पग भटकन भरी मन यहाँ,


किसका-मिले फिर सहारा?


सोचता रहा मन जग में साथी,


कौन-जीता,कौन -हारा?


मैं तो मैं से हारा साथी,


मन ढूँढ़ रहा सहारा।।


 


         सुनील कुमार गुप्ता


नूतन लाल साहू

विस्मरण व्यथा


कैसे बढ़ाये,स्मरण शक्ति


कैसे करें,समस्यायों का समाधान


अनेकोनेक समस्या निर्मित हो रही है


विस्मरण व्यथा, हो रहा है विकराल


व्यक्ति व्यर्थ के बातो में झूल रहा है


नित्य कर्म भी भुल रहा है


कहते हैं,भगवान ने समस्या निर्मित की है


तो,वहीं करेंगे समाधान


विस्मरण व्यथा,हो रहा है विकराल


एक जनाब,कोर्ट में पेशी जाने


फ़ाइल घर पर,निकाल कर रखी


पर,फाइल लाना ही भुल गया


वकीलों का बहस का दिन था


मामला हाथ से छुट गया


कैसे चलेगी,जीवन नैया


विस्मरण व्यथा,हो रहा है विकराल


तर्क कुतर्क,उलझन में डाल रहा है


दूरदर्शन के बोर कार्यक्रमों का,प्रभाव हो रहा है


निशदिन नया नया,समस्या देखकर


आदमी गहरी नींद, कहां सो रहा है


सच कहता हूं,यह चिंतन का विषय है


विस्मरण व्यथा,हो रहा है विकराल


व्यक्ति कार चलाते समय,मन ही मन


कोई किस्सा, गढ़ रहा है


दुर्घटना से कैसे बचे,चौराहे का बोर्ड पढ़ रहा है


होश आया तो देखा,अस्पताल के बिस्तर पर पड़ा है


सच कहता हूं,अनुसंधान का विषय है


विस्मरण व्यथा, हो रहा है विकराल


नूतन लाल साहू


एस के कपूर श्री हंस

कर्म ही महान है।


 


जान लो जन्म निश्चित तो


मरण भी निश्चित है।


अगर हैं करम अच्छे. तो


स्मरण भी निश्चित है।।


याद रहे कि मेहनत कभी


व्यर्थ नहीं जाती।


परिश्रम से भाग्य भी तेरी


शरण निश्चित है।।


 


बो कर पेड़ बबूल का आम


कोई पाता नहीं है।


करके करम बुरे कोई स्वर्ग


भी जाता नहीं है।।


करनी का फल मिलता है


कैसे भी संसार में।


बिना ऊंचा उठे तारे तोड़ कर


कोई लाता नहीं है।।


 


जान लो हमारे अच्छे कर्म ही


हमारी रक्षा करते हैं।


पुरुषार्थ से ही जीवन में हम


दक्षा बनते हैं।।


भावी पीढ़ी लिए कर्म ही है


कसौटी भाग्य की।


सीखाकरआचरण अच्छा नींव


सुरक्षा की धरते हैं।।


 


एस के कपूर श्री हंस


बरेली।


विनय साग़र जायसवाल

किस कदर इल्तिफ़ात करते हैं


उनसे हम जब भी बात करते हैं


 


उनसे बस एक यह शिकायत है


बातो बातों में मात करते हैं 


 


जब भी मिलती है यह नज़र उनसे


एक पल में क़नात करते हैं


 


फूल खिलते हैं दिल के गुलशन में


जब वो नज़रों से घात करते हैं


 


प्यार के यह हसीन लम्हे ही


ख़ूबसूरत हयात करते हैं 


 


शाद चेहरे हैं शेर पढ़कर यूँ 


हम लहू को दवात करते हैं


 


शामे-ग़म अपनी यूँ गुज़रती है 


आँसुओं को फ़रात करते हैं


 


आदमी सोच भी नहीं सकता


काम वो हादसात करते हैं


 


हमसे दीवाने ही फ़कत साग़र


रंगी-ऐ-कायनात करते हैं 


 


🖋️विनय साग़र जायसवाल


इल्तिफ़ात-कृपा ,मेहरबानी ,दया 


क़नात--कपड़े की दीवार 


हयात-जीवन ,ज़िन्दगी


शाद-- ख़ुश, प्रसन्न 


फ़रात-एक नदी 


कायनात-दुनिया, संसार


डॉ0 हरि नाथ मिश्र

वक़्त की बात


वक़्त का ऐसा बदला मिजाज़,


मौत को भाग जाना पड़ा।


शर्म से झुक कर तूफ़ान को-


कश्ती साहिल पे लाना पड़ा।।


 


सर उठाकर चले जो ज़रा,


सर उसे ही झुकाना पड़ा।


देख मजबूरियाँ बर्फ़ को-


ख़ुद को बिजली बनाना पड़ा।।


 


दे सकी जो न ये सारी दुनिया,


ख़ुद ख़ुदा को वो लाना पड़ा।


ख़ुद की ख़ुद्दारी को जो न समझा-


मुहँ की उसको ही खाना पड़ा।।


 


जिसने पाला है मन में भरम,


अश्क़ उसको बहाना पड़ा।


प्रेम के भाव को जो न समझा-


हाथ मल-मल के जाना पड़ा।।


 


नाम रौशन किया जिसने जग में,


बुद्धि-कौशल दिखाना पड़ा।


जो चढ़ा पर्वतों की शिखर पर-


जोखिम उसको उठाना पड़ा।।


        वक़्त का ऐसा बदला मिजाज़,


        मौत को भाग जाना पड़ा।।


                  ©डॉ0 हरि नाथ मिश्र


                       9919446372


संजय जैन

सोच बदल गई है


 


लड़का हो या लड़की, 


दोनों एक समान है।


हर काम करने लगी, 


आजकल की लड़कियां।


इसलिए तो लोगों की,


अब सोच बदल रही ।


और लड़की के जन्म पर, 


अब खुशियां मनाने लगे।।


 


लड़को से बढ़कर आजकल,


लड़कियां निकल रही।


समाज को आईना,


अब लड़कियां दिखा रही।


इसलिए तो मां बाप को, 


अब लड़कियां भा रही।


और कोक में अब इनकी 


हत्याएं कम हो रही।।


 


मोती अगर लड़का है तो,


हीरा है लड़कियां।


लड़के से ज्यादा भरोसे मंद,


है आजकल की लड़कीयां।


इसलिए समाज को दर्पण,


दिखा रही है लड़कियां।


दो दो जिम्मेदारियां,


उठती है लड़कीयां।।


 


एक घर की वो लक्ष्मी है,


तो दूसरे घर की वो सीता।अगर विपत्ति आये तो,


दुर्गा बन जाती है लड़कियाँ।


घर को मुसीबतों से, 


बचा लेती है लड़कियां।


स्नेह प्यार के रिश्ते भी,


खूब निभाती है लड़कियां।।


लड़का हो या लड़की, 


दोनों एक समान है।


हर काम करने लगी, 


आजकल की लड़कियां।।


 


जय जिनेन्द्र देव की


संजय जैन (मुम्बई)


सुनीता असीम

मुझको नफरत से नहीं प्यार से डर लगता है।


चाहने वालों के इजहार से डर लगता है


***


तीरगी दूर करे देखूँ जो चहरा उसका।


रोशनी के बिन अंधकार से डर लगता है।


***


सिर्फ फूलों की तरह रक्खे हैं रिश्ते हमने।


बस कभी चुभते हुए ख़ार से डर लगता है।


***


हर ख़बर मौत का संदेश लिए आए बस।


रोज़ आने वाले अख़बार से डर लगता है।


***


अब न संस्कार रहे आज के बच्चों में भी।


उनके बिगड़े हुए आचार से डर लगता है।


***


सुनीता असीम


 डॉ बीके शर्मा

चल साकी


पग-पायल झनकार लिए 


नयनों में कटार लिए आ


भला बुरा यह कहती दुनिया 


पल दो पल तू प्यार लिए


 


रोना-गाना तो दुनिया में


यूं ही चलता रहता है


लगता आंगन छोटा मुझको 


तू सारा संसार लिए आ


 


आने वाला जग जाता यहां


जाने वाला सो जाता


तेरा मेरा संबंध यहां है 


सांसों के दो तारे लिए आ


 


एक दूजे का हाथ थाम कर


एक दूजे की बात मानकर 


"चल साकी" इस जगती से


चलने को रफ्तार लिए आ


 


 डॉ बीके शर्मा


 उच्चैन भरतपुर( राजस्थान)


9828863402


कालिका प्रसाद सेमवाल

माँ शारदे


तुम्हारी वंदना कैसे करूं


माँ तुम्हारी अर्चना कैसे करूं


सभी शब्दों में समाहित तुम्हीं हो


सभी रागों की प्रतिध्वनित तुम ही हो


सभी देवों कि बुद्धि विवेक दाता तुम्हीं हो ।


 


मांँ शारदे


तुम सत्य के आधार हो


माँ तुम्हीं ज्ञान दायिनी हो


तुम्ही विघा की भण्डार हो


तुम्हीं विवेक और सौन्दर्य हो


प्रकृति में भी तुम्ही हो माँ


 


माँ शारदे


तुम दिव्य स्वरूपा हो


माँ तुम्हारी मूर्त्ति को कैसे गढूं 


मांँ मुझे विद्या विनय का दान दें


मुझ अज्ञानी का कल्याण कर


माँ मुझे वरदान दे, माँ मुझे वरदान दे।


 


कालिका प्रसाद सेमवाल


==================


तुम्हीं सच बताओ मुझे मान दोगी


********************


तुम्हें गीत की हर लहर पर संवारूँ,


तुम्हें जिन्दगी में सदा यदि दुलारूँ,


तुम्हीं सच बताओ मुझे मान दोगी,


बहुत मैं चला हूँ बहुत मैं चलूंगा,


कहीं गीत बनकर तुम्हारा ढलूंगा,


तुम्हीं सच बताओ मुझे गान दोगी।


 


प्रणय की निशानी नहीं रह सकेगी,


भले यह जवानी नहीं रह सकेगी,


तुम्हीं सच बताओ मुझे प्रान दोगी,


हृदय में कहो या सुमन में बिठाऊँ,


तरसते नयन है कहाँ देख पाऊँ,


तुम्हीं सच बताओ कहां ध्यान दोगी।


********************


कालिका प्रसाद सेमवाल


मानस सदन अपर बाजार


रूद्रप्रयाग उत्तराखंड


पिनकोड 246171


डॉ0 हरि नाथ मिश्र

तृतीय चरण (श्रीरामचरितबखान)-21


 


देखि लखन भे राम अधीरा।


कारन कवन कहहु कस पीरा।।


     बहु भयभीत लखन तब कहहीं।


     सुनि प्रभु राम बिकल बहु भवहीं।।


सुनहु लखन बहु राच्छस यहि बन।


इत-उत बिचरैं हर-पल,हर-छन।।


     कहहि मोर मन सिय नहिं तहवाँ।


     वाको तजि आयो तुम्ह इहवाँ।।


करि अनुमान तुरत प्रभु धावहिं।


तट गोदावरि कुटिया जावहिं।।


     पाइ न सीतहिं कुटिया माहीं।


     हो बहु बिकल राम बिलखाहीं।।


खोजत-फिरत राम चहुँ-ओरा।


जनु कोउ चकई चकित चकोरा।।


     खग-मृग,पसु-पंछी जे मिलहीं।


     राम बिकल मन सभतें पुछहीं।।


गिरि-तरु, पुष्प-लता सभ सुनहू।


कहँ सिय रहहिं मोर तुम्ह कहहू।।


    होंहिं मुदित निज भागि सराहहिं।


    सुक-कपोत-खंजन मिलि गावहिं।।


भ्रमर-कोकिला,मीन-कुमुदिनी।


गज-केहरि,ससि-हंस-कमलिनी।।


    सब मिलकर मनोज-धनु-हंसा।


     प्रभु-मुख सुनि भे मुदित प्रसंसा।।


सिय बिनु राम बिकल जनु ऐसे।


ब्याकुल बिरही-कामुक जैसे।।


    सुखदायक प्रभु अज-अबिनासी।


    मनुज-चरित लखि आवै हाँसी।।


मिला जटायू तब मग माहीं।


सुमिरत राम-नाम वहिं ठाहीं।।


     निज गति कारन राम बतावा।


     सीता-हरन व गमन जतावा।।


दसकंधर लइ सीयहिं भागा।


पंखहीन करि मोंहि अभागा।।


     दक्खिन-दिसि लइ रावन गयऊ।


     जेहिं दिसि प्रभु तिसु लंका भयऊ।।


प्रभु सुनि दुखद गीध कै बैना।


तिसु तन छूइ दीन्ह सुख-चैना।।


     भइ प्रसन्न तुम्ह तव तन राखहु।


      जीवन भर सुख पूरा पावहु।।


पावहिं अधम सुगति चररन्ह तें।


मैं त्यागहुँ तन तिनहिं छुवन तें।।


दोहा-करहु कृपा प्रभु मोंहि पे,गीध कहा सबिषाद।


         राम परसि तिसु बदन कह,सुर-पुर होहु अबाद।।


         गीध-प्रार्थना सुनि प्रभू,भेजि ताहि हरि-धाम।


         करि तिसु सभ अंतिम-क्रिया,चले बिनू बिश्राम।।


        जात समय प्रभु तब कहे,गीधराजु समुझाइ।


         मम पितु सन तुम्ह मत कह्यो,सीय-हरन तहँ जाइ।।


मम सर मरि जब रावन जाई।


स्वयं कथा सभ पितुहिं बताई।।


                  डॉ0हरि नाथ मिश्र


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आठवाँ अध्याय (श्रीकृष्णचरितबखान)-1


 


रहे पुरोहित जदुकुल नीका।


पंडित गर्गाचारहिं ठीका।।


    आए गुरु गोकुल इक बारा।


    जा पहुँचे वै नंद-दुवारा ।।


पाइ गुरुहिं तहँ नंदयिबाबा।


करि प्रनाम लीन्ह असबाबा।।


     ब्रह्मइ गुरु अरु गुरु भगवाना।


     अस भावहिं पूजे बिधि नाना।।


बिधिवत पाइ अतिथि-सत्कारा।


भए मगन गुरु नंद-दुवारा।।


     करि अभिवादन निज कर जोरे।


      कहे नंद अति भाव-बिभोरे ।।


तुमहीं पूर्णकाम मैं मानूँ।


केहि बिधि सेवा करउँ न जानूँ।।


    बड़े भागि जे नाथ पधारे।


     अवसि होहि कल्यान हमारे।।


निज प्रपंच अरु घर के काजा।


अरुझल रहहुँ सुनहु महराजा।।


     पहुँचि पाउँ नहिं आश्रम तोहरे।


      छमहु नाथ अभागि अस मोरे।।


भूत-भविष्य-गरभ का आहे।


जानै नहिं नर केतनहु चाहे।।


     ब्रह्म-बेत्ता हे गुरु ग्यानी।


     जोतिष-बिद्या तुमहिं बखानी।।


करि के नामकरन-सँस्कारा।


मम दुइ सुतन्ह करउ उपकारा।।


    मनुज जाति कै ब्रह्मन गुरुहीं।


    धरम-करम ना हो बिनु द्विजहीं।।


                डॉ0 हरि नाथ मिश्र


                 9919446372


डॉ. रामबली मिश्र

मुड़ कर देखो मीत


 


मुड़ कर देखो मीत।


तुम्हारा प्रियतम आया है।।


 


मुड़कर देखो मीत।


तुम्हारा मोहन आया है।।


 


मुड़कर देखो मीत।


तुम्हारा दीवाना है यह।


 


मुड़कर देखो मीत।


तुम्हारा मस्ताना है यह।।


 


भूल करो मत मीत।


तुम्हारे पास रहेगा यह।।


 


मुड़कर देखो मीत।


तुम्हारी राह चलेगा यह।।


 


दिल में प्रेम समुद्र।


बनकर लहर उठेगा नित यह।।


 


अब तो देखो मीत।


दर पर तेरे खड़ा आज यह।।


 


इसके दिल को देख।


है दिलदार गुलाब -अतर यह।।


===================


अब मुझे तुम भूल जाओ


 


अब मुझे तुम भूल जाओ।


मुझको कभी याद मत करना।।


 


अब मुझे तुम भूल जाओ।


मेरे दिल से बाहर रहना।।


 


अब मुझे तुम भूल जाओ।


मेरे दिल में नहीं उतरना।।


 


अब मुझे तुम भूल जाओ।


मुलाकात को गलत समझना।।


 


अब मुझे तुम भूल जाओ।


मिलने की मत कोशिश करना।।


 


अब मुझे तुम भूल जाओ।


अपने मन से मुझे झटकना।।


 


अब मुझे तुम भूल जाओ।


मुझपर गुस्सा करते रहना।।


 


अब मुझे तुम भूल जाओ।


मुझको देख विदकते रहना।।


 


अब मुझे तुम भूल जाओ।


मेरे शव पर सतत थूंकना।।


 


आया था अब चलता हूँ।


मुझपर मत तुम कभी तरसना ।।


 


अब मुझे तुम भूल जाओ ।


राम नाम है सत्य न कहना।।


===================


रहे सिलसिला सदा मिलन का।


भागे प्रति क्षण भाव जलन का।।


 


मिलें खोल दिल साफ-स्वच्छ हो।


कर्म कदापि न हो विचलन का।।


 


सुख-दुःख बाँटें हम मिलजुल कर।


गाँव बसे प्रिय रतन-भलन का।।


 


माँगें मिन्नत एक यही सब।


बने पंथ सुंदर प्रचलन का।।


 


सबको मिले प्रीति का प्याला।


शंखनाद हो दुष्ट दलन का ।।


 


हो सर्वत्र अमी- वट -रोपण ।


उर-उपवन हो मधुर फलन का।।


=====================


सर्वसाधिका मातृ शारदा


 


रसमृता अति परम सुबोधिनि।


ज्ञानामृता विवेकदायिनी।।


 


विद्यामृता विनीत महारथ।


शान्ताकारं प्रिय नि:स्वारथ।।


 


अच्युत आनंदी उत्प्रेरक।


महा सिंधु शुभ भाव उकेरक।।


 


करुणा तरुणा शिवा स्वामिनी।


सत शिव सुंदर स्वाभिमानिनी।।


 


श्रेष्ठ वरेण्य दिव्य ब्रह्माणी।


सुयशदायिनी मधु कल्याणी।।


 


सहज प्रतापपुंज दिनकर सम।


महा शीतला चन्द्रमुखी नम।।


 


धन धनतेरस धर्म धुरंधर।


परम पर्व पावन पति प्रियवर।।


 


नित्यानंदी नर नारायण।


महाव्योमनाद उच्चारण।।


 


मात्रिक वर्णिक छंद तुम्हीं हो।


महाकाव्य स्वच्छंद तुम्हीं हो।।


 


करो कृपा माँ सबके ऊपर।


सम्मोहित हों हम सब तुझ पर।।


 


डॉ. रामबली मिश्र हरिहरपुरी


9838453801


नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर

 जब जब अत्याचार का


क्रूर दामन करता खुनी


खेल ।


निरंकुश हो जाता करता


अंह का अट्टहास।।


 


तब निरीह नर में नारायण 


आता खुद जगाने विश्वाश।।


 


धरती पर रखता जब पाँव


स्वागत में पुलकित होती


माता ,कोख पर करती अभिमान।।


 


विरले पल प्रहर आते जब 


माताये भगत सिंह जनती 


समय काल भी अभिमान से


बतलाता धरती के वीर सपूतों


से अपना नाता।।


 


वर्तमान इतराता भविष्य अपने


दामन में वतर्मान की सौगात 


समेटे जाता।।


 


भगत भाव है स्वतंत्रता की


चिंगारी ,अंगार।।


भगत सिंह कराहती तलासती


आँखों की रौशनी उजियार।।


 


भगत युवा चेतना का हुंकार हनक


शंख नाद।


भगत सोच भगत त्याग बलिदान


मर्म ज्ञान का बैराग्य।।


 


रोज भगत सिंह नहीं पैदा होता


परम् शक्ति सत्ता का पराक्रम


प्रतिनिधि युग चेतना पुकार की


संतान ।।


 


मकसद का जीवन मकसद


पर कुर्बान।


सरफरोसि विचार क्रांति 


शंख नाद जोर कातिलों के बाजुओं का सर्वनाश के


आवाहन आवाज़।।


 


दुष्ट ,दमन कारी ,अत्याचारी


अन्याय का प्रबल प्रतिकार


निडर, निर्भीक साहस की


चुनौती का भयमुक्त भगत


नौजवान।।


 


धरती माँ की संतान धरती


के कण कण का रौशन चिराग


भगत धीर ,वीर, धैर्य ,धन्य वर्तमान युवा प्रेरणा महिमा गौरव गान।।


 


जीवन के कुछ वसंत ,सावन 


ही युगों युगों के जीवन का


सार ।।


 


वीरों की गाथा इबारत का


जाबांज भगत।


शौर्य सूर्य की चमक छितिज


का युवा उत्सव उल्लास की


शान।।


################


बेटी है दुनियां का नाज


बेटी करती हर काज आज


बेटी अरमानों का अवनि


आकाश।।


 


शिक्षित बेटी नैतिक समाज


बेटी संरक्षण संरक्षित समाज


बेटी बुढापे का सहारा


बेटी माँ बाप के लिये 


ज्यादा संवेदन साज।।


 


बेटी बेटा एक सामान 


बेटी गर कोख में मारी


जाती दांवन दरिद्रता 


दुःख क्लेश का आवाहन


साम्राज्।।


 


बेटी लक्ष्मी है बेटी है


वरदान


 


लिंग भेद का पतन पतित


समाज।


बढती बेटी बढ़ाता गौरव मान


बेटी का सम्मान सशक्त राष्ट


समाज की बुनियाद।।


 


बेटी गुण ज्ञान धन धान्य


की पहचान खान


बेटी से मर्यादा का मान


बेटी निश्चिन्त निर्भय विकास


न्याय का पर्याय।।


 


बेटी नगर हाट चौराहे पर


दानवता का गर हुई शिकार


पीढ़ी का घुट घुट कर प्राश्चित 


 दमघुटता शर्मशार समाज।।


 


बेटी प्यारी न्यारी 


जीवन का आभार


बेटी का रीती ,निति राजनीती


ध्यान, ज्ञान ,बैराग्य ,विज्ञानं


यत्र तंत्र सर्वत्र अधिकार।।


 


बेटी गौरव गूँज गर्जना


बेटी स्वर ,संगीत ,व्यंजना


बेटी अक्षय ,अक्षुण, पुण्य ,कर्म


बेटी संस्कृति संस्कार।।


 


बेटी का ना तिरस्कार 


बेटी संग ना भेद भाव


बेटी शिवा शिवाला ईश्वर


रचना की बाला बला नहीं


सृष्टि की ज्योति ज्वाला।।


 


***********************************


 


 वर्षा ऋतु प्यारी न्यारी 


जिंदगी का एहसास जगावे।।


 


कभी बचपन के अठखेली


कागज़ की कश्ती बारिश 


का पानी बालपन वर्षा का


आनन्द बतावे।।


 


सावन की वर्षा मन हर्षा


जवां प्यार की बहार 


रिम झिम फुहार प्यार का


खुमार ह्रदय भाव से पानी पानी।।


सावन की घटाओं में ख्वाबों की


अदाओ अदा बहार आरजू आसमान अंतर्मन पाये।।


 


वर्षा ऋतु में सावन के सुहाने मौसम में चाँद बादलो के आगोश में इश्क इज़हार की प्यास प्यार में दिल पानी पानी कशिश काश की


प्यास बुझाये।।


 


सावन वर्षा मन हर्षा वो आएगी


मन भायेगी भीगा बदन गालो पे सावन की बुँदे शबनम।          


 


नादां इश्क का जज्बा जूनून जोश जश्न का हाल प्याला मधुशाला का रस मकरंद बतायेगी।।


 


उमड़ घुमण वर्षा के बादल 


मन भबराये जीया तरसाये


कभी घनघोर कभी आये


जायें।।


 


वर्षा ऋतु शुख दुःख दोनों आश


विश्वाश धरती की प्यास बुझायें


सुखी धरती के दामन को ऊसर


बंजर से बचाये।।


 


वर्षा ऋतू प्यारी चुहू ओर


हरियाली अँधा भी हरियाली


खुशहाली का राग सुनाये।।


 


वर्षा ऋतु तीज त्योहारों का


अलख जगाये कृष्ण जन्म


युग दृष्ट्री का देव आयें।।


 


रक्षाबंधन स्वतंत्र राष्ट्र का


वन्दे मातरम् जन गण मंगल


दयाक जय हो गाये।।


 


वर्षा ऋतु प्रकृति प्राण की


बुनियाद इश्क मोहब्बत प्यार


यार का इंतज़ार का अवसर


ऋतु ख़ास गीत गाये।।


 


वर्षा ऋतु हरियाली तीज सावन का झूला सखियो का मेला राधा और कान्हा मधुबन का रास रचावे।।


वर्षा ऋतु का बचपन वर्षा का युवा यौवन पहली कर्षा पहला


सावन गोरी छोरी की मादकता


मस्ती मौसम आये।।


 


नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर


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