सविता वर्मा
साहित्यिक नाम -सविता वर्मा "ग़जल"
जन्म- १ जुलाई
पति - श्री कृष्ण गोपाल वर्मा
जन्म-स्थान- कस्बा छपार जनपद मुज़फ्फरनगर (उत्तर प्रदेश)
अध्यक्ष -मन-आँगन साहित्यिक समूह" ।
देश विदेश की पत्र पत्रिकाओं में सतत रचनाएँ प्रकाशित. ।
अनेक साझा संग्रहों में कहानी व काव्य रचनाएँ प्रकाशित।
आकाशवाणी के अनेक केंद्रों से रचनाओं का प्रसारण।
"वीरांगना सावित्री बाई फुले फैलोशिप सम्मान ,हिंदी गौरव सम्मान सहित अनेकों पुरस्कार व सम्मानों से अलंकृत।
प्रकाशित पुस्तक-"पीड़ा अंतर्मन की" काव्य संग्रह 2012।
विधा-गीत,ग़ज़ल,काव्य,नाटक,कहानी,बाल रचनाएँ आदि।।
सम्पादन-अनेक काव्य पुस्तकों का सम्पादन।
विशेष-1."नारी सशक्तिकरण पर आधारित लघुफिल्म "शक्ति हूँ मैं" में भूमिका के लिये प्रयत्न संस्था द्वारा "नारी शक्ति सम्मान"।
विशेष-2. आकाशवाणी व दैनिक जागरण,दैनिक जनवाणी के साथ ही अनेक पत्र-पत्रिकाओं में साक्षात्कार।
अनेक साहित्य संस्थाओं की सदस्य।
मोबाइल नं-8755315155
मेल आईडी - savita.gazal@gmail.com
पता-
230,कृष्णापुरी ,
मुजफ्फरनगर,पिन-251001
(उ.प्र.)
"नारी और प्रतीक्षा"
नारी और प्रतीक्षा
दोनों का
मानों है
अटूट रिश्ता ..
जन्मों-जन्मों का ...
कहीँ द्रौपदी बन करती हैं
प्रतीक्षा ...
जगत के पालन हार की ...
तो कहीँ ....
अहिल्या बनती है
पाने को मुक्ति
पत्थर के स्वरूप से ...
भगवान श्री राम की..
कभी भीलनी बन
आजीवन बुहारती है
भक्ति-पथ ...
और कभी....
सीता बनकर जीती हैं
एक-एक पल
मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम की
प्रतीक्षा में ...
और अंतत मिलता हैं
तो वही वनवास ....
प्रतीक्षा ही तो की थी ...
शकुन्तला ने ....
जिसकी कोख में
अपना अंश रोपकर
..पहचान भी ना पाये
महाराज दुष्यंत ....
और वो एक अँगूठी पर
विश्वास कर बैठी ....
हैं न विडम्बना ...
युग कोई भी हो ...
रुप कोई भी हो ....
नहीँ छूटता दामन
नारी और प्रतीक्षा का ....
यॆ तो जन्मों का साथ हैं
हर युग में .....
जनम लेगी नारी
और फ़िर
बंधती रहेगी ....
बंधनों में ...
माँ -बेटी ,बहन ,पत्नी ....
या फ़िर प्रेयसी ही
क्यों ना हो .....
कभी-कभी तो तोड़ देती हैं दम
यॆ प्रतीक्षा की घड़ी ....
फ़िर भी बँधी हैं
एक-दूसरे से
नारी और प्रतीक्षा !!!!
"चोर"
शोर मचा है हर तरफ़...
चोर-चोर और चोर....
मगर कहाँ है चोर ?
मैंने तो नहीँ देखा....हैरान सी मैं
देख रही थी दायें-बांये...
तभी सामने कुछ शोर सुनकर देखा तो
टूट पड़ती है भीड़ लोगों की
एक नन्ही सी जान पर....
जिसकी उम्र शायद आठ या नौ साल रही होगी ।
और छीन लेती है उसके
पीछे की तरफ़ छुपाये दोनों हाथों से
चुराई हुई रोटी....
सबको मौका मिल गया...उसे चोरटी...कहीँ की...
या शर्म नहीँ आयी तुझे चोरी करते हुये..आदि.... आदि....मगर
कोशिश नहीँ की किसी ने भी ...
उसकी मासूम और...
मजबूर आँखों मॆं उमडे दर्द और पीडा को...
पढ़ने की ।
खुश हो रहे होते हैं सभी तो...
पकड़ जो लिया है चोर उन्होंने
पा ली हो मानों
जीत दुनियाँ भर पर....और घर आकर
खिला रहे हैं ...
अपने कुत्ते को दूध मॆं भिगोकर
डबल रोटी ॥
"रिवाज"
रात भर...
जलता रहा अलाव..
और खुलती रही बोतलों पर बोतलें...
और वो हँस रहे थे ..
बेहूदा और फूहड़ हँसी.....
अजीब अट्टहास के साथ...ही
वो मशगूल थे ....
खाने मॆं चिकन ,मटन और....और
जाने क्या-क्या अनाप-शनाप और
ले रहे थे चटकारे.....
यहीं तक होता तो ठीक था.....
हालाँकि अखर रहा था , ये सब मुझे.....
क्योंकि मैं ठहरा....
गाँव मॆं छाछ और चटनी के साथ
नमक लगी मिस्सी रोटी खाने वाला....
वो धरती पर रेंगने वाले विषैले सर्प के
जैसे....
रेंग रही थी उनकी उँगलियाँ...
उनके जिस्म पर...खुलेआम....
कुछ को इसी मॆं आ रहा ज़िंदगी का मजा मगर
कुछ अपने आप मॆं सिहर कर सिमट जाने की कर रही थी...नाकाम कोशिश....
रक्षक ही भक्षक जो बन कर रह गये थे उनके ।
छी...क्या यही होता है हाई सोसायटी का प्रमोशन
के बाद का जश्न....तो
नहीँ...चाहिये मुझे ऐसा प्रमोशन....
घिन आ रहे थी जब..
वो रिवाज़ के नाम पर
बदल रहे थे ...
पत्नी अपनी अपनी और मैं
सुबह की ट्रेन से जा रहा था गाँव की ओर अपने ॥
"तलाश"
वो बता रहे हैं रस्ता
कुछ नये मुसाफिरों को....
और मुसाफिर अंजान....
नहीँ जानते कि...
उतरे हैं सौदागर मौत के...
और चल पड़ते हैं...
करते उनका अनुसरण....
आज़ एक डोज मॆं....
जन्नत का मजा था मानों...
मुफ्त की दो दिन और.....
और फ़िर तीसरे दिन
बदलने लगते रास्ता....
अब नये मुसाफिर....
खुद ब खुद कुत्ते की भाँति
सूंघते सूंघते....
आखिर ढूँढ ही लेते हैं पता-ठिकाना..
राह दिखाने वाले का और
बन जाते है धीरे धीरे बुत.....
ऐसा बुत जो कर देता है
बर्बाद.....घर-बार और....
ज़िंदगी नये मुसाफिरों की....
ख़त्म होती सांसे माँगती रह जाती हैं...
बस एक पुड़िया और...
किंतु खेल यहीं ख़त्म नहीँ हो जाता?
वो फ़िर अपने-अपने बिल से निकल
पड़ते हैं तलाश मॆं...
नये मुसाफिर की ॥
"सौदागर"
रात भर टी.वी.के लगभग
सभी न्यूज चैनलों पर....
मची थी हाहाकार...
महिलाएँ....
बच्चे.....
बड़े सभी की चीत्कार कानों को
चीर रही थी....
लाशें भरी जा रही थी....
एम्बुलेंस मॆं....
मौत का तांडव पूरे जोरों पर था....
उफ़्फ़....
दिल तड़प गया....
रूह काँप गई...
और आँखें पथरा गई थी मानों....
मौत के साये मॆं सोये....ये कौन लोग थे ?
ये सब गरीब मजदूर....थे शायद...क्योंकि
कोई भी अमीर क्यों करेगा सेवन
इस बिष का....
सुना है ये सब नकली शराब....
के पीने से....
उफ़्फ़ !
जिम्मेदार कौन ?
क्या कोई एक ?
नहीँ....नहीँ....
पूरा सिस्टम ही दोषी हैं....
वहाँ खड़े एक बुजुर्ग की आवाज़ कानों मॆं
सुनायी पड़ी....
आखिर बँद क्यों नहीँ हो जाती
मौत की येँ भट्टिया...
काश !
न पनपता ये कारोबार मौत का...
तो गरीब मजदूर....
सस्ते के चक्कर मॆं....
आज़ न जाते यूँ
बिन मौत मारे ॥
अब शुरू होगा सिलसिला....
कागज के टुकडों मॆं ....
किसी का सिंदूर...
किसी के घर का चिराग या
मासूमों के सिर से उठा पिता का साया
बाँटा जायेगा ।
मगर !
नहीँ होती बँद आखिर क्यों ?
मौत की ये भट्टिया ॥
"किसान"
खेत जोत रहा था किसान....
बैलों के गले मॆं बज रही थी घन्टियां....
खुश थी धरती भी बहुत....
होगी खूब अन्न की पैदावार...
खुश था किसान....
मिलेगी दो जून की रोटी....
पेट की कूछ तो होंगी
कम सिलवटें....
खुश थे बैल कि हो रहे हैं
हर रोज़ कर्जमुक्त.....
किसान के घर बज रहा था
थाली मॆं चमचा.....
बेटी के पैदा होने पर....
खुश नहीँ था किसान अब....
इसलिये नहीँ कि पैदा हुई है बेटी....
बल्कि....
चिंतित था कैसे करेगा रखवाली उसकी....
जहाँ देखो ,वहाँ पनप रहे हैं
कुकुरमुत्ते की तरह....
इंसानी भेडिये ॥
"टाई"
वो बैठे हैं....
पूरी अकड़ के साथ...
स्टाइलिश सूट-बूट मॆं....
गले मॆं बँधी टाई....
बता रही थी....
नयी नयी बँधी हैं आज़....
उससे पहले कभी नहीँ....
आज़ ही क्यों ?
मैंने पूछा तो
मुस्कुरा कर थोड़ा शरमाते
थोड़ा इठलाते हुये...
बोली टाई....
अरे...वो आज़ सौदा...
करने आये हैं न ?
सौदा ? मैंने फ़िर थोड़ी ढीली पड़ती टाई
का मन टटोला....
हाँ.....भई लड़की देखने आये हैं...
और अच्छी कीमत मिले....
जनाब को खुद की....
बस ! इसीलिए....
हमॆं सजाकर लायें हैं...आज़
गले मॆं ..
टाई फ़िर इधर-उधर हिलने लगी...
धीमे-धीमे....मुस्कुरा रही थी...
मैं सोचने लगी....
ये निर्जीव होकर भी समझ रही है
इंसानी फितरत को....
और इंसान हैं कि..
मुखौटे पर मुखौटा....
चढाने से नहीँ आ रहा बाज ॥