निधि मद्धेशिया

अख़बार


 


लिपटाकर ख़बरों को पैरहन में


सजाते हैं बेवा को दुल्हन सा...


 


पेड़ों का दोहन कर के


बनाए कागज मन के


स्याही से सफेद को 


स्याह लिखा बढ़-चढ़ के।


 


समाचार कोई माई-बाप नहीं


पक्ष दृढ़ इतना कोई पाप नहीं।


 


बचा दहशतगर्दी इनका काम 


इनका न कोई अल्लाह न राम।


 


विभत्सता की सीमा लाँघ....


कटा सिर हाथ में पकड़े


छितरे हुए शव के टुकड़े


रक्त रंजित भूमि, माँ की छाती


से लगा माह भर का बच्चा


दृश्य यही भरे हुए है अखबार ये कच्चा।


 


बनती हैं चटपटी खबरें


हरे, गुलाबी नोटों में


हर पंक्ति की पहुँच केवल वोटों में।


 


ड्योढ़ी के बाहर मत जाओ 


जाएगी लाज तुम्हारी 


क्या याद करेंगी पीढ़ियाँ 


 


चोटिल होता भाव इंसानों का(स्त्री,पुरुष)


कारस्तानी अखबारों की 


झेलती हैं बेटियाँ इंसानों की। (साधारण घर)


 


 


निधि मद्धेशिया 


कानपुर


डॉ. राम कुमार झा निकुंज

तुम्हारा इन्तज़ार और हसरतें बेशुमार


 


तुम्हारा इन्तज़ार और बेशुमार हसरतें,


बीते कितने वासन्तिक और मधुश्रावण प्रिये।


जलती रही दावानल विरह के आतप हृदय में,


छटेंगे कोहरे आशा मन किरणें खिलेंगी हिये।


 


उपहास बन नित चितवन मुकलित रसाल मुदित वन,


कोयल पञ्चम स्वर कूक से चिढ़ाता विरही प्रिये।


बहे पूरबैया मन्द मन्द स्पन्दित विचलित मन,


उदास मन अभिलाष लखि घनश्याम नभ मिलन के। 


 


निहारती निशिवासर बस सरसिज नैन निशिचन्द्र,


पीड़ लखि तारे गगन पत्थर दिल करे परिहास प्रिये।


लजाती सकुचाती कुमुदिनी विहँसती पा चन्द्रहास,


पल पल जीवन कठिन तुझ बिन मिलन गलहार प्रिये।


 


लखि हर्षित चकोर युगल अनुराग मधुरिम मिलन,


बरसे घन भींगे तन पीन पयोधर वसन प्रिये।


सुरभित कमल कुसुमित वदन रतिराग उद्वेलित मन,


तजो मन राग प्रिय मधुश्रावण पुष्प पराग प्रिये।  


 


इन्तज़ार ए मुलाकात सनम सही नहीं जाती,


भूलें हसरत विरह , करें बेशुमार मुहब्बतें।


मैंने हमदम प्रियतम किया तन मन तुझे अर्पण, 


आओ प्रिय स्वप्न प्रीति मंजिल आशियाँ बनाएँ।


 


डॉ. राम कुमार झा निकुंज


नई दिल्ली


डॉ. हरि नाथ मिश्र

गांधी


गांधी तुझे सलाम तेरे नौनिहालों का,                      


मिलता जवाब तुझमें सारे सवालों का।।


        दुनिया को जो ठगे थे,


        गंदी- घिनौनी चालों से।


        ऐसे गुमानी गोरे जो,


         निज आसुरी कुचालों से।


विधिवत दिया सबक उन्हें अपने ख़यालों का।।


                               गांधी तुझे सलाम तेरे नौनिहालों का।।


         क्रांति का जवाब तुमने,


         शांति से दिया।


         पनाह शोषितों को बिना,


         भ्रांति के दिया।


तोड़ा ग़ुरूर तूने सारे भुवालों का ।।


                              गांधी तुझे सलाम तेरे नौनिहालों का।।


         लगता बहुत अजीब कि,


          तू है कोई मानव।


          कृषकाय तू भले रहे,


          देखा नहीं पराभव ।।


बन गए इतिहास कञ्चन अपनी मिसालों का।।


                             गांधी तुझे सलाम तेरे नौनिहालों का।।


          इंद्र के घमण्ड का,


          तुम कृष्ण रूप हो।


           पाप के विनाश का,


           तुम विष्णु रूप हो।


तुम ही अमोघ औषधि जग के बवालों का ।।


                           गांधी तुझे तुझे सलाम तेरे नौनिहालों का।।


          बढ़ता है पाप जब-जब,


         धरती पे चारो- ओर।


         कराहती है सभ्यता,


         ममता चुराये चोर।


होता है जन्म जग में तुम, जैसे वालों का।।


                          गांधी तुझे सलाम तेरे नौनिहालों का।।


          शत-शत नमन तुम्हें,


          विराट-दिव्य रूप!


          अस्थि-मांस-पिंजर,


           हे देव के स्वरूप!


श्रद्धा-सुमन स्वीकारो आज, अपने लालों का।।


                        गांधी तुझे सलाम तेरे नौनिहालों का।।


       ©डॉ. हरि नाथ मिश्र


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 अपराजेय गांधी


 व्यक्ति नहीं पूजा जाता,


पूजा जाता है व्यक्तित्व-


व्यक्ति तो होता है हाड़-मांस का एक पुतला, 


जिसकी नियति है गल जाना-सड़ जाना-पूर्ण रूपेण


समाप्त हो जाना।


अमरत्व,दैवत्व की श्रेणी में आता है व्यक्तित्व-


कल था-आज है-


और कल भी रहेगा।


उसके व्यक्तित्व से होती है,


व्यक्ति की उपादेयता।


सुन्दर-स्वस्थ-हट्टा-कट्टा वह भले ही हो-


पर,मर्यादा विहीन गठीला बदन किसी भी-


काम का नहीं।


राम-कृष्ण-बुद्ध-ईसामसीह-मोहम्मद मात्र-


नाम और व्यक्ति ही नहीं-मूल्यों-आदर्शों एवं


मर्यादाओं के प्रतीक उदात्त व्यक्तित्व हैं।


बाधाएँ-रोड़े-अनअपेक्षित घटनायें राह की


बाधक नहीं हो सकतीं-


चेत पक्का हो लक्ष्य अथवा ध्येय।


कठिनाइयाँ तो आएँगीं-अपना काम करेंगीं।


हमें भी अपना काम करना है।


  कठिनाइयों से लड़ना है।


स्थापित करना है मूल्यों को,मर्यादाओं को।


 टूटना नहीं-बिखरना नहीं-मुड़ना नहीं-


बस,चलते ही रहना है-चलते ही रहना है -


       था यही सिद्धांत उसका


कहते हैं जिसे हम


        गांधी।


गांधी व्यक्ति नहीं,


व्यक्तित्व है।


एक प्रभावशाली सोच का


नाम है गांधी।


उनकी मानवी श्रेष्ठ सोच ने ही


बना दिया उन्हें अमर


आज भी उनके अस्तित्व और


श्रेष्ठ सोच से नहीं किया जा सकता


कदापि इनकार।


सत्य-अहिंसा का पुजारी,


वह महा मानव है विराट व्यक्तित्व-


अपराजेय हैं गांधी।


      ©डॉ0हरि नाथ मिश्र


 9919446372


विनय साग़र जायसवाल

प्यार की फिर शुरूआत होने लगी


रोज़ उनसे मुलाकात होने लगी


 


उनके जलवों से रौशन है दिल का जहाँ 


उनकी इतनी इनायात होने लगी


 


हर नज़र मुझको हैरत से तकती है अब


उनसे जब से मेरी बात होने लगी


 


कितना मौसम ये दिलकश अचानक हुआ


आप हैं पास बरसात होने लगी


 


दोस्तों ने कहा उनसे ऐसा भी क्या 


उनको हमसे शिकायात होने लगी


 


वक़्त ने हमसे बदली है ऐसी नज़र


बाज़िये-ज़ीस्त में मात होने लगी


 


दोस्तों का भला अब यक़ीं क्या रहा


दोस्ती में यहाँ घात होने लगी


 


रोज़ *साग़र* ख़यालों में आते हैं वो


यूँ भी रंगीन हर रात होने लगी 


 


🖋️विनय साग़र जायसवाल


कालिका प्रसाद सेमवाल

हे मां सरस्वती सद्गुण दे


********************


विद्या वाणी की देवी मां सरस्वती


मुझ पर मां तुम उपकार करो,


मैं बनूं परोपकारी करु मानव सेवा


मेरे अन्दर ऐसा विश्वास भरो।


 


मां जले ज्ञान दीपक, जीवन में उत्थान हो,


अवगुणों को खत्म कर दो


हो जाय कल्याण मां,


चुन चुन कर सद् गुण के मोती


मेरी झोली में तुम भर दो मां।


 


हे मां लेखनी वाणी में मधुरता दे


भाव सरस अभिव्यक्ति हो,


हे मां सरस्वती वीणा धारणी


सब के जीवन में रस तुम भरदों मां।


********************


तुम पर मेरा मन रमता है


प्रिय तुम मुझसे दूर न जाओ,


मेरे मन में आज नशा है।


घूंघट खोल रही हैं कलियां,


झूम रही मतवाली अलियां।


नन्दन वन की वायु चली है,


सुरभित दिखी आज गली है।


लगती सुखमय मधुरिम बेला,


जीवन नन्दन मंजुल मेला।


उठती मन में मधुरिम आशा,


मिटती सारी थकित पिपासा।


 


तुम भी हंस दो मेरे, प्रियवर,


आज़ गगन में चांद हंसा है।


 


तुम कुछ लगती इतनी भोली,


जैसे कोयल की मधु बोली,


तुमको पाकर धन्य हुआ मैं,


औरों का तो अन्य हुआ मैं।


तुमसे सारा जीवन हंसता,


तुम पर मेरा मन है रमता।


मेरे मन की तुम्हीं कली हो,


तेरे मन का एक अली हूं।


 


घूम रहा हूं आज चारों ओर


नयनों का यह बाण धंसा है।


 


मेरे मन में आज विवश लाचारी,


तुम पर मैं जाता बलिहारी।


कंचन सी यह तेरी काया,


मेरे मन की सारी माया।


खींच रही है बरबस मन को,


तोड़ रही है सारे प्रन को।


अंचल छोर तुम्हारा उड़ता,


मेरे मन में गान उमड़ता।


 


रिमझिम चलती मधुर बयारें,


मेरे मन में प्यार बसा है।


 


मोड़ चुका जो जीवन मन को,


उसके बिन सम्भव क्या जन को।


लोल लहरियां उर के कोने,


भाव रचाकर जाती सोने।


हंस हंस कर तुम मत मुड़ जाओ।


बिछुड़न की नित रीत निराली,


मिलना संभव दो दिन आली।


 


अंग अंग थिरक रही हैं माया,


वस्त्र सुसज्जित-रूप रूप तुम्हारा।


******************


कालिका प्रसाद सेमवाल


मानस सदन अपर बाजार


रुद्रप्रयाग उत्तराखंड


सुनीता असीम

तुम कहो रूठकर हम किधर जाएंगे।


अब रहोगे जिधर तुम उधर जाएंगे।


***


फेर लोगे अगर आप हमसे नज़र।


तो खुदा की कसम हम बिखर जाएंगे।


***


आपकी जुस्तजू सिर्फ दिल में रही।


आपका वस्ल पा हम निखर जाएंगे।


***


हिज्र पाके समझ आ गया ये हमें।


आपके साथ अब दिल जिगर जाएंगे।


***


रास्ते में अगर आ गए ख़ार तो।


पांव रखकर उन्हीं पर गुज़र जाएंगे।


***


प्यार सच्चा अगर साजना का रहा।


हम नहीं फिर इधर से उधर जाएंगे।


***


आरज़ू अब सुनीता यही कर रही।


हम इन्हीं आशिकों के नगर जाएंगे।


************"**"**"*********


हम तो डरते हुए दीवार से लग जाते हैं।


 


देख के भूत को बीमार से लग जाते हैं।


****


इस कदर प्यार उन्हें करते रहे हैं हम तो।


वो हमें इश्क की दरकार से लग जाते हैं।


****


मुस्कराकर वो हमें देख लिया करते जो।


ख्वाब अपने सभी साकार से लग जाते हैं।


****


है जमाने को खबर इश्क की अपने ऐसी।


सबकी दीवार पे इश्तिहार से लग जाते हैं।


****


ऐसी बेमोल मुहब्बत की तमन्ना सबको।


इसको पाने को खरीदार से लग जाते हैं।


****


सुनीता असीम


एस के कपूर श्री हंस

यह सच्ची दोस्ती इक बेशकीमती


दौलत है जहान की।


 


ये दिल से निकले आशार हैं


इन्हें आरपार जाने दो।


हम तेरी दोस्ती के हकदार हैं


हमें प्यार पाने दो।।


तेरी सच्ची दोस्ती एक नेमत


जो हमने पाई है।


अपने रंजो गम भी बेफिक्र


हम तक आने दो।।


 


दोस्त के घर की राह कभी


लंबी नहीं होती।


दोस्ती जो होती सच्ची कभी


दंभी नहीं होती।।


दो जिस्म एक जान मानिये


सच्ची दोस्ती को।


ऐसी दोस्ती जानिये कभी


घमंडी नहीं होती।।


 


सच्ची दोस्ती में गरूर नहीं


गर्व होता है।


एक को लगे चोट दूसरे को


दर्द होता है।।


इक सोच इक नज़र इक नज़रिया 


है बन जाता।


मैं नहीं वहाँ पर सिर्फ हम का ही


हर्फ होता है।।


 


सच्ची दोस्ती में स्वार्थ नहीं बस


विश्वास होता है।


इस सच्ची दौलत में बसआपस का


आस होता है।।


ढूंढते बस अच्छाई ही बुराई की तो


बात होती नहीं।


गर भीग जाये एक तो फिर दूसरा


लिबास होता है।।


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आजकल घर नहीं ,पत्थर के मकान होते हैं।


*प्रेम* से शून्य खामोश, दिल वीरान होते हैं।।


घर को रैन बसेरा कहना, ही ठीक होगा।


कुत्ते से सावधान दरवाजे, की शान होते हैं।।


 


घर में *प्रेम* भाव नहीं, सूने से ठिकाने हैं।


मकान में कम बोलते ,मानो कि बेगाने हैं।।


सूर्य चंद्रमा की किरणें ,नहीं आती हैं यहां।


संस्कारों की बात वाले, हो चुके पुराने हैं।।


 


हर किरदार में अहम , का भाव होता है।


स्नेह *प्रेम* नहीं दीवारों ,से लगाव होता है।।


समर्पण का समय ,नहीं किसी के पास।


आस्था आशीर्वाद का ,नहीं बहाव होता है।।


 


आदमी नहीं मशीनों , का वास होता है।


पैसे की चमक का, असर खास होता है।।


मूर्तियाँ ईश्वर की होती, बहुत ही आलीशान।


पर उनसे *प्रेम* कहीं नहीं, आसपास होता है।।


 


 *प्रेम* विहीन यहां पर,ऊंचे मचान होते हैं।


मतलब के ही आते, मेहमान होते हैं।।


दौलत से मिलती , नकली खुशी यहाँ।


पैसे पर खड़े घर नहीं ,बड़े मकान होते हैं।।


एस के कपूर श्री हंस


संजय जैन

खाने को रोटी नहीं


रहने को नहीं मकान।


पर फिर भी कहते 


मेरा भारत महान।।


 


पहले ही रोजगार नहीं थे


और थे जो भी चले गए।


कुल मिलाकर फिर से


हम बेरोजगार हो गये है।


और फिर से परिवार


पर बोझ बन गये है।


सच कहें तो अच्छे दिन


हमारे देश के आ गए है।।


 


किया धरा किसी और का 


भोग रहे है हम सब।


फिरभी सपने दिखा रहे है


पर रोजगार नहीं दे पा रहे।


अब तो इंजीनियर एमबीए...


बेच रहे है मूफली।


क्योंकि पापी पेट का 


जो अब सवाल है।।


 


क्या से क्या हालत


अब देश का हो रहा है।


इसलिए बेरोजगारी दिवस


बड़ी धूमधाम से मना रहे है।


शायद इसे ही लोग आधुनिक 


आत्मनिर्भर भारत कह रहे है।


और अपनी बेबसी पर 


हमसब आज रो रहे है।।


 


न कोई चिंता न कोई काम


घर बैठे देखते रहो सपने।


सपने देखना भी तो है 


एक बहुत बड़ा काम।


जिसे रोजगार में गिना जाता है


और आंकड़े यही दर्शा रहे है।


की कहां हमारे देश में


कोई बेरोजगार बचे है।।


 


इसलिए तो लोग 


कह रहे है कि।


खाने को रोटी नहीं


रहने को नहीं मकान।


पर फिर भी कहते 


मेरा भारत महान।।


 


जय जिनेन्द्र देव


संजय जैन (मुम्बई)


**********************


सर उठा कर चल नहीं सकता


बीच सभा के बोल नहीं सकता


घर परिवार हो या गांव समाज


हर नजर में घृणा का पात्र हूँ।


क्योंकि “बेटी” का बाप हूँ ।।


 


जिंदगी खुलकर जी नहीं सकता


चैन की नींद कभी सो नहीं सकता


हर एक दिन रात रहती है चिंता


जैसे दुनिया में कोई श्राप हूँ।


क्योकि “बेटी” का बाप हूँ।।


 


दुनिया के ताने कसीदे सहता,


फिर भी मौन व्रत धारण करता,


हरपल इज़्ज़त रहती है दाँव पर,


इसलिए करता ईश का जाप हूँ !


क्योकि “बेटी” का बाप हूँ !!


 


जीवन भर की पूँजी गंवाता


फिर भी खुश नहीं कर पाता


रह न जाए बेटी की खुशियो में कमी


निश दिन करता ये आस हूँ


क्योकि “बेटी” का बाप हूँ।।


 


अपनी कन्या का दान करता हूँ


फिर भी हाथजोड़ खड़ा रहता हूँ।


वरपक्ष की इच्छा पूरी करने के लिए


जीवन भर बना रहता गूंगा आप हूँ


क्योकि “बेटी” का बाप हूँ।।


 


देख जमाने की हालत घबराता


बेटी को संग ले जाते कतराता।


बढ़ता कहर जुर्म का दुनिया में


दोषी पाता खुद को आप हूँ।


क्योकि “बेटी” का बाप हूँ।।


 


हाल ही में जो घटना बेटी के साथ घटी उसे देखकर अपने आप को रोक नहीं पाया। फिर लिखी मैंने उपरोक्त रचना जो शायद आपको जरूर झकझोर देगी।


जय जिनेन्द्र देव


संजय जैन (मुम्बई )


मदन मोहन शर्मा सजल

खूनी बाज़ हैं


~~~~~~~~


गद्दी पर बैठे साँप सपोले, गद्दारी के सरताज हैं


कानूनों की उड़ी धज्जियां, मंडराते खूनी बाज़ हैं।


 


सरेआम चौराहों खेतों गलियों में चौबारों में


लुटती इज्जत अबलाओं की गुंडों का राज हैं,


 


न्यायव्यवस्था नग्न खड़ी है, रक्षक भक्षक बन बैठे


पुलिस भेष में ठगी दिहाड़ी अफसर दगाबाज हैं,


 


नंगा कर उल्टा लटकादो गर्म सलाखें पीठ घुसादो


संगीन सजाएं लागू हो तो कानूनों पर नाज हैं,


 


जो भी रौंदे अबलाओं को दे संरक्षण गुंडों को


ऐसे अत्याचारी बलात्कारी की मौत ही सुख साज है।


★★★★★★★★★★★★


मदन मोहन शर्मा सजल


नूतन लाल साहू

सत्य की शक्ति


 


निर्भीक वहीं होता है


जो सत्यवादी होता है


सत्य,वहीं बोल सकता है


जो निर्भीक होता है


राजा हरिश्चन्द्र


साक्षात उदाहरण है


बूढ़ा,बच्चा और जवान


उन्हें आज भी याद करता है


यही तो सत्य की, शक्ति है


अगर कोई,खिलाफ होता है


तो,हो जाने दो


ये सब धुआं है


कोई आसमान थोड़ी है


चांद और सूरज अटल है


कोई बदल नहीं पाया,इसके पथ को


यही तो सत्य की,शक्ति है


जिंदगी तो हमारी है


आखिरी सांस भी,तुम्हारी है


सांच को आंच,नहीं प्यारे


प्रभू जी भी,साथ देता है


जो झूठ का सहारा लेता है


सर झुकाकर,बात करता है


दिन वहीं है, रात भी वही है


यही तो सत्य की,शक्ति है


ये जमाना,लाख गुजरे


छोटे बड़े कई,हादसों से


पर जो,सत्य पथ पर अडिग रहता है


उसे कोई डर,नहीं रहता है


ये जिंदगी की असलियत,क्या है


खुद ही,समझ जाओगे


जिस दिन,राजा हरिशचंद्र और


भक्त प्रहलाद,को जान जाओगे


सत्य की डगर,कठिन होता है


पर वही,भवसागर पार कराता है


यही तो सत्य की,शक्ति है


नूतन लाल साहू


डॉ0 हरि नाथ मिश्र

आठवाँ अध्याय (श्रीकृष्णचरितबखान)-5


 


ग्वाल-बाल लइ साथे-साथे।


फोरहिं मटकी गोपिन्ह माथे।।


   घर मा घुसि के कबहुँ कन्हाई।


   ग्वाल-बाल सँग मक्खन खाई।।


भागहिं इत-उत पकरि न पावहिं।


जदपि कि गोपिहिं पाछे धावहिं।।


    बछरू छोरि पियावहिं गैया।


    चोरी-चोरी किसुन कन्हैया।।


डाँट परे जब हँसहिं ठठाई।


तब भागै जनु पीर पराई।।


     बड़ नटखट तव लाल जसोदा।


     कहि-कहि गोपिन्ह लेवहिं गोदा।।


बहु-बहु जतन करै तव लाला।


चोरी-चोरी जाइ गोसाला।।


      बछरू-गैयन छोरि भगावै।


      निज मुख कबहूँ थनइ लगावै।।


खाइ-बहावै-फोरै गागर।


तोर लला ई नटवर नागर।।


      ग्वाल-बाल सँग खाइक माखन।


       कछुक देइ ई बनरन्ह चाखन।।


सुनउ जसोदा गोपी कहहीं।


कबहुँ त लला तोर अस करहीं।।


    सोवत सिसुन्ह रोवाइ क भागै।


    माखन मिलै न गृह जब लागै।।


निन्ह हाथ नहिं पहुँचै छीका।


चढ़ि ऊखल पर तुरत सटीका।।


     अथवा धयि पीढ़ा दुइ-चारा।


      तापर चढ़ि तहँ पहुँचि दुलारा।।


कबहुँ-कबहुँ चढ़ि गोपिन्ह काँधे।


पहुँचै जहाँ लच्छ रह साधे।।


    मटका भुइँ उतारि सभ खावैं।


    जदपि सतावहिं पर बड़ भावैं।।


दोहा-तोर लला बड़ ढीठ अह,चंचल-नटखट-चोर।


        सुनहु जसोदा गृहहिं महँ,प्रबिसइ बिनु करि सोर।।


                      डॉ0 हरि नाथ मिश्र


                       9919446372


सुनील कुमार गुप्ता

कविता:-


 सपने ले नव-आकार


दु:ख की अनुभूति से ही यहाँ,


होता सुख का आभास।


सुख ही सुख होता जीवन में,


न होता मन में विश्वास।।


बढ़ता रहे विश्वास मन का,


ऐसी हो जग में आस।


बनी रहे आस्था प्रभु में,


टूटे नहीं ये विश्वास।।


हरे काम- क्रोध-मद्-लोभ,


जीवन को दे आधार।


सद्कर्मो संग जीवन में फिर,


सपने ले नव-आकार।।


 


 सुनील कुमार गुप्ता


राजेंद्र रायपुरी

 मनहरण घनाक्षरी पर रचना 


 


क्या हैं दिन ये आ गए,लोग सब यही कहें,


आप घर किसी के भी,भूल के न जाइए।


 


जाइए अगर कभी, तो बात मेरी मानिए,


मत किसी से जा वहाॅ॑, हाथ को मिलाइए।


 


दूर ही रहें सभी से, पास अब न जाइए,


बीच सबसे फासला, गज़ दो बनाइए।


 


खाइए न कुछ वहाॅ॑, कहा ये मान जाइए।


जो दिया उसे कभी भी, हाथ न लगाइए।


 


            ।। राजेंद्र रायपुरी।।


डॉ0 हरि नाथ मिश्र

तृतीय चरण (श्रीरामचरितबखान)-25


 


इच्छु-दंभ,लोभी-बल जग मा।


बचन कठोर कुपित जन मुख मा।।


    कामी कै बल नारी अहहीं।


    मुनि-ऋषि श्रेष्ठ बाति ई कहहीं।।


पर प्रभु राम रहसि ई जानहिं।


तेहिं तें धीर-बिराग जगावहिं।।


     जब होवै प्रभु-कृपा केहू पै।


     कामइ-क्रोध न लोभ तेहू पै।।


करै प्रभाव दंभ नहिं माया।


माया-जाल-मुक्त प्रभु-दाया।।


  सकल जगत बस सपन भरम कै।


  करु प्रभु-भजन न भेव भरम कै।।


दोहा-अस जग देइ सनेस प्रभु,पुनः गए सर-तीर।


        पम्पासर जहँ सोहही,पुरइन-पुष्प-सुनीर।।


पम्पासर कै निरमल नीरा।


संत-हृदय जस बिनु मल थीरा।।


    चार घाट बड़ बँधे सुचारू।


     पिबहिं नीर पसु लघु सँग भारू।।


पम्पासर जनु घर उदार कै।


भिच्छुक खग-मृग बन-बिहार कै।।


     जब चाहहिं पीवहिं जल-बारी।


     चुकता करि बिनु कोऊ उधारी।।


समरस झष जल रहहिं अगाधू।


जस जग रहहिं एक रस साधू।।


    बिबिध रूप-रँग पंकज बिगसैं।


    भन-भन मधुर भृंग तहँ बेलसैं।।


जलकुक्कुट अरु हंस-हंसिनी।


प्रभु लखि किलकैं सिंह-सिंहिंनी।।


    बगुला-चक्रवाक सर-तीरा।


    खग-संकुल निरखहिं प्रभु धीरा।।


सुनि-सुनि खग-संकुल मृदु बैना।


थकित पथिक तहँ पावहिं चैना।।


    निज-निज कुटिन्ह मुनी तहँ रहहीं।


    पम्पासर जहँ तरु बहु भवहीं ।।


कटहल-आम-पलास-तमाला।


चम्पा-मौलिहिं बिबिध बिसाला।।


    सोहै कानन बिबिध स्वरूपा।


    बरनि न जा लखि बिटप अनूपा।।


लइ सुगंध कसुमित तरु-पाती।


झर-झर बायु सुगंधित आती।।


    कोकिल-पपिहा-स्वर बड़ सोहै।


    कुहू-कुहू,पिव-पिव मन मोहै।।


फल भरि डारन तरु अस नवहीं।


जस धन पाइ सुजन जग रहहीं।।


सोरठा-लखि अस रुचिर तड़ाग,राम-लखन मज्जन करहिं।


            लखि-लखि कसुमित बाग,बैठहिं राम लखन सहित।।


                     डॉ0 हरि नाथ मिश्र


                      9919446372


डॉ. रामबली मिश्र

अच्छा अगर नहीं सोचोगे....।


 


 अच्छा अगर नहीं सोचोगे,


समझो मरना निश्चित है।


अच्छा अगर नहीं सोचोगे,


 समझो डरना निश्चित है।


जो भी अच्छा नहीं सोचता,


गंदा करता निश्चित है।


जिसके मन में दाह-द्वेष है,


उसका जलना निश्चित है।


जिसके मन में भरी गंदगी


नाला बनना निश्चित है।


संभाषण जो करत कठोरा,


वही कसाई निश्चित है।


जो करता है वार अकारण


पापी बनना निश्चित है।


जो सच्चे को लांछित करता,


दूषित बनना निश्चित है।


जिसके मानस में संवेदन,


साधू बनना निश्चित है।


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मैं छंद हूँ


निबन्ध हूँ


निर्वाध हूँ 


अगाध हूँ


निर्द्वन्द्व हूँ


स्वच्छंद हूँ


मुझे बहने दो


स्वेच्छा से चलने दो


ऐसे ही रहने दो


दुनिया को कहने दो


मैं लिखता हूँ


खुद को पढ़ता हूँ


आनंद के लिये ऐसा करता हूँ


स्वतंत्र रचना करता हूँ


स्वयं के लिये जीता हूँ


जीने के लिये पीता हूँ


आकाश में उड़ता हूँ


समंदर में रत्न ढूढ़ता हूँ


पाताल को भी नाथता हूँ


मैं छंद हूँ


स्वयमेव आनंद हूँ।


आप भी लिखिए


छंद का चक्कर छोड़िए


आगे देखिए


बहुत दूर जाना है लौटकर नहीं आना है।


 


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गाँधी एक दृष्टि है


प्रेम की वृष्टि है


 


गाँधी एक विचारधारा है


सत्य का चमकता सितारा है।


 


गाँधी एक लोक है


अहिंसा का ब्रह्मलोक है।


 


गाँधी एक आत्मनिर्भर समाज है


सुंदर स्वराज है।


 


गाँधी एक दर्शन है


मानवता का स्पर्शन है।


 


गाँधी एक आंदोलन है


अत्याचारियों का मर्दन है।


 


गाँधी एक आग्रह है


महान सत्याग्रह है।


 


गाँधी एक संस्था है


विश्वास और आस्था है।।


 


गाँधी उदारवाद है


अन्त्योदयवाद है।।


 


गाँधी एक अवतार है


नैतिकता का आधार है


स्वतंत्रता का आगार है


जन-मन का विस्तार है।


 


गाँधी एक परिस्थिति है


विदेशी शासकों को मार भगाने की स्थिति है।


 


गाँधी एक नीति है


संगठित प्रीति-रीति है।


 


गाँधी एक मर्यादा है


जीवन सादा है।


 


गाँधी एक रचना है


स्वतंत्रता की संरचना है।


 


गाँधी एक धर्म है


भारतीयता का मर्म है।


 


गाँधी गुलाब का फूल है


भारतीय संस्कृति का मूल है।


 


गाँधी एक शैली है


सत्य-अहिंसाऔर प्रेम की थैली है।


 


डॉ. रामबली मिश्र हरिहरपुरी


9838453801


महराजगंज : चन्द्रभान प्रसाद एवं दयानन्द त्रिपाठी को गांधी जयंती के अवसर पर महादेवी वर्मा साहित्य शोध संस्थान सोनभद्र ने सहभागिता सम्मान प्रमाण-पत्र देकर किया सम्मानित

महराजगंज : चन्द्रभान प्रसाद एवं दयानन्द त्रिपाठी को गांधी जयंती के अवसर पर महादेवी वर्मा साहित्य शोध संस्थान सोनभद्र ने सहभागिता सम्मान प्रमाण-पत्र से दर किया सम्मानित।


 



 


महराजगंज । गांधी जयंती के अवसर पर महादेवी वर्मा साहित्य शोध संस्थान सोनभद्र द्वारा आयोजित दिनांक 02 अक्टूबर 2020 को "गांधी विचार दर्शन सत्य अहिंसा एवं स्वच्छता की प्रासंगिकता" विषय पर राष्ट्रीय वेबिनार में सम्मिलित हुए । इसके लिए उत्तर प्रदेश के जनपद महराजगंज के शिक्षक साहित्यकार दयानन्द त्रिपाठी एवं चन्द्रभान प्रसाद को सहभागिता प्रमाण-पत्र देते हुए इनके उज्जवल भविष्य की कामना की। 


 


 


 


महादेवी वर्मा साहित्य शोध संस्थान सोनभद्र उत्तर प्रदेश एवं संयोजक डॉ बृजेश महादेव द्वारा आयोजित राष्ट्रीय वेबिनार ने बताया कि 02 अक्टूबर 2020 को हुए ऑनलाइन ई-संगोष्ठी पर मंच से देशभर के तमाम कलमकार जुड़े और अपने विचारों को भी रखा । 02 अक्टूबर को चलने वाले "गांधी विचार दर्शन सत्य अहिंसा एवं स्वच्छता की प्रासंगिकता" विषय पर के लिए चयनित कलमकारों को सम्मानित किया गया। इस राष्ट्रीय वबिनार के मुख्य वक्ता के रूप सर्वप्रथम गोरखनाथ पटेल जी जिला बेसिक शिक्षा अधिकारी सोनभद्र, उत्तर प्रदेश, डॉ अमृता पाउल विद्यासागर विश्वविद्यालय वेस्ट बंगाल, डॉ रचना तिवारी राष्ट्रीय कवियत्री सोनभद्र , डॉ रामबरन पटेल भूगोल विभागाध्यक्ष डीडीयू विश्वविद्यालय गोरखपुर, डॉ स्वाहिदुल इस्लाम एसआरएम विश्वविद्यालय चेन्नई, डॉ बीएन दूबे अस्सिटेंट प्रोफेसर महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ वाराणसी एवं संयोजक डॉ बृजेश महादेव जी के देखरेख एवं संचालन में सम्पन्न हुआ।


सुनीता असीम

हो गईं बातें पुरानी मेरी।


ढल रही जबसे जवानी मेरी।


****


ये गुमाँ भी हो गया लोगों को।


हो गईं ये है दिवानी मेरी।


****


वक्त की रफ्तार भी थम जाएगी।


देख लेगा जो रवानी मेरी।


****


आंख में आंसू तुम्हारी होंगे।


जो सुनोगे तुम कहानी मेरी।


****


यूं पराए हो गए अपने कुछ।


फेंक दी बाहर निशानी मेरी।


****


सुनीता असीम


दयानन्द त्रिपाठी

मानव रूपी शैतानों से 


जननी एक छली गयी


मन के हर भावों को लिए


हैवानों से ठगी गयी ।


 


अब तो समाज के ठेकेदारों


कुछ तो शर्म करो अपने पर


यदि कुछ कर नहीं सकते तो


ठेकेदारी छोड़ रहम करो अपनों पर।


 


अपने ऊल-जुलूल तर्कों से ही 


बचते हैं शैतान यहां पर


शैतानों के अमानवीय आघातों से


सबकुछ चकनाचूर हो गया यहां पर।


 


अब कर्तव्यों की दृढ़ता में 


क्या कुछ और देखना बाकी है


इन दानवों के मुकदमें ना हो बस


सरेआम फांसी देना ही बाकी है।



  -दयानन्द त्रिपाठी


महराजगंज उत्तर प्रदेश।


डॉ राजीव पाण्डेय

कुछ घटनाएं झकझोर देती हैं


हैवानियत के दरिंदे इंसानियत को शर्मसार करते हैं।


मेरी काव्यात्मक प्रतिक्रिया इस कविता के माध्यम से देखिए


 


कुछ भँवरों की शैतानी ने,मसली एक कली।


इसीलिए अब फूट फूट कर, रोती गली गली।


 


झीलें पोखर,नदियों तक के,आँसू सूख गए।


सहमे सहमे बाग बगीचे, हँसना भूल गए।


रो रोकर धरती अम्बर ने,अपनी आँख मली।


 


घर आँगन का एक खिलौना, सम्मुख टूट गया,


सहमे सहमे हर कोने का ,सपना रूठ गया,


देखो कोयल भी कागा से,फिर से गयी छली।


 


चिड़ियों के कलरव में छाया, देखो सूनापन,


नन्ही परियों के पँखों को , नोचें अपनापन,


घात लगी हो अंकुर पर जब,फूले नहीं फली।


 


झुकीं झुकीं तरुवर की डालें,करतीं रुदन मिलीं,


अंग भंग वालीं कलियां भी ,देखीं कहाँ खिलीं,


मृतक कपोलों पर है अंकित, न बच पाये अली।


 


 डॉ राजीव पाण्डेय


सुनीता असीम

मुहब्बत बेवफा हो तो कज़ा है।


निभाना यार से यारी मजा है।


***


बड़ा आसान है दिल तोड़ना पर।


नहीं मुश्किल दिलों को जोड़ना है।


***


भला या तो बुरा तुमको कहेगा।


जमाने की रही जिसमें रज़ा है।


***


डगर में ख़ार मिल जायें समझना।


परीक्षा ले रहा अपनी खुदा है।


***


कसौटी पर कसेगा फिर निखारे।


ख़ुदा की ये अनो खी सी अदा है।


***


उन्हें भी ज़िन्दगी जीना न आया।


जिन्हें लगती रही रही ये तो सज़ा है।


***


सुनीता कह रही सबसे यही बस।


जहां में जिंदगी जीना कला है। 


***


सुनीता असीम


सुषमा दीक्षित शुक्ला

प्रकटे बापू 


 


दो अक्टूबर महापर्व है,


 भारत के इतिहास में 


प्रकटे बापू भानु इसी दिन ,


धरा देख तम पाश में ।


सत्य अहिंसा व्रत को लेकर,


चरख चक्र ले हाथ में ।


मिटा दिया दासत्व कलुष तम


अंकित भारत माथ में ।


भय का बिल्कुल नाम नहीं था,


 सत्याग्रह आंदोलन में ।


सारी जनता मुग्ध हुई थी,


 महामंत्र के मोहन में ।


भय से कांपे हिंसक शासक,


 एक अहिंसक के आगे ।


पीछे चली निहत्थी सेना , 


 चला संत आगे आगे।


भीषण लू चलती हो चाहे,


 बरसे वर्षा का पानी ।


निर्भय संत बढा जाता था ,


पैरों में गति तूफानी ।


पाप गुलामी से जब धरती ,


त्राहि त्राहि थी चीख पड़ी।


मोहन ने तब गाँधी बनकर ,


भारत माता मुक्त करी ।


इसी दिवस तो शास्त्री जी भी ,


भारत मे थे जन्मे ।


धर्मवीर थे कर्म वीर थे ,


सत्यनिष्ठ थे पक्के।


 


सुषमा दीक्षित शुक्ला


लखनऊ


डॉ. राम कुमार झा निकुंज

 शोकाकूल स्तब्ध हूँ


 


निःशब्द मौन शोकाकूल स्तब्ध हूँ,


क्रन्दित मन शर्मसार प्रश्नचिह्न हू्ँ।


खो मनुजता कुकर्मी बस दंश बन,


क्या कहूँ ,कातिल ,पापी बहसीपन।


 


सोच विकृत घिनौनी चरित दानवी,


बलि चढ़ी पुनः दुष्कर्म पथ मानवी।


मर्यादाएँ क्षतविक्षत मूल्य नैतिक,


निर्लज्जता तोड़ सीमा निर्बाध रथ।


 


छलनी लज्जिता सरे आम अस्मिता,


श्रद्धा लज्जा फिर विलोपित दनुजता।


दरिंदगी बलवती फिर अय्याश पथ,


बेहया पापी घृणित दुष्काम निरत।


 


बन निशाचर बेख़ौप स्वयं मौत से,


बदतर आदमख़ोर जंगली पशु से।


कुलांगार माँ कोख़ करता कलंकित,


विक्षिप्त मानस चित्त दानव दुश्चरित।


 


निडर खल दुस्साहसी फाँसी मिले,


दुर्मति बिन विवेक जग उपहासी बने।


नोंचने नार्य अस्मिता नित गिद्ध बन,


पर दरिंदे पहचानना है कठिन।


 


जनता प्रशासन सजग नित सक्रिय रहे, 


प्रशासनिक दण्ड का भय खल मन जगे।


इच्छाशक्ति हो परपीडना निदान मन,


बहु बेटियाँ सबला बने शक्ति बहन।


 


नारी सुरक्षा प्रश्न है बस देश में,


दनुज दरिंदो को पकड़ बस भून दें।


राजनीति छींटाकशी अस्मित हरण,


तजें, मिल सोचें सभी बस निराकरण।


 


मानवीय संवेदना नैतिक पतन,


शिक्षा मिले नारी महत्त्व बालपन।


शील गुण .सद्कर्म पथ इन्सानीयत,


माँ बहन बेटी बहू हो अहमीयत।


 


कठोरतम दण्डविधान दुष्कर्म हो,


देख औरों पापी जन रूहें कँपे।


सम्बल योजना हो नारी सुरक्षा,


हो निडर तनया शिक्षिता मन आस्था।


 


 डॉ. राम कुमार झा निकुंज


नई दिल्ली


डॉ रामबली मिश्र

मैं परम भारतीय संस्कृति हूँ


 


मैं विदेश चली गयी


विदेशी चकाचौंध


में बह गयी


कुछ समय के लिये


खुद को भूल गयीं


विदेशी लबादा


विदेशी संस्कृति


विदेशी आबो-हवा


विदेशी मिट्टी


विदेशी आकाश


विदेशी तारा मण्डल


विदेशी जूते-सैंडल


लेकिन कब तक?


मन भर तक


मनभर तक


मन में उबाल


भारतीय संस्कृति का ख्याल


देश प्रेम


दासता का घोर विरोध


प्रतिशोध


आजादी की जंग


सत्य का उमंग


अनाचार का अंत


त्वरित वसंत


आगमन की अपरिहार्यता


तात्कालिक आवश्यकता


भारतीयता का जागरण


स्वदेश आगमन


खुद लड़ी


खूब लड़ी


सत्य की तलवार ले कर


सत्य रथ पर चढ़ कर


खूब ललकारा


छक्का छुड़ाया


आततायियों को भगाया


आजादी दिलायी


सत्य अहिंसा और प्रेम का पाठ पढायी


भारतीय संस्कृति हो न 


बापू हो न।


नमस्ते बापू


नमस्ते भरत


नमस्ते भारत


वंदे मातरम


 


डॉ रामबली मिश्र हरिहरपुरी


9838453801


कंचन कृतिका

प्रश्न एक सबसे आज पूछ रहे हैं।


राग क्यूं अनीतियों के गूंज रहे हैं?


वेदनाएं खुद में सिमट रही हैं।


भावनाएं घुट कर क्यूं मर रही हैं?


 


वहशी दरिंदे खुला घूमते हैं क्यूं?


कृत्यों पर अपनें हंस झूमते हैं क्यूं?


मनमानियों को नहीं साध रहे हैं।


नीचता की शीर्षता क्यूं लांघ रहे हैं?


 


घर से निकलते सहम रही हैं।


बेटियां नित आग में क्यूं जल रही हैं?


चीखें चीख-चीख कर मौन हो रही।


धीरता की सेविका क्यूं धैर्य खो रही?


 


मानवता सो रही है, सो रहा ईमान है।


न्याय जो दिला न सके कैसा संविधान है?


ऐसे संविधान को तो फाड़ दीजिए।


मौन खलता है अब जवाब दीजिए।।


 


कंचन कृतिका


गोण्डा-अवध


आशुकवि नीरज अवस्थी

इधर असामाजिक दुर्दांत घटनाओं पर बहुत कुछ लिखा जा रहा है हम दुखी नही आहत नही बल्कि गुस्से में है और ऐसी घटनाओं का दुष्प्रचार कतई नही कर कर सकते है तो यह करे जो हम कह रहे है:


 


गद्दी पर बैठे गद्दारों कुछ तो अच्छा काम करो।


कर न सको तो छोड़ो गद्दी व्यर्थ न नींद हराम करो।


दानवीय कुकृत्यों पर अब लिखना पढ़ना बन्द करो।


दम है तो इन प्रेतों के वध करने का परबन्ध करो।


चौराहे पर मुंड काट दो सरे आम बाजारों में।


आक्रोशित जनताको सौंपो पैशाचिक हत्यारों को।


न्याय व्यवस्था को बदलो मत संविधान बदनाम करो।


कर न सको तो छोड़ो गद्दी व्यर्थ न नींद हराम करो।


आशुकवि नीरज अवस्थी 9919256950


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दयानन्द त्रिपाठी निराला

पहले मन के रावण को मारो....... भले  राम  ने  विजय   है  पायी,  तथाकथित रावण से पहले मन के रावण को मारो।। घूम  रहे  हैं  पात्र  सभी   अब, लगे...