डॉ. रामबली मिश्र

जब तुम मेरे घर आओगे....।


 


जब तुम मेरे घर आओगे ,


हँसकर कदम बढ़ाऊँगा मैं।


 


जब तुम मेरे घर आओगे,


हँसकर गले लगाऊँगा मैं।


 


जब तुम मेरे घर आओगे,


सुंदर सेज सजाऊँगा मैं।


 


जब तुन मेरे घर आओगे,


फूलों पर बैठाऊँगा मैं।


 


जब तुम मेरे घर आओगे,


आतिथ्य धर्म मनाऊँगा मैं।


 


जब तुम मेरे घर आओगे,


छप्पन भोग कराऊँगा मैं।


 


जब तुम मेरे घर आओगे


खुशियों से इतराऊँगा मैं।


 


जब तुम मेरे घर आओगे,


वंशी खूब बजाऊँगा मैं।


 


जब तुम मेरे घर आओगे,


मनहर गीत सुनाऊँगा मैं।


 


जब तुम मेरे घर आओगे,


नाचूँ और नचाऊँगा मैं।


 


जब तुम मेरे घर आओगे


होली खूब मनाऊँगा मैं।


 


जब तुम मेरे घर आओगे,


माला-फूल चढ़ाऊँगा मैं।


 


जब तुम मेरे घर आओगे


 तुझ पर रस बरसाऊँगा मैं।


 


डॉ. रामबली मिश्र हरिहरपुरी


9838453801


सुनीता असीम

जो ग़मों से गुजर गया हूँ मैं।


लग रहा है निखर गया हूँ मैं।


***


चाहिए था नहीं वहां जाना।


ख़ारों पे पर उतर गया हूँ मैं।


***


शक रहे कुछ रहे शुब्हे मुझको।


देख अंजाम डर गया हूँ मैँ। 


***


रास आई नहीं मुहब्बत भी।


बस जफ़ा से सिहर गया हूँ मैं।


***


इश्क के नाम से लगा डर है।


ख़ौफ लगता जिधर गया हूं मैं।


***


सुनीता असीम


डॉ0 हरि नाथ मिश्र

 


आओ बैठो पास हमारे,


अपलक तुम्हें निहारूँ, प्रियतम।


बहुत दिनों से थे तुम ओझल-


आओ पाँव पखारूँ, प्रियतम।।


 


जब तक थे तुम साथ हमारे,


मन-बगिया में हरियाली थी।


ले सुगंध साँसों की तेरी,


बही हवा जो मतवाली थी।


उलझे-उलझे केश तुम्हारे-


आओ केश सवाँरूँ,प्रियतम।


    आओ बैठो पास हमारे,


अपलक तुम्हें निहारूँ,प्रियतम।।


 


बहुत दिनों के बाद मिले हो,


अब जाने का नाम न लेना।


रह कर साथ सदा अब मेरे,


डगमग जीवन-नैया खेना।


तेरी अनुपम-अद्भुत छवि को-


आओ, हृद में धारूँ, प्रियतम।


    आओ बैठो पास हमारे,


अपलक तुम्हें निहारूँ ,प्रियतम।।


 


तुम दीपक मैं बाती साजन,


प्रेम-तेल पा ही दिया जले।


प्रेम-ज्योति के उजियारे में,


जीवन-तरुवर की डाल फले।


भर लो अपनी अब बाहों में-


तन-मन तुझपर वारूँ,प्रियतम।


     आओ बैठो पास हमारे,


अपलक तुम्हें निहारूँ,प्रियतम।।


 


नहीं साथ थे जब तुम मेरे,


मैं थी तकती राहें तेरी।


बड़े भाग्य से आज मिले हो।


बंद हुईं अब आहें मेरी।


तुम्हीं देवता मन-मंदिर के-


 तुमको सदा पुकारूँ,प्रियतम।


         आओ बैठो पास हमारे,


अपलक तुम्हें निहारूँ,प्रियतम।।


 


तुम समीप जो बैठे मेरे,


देखो,चंदा इठलाता है।


बोले पपिहा दूर कहीं से,


पी-पी उसका अब भाता है।


अब तो नैन मिलाकर तुमसे-


नित-नित प्रेम निखारूँ,प्रियतम।


      आओ बैठो पास हमारे,


अपलक तुम्हें निहारूँ,प्रियतम।।


 


मन कहता है कहीं दूर जा,


नीले गगन की छाँवों तले।


चंचल नदी-किनारे बैठें,


 पवन सुगंधित भी जहाँ चले।


तुम्हें बिठाकर निज गोदी में-


हिकभर तुम्हें दुलारूँ, प्रियतम।


      आओ बैठो पास हमारे,


अपलक तुम्हें निहारूँ,प्रियतम।।


                 ©डॉ0 हरि नाथ मिश्र


                    9919446372


विनय साग़र जायसवाल

दिल की हर मुश्किल का कोई इसमें हल मौजूद है 


आप सबके सामने मेरी ग़ज़ल मौजूद है 


 


जिसमें चाहो जाओ निकलो अपनी मनमानी करो 


इन सियासतदानों को भी दल बदल मौजूद है 


 


बस इसी इक बात से है मुतमइन यह ज़िंदगी 


अक्स उसका सामने हर एक पल मौजूद है 


 


उसकी ख़ुशबू से महकता है मेरा ज़ख़्मी जिगर 


जिस्म में उस तीर का हर इक कँवल मौजूद है


 


हाथ दोनों के मिले लब पर तबस्सुम भी सजा


फिर भला क्यों दर्मियां अब भी जदल मौजूद है 


 


जो बनाया था कभी दोनों ने मिल कर ख़्वाब में


आज भी यादों में अपनी वो महल मौजूद है


 


जब ग़ज़ल *साग़र* कही हमने नये अंदाज़ में 


कुछ ही पल में देख ली उसकी नक़ल मौजूद है 


 


🖋️विनय साग़र जायसवाल


मुतमइन -संतुष्ट , तृप्त 


जदल-युद्ध ,कलह ,वाद-विवाद


सुषमा दीक्षित शुक्ला

ऐ!मातृशक्ति अब जाग जाग। 


ऐ!शक्तिपुंज अब जाग जाग ।


 


रणचंडी बन तू स्वयं आज।


 मत बन निरीह नारी समाज।


 


उठ हो सशक्त भय रहा भाग ।


 अबला का चोला त्याग त्याग ।


 


 चल अस्त्र उठा तज लोक लाज ।


शोषण का ले जग से हिसाब ।


 


भारत की नारी दुर्गा है ,


भारत की नारी सीता है ।


 


रणचण्डी बन वह युद्ध करे ,


गीता सी परम पुनीता है ।


 


मां कौशल्या, जसुदा बनकर ,


जग् को सौगात दिया उसने ।


 


लक्ष्मीबाई रजिया बनकर ,


बैरी को मात दिया उसने ।


 


  वह अनुसुइया वह सावित्री ,


वह पार्वती का मृदुल रूप ।


 


वह राधा है वह सरसवती


माँ लक्ष्मी का अनुपम स्वरूप ।


 


इसको अपमानित मत करना ,


ऐ!दुनिया वालों सुन लो तुम ।


 


सब नरक भोग कर जाओगे ,


अब कान खोलकर सुन लो तुम ।


 


सुषमा दीक्षित शुक्ला


संजय जैन

आशीष मिला तो....


 


तेरा आशीष पा कर, 


सब कुछ पा लिया हैं।


तेरे चरणों में हमने, 


सर को झुका दिया हैं।


तेरा आशीष पा कर .....।


 


आवागमन गालियां 


न हत रुला रहे हैं।


जीवन मरण का झूला 


हमको झूला रहे हैं।


आज्ञानता निंद्रा 


हमको सुला रही हैं।


नजरे पड़ी जो तेरी, 


मानो पापा धूल गए है। 


तेरा आशीष पा कर.....।।


 


तेरे आशीष वाले बादल 


जिस दिन से छाए रहे हैं।


निर्दोष निसंग के पर्वत 


उस दिन से गिर रहे हैं।


रहमत मिली जो तेरी, 


मेरे दिन बदल गये है।


तेरी रोशनी में विद्यागुरु, 


सुख शांति पा रहे है।


तेरा आशीष पा कर ....।।


 


जय जिनेन्द्र देव 


संजय जैन (मुम्बई)


डॉ0 हरि नाथ मिश्र

 तृतीय चरण (श्रीरामचरितबखान)-27


 


तब प्रभु राम मुनी तें कहहीं।


जे जग मोर भरोसा करहीं।।


     करहुँ तासु रखवारी हमहीं।


     जस निज सुत महतारी करहीं।।


माता-गउ जग एक समाना।


निज सुत-बच्छ देहिं निज प्राना।।


    होत सयान देखि गो-माता।


    रखहिं न तिन्ह सँग पाछिल नाता।।


जदपि सनेह थोर नहिं रहई।


अतुल नेह पर तस नहिं भवई।।


     भगत मोर बल निज बल मानै।


     छाँड़ि मोंहि नहिं औरहु जानै।।


निरछल भगति पछाड़ै रिपुहीं।


काम-क्रोध-मद-लोभ जे रहहीं।।


     जदपि सत्रु ये सभ दुखदाई।


     माया बड़ी इन्हन्ह तें भाई।।


सकल बासना-बिपिन मँझारी।


माया रूपी नारि पियारी।।


     बेद-पुरानहिं-संत बखानै।


    षट ऋतु सम सुभाउ तिय जानै।।


हेम-सिसिर ऋतु,सरद-बसंता।


बरषा-गृष्म कहहिं जे संता।।


     जदपि नारि ममता कै मूरत।


      मातु तुल्य नहिं कोऊ सूरत।।


काम-क्रोध-प्रपंच-भंडारा।


रुष्ट भए तै तपै अँगारा।।


    नारि-बियाह भगत नहिं सोहै।


    जप-तप-नियम भगत सभ खोवै।।


दोहा-सुनि के प्रभु कै अस बचन,नारद पुलकित गात।


         नैन अश्रु-पूरित मुनी,कहत भए अस बात ।।


                       डॉ0हरि नाथ मिश्र


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आठवाँ अध्याय (श्रीकृष्णचरितबखान)-7


 


एक दिवस बलदाऊ भैया।


लइ गोपिन्ह कह जसुमति मैया।।


     माई,खाए किसुन-कन्हाई।


     माटी इत-उत धाई-धाई।।


पकरि क हाथ कृष्न कै मैया।


कह नटखट तू बहुत कन्हैया।।


     काहें किसुन तू खायो माटी।


     अस कहि जसुमति किसुनहिं डाँटी।।


सुनतै कान्हा डरिगे बहुतै।


लगी नाचने पुतरी तुरतै।।


    झूठ कहहिं ई सभें हे मैया।


    गोप-सखा-बलदाऊ भैया।।


अस कहि कृष्न कहे सुनु माई।


नहिं परतीति त मुँहहिं देखाई।।


    अब नहिं बाति औरु कछु बोलउ।


    कहहिं जसोदा मुहँ अब खोलउ।।


तुरत किसुन तब खोले आनन।


लखीं जसोदा महि-गिरि-कानन।।


      सकल चराचर अरु ब्रह्मंडा।


      बायु-अग्नि-रबि-ससी अखंडा।।


जल-समुद्र अरु द्वीप-अकासा।


विद्युत-तारा सकल प्रकासा।।


    सत-रज-तम तीनिउँ मुख माहीं।


    परे जसोदा सभें लखाहीं।।


जीव-काल अरु करम-सुभावा।


साथ बासना जे बपु पावा।।


     बिबिध रूप धारे संसारा।


     स्वयमहुँ देखीं जसुमति सारा।।


दोहा-किसुन-छोट मुख मा लखीं,जसुमति रूप अनूप।


        सकल विश्व जामे रहा,जल-थल-गगन-स्वरूप।।


                 डॉ0 हरि नाथ मिश्र


                   9919446372


कालिका प्रसाद सेमवाल

हे मां शारदे दया करो


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हे मां शारदे दया करो,


हमें सत्य की राह बताओ,


कभी किसी का बुरा न करु,


ऐसी सुमति हमें देना मां।


 


हे मां शारदे दया करो,


अपनी कृपा वर्षा करो,


हम अज्ञानी तेरी शरण में,


हमें सही राह बताना मां।


 


ये जीवन तुम्ही ने दिया है


राह भी तुम्हें बताओ मां


हो गई है भूल कोई तो,


राह सही बताओ मां।


 


कभी किसी का बुरा न करुं,


दया भाव से हृदय भरो,


मस्तक तुम्हारे चरणों में हो,


ऐसी बुद्धि हमें दे दो मां।


 


हे मां शारदे दया करो,


जग में न कोई किसी जीव को,


पीड़ा कभी न पहुंचाऊं मां,


ऐसी सब की बुद्धि कर दो।


********************


कालिका प्रसाद सेमवाल


रुद्रप्रयाग उत्तराखंड


नूतन लाल साहू

धूप और छांव


 


चिंता से दुर रहो


चिंता, चिता समान


दुःख की आंसू पीकर


बांटे जा, मुस्कान


जीवन का रहस्य


न समझा, इंसान


जिंदगी में आते ही रहेगा


कभी धूप, तो कभी छांव


सोच सोच कर स्वयं को


क्यूं हो रहा है,हैरान


प्रभु कर्मो का फल,दे रहा है


विधि का है,अटल विधान


जो देता हैं, ईश्वर


उसमे रख,संतोष


लालच में पड़कर, कभी


खो मत देना,अपना होश


जिंदगी में, आते ही रहेगा


कभी धूप, तो कभी छांव


तुम सबसे,कहते रहे


दुनिया बड़ी,खराब


अपने दोषों का मगर


रक्खा नहीं,हिसाब


क्यों भिड़ता है,समय से


समय हैं,बहुत बलवान


बड़े बड़ों के,समय ने


काट दिये है, कान


जिंदगी में आते ही रहेगा


कभी धूप, तो कभी छांव


समय आयेगा,समय पर


इसको निश्चित, जान


समय से पहले किसी को


नहीं मिला,सम्मान


खुद अपने हाथो से


खींचे,भाग्य लकीर


बिना परिश्रम के,नहीं बनती


इंसानों का तक़दीर


जिंदगी में आते ही रहेगा


कभी धूप, तो कभी छांव


नूतन लाल साहू


डॉ0 निर्मला शर्मा

"लापरवाही पूरी


 ना मास्क ना दूरी, लापरवाही है पूरी


 फैलेगा ही कोरोना ,सावधानी है अधूरी 


सोशल डिस्टेंसिंग, का नहीं किसी को ध्यान 


सब्जी मंडी में तो, खूब चढ़े यह परवान


 रेलवे स्टेशन बस स्टैंड ,सभी जगह इस का डेरा 


नहीं किया बचाव तो होगा ,आपके तन में बसेरा लॉकडाउन में सब को, सरकार ने खूब बताया


 कोरोना गाइडलाइन देकर, मानव को चेताया अनुशासन किया भंग, तो होगी बड़ी फजीहत 


कोरोना तैयार है बैठा ,करेगा सब को आहत


 धारा 144 लगाई, कभी किया डंडा वार


 आर्थिक दंड लगाया फिर भी ,समझाना गया बेकार 


घर में बैठे कैसे हम तुम ,काम भी है जरूरी


 गांठ बांध लो सभी समझ लो, सावधानी है जरूरी


 


 डॉ0 निर्मला शर्मा 


दौसा राजस्थान


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धूप- छाँव


धूप छाँव का साथ अनोखा


साथ में चलें करें न धोखा


धूप कर्मपथ है दिखलाती


परिश्रम की राह सिखाती


छाँव कराये सुखद अहसास


चैन की अब तो ले लो श्वास


जीवन में दोनों का महत्व


धूप छाँव का अपना कर्तव्य


ये सुख- दुख सरिस है साधो


जिनकी व्याख्या करते माधो


पानी सम बुलबुला समाना


जीवन धूप छाँव सा माना


जीवन पथ पर रहो अग्रसर


चलो न देखो अब तुम मुड़कर


पीछे का पीछे ही छोड़ो


आगे बढ़कर लक्ष्य को छू लो


 


डॉ0 निर्मला शर्मा


दौसा राजस्थान


राजेंद्र रायपुरी

 आलस छोड़ो 


 


आलस छोड़ो जागो भाई।


  देखो पूरब लाली छाई।


    उठो सैर पर तुमको जाना,


      मुर्गे ने भी बाॅ॑ग लगाई।


 


चिड़िया देखो चहक रही है।


  बाग चमेली महक रही है।


    कली-कली देखो मुस्काई,


      आलस छोड़ो जागो भाई।


 


सूर्य रश्मि अब आने वाली।


  इसीलिए पूरब है लाली।


    तम की करती वही विदाई,


      आलस छोड़ो जागो भाई।


 


नभ तारे नहिं पड़ें दिखाई।


  सबने ले ली भोर बिदाई।


    तोता भी आवाज लगाए,


      आलस छोड़ो जागो भाई।


 


उठो काम पर तुमको जाना।


  खाना-पीना और नहाना।


    कब तक लोगे तुम ॲ॑गड़ाई,


      आलस छोड़ो जागो भाई।


 


जो सोते हैं, वो खोते हैं।


  पछताते, पीछे रोते हैं।


    झूठ नहीं ये, है सच्चाई।


      आलस छोड़ो जागो भाई।


 


           ।। राजेंद्र रायपुरी।।


सुनील कुमार गुप्ता

  अपनो में


"खोया रहा मन सपनो में,


कैसे-मिले वो अपनो में?


अपना-अपना कहते जिनको,


कहाँ -मिले वो सपनो में?


अपनत्व की अभिलाषा मे ही,


खोये रहे वो सपनो में।


मिला न अपनत्व जीवन साथी,


बढ़ती रही कटुता मन में।।


दूर होती कटुता तन-मन की,


ऐसी गरिमा हो सबंधों मे।


बाँध सके जीवन को साथी,


ऐसा स्नेंह हो अपनो में।।


 


सुनील कुमार गुप्ता


सुषमा मोहन पांडेय

राष्ट्रीय एकता पर मेरा गीत


 


देश हो अखण्ड मेरा एकता चाहिए


जाति चाहे भिन्न हो, न भिन्नता चाहिए


बोलियां अनेक हैं पर एक बोली प्रेम की


रंक हो या राजा समान भाव चाहिए


देश हो अखण्ड मेरा, एकता चाहिए


 


गांव गांव शहर शहर देश का विकास हो


हम भी बढ़े तुम भी बढोऔर सबका साथ हो


कोई न भूखा रहे धरा पर, ऐसा देश चाहिए


देश हो अखण्ड मेरा, एकता चाहिए


 


देश की अखंडता न तार तार करना


साम्प्रदायिक विचारों का बहिष्कार करना


मिलजुल कर रहना है,प्यार सभी में भरना


राष्ट्रीय एकता की पहचान होनी चाहिए


देश हो अखण्ड मेरा, एकता चाहिए।


 


हम सब देश के बच्चे हैं, एक ही माँ के जन्मे है


फिर मजहब का भेद ये कैसा,हमें दूर ये करने हैं


यही धारणा सब बच्चों के अंदर होनी चाहिए।


देश हो अखण्ड मेरा, एकता चाहिए।


 


सुषमा मोहन पांडेय


सीतापुर उत्तर प्रदेश


डा. नीलम

भावों का प्रवाह......


 


कहने को बहुत कुछ है मगर


शब्द-शब्द भीग रहा


बाहर आसमां ,भीतर-भीतर


मनाकाश बरस रहा


 


सामने हैं कागज-कलम


हाथ बेदम हुआ


लेने से आकार अक्षर-अक्षर लाचार रहा


 


बेरहमी से कुचला था जिस्म


जानते हैं सब जन 


सच बोलने से आदमी आज


बेजार रहा


 


बहुत जतन किये सच उगलवाने के


सच सामने न आया हर जतन बेकार रहा


 


बयां करती रहीं *नील* हादसे को भीगी आँखे


आहों ने आकार ले लिया, लब मगर खामोश रहा।


 


       डा. नीलम


डॉ. राम कुमार झा निकुंज

 हे चारुचन्द्र नव आश किरण


 


मन माधव कुसुमित कुसुम गन्ध,


नव भोर मुदित नवपल्लव लवंग।


सतरंग गगन गुंजित विहंग,


अलिगुंज हृदय यौवन तरंग।


 


नँच मन मयूर आनन्द मग्न,


पिक गान मधुर संगीत रंग।


मधुशाल बना पुलकित निकुंज,


नभ इन्द्रधनुष साजन तरंग।


 


अरुणाभ जगत अभिलाष सतत,


नव प्रीति मिलन अनुराग सजन।


प्रियतम वियोग अब हो न सहन,


जीवन अन्तर्मन प्रियदर्शन। 


 


पलकों में ओझल पीड़ प्रियम,


नयनाश्रु मात्र अविरल चितवन।


रतिराग हृदय संताप कठिन,


उरभार शिखर उन्माद मदन। 


 


उपहास विरह लखि तारागण,


ठिठक रहे जुगनू रात्रि चमन।


संकोच पड़ी लखि चन्द्र प्रभा,


अनुताप विरहिणी अश्रु नयन।


 


बाट जोहती प्रियतम आगम,


वासन्तिक बीता मधुमय क्षण।


सरसिज आनन मतवाला मन,


बिम्बाधर पाटल मुस्कान क्षयण।


 


देखी सावन आह्लाद नयन,


घन श्याम बरस सूखे चितवन।


नव आश दमक चमकी विरहण,


अधीरा मुदिता प्रिय चारु मिलन।


 


घनघोर घटा बरसी अम्बर,


भींगी काया तन वदन वसन।


रति बाण पयोधर घाव सघन,


यौवन उफान अभिसारिक मन। 


 


कोमल किसलय द्रुम पत्र नवल,


निशि चन्द्र मधुर परिमल शीतल। 


कुमुद विहँसती शशिकान्त मृदुल, 


आहत प्रिया लखि चकोर युगल।


 


तज राग सजन आओ मधुवन,


आलिंगन तन मन रास चमन।


गलहार हार मधुशाल बलम,


संभाल प्रिया रति प्रलय सजन।


 


आया विप्लव तूफ़ान कठिन,


अभिलाष प्रीति उड़ रहा चमन।


घनश्याम बरस ला आप्लावन,


पतवार बनो रक्षक साजन।


 


घनघोर घटा बन नैन रुदन,


कजरी बह काली गाल वदन।


मधुरिम रसाल सम भाष मधुर,


राह देखती निशिरैन सनम।


 


अभिनव कोमल जल रहा वदन,


देह विलोपित गन्धमादन।


प्रीत प्रगल्भा बनी वियोगन,


आ रमण करो प्रिय हृदयांगन।


 


वेणी लड़ियाँ झूल रही कमर,


प्रिय मिलन विरह पी रही ज़हर।


गज गयी चाल उच्छल नितम्ब,


संजीवन सजन न बरस कहर।


 


हिमाद्रि तुंग सम वक्षस्थल,


रणवीर प्रीत उन्मत्त युगल,


मधुपान नशीले विजय मिलन,


अभिनन्दन प्रियतम आश नवल। 


 


हे चारुचन्द्र नव आश किरण,


मैं पूनम रच प्रियरास चमन।


अनमोल धरोहर तुम साजन,


नव कीर्ति निशाकर प्रीति बलम।


 


डॉ. राम कुमार झा निकुंज


नवदिल्ली


आशा त्रिपाठी

*वात्सल्य ममता की देवी,*


*ईश्वर का अमूल्य वरदान।*


*नारी श्रद्धा-पावन प्रतिमा,*


*भूल गये हम नारी सम्मान*।।


माँ का रुप धरा इस जग मे,


जन्म दिया ले पीर अपार।


रुप बहन का धरकर इसने,


भाई का ऋण दिया उतार।


पत्नी बन घर स्वर्ग बनाती,


जननी का न करो अपमान।


*वात्सल्य ममता की देवी,*


*ईश्वर का अमूल्य वरदान।*


प्रीत प्रेम सिखला देती है,


श्याम प्रिया राधा बनकर।


बेटी का धर रुप निराला,


भाग्य जगाती बन दिनकर।


गृह की सोन चिरैया है ये,


चहक रही वन बाग विहान।


*नारी श्रद्धा-पावन प्रतिमा,*


*भूल गये हम नारी सम्मान*।।


पुरुषों के संग कदम मिलाती,


चहुँ ओर बड़े करतब दिखलाती।


  खेल,रेल,सेना में जाकर,


देश काल इतिहास बनाती।।


साहस की अद्भूत देवी को,


अपमानित करता इन्सान।


*नारी श्रद्धा-पावन प्रतिमा,*


*भूल गये हम नारी सम्मान*।।


ब्रह्मा ,विष्णु, शंकर निशदिन,


माँ काली का ध्यान करे।


जाने क्यू यह कुँठित मानव,


पल प्रतिपल अपमान करे।


देश की मासूम कलियों को,


नर पिशाच नित लेते जान।


*नारी श्रद्धा-पावन प्रतिमा,*


*भूल गये हम नारी सम्मान*।।


मानवता है हमे सिखाती,


दिव्य प्रेम करुणा बरसाती,


काली,दुर्गा,मीरा बनकर,


साहस ,त्याग का बोध कराती।


दुख में सुख में रहे सहजता,


नारी को सौ-सौ बार प्रणाम।


*नारी श्रद्धा-पावन प्रतिमा,*


*भूल गये हम नारी सम्मान*।।


आशा त्रिपाठी


डॉ0 हरि नाथ मिश्र

अष्टावक्र गीता


स्वांत वात-बल पोत जग,फिरे सतत चहुँ-ओर।


महा सिंधु मम रूप में,कहे जनक, बिन शोर।।


 


उदित-अस्त होतीं स्वयं,माया-विश्व-तरंग।


लाभ-हानि बिन सिंधु मैं, उमड़ूँ लिए उमंग।।


 


मुझ अनंत इस सिंधु में,जग है कल्पित रूप।


निराकार स्थित सतत,मैं नित शांत अनूप ।।


 


बिन 'मैं' भाव अनंत मैं, रहूँ वहीं निष्काम।


रूप निरंजन शक्ति बिन,करूँ शांत विश्राम।।


 


अहा!शुद्ध-चैतन्य मैं, जग असत्य,भ्रम-जाल।


भले-बुरे की कल्पना,संभव नहीं बवाल ।।


               ©डॉ0 हरि नाथ मिश्र


                   9919446372


संजय जैन

साथ तेरा हो


 


दर्द की रात हो या, 


सुख का सवेरा हो...।


सब गंवारा है मुझे, 


साथ बस तेरा हो...।


प्यार कोई चीज नहीं,


जो खरीदा जा सके।


ये तो दिलो का,


दिलो से मिलन है।।


 


प्यार कोई मुकद्दर नहीं,


जिसे तक़दीर पे छोड़ा जाए।


प्यार यकीन है भरोसा है,


जो हर किसी पर नहीं होता।


मोहब्बत इतनी आसान नहीं,


जो किसी से भी की जाएं।


ये तो वो है जिस पर,


दिल आ जाएं।।


 


चूमने को तेरा हाथ,


जो में तेरी ओर बढ़ा।


दिलमें एक हलचल सी,


मानो मचलने लगी।


क्या पता था आज,


की क्या होने वाला हैं।


ये तो अच्छा हुआ,


कि कोई आ गया।।


 


वरना दो किनारों का,


आज संगम हो जाता।


और मोहब्बत करने का,


अन्जाम सभी को दिखता।


दर्द का इलाज यारो,


दर्द ही होता है।


जो दर्द को सह जाते है,


वो ही मोहब्बत कर पाते है।।


 


पता नहीं लोग मोहब्बत को,


क्या नाम देते हैं…।


हम तो तेरे नाम को ही,


मोहब्बत कहते हैं…।


हर उलझन के अंदर ही,


उलझन का हल मिलता है।


कोशिश करने से ही,


सुंदर कल मिलता है।।


 


जय जिनेन्द्र देव 


संजय जैन (मुम्बई)


संदीप कुमार विश्नोई रुद्र

जय माँ शारदे


विश्व प्रकृति दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ


मनहरण घनाक्षरी


 


प्रकृति की गोद में ही , जीव जंतु पैदा होते , 


इसके ये जीव सब , इसमें समाते हैं। 


 


कीजिए न खिलवाड़ , आप इस से जी अब , 


इसके पहाड़ नदी , सब को लुभाते हैं। 


 


काटते हो वृक्ष जब , दर्द भी होता है इसे , 


तभी तो भुकंप और , बाढ़ नित आते हैं। 


 


कीजिए जी सच्ची प्रीत , जीव जंतुओं से आप , 


धरा को सजाने आए , प्रीत गीत गाते हैं। 


 


संदीप कुमार विश्नोई रुद्र


गाँव दुतारांवाली अबोहर पंजाब


डॉ. रामबली मिश्र

मत कर कभी विवाद


 


मत कर कभी विवाद।


समाधान करते ही रहना।।


 


देना त्याग विवाद।


शांत पथिक बन जीते रहना।।


 


बहुत खराब विवाद।


कभी किसी से नहीं उलझना।।


 


अति प्रिय जिसे विवाद।


उसके जीवन को है सड़ना।।


 


कर मीठा संवाद।


मधुर वचन से वश में करना।।


 


रहो सदा आबाद।


सुखमय जीवन जीते रहना।।


 


मत होना बर्बाद।


मत विवाद कर मरते रहना।।


 


हो विवाद से मुक्त।


निर्विवाद हो सदा थिरकना।।


 


रहो सदा आजाद।


मत विवाद में कभी बहकना।।


 


जीवन बने अशोक।


सुंदर जीवन पथ पर चलना।।


*************************


चलते रहना।


राह पकड़ कर।।


 


चलते रहना।


हाथ मिलाकर।।


 


चलते रहना।


गले लगा कर।।


 


चलते रहना ।


धीरज धर कर।।


 


चलते रहना।


कदम मिलाकर ।।


 


चलते रहना।


बोल-बोल कर।।


 


चलते रहना।


स्नेह लगाकर।।


 


चलते रहना।


कदम-ताल कर।।


 


चलते रहना।


प्रेमी बनकर।।


 


चलते रहना।


पंथी बनकर।।


 


चलते रहना।


मधुकर बनकर।।


 


चलते रहना।


दिनकर बनकर।।


 


चलते रहना।


कविवर बनकर।।


 


चलते रहना।


सुंदर बनकर।।


 


चलते रहना।


हँस-हँस-हँसकर।।


 


चलते रहना।


देना शुभ वर।।


 


चलते रहना ।


बनना सुखकर।।


 


चलते रहना।


गढ़ना शिव घर।।


 


डॉ. रामबली मिश्र हरिहरपुरी


9838453801


डॉ0 हरि नाथ मिश्र

तृतीय चरण (श्रीरामचरितबखान)-26


 


राम-लखन-सिय बैठे जहवाँ।


सकल देव-मुनि आए तहवाँ।।


    करि स्तुति ते जहँ-तहँ गयऊ।


    रुचिकर कथा राम तब कहऊ।।


सुनि-सुनि कथा लखन-हिय हर्षहि।


लखि प्रभु मुदित सुमन नभ बरसहि।।


      बिरह-बिकल लखि नारद सोचहिं।


      फल मम साप राम अस भोगहिं।।


धारि हस्त निज आपनु बीना।


प्रभु पहँ गे मुनि ग्यान-प्रबीना।


      जाइ निकट सिर अवनत कइके।


      गावहिं चरित प्रभुहिं कहि-कहि के।।


सादर राम मुनिहिं उर लाए।


आसन दइ निज निकट बिठाए।।


     देखि राम अतिसय मन-मुदिता।


      हो प्रसन्न नारद तब कथिता।।


देहु नाथ बस इक बर मोंहीं।


जदपि सकल गति जानउ तोहीं।।


     मुनि तुम्ह सभ बिधि जानउ मोंहीं।


      कबहुँ न करुँ मैं मोंहीं-तोहीं ।।


भगत-दुराव न सपनहु करऊँ।


अस सुभाव मम तुम्ह भल जनऊँ।।


      कछु अदेय नहिं यहि जग माहीं।


      देइ सकहुँ नहिं मैं तुम्ह ताहीं।।


हर्षित मन तब नारद कहहीं।


प्रभु क नाम बहु अस श्रुति बदहीं।।


     राम-नाम सबतें बड़ होवै।


     भजि क जाहि जग निर्भय सोवै।।


राम-नाम अह ब्रह्म-प्रकासा।


औरउ नामहिं नखत अकासा।।


    अइसहिं प्रभु सभ जन उर बसहू।


     एवमस्तु रामहिं तब कहहू ।।


दोहा-जानि प्रभुहिं अति मुदित मन,नारद कहे सिहाहि।


        कारन कवन बता प्रभू,भयो न मोर बियाह ।।


 


**************************


आठवाँ अध्याय (श्रीकृष्णचरितबखान)-6


 


कबहुँ त छेद करहि मटका महँ।


छाछ पियहि भुइँ परतइ जहँ-तहँ।।


     लला तोर बड़ अद्भुत जसुमत।


     गृह मा कवन रहत कहँ जानत।।


केतनउ रहइ जगत अँधियारा।


लखतै किसुन होय उजियारा।।


     तापर भूषन सजा कन्हाई।


     मणि-प्रकास सभ परे लखाई।।


तुरतै पावै मटका-मटकी।


माखन खाइ क भागै छटकी।।


     लखतै हम सभ रत गृह-काजा।


     तुरतै बिनु कछु किए अकाजा।।


लइ सभ सखा गृहहिं मा आई।


खाइ क माखन चलै पराई ।।


दोहा-पकरि जाय चोरी करत,तुरतै बनै अबोध।


        भोला-भाला लखि परइ, धनि रे साधु सुबोध।।


       सुनतै जसुमति हँसि परीं,लीला-चरित-बखान।


       डाँटि न पावैं केहु बिधी,कान्हा गुन कै खान।।


       एक बेरि निज गृहहिं मा,माखन लिए चुराय।


       मनि-खंभहिं निज बिंब लखि,कहे लेउ तुम्ह खाय।।


                         डॉ0 हरि नाथ मिश्र


                           9919446372


नूतन लाल साहू

सावधान भारत मां के दुश्मनों


 


छक्के छुड़ा देते हैं, हम


दुश्मनों के, हर चाल को


हम वो पत्थर हैं,जिसे


दुश्मन,हिला सकते नहीं हैं


दुश्मनो के हैं,हम दुश्मन


यारो के,हम यार हैं


अमन में,फूलो की डाली


जंग में हम,तलवार है


हम वो पत्थर है,जिसे


दुश्मन,हिला सकते नहीं हैं


खेल नहीं है,अब टकराना


आजादी के दीवानों से


लाखो फौजे,लेकर आ जाये


टिक नहीं सकता,हमारी एकता के सामने


हम वो पत्थर हैं,जिसे


दुश्मन, हिला सकते नहीं है


हमारे बाजुओं में,आंधियों का जोर है


हमारी धड़कनों में, बादलों का शोर है


चली गई,अब गमो की रात


खुशी का सबेरा,हो गया है


हम वो पत्थर हैं,जिसे


दुश्मन,हिला सकते नहीं हैं


भारत मां की,धरती पर


यदि किसी,गैर का कदम पड़ा तो


उस कदम का,निशान तक


मिटा देंगे,हम


छक्के छुड़ा देते है,हम


दुश्मनों के हर चाल को


हम वो पत्थर है,जिसे


दुश्मन,हिला सकते नहीं हैं


नूतन लाल साहू


कालिका प्रसाद सेमवाल

हे मां वीणा धारणी वरदे


*******************


हे मां वीणा धारणी वरदे


विचलित मन को स्थिर कर दे


दूर करो सारी दुविधाएं


सब के मंगल का भाव जगा दो


सब के हित की बात लिखूं बस।


 


हे मां वीणा धारणी वरदे


शीश तुम्हारे चरणों में झुका रहे


हम अज्ञानियों को सद् बुद्धि दे


तुम्हारी कृपा से ये जीवन मिला है


जीवन को सार्थक कर दो मां


बस तुम्हारा ही हर वक्त ध्यान रहे।


 


हे मां वीणा धारणी वरदे


 नमन करता मां हंस वाहिनी


हूं अल्प बुद्धि और नादान भी


ले शरण में मां बस अपनी कृपा कर


दया की तुम भंडार हो मां


सब पर अपनी करुणा बरसाओं मां।


********************


कालिका प्रसाद सेमवाल


मानस सदन अपर बाजार


रुद्रप्रयाग उत्तराखण्ड


एस के कपूर श्री हंस

खिलना है


गुलाब सा तो काँटों से भी


मेल करो।।


 


खिलना है गुलाब सा तो


काँटो से भी मेल रखो।


जीवन में धूप छाँव का


भी हर खेल रखो।।


तप कर ही सोना भी 


बनता है तब चन्दन।


छिप कर पीछे नहीं बस


बढ़ने की आगे पहल रखो।।


 


इतिहास है गवाह संघर्षों


से जो परिचित नहीं होता।


वह दुनिया में कभी भी


चर्चित नहीं होता।।


अवगुण छोड़ते तब ही


गुण पाते हैं अपना स्थान।


बिन दुःख के भी सुख


कभी हर्षित नहीं होता।।


 


हर किसी से कुछ भी


सीखना वर्जित नहीं होता।


बिना खोये पुराना फिर


नया भी सृजित नहीं होता।।


वृक्ष व्यथित नहीं होते फल


फूल पत्ते भी खोकर।


आती नहीं निर्मलता अहम


भी जो विसर्जित नहीं होता।।


 


कर्म के पूजन से ही भाग्य


मेहरबान भी होता है।


परिश्रमी को जीतने के


लिए पूरा जहान होता है।।


मौसम आने पर ही फल


पकते हैं पूरे जाकर।


धैर्य बुद्धि विवेक से ही


जीवन में सम्मान होता है।।


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बड़े शहर, बड़े मकान।*


               *प्रेम विहीन आलीशान।।*


आजकल घर नहीं ,पत्थर के मकान होते हैं।


*प्रेम* से शून्य खामोश, दिल वीरान होते हैं।।


घर को रैन बसेरा कहना, ही ठीक होगा।


कुत्ते से सावधान दरवाजे, की शान होते हैं।।


 


घर में *प्रेम* भाव नहीं, सूने से ठिकाने हैं।


मकान में कम बोलते ,मानो कि बेगाने हैं।।


सूर्य चंद्रमा की किरणें ,नहीं आती हैं यहां।


संस्कारों की बात वाले, हो चुके पुराने हैं।।


 


हर किरदार में अहम , का भाव होता है।


स्नेह *प्रेम* नहीं दीवारों ,से लगाव होता है।।


समर्पण का समय ,नहीं किसी के पास।


आस्था आशीर्वाद का ,नहीं बहाव होता है।।


 


आदमी नहीं मशीनों , का वास होता है।


पैसे की चमक का, असर खास होता है।।


मूर्तियाँ ईश्वर की होती, बहुत ही आलीशान।


पर उनसे *प्रेम* कहीं नहीं, आसपास होता है।।


 


 *प्रेम* विहीन यहां पर,ऊंचे मचान होते हैं।


मतलब के ही आते, मेहमान होते हैं।।


दौलत से मिलती , नकली खुशी यहाँ।


पैसे पर खड़े घर नहीं ,बड़े मकान होते हैं।


 


एस के कपूर श्री हंस


सुनील कुमार गुप्ता

 जीवन में


सपनो के रंगों को साथी,


गहराने दो जीवन मे।


आशाओं के इस अंबर में,


कुछ संग रहने दो मन में।।


ये फूल डाली-डाली के,


खिलना इसी उपवन में।


सहेज रखना इनको साथी,


महकेगे इस जीवन में।।


कौन-कहाँ-होगा साथी फिर,


कोई जाने न जीवन में।


मधुर स्मृतियों ही साथी फिर,


होगी संग जीवन में।।


 


सुनील कुमार गुप्ता


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