सुनील कुमार गुप्ता

  अपनो में


"खोया रहा मन सपनो में,


कैसे-मिले वो अपनो में?


अपना-अपना कहते जिनको,


कहाँ -मिले वो सपनो में?


अपनत्व की अभिलाषा मे ही,


खोये रहे वो सपनो में।


मिला न अपनत्व जीवन साथी,


बढ़ती रही कटुता मन में।।


दूर होती कटुता तन-मन की,


ऐसी गरिमा हो सबंधों मे।


बाँध सके जीवन को साथी,


ऐसा स्नेंह हो अपनो में।।


 


सुनील कुमार गुप्ता


सुषमा मोहन पांडेय

राष्ट्रीय एकता पर मेरा गीत


 


देश हो अखण्ड मेरा एकता चाहिए


जाति चाहे भिन्न हो, न भिन्नता चाहिए


बोलियां अनेक हैं पर एक बोली प्रेम की


रंक हो या राजा समान भाव चाहिए


देश हो अखण्ड मेरा, एकता चाहिए


 


गांव गांव शहर शहर देश का विकास हो


हम भी बढ़े तुम भी बढोऔर सबका साथ हो


कोई न भूखा रहे धरा पर, ऐसा देश चाहिए


देश हो अखण्ड मेरा, एकता चाहिए


 


देश की अखंडता न तार तार करना


साम्प्रदायिक विचारों का बहिष्कार करना


मिलजुल कर रहना है,प्यार सभी में भरना


राष्ट्रीय एकता की पहचान होनी चाहिए


देश हो अखण्ड मेरा, एकता चाहिए।


 


हम सब देश के बच्चे हैं, एक ही माँ के जन्मे है


फिर मजहब का भेद ये कैसा,हमें दूर ये करने हैं


यही धारणा सब बच्चों के अंदर होनी चाहिए।


देश हो अखण्ड मेरा, एकता चाहिए।


 


सुषमा मोहन पांडेय


सीतापुर उत्तर प्रदेश


डा. नीलम

भावों का प्रवाह......


 


कहने को बहुत कुछ है मगर


शब्द-शब्द भीग रहा


बाहर आसमां ,भीतर-भीतर


मनाकाश बरस रहा


 


सामने हैं कागज-कलम


हाथ बेदम हुआ


लेने से आकार अक्षर-अक्षर लाचार रहा


 


बेरहमी से कुचला था जिस्म


जानते हैं सब जन 


सच बोलने से आदमी आज


बेजार रहा


 


बहुत जतन किये सच उगलवाने के


सच सामने न आया हर जतन बेकार रहा


 


बयां करती रहीं *नील* हादसे को भीगी आँखे


आहों ने आकार ले लिया, लब मगर खामोश रहा।


 


       डा. नीलम


डॉ. राम कुमार झा निकुंज

 हे चारुचन्द्र नव आश किरण


 


मन माधव कुसुमित कुसुम गन्ध,


नव भोर मुदित नवपल्लव लवंग।


सतरंग गगन गुंजित विहंग,


अलिगुंज हृदय यौवन तरंग।


 


नँच मन मयूर आनन्द मग्न,


पिक गान मधुर संगीत रंग।


मधुशाल बना पुलकित निकुंज,


नभ इन्द्रधनुष साजन तरंग।


 


अरुणाभ जगत अभिलाष सतत,


नव प्रीति मिलन अनुराग सजन।


प्रियतम वियोग अब हो न सहन,


जीवन अन्तर्मन प्रियदर्शन। 


 


पलकों में ओझल पीड़ प्रियम,


नयनाश्रु मात्र अविरल चितवन।


रतिराग हृदय संताप कठिन,


उरभार शिखर उन्माद मदन। 


 


उपहास विरह लखि तारागण,


ठिठक रहे जुगनू रात्रि चमन।


संकोच पड़ी लखि चन्द्र प्रभा,


अनुताप विरहिणी अश्रु नयन।


 


बाट जोहती प्रियतम आगम,


वासन्तिक बीता मधुमय क्षण।


सरसिज आनन मतवाला मन,


बिम्बाधर पाटल मुस्कान क्षयण।


 


देखी सावन आह्लाद नयन,


घन श्याम बरस सूखे चितवन।


नव आश दमक चमकी विरहण,


अधीरा मुदिता प्रिय चारु मिलन।


 


घनघोर घटा बरसी अम्बर,


भींगी काया तन वदन वसन।


रति बाण पयोधर घाव सघन,


यौवन उफान अभिसारिक मन। 


 


कोमल किसलय द्रुम पत्र नवल,


निशि चन्द्र मधुर परिमल शीतल। 


कुमुद विहँसती शशिकान्त मृदुल, 


आहत प्रिया लखि चकोर युगल।


 


तज राग सजन आओ मधुवन,


आलिंगन तन मन रास चमन।


गलहार हार मधुशाल बलम,


संभाल प्रिया रति प्रलय सजन।


 


आया विप्लव तूफ़ान कठिन,


अभिलाष प्रीति उड़ रहा चमन।


घनश्याम बरस ला आप्लावन,


पतवार बनो रक्षक साजन।


 


घनघोर घटा बन नैन रुदन,


कजरी बह काली गाल वदन।


मधुरिम रसाल सम भाष मधुर,


राह देखती निशिरैन सनम।


 


अभिनव कोमल जल रहा वदन,


देह विलोपित गन्धमादन।


प्रीत प्रगल्भा बनी वियोगन,


आ रमण करो प्रिय हृदयांगन।


 


वेणी लड़ियाँ झूल रही कमर,


प्रिय मिलन विरह पी रही ज़हर।


गज गयी चाल उच्छल नितम्ब,


संजीवन सजन न बरस कहर।


 


हिमाद्रि तुंग सम वक्षस्थल,


रणवीर प्रीत उन्मत्त युगल,


मधुपान नशीले विजय मिलन,


अभिनन्दन प्रियतम आश नवल। 


 


हे चारुचन्द्र नव आश किरण,


मैं पूनम रच प्रियरास चमन।


अनमोल धरोहर तुम साजन,


नव कीर्ति निशाकर प्रीति बलम।


 


डॉ. राम कुमार झा निकुंज


नवदिल्ली


आशा त्रिपाठी

*वात्सल्य ममता की देवी,*


*ईश्वर का अमूल्य वरदान।*


*नारी श्रद्धा-पावन प्रतिमा,*


*भूल गये हम नारी सम्मान*।।


माँ का रुप धरा इस जग मे,


जन्म दिया ले पीर अपार।


रुप बहन का धरकर इसने,


भाई का ऋण दिया उतार।


पत्नी बन घर स्वर्ग बनाती,


जननी का न करो अपमान।


*वात्सल्य ममता की देवी,*


*ईश्वर का अमूल्य वरदान।*


प्रीत प्रेम सिखला देती है,


श्याम प्रिया राधा बनकर।


बेटी का धर रुप निराला,


भाग्य जगाती बन दिनकर।


गृह की सोन चिरैया है ये,


चहक रही वन बाग विहान।


*नारी श्रद्धा-पावन प्रतिमा,*


*भूल गये हम नारी सम्मान*।।


पुरुषों के संग कदम मिलाती,


चहुँ ओर बड़े करतब दिखलाती।


  खेल,रेल,सेना में जाकर,


देश काल इतिहास बनाती।।


साहस की अद्भूत देवी को,


अपमानित करता इन्सान।


*नारी श्रद्धा-पावन प्रतिमा,*


*भूल गये हम नारी सम्मान*।।


ब्रह्मा ,विष्णु, शंकर निशदिन,


माँ काली का ध्यान करे।


जाने क्यू यह कुँठित मानव,


पल प्रतिपल अपमान करे।


देश की मासूम कलियों को,


नर पिशाच नित लेते जान।


*नारी श्रद्धा-पावन प्रतिमा,*


*भूल गये हम नारी सम्मान*।।


मानवता है हमे सिखाती,


दिव्य प्रेम करुणा बरसाती,


काली,दुर्गा,मीरा बनकर,


साहस ,त्याग का बोध कराती।


दुख में सुख में रहे सहजता,


नारी को सौ-सौ बार प्रणाम।


*नारी श्रद्धा-पावन प्रतिमा,*


*भूल गये हम नारी सम्मान*।।


आशा त्रिपाठी


डॉ0 हरि नाथ मिश्र

अष्टावक्र गीता


स्वांत वात-बल पोत जग,फिरे सतत चहुँ-ओर।


महा सिंधु मम रूप में,कहे जनक, बिन शोर।।


 


उदित-अस्त होतीं स्वयं,माया-विश्व-तरंग।


लाभ-हानि बिन सिंधु मैं, उमड़ूँ लिए उमंग।।


 


मुझ अनंत इस सिंधु में,जग है कल्पित रूप।


निराकार स्थित सतत,मैं नित शांत अनूप ।।


 


बिन 'मैं' भाव अनंत मैं, रहूँ वहीं निष्काम।


रूप निरंजन शक्ति बिन,करूँ शांत विश्राम।।


 


अहा!शुद्ध-चैतन्य मैं, जग असत्य,भ्रम-जाल।


भले-बुरे की कल्पना,संभव नहीं बवाल ।।


               ©डॉ0 हरि नाथ मिश्र


                   9919446372


संजय जैन

साथ तेरा हो


 


दर्द की रात हो या, 


सुख का सवेरा हो...।


सब गंवारा है मुझे, 


साथ बस तेरा हो...।


प्यार कोई चीज नहीं,


जो खरीदा जा सके।


ये तो दिलो का,


दिलो से मिलन है।।


 


प्यार कोई मुकद्दर नहीं,


जिसे तक़दीर पे छोड़ा जाए।


प्यार यकीन है भरोसा है,


जो हर किसी पर नहीं होता।


मोहब्बत इतनी आसान नहीं,


जो किसी से भी की जाएं।


ये तो वो है जिस पर,


दिल आ जाएं।।


 


चूमने को तेरा हाथ,


जो में तेरी ओर बढ़ा।


दिलमें एक हलचल सी,


मानो मचलने लगी।


क्या पता था आज,


की क्या होने वाला हैं।


ये तो अच्छा हुआ,


कि कोई आ गया।।


 


वरना दो किनारों का,


आज संगम हो जाता।


और मोहब्बत करने का,


अन्जाम सभी को दिखता।


दर्द का इलाज यारो,


दर्द ही होता है।


जो दर्द को सह जाते है,


वो ही मोहब्बत कर पाते है।।


 


पता नहीं लोग मोहब्बत को,


क्या नाम देते हैं…।


हम तो तेरे नाम को ही,


मोहब्बत कहते हैं…।


हर उलझन के अंदर ही,


उलझन का हल मिलता है।


कोशिश करने से ही,


सुंदर कल मिलता है।।


 


जय जिनेन्द्र देव 


संजय जैन (मुम्बई)


संदीप कुमार विश्नोई रुद्र

जय माँ शारदे


विश्व प्रकृति दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ


मनहरण घनाक्षरी


 


प्रकृति की गोद में ही , जीव जंतु पैदा होते , 


इसके ये जीव सब , इसमें समाते हैं। 


 


कीजिए न खिलवाड़ , आप इस से जी अब , 


इसके पहाड़ नदी , सब को लुभाते हैं। 


 


काटते हो वृक्ष जब , दर्द भी होता है इसे , 


तभी तो भुकंप और , बाढ़ नित आते हैं। 


 


कीजिए जी सच्ची प्रीत , जीव जंतुओं से आप , 


धरा को सजाने आए , प्रीत गीत गाते हैं। 


 


संदीप कुमार विश्नोई रुद्र


गाँव दुतारांवाली अबोहर पंजाब


डॉ. रामबली मिश्र

मत कर कभी विवाद


 


मत कर कभी विवाद।


समाधान करते ही रहना।।


 


देना त्याग विवाद।


शांत पथिक बन जीते रहना।।


 


बहुत खराब विवाद।


कभी किसी से नहीं उलझना।।


 


अति प्रिय जिसे विवाद।


उसके जीवन को है सड़ना।।


 


कर मीठा संवाद।


मधुर वचन से वश में करना।।


 


रहो सदा आबाद।


सुखमय जीवन जीते रहना।।


 


मत होना बर्बाद।


मत विवाद कर मरते रहना।।


 


हो विवाद से मुक्त।


निर्विवाद हो सदा थिरकना।।


 


रहो सदा आजाद।


मत विवाद में कभी बहकना।।


 


जीवन बने अशोक।


सुंदर जीवन पथ पर चलना।।


*************************


चलते रहना।


राह पकड़ कर।।


 


चलते रहना।


हाथ मिलाकर।।


 


चलते रहना।


गले लगा कर।।


 


चलते रहना ।


धीरज धर कर।।


 


चलते रहना।


कदम मिलाकर ।।


 


चलते रहना।


बोल-बोल कर।।


 


चलते रहना।


स्नेह लगाकर।।


 


चलते रहना।


कदम-ताल कर।।


 


चलते रहना।


प्रेमी बनकर।।


 


चलते रहना।


पंथी बनकर।।


 


चलते रहना।


मधुकर बनकर।।


 


चलते रहना।


दिनकर बनकर।।


 


चलते रहना।


कविवर बनकर।।


 


चलते रहना।


सुंदर बनकर।।


 


चलते रहना।


हँस-हँस-हँसकर।।


 


चलते रहना।


देना शुभ वर।।


 


चलते रहना ।


बनना सुखकर।।


 


चलते रहना।


गढ़ना शिव घर।।


 


डॉ. रामबली मिश्र हरिहरपुरी


9838453801


डॉ0 हरि नाथ मिश्र

तृतीय चरण (श्रीरामचरितबखान)-26


 


राम-लखन-सिय बैठे जहवाँ।


सकल देव-मुनि आए तहवाँ।।


    करि स्तुति ते जहँ-तहँ गयऊ।


    रुचिकर कथा राम तब कहऊ।।


सुनि-सुनि कथा लखन-हिय हर्षहि।


लखि प्रभु मुदित सुमन नभ बरसहि।।


      बिरह-बिकल लखि नारद सोचहिं।


      फल मम साप राम अस भोगहिं।।


धारि हस्त निज आपनु बीना।


प्रभु पहँ गे मुनि ग्यान-प्रबीना।


      जाइ निकट सिर अवनत कइके।


      गावहिं चरित प्रभुहिं कहि-कहि के।।


सादर राम मुनिहिं उर लाए।


आसन दइ निज निकट बिठाए।।


     देखि राम अतिसय मन-मुदिता।


      हो प्रसन्न नारद तब कथिता।।


देहु नाथ बस इक बर मोंहीं।


जदपि सकल गति जानउ तोहीं।।


     मुनि तुम्ह सभ बिधि जानउ मोंहीं।


      कबहुँ न करुँ मैं मोंहीं-तोहीं ।।


भगत-दुराव न सपनहु करऊँ।


अस सुभाव मम तुम्ह भल जनऊँ।।


      कछु अदेय नहिं यहि जग माहीं।


      देइ सकहुँ नहिं मैं तुम्ह ताहीं।।


हर्षित मन तब नारद कहहीं।


प्रभु क नाम बहु अस श्रुति बदहीं।।


     राम-नाम सबतें बड़ होवै।


     भजि क जाहि जग निर्भय सोवै।।


राम-नाम अह ब्रह्म-प्रकासा।


औरउ नामहिं नखत अकासा।।


    अइसहिं प्रभु सभ जन उर बसहू।


     एवमस्तु रामहिं तब कहहू ।।


दोहा-जानि प्रभुहिं अति मुदित मन,नारद कहे सिहाहि।


        कारन कवन बता प्रभू,भयो न मोर बियाह ।।


 


**************************


आठवाँ अध्याय (श्रीकृष्णचरितबखान)-6


 


कबहुँ त छेद करहि मटका महँ।


छाछ पियहि भुइँ परतइ जहँ-तहँ।।


     लला तोर बड़ अद्भुत जसुमत।


     गृह मा कवन रहत कहँ जानत।।


केतनउ रहइ जगत अँधियारा।


लखतै किसुन होय उजियारा।।


     तापर भूषन सजा कन्हाई।


     मणि-प्रकास सभ परे लखाई।।


तुरतै पावै मटका-मटकी।


माखन खाइ क भागै छटकी।।


     लखतै हम सभ रत गृह-काजा।


     तुरतै बिनु कछु किए अकाजा।।


लइ सभ सखा गृहहिं मा आई।


खाइ क माखन चलै पराई ।।


दोहा-पकरि जाय चोरी करत,तुरतै बनै अबोध।


        भोला-भाला लखि परइ, धनि रे साधु सुबोध।।


       सुनतै जसुमति हँसि परीं,लीला-चरित-बखान।


       डाँटि न पावैं केहु बिधी,कान्हा गुन कै खान।।


       एक बेरि निज गृहहिं मा,माखन लिए चुराय।


       मनि-खंभहिं निज बिंब लखि,कहे लेउ तुम्ह खाय।।


                         डॉ0 हरि नाथ मिश्र


                           9919446372


नूतन लाल साहू

सावधान भारत मां के दुश्मनों


 


छक्के छुड़ा देते हैं, हम


दुश्मनों के, हर चाल को


हम वो पत्थर हैं,जिसे


दुश्मन,हिला सकते नहीं हैं


दुश्मनो के हैं,हम दुश्मन


यारो के,हम यार हैं


अमन में,फूलो की डाली


जंग में हम,तलवार है


हम वो पत्थर है,जिसे


दुश्मन,हिला सकते नहीं हैं


खेल नहीं है,अब टकराना


आजादी के दीवानों से


लाखो फौजे,लेकर आ जाये


टिक नहीं सकता,हमारी एकता के सामने


हम वो पत्थर हैं,जिसे


दुश्मन, हिला सकते नहीं है


हमारे बाजुओं में,आंधियों का जोर है


हमारी धड़कनों में, बादलों का शोर है


चली गई,अब गमो की रात


खुशी का सबेरा,हो गया है


हम वो पत्थर हैं,जिसे


दुश्मन,हिला सकते नहीं हैं


भारत मां की,धरती पर


यदि किसी,गैर का कदम पड़ा तो


उस कदम का,निशान तक


मिटा देंगे,हम


छक्के छुड़ा देते है,हम


दुश्मनों के हर चाल को


हम वो पत्थर है,जिसे


दुश्मन,हिला सकते नहीं हैं


नूतन लाल साहू


कालिका प्रसाद सेमवाल

हे मां वीणा धारणी वरदे


*******************


हे मां वीणा धारणी वरदे


विचलित मन को स्थिर कर दे


दूर करो सारी दुविधाएं


सब के मंगल का भाव जगा दो


सब के हित की बात लिखूं बस।


 


हे मां वीणा धारणी वरदे


शीश तुम्हारे चरणों में झुका रहे


हम अज्ञानियों को सद् बुद्धि दे


तुम्हारी कृपा से ये जीवन मिला है


जीवन को सार्थक कर दो मां


बस तुम्हारा ही हर वक्त ध्यान रहे।


 


हे मां वीणा धारणी वरदे


 नमन करता मां हंस वाहिनी


हूं अल्प बुद्धि और नादान भी


ले शरण में मां बस अपनी कृपा कर


दया की तुम भंडार हो मां


सब पर अपनी करुणा बरसाओं मां।


********************


कालिका प्रसाद सेमवाल


मानस सदन अपर बाजार


रुद्रप्रयाग उत्तराखण्ड


एस के कपूर श्री हंस

खिलना है


गुलाब सा तो काँटों से भी


मेल करो।।


 


खिलना है गुलाब सा तो


काँटो से भी मेल रखो।


जीवन में धूप छाँव का


भी हर खेल रखो।।


तप कर ही सोना भी 


बनता है तब चन्दन।


छिप कर पीछे नहीं बस


बढ़ने की आगे पहल रखो।।


 


इतिहास है गवाह संघर्षों


से जो परिचित नहीं होता।


वह दुनिया में कभी भी


चर्चित नहीं होता।।


अवगुण छोड़ते तब ही


गुण पाते हैं अपना स्थान।


बिन दुःख के भी सुख


कभी हर्षित नहीं होता।।


 


हर किसी से कुछ भी


सीखना वर्जित नहीं होता।


बिना खोये पुराना फिर


नया भी सृजित नहीं होता।।


वृक्ष व्यथित नहीं होते फल


फूल पत्ते भी खोकर।


आती नहीं निर्मलता अहम


भी जो विसर्जित नहीं होता।।


 


कर्म के पूजन से ही भाग्य


मेहरबान भी होता है।


परिश्रमी को जीतने के


लिए पूरा जहान होता है।।


मौसम आने पर ही फल


पकते हैं पूरे जाकर।


धैर्य बुद्धि विवेक से ही


जीवन में सम्मान होता है।।


##################


बड़े शहर, बड़े मकान।*


               *प्रेम विहीन आलीशान।।*


आजकल घर नहीं ,पत्थर के मकान होते हैं।


*प्रेम* से शून्य खामोश, दिल वीरान होते हैं।।


घर को रैन बसेरा कहना, ही ठीक होगा।


कुत्ते से सावधान दरवाजे, की शान होते हैं।।


 


घर में *प्रेम* भाव नहीं, सूने से ठिकाने हैं।


मकान में कम बोलते ,मानो कि बेगाने हैं।।


सूर्य चंद्रमा की किरणें ,नहीं आती हैं यहां।


संस्कारों की बात वाले, हो चुके पुराने हैं।।


 


हर किरदार में अहम , का भाव होता है।


स्नेह *प्रेम* नहीं दीवारों ,से लगाव होता है।।


समर्पण का समय ,नहीं किसी के पास।


आस्था आशीर्वाद का ,नहीं बहाव होता है।।


 


आदमी नहीं मशीनों , का वास होता है।


पैसे की चमक का, असर खास होता है।।


मूर्तियाँ ईश्वर की होती, बहुत ही आलीशान।


पर उनसे *प्रेम* कहीं नहीं, आसपास होता है।।


 


 *प्रेम* विहीन यहां पर,ऊंचे मचान होते हैं।


मतलब के ही आते, मेहमान होते हैं।।


दौलत से मिलती , नकली खुशी यहाँ।


पैसे पर खड़े घर नहीं ,बड़े मकान होते हैं।


 


एस के कपूर श्री हंस


सुनील कुमार गुप्ता

 जीवन में


सपनो के रंगों को साथी,


गहराने दो जीवन मे।


आशाओं के इस अंबर में,


कुछ संग रहने दो मन में।।


ये फूल डाली-डाली के,


खिलना इसी उपवन में।


सहेज रखना इनको साथी,


महकेगे इस जीवन में।।


कौन-कहाँ-होगा साथी फिर,


कोई जाने न जीवन में।


मधुर स्मृतियों ही साथी फिर,


होगी संग जीवन में।।


 


सुनील कुमार गुप्ता


निधि मद्धेशिया

अख़बार


 


लिपटाकर ख़बरों को पैरहन में


सजाते हैं बेवा को दुल्हन सा...


 


पेड़ों का दोहन कर के


बनाए कागज मन के


स्याही से सफेद को 


स्याह लिखा बढ़-चढ़ के।


 


समाचार कोई माई-बाप नहीं


पक्ष दृढ़ इतना कोई पाप नहीं।


 


बचा दहशतगर्दी इनका काम 


इनका न कोई अल्लाह न राम।


 


विभत्सता की सीमा लाँघ....


कटा सिर हाथ में पकड़े


छितरे हुए शव के टुकड़े


रक्त रंजित भूमि, माँ की छाती


से लगा माह भर का बच्चा


दृश्य यही भरे हुए है अखबार ये कच्चा।


 


बनती हैं चटपटी खबरें


हरे, गुलाबी नोटों में


हर पंक्ति की पहुँच केवल वोटों में।


 


ड्योढ़ी के बाहर मत जाओ 


जाएगी लाज तुम्हारी 


क्या याद करेंगी पीढ़ियाँ 


 


चोटिल होता भाव इंसानों का(स्त्री,पुरुष)


कारस्तानी अखबारों की 


झेलती हैं बेटियाँ इंसानों की। (साधारण घर)


 


 


निधि मद्धेशिया 


कानपुर


डॉ. राम कुमार झा निकुंज

तुम्हारा इन्तज़ार और हसरतें बेशुमार


 


तुम्हारा इन्तज़ार और बेशुमार हसरतें,


बीते कितने वासन्तिक और मधुश्रावण प्रिये।


जलती रही दावानल विरह के आतप हृदय में,


छटेंगे कोहरे आशा मन किरणें खिलेंगी हिये।


 


उपहास बन नित चितवन मुकलित रसाल मुदित वन,


कोयल पञ्चम स्वर कूक से चिढ़ाता विरही प्रिये।


बहे पूरबैया मन्द मन्द स्पन्दित विचलित मन,


उदास मन अभिलाष लखि घनश्याम नभ मिलन के। 


 


निहारती निशिवासर बस सरसिज नैन निशिचन्द्र,


पीड़ लखि तारे गगन पत्थर दिल करे परिहास प्रिये।


लजाती सकुचाती कुमुदिनी विहँसती पा चन्द्रहास,


पल पल जीवन कठिन तुझ बिन मिलन गलहार प्रिये।


 


लखि हर्षित चकोर युगल अनुराग मधुरिम मिलन,


बरसे घन भींगे तन पीन पयोधर वसन प्रिये।


सुरभित कमल कुसुमित वदन रतिराग उद्वेलित मन,


तजो मन राग प्रिय मधुश्रावण पुष्प पराग प्रिये।  


 


इन्तज़ार ए मुलाकात सनम सही नहीं जाती,


भूलें हसरत विरह , करें बेशुमार मुहब्बतें।


मैंने हमदम प्रियतम किया तन मन तुझे अर्पण, 


आओ प्रिय स्वप्न प्रीति मंजिल आशियाँ बनाएँ।


 


डॉ. राम कुमार झा निकुंज


नई दिल्ली


डॉ. हरि नाथ मिश्र

गांधी


गांधी तुझे सलाम तेरे नौनिहालों का,                      


मिलता जवाब तुझमें सारे सवालों का।।


        दुनिया को जो ठगे थे,


        गंदी- घिनौनी चालों से।


        ऐसे गुमानी गोरे जो,


         निज आसुरी कुचालों से।


विधिवत दिया सबक उन्हें अपने ख़यालों का।।


                               गांधी तुझे सलाम तेरे नौनिहालों का।।


         क्रांति का जवाब तुमने,


         शांति से दिया।


         पनाह शोषितों को बिना,


         भ्रांति के दिया।


तोड़ा ग़ुरूर तूने सारे भुवालों का ।।


                              गांधी तुझे सलाम तेरे नौनिहालों का।।


         लगता बहुत अजीब कि,


          तू है कोई मानव।


          कृषकाय तू भले रहे,


          देखा नहीं पराभव ।।


बन गए इतिहास कञ्चन अपनी मिसालों का।।


                             गांधी तुझे सलाम तेरे नौनिहालों का।।


          इंद्र के घमण्ड का,


          तुम कृष्ण रूप हो।


           पाप के विनाश का,


           तुम विष्णु रूप हो।


तुम ही अमोघ औषधि जग के बवालों का ।।


                           गांधी तुझे तुझे सलाम तेरे नौनिहालों का।।


          बढ़ता है पाप जब-जब,


         धरती पे चारो- ओर।


         कराहती है सभ्यता,


         ममता चुराये चोर।


होता है जन्म जग में तुम, जैसे वालों का।।


                          गांधी तुझे सलाम तेरे नौनिहालों का।।


          शत-शत नमन तुम्हें,


          विराट-दिव्य रूप!


          अस्थि-मांस-पिंजर,


           हे देव के स्वरूप!


श्रद्धा-सुमन स्वीकारो आज, अपने लालों का।।


                        गांधी तुझे सलाम तेरे नौनिहालों का।।


       ©डॉ. हरि नाथ मिश्र


======================


 अपराजेय गांधी


 व्यक्ति नहीं पूजा जाता,


पूजा जाता है व्यक्तित्व-


व्यक्ति तो होता है हाड़-मांस का एक पुतला, 


जिसकी नियति है गल जाना-सड़ जाना-पूर्ण रूपेण


समाप्त हो जाना।


अमरत्व,दैवत्व की श्रेणी में आता है व्यक्तित्व-


कल था-आज है-


और कल भी रहेगा।


उसके व्यक्तित्व से होती है,


व्यक्ति की उपादेयता।


सुन्दर-स्वस्थ-हट्टा-कट्टा वह भले ही हो-


पर,मर्यादा विहीन गठीला बदन किसी भी-


काम का नहीं।


राम-कृष्ण-बुद्ध-ईसामसीह-मोहम्मद मात्र-


नाम और व्यक्ति ही नहीं-मूल्यों-आदर्शों एवं


मर्यादाओं के प्रतीक उदात्त व्यक्तित्व हैं।


बाधाएँ-रोड़े-अनअपेक्षित घटनायें राह की


बाधक नहीं हो सकतीं-


चेत पक्का हो लक्ष्य अथवा ध्येय।


कठिनाइयाँ तो आएँगीं-अपना काम करेंगीं।


हमें भी अपना काम करना है।


  कठिनाइयों से लड़ना है।


स्थापित करना है मूल्यों को,मर्यादाओं को।


 टूटना नहीं-बिखरना नहीं-मुड़ना नहीं-


बस,चलते ही रहना है-चलते ही रहना है -


       था यही सिद्धांत उसका


कहते हैं जिसे हम


        गांधी।


गांधी व्यक्ति नहीं,


व्यक्तित्व है।


एक प्रभावशाली सोच का


नाम है गांधी।


उनकी मानवी श्रेष्ठ सोच ने ही


बना दिया उन्हें अमर


आज भी उनके अस्तित्व और


श्रेष्ठ सोच से नहीं किया जा सकता


कदापि इनकार।


सत्य-अहिंसा का पुजारी,


वह महा मानव है विराट व्यक्तित्व-


अपराजेय हैं गांधी।


      ©डॉ0हरि नाथ मिश्र


 9919446372


विनय साग़र जायसवाल

प्यार की फिर शुरूआत होने लगी


रोज़ उनसे मुलाकात होने लगी


 


उनके जलवों से रौशन है दिल का जहाँ 


उनकी इतनी इनायात होने लगी


 


हर नज़र मुझको हैरत से तकती है अब


उनसे जब से मेरी बात होने लगी


 


कितना मौसम ये दिलकश अचानक हुआ


आप हैं पास बरसात होने लगी


 


दोस्तों ने कहा उनसे ऐसा भी क्या 


उनको हमसे शिकायात होने लगी


 


वक़्त ने हमसे बदली है ऐसी नज़र


बाज़िये-ज़ीस्त में मात होने लगी


 


दोस्तों का भला अब यक़ीं क्या रहा


दोस्ती में यहाँ घात होने लगी


 


रोज़ *साग़र* ख़यालों में आते हैं वो


यूँ भी रंगीन हर रात होने लगी 


 


🖋️विनय साग़र जायसवाल


कालिका प्रसाद सेमवाल

हे मां सरस्वती सद्गुण दे


********************


विद्या वाणी की देवी मां सरस्वती


मुझ पर मां तुम उपकार करो,


मैं बनूं परोपकारी करु मानव सेवा


मेरे अन्दर ऐसा विश्वास भरो।


 


मां जले ज्ञान दीपक, जीवन में उत्थान हो,


अवगुणों को खत्म कर दो


हो जाय कल्याण मां,


चुन चुन कर सद् गुण के मोती


मेरी झोली में तुम भर दो मां।


 


हे मां लेखनी वाणी में मधुरता दे


भाव सरस अभिव्यक्ति हो,


हे मां सरस्वती वीणा धारणी


सब के जीवन में रस तुम भरदों मां।


********************


तुम पर मेरा मन रमता है


प्रिय तुम मुझसे दूर न जाओ,


मेरे मन में आज नशा है।


घूंघट खोल रही हैं कलियां,


झूम रही मतवाली अलियां।


नन्दन वन की वायु चली है,


सुरभित दिखी आज गली है।


लगती सुखमय मधुरिम बेला,


जीवन नन्दन मंजुल मेला।


उठती मन में मधुरिम आशा,


मिटती सारी थकित पिपासा।


 


तुम भी हंस दो मेरे, प्रियवर,


आज़ गगन में चांद हंसा है।


 


तुम कुछ लगती इतनी भोली,


जैसे कोयल की मधु बोली,


तुमको पाकर धन्य हुआ मैं,


औरों का तो अन्य हुआ मैं।


तुमसे सारा जीवन हंसता,


तुम पर मेरा मन है रमता।


मेरे मन की तुम्हीं कली हो,


तेरे मन का एक अली हूं।


 


घूम रहा हूं आज चारों ओर


नयनों का यह बाण धंसा है।


 


मेरे मन में आज विवश लाचारी,


तुम पर मैं जाता बलिहारी।


कंचन सी यह तेरी काया,


मेरे मन की सारी माया।


खींच रही है बरबस मन को,


तोड़ रही है सारे प्रन को।


अंचल छोर तुम्हारा उड़ता,


मेरे मन में गान उमड़ता।


 


रिमझिम चलती मधुर बयारें,


मेरे मन में प्यार बसा है।


 


मोड़ चुका जो जीवन मन को,


उसके बिन सम्भव क्या जन को।


लोल लहरियां उर के कोने,


भाव रचाकर जाती सोने।


हंस हंस कर तुम मत मुड़ जाओ।


बिछुड़न की नित रीत निराली,


मिलना संभव दो दिन आली।


 


अंग अंग थिरक रही हैं माया,


वस्त्र सुसज्जित-रूप रूप तुम्हारा।


******************


कालिका प्रसाद सेमवाल


मानस सदन अपर बाजार


रुद्रप्रयाग उत्तराखंड


सुनीता असीम

तुम कहो रूठकर हम किधर जाएंगे।


अब रहोगे जिधर तुम उधर जाएंगे।


***


फेर लोगे अगर आप हमसे नज़र।


तो खुदा की कसम हम बिखर जाएंगे।


***


आपकी जुस्तजू सिर्फ दिल में रही।


आपका वस्ल पा हम निखर जाएंगे।


***


हिज्र पाके समझ आ गया ये हमें।


आपके साथ अब दिल जिगर जाएंगे।


***


रास्ते में अगर आ गए ख़ार तो।


पांव रखकर उन्हीं पर गुज़र जाएंगे।


***


प्यार सच्चा अगर साजना का रहा।


हम नहीं फिर इधर से उधर जाएंगे।


***


आरज़ू अब सुनीता यही कर रही।


हम इन्हीं आशिकों के नगर जाएंगे।


************"**"**"*********


हम तो डरते हुए दीवार से लग जाते हैं।


 


देख के भूत को बीमार से लग जाते हैं।


****


इस कदर प्यार उन्हें करते रहे हैं हम तो।


वो हमें इश्क की दरकार से लग जाते हैं।


****


मुस्कराकर वो हमें देख लिया करते जो।


ख्वाब अपने सभी साकार से लग जाते हैं।


****


है जमाने को खबर इश्क की अपने ऐसी।


सबकी दीवार पे इश्तिहार से लग जाते हैं।


****


ऐसी बेमोल मुहब्बत की तमन्ना सबको।


इसको पाने को खरीदार से लग जाते हैं।


****


सुनीता असीम


एस के कपूर श्री हंस

यह सच्ची दोस्ती इक बेशकीमती


दौलत है जहान की।


 


ये दिल से निकले आशार हैं


इन्हें आरपार जाने दो।


हम तेरी दोस्ती के हकदार हैं


हमें प्यार पाने दो।।


तेरी सच्ची दोस्ती एक नेमत


जो हमने पाई है।


अपने रंजो गम भी बेफिक्र


हम तक आने दो।।


 


दोस्त के घर की राह कभी


लंबी नहीं होती।


दोस्ती जो होती सच्ची कभी


दंभी नहीं होती।।


दो जिस्म एक जान मानिये


सच्ची दोस्ती को।


ऐसी दोस्ती जानिये कभी


घमंडी नहीं होती।।


 


सच्ची दोस्ती में गरूर नहीं


गर्व होता है।


एक को लगे चोट दूसरे को


दर्द होता है।।


इक सोच इक नज़र इक नज़रिया 


है बन जाता।


मैं नहीं वहाँ पर सिर्फ हम का ही


हर्फ होता है।।


 


सच्ची दोस्ती में स्वार्थ नहीं बस


विश्वास होता है।


इस सच्ची दौलत में बसआपस का


आस होता है।।


ढूंढते बस अच्छाई ही बुराई की तो


बात होती नहीं।


गर भीग जाये एक तो फिर दूसरा


लिबास होता है।।


=======================


 


आजकल घर नहीं ,पत्थर के मकान होते हैं।


*प्रेम* से शून्य खामोश, दिल वीरान होते हैं।।


घर को रैन बसेरा कहना, ही ठीक होगा।


कुत्ते से सावधान दरवाजे, की शान होते हैं।।


 


घर में *प्रेम* भाव नहीं, सूने से ठिकाने हैं।


मकान में कम बोलते ,मानो कि बेगाने हैं।।


सूर्य चंद्रमा की किरणें ,नहीं आती हैं यहां।


संस्कारों की बात वाले, हो चुके पुराने हैं।।


 


हर किरदार में अहम , का भाव होता है।


स्नेह *प्रेम* नहीं दीवारों ,से लगाव होता है।।


समर्पण का समय ,नहीं किसी के पास।


आस्था आशीर्वाद का ,नहीं बहाव होता है।।


 


आदमी नहीं मशीनों , का वास होता है।


पैसे की चमक का, असर खास होता है।।


मूर्तियाँ ईश्वर की होती, बहुत ही आलीशान।


पर उनसे *प्रेम* कहीं नहीं, आसपास होता है।।


 


 *प्रेम* विहीन यहां पर,ऊंचे मचान होते हैं।


मतलब के ही आते, मेहमान होते हैं।।


दौलत से मिलती , नकली खुशी यहाँ।


पैसे पर खड़े घर नहीं ,बड़े मकान होते हैं।।


एस के कपूर श्री हंस


संजय जैन

खाने को रोटी नहीं


रहने को नहीं मकान।


पर फिर भी कहते 


मेरा भारत महान।।


 


पहले ही रोजगार नहीं थे


और थे जो भी चले गए।


कुल मिलाकर फिर से


हम बेरोजगार हो गये है।


और फिर से परिवार


पर बोझ बन गये है।


सच कहें तो अच्छे दिन


हमारे देश के आ गए है।।


 


किया धरा किसी और का 


भोग रहे है हम सब।


फिरभी सपने दिखा रहे है


पर रोजगार नहीं दे पा रहे।


अब तो इंजीनियर एमबीए...


बेच रहे है मूफली।


क्योंकि पापी पेट का 


जो अब सवाल है।।


 


क्या से क्या हालत


अब देश का हो रहा है।


इसलिए बेरोजगारी दिवस


बड़ी धूमधाम से मना रहे है।


शायद इसे ही लोग आधुनिक 


आत्मनिर्भर भारत कह रहे है।


और अपनी बेबसी पर 


हमसब आज रो रहे है।।


 


न कोई चिंता न कोई काम


घर बैठे देखते रहो सपने।


सपने देखना भी तो है 


एक बहुत बड़ा काम।


जिसे रोजगार में गिना जाता है


और आंकड़े यही दर्शा रहे है।


की कहां हमारे देश में


कोई बेरोजगार बचे है।।


 


इसलिए तो लोग 


कह रहे है कि।


खाने को रोटी नहीं


रहने को नहीं मकान।


पर फिर भी कहते 


मेरा भारत महान।।


 


जय जिनेन्द्र देव


संजय जैन (मुम्बई)


**********************


सर उठा कर चल नहीं सकता


बीच सभा के बोल नहीं सकता


घर परिवार हो या गांव समाज


हर नजर में घृणा का पात्र हूँ।


क्योंकि “बेटी” का बाप हूँ ।।


 


जिंदगी खुलकर जी नहीं सकता


चैन की नींद कभी सो नहीं सकता


हर एक दिन रात रहती है चिंता


जैसे दुनिया में कोई श्राप हूँ।


क्योकि “बेटी” का बाप हूँ।।


 


दुनिया के ताने कसीदे सहता,


फिर भी मौन व्रत धारण करता,


हरपल इज़्ज़त रहती है दाँव पर,


इसलिए करता ईश का जाप हूँ !


क्योकि “बेटी” का बाप हूँ !!


 


जीवन भर की पूँजी गंवाता


फिर भी खुश नहीं कर पाता


रह न जाए बेटी की खुशियो में कमी


निश दिन करता ये आस हूँ


क्योकि “बेटी” का बाप हूँ।।


 


अपनी कन्या का दान करता हूँ


फिर भी हाथजोड़ खड़ा रहता हूँ।


वरपक्ष की इच्छा पूरी करने के लिए


जीवन भर बना रहता गूंगा आप हूँ


क्योकि “बेटी” का बाप हूँ।।


 


देख जमाने की हालत घबराता


बेटी को संग ले जाते कतराता।


बढ़ता कहर जुर्म का दुनिया में


दोषी पाता खुद को आप हूँ।


क्योकि “बेटी” का बाप हूँ।।


 


हाल ही में जो घटना बेटी के साथ घटी उसे देखकर अपने आप को रोक नहीं पाया। फिर लिखी मैंने उपरोक्त रचना जो शायद आपको जरूर झकझोर देगी।


जय जिनेन्द्र देव


संजय जैन (मुम्बई )


मदन मोहन शर्मा सजल

खूनी बाज़ हैं


~~~~~~~~


गद्दी पर बैठे साँप सपोले, गद्दारी के सरताज हैं


कानूनों की उड़ी धज्जियां, मंडराते खूनी बाज़ हैं।


 


सरेआम चौराहों खेतों गलियों में चौबारों में


लुटती इज्जत अबलाओं की गुंडों का राज हैं,


 


न्यायव्यवस्था नग्न खड़ी है, रक्षक भक्षक बन बैठे


पुलिस भेष में ठगी दिहाड़ी अफसर दगाबाज हैं,


 


नंगा कर उल्टा लटकादो गर्म सलाखें पीठ घुसादो


संगीन सजाएं लागू हो तो कानूनों पर नाज हैं,


 


जो भी रौंदे अबलाओं को दे संरक्षण गुंडों को


ऐसे अत्याचारी बलात्कारी की मौत ही सुख साज है।


★★★★★★★★★★★★


मदन मोहन शर्मा सजल


नूतन लाल साहू

सत्य की शक्ति


 


निर्भीक वहीं होता है


जो सत्यवादी होता है


सत्य,वहीं बोल सकता है


जो निर्भीक होता है


राजा हरिश्चन्द्र


साक्षात उदाहरण है


बूढ़ा,बच्चा और जवान


उन्हें आज भी याद करता है


यही तो सत्य की, शक्ति है


अगर कोई,खिलाफ होता है


तो,हो जाने दो


ये सब धुआं है


कोई आसमान थोड़ी है


चांद और सूरज अटल है


कोई बदल नहीं पाया,इसके पथ को


यही तो सत्य की,शक्ति है


जिंदगी तो हमारी है


आखिरी सांस भी,तुम्हारी है


सांच को आंच,नहीं प्यारे


प्रभू जी भी,साथ देता है


जो झूठ का सहारा लेता है


सर झुकाकर,बात करता है


दिन वहीं है, रात भी वही है


यही तो सत्य की,शक्ति है


ये जमाना,लाख गुजरे


छोटे बड़े कई,हादसों से


पर जो,सत्य पथ पर अडिग रहता है


उसे कोई डर,नहीं रहता है


ये जिंदगी की असलियत,क्या है


खुद ही,समझ जाओगे


जिस दिन,राजा हरिशचंद्र और


भक्त प्रहलाद,को जान जाओगे


सत्य की डगर,कठिन होता है


पर वही,भवसागर पार कराता है


यही तो सत्य की,शक्ति है


नूतन लाल साहू


डॉ0 हरि नाथ मिश्र

आठवाँ अध्याय (श्रीकृष्णचरितबखान)-5


 


ग्वाल-बाल लइ साथे-साथे।


फोरहिं मटकी गोपिन्ह माथे।।


   घर मा घुसि के कबहुँ कन्हाई।


   ग्वाल-बाल सँग मक्खन खाई।।


भागहिं इत-उत पकरि न पावहिं।


जदपि कि गोपिहिं पाछे धावहिं।।


    बछरू छोरि पियावहिं गैया।


    चोरी-चोरी किसुन कन्हैया।।


डाँट परे जब हँसहिं ठठाई।


तब भागै जनु पीर पराई।।


     बड़ नटखट तव लाल जसोदा।


     कहि-कहि गोपिन्ह लेवहिं गोदा।।


बहु-बहु जतन करै तव लाला।


चोरी-चोरी जाइ गोसाला।।


      बछरू-गैयन छोरि भगावै।


      निज मुख कबहूँ थनइ लगावै।।


खाइ-बहावै-फोरै गागर।


तोर लला ई नटवर नागर।।


      ग्वाल-बाल सँग खाइक माखन।


       कछुक देइ ई बनरन्ह चाखन।।


सुनउ जसोदा गोपी कहहीं।


कबहुँ त लला तोर अस करहीं।।


    सोवत सिसुन्ह रोवाइ क भागै।


    माखन मिलै न गृह जब लागै।।


निन्ह हाथ नहिं पहुँचै छीका।


चढ़ि ऊखल पर तुरत सटीका।।


     अथवा धयि पीढ़ा दुइ-चारा।


      तापर चढ़ि तहँ पहुँचि दुलारा।।


कबहुँ-कबहुँ चढ़ि गोपिन्ह काँधे।


पहुँचै जहाँ लच्छ रह साधे।।


    मटका भुइँ उतारि सभ खावैं।


    जदपि सतावहिं पर बड़ भावैं।।


दोहा-तोर लला बड़ ढीठ अह,चंचल-नटखट-चोर।


        सुनहु जसोदा गृहहिं महँ,प्रबिसइ बिनु करि सोर।।


                      डॉ0 हरि नाथ मिश्र


                       9919446372


Featured Post

दयानन्द त्रिपाठी निराला

पहले मन के रावण को मारो....... भले  राम  ने  विजय   है  पायी,  तथाकथित रावण से पहले मन के रावण को मारो।। घूम  रहे  हैं  पात्र  सभी   अब, लगे...