डॉ. रामबली मिश्र हरिहरपुरी

*हृदय परिवर्तन*


 *(चौपाई )*


 


हृदय बदलना बहुत जरूरी।


हृदयशून्यता पशुता पूरी।।


 


संवेदना हॄदय की थाती।


दिव्य हृदय की है यह छाती।।


 


बिन संवेदन मनुज क्रूर है।


मानवता से बहुत दूर है।।


 


सदा पापरत दूषित व्यसनी।


भोगी कामी गंदी करनी।।


 


संवेदन का जहँ संकट है।


दैत्य दानवों का जमघट है।।


 


बिन संवेदन टूट रहे सब।


सुंदरता को लूट रहे अब।।


 


बहुत बढ़ रहे आज दरिंदे।


अब तो जलाये जाते जिंदे।।


 


बलात्कार का हाल बुरा है।


करती रुदन-विलाप धरा है।।


 


मानवता हो रही विखण्डित।


दानव होता महिमामण्डित।।


 


संवेदना स्वर्ग की रानी।


रोते अब पृथ्वी के प्रानी।।


 


संवेदना धर्म की देवी।


बन संवेदन का नित सेवी।।


 


इस देवी को नित्य मनाओ।


दिल में इनको अब बैठाओ।।


 


यज्ञ-हवन से पूजन करना।


दीप-धूप से वंदन करना।।


 


हाथ जोड़ कर करो निवेदन।


दिल में उतरो हे संवेदन।।


 


दिल में कोमल भाव जगाओ।


आँखों में आँसू भर लाओ।।


 


करुणा-गंगा नित्य बहाओ।


उत्तम पावन गाँव बसाओ।।


 


छात्र पढ़ें सब मानवता को।


दफनाते रह दानवता को।।


 


इकजुटता है अत्यावश्यक।


मानव संरक्षण आवश्यक।।


 


अब संवेदन को जिंदा कर।


कोमल चित कृपाल प्रिय बनकर।।


 


रचनाकार:डॉ. रामबली मिश्र हरिहरपुरी


9838453801


दीपक शर्मा

*जनता और जन-प्रतिनिधि*


 


कुछ लोग 


मंच पर बैठे हैं


और कुछ लोग 


मंच के नीचे थे


मंच पर बैठे लोग


जन-प्रतिनिधि थे


और मंच के नीचे 


आम जनता थी


जन-प्रतिनिधि लोग


बता रहे थे


इतिहास में दर्ज


अपने पुरुखों की कहानियाँ


दिखा रहे थे 


फ्रेम में मढ़ाये उनके चित्र


और चित्र के नीचे उनके स्वर्णिम नाम


वे नाम


राजा के थे


मंत्री के थे


सलाहकार और मनीषी के थे


 


एक दूसरा मंच था


जिस पर बैठे


कविगण, लेखक और दार्शनिक 


उनकी महिमा का


प्रशस्ति-गान कर रहे थे


 


मौन जनता


उन चित्रों में


इतिहास में


गायन में


ढूँढ़ रही थी


अपने पुरुखों का नाम


जिन्होंने सबसे आगे बढ़कर


सबसे ज्यादा दी थी कुर्बानियाँ


वे प्रजा थी


आम सैनिक थे


सेवक थे


वे तब भी


मंच के नीचे थे


और आज भी नीचे ही हैं


विभिन्न शिलाओं और इतिहास के पन्नों पर


उनके नाम


न तब थे


न अब हैं। 


 


@दीपक शर्मा


जौनपुर उत्तर प्रदेश


डॉ. रामबली मिश्र हरिहरपुरी

*डॉ.रामबली मिश्र के बोल*


 


1-निर्दयता कसाई की झोपड़ी है ।


 


2-अनुदारता शोषण/दोहन का गेह है।


 


3-घृणा अधर्म की जननी है।


 


4-विद्वेष कलह और विनाश का कारण है।


 


5-शोषण गरीबी का जनक है।


 


6-कृतघ्नता पापी/महा स्वार्थी की जननी है ।


 


7-परहित की सोच से आनंद -फल की प्राप्ति होती है।


 


8-निरंकुशता अति महत्वाकांक्षा और असंतुलित व्यक्तित्व का सूचक है।


 


9-अपराधबोध सुधारात्मक होता है।


 


10-कुंठा मानसिक विकृति है।


 


11-सरलता दैवी गुण है।


 


रचनाकार:डॉ. रामबली मिश्र हरिहरपुरी


9838453801


डॉ. हरि नाथ मिश्र

*दुर्दिन*


काँधे पर बिटिया धरे,गाँव-शहर से दूर।


लाज बचाने जा रहा,वह होकर मजबूर।।


 


भूखा-प्यासा,तन-थकित,उखड़े-उखड़े पाँव।


इधर-उधर वह फिर रहा,मिले न समुचित ठाँव।।


 


जहाँ देखिए गिद्ध हैं,माँसखोर घनघोर।


दृष्टि गड़ाए वे रहें, निशि-वासर चहुँ-ओर।।


 


ज्ञान-शून्य-हवसी दनुज,दें न उम्र का ध्यान।


नोचें दो-दो-तीन मिल, विवश बदन नादान।।


 


कामुक-भुक्खड़ नर अधम,होते बड़े कठोर।


तन सँग कर खिलवाड़ ये,हरें प्राण ज्यों चोर।।


 


मात-पिता,भाई-बहन,और सकल परिवार।


विवश और लाचार हो,देखें अत्याचार ।।


 


कभी-कभी सरकार भी,हो जाती लाचार।


विधिक व्यवस्था अति लचर,छीने जन-अधिकार।।


 


अबल और असहाय का, होता आटा गील।


रोटी यदि बन जाय भी,झट से छीने चील।।


                   ©डॉ0हरि नाथ मिश्र


                        9919446372


डॉ. रामबली मिश्र हरिहरपुरी

*बोलो मेरे मीत*


*मात्रा भार 11/16*


 


बोलो मेरे मीत।


कहीं न जाना मुझे छोड़कर।।


 


आते रहना मीत।


एक अकेला आना चलकर।।


 


मेरे प्यारे मीत।


साझा करना समय बिताकर।।


 


तुम अजीज हे मीत।


रस बरसाना अब प्रियतम पर।।


 


तुम्हीं एक हो मीत।


तू ही हो मेरे अति दिलवर।।


 


दिल में रहना मीत ।


आजीवन बाँहों में बंधकर।।


 


चुंबन करना मीत।


सतत रहें अब इक संगम पर।।


 


साथ-साथ रह मीत।


कभी न जाना कहीं भटककर।।


 


बन जायें इक मीत।


रसाकार मधु अमृत बनकर।।


 


बहकाना मत मीत।


चलना है बस प्रीति पंथ पर।।


 


रचनाकार:डॉ. रामबली मिश्र हरिहरपुरी


9838453801


निशा"अतुल्य"

गीत


8.10.2020


अंतर्मन 


 


कहाँ छुपे हो तुम बनवारी 


ढूंढ रही विपदा की मारी 


कब आओगे कृष्ण मुरारी । 


 


कहाँ गए तुम मुझे बताओ


इतना ना तुम मुझे सताओ ।


भटक रही हूँ जग की मारी  


कब आओगे कृष्ण मुरारी ।


 


ढूंढ रही विपदा की मारी 


कहाँ छुपे हो तुम बनवारी ।


 


बंसी की धुन,यमुना का तीरा


ढूंढ रही मैं बन कर मीरा ।


मन बेकल से तुम्हें पुकारूँ 


कब आओगे प्रियतम प्यारे।


 


ढूंढ रही विपदा की मारी 


कहाँ छुपे हो तुम बनवारी ।


 


अंतर्मन में तुम्हीं बसे हो 


तन मन प्रण में तुम रहते हो ।


फिर क्यों इतनी देर लगा दी 


अखियाँ ढूंढे विरह की मारी ।


 


ढूंढ रही विपदा की मारी 


कहाँ छुपे हो तुम बनवारी ।


 


स्वरचित 


निशा"अतुल्य"


डॉ. रामबली मिश्र हरिहरपुरी

*प्रियता*


 


1-सर्वप्रिया का संपादन हो।


 


2-नैतिक मानव में सुंदरता।


 


3-तथ्यपरक हर बातचीत हो।


 


4-मनोरोग की दवा करो अब।


   रोगी बढ़ते दिखते हैं अब।।


 


5-चक्र सुदर्शन रहें हमेशा।


 


6-दानवीय दुष्कृति को कुचलो।


 


7-तोड़ो दानव की प्रतिमाएँ।


 


8-मत स्वीकारो कभी कुसंगति।


 


9-कानून कड़ाई से पालित हो।


 


10-हो अपराधमुक्त सबका मन 


 


11-पर्यावरण विशुद्ध चाहिये।


 


रचनाकार:डॉ. रामबली मिश्र हरिहरपुरी


9838453801


विनय साग़र जायसवाल

ग़ज़ल 


 


ज़ीस्त ख़ुद दुश्वार करता आदमी 


होड़ की दुनिया में खोया आदमी


 


आपको यह हर तरफ़ मिल जायेगा


अपनी तारीफ़ों में डूबा आदमी 


 


हैं लुटेरे हर तरफ़ बाज़ार में 


देखिये कितना लुटेगा आदमी 


 


 नोचते हैं लोभ लालच हर तरफ़ 


किस तरह इनसे बचेगा आदमी 


 


रोटी कपड़ा और इक घर के लिए 


रात दिन घुटता है पिसता आदमी 


 


हुक़्म सरकारी बदलते रोज़ हैं 


हाय कब तक यूँ पिसेगा आदमी 


 


 आसमाँ को वो ही *साग़र* छू सका


वक़्त के जो साथ बदला आदमी 


 


🖋️विनय साग़र जायसवाल 


8/10/2020


 


🖋️विनय साग़र जायसवाल


डॉ.राम कुमार झा "निकुंज

दिनांकः ०८.१०.२०२०


दिवसः गुरुवार


छन्दः मात्रिक


विधाः दोहा


शीर्षकः जनमत समझो मंत्र


 


जनता से सत्ता बनी , जनता से गणतन्त्र।


जनता दे सत्तावनत , जनमत समझो मंत्र।।१।।


 


करो प्रगति जनता सदा ,चिन्तन जन कल्याण।


निर्भय सम्बल जब प्रजा, हो सत्ता का त्राण।।२।।


 


लोकतन्त्र होता सफल , हो समता अधिकार।


संविधान सम्मत चले , नीति प्रीति आधार।।३।।


 


अभिव्यक्ति स्वाधीनता , करे न देश विरोध।


सबसे ऊपर देश हित , बने नहीं अवरोध।।४।।


 


सृजन कुंज भारत बने , कुसमित गंध निकुंज।


जन विकास केवल सुरभि , नवभारत जयगुंज।।५।।


 


राष्ट्र भक्ति रग रग भरे , भावित मन सम्मान।


हरित भरित धरती वतन , बने राष्ट्र वरदान।।६।।


 


मातृशक्ति रक्षण वतन , हो सबला निर्भीत।


लज्जा श्रद्धा माँ सुता , हो बहना प्रिय मीत।।७।।


 


मिटे देश हर दीनता , मानव सोच विचार। 


शुष्क अधर मुस्कान भर,खुशियाँ मिले अपार।।८।।


 


परम वीर भारत बने , शौर्य चक्र अभिमान।


जीवन हो अर्पित वतन , मानस राष्ट्र विधान।।९।।


 


मुक्तामणि बन देश का , भारत माँ गलहार।


करो मान जनता वतन , दो विकास उपहार।।१०।।


 


रखो मान चौथा नयन , लोकतंत्र संचार।


सत्य न्याय अभिव्यक्ति हो,समरस नीति विचार।।११।।


 


रखो तिरंगा शान को , गर्व करो पुरुषार्थ।


जीओ पलभर जिंदगी , देशभक्ति परमार्थ।।१२।।


 


कवि✍️डॉ.राम कुमार झा "निकुंज"


रचनाः मौलिक (स्वरचित)


नई दिल्ली


सुनीता असीम

जैसा है महीना वैसा ही साल गया है।


इस रोग करोना ने बुरा हाल किया है।


***


आजाद वतन है भले मक्कार नहीं कम।


आस्तीन के नागों ने दिया इसको दगा है।


***


पूरे किए हैं बाप ने संतान के सपने।


पर बाद में उनसे ही मिला जख्म सहा है।


***


जीता नहीं कोई है हमेशा ही यहां पर।


आया है वहां से जो वो वापस भी गया है


***


 जिसमें नहीं है प्रेम दया घोर पशु वो।


बेकार ही इंसान वो दुनिया में रहा है।


***


सुनीता असीम


८/२/१०/२०२०


डॉ. हरि नाथ मिश्र

*चतुर्थ चरण*(श्रीरामचरितबखान)-3


मैं सेवक प्रभु मोरा स्वामी।


पद-सरोज कै मैं अनुगामी।।


   सेवक कै स्वामी आधारा।


   सुतहिं क जस जग मातु सहारा।।


अस सुनि बचन राम भगवाना।


तुरत लगाए उर हनुमाना ।।


      कहे सुनहु मम प्रिय हनुमाना।


       तुम्हतें अधिक न अनुजहिं जाना।।


समदरसी मोंहे सभ कहहीं।


पर अति प्रिय मम सेवक रहहीं।।


      लखि अति मुदित राम सन्मुखहीं।


      हनूमान तब सादर कहहीं ।।


दूर सिखर-गिरि कपि-पति रहई।


नाम सुग्रीव दास तव अहई ।।


    तेहिं सँग प्रभु अब करउ मिताई।


    सो माता सिय पता लगाई ।।


भेजि कपिन्ह कहँ कोटिक इत-उत।


अवसि बताई सिय रहँ दिसि कुत।।


     अस बताइ चढ़ाइ निज पीठहिं।


      पहँ गे हनू सुग्रीवहिं डीठहिं।।


लखि के राम-लखन-सिय आवत।


कपि-पति गयो तुरत तहँ धावत।।


      झट कपीस प्रनमहिं रघुनाथा।


      पुलकित तन झुकाइ निज माथा।।


भेंटा लखन सहित प्रभु रामा।


सादर बहु सनेह निज धामा।।


दोहा-तब हनुमत दोउ पच्छ कै, कथा कहेउ समुझाइ।


        प्रीति-रज्जु बाँधे तिनहिं,पावक पाक जराइ।।


                      डॉ0हरि नाथ मिश्र


                       9919446372


डॉ. हरि नाथ मिश्र

*नवाँ अध्याय*(श्रीकृष्णचरितबखान)-2


गाँठ चोटिका जब भे भंजित।


गिरनहिं लगे पुष्प जे गुंथित।।


     सुमुखी मातु जसोदा अंतहिं।


     निज कर गहीं लला भगवंतहिं।।


लगीं डराने अरु धमकाने।


डरपहिं किसुन न जाइ बखाने।।


     धनि-धनि भागि तोर हे माई।


     लखि तव भृकुटी डरैं कन्हाई।।


रोवहिं किसुन नियन अपराधी।


ब्रत टूटे जस रोवहिं साधी।।


      मलत अश्रु कज्जल भे आनन।


      अश्रु बहहि बरसै जस सावन।।


कान्हा कहहिं न डाँटउ माई।


अब नहिं मटुकी फोरब जाई।।


     सुनि अस बचनहिं किसुन बिधाता।


      सिंधु-नेह उमड़ा उर माता ।।


पुनि बिचार जसुमति-मन आवा।


बान्हि रखहुँ जे भाग न पावा।।


     रज्जु लेइ तुरतै तहँ बान्हा।


     जायँ न ताकि पराई कान्हा।।


जानहिं नहिं जनु प्रभु कै महिमा।


बाहर-भीतर नहिं कछु वहि मा।।


    प्रभु कै अंत न औरउ आदी।


     रहँ प्रभु पहिले रह जग बादी।।


बाहर-भीतर जगत क रूपा।


रहहिं प्रभू बस सतत अनूपा।।


     जे कछु इहवाँ परै लखाई।


     प्रभुहिं सबहिं मा जानउ भाई।।


इंद्री परे, अब्यक्त स्वरूपा।


अजित-अमिट अरु अलख-अनूपा।।


दोहा-किसुन अनंत बिराट अहँ,बिष्नु- रूप- अवतार।


        जे नहिं जानै भेद ई,मूरख कह संसार ।।


                    डॉ0हरि नाथ मिश्र


                     9919446372


कालिका प्रसाद सेमवाल

*मांँ हंस वाहिनी ,सुमति दायिनी*


********************


मांँ हंस वाहिनी सुमति दायिनी,


अपनी करुणा बरसाओं मां,


स्फटिक माला सुंदर शोभिता,


करुणा रुपेण वीणा वादिनी,


शुभ्र धवल कमलासिनी मां।


 


मां मैं तुम्हारे चरणों में शीश झुकाऊं,


मैं भी काव्य का राही बन जाऊं,


भावों की लड़ियों को मैं भी गूथू,


मुझ पर तुम अपनी कृपा बरसाओं मां,


यही वंदना मैं नित तुमसे करु।


 


हे मां अंधकार को दूर कर


दिव्य प्रकाश बिखराओ मां,


तेरी महिमा कैसे बखान करु मां,


काम ,क्रोध ,मद लोभ मन से हटा दो,


इस दुर्लभ काया को इतनी शक्ति दें दो मां


********************


कालिका प्रसाद सेमवाल


मानस सदन अपर बाजार


रुद्रप्रयाग उत्तराखण्ड


एस के कपूर "श्री हंस"

*रचना शीर्षक।।जिन्दगी रोज़ इक*


*नया सबक सिखाती है।।*


 


हर रोज़ जिंदगी हमें नया कुछ,


बता रही है।


बात अनुभव कीं भी नई वो,


सुना रही है।।


हुम कर देते हैं अनसुना, 


अनदेखा इन्हें।


सच रोज़ जिंदगी हमें आईना,


दिखा रही है।।


 


किताब की मानिंद है जिंदगी,


बस पढ़ते जाईये।


सीखा रही है रोज़ कुछ वह,


जरा करते जाईये।।


यही तो जिंदगी का असली,


फलसफा है।


अपने अच्छे कर्मों से पन्ने,


आप भरते जाईये।।


 


प्रेम को समझो और जरा रिश्तों,


को पहचानो।


नफ़रतों में क्या रखा है जरा,


इस मर्म को जानो।।


तुम भी हो जरूरी और हैं हम,


भी तो जरूरी।


घुलमिल कर रहना ही है अच्छा,


इस बात को मानो।।


*रचयिता।।एस के कपूर "श्री हंस"*


*बरेली।।*


मोब।। 9897071046


                           8218685464


राजेंद्र रायपुरी

😌 सरसी छंद पर रचना 😌


 


हे प्रभु मेरे आ जाओ तुम,


                   फिर से ले अवतार।


बढ़े दुष्ट फिर से दुनिया में,


                    दुखी बहुत संसार।


विनती यही आपसे मेरी, 


                      प्रभु जी बारंबार।


आकर इन सारे दुष्टों का, 


                     कर दीजै संहार।


 


नहीं यहाॅ॑ पर भाई-चारा,


                   या आपस में प्यार।


बात-बात पर हर दिन होती,


                  आपस में तक़रार।


पाप बढ़ रहा सुरसा मुॅ॑ह सा,


                    बढ़ता अत्याचार।


मचा हुआ है देखो प्रभु जी,


                   चहु दिश हाहाकार।


 


पापी कुटिल चाल चल-चलकर,


                     करें देह व्यापार।


नारी पर तो हर दिन सारे, 


                     करते अत्याचार।


हे प्रभु जी अब देर करो मत,


                    जल्दी लो अवतार।


मैं ही नहीं जगत सारा ये,


                    करता यही पुकार।


 


             ।। राजेंद्र रायपुरी।।


डॉ. रामबली मिश्र हरिहरपुरी

*आदमी*


*(ग़ज़ल)*


 


भीड़ में अब खो गया है आदमी ।


खोजता पहचान अपनी आदमी।।


 


आज उसकी सूक्तियाँ बेजान हैं।


सूक्तियों पर रो रहा है आदमी।।


 


गर्मजोशी है गलत अफवाह में।


सत्य को स्वीकारता कब आदमी।।


 


बिक रही बाजार में हैं मूलियाँ।


मूर्तियों को तोड़ता है आदमी।।


 


सहजता का भाव मंदा है बहुत।


नीति गंदी खेलता है आदमी।।


 


आदमी को आदमी ही पीटता।


हर तरफ से धुंध दिखता आदमी।।


 


दिख रही संवेदना क्षतिग्रस्त है।


क्रूरता के शिखर पर है आदमी।।


 


आदमी की सोच कैसी हो गयी।


आदमी की मार सहता आदमी।।


 


सत्य रोता झूठ हँसता ये तमाशा।


हो गया है झूठ सच्चा आदमी।।


 


रचनाकार:डॉ. रामबली मिश्र हरिहरपुरी


9838453801


नूतन लाल साहू

चलते रहो


 


समझ न पाया,कोई भी


अपनी तकदीरो का राज


जरा जरा सी बात पर


क्यों रोता है,इंसान


एकदिन आता है,सबका शुभ समय


रुको मत,बस चलते रहो


होनी तो होकर ही रहेगा


बदल न सका है,इंसान


पर मुस्कान के सामने


आंसू हो जाता है,मौन


एकदिन आता है,सबका शुभ समय


रुको मत, बस चलते रहो


बैठा तो है,हृदय में


जग का पालनहार


ढुंढ रहे हो,क्यों उसे


मंदिरो में बेकार


एकदिन आता है,सबका शुभ समय


रुको मत, बस चलते रहो


भूत भविष्य को भुलकर


समझ जा,आज का राज


जीवन में आंनद का


पा जायेगा,तू ताज


एकदिन आता है,सबका शुभ समय


रुको मत, बस चलते रहो


है छोटी सी जिंदगी


सीमित है,तेरी श्वास


यह जीवन,इक युद्ध है


कभी जीत तो,कभी है हार


एकदिन आता है, सबका शुभ समय


रुको मत, बस चलते रहो


नूतन लाल साहू


डॉ. रामबली मिश्र हरिहरपुरी

*हृदय स्पर्श कर*


*(चौपाई ग़ज़ल)*


 


हॄदय स्पर्श कर सकल जगत का।


स्वागत कर सारे सहमत का।।


 


बनकर उद्धृत जीना सीखो।


सम्मानित कर नित आगत का।।


 


बन उदाहरण स्वयं पेश हो।


बनना पात्र सदा स्वागत का।।


 


काम आदि दोष को दुश्मन।


जान करो स्वागत शिवमत का।।


 


दुश्मन को भी मित्र समझना।


भूलो उसका कर्म विगत का।।


 


मर्म शुद्ध कर हृदय सँवारो।


स्वर्ण बनाओ सदा रजत का।।


 


भक्ति भाव का हो संचारण।


मिले सभी को हृदय भगत का।।


 


जलनेवालों भी शुभेच्छु हैं।


शीतल करना हृदय जरत का।।


 


झरनेवाले भी उपयोगी।


कर एकत्रीकरण झरत का।।


 


मत समझो तुम वर्फ बुरा है।


करो ग्रीष्म में योग ठरत का।।


 


संवेदना रहे सबके प्रति।


करो सुरक्षा सतत डरत का।।


 


औषधीय सब वृक्ष मनोहर।


करो सिंचाई सदा फरत का।।


 


सारे जग को शांत बनाओ।


रक्षक बन जा हृदय-परत का।।


 


रचनाकार:डॉ. रामबली मिश्र हरिहरपुरी


9838453801


डॉ. हरि नाथ मिश्र

बेवफ़ाई 


इन्होंने चुरायी हैं नज़रें जो मुझसे,


मेरा गीत कोई न इनके लिए है।


इन्हें न मयस्सर हो ग़ज़ले मोहब्बत-


न संगीत कोई अब इनके लिए है।। इन्होंने चुरायी....


      इन्हें अब न कहना कि ये महज़बीं हैं,


      इन्हीं की बदौलत ये मौसम हसीं है।


       ये तो जाने नहीं गुलो-गुलशन की कीमत-


       गुलों की मोहब्बत न इनके लिए है।।इन्होंने चुरायी..


कोई जा के कह दे बहारों से इतना,


कि बागों में फूलों को खिलने न दें वो।


इन्हें कर दो महरूम बहारों की ऋतु से-


बहारों की महफ़िल न इनके लिए है।।इन्होंने चुरायी....


       कोई फ़र्क पड़ता नहीं बादलों से,


       चाँद-तारे हमेशा रहेंगे जवाँ।


       छीन लो इनसे इनकी जवाँ चाँदनी-


       चाँदनी की चमक अब न इनके लिए है।।इन्होंने चुरायी हैं नज़रें जो मुझसे....।।


   बेवफ़ाई किया है इन्होंने सुनो,


  सिला बेवफ़ाई का इनको मिले।


 चैन इनको मिले न कभी ऐ ख़ुदा!


मीत की प्रीति जग में न इनके लिए है।।इन्होंने चुरायी हैं....।।,


                            ©डॉ. हरि नाथ मिश्र


                              9919446372


मदन मोहन शर्मा 'सजल

*डमरू घनाक्षरी*


*मात्रा विहीन वर्णिक छंद -*


 8-8-8-8


~~~~~~~~~~~~~~~~


गरजत नभ घन, मदन नचत मन


तन मन बरबस, दर दर भटकत।


हरकत झलकत, दनदन दरकत


फरकत रग रग, रह रह तड़फत।


 


झमझम बरसत, डर डर बहकत


बन ठन सरपट, चह चह चहकत।


मन अब नटखट, पल पल छटपट


नयन जलद भर, रह रह मटकत।


 


सकल जगत पत,जरजर जरकत


मनहर दरसन, नजरन मचलत।


चखकर रस मन, नटखट छणछण


रजकण दमकत, चमकत बरसत।


 


नटवर नटखट, छलबल घर तट


हसरत मनभर, जरजर जरकत।


दरशन रस चख, चरणन सर रख


नचत नयन जन, अवयव सरकत।


★★★★★★★★★★★★


*मदन मोहन शर्मा 'सजल'*


डॉ. रामबली मिश्र हरिहरपुरी

*नाराजगी*


*(ग़ज़ल)*


 


हो सभी नाराज दिखते आज हैं।


ये बता नाराजगी क्या राज है।।


 


जो मिले बिन रह न पाते थे कभी।


आज बदला दिख रहा अंदाज है।।


 


मोड़ लेते मुँह समझकर अजनबी।


किस महल का झूलता यह ताज है।।


 


दिल में इनके क्या छिपा है क्या पता।


ऐंठनों में है छिपा क्या राज है।।


 


अर्थ मेरा खो चुका इनके लिये।


व्यर्थ मेरी जिंदगी नाराज है।।


 


है जगत व्यापार मण्डल सा यहाँ।


हो रहा नित मनुज नजरंदाज है।।


 


मत कभी होना दुःखी हरिहरपुरी।


आज सीधा कल उलटता राज है।।


 


है नहीं कोई यहाँ अपना कभी।


सिर्फ नाता स्वार्थ का सरताज है।।


 


आज हैं जो साथ में स्थायी नहीं।


बात पर किस रूठ जाये राज है।।


 


रचनाकार:


डॉ. रामबली मिश्र हरिहरपुरी


9838453801


सुनीता असीम

कोई अकेले भी हमें रोने नहीं देता।


जज़्बात का बोझा कभी ढोने नहीं देता।


*****


सूखी मेरी बगिया हरी होती नहीं देखो।


कुछ बीज भी माली मुझे बोने नहीं देता।


*****


कैसे पसारूँ पाँव छोटा है मेरा आँगन।


कुटिया मेरी कोई बड़ी होने नहीं देता।


*****


मेरा सुकूं दाखिल हुआ भीतर मेरे ऐसे।


वो तो किसीको चैन मेरा खोने नहीं देता।


*****


चढ़ती मेरे सर पे ख़ुमारी नींद की ऐसी।


पर ख्वाब जगने का मुझे सोने नहीं देता।


*****


सुनीता असीम


९/१०/२०२०


कालिका प्रसाद सेमवाल

*धरती पर हरियाली लाये*


****************


आओ मिलकर पेड लगाए,


 धरती पर हरियाली लाये,


इस धरती पर बढ़ गया प्रदूषण,


पेड लगाकर प्रदूषण भगाये,


आज जीवन खतरे में है,


पेड लगाकर जीवन बचायें।


 


जल प्रदूषण चारों ओर फैला है,


सभी नदियों का जल हुआ कसैला,


यदि जल ही शुद्ध न मिल पायेगा,


जीवन फिर कैसे बच पायेगा,


प्रकृति को संरक्षण देना जरूरी है,


पेड लगा कर रिस्ते मधुर बनाये।


 


हवा भी हो गई है प्रदूषित,


आसमान में जहर घुल रहा,


 प्रदूषित हो गया तन -मन सारा,


मिट जाय प्रदूषण इस वसुन्धरा का,


पूरी धरा को स्वच्छ बनाए


पेड लगाकर धरती को सजाये।


 


भारत मां की सन्तानों को,


यह संकल्प लेना ही होगा,


वृक्षारोपण करके देश सजाना होगा,


भारत माँ को प्रदूषण से,


मिलजुलकर बचाना ही होगा,


पेड लगाकर हरियाली लानी होगी।


********************


कालिका प्रसाद सेमवाल


मानस सदन अपर बाजार


रुद्रप्रयाग उत्तराखंड


विनय साग़र जायसवाल

ग़ज़ल


 


 


आँधियों में यही बेकली रह गई


शाखे-गुल कैसे अब तक तनी रह गई


 


पंचों के ज़ोर से मिल गये हाथ पर 


*फाँस दिल में तो फिर भी चुभी रह गई*


 


होश उड़ने लगे बेख़ुदी की तरफ़


जाम बोतल में लेकिन ठनी रह गई


 


आइना बारहा तुमने देखा बहुत


धूल चेहरे पे कैसे जमी रह गई 


 


वो सिकन्दर पुरू दोनों ही मिट गये


पर मिसालों में वो दुश्मनी रह गई


 


बेटे पोते बहू सब मगन दिख रहे


माँ के आँचल में अब भी नमी रह गई


 


एक अबला ने चीखा सड़क पर बहुत


बंद कमरे में ज़िन्दादिली रह गई


 


खोया क्या-क्या न *साग़र* रह-ए-इश्क़ में 


याद ही सिर्फ़ उसकी बची रह गई


 


🖋️विनय साग़र जायसवाल


9/10/2020


निशा"अतुल्य"

अंजुमन 


9.10.2020


 


चाँद सँग चाँदनी रात मुस्कुराने लगी 


अंजुमन मेरी मिलकर सजाने लगी ।


 


वो जो आये करीब मेरे हमनवा 


जिंदगी फिर मेरी गुनगुनाने लगी ।


 


लब खोलो कुछ तो बोलो सनम,


जुगनु सी आँख टिमटिमाने लगी।


 


साथ चलना सदा ओ मेरे हमनवा


प्यार के नगमे अब मैं सुनाने लगी ।


 


रूप सादा सा है मेरे प्यार का


सपने नैनों में अब मैं सजाने लगी ।


 


रात रानी बन महकुंगी सदा तेरे सँग


चाँद तारों सी मैं झिलमिलाने लगी ।


 


आ चलें दूर तक फ़लक पर सनम


रात तारों भरी अब चमचमाने लगी ।


 


स्वरचित


निशा"अतुल्य"


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