शुभ प्रभात:-
दुनियां से होकर मजबुर कहां जाऊंगा?
अपनों से होकर दूर कहां जाऊंगा?
ऊपर वाले पर भरोसा रख "आनंद" ;
भरोसे से होकर दूर कहां जाऊंगा?
------- देवानंद साहा"आनंद अमरपुरी"
"काव्य रंगोली परिवार से देश-विदेश के कलमकार जुड़े हुए हैं जो अपनी स्वयं की लिखी हुई रचनाओं में कविता/कहानी/दोहा/छन्द आदि को व्हाट्स ऐप और अन्य सोशल साइट्स के माध्यम से प्रकाशन हेतु प्रेषित करते हैं। उन कलमकारों के द्वारा भेजी गयी रचनाएं काव्य रंगोली के पोर्टल/वेब पेज पर प्रकाशित की जाती हैं उससे सम्बन्धित किसी भी प्रकार का कोई विवाद होता है तो उसकी पूरी जिम्मेदारी उस कलमकार की होगी। जिससे काव्य रंगोली परिवार/एडमिन का किसी भी प्रकार से कोई लेना-देना नहीं है न कभी होगा।" सादर धन्यवाद।
शुभ प्रभात:-
दुनियां से होकर मजबुर कहां जाऊंगा?
अपनों से होकर दूर कहां जाऊंगा?
ऊपर वाले पर भरोसा रख "आनंद" ;
भरोसे से होकर दूर कहां जाऊंगा?
------- देवानंद साहा"आनंद अमरपुरी"
ग़ज़ल
जिस घड़ी आज मेरे वो घर आयेगी
यह ख़बर बिल यक़ीं दूर तक जायेगी
मेरे शाने पे रख्खा है तूने जो सर
ज़ीस्त भर मुझको ख़ुशबू ये महकायेगी
मुझसे कर ली अगर तूने कुछ गुफ्तगू
अपनी हस्ती पे बरसों तू इतरायेगी
गा रहा है ज़माना ही मेरी ग़ज़ल
एक दिन तू ख़ुशी से इसे गायेगी
मैंने इक़रारे-उल्फ़त अगर कर लिया
अपने आँचल को गा गाके लहरायेगी
राज़े-उल्फ़त समझ लेगा हर इक बशर
तेरी मेरी नज़र यूँ जो टकरायेगी
मेरी आँखों में *साग़र* हैं अफ़साने जो
ता कयामत तू पढ़ पढ़ के मुस्कायेगी
🖋️विनय साग़र जायसवाल
9/10/2020
*रचना शीर्षक।।तेरा अंतस तेरा*
*भगवान होता है।।*
गया वक़्त फिर से हाथ
आता नहीं है।
टूटा यकीन तो साथ छूट
जाता वहीं है।।
तू आगे के जन्नत की
बात मत सोच।
जो भी स्वर्ग नर्क तू बस
पाता यहीं है।।
नफरत तो जहर है तो क्या
जरूरत पीने की।
जरूरत है तो बस रिश्तों की
तुरपाई सीने की।।
जिन्दगी जियो कुछ अंदाज़
नज़र अंदाज़ से।
जरूरत होती है कभीअपनों
के दर्द पीने की।।
रास्ता गलत है तो वक़्त से
छोड़ देना चाहिए।
बिगड़े कोई बात तो बात को
मोड़ देना चाहिए।।
फल पकते तो फिर पत्थर
भी मिलते हैं।
बात हो स्वाभिमान की तो
झकझोर देना चाहिए।।
तेरा अन्तस ही तेरा अपना
भगवान होता है।
बताता सही गलत क्या
नुकसान होता है।।
अंतरात्मा कराती है दिशा
बोध हर वक़्त।
समय से संभले वही सच्चा
इंसान होता है।।
*रचयिता।।एस के कपूर "श्री हंस*"
*बरेली।।*
मोब।। 9897071046
8218685464
सुमत का रथ सजा लेे
बदल नहीं सकते,अगर अकेला
दुनिया का दस्तूर
तो फिर उसको,क्यों नहीं
कर लेते, मंजूर
तैयारी रख,सफ़र की
बांध ले,सब सामान
न जाने कब,मौत का
आ जायेगा, फरमान
खुद पर,मत इतराइये
सुमत का रथ,सजा लेे
कल करे सो,आज कर
आज करे सो, अब
पल में, परलय होत है
बहुरी करेगा, कब
मांगता ही रहता है, रात दिन
धरती का, इंसान
इसीलिए,बहरे बन गया है
दीन बंधु भगवान
चनाअकेला, भाड़ नहीं फोड़ सकता है
सुमत का रथ,सजा लेे
मिल जाये,सहारा प्रभु का
और नहीं,कुछ चाह रखो
तब, रब खुद ही करेगा
बंदे का परवाह
पढ़ता रहता,सत्य का
नियमित जो अध्याय
मां सरस्वती,उस शख्स का
करती हैं,सदा सहाय
जीवन भर,उसका गणित
न समझा,इंसान
माता पिता और गुरुजन का
आशीष काम आयेगा
सुमत का रथ,सजा लेे
नूतन लाल साहू
*गाय घर को स्वर्ग बनाती*
~~~~~~~~~~~~
जिस घर में नित्य गाय की
पूजा की जाती है,
वह घर तो बन जाता है
तीरथ धाम के समान।
गाय के सभी अंगों में
होता है देव निवास,
कोई भी धार्मिक कार्य
बिना गाय के न होय।
विश्वनाथ को दुग्ध धार
ममलेश्वर महादेव दधि धार,
केदारनाथ को घृत लेपन
नर जो करें, वह भव सागर तर कर लें।
सर्व देवों जननी गौ माता है
कामधेनु गाय कहलाती है,
प्रात काल गौ ग्रास खिलाकर
गाय पूजी जाती है।
~~~~~~~~~~~~
कालिका प्रसाद सेमवाल
मानस सदन अपर बाजार
रुद्रप्रयाग उत्तराखंड
दिल मानता नहीं
10.10.2020
माहिया
बतिया सुन लो साजन
नैना बोल रहे
छवि तेरी मन भावन ।
ये दिल मानता नहीं
होगा क्या साजन
मन लगता नहीं कहीं
दिल मेरा माने ना
आओ तुम प्रियवर
आए तब ही चैना ।
क्यों नींद उड़ाते हो
नींदों में आकर
मुझको भरमाते हो ।
जी चैन नहीं पाता
देखूं सूरत तो
दिन मेरा बन जाता ।
चलो दोनों सँग चलें
राहें कट जाती
मुश्किल जो कोई पड़े ।
स्वरचित
निशा"अतुल्य"
*नौवाँ अध्याय*(श्रीकृष्णचरितबखान)-3
अस प्रभु बालक जानि क माता।
बान्हीं ऊखल संग बिधाता।।
उधमी-नटखट लला कन्हाई।
रस्सी लइ जब बान्हहिं माई।।
दुइ अंगुल भे छोटइ रस्सी।
अपर रज्जु तब जोड़हिं कस्सी।।
जोड़हिं रस्सी पुनि-पुनि माता।
पुनि-पुनि दुइ अंगुल रहि जाता।।
कटि पातर औ रस्सी भारी।
तदपि न आटे कटि गिरधारी।।
भईं पसीना लथ-पथ माता।
बान्हहिं कइसे समुझि न आता।।
लखि-लखि गोपी सभ मुस्काएँ।
मातु जसोदा बान्ह न पाएँ ।।
लखि के बिकल-थकित बड़ माई।
तुरतयि ऊखल जाइ बन्हाई ।।
सुनहु परिच्छित मन चितलाई।
परम सुतंत्रहिं किसुन कन्हाई।।
ब्रह्मा-इंद्रहिं अरु संसारा।
बस मा रहहिं कृष्न कहँ सारा।।
पर रह प्रभू भगत के बस मा।
बंधन इहहि अटूट जगत मा।।
रहै बरू कोउ ब्रह्मा-पुत्तर।
आतम होवै बरु कोउ संकर।।
होवै भले ऊ लछिमी-पतिहीं।
वहि न मिलै मुकुंद परसदहीं।।
लीं प्रसाद जे जसुमति माता।
जनम जासु ग्वाल-कुल जाता।।
जे प्रसाद मुकुंद भगवाना।
नहिं ऊ सुलभ जोग-तप-ग्याना।।
अस प्रसाद बस भगतहिं मिलई।
ऋषिहिं-मुनिहिं ई दुर्लभ रहईं।।
दोहा-नारद सापहिं पाइ के,ठाढ़ि रहे बनि बृच्छ।
भई कृपा प्रभु कृष्न कै, पुनि ते भे जनु सिच्छ।।
धन-घमंड के कारनहिं,दिए मुनी तिन्ह साप।
स्वयं रहे बंधन बँधे,मुक्त कीन्ह तिन्ह पाप।।
कीन्ह मुक्त अर्जुन बिटप,नलकूबर,मणिग्रीव।
बँधि ऊखल मा स्वतः प्रभु,पुत्र कुबेर सजीव।।
डॉ0हरि नाथ मिश्र
9919446372
*चतुर्थ चरण*(श्रीरामचरितबखान)-4
लखि लछिमन अस प्रीति नियारी।
रामचरित सभ कह तहँ डारी ।।
सुनि सुग्रीव नीर भरि लोचन।
कह सिय मिलहिं मुक्त भव सोचन।।
एक बेरि यहँ बैठि मंत्रि सँग।
मैं देखउँ सिय जात गगन-मग।।
राम-राम बिलपत मग सीता।
कोउ खल रथहीं बैठि सभीता।।
देखि हमन्ह सभ निज पट फेंकी।
कह तिसु लखि प्रभु की बड़ नेकी।।
सुनहु नाथ हम सेवक तोरा।
खोजब अवसि मातु सिय मोरा।।
तब पूछे हरषित रघुबीरा।
कारन कवन रहसि गिरि धीरा।।
सुनहु नाथ हम भाई दोऊ।
को बड़-लघु लखि सकै न कोऊ।।
एक बेरि मय-सुत मायाबी।
आवा पुर मोरे हो हाबी ।।
आधी रात पहर कै बेला।
कीन्हा दनुज द्वार बड़ खेला।।
बालि-बालि कहि नाम पुकारा।
बाली सहि न सका ललकारा।।
लखि मायाबी आवत बाली।
चला भाग तजि द्वारहि हाली।।
धाइ गया मैं बाली संगा।
गुहा छुपा मयाबि करि दंगा।।
बाली कहा रहहु पखवारा।
गुहा-द्वार पे बनि रखवारा।।
पाऊँ लवटि न जे तेहि अवधी।
समुझउ मोंहि मायाबी बधी।।
सुनहु नाथ निज हिय धरि धीरा।
जोहे मास एक सहि पीरा ।।
रुधिर-धार जब देखा भारी।
ढाँकि सिला तें गुफा-दुवारी।।
भागि चला मैं तुरत पराई।
जानि मृत्यु आवत नियराई।।
दोहा-मारि अबहिं मम भ्रात कहँ,अवसि मयाबी आय।
करी मोर बध अपि तुरत,एहिं तें चला पराय।।
डॉ0हरि नाथ मिश्र
9919446372
किसानों की समस्याएं
वह सब की भूख मिटाता है
खेतों में अन्न उगाता है
मेरे देश की है पहचान कृषक
फिर भी वह पिछड़ा जाता है
कभी महाजनों के मकड़जाल
कभी जमींदार का मायाजाल
सदियों से सहता पीर रहा
कर्जे में डूबा जाता है
यदि फसल उगाता खट-पिट कर
उसका न मूल्य मिल पाता है
सरकारी नियमों में उलझा
तकलीफ वह महती पाता है
उत्तम कोटि के खाद- बीज
उसको कभी मिल नहीं पाते हैं
है गरीब बड़ा स्वाभिमानी वह
व्यवस्था नहीं कर पाते हैं
कभी मानसून धोखा देता
जलस्तर भी होता नीचा
सिंचाई का रहता अभाव यहां
कैसे अच्छी हो फसल वहां
मिट्टी भी जैसे कभी रंग बदले
परेशानी नई बढ़ाती है
होता मिट्टी का क्षरण वहां
जहां फसलें बोई जाती है
पारंपरिक कृषि की विधियों पर
किसानों का है विश्वास अटल
अपनाते नहीं उपकरण हैं
लागत में धोखा खाते हैं
भंडारण की नहीं सुविधा
होती है सामने बड़ी दुविधा
बेचान फसल का करते हैं
मजबूरी दाम घटाती है
पूंजी की कमी और परिवहन
यह भी बड़ी बाधाएं हैं
जिनकी गिरफ्त में फंसा पड़ा
मेरा किसान बेचारा है
डॉ निर्मला शर्मा
दौसा राजस्थान
*चतुर्थ चरण*(श्रीरामचरितबखान)-2
ऋष्यमूक गिरि-मग प्रभु चलहीं।
सचिव सहित कपीस जहँ रहहीं।।
लखि के लखन सहित प्रभु आवत।
संसय मन सुग्रीवयि धावत ।।
सुनु हनुमंत कहहि सुग्रीवा।
हती बालि मोहिं धरि मम ग्रीवा।।
यहि कारन भेजा दुइ बीरा।
हृष्ट-पुष्ट अरु गठित सरीरा।।
बटुक भेष धरि तुम्ह हनुमाना।
पूछहु तिनहिं इहाँ कस आना।।
नहिं तै अबहिं त्यागि गिरि जाइब।
छाँड़ि सैल ई कतहुँ पराइब।।
तब धरि भेष बटुक हनुमंता।
पहुँचे जहाँ रहे भगवंता।।
बटुक-रूप अवनत कर जोरे।
पूछहिं हनुमत भाव-बिभोरे।।
तमहिं कवन बताउ रन-बाँकुर।
फिरऊ इहाँ रूप धरि ठाकुर।।
साँवर राम,लखन-तन गोरा।
निरखत छबि मन होय बिभोरा।।
कोमल पद यहिं बन-पथ फिरहीं।
कारन कवन बतावउ हमहीं।।
लागत तुम्ह जनु हो प्रभु सोऊ।
ब्रह्मा-बिष्नु-महेसहि कोऊ।।
नर की तुमहिं नरायन रूपा।
की तुम्ह दोऊ रूप अनूपा।।
की तुम्ह लीन्ह मनुज अवतारा।
भव-भय-तारन इहहिं पधारा।।
बिचरहु बन-भुइँ आभड़-खाभड़।
पाँव नरम पथ पाथर-काँकड़।।
तब प्रभु राम कहा सुनु बिप्रहु।
हम दोउ भ्राता दसरथ पुत्रहु।।
नामा राम-लखन नृप जाए।
पितु-आग्या लइ हम बन आए।।
खोजत फिरहुँ प्रिया बैदेही।
हरे जिनहिं निसिचर बन एही।।
प्रभुहिं-बचन सुनि कह हनुमाना।
प्रभु मम स्वामी मैं नहिं जाना।।
प्रभु कै चरन छूइ कपि कहऊ।
छमहु नाथ मैं जानि न सकऊ।।
पुलकित तन मुख बचन न आवा।
प्रभुहिं क जानि परम सुख पावा।।
माया बस जीवहि जग रहई।
सक न जानि प्रभु सत्ता इहई।।
दोहा-जीव जगत जब लगि रहै, रहै मोह-आबद्ध।
मुक्ति न पावै बिनु कृपा,बिनु प्रभु के सानिद्ध।।
डॉ0हरि नाथ मिश्र
9919446372
*नवाँ अध्याय*(श्रीकृष्णचरितबखान)-1
एक बेरि जसुमति नँदरानी।
मथन लगीं दधि लेइ मथानी।।
सुधि करतै सभ लला कै लीला।
दही मथैं मैया गुन सीला।।
कटि स्थूल भाग पै सोहै।
लहँगा रेसम कै मन मोहै।।
पुत्र-नेह स्तन पय-पूरित।
थकित बाँह खैंचत रजु थूरित।।
कर-कंगन,कानहिं कनफूला।
हीलहिं जनु ते झूलहिं झूला।।
छलक रहीं मुहँ बूंद पसीना।
पुष्प मालती चोटिहिं लीना ।।
रहीं मथत दधि जसुमति मैया।
पहुँचे तहँ तब किसुन कन्हैया।।
पकरि क तुरतै दही-मथानी।
चढ़े गोद मा जसुमति रानी।।
लगीं करावन स्तन-पाना।
मंद-मंद जसुमति मुस्काना।।
यहि बिच उबलत दूध उफाना।
लखि जसुमति तहँ कीन्ह पयाना।।
छाँड़ि कन्हैया बिनु पय-पानहिं।
जनु अतृप्त-छुब्ध अवमानहिं।।
क्रोधित कृष्न भींचि निज दँतुली।
लइ लोढ़ा फोरे दधि-बटुली।।
निज लोचन भरि नकली आँसू।
जाइ क खावहिं माखन बासू।।
उफनत दूध उतारि क मैया।
मथन-गृहहिं गइँ धावत पैंया।।
फूटल मटका लखि के तहवाँ।
जानि लला करतूतै उहवाँ।।
प्रमुदित मना होइ अति हरषित।
बिहँसी लखि लीला आकर्षित।।
उधर किसुन चढ़ि छींका ऊपर।
माखन लेइ क छींका छूकर।।
रहे खियावत सभ बानरहीं।
बड़ चौकन्ना भइ के ऊहहीं।।
कर गहि छड़ी जसूमति मैया।
जा पहुँची जहँ रहे कन्हैया।।
देखि छड़ी लइ आवत माई।
डरि के कान्हा चले पराई।।
बड़-बड़ मुनी-तपस्वी-ग्यानी।
सुद्ध-सुच्छ मन प्रभुहिं न जानी।।
सो प्रभु पाछे धावहिं माता।
लीला तव बड़ गजब बिधाता।।
दोहा-आगे-आगे किसुन रहँ, पाछे-पाछे मातु।
भार नितम्भहिं सिथिल गति,थकित जसोदा गातु।।
डॉ0हरि नाथ मिश्र
9919446372
*मां सरस्वती वरदान दे*
********************
मां सरस्वती वरदान दे
नव शब्द दे नव ज्ञान दे
जिस पर मां तुम कृपा करें
उसका सारा जग सम्मान करें।
मां सरस्वती वरदान दे
स्वर की देवी ज्ञान की मैया
हम कर थोड़ी दया करो मां
द्वार तुम्हारे आया हूं मैं।
मां सरस्वती वरदान दे
पावन हृदय कर दो मां मेरा
अधरों पर मुस्कान दो मां
नव शब्द दे नव ज्ञान दो मां।
********************
कालिका प्रसाद सेमवाल
मानस सदन अपर बाजार
रुद्रप्रयाग उत्तराखंड
*मुक्तक*
रोम-रोम दर्द में भीगा बचाओ न कोई।
हो-कर मेरा नहीं, क्यों बताओ न कोई।
जल्दबाजी में भाव गूँथे जाती हूँ अब बस,
मैं अबला हूँ मुझको सताओ न कोई। 🌹🎸
*काव्य*
परिभाषित करे प्रेम
नहीं जन्मी वो कलम।
चाह मृणालिनी बनूँ
जन्मा नहीं वो कमल...🌹✍🏻
*काव्य*
वो अधूरा-सा है, मैं अधूरी-सी हूँ।
वो खारा-सा है, मैं ताल-नदी-सी हूँ।
रचा मिलन क्षितिज पर हमारा
वो जरूरत-सा है, मैं जरूरी-सी हूँ।🌹✍🏻
*मुक्तक शैलाब*
बड़े गाढ़े रुआब हैं उनके।
छल भी लाजवाब हैं उनके।
बंदिशें हमने सह ली सारी,
फल सपन शैलाब हैं उनके।🌹✍🏻
निधि मद्धेशिया ( नम )
कानपुर
😊आल्हा छंद पर एक वंदना 😊
कृपा करो कुछ मातु शारदे,
साथ अभी मेरा परिवार।
बहुत दूर से आया माता,
दर्शन हो जाए इस बार।
भूख प्यास से व्याकुल सारे,
बच्चे कुछ मेरे बीमार।
देख रहा हूॅ॑ मातु यहाॅ॑ तो,
लम्बी-लम्बी लगी कतार।
धूप तेज है छाॅ॑व नहीं है,
लू के जैसे बहे बयार।
तर-तर तर-तर बहे पसीना,
जैसे हो नदिया की धार।
निकल न पाऊॅ॑ आगे माता,
यहाॅ॑-वहाॅ॑ होती तक़रार।
धक्का-मुक्की बहुत हो रही,
गश खा अभी गिरे दो चार।
माथ नवाऊॅ॑ माता तुमको,
और हृदय से करूॅ॑ पुकार।
नैया मेरी बीच भॅ॑वर में,
माता इसे लगाओ पार।
।। राजेंद्र रायपुरी।।
संघर्ष
लिख दो जीत का
नया नया अध्याय
बिना संघर्ष कोई
नहीं होता,महान हैं
दौलत,ताकत,दोस्ती
लोकप्रियता,प्यार
सब कुछ हासिल,हो सकता है
यदि,संघर्ष हो हथियार
चाहे बनाओ,योजना
चाहे देखो,सपना
इंसानों का सोच
संघर्ष से ही पूरा होता है
कोशिश से,कुछ ना हुआ
धरा रह गया,ज्ञान
बिना संघर्ष कोई
नहीं होता,महान हैं
चाहे प्रभु के सामने
तू कितना ही रोय
हर इच्छा इंसान की
संघर्ष से ही पूरा होय
मेहनत की पसीने
देती हैं,आह्लाद
कुदरत भी नित देती नहीं है
दुःख सुख की सौगात
कहते है संत,फकीर सब
जीवन एक सराय
दुःख सुख तो,मेहमान है
इक आये,इक जाय
लहर सुनामी,से भी तेरी
पूरी हुई न प्यास
बिना संघर्ष कोई
नहीं होता महान हैं
हुआ न,तेरा काम तो
गम न कर इंसान
चींटी से भी सीख ले सकता है
कहते हैं, भगवान
निरन्तर कोशिश करने वालों की
कभी हार नहीं होती
बिना संघर्ष कोई
नहीं होता महान हैं
नूतन लाल साहू
*तेरे कर्म और लगन का नाम*
*ही तेरी जिंदगानी है।।*
कागज़ की कश्ती और
बारिश का पानी है।
इस जीवन की बस
इतनी सी कहानी है।।
दुनिया तो इक सराय
बस है आना जाना।
थम जाती डोर सांस की
यूँ रुक जाती रवानी है।।
जिंदगी चलती रफ्तार से
कदम मिला कर चलो।
मुश्किलों का भी तुम
सीना चीर कर आगे बढ़ो।।
कुछ करो यूँ कि आँसू भी
तेरे मुस्कराया से करें।
बस हर काम जरा तुम
मन लगा कर ही करो।।
हर सुबह एक नया सा
दिन लेकर आती है।
हारी हुई जिन्दगी में नई
उम्मीद जगाती है।।
मन के हारे हार है
और मन के जीते जीत।
यही किरण आशा की
ही नैया पार लगाती है।।
वही जीतते जो कि वक्त
से जिन्दगी संवार लेते हैं।
जीवन में अपनें जो
विश्वास उतार लेते हैं।।
गर चूक भी हो जाये यूँ ही
जीवन में जब कभी।
गलती को अपने समय से
वह सुधार लेते हैं।।
लगन साहस जीवन के दो
ब्रह्म वाक्य मंत्र हैं।
अभ्यास और अनुभव
सफलता के दो तंत्र हैं।।
आदमी गर चाहे तो सब
कुछ कर सकता है।
धैर्य और अनुशासन हर
जीत के दो यंत्र हैं।।
*रचयिता।।एस के कपूर "श्री हंस"*
*बरेली।।।*
मोब।। 9897071046
8218685464
मर्यादा
^^^^^^^************^^^^^^^
सतयुग से लेकर कलियुग तक
पृथ्वी से लेकर अम्बर तक
हर युग मैं टूटती आईं है मर्यादा
कभी सीता की अग्निपरीक्षा मैं
कभी द्रोपदी के खिंचते चीर मैं
बिखरती आई है------ मर्यादा
कभी अहिल्या के पाषाण रूप मैं
कभी शकुंतला के मन की पीर मैं
सिसकती रही है वर्षों से मर्यादा
सदैव ही संसार ने स्त्री को ही बाँधा
पुरुष की कभी निर्धारित नहीं हुई मर्यादा
मर्यादा शब्द के इस भारी बोझ तले
आज भी स्त्रियाँ ही आहत हैं ज्यादा
मर्यादा की सीमा क्या है?
क्या है इसका विधान?
कौन बनाएगा समाज मैं स्त्री-पुरुष की मर्यादा----------?
अब तो जागिये मर्यादा के रक्षकों
समाज को डसने लगी है ये
खोखली मर्यादा
बचाइए इस भारतीय सभ्यता को कहीं कालांतर मैं अनाचारों और बलात्कारों से न जानी जाये ये भारत माँ----------------।
डॉ. निर्मला शर्मा
दौसा राजस्थान
कहते भगवान राम को
करते शर्मशार भगवान को।।
त्रेता में रावण ने सीता का हरण किया।
बहन सूपनखा की नाक कान कटी
नारी अपमान में नारी का हरण किया।।
ना काटी नाक कान नारी सीता का
आदर सम्मान किया।।
चाहता रावण यदि सीता के नाक कान काट प्रतिशोध चुका सकता था जीवन की रक्षा कर सकता था।।
रावण कायर नही राम को
दी चुनौती आखिरी सांस तक
ना मानी हार ।।
बहन सम्मान में
राज्य परिवार समाज सबका
किया त्याग समाप्त।।
राम रावण युद्ध का सूपनखा
की नाक कान हीआधार।।
ना राम जानते रावण को ना
रावण का राम से कोई प्रतिकार
सरोकार।।
रावण अट्टहास करता युग का
पतन हुआ अब कितनी बार।।
द्वापर में भाई दुर्योधनन
भौजाई का चिर हरण करता।।
भरी राज्य सभा मे द्रोपदी
नारी मर्यादा को तहस नहस
करता।।
पति परमेश्वर ही पत्नी का
चौसर पर दांव लगाता कितना
नैतिक पतन हुआ ।। रावण
लज्जित कहता कैसे मानव
कैसा युग राम कहाँ महिमा
मर्यादाओ का युद्ध कहाँ।।
स्वयं नारायण कृष्ण द्रोपदी
मर्यादा का मान धरा।
कब तक आएंगे भगवान
करने मानवता की रक्षा।।
रावण कहता बड़े गर्व से
राम संग भाई चार ।।
राम लखन बन में भरत शत्रुघ्न
कर्म धर्म तपोवन साथ।।
द्वापर में भाई भाई का शत्रु
पिता मात्र कठपुटली आँखे
दो फिर भी अंधा ।।।
पिता पुत्र
दोनों ही स्वार्थ सिद्धि में अंधे
रिश्ते परिहास कुल कुटुम्ब
मर्म मर्यादा का ह्रास।।
रावण कलयुग देख बदहवास
रावण को स्वयं पर नही
होता विश्वाश।।
कलयुग में तो रावण का
नही नाम निशान ना राम
कही दृष्टिगोचर चहुँ ओर भागम
भाग हाहाकार।।
एक बिभीषन से रावण का सत्यानाश
अब तो हर घर परिवार में विभीषण
कुटिलता का नंगा नाच।।
महाभारत में तो भाई भाई आपस
में लड़ मरके हुए समाप्त।
भाई भाई का दुश्मन पिता पुत्र
में अनबन परिवार समाज की
समरसता खंड खंड खण्डित राष्ट्र।।
बृद्ध पिता बेकार पुत्र समझता भार
एकाकीपन का पिता मांगता
जीवन मुक्ति सुबह शाम।।
घर मे ही बहन बेटी
नही सुरक्षित रिश्ते ही रिश्तो की अस्मत को करते तार तार।।
बदल गए रिश्तों के मतलब
रिश्ते रह गए सिर्फ स्वार्थ।।
एक विभीषण कुलद्रोही दानव
कुल का अंत।
घर घर मे कुलद्रोही मर्यादाओ का
क्या कर पाएंगे राम स्वयं भगवंत।।
अच्छाई क्या जानो तुम भ्रष्ट ,भ्रष्टाचारी
अन्यायी ,अत्याचारी शक्ति शाली
राम राज्य की बात करते आचरण
तुम्हारा रावण दुर्योधन पर भारी।।
रावण के मरने जलने का
परिहास उड़ती कलयुग
कहता रावण गर्व से राम राज्य तो ला नही सकते ।।।
रावण की जलती ज्वाला से
राम नही तो रावण की अच्छाई
सीखो।।
शायद कलयुग का हो उद्धार
डूबते युग समाज मे मानवता
का हो कुछ कल्याण।।
नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर
मनभावनी भोर
पक्षियां रो कलरव गूँजे चहुँ ओर
हुई प्यारी सुहानी मनभावनी भोर
देखकर या वातावरण सुहानों
मनड़ो हर्षावै नाचै जाइयाँ मोर
बावळो मतवाळो मचावै शोर
सूरज री किरणां सूं दमक्यो
सोनों सो सुहानों जगत दीखै
उजळी सी आवै सुहानी भोर
लागै कोई बाळक आँख्यां मीचे
हुयो सवेरो रुक्यो न रात रो असर
देवै संदेशो नयो जागो बीतयो प्रहर
डॉ0 निर्मला शर्मा
दौसा राजस्थान
*चेतना जागे*
करो उपाय कुछ ऐसी प्रियवर जगे चेतना तेरी,
छड़भंगुर यह दुनिया प्यारे,नहीं है तेरी-मेरी।।
ऊँच-नीच के भाव को त्यागो जब-तक जीवन जग में,
मानवता का दीप जलाओ,भगे यह रात अँधेरी।।
असहायों की मदद ही करना,एकमात्र उद्देश्य रहे,
इसी सोच से भाग है जाती,विपदा जो है घनेरी।।
परोपकार का भाव हृदय में,यदि रहता है पलता,
जीवन-दर्शन इसी को मानो,संकट-निशा हो चेरी।।
जगा चेतना रच दो प्रियवर,एक नया इतिहास यहाँ,
नवल दीप की ज्योति यहीअब,लेगी नित-नित फेरी।।
जगी चेतना लिए प्रभात नव,देगी ज्ञान-मार्ग नित नव,
राही चलकर उसी मार्ग पर,सुनेगा मधु आनंद की भेरी।।
यही सदा से स्वप्न रहा है,हो विकसित शुचि सोच नयी,
नयी सोच का राष्ट्र हो निर्मित,बिना विलंब कुछ देरी।।
"©डॉ0हरि नाथ मिश्र
9919446372
*हृदय परिवर्तन*
*(चौपाई )*
हृदय बदलना बहुत जरूरी।
हृदयशून्यता पशुता पूरी।।
संवेदना हॄदय की थाती।
दिव्य हृदय की है यह छाती।।
बिन संवेदन मनुज क्रूर है।
मानवता से बहुत दूर है।।
सदा पापरत दूषित व्यसनी।
भोगी कामी गंदी करनी।।
संवेदन का जहँ संकट है।
दैत्य दानवों का जमघट है।।
बिन संवेदन टूट रहे सब।
सुंदरता को लूट रहे अब।।
बहुत बढ़ रहे आज दरिंदे।
अब तो जलाये जाते जिंदे।।
बलात्कार का हाल बुरा है।
करती रुदन-विलाप धरा है।।
मानवता हो रही विखण्डित।
दानव होता महिमामण्डित।।
संवेदना स्वर्ग की रानी।
रोते अब पृथ्वी के प्रानी।।
संवेदना धर्म की देवी।
बन संवेदन का नित सेवी।।
इस देवी को नित्य मनाओ।
दिल में इनको अब बैठाओ।।
यज्ञ-हवन से पूजन करना।
दीप-धूप से वंदन करना।।
हाथ जोड़ कर करो निवेदन।
दिल में उतरो हे संवेदन।।
दिल में कोमल भाव जगाओ।
आँखों में आँसू भर लाओ।।
करुणा-गंगा नित्य बहाओ।
उत्तम पावन गाँव बसाओ।।
छात्र पढ़ें सब मानवता को।
दफनाते रह दानवता को।।
इकजुटता है अत्यावश्यक।
मानव संरक्षण आवश्यक।।
अब संवेदन को जिंदा कर।
कोमल चित कृपाल प्रिय बनकर।।
रचनाकार:डॉ. रामबली मिश्र हरिहरपुरी
9838453801
*जनता और जन-प्रतिनिधि*
कुछ लोग
मंच पर बैठे हैं
और कुछ लोग
मंच के नीचे थे
मंच पर बैठे लोग
जन-प्रतिनिधि थे
और मंच के नीचे
आम जनता थी
जन-प्रतिनिधि लोग
बता रहे थे
इतिहास में दर्ज
अपने पुरुखों की कहानियाँ
दिखा रहे थे
फ्रेम में मढ़ाये उनके चित्र
और चित्र के नीचे उनके स्वर्णिम नाम
वे नाम
राजा के थे
मंत्री के थे
सलाहकार और मनीषी के थे
एक दूसरा मंच था
जिस पर बैठे
कविगण, लेखक और दार्शनिक
उनकी महिमा का
प्रशस्ति-गान कर रहे थे
मौन जनता
उन चित्रों में
इतिहास में
गायन में
ढूँढ़ रही थी
अपने पुरुखों का नाम
जिन्होंने सबसे आगे बढ़कर
सबसे ज्यादा दी थी कुर्बानियाँ
वे प्रजा थी
आम सैनिक थे
सेवक थे
वे तब भी
मंच के नीचे थे
और आज भी नीचे ही हैं
विभिन्न शिलाओं और इतिहास के पन्नों पर
उनके नाम
न तब थे
न अब हैं।
@दीपक शर्मा
जौनपुर उत्तर प्रदेश
*डॉ.रामबली मिश्र के बोल*
1-निर्दयता कसाई की झोपड़ी है ।
2-अनुदारता शोषण/दोहन का गेह है।
3-घृणा अधर्म की जननी है।
4-विद्वेष कलह और विनाश का कारण है।
5-शोषण गरीबी का जनक है।
6-कृतघ्नता पापी/महा स्वार्थी की जननी है ।
7-परहित की सोच से आनंद -फल की प्राप्ति होती है।
8-निरंकुशता अति महत्वाकांक्षा और असंतुलित व्यक्तित्व का सूचक है।
9-अपराधबोध सुधारात्मक होता है।
10-कुंठा मानसिक विकृति है।
11-सरलता दैवी गुण है।
रचनाकार:डॉ. रामबली मिश्र हरिहरपुरी
9838453801
*दुर्दिन*
काँधे पर बिटिया धरे,गाँव-शहर से दूर।
लाज बचाने जा रहा,वह होकर मजबूर।।
भूखा-प्यासा,तन-थकित,उखड़े-उखड़े पाँव।
इधर-उधर वह फिर रहा,मिले न समुचित ठाँव।।
जहाँ देखिए गिद्ध हैं,माँसखोर घनघोर।
दृष्टि गड़ाए वे रहें, निशि-वासर चहुँ-ओर।।
ज्ञान-शून्य-हवसी दनुज,दें न उम्र का ध्यान।
नोचें दो-दो-तीन मिल, विवश बदन नादान।।
कामुक-भुक्खड़ नर अधम,होते बड़े कठोर।
तन सँग कर खिलवाड़ ये,हरें प्राण ज्यों चोर।।
मात-पिता,भाई-बहन,और सकल परिवार।
विवश और लाचार हो,देखें अत्याचार ।।
कभी-कभी सरकार भी,हो जाती लाचार।
विधिक व्यवस्था अति लचर,छीने जन-अधिकार।।
अबल और असहाय का, होता आटा गील।
रोटी यदि बन जाय भी,झट से छीने चील।।
©डॉ0हरि नाथ मिश्र
9919446372
*बोलो मेरे मीत*
*मात्रा भार 11/16*
बोलो मेरे मीत।
कहीं न जाना मुझे छोड़कर।।
आते रहना मीत।
एक अकेला आना चलकर।।
मेरे प्यारे मीत।
साझा करना समय बिताकर।।
तुम अजीज हे मीत।
रस बरसाना अब प्रियतम पर।।
तुम्हीं एक हो मीत।
तू ही हो मेरे अति दिलवर।।
दिल में रहना मीत ।
आजीवन बाँहों में बंधकर।।
चुंबन करना मीत।
सतत रहें अब इक संगम पर।।
साथ-साथ रह मीत।
कभी न जाना कहीं भटककर।।
बन जायें इक मीत।
रसाकार मधु अमृत बनकर।।
बहकाना मत मीत।
चलना है बस प्रीति पंथ पर।।
रचनाकार:डॉ. रामबली मिश्र हरिहरपुरी
9838453801
पहले मन के रावण को मारो....... भले राम ने विजय है पायी, तथाकथित रावण से पहले मन के रावण को मारो।। घूम रहे हैं पात्र सभी अब, लगे...