डॉ. हरि नाथ मिश्र

*नौवाँ अध्याय*(श्रीकृष्णचरितबखान)-3


अस प्रभु बालक जानि क माता।


बान्हीं ऊखल संग बिधाता।।


     उधमी-नटखट लला कन्हाई।


     रस्सी लइ जब बान्हहिं माई।।


दुइ अंगुल भे छोटइ रस्सी।


अपर रज्जु तब जोड़हिं कस्सी।।


    जोड़हिं रस्सी पुनि-पुनि माता।


     पुनि-पुनि दुइ अंगुल रहि जाता।।


कटि पातर औ रस्सी भारी।


तदपि न आटे कटि गिरधारी।।


     भईं पसीना लथ-पथ माता।


      बान्हहिं कइसे समुझि न आता।।


लखि-लखि गोपी सभ मुस्काएँ।


मातु जसोदा बान्ह न पाएँ ।।


     लखि के बिकल-थकित बड़ माई।


     तुरतयि ऊखल जाइ बन्हाई ।।


सुनहु परिच्छित मन चितलाई।


परम सुतंत्रहिं किसुन कन्हाई।।


      ब्रह्मा-इंद्रहिं अरु संसारा।


      बस मा रहहिं कृष्न कहँ सारा।।


पर रह प्रभू भगत के बस मा।


बंधन इहहि अटूट जगत मा।।


    रहै बरू कोउ ब्रह्मा-पुत्तर।


    आतम होवै बरु कोउ संकर।।


होवै भले ऊ लछिमी-पतिहीं।


वहि न मिलै मुकुंद परसदहीं।।


      लीं प्रसाद जे जसुमति माता।


      जनम जासु ग्वाल-कुल जाता।।


जे प्रसाद मुकुंद भगवाना।


नहिं ऊ सुलभ जोग-तप-ग्याना।।


    अस प्रसाद बस भगतहिं मिलई।


    ऋषिहिं-मुनिहिं ई दुर्लभ रहईं।।


दोहा-नारद सापहिं पाइ के,ठाढ़ि रहे बनि बृच्छ।


         भई कृपा प्रभु कृष्न कै, पुनि ते भे जनु सिच्छ।।


         धन-घमंड के कारनहिं,दिए मुनी तिन्ह साप।


         स्वयं रहे बंधन बँधे,मुक्त कीन्ह तिन्ह पाप।।


        कीन्ह मुक्त अर्जुन बिटप,नलकूबर,मणिग्रीव।


        बँधि ऊखल मा स्वतः प्रभु,पुत्र कुबेर सजीव।।


                      डॉ0हरि नाथ मिश्र


                       9919446372


डॉ. हरि नाथ मिश्र

*चतुर्थ चरण*(श्रीरामचरितबखान)-4


लखि लछिमन अस प्रीति नियारी।


रामचरित सभ कह तहँ डारी ।।


      सुनि सुग्रीव नीर भरि लोचन।


      कह सिय मिलहिं मुक्त भव सोचन।।


एक बेरि यहँ बैठि मंत्रि सँग।


मैं देखउँ सिय जात गगन-मग।।


     राम-राम बिलपत मग सीता।


      कोउ खल रथहीं बैठि सभीता।।


देखि हमन्ह सभ निज पट फेंकी।


कह तिसु लखि प्रभु की बड़ नेकी।।


     सुनहु नाथ हम सेवक तोरा।


     खोजब अवसि मातु सिय मोरा।।


तब पूछे हरषित रघुबीरा।


कारन कवन रहसि गिरि धीरा।।


    सुनहु नाथ हम भाई दोऊ।


     को बड़-लघु लखि सकै न कोऊ।।


एक बेरि मय-सुत मायाबी।


आवा पुर मोरे हो हाबी ।।


     आधी रात पहर कै बेला।


     कीन्हा दनुज द्वार बड़ खेला।।


बालि-बालि कहि नाम पुकारा।


बाली सहि न सका ललकारा।।


     लखि मायाबी आवत बाली।


     चला भाग तजि द्वारहि हाली।।


धाइ गया मैं बाली संगा।


गुहा छुपा मयाबि करि दंगा।।


     बाली कहा रहहु पखवारा।


     गुहा-द्वार पे बनि रखवारा।।


पाऊँ लवटि न जे तेहि अवधी।


समुझउ मोंहि मायाबी बधी।।


   सुनहु नाथ निज हिय धरि धीरा।


    जोहे मास एक सहि पीरा ।।


रुधिर-धार जब देखा भारी।


ढाँकि सिला तें गुफा-दुवारी।।


     भागि चला मैं तुरत पराई।


     जानि मृत्यु आवत नियराई।।


दोहा-मारि अबहिं मम भ्रात कहँ,अवसि मयाबी आय।


        करी मोर बध अपि तुरत,एहिं तें चला पराय।।


                    डॉ0हरि नाथ मिश्र


                      9919446372


डॉ निर्मला शर्मा  दौसा राजस्थान

किसानों की समस्याएं


 


 वह सब की भूख मिटाता है


 खेतों में अन्न उगाता है 


मेरे देश की है पहचान कृषक


 फिर भी वह पिछड़ा जाता है 


 


कभी महाजनों के मकड़जाल


 कभी जमींदार का मायाजाल


 सदियों से सहता पीर रहा 


 कर्जे में डूबा जाता है


 


 यदि फसल उगाता खट-पिट कर


 उसका न मूल्य मिल पाता है 


सरकारी नियमों में उलझा 


तकलीफ वह महती पाता है 


 


 उत्तम कोटि के खाद- बीज 


उसको कभी मिल नहीं पाते हैं


 है गरीब बड़ा स्वाभिमानी वह


 व्यवस्था नहीं कर पाते हैं 


 


कभी मानसून धोखा देता


 जलस्तर भी होता नीचा


 सिंचाई का रहता अभाव यहां 


कैसे अच्छी हो फसल वहां 


 


मिट्टी भी जैसे कभी रंग बदले 


परेशानी नई बढ़ाती है


 होता मिट्टी का क्षरण वहां 


जहां फसलें बोई जाती है


 


 पारंपरिक कृषि की विधियों पर


 किसानों का है विश्वास अटल


 अपनाते नहीं उपकरण हैं


लागत में धोखा खाते हैं


 


 भंडारण की नहीं सुविधा 


 होती है सामने बड़ी दुविधा 


बेचान फसल का करते हैं


 मजबूरी दाम घटाती है


 


 पूंजी की कमी और परिवहन 


यह भी बड़ी बाधाएं हैं 


जिनकी गिरफ्त में फंसा पड़ा 


मेरा किसान बेचारा है 


 


डॉ निर्मला शर्मा


 दौसा राजस्थान


डॉ. हरि नाथ मिश्र

*चतुर्थ चरण*(श्रीरामचरितबखान)-2


ऋष्यमूक गिरि-मग प्रभु चलहीं।


सचिव सहित कपीस जहँ रहहीं।।


     लखि के लखन सहित प्रभु आवत।


     संसय मन सुग्रीवयि धावत ।।


सुनु हनुमंत कहहि सुग्रीवा।


हती बालि मोहिं धरि मम ग्रीवा।।


     यहि कारन भेजा दुइ बीरा।


     हृष्ट-पुष्ट अरु गठित सरीरा।।


बटुक भेष धरि तुम्ह हनुमाना।


पूछहु तिनहिं इहाँ कस आना।।


    नहिं तै अबहिं त्यागि गिरि जाइब।


    छाँड़ि सैल ई कतहुँ पराइब।।


तब धरि भेष बटुक हनुमंता।


पहुँचे जहाँ रहे भगवंता।।


     बटुक-रूप अवनत कर जोरे।


     पूछहिं हनुमत भाव-बिभोरे।।


तमहिं कवन बताउ रन-बाँकुर।


फिरऊ इहाँ रूप धरि ठाकुर।।


     साँवर राम,लखन-तन गोरा।


     निरखत छबि मन होय बिभोरा।।


कोमल पद यहिं बन-पथ फिरहीं।


कारन कवन बतावउ हमहीं।।


     लागत तुम्ह जनु हो प्रभु सोऊ।


     ब्रह्मा-बिष्नु-महेसहि कोऊ।।


नर की तुमहिं नरायन रूपा।


की तुम्ह दोऊ रूप अनूपा।।


    की तुम्ह लीन्ह मनुज अवतारा।


    भव-भय-तारन इहहिं पधारा।।


बिचरहु बन-भुइँ आभड़-खाभड़।


पाँव नरम पथ पाथर-काँकड़।।


     तब प्रभु राम कहा सुनु बिप्रहु।


      हम दोउ भ्राता दसरथ पुत्रहु।।


नामा राम-लखन नृप जाए।


पितु-आग्या लइ हम बन आए।।


    खोजत फिरहुँ प्रिया बैदेही।


    हरे जिनहिं निसिचर बन एही।।


प्रभुहिं-बचन सुनि कह हनुमाना।


प्रभु मम स्वामी मैं नहिं जाना।।


    प्रभु कै चरन छूइ कपि कहऊ।


    छमहु नाथ मैं जानि न सकऊ।।


पुलकित तन मुख बचन न आवा।


प्रभुहिं क जानि परम सुख पावा।।


    माया बस जीवहि जग रहई।


    सक न जानि प्रभु सत्ता इहई।।


दोहा-जीव जगत जब लगि रहै, रहै मोह-आबद्ध।


        मुक्ति न पावै बिनु कृपा,बिनु प्रभु के सानिद्ध।।


                       डॉ0हरि नाथ मिश्र


                         9919446372


डॉ. हरि नाथ मिश्र

*नवाँ अध्याय*(श्रीकृष्णचरितबखान)-1


एक बेरि जसुमति नँदरानी।


मथन लगीं दधि लेइ मथानी।।


     सुधि करतै सभ लला कै लीला।


     दही मथैं मैया गुन सीला।।


कटि स्थूल भाग पै सोहै।


लहँगा रेसम कै मन मोहै।।


    पुत्र-नेह स्तन पय-पूरित।


     थकित बाँह खैंचत रजु थूरित।।


कर-कंगन,कानहिं कनफूला।


हीलहिं जनु ते झूलहिं झूला।।


     छलक रहीं मुहँ बूंद पसीना।


     पुष्प मालती चोटिहिं लीना ।।


रहीं मथत दधि जसुमति मैया।


पहुँचे तहँ तब किसुन कन्हैया।।


     पकरि क तुरतै दही-मथानी।


      चढ़े गोद मा जसुमति रानी।।


लगीं करावन स्तन-पाना।


मंद-मंद जसुमति मुस्काना।।


     यहि बिच उबलत दूध उफाना।


     लखि जसुमति तहँ कीन्ह पयाना।।


छाँड़ि कन्हैया बिनु पय-पानहिं।


जनु अतृप्त-छुब्ध अवमानहिं।।


    क्रोधित कृष्न भींचि निज दँतुली।


    लइ लोढ़ा फोरे दधि-बटुली।।


निज लोचन भरि नकली आँसू।


जाइ क खावहिं माखन बासू।।


     उफनत दूध उतारि क मैया।


     मथन-गृहहिं गइँ धावत पैंया।।


फूटल मटका लखि के तहवाँ।


जानि लला करतूतै उहवाँ।।


     प्रमुदित मना होइ अति हरषित।


     बिहँसी लखि लीला आकर्षित।।


उधर किसुन चढ़ि छींका ऊपर।


माखन लेइ क छींका छूकर।।


     रहे खियावत सभ बानरहीं।


     बड़ चौकन्ना भइ के ऊहहीं।।


कर गहि छड़ी जसूमति मैया।


जा पहुँची जहँ रहे कन्हैया।।


   देखि छड़ी लइ आवत माई।


   डरि के कान्हा चले पराई।।


बड़-बड़ मुनी-तपस्वी-ग्यानी।


सुद्ध-सुच्छ मन प्रभुहिं न जानी।।


     सो प्रभु पाछे धावहिं माता।


     लीला तव बड़ गजब बिधाता।।


दोहा-आगे-आगे किसुन रहँ, पाछे-पाछे मातु।


         भार नितम्भहिं सिथिल गति,थकित जसोदा गातु।।


                          डॉ0हरि नाथ मिश्र


                            9919446372


कालिका प्रसाद सेमवाल

*मां सरस्वती वरदान दे*


********************


मां सरस्वती वरदान दे


नव शब्द दे नव ज्ञान दे


जिस पर मां तुम कृपा करें


उसका सारा जग सम्मान करें।


 


मां सरस्वती वरदान दे


स्वर की देवी ज्ञान की मैया


हम कर थोड़ी दया करो मां


द्वार तुम्हारे आया हूं मैं।


 


मां सरस्वती वरदान दे


पावन हृदय कर दो मां मेरा


अधरों पर मुस्कान दो मां


नव शब्द दे नव ज्ञान दो मां।


********************


कालिका प्रसाद सेमवाल


मानस सदन अपर बाजार


रुद्रप्रयाग उत्तराखंड


निधि मद्धेशिया ( नम ) कानपुर

*मुक्तक*


 


रोम-रोम दर्द में भीगा बचाओ न कोई।


हो-कर मेरा नहीं, क्यों बताओ न कोई।


जल्दबाजी में भाव गूँथे जाती हूँ अब बस,


मैं अबला हूँ मुझको सताओ न कोई। 🌹🎸


 


*काव्य*


 


परिभाषित करे प्रेम


नहीं जन्मी वो कलम।


चाह मृणालिनी बनूँ


जन्मा नहीं वो कमल...🌹✍🏻


 


 


*काव्य*


 


वो अधूरा-सा है, मैं अधूरी-सी हूँ।


वो खारा-सा है, मैं ताल-नदी-सी हूँ।


रचा मिलन क्षितिज पर हमारा


वो जरूरत-सा है, मैं जरूरी-सी हूँ।🌹✍🏻


 


*मुक्तक शैलाब*


 


बड़े गाढ़े रुआब हैं उनके।


छल भी लाजवाब हैं उनके।


बंदिशें हमने सह ली सारी,


फल सपन शैलाब हैं उनके।🌹✍🏻


 


 


निधि मद्धेशिया ( नम )


कानपुर


राजेंद्र रायपुरी

😊आल्हा छंद पर एक वंदना 😊


 


कृपा करो कुछ मातु शारदे,


            साथ अभी मेरा परिवार। 


 


बहुत दूर से आया माता, 


             दर्शन हो जाए इस बार।


 


भूख प्यास से व्याकुल सारे,


             बच्चे कुछ मेरे बीमार।


 


देख रहा हूॅ॑ मातु यहाॅ॑ तो,


            लम्बी-लम्बी लगी कतार।


 


धूप तेज है छाॅ॑व नहीं है,


               लू के जैसे बहे बयार।


 


तर-तर तर-तर बहे पसीना,


             जैसे हो नदिया की धार।


 


निकल न पाऊॅ॑ आगे माता,


             यहाॅ॑-वहाॅ॑ होती तक़रार।


 


धक्का-मुक्की बहुत हो रही,


         गश खा अभी गिरे दो चार।


 


माथ नवाऊॅ॑ माता तुमको,


          और हृदय से करूॅ॑ पुकार।


 


नैया मेरी बीच भॅ॑वर में,


              माता इसे लगाओ पार।


 


             ।। राजेंद्र रायपुरी।।


नूतन लाल साहू

संघर्ष


लिख दो जीत का


नया नया अध्याय


बिना संघर्ष कोई


नहीं होता,महान हैं


दौलत,ताकत,दोस्ती


लोकप्रियता,प्यार


सब कुछ हासिल,हो सकता है


यदि,संघर्ष हो हथियार


चाहे बनाओ,योजना


चाहे देखो,सपना


इंसानों का सोच


संघर्ष से ही पूरा होता है


कोशिश से,कुछ ना हुआ


धरा रह गया,ज्ञान


बिना संघर्ष कोई


नहीं होता,महान हैं


चाहे प्रभु के सामने


तू कितना ही रोय


हर इच्छा इंसान की


संघर्ष से ही पूरा होय


मेहनत की पसीने


देती हैं,आह्लाद


कुदरत भी नित देती नहीं है


दुःख सुख की सौगात


कहते है संत,फकीर सब


जीवन एक सराय


दुःख सुख तो,मेहमान है


इक आये,इक जाय


लहर सुनामी,से भी तेरी


पूरी हुई न प्यास


बिना संघर्ष कोई


नहीं होता महान हैं


हुआ न,तेरा काम तो


गम न कर इंसान


चींटी से भी सीख ले सकता है


कहते हैं, भगवान


निरन्तर कोशिश करने वालों की


कभी हार नहीं होती


बिना संघर्ष कोई


नहीं होता महान हैं


नूतन लाल साहू


एस के कपूर "श्री हंस"

*तेरे कर्म और लगन का नाम*


*ही तेरी जिंदगानी है।।*


 


कागज़ की कश्ती और


बारिश का पानी है।


इस जीवन की बस


इतनी सी कहानी है।।


दुनिया तो इक सराय


बस है आना जाना।


थम जाती डोर सांस की


यूँ रुक जाती रवानी है।।


 


जिंदगी चलती रफ्तार से


कदम मिला कर चलो।


मुश्किलों का भी तुम 


सीना चीर कर आगे बढ़ो।।


कुछ करो यूँ कि आँसू भी 


तेरे मुस्कराया से करें।


बस हर काम जरा तुम


मन लगा कर ही करो।।


 


हर सुबह एक नया सा


दिन लेकर आती है।


हारी हुई जिन्दगी में नई


उम्मीद जगाती है।।


मन के हारे हार है


और मन के जीते जीत।


यही किरण आशा की 


ही नैया पार लगाती है।।


 


वही जीतते जो कि वक्त


से जिन्दगी संवार लेते हैं।


जीवन में अपनें जो


विश्वास उतार लेते हैं।।


गर चूक भी हो जाये यूँ ही


जीवन में जब कभी।


गलती को अपने समय से


वह सुधार लेते हैं।।


 


लगन साहस जीवन के दो


ब्रह्म वाक्य मंत्र हैं।


अभ्यास और अनुभव


सफलता के दो तंत्र हैं।।


आदमी गर चाहे तो सब


कुछ कर सकता है।


धैर्य और अनुशासन हर


जीत के दो यंत्र हैं।।


 


*रचयिता।।एस के कपूर "श्री हंस"*


*बरेली।।।*


मोब।। 9897071046


                      8218685464


डॉ0 निर्मला शर्मा दौसा राजस्थान

मर्यादा


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सतयुग से लेकर कलियुग तक


पृथ्वी से लेकर अम्बर तक


हर युग मैं टूटती आईं है मर्यादा


कभी सीता की अग्निपरीक्षा मैं


कभी द्रोपदी के खिंचते चीर मैं


बिखरती आई है------ मर्यादा


कभी अहिल्या के पाषाण रूप मैं


कभी शकुंतला के मन की पीर मैं


सिसकती रही है वर्षों से मर्यादा


सदैव ही संसार ने स्त्री को ही बाँधा


पुरुष की कभी निर्धारित नहीं हुई मर्यादा


मर्यादा शब्द के इस भारी बोझ तले 


आज भी स्त्रियाँ ही आहत हैं ज्यादा


मर्यादा की सीमा क्या है?


क्या है इसका विधान?


कौन बनाएगा समाज मैं स्त्री-पुरुष की मर्यादा----------?


अब तो जागिये मर्यादा के रक्षकों


समाज को डसने लगी है ये 


खोखली मर्यादा


बचाइए इस भारतीय सभ्यता को कहीं कालांतर मैं अनाचारों और बलात्कारों से न जानी जाये ये भारत माँ----------------।


 


 


डॉ. निर्मला शर्मा


दौसा राजस्थान


नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर

कहते भगवान राम को


करते शर्मशार भगवान को।।


त्रेता में रावण ने सीता का हरण किया।


बहन सूपनखा की नाक कान कटी


नारी अपमान में नारी का हरण किया।।


ना काटी नाक कान नारी सीता का 


आदर सम्मान किया।।


चाहता रावण यदि सीता के नाक कान काट प्रतिशोध चुका सकता था जीवन की रक्षा कर सकता था।।


 


रावण कायर नही राम को


दी चुनौती आखिरी सांस तक


ना मानी हार ।।                           


बहन सम्मान में


राज्य परिवार समाज सबका


किया त्याग समाप्त।।


राम रावण युद्ध का सूपनखा


की नाक कान हीआधार।।


ना राम जानते रावण को ना


रावण का राम से कोई प्रतिकार


सरोकार।।


रावण अट्टहास करता युग का


पतन हुआ अब कितनी बार।।


 


द्वापर में भाई दुर्योधनन 


भौजाई का चिर हरण करता।।


भरी राज्य सभा मे द्रोपदी


नारी मर्यादा को तहस नहस 


करता।।


पति परमेश्वर ही पत्नी का


चौसर पर दांव लगाता कितना


नैतिक पतन हुआ ।। रावण


लज्जित कहता कैसे मानव


कैसा युग राम कहाँ महिमा


मर्यादाओ का युद्ध कहाँ।।


 


स्वयं नारायण कृष्ण द्रोपदी


मर्यादा का मान धरा।


कब तक आएंगे भगवान


करने मानवता की रक्षा।।


रावण कहता बड़े गर्व से 


राम संग भाई चार ।।     


               


राम लखन बन में भरत शत्रुघ्न


कर्म धर्म तपोवन साथ।।


 


द्वापर में भाई भाई का शत्रु


पिता मात्र कठपुटली आँखे


दो फिर भी अंधा ।।।                    


 


पिता पुत्र


दोनों ही स्वार्थ सिद्धि में अंधे


रिश्ते परिहास कुल कुटुम्ब


मर्म मर्यादा का ह्रास।।


रावण कलयुग देख बदहवास


रावण को स्वयं पर नही


होता विश्वाश।।


कलयुग में तो रावण का


नही नाम निशान ना राम


कही दृष्टिगोचर चहुँ ओर भागम


भाग हाहाकार।।


एक बिभीषन से रावण का सत्यानाश


अब तो हर घर परिवार में विभीषण


कुटिलता का नंगा नाच।।


महाभारत में तो भाई भाई आपस


में लड़ मरके हुए समाप्त।


भाई भाई का दुश्मन पिता पुत्र


में अनबन परिवार समाज की


समरसता खंड खंड खण्डित राष्ट्र।।


बृद्ध पिता बेकार पुत्र समझता भार


एकाकीपन का पिता मांगता


जीवन मुक्ति सुबह शाम।।


घर मे ही बहन बेटी 


नही सुरक्षित रिश्ते ही रिश्तो की अस्मत को करते तार तार।।


बदल गए रिश्तों के मतलब


रिश्ते रह गए सिर्फ स्वार्थ।।


एक विभीषण कुलद्रोही दानव


कुल का अंत।


घर घर मे कुलद्रोही मर्यादाओ का


क्या कर पाएंगे राम स्वयं भगवंत।।


अच्छाई क्या जानो तुम भ्रष्ट ,भ्रष्टाचारी


अन्यायी ,अत्याचारी शक्ति शाली


राम राज्य की बात करते आचरण 


तुम्हारा रावण दुर्योधन पर भारी।।


 


रावण के मरने जलने का


परिहास उड़ती कलयुग 


कहता रावण गर्व से राम राज्य तो ला नही सकते ।।।                                 


 


रावण की जलती ज्वाला से


राम नही तो रावण की अच्छाई


सीखो।।


शायद कलयुग का हो उद्धार


डूबते युग समाज मे मानवता


का हो कुछ कल्याण।।


 


नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर


डॉ0 निर्मला शर्मा दौसा राजस्थान

मनभावनी भोर


पक्षियां रो कलरव गूँजे चहुँ ओर


हुई प्यारी सुहानी मनभावनी भोर


देखकर या वातावरण सुहानों


मनड़ो हर्षावै नाचै जाइयाँ मोर


बावळो मतवाळो मचावै शोर


सूरज री किरणां सूं दमक्यो


सोनों सो सुहानों जगत दीखै


उजळी सी आवै सुहानी भोर


लागै कोई बाळक आँख्यां मीचे


हुयो सवेरो रुक्यो न रात रो असर


देवै संदेशो नयो जागो बीतयो प्रहर


डॉ0 निर्मला शर्मा


दौसा राजस्थान


डॉ. हरि नाथ मिश्र

*चेतना जागे*


करो उपाय कुछ ऐसी प्रियवर जगे चेतना तेरी,


छड़भंगुर यह दुनिया प्यारे,नहीं है तेरी-मेरी।।


 


ऊँच-नीच के भाव को त्यागो जब-तक जीवन जग में,


मानवता का दीप जलाओ,भगे यह रात अँधेरी।।


 


असहायों की मदद ही करना,एकमात्र उद्देश्य रहे,


इसी सोच से भाग है जाती,विपदा जो है घनेरी।।


 


परोपकार का भाव हृदय में,यदि रहता है पलता,


जीवन-दर्शन इसी को मानो,संकट-निशा हो चेरी।।


 


जगा चेतना रच दो प्रियवर,एक नया इतिहास यहाँ,


नवल दीप की ज्योति यहीअब,लेगी नित-नित फेरी।।


 


जगी चेतना लिए प्रभात नव,देगी ज्ञान-मार्ग नित नव,


राही चलकर उसी मार्ग पर,सुनेगा मधु आनंद की भेरी।।


 


यही सदा से स्वप्न रहा है,हो विकसित शुचि सोच नयी,


नयी सोच का राष्ट्र हो निर्मित,बिना विलंब कुछ देरी।।


                    "©डॉ0हरि नाथ मिश्र


                         9919446372


डॉ. रामबली मिश्र हरिहरपुरी

*हृदय परिवर्तन*


 *(चौपाई )*


 


हृदय बदलना बहुत जरूरी।


हृदयशून्यता पशुता पूरी।।


 


संवेदना हॄदय की थाती।


दिव्य हृदय की है यह छाती।।


 


बिन संवेदन मनुज क्रूर है।


मानवता से बहुत दूर है।।


 


सदा पापरत दूषित व्यसनी।


भोगी कामी गंदी करनी।।


 


संवेदन का जहँ संकट है।


दैत्य दानवों का जमघट है।।


 


बिन संवेदन टूट रहे सब।


सुंदरता को लूट रहे अब।।


 


बहुत बढ़ रहे आज दरिंदे।


अब तो जलाये जाते जिंदे।।


 


बलात्कार का हाल बुरा है।


करती रुदन-विलाप धरा है।।


 


मानवता हो रही विखण्डित।


दानव होता महिमामण्डित।।


 


संवेदना स्वर्ग की रानी।


रोते अब पृथ्वी के प्रानी।।


 


संवेदना धर्म की देवी।


बन संवेदन का नित सेवी।।


 


इस देवी को नित्य मनाओ।


दिल में इनको अब बैठाओ।।


 


यज्ञ-हवन से पूजन करना।


दीप-धूप से वंदन करना।।


 


हाथ जोड़ कर करो निवेदन।


दिल में उतरो हे संवेदन।।


 


दिल में कोमल भाव जगाओ।


आँखों में आँसू भर लाओ।।


 


करुणा-गंगा नित्य बहाओ।


उत्तम पावन गाँव बसाओ।।


 


छात्र पढ़ें सब मानवता को।


दफनाते रह दानवता को।।


 


इकजुटता है अत्यावश्यक।


मानव संरक्षण आवश्यक।।


 


अब संवेदन को जिंदा कर।


कोमल चित कृपाल प्रिय बनकर।।


 


रचनाकार:डॉ. रामबली मिश्र हरिहरपुरी


9838453801


दीपक शर्मा

*जनता और जन-प्रतिनिधि*


 


कुछ लोग 


मंच पर बैठे हैं


और कुछ लोग 


मंच के नीचे थे


मंच पर बैठे लोग


जन-प्रतिनिधि थे


और मंच के नीचे 


आम जनता थी


जन-प्रतिनिधि लोग


बता रहे थे


इतिहास में दर्ज


अपने पुरुखों की कहानियाँ


दिखा रहे थे 


फ्रेम में मढ़ाये उनके चित्र


और चित्र के नीचे उनके स्वर्णिम नाम


वे नाम


राजा के थे


मंत्री के थे


सलाहकार और मनीषी के थे


 


एक दूसरा मंच था


जिस पर बैठे


कविगण, लेखक और दार्शनिक 


उनकी महिमा का


प्रशस्ति-गान कर रहे थे


 


मौन जनता


उन चित्रों में


इतिहास में


गायन में


ढूँढ़ रही थी


अपने पुरुखों का नाम


जिन्होंने सबसे आगे बढ़कर


सबसे ज्यादा दी थी कुर्बानियाँ


वे प्रजा थी


आम सैनिक थे


सेवक थे


वे तब भी


मंच के नीचे थे


और आज भी नीचे ही हैं


विभिन्न शिलाओं और इतिहास के पन्नों पर


उनके नाम


न तब थे


न अब हैं। 


 


@दीपक शर्मा


जौनपुर उत्तर प्रदेश


डॉ. रामबली मिश्र हरिहरपुरी

*डॉ.रामबली मिश्र के बोल*


 


1-निर्दयता कसाई की झोपड़ी है ।


 


2-अनुदारता शोषण/दोहन का गेह है।


 


3-घृणा अधर्म की जननी है।


 


4-विद्वेष कलह और विनाश का कारण है।


 


5-शोषण गरीबी का जनक है।


 


6-कृतघ्नता पापी/महा स्वार्थी की जननी है ।


 


7-परहित की सोच से आनंद -फल की प्राप्ति होती है।


 


8-निरंकुशता अति महत्वाकांक्षा और असंतुलित व्यक्तित्व का सूचक है।


 


9-अपराधबोध सुधारात्मक होता है।


 


10-कुंठा मानसिक विकृति है।


 


11-सरलता दैवी गुण है।


 


रचनाकार:डॉ. रामबली मिश्र हरिहरपुरी


9838453801


डॉ. हरि नाथ मिश्र

*दुर्दिन*


काँधे पर बिटिया धरे,गाँव-शहर से दूर।


लाज बचाने जा रहा,वह होकर मजबूर।।


 


भूखा-प्यासा,तन-थकित,उखड़े-उखड़े पाँव।


इधर-उधर वह फिर रहा,मिले न समुचित ठाँव।।


 


जहाँ देखिए गिद्ध हैं,माँसखोर घनघोर।


दृष्टि गड़ाए वे रहें, निशि-वासर चहुँ-ओर।।


 


ज्ञान-शून्य-हवसी दनुज,दें न उम्र का ध्यान।


नोचें दो-दो-तीन मिल, विवश बदन नादान।।


 


कामुक-भुक्खड़ नर अधम,होते बड़े कठोर।


तन सँग कर खिलवाड़ ये,हरें प्राण ज्यों चोर।।


 


मात-पिता,भाई-बहन,और सकल परिवार।


विवश और लाचार हो,देखें अत्याचार ।।


 


कभी-कभी सरकार भी,हो जाती लाचार।


विधिक व्यवस्था अति लचर,छीने जन-अधिकार।।


 


अबल और असहाय का, होता आटा गील।


रोटी यदि बन जाय भी,झट से छीने चील।।


                   ©डॉ0हरि नाथ मिश्र


                        9919446372


डॉ. रामबली मिश्र हरिहरपुरी

*बोलो मेरे मीत*


*मात्रा भार 11/16*


 


बोलो मेरे मीत।


कहीं न जाना मुझे छोड़कर।।


 


आते रहना मीत।


एक अकेला आना चलकर।।


 


मेरे प्यारे मीत।


साझा करना समय बिताकर।।


 


तुम अजीज हे मीत।


रस बरसाना अब प्रियतम पर।।


 


तुम्हीं एक हो मीत।


तू ही हो मेरे अति दिलवर।।


 


दिल में रहना मीत ।


आजीवन बाँहों में बंधकर।।


 


चुंबन करना मीत।


सतत रहें अब इक संगम पर।।


 


साथ-साथ रह मीत।


कभी न जाना कहीं भटककर।।


 


बन जायें इक मीत।


रसाकार मधु अमृत बनकर।।


 


बहकाना मत मीत।


चलना है बस प्रीति पंथ पर।।


 


रचनाकार:डॉ. रामबली मिश्र हरिहरपुरी


9838453801


निशा"अतुल्य"

गीत


8.10.2020


अंतर्मन 


 


कहाँ छुपे हो तुम बनवारी 


ढूंढ रही विपदा की मारी 


कब आओगे कृष्ण मुरारी । 


 


कहाँ गए तुम मुझे बताओ


इतना ना तुम मुझे सताओ ।


भटक रही हूँ जग की मारी  


कब आओगे कृष्ण मुरारी ।


 


ढूंढ रही विपदा की मारी 


कहाँ छुपे हो तुम बनवारी ।


 


बंसी की धुन,यमुना का तीरा


ढूंढ रही मैं बन कर मीरा ।


मन बेकल से तुम्हें पुकारूँ 


कब आओगे प्रियतम प्यारे।


 


ढूंढ रही विपदा की मारी 


कहाँ छुपे हो तुम बनवारी ।


 


अंतर्मन में तुम्हीं बसे हो 


तन मन प्रण में तुम रहते हो ।


फिर क्यों इतनी देर लगा दी 


अखियाँ ढूंढे विरह की मारी ।


 


ढूंढ रही विपदा की मारी 


कहाँ छुपे हो तुम बनवारी ।


 


स्वरचित 


निशा"अतुल्य"


डॉ. रामबली मिश्र हरिहरपुरी

*प्रियता*


 


1-सर्वप्रिया का संपादन हो।


 


2-नैतिक मानव में सुंदरता।


 


3-तथ्यपरक हर बातचीत हो।


 


4-मनोरोग की दवा करो अब।


   रोगी बढ़ते दिखते हैं अब।।


 


5-चक्र सुदर्शन रहें हमेशा।


 


6-दानवीय दुष्कृति को कुचलो।


 


7-तोड़ो दानव की प्रतिमाएँ।


 


8-मत स्वीकारो कभी कुसंगति।


 


9-कानून कड़ाई से पालित हो।


 


10-हो अपराधमुक्त सबका मन 


 


11-पर्यावरण विशुद्ध चाहिये।


 


रचनाकार:डॉ. रामबली मिश्र हरिहरपुरी


9838453801


विनय साग़र जायसवाल

ग़ज़ल 


 


ज़ीस्त ख़ुद दुश्वार करता आदमी 


होड़ की दुनिया में खोया आदमी


 


आपको यह हर तरफ़ मिल जायेगा


अपनी तारीफ़ों में डूबा आदमी 


 


हैं लुटेरे हर तरफ़ बाज़ार में 


देखिये कितना लुटेगा आदमी 


 


 नोचते हैं लोभ लालच हर तरफ़ 


किस तरह इनसे बचेगा आदमी 


 


रोटी कपड़ा और इक घर के लिए 


रात दिन घुटता है पिसता आदमी 


 


हुक़्म सरकारी बदलते रोज़ हैं 


हाय कब तक यूँ पिसेगा आदमी 


 


 आसमाँ को वो ही *साग़र* छू सका


वक़्त के जो साथ बदला आदमी 


 


🖋️विनय साग़र जायसवाल 


8/10/2020


 


🖋️विनय साग़र जायसवाल


डॉ.राम कुमार झा "निकुंज

दिनांकः ०८.१०.२०२०


दिवसः गुरुवार


छन्दः मात्रिक


विधाः दोहा


शीर्षकः जनमत समझो मंत्र


 


जनता से सत्ता बनी , जनता से गणतन्त्र।


जनता दे सत्तावनत , जनमत समझो मंत्र।।१।।


 


करो प्रगति जनता सदा ,चिन्तन जन कल्याण।


निर्भय सम्बल जब प्रजा, हो सत्ता का त्राण।।२।।


 


लोकतन्त्र होता सफल , हो समता अधिकार।


संविधान सम्मत चले , नीति प्रीति आधार।।३।।


 


अभिव्यक्ति स्वाधीनता , करे न देश विरोध।


सबसे ऊपर देश हित , बने नहीं अवरोध।।४।।


 


सृजन कुंज भारत बने , कुसमित गंध निकुंज।


जन विकास केवल सुरभि , नवभारत जयगुंज।।५।।


 


राष्ट्र भक्ति रग रग भरे , भावित मन सम्मान।


हरित भरित धरती वतन , बने राष्ट्र वरदान।।६।।


 


मातृशक्ति रक्षण वतन , हो सबला निर्भीत।


लज्जा श्रद्धा माँ सुता , हो बहना प्रिय मीत।।७।।


 


मिटे देश हर दीनता , मानव सोच विचार। 


शुष्क अधर मुस्कान भर,खुशियाँ मिले अपार।।८।।


 


परम वीर भारत बने , शौर्य चक्र अभिमान।


जीवन हो अर्पित वतन , मानस राष्ट्र विधान।।९।।


 


मुक्तामणि बन देश का , भारत माँ गलहार।


करो मान जनता वतन , दो विकास उपहार।।१०।।


 


रखो मान चौथा नयन , लोकतंत्र संचार।


सत्य न्याय अभिव्यक्ति हो,समरस नीति विचार।।११।।


 


रखो तिरंगा शान को , गर्व करो पुरुषार्थ।


जीओ पलभर जिंदगी , देशभक्ति परमार्थ।।१२।।


 


कवि✍️डॉ.राम कुमार झा "निकुंज"


रचनाः मौलिक (स्वरचित)


नई दिल्ली


सुनीता असीम

जैसा है महीना वैसा ही साल गया है।


इस रोग करोना ने बुरा हाल किया है।


***


आजाद वतन है भले मक्कार नहीं कम।


आस्तीन के नागों ने दिया इसको दगा है।


***


पूरे किए हैं बाप ने संतान के सपने।


पर बाद में उनसे ही मिला जख्म सहा है।


***


जीता नहीं कोई है हमेशा ही यहां पर।


आया है वहां से जो वो वापस भी गया है


***


 जिसमें नहीं है प्रेम दया घोर पशु वो।


बेकार ही इंसान वो दुनिया में रहा है।


***


सुनीता असीम


८/२/१०/२०२०


डॉ. हरि नाथ मिश्र

*चतुर्थ चरण*(श्रीरामचरितबखान)-3


मैं सेवक प्रभु मोरा स्वामी।


पद-सरोज कै मैं अनुगामी।।


   सेवक कै स्वामी आधारा।


   सुतहिं क जस जग मातु सहारा।।


अस सुनि बचन राम भगवाना।


तुरत लगाए उर हनुमाना ।।


      कहे सुनहु मम प्रिय हनुमाना।


       तुम्हतें अधिक न अनुजहिं जाना।।


समदरसी मोंहे सभ कहहीं।


पर अति प्रिय मम सेवक रहहीं।।


      लखि अति मुदित राम सन्मुखहीं।


      हनूमान तब सादर कहहीं ।।


दूर सिखर-गिरि कपि-पति रहई।


नाम सुग्रीव दास तव अहई ।।


    तेहिं सँग प्रभु अब करउ मिताई।


    सो माता सिय पता लगाई ।।


भेजि कपिन्ह कहँ कोटिक इत-उत।


अवसि बताई सिय रहँ दिसि कुत।।


     अस बताइ चढ़ाइ निज पीठहिं।


      पहँ गे हनू सुग्रीवहिं डीठहिं।।


लखि के राम-लखन-सिय आवत।


कपि-पति गयो तुरत तहँ धावत।।


      झट कपीस प्रनमहिं रघुनाथा।


      पुलकित तन झुकाइ निज माथा।।


भेंटा लखन सहित प्रभु रामा।


सादर बहु सनेह निज धामा।।


दोहा-तब हनुमत दोउ पच्छ कै, कथा कहेउ समुझाइ।


        प्रीति-रज्जु बाँधे तिनहिं,पावक पाक जराइ।।


                      डॉ0हरि नाथ मिश्र


                       9919446372


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