डॉ. राम कुमार झा "निकुंज"

दिनांकः १०.१०.२०२०


दिवसः शनिवार


छन्दः मात्रिक


विधाः दोहा 


शीर्षकः ,🌅नयी भोर नव आश मन🇮🇳


 


नई भोर नव आश मन , नव अरुणिम आकाश। 


मिटे मनुज मन द्वेष तम , मधुरिम प्रीति प्रकाश।।१।।


 


मार काट व्यभिचार चहुँ , जाति धर्म का खेल।


फँसी सियासी दाँव में , हुई मीडिया फ़ेल।।२।।


 


अनुशासन की नित कमी , लोभ घृणा उत्थान।


प्रतीकार में जल रहा , शैतानी हैवान।।३।।


 


मिटी आज सम्वेदना , दया धर्म आचार।


कहाँ त्याग परमार्थ जग , पाएँ करुणाधार।।४।।


 


सत्ता के मद मोह में , अनाचार सरकार।


मार रही है साधु को , पाती जन धिक्कार।।५।।


 


बँटी हुई है मीडिया , लोकतंत्र आवाज़।


बेच आज निजअस्मिता,फँस लालच बिन लाज।।६।।


 


कौन दिखाए सत्य को , जगाए जनता कौन।


जाति धर्म फँस मीडिया ,चतुर्थ आँख जब मौन।।७।।


 


अद्भुत भारत अवदशा , अद्भुत जनता देश।


तुली तोड़ने देश को , कोप लोभ खल वेश।।८।।


 


नश्वर तन है जानता , नश्वर भौतिक साज।


फिर भी पापी जग मनुज ,चाहत धन सरताज।।९।।


 


स्वार्थ पूर्ति में देश को , तोड़ रहा इन्सान।


रिश्ते नाते सब भुले , देश धर्म सम्मान।।१०।।


 


आहत है माँ भारती ,लज्ज़ित है निज जात।


पा कुपूत चिर हरण निज , अश्रु नैन पछतात।।११।।


 


लज्जित हैं पूर्वज वतन , देख वतन गद्दार।


पछताती कुर्बानियाँ , भारतार्थ उद्धार।।१२।।


 


कामुक लोभी कपट जन , देश द्रोह नासूर।


विध्वंसक ये देश के , दुष्कर्मी नित क्रूर।।१३।।


 


आवश्यक जन जागरण , दर्शन नव पुरुषार्थ।


नैतिक शिक्षा हो पुनः, भरें भाव परमार्थ।।१४।।


 


त्याग शील मानव हृदय , दें बचपन उपदेश।


धर्म कर्म सद्ज्ञान दें , भारतीय परिवेश।।१५।।


 


उपकारी अन्तःकरण , राष्ट्र भक्ति मन प्रीति।


राष्ट्र प्रगति हो निज प्रगति , हो शिक्षा नवनीति।।१६।।


 


समरसता सद्भाव मन , बचपन में दें पाठ।


मानवीय अनमोल गुण , संस्कार दें गाँठ ।।१७।।


 


बचपन जब नैतिक सबल, तरुण बने मजबूत।


तब भारत सुख शान्ति हो , युवा देश हों दूत।।१८।।


 


इन्द्रधनुष सतरंग बन , खिले प्रगति अरुणाभ।


खुशियाँ महकेँ कुसुम बन,सुखद शान्ति नीलाभ।।१९।।


 


कवि निकुंज दोहावली , माँग ईश वरदान।


मति विवेक परहित सदय , बने मनुज इन्सान।।२०।।


 


 डॉ. राम कुमार झा "निकुंज"


नई दिल्ली


सुनीता असीम

मेरे प्यार को है तुम्हारा सहारा।


कन्हैया मिलो आज हमने पुकारा।


*****


नहीं रोशनी है चरागों में मेरे।


चले आओ कर दो ज़रा कुछ उजारा।


*****


जो चाहो तो ले लो मेरे धन औ दौलत।


तुम्हारे बिना पर नहीं है गुजारा।


*****


हरिक रोज दिखती चमक है अनोखी।


तुम्हें ध्यान से जब भी हमने निहारा।


*****


 है रहमत जियादा या आँसू जियादा।


करेंगे किसी रोज़ तुमसे ख़सारा।


*****


कसम राधिका की है तुमको कन्हैया।


हमें आपने जो नज़र से उतारा।


*****


अंधेरी सी रातों में उम्मीद तुम हो।


हो मन के गगन का तुम्हीं इक सितारा।


*****


सुनीता असीम


कालिका प्रसाद सेमवाल

मैं बलिहारी होता हूं


****************


आओ मेरी प्रेयसि!


मैं नित करता वन्दन!


 हंस दो मेरी संगिनी!


विखरे रोली चन्दन!


 


तुम ललकार भरो अब टूटे जग का बन्धन,


तुम भुज बल्लरियों की शोभा,मानस नन्दन।


 


गीत नयन की हो तुम मधुरिम प्रीति हृदय की,


वर वंशी वयनी हो,हो वरदान अभय की।


टूटी कड़ियों की झंकार, मधुरिमा लय की,


रागी राग सपन हो, चंचल वायु मलय की।


 


तेरे भुज वंदन में बंधने को अकुलाता,


देख तुम्हारा रूप मनोहर मन तरसाता।


विह्वल होकर गीतों के जब छंद बनाता,


आकुल उर के गायन से उनको दुहराता।


 


कैसे मीत हृदय के, जिसको भूल न पाता,


कैसे गीत हृदय के, जिनको नित प्रति गाता।


कैसे हास नयन के, जिसके बिना घबराता,


कौन मधुरिमा मन की


मैं बलिहारी जाता।


*****************


कालिका प्रसाद सेमवाल


मानस सदन अपर बाजार


रुद्रप्रयाग उत्तराखंड


पिनकोड 246171


डॉ. हरि नाथ मिश्र

*दोहे प्रेम के*


प्रियतम-प्रेमी-प्रियतमा,अति प्रिय प्रेमी- बात।


ज़रा-ज़रा सी बात पर,कर न प्रेम से घात ।।


 


बड़ी भाग्य से जगत में,मिलता सच्चा प्यार।


यदि रूठे प्रेमी कभी,तो भी करो गुहार।।


 


है आभूषण प्रेम का,मात्र यही मनुहार।


काम मनाना,रूठना,सच्चा प्रेमाधार।।


 


प्रेम समर्पण माँगता, मद-घमंड से दूर।


अहम-भाव को शून्य कर,मिले प्रेम भरपूर।।


 


प्रेमी-प्रियतम-प्रेमिका,कहो सभी को एक।


आत्मा सबकी एक है,भले शरीर अनेक।।


 


प्रेम-तत्त्व अति गूढ़ है,गूढ़ प्रेम का ज्ञान।


जिसने समझा प्रेम को,समझ लिया भगवान।।


 


वाह्याकर्षण प्रेम का,होता नहीं स्वरूप।


प्रेम भीतरी भाव है,प्रियतम साँच अनूप।।


             ©डॉ0हरि नाथ मिश्र


                 9919446372


राजेंद्र रायपुरी

😌 करूण रस पर एक रचना 😌


 


 


छूटी नहीं है हाथ की लाली अभी।


जेवर सजे हैं देखिए तन पर सभी‌।


तूने विधाता भाग्य में था क्या लिखा,


पिय सेज उसके आ नहीं सकते कभी।


 


पिय लाश को वो देखकर धरनी पड़ी।


इससे कहो विपदा भला क्या है बड़ी।


थे संग जिसके सात फेरे कल लिए, 


उसके विदाई की अशुभ आई घड़ी।


 


             ।। राजेंद्र रायपुरी।।


देवानंद साहा"आनंद अमरपुरी"

शुभ प्रभात:-


 


दुनियां से होकर मजबुर कहां जाऊंगा?


अपनों से होकर दूर कहां जाऊंगा?


ऊपर वाले पर भरोसा रख "आनंद" ;


भरोसे से होकर दूर कहां जाऊंगा?


 


------- देवानंद साहा"आनंद अमरपुरी"


विनय साग़र जायसवाल

ग़ज़ल


 


जिस घड़ी आज मेरे वो घर आयेगी 


यह ख़बर बिल यक़ीं दूर तक जायेगी


 


मेरे शाने पे रख्खा है तूने जो सर 


ज़ीस्त भर मुझको ख़ुशबू ये महकायेगी 


 


मुझसे कर ली अगर तूने कुछ गुफ्तगू 


अपनी हस्ती पे बरसों तू इतरायेगी


 


गा रहा है ज़माना ही मेरी ग़ज़ल


एक दिन तू ख़ुशी से इसे गायेगी


 


मैंने इक़रारे-उल्फ़त अगर कर लिया 


अपने आँचल को गा गाके लहरायेगी


 


राज़े-उल्फ़त समझ लेगा हर इक बशर 


तेरी मेरी नज़र यूँ जो टकरायेगी


 


मेरी आँखों में *साग़र* हैं अफ़साने जो 


ता कयामत तू पढ़ पढ़ के मुस्कायेगी


 


🖋️विनय साग़र जायसवाल


9/10/2020


एस के कपूर "श्री हंस"

*रचना शीर्षक।।तेरा अंतस तेरा*


*भगवान होता है।।*


 


गया वक़्त फिर से हाथ


आता नहीं है।


टूटा यकीन तो साथ छूट


जाता वहीं है।।


तू आगे के जन्नत की


बात मत सोच।


जो भी स्वर्ग नर्क तू बस


पाता यहीं है।।


 


नफरत तो जहर है तो क्या


जरूरत पीने की।


जरूरत है तो बस रिश्तों की


तुरपाई सीने की।।


जिन्दगी जियो कुछ अंदाज़


नज़र अंदाज़ से।


जरूरत होती है कभीअपनों


के दर्द पीने की।।


 


रास्ता गलत है तो वक़्त से


छोड़ देना चाहिए।


बिगड़े कोई बात तो बात को


मोड़ देना चाहिए।।


फल पकते तो फिर पत्थर


भी मिलते हैं।


बात हो स्वाभिमान की तो


झकझोर देना चाहिए।।


 


तेरा अन्तस ही तेरा अपना


भगवान होता है।


बताता सही गलत क्या


नुकसान होता है।।


अंतरात्मा कराती है दिशा


बोध हर वक़्त।


समय से संभले वही सच्चा


इंसान होता है।।


 


*रचयिता।।एस के कपूर "श्री हंस*"


*बरेली।।*


मोब।। 9897071046


                     8218685464


नूतन लाल साहू

सुमत का रथ सजा लेे


 


बदल नहीं सकते,अगर अकेला


दुनिया का दस्तूर


तो फिर उसको,क्यों नहीं


कर लेते, मंजूर


तैयारी रख,सफ़र की


बांध ले,सब सामान


न जाने कब,मौत का


आ जायेगा, फरमान


खुद पर,मत इतराइये


सुमत का रथ,सजा लेे


कल करे सो,आज कर


आज करे सो, अब


पल में, परलय होत है


बहुरी करेगा, कब


मांगता ही रहता है, रात दिन


धरती का, इंसान


इसीलिए,बहरे बन गया है


दीन बंधु भगवान


चनाअकेला, भाड़ नहीं फोड़ सकता है


सुमत का रथ,सजा लेे


मिल जाये,सहारा प्रभु का


और नहीं,कुछ चाह रखो


तब, रब खुद ही करेगा


बंदे का परवाह


पढ़ता रहता,सत्य का


नियमित जो अध्याय


मां सरस्वती,उस शख्स का


करती हैं,सदा सहाय


जीवन भर,उसका गणित


न समझा,इंसान


माता पिता और गुरुजन का


आशीष काम आयेगा


सुमत का रथ,सजा लेे


नूतन लाल साहू


कालिका प्रसाद सेमवाल

*गाय घर को स्वर्ग बनाती*


~~~~~~~~~~~~


जिस घर में नित्य गाय की


पूजा की जाती है,


वह घर तो बन जाता है


तीरथ धाम के समान।


 


गाय के सभी अंगों में


होता है देव निवास,


कोई भी धार्मिक कार्य


बिना गाय के न होय।


 


विश्वनाथ को दुग्ध धार


ममलेश्वर महादेव दधि धार,


केदारनाथ को घृत लेपन


नर जो करें, वह भव सागर तर कर लें।


 


सर्व देवों जननी गौ माता है


कामधेनु गाय कहलाती है,


प्रात काल गौ ग्रास खिलाकर


गाय पूजी जाती है।


~~~~~~~~~~~~


कालिका प्रसाद सेमवाल


मानस सदन अपर बाजार


रुद्रप्रयाग उत्तराखंड


निशा"अतुल्य"

दिल मानता नहीं


10.10.2020


माहिया


 


बतिया सुन लो साजन  


नैना बोल रहे


छवि तेरी मन भावन ।


 


ये दिल मानता नहीं


होगा क्या साजन


मन लगता नहीं कहीं


 


दिल मेरा माने ना 


आओ तुम प्रियवर


आए तब ही चैना ।


 


क्यों नींद उड़ाते हो


नींदों में आकर 


मुझको भरमाते हो ।


 


जी चैन नहीं पाता


देखूं सूरत तो


दिन मेरा बन जाता ।


 


चलो दोनों सँग चलें 


राहें कट जाती


मुश्किल जो कोई पड़े ।


 


स्वरचित 


निशा"अतुल्य"


डॉ. हरि नाथ मिश्र

*नौवाँ अध्याय*(श्रीकृष्णचरितबखान)-3


अस प्रभु बालक जानि क माता।


बान्हीं ऊखल संग बिधाता।।


     उधमी-नटखट लला कन्हाई।


     रस्सी लइ जब बान्हहिं माई।।


दुइ अंगुल भे छोटइ रस्सी।


अपर रज्जु तब जोड़हिं कस्सी।।


    जोड़हिं रस्सी पुनि-पुनि माता।


     पुनि-पुनि दुइ अंगुल रहि जाता।।


कटि पातर औ रस्सी भारी।


तदपि न आटे कटि गिरधारी।।


     भईं पसीना लथ-पथ माता।


      बान्हहिं कइसे समुझि न आता।।


लखि-लखि गोपी सभ मुस्काएँ।


मातु जसोदा बान्ह न पाएँ ।।


     लखि के बिकल-थकित बड़ माई।


     तुरतयि ऊखल जाइ बन्हाई ।।


सुनहु परिच्छित मन चितलाई।


परम सुतंत्रहिं किसुन कन्हाई।।


      ब्रह्मा-इंद्रहिं अरु संसारा।


      बस मा रहहिं कृष्न कहँ सारा।।


पर रह प्रभू भगत के बस मा।


बंधन इहहि अटूट जगत मा।।


    रहै बरू कोउ ब्रह्मा-पुत्तर।


    आतम होवै बरु कोउ संकर।।


होवै भले ऊ लछिमी-पतिहीं।


वहि न मिलै मुकुंद परसदहीं।।


      लीं प्रसाद जे जसुमति माता।


      जनम जासु ग्वाल-कुल जाता।।


जे प्रसाद मुकुंद भगवाना।


नहिं ऊ सुलभ जोग-तप-ग्याना।।


    अस प्रसाद बस भगतहिं मिलई।


    ऋषिहिं-मुनिहिं ई दुर्लभ रहईं।।


दोहा-नारद सापहिं पाइ के,ठाढ़ि रहे बनि बृच्छ।


         भई कृपा प्रभु कृष्न कै, पुनि ते भे जनु सिच्छ।।


         धन-घमंड के कारनहिं,दिए मुनी तिन्ह साप।


         स्वयं रहे बंधन बँधे,मुक्त कीन्ह तिन्ह पाप।।


        कीन्ह मुक्त अर्जुन बिटप,नलकूबर,मणिग्रीव।


        बँधि ऊखल मा स्वतः प्रभु,पुत्र कुबेर सजीव।।


                      डॉ0हरि नाथ मिश्र


                       9919446372


डॉ. हरि नाथ मिश्र

*चतुर्थ चरण*(श्रीरामचरितबखान)-4


लखि लछिमन अस प्रीति नियारी।


रामचरित सभ कह तहँ डारी ।।


      सुनि सुग्रीव नीर भरि लोचन।


      कह सिय मिलहिं मुक्त भव सोचन।।


एक बेरि यहँ बैठि मंत्रि सँग।


मैं देखउँ सिय जात गगन-मग।।


     राम-राम बिलपत मग सीता।


      कोउ खल रथहीं बैठि सभीता।।


देखि हमन्ह सभ निज पट फेंकी।


कह तिसु लखि प्रभु की बड़ नेकी।।


     सुनहु नाथ हम सेवक तोरा।


     खोजब अवसि मातु सिय मोरा।।


तब पूछे हरषित रघुबीरा।


कारन कवन रहसि गिरि धीरा।।


    सुनहु नाथ हम भाई दोऊ।


     को बड़-लघु लखि सकै न कोऊ।।


एक बेरि मय-सुत मायाबी।


आवा पुर मोरे हो हाबी ।।


     आधी रात पहर कै बेला।


     कीन्हा दनुज द्वार बड़ खेला।।


बालि-बालि कहि नाम पुकारा।


बाली सहि न सका ललकारा।।


     लखि मायाबी आवत बाली।


     चला भाग तजि द्वारहि हाली।।


धाइ गया मैं बाली संगा।


गुहा छुपा मयाबि करि दंगा।।


     बाली कहा रहहु पखवारा।


     गुहा-द्वार पे बनि रखवारा।।


पाऊँ लवटि न जे तेहि अवधी।


समुझउ मोंहि मायाबी बधी।।


   सुनहु नाथ निज हिय धरि धीरा।


    जोहे मास एक सहि पीरा ।।


रुधिर-धार जब देखा भारी।


ढाँकि सिला तें गुफा-दुवारी।।


     भागि चला मैं तुरत पराई।


     जानि मृत्यु आवत नियराई।।


दोहा-मारि अबहिं मम भ्रात कहँ,अवसि मयाबी आय।


        करी मोर बध अपि तुरत,एहिं तें चला पराय।।


                    डॉ0हरि नाथ मिश्र


                      9919446372


डॉ निर्मला शर्मा  दौसा राजस्थान

किसानों की समस्याएं


 


 वह सब की भूख मिटाता है


 खेतों में अन्न उगाता है 


मेरे देश की है पहचान कृषक


 फिर भी वह पिछड़ा जाता है 


 


कभी महाजनों के मकड़जाल


 कभी जमींदार का मायाजाल


 सदियों से सहता पीर रहा 


 कर्जे में डूबा जाता है


 


 यदि फसल उगाता खट-पिट कर


 उसका न मूल्य मिल पाता है 


सरकारी नियमों में उलझा 


तकलीफ वह महती पाता है 


 


 उत्तम कोटि के खाद- बीज 


उसको कभी मिल नहीं पाते हैं


 है गरीब बड़ा स्वाभिमानी वह


 व्यवस्था नहीं कर पाते हैं 


 


कभी मानसून धोखा देता


 जलस्तर भी होता नीचा


 सिंचाई का रहता अभाव यहां 


कैसे अच्छी हो फसल वहां 


 


मिट्टी भी जैसे कभी रंग बदले 


परेशानी नई बढ़ाती है


 होता मिट्टी का क्षरण वहां 


जहां फसलें बोई जाती है


 


 पारंपरिक कृषि की विधियों पर


 किसानों का है विश्वास अटल


 अपनाते नहीं उपकरण हैं


लागत में धोखा खाते हैं


 


 भंडारण की नहीं सुविधा 


 होती है सामने बड़ी दुविधा 


बेचान फसल का करते हैं


 मजबूरी दाम घटाती है


 


 पूंजी की कमी और परिवहन 


यह भी बड़ी बाधाएं हैं 


जिनकी गिरफ्त में फंसा पड़ा 


मेरा किसान बेचारा है 


 


डॉ निर्मला शर्मा


 दौसा राजस्थान


डॉ. हरि नाथ मिश्र

*चतुर्थ चरण*(श्रीरामचरितबखान)-2


ऋष्यमूक गिरि-मग प्रभु चलहीं।


सचिव सहित कपीस जहँ रहहीं।।


     लखि के लखन सहित प्रभु आवत।


     संसय मन सुग्रीवयि धावत ।।


सुनु हनुमंत कहहि सुग्रीवा।


हती बालि मोहिं धरि मम ग्रीवा।।


     यहि कारन भेजा दुइ बीरा।


     हृष्ट-पुष्ट अरु गठित सरीरा।।


बटुक भेष धरि तुम्ह हनुमाना।


पूछहु तिनहिं इहाँ कस आना।।


    नहिं तै अबहिं त्यागि गिरि जाइब।


    छाँड़ि सैल ई कतहुँ पराइब।।


तब धरि भेष बटुक हनुमंता।


पहुँचे जहाँ रहे भगवंता।।


     बटुक-रूप अवनत कर जोरे।


     पूछहिं हनुमत भाव-बिभोरे।।


तमहिं कवन बताउ रन-बाँकुर।


फिरऊ इहाँ रूप धरि ठाकुर।।


     साँवर राम,लखन-तन गोरा।


     निरखत छबि मन होय बिभोरा।।


कोमल पद यहिं बन-पथ फिरहीं।


कारन कवन बतावउ हमहीं।।


     लागत तुम्ह जनु हो प्रभु सोऊ।


     ब्रह्मा-बिष्नु-महेसहि कोऊ।।


नर की तुमहिं नरायन रूपा।


की तुम्ह दोऊ रूप अनूपा।।


    की तुम्ह लीन्ह मनुज अवतारा।


    भव-भय-तारन इहहिं पधारा।।


बिचरहु बन-भुइँ आभड़-खाभड़।


पाँव नरम पथ पाथर-काँकड़।।


     तब प्रभु राम कहा सुनु बिप्रहु।


      हम दोउ भ्राता दसरथ पुत्रहु।।


नामा राम-लखन नृप जाए।


पितु-आग्या लइ हम बन आए।।


    खोजत फिरहुँ प्रिया बैदेही।


    हरे जिनहिं निसिचर बन एही।।


प्रभुहिं-बचन सुनि कह हनुमाना।


प्रभु मम स्वामी मैं नहिं जाना।।


    प्रभु कै चरन छूइ कपि कहऊ।


    छमहु नाथ मैं जानि न सकऊ।।


पुलकित तन मुख बचन न आवा।


प्रभुहिं क जानि परम सुख पावा।।


    माया बस जीवहि जग रहई।


    सक न जानि प्रभु सत्ता इहई।।


दोहा-जीव जगत जब लगि रहै, रहै मोह-आबद्ध।


        मुक्ति न पावै बिनु कृपा,बिनु प्रभु के सानिद्ध।।


                       डॉ0हरि नाथ मिश्र


                         9919446372


डॉ. हरि नाथ मिश्र

*नवाँ अध्याय*(श्रीकृष्णचरितबखान)-1


एक बेरि जसुमति नँदरानी।


मथन लगीं दधि लेइ मथानी।।


     सुधि करतै सभ लला कै लीला।


     दही मथैं मैया गुन सीला।।


कटि स्थूल भाग पै सोहै।


लहँगा रेसम कै मन मोहै।।


    पुत्र-नेह स्तन पय-पूरित।


     थकित बाँह खैंचत रजु थूरित।।


कर-कंगन,कानहिं कनफूला।


हीलहिं जनु ते झूलहिं झूला।।


     छलक रहीं मुहँ बूंद पसीना।


     पुष्प मालती चोटिहिं लीना ।।


रहीं मथत दधि जसुमति मैया।


पहुँचे तहँ तब किसुन कन्हैया।।


     पकरि क तुरतै दही-मथानी।


      चढ़े गोद मा जसुमति रानी।।


लगीं करावन स्तन-पाना।


मंद-मंद जसुमति मुस्काना।।


     यहि बिच उबलत दूध उफाना।


     लखि जसुमति तहँ कीन्ह पयाना।।


छाँड़ि कन्हैया बिनु पय-पानहिं।


जनु अतृप्त-छुब्ध अवमानहिं।।


    क्रोधित कृष्न भींचि निज दँतुली।


    लइ लोढ़ा फोरे दधि-बटुली।।


निज लोचन भरि नकली आँसू।


जाइ क खावहिं माखन बासू।।


     उफनत दूध उतारि क मैया।


     मथन-गृहहिं गइँ धावत पैंया।।


फूटल मटका लखि के तहवाँ।


जानि लला करतूतै उहवाँ।।


     प्रमुदित मना होइ अति हरषित।


     बिहँसी लखि लीला आकर्षित।।


उधर किसुन चढ़ि छींका ऊपर।


माखन लेइ क छींका छूकर।।


     रहे खियावत सभ बानरहीं।


     बड़ चौकन्ना भइ के ऊहहीं।।


कर गहि छड़ी जसूमति मैया।


जा पहुँची जहँ रहे कन्हैया।।


   देखि छड़ी लइ आवत माई।


   डरि के कान्हा चले पराई।।


बड़-बड़ मुनी-तपस्वी-ग्यानी।


सुद्ध-सुच्छ मन प्रभुहिं न जानी।।


     सो प्रभु पाछे धावहिं माता।


     लीला तव बड़ गजब बिधाता।।


दोहा-आगे-आगे किसुन रहँ, पाछे-पाछे मातु।


         भार नितम्भहिं सिथिल गति,थकित जसोदा गातु।।


                          डॉ0हरि नाथ मिश्र


                            9919446372


कालिका प्रसाद सेमवाल

*मां सरस्वती वरदान दे*


********************


मां सरस्वती वरदान दे


नव शब्द दे नव ज्ञान दे


जिस पर मां तुम कृपा करें


उसका सारा जग सम्मान करें।


 


मां सरस्वती वरदान दे


स्वर की देवी ज्ञान की मैया


हम कर थोड़ी दया करो मां


द्वार तुम्हारे आया हूं मैं।


 


मां सरस्वती वरदान दे


पावन हृदय कर दो मां मेरा


अधरों पर मुस्कान दो मां


नव शब्द दे नव ज्ञान दो मां।


********************


कालिका प्रसाद सेमवाल


मानस सदन अपर बाजार


रुद्रप्रयाग उत्तराखंड


निधि मद्धेशिया ( नम ) कानपुर

*मुक्तक*


 


रोम-रोम दर्द में भीगा बचाओ न कोई।


हो-कर मेरा नहीं, क्यों बताओ न कोई।


जल्दबाजी में भाव गूँथे जाती हूँ अब बस,


मैं अबला हूँ मुझको सताओ न कोई। 🌹🎸


 


*काव्य*


 


परिभाषित करे प्रेम


नहीं जन्मी वो कलम।


चाह मृणालिनी बनूँ


जन्मा नहीं वो कमल...🌹✍🏻


 


 


*काव्य*


 


वो अधूरा-सा है, मैं अधूरी-सी हूँ।


वो खारा-सा है, मैं ताल-नदी-सी हूँ।


रचा मिलन क्षितिज पर हमारा


वो जरूरत-सा है, मैं जरूरी-सी हूँ।🌹✍🏻


 


*मुक्तक शैलाब*


 


बड़े गाढ़े रुआब हैं उनके।


छल भी लाजवाब हैं उनके।


बंदिशें हमने सह ली सारी,


फल सपन शैलाब हैं उनके।🌹✍🏻


 


 


निधि मद्धेशिया ( नम )


कानपुर


राजेंद्र रायपुरी

😊आल्हा छंद पर एक वंदना 😊


 


कृपा करो कुछ मातु शारदे,


            साथ अभी मेरा परिवार। 


 


बहुत दूर से आया माता, 


             दर्शन हो जाए इस बार।


 


भूख प्यास से व्याकुल सारे,


             बच्चे कुछ मेरे बीमार।


 


देख रहा हूॅ॑ मातु यहाॅ॑ तो,


            लम्बी-लम्बी लगी कतार।


 


धूप तेज है छाॅ॑व नहीं है,


               लू के जैसे बहे बयार।


 


तर-तर तर-तर बहे पसीना,


             जैसे हो नदिया की धार।


 


निकल न पाऊॅ॑ आगे माता,


             यहाॅ॑-वहाॅ॑ होती तक़रार।


 


धक्का-मुक्की बहुत हो रही,


         गश खा अभी गिरे दो चार।


 


माथ नवाऊॅ॑ माता तुमको,


          और हृदय से करूॅ॑ पुकार।


 


नैया मेरी बीच भॅ॑वर में,


              माता इसे लगाओ पार।


 


             ।। राजेंद्र रायपुरी।।


नूतन लाल साहू

संघर्ष


लिख दो जीत का


नया नया अध्याय


बिना संघर्ष कोई


नहीं होता,महान हैं


दौलत,ताकत,दोस्ती


लोकप्रियता,प्यार


सब कुछ हासिल,हो सकता है


यदि,संघर्ष हो हथियार


चाहे बनाओ,योजना


चाहे देखो,सपना


इंसानों का सोच


संघर्ष से ही पूरा होता है


कोशिश से,कुछ ना हुआ


धरा रह गया,ज्ञान


बिना संघर्ष कोई


नहीं होता,महान हैं


चाहे प्रभु के सामने


तू कितना ही रोय


हर इच्छा इंसान की


संघर्ष से ही पूरा होय


मेहनत की पसीने


देती हैं,आह्लाद


कुदरत भी नित देती नहीं है


दुःख सुख की सौगात


कहते है संत,फकीर सब


जीवन एक सराय


दुःख सुख तो,मेहमान है


इक आये,इक जाय


लहर सुनामी,से भी तेरी


पूरी हुई न प्यास


बिना संघर्ष कोई


नहीं होता महान हैं


हुआ न,तेरा काम तो


गम न कर इंसान


चींटी से भी सीख ले सकता है


कहते हैं, भगवान


निरन्तर कोशिश करने वालों की


कभी हार नहीं होती


बिना संघर्ष कोई


नहीं होता महान हैं


नूतन लाल साहू


एस के कपूर "श्री हंस"

*तेरे कर्म और लगन का नाम*


*ही तेरी जिंदगानी है।।*


 


कागज़ की कश्ती और


बारिश का पानी है।


इस जीवन की बस


इतनी सी कहानी है।।


दुनिया तो इक सराय


बस है आना जाना।


थम जाती डोर सांस की


यूँ रुक जाती रवानी है।।


 


जिंदगी चलती रफ्तार से


कदम मिला कर चलो।


मुश्किलों का भी तुम 


सीना चीर कर आगे बढ़ो।।


कुछ करो यूँ कि आँसू भी 


तेरे मुस्कराया से करें।


बस हर काम जरा तुम


मन लगा कर ही करो।।


 


हर सुबह एक नया सा


दिन लेकर आती है।


हारी हुई जिन्दगी में नई


उम्मीद जगाती है।।


मन के हारे हार है


और मन के जीते जीत।


यही किरण आशा की 


ही नैया पार लगाती है।।


 


वही जीतते जो कि वक्त


से जिन्दगी संवार लेते हैं।


जीवन में अपनें जो


विश्वास उतार लेते हैं।।


गर चूक भी हो जाये यूँ ही


जीवन में जब कभी।


गलती को अपने समय से


वह सुधार लेते हैं।।


 


लगन साहस जीवन के दो


ब्रह्म वाक्य मंत्र हैं।


अभ्यास और अनुभव


सफलता के दो तंत्र हैं।।


आदमी गर चाहे तो सब


कुछ कर सकता है।


धैर्य और अनुशासन हर


जीत के दो यंत्र हैं।।


 


*रचयिता।।एस के कपूर "श्री हंस"*


*बरेली।।।*


मोब।। 9897071046


                      8218685464


डॉ0 निर्मला शर्मा दौसा राजस्थान

मर्यादा


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सतयुग से लेकर कलियुग तक


पृथ्वी से लेकर अम्बर तक


हर युग मैं टूटती आईं है मर्यादा


कभी सीता की अग्निपरीक्षा मैं


कभी द्रोपदी के खिंचते चीर मैं


बिखरती आई है------ मर्यादा


कभी अहिल्या के पाषाण रूप मैं


कभी शकुंतला के मन की पीर मैं


सिसकती रही है वर्षों से मर्यादा


सदैव ही संसार ने स्त्री को ही बाँधा


पुरुष की कभी निर्धारित नहीं हुई मर्यादा


मर्यादा शब्द के इस भारी बोझ तले 


आज भी स्त्रियाँ ही आहत हैं ज्यादा


मर्यादा की सीमा क्या है?


क्या है इसका विधान?


कौन बनाएगा समाज मैं स्त्री-पुरुष की मर्यादा----------?


अब तो जागिये मर्यादा के रक्षकों


समाज को डसने लगी है ये 


खोखली मर्यादा


बचाइए इस भारतीय सभ्यता को कहीं कालांतर मैं अनाचारों और बलात्कारों से न जानी जाये ये भारत माँ----------------।


 


 


डॉ. निर्मला शर्मा


दौसा राजस्थान


नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर

कहते भगवान राम को


करते शर्मशार भगवान को।।


त्रेता में रावण ने सीता का हरण किया।


बहन सूपनखा की नाक कान कटी


नारी अपमान में नारी का हरण किया।।


ना काटी नाक कान नारी सीता का 


आदर सम्मान किया।।


चाहता रावण यदि सीता के नाक कान काट प्रतिशोध चुका सकता था जीवन की रक्षा कर सकता था।।


 


रावण कायर नही राम को


दी चुनौती आखिरी सांस तक


ना मानी हार ।।                           


बहन सम्मान में


राज्य परिवार समाज सबका


किया त्याग समाप्त।।


राम रावण युद्ध का सूपनखा


की नाक कान हीआधार।।


ना राम जानते रावण को ना


रावण का राम से कोई प्रतिकार


सरोकार।।


रावण अट्टहास करता युग का


पतन हुआ अब कितनी बार।।


 


द्वापर में भाई दुर्योधनन 


भौजाई का चिर हरण करता।।


भरी राज्य सभा मे द्रोपदी


नारी मर्यादा को तहस नहस 


करता।।


पति परमेश्वर ही पत्नी का


चौसर पर दांव लगाता कितना


नैतिक पतन हुआ ।। रावण


लज्जित कहता कैसे मानव


कैसा युग राम कहाँ महिमा


मर्यादाओ का युद्ध कहाँ।।


 


स्वयं नारायण कृष्ण द्रोपदी


मर्यादा का मान धरा।


कब तक आएंगे भगवान


करने मानवता की रक्षा।।


रावण कहता बड़े गर्व से 


राम संग भाई चार ।।     


               


राम लखन बन में भरत शत्रुघ्न


कर्म धर्म तपोवन साथ।।


 


द्वापर में भाई भाई का शत्रु


पिता मात्र कठपुटली आँखे


दो फिर भी अंधा ।।।                    


 


पिता पुत्र


दोनों ही स्वार्थ सिद्धि में अंधे


रिश्ते परिहास कुल कुटुम्ब


मर्म मर्यादा का ह्रास।।


रावण कलयुग देख बदहवास


रावण को स्वयं पर नही


होता विश्वाश।।


कलयुग में तो रावण का


नही नाम निशान ना राम


कही दृष्टिगोचर चहुँ ओर भागम


भाग हाहाकार।।


एक बिभीषन से रावण का सत्यानाश


अब तो हर घर परिवार में विभीषण


कुटिलता का नंगा नाच।।


महाभारत में तो भाई भाई आपस


में लड़ मरके हुए समाप्त।


भाई भाई का दुश्मन पिता पुत्र


में अनबन परिवार समाज की


समरसता खंड खंड खण्डित राष्ट्र।।


बृद्ध पिता बेकार पुत्र समझता भार


एकाकीपन का पिता मांगता


जीवन मुक्ति सुबह शाम।।


घर मे ही बहन बेटी 


नही सुरक्षित रिश्ते ही रिश्तो की अस्मत को करते तार तार।।


बदल गए रिश्तों के मतलब


रिश्ते रह गए सिर्फ स्वार्थ।।


एक विभीषण कुलद्रोही दानव


कुल का अंत।


घर घर मे कुलद्रोही मर्यादाओ का


क्या कर पाएंगे राम स्वयं भगवंत।।


अच्छाई क्या जानो तुम भ्रष्ट ,भ्रष्टाचारी


अन्यायी ,अत्याचारी शक्ति शाली


राम राज्य की बात करते आचरण 


तुम्हारा रावण दुर्योधन पर भारी।।


 


रावण के मरने जलने का


परिहास उड़ती कलयुग 


कहता रावण गर्व से राम राज्य तो ला नही सकते ।।।                                 


 


रावण की जलती ज्वाला से


राम नही तो रावण की अच्छाई


सीखो।।


शायद कलयुग का हो उद्धार


डूबते युग समाज मे मानवता


का हो कुछ कल्याण।।


 


नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर


डॉ0 निर्मला शर्मा दौसा राजस्थान

मनभावनी भोर


पक्षियां रो कलरव गूँजे चहुँ ओर


हुई प्यारी सुहानी मनभावनी भोर


देखकर या वातावरण सुहानों


मनड़ो हर्षावै नाचै जाइयाँ मोर


बावळो मतवाळो मचावै शोर


सूरज री किरणां सूं दमक्यो


सोनों सो सुहानों जगत दीखै


उजळी सी आवै सुहानी भोर


लागै कोई बाळक आँख्यां मीचे


हुयो सवेरो रुक्यो न रात रो असर


देवै संदेशो नयो जागो बीतयो प्रहर


डॉ0 निर्मला शर्मा


दौसा राजस्थान


डॉ. हरि नाथ मिश्र

*चेतना जागे*


करो उपाय कुछ ऐसी प्रियवर जगे चेतना तेरी,


छड़भंगुर यह दुनिया प्यारे,नहीं है तेरी-मेरी।।


 


ऊँच-नीच के भाव को त्यागो जब-तक जीवन जग में,


मानवता का दीप जलाओ,भगे यह रात अँधेरी।।


 


असहायों की मदद ही करना,एकमात्र उद्देश्य रहे,


इसी सोच से भाग है जाती,विपदा जो है घनेरी।।


 


परोपकार का भाव हृदय में,यदि रहता है पलता,


जीवन-दर्शन इसी को मानो,संकट-निशा हो चेरी।।


 


जगा चेतना रच दो प्रियवर,एक नया इतिहास यहाँ,


नवल दीप की ज्योति यहीअब,लेगी नित-नित फेरी।।


 


जगी चेतना लिए प्रभात नव,देगी ज्ञान-मार्ग नित नव,


राही चलकर उसी मार्ग पर,सुनेगा मधु आनंद की भेरी।।


 


यही सदा से स्वप्न रहा है,हो विकसित शुचि सोच नयी,


नयी सोच का राष्ट्र हो निर्मित,बिना विलंब कुछ देरी।।


                    "©डॉ0हरि नाथ मिश्र


                         9919446372


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