विनय साग़र जायसवाल

मतला---


 


ख़ुशरंग इस लिए भी नज़ारा न हो सका 


हम उसके हो गये जो हमारा न हो सका


 


हर राज़ फाश कर जो दिया राज़दार ने 


क़िस्मत का यूँ बुलंद सितारा न हो सका 


 


उस बेवफ़ा ने प्यार जताया तो बारहा


हमको ही उससे प्यार दुबारा न हो सका 


 


रहते भी कैसे राहे-मुहब्बत में गामज़न


उस सम्त से जो कोई इशारा न हो सका


 


मंज़िल के अनकरीब से यूँ लौट आये हम


उसका ग़ुरूर हमको गवारा न हो सका 


 


समझेगा कौन उसके भला दिल के दर्द को 


माँ बाप का जो बेटा सहारा न हो सका 


 


साग़र सुराही जाम गले यूँ लगा लिए 


इनके बग़ैर अपना गुज़ारा न हो सका 


 


🖋️विनय साग़र जायसवाल


नूतन लाल साहू

तब आना,तुम मेरे पास प्रिये


 


लख चौरासी,भोग के आया


बड़े भाग,मानुष तन पाया


झुठ,कपट और धन का गरब


जिस दिन,ये सब छुट जावे


तब आना,तुम मेरे पास प्रिये


सत्कर्म कर,हरिनाम सुमर लेे


मेरी मेरी कहना,तू छोड़ दें


तजि दे,वचन कठोर जिस दिन


तब आना,तुम मेरे पास प्रिये


तेरा निर्मल रूप,अनूप है


नहीं हाड,मांस की काया


व्यापक ब्रम्ह,स्वरूप का ज्ञान


जिस दिन तुझे,मिल जावे


तब आना, तुम मेरे पास प्रिये


मोहन प्रेम बिना,नहीं मिलता


चाहे कर लो,लाख उपाय


ढाई अक्षर प्रेम का, पढ़े तो पंडित होय


जिस दिन तुझे,ये ज्ञान हो जावे


तब आना, तुम मेरे पास प्रिये


मै नहीं,मेरा नहीं,यह तन किसी का है दिया


जो भी अपने पास है,यह धन किसी का है दिया


जो मिला है,वह हमेशा पास नहीं रहेगा


जिस दिन समझ में आ जावे, जिंदगी का राज


तब आना, तुम मेरे पास प्रिये


नाम लिया हरि का, जिसने


तिन और का नाम लिया न लिया


निश दिन बरसत, नैन हमारे


अंखियां हरि दर्शन की प्यासी


जिस दिन समझ में आ जावे


प्रभु बिना चैन,नहीं है


तब आना, तुम मेरे पास प्रिये


नूतन लाल साहू


डॉ. रामबली मिश्र

संवेगात्मक संबन्ध


 


संवेगात्मक भाव में, छिपा गहन है अर्थ।


संवेगात्मकशून्यता ,का जीवन है व्यर्थ।।


 


संवेगों की नींव पर, टिका हुआ है प्यार।


जहाँ नहीं संवेग है, सब कुछ वहाँ नकार।।


 


भावुक मन ही समझता, संवेगों का मर्म।


भावशून्य मानव हृदय, शुष्क मरुस्थल चर्म।।


 


संवेगों को जानता, कभी नहीं अज्ञान।


ज्ञानीजन के हॄदय में, संवेगों का मान।। 


 


संवेगों को मत कुचल, कर लो हृदय विशाल।


मानव मन की अस्मिता, का रख सदा खयाल।।


 


सहलाओ संवेग को, यह पावन सुविचार।


यही पुष्प की है कली, मानव का उपहार।।


 


इसे तोड़ता जो मनुज, वह दानव अति क्रूर।


दंभ प्रदर्शन से भरा, वह दानव भरपूर।।


 


मैला मन करता सदा, इसका है अपमान।


संवेगों के विश्व में, सिर्फ एक भगवान।।


 


संवेगात्मक वंधनों, पर पावन संबन्ध।


आध्यात्मिक अनुवंध यह, हिय से हिय आवद्ध।।


 


डॉ. रामबली मिश्र हरिहरपुरी


9838453801


डॉ0 हरि नाथ मिश्र

*गीत*(चाँदनी रात)


अगर चाँदनी रात ये आई न होती,


कभी प्यार का सलोना मंज़र न होता।


नहीं प्यार की कभी ये बगिया सँवरती-


ये कभी प्यार गहरा समंदर न होता।।


 


चाँदनी रात-पूनम-मिलन को समंदर,


चला जाता छूने को नभ में उमड़कर।


सितारे भी टिम-टिम मधुर ध्वनि से उसका,


करते हैं स्वागत मुस्कुराकर-सँवरकर।


अगर रातें पूनम न अंबर पे होतीं-


भयंकर समंदर कभी सुंदर न होता।।


          कभी प्यार का सलोना मंज़र न होता।।


 


चाँदनी रात का ये प्यारा सा आलम,


विरह-तप्त प्रेमी को देता है राहत।


प्रेम के भाव उसके नहा चाँदनी में,


करते पूरी उसकी अधूरी सी चाहत।


ये सारी रातें जो पूनम की होतीं-


कभी हाथों प्रेमी के खंजर न होता।


        कभी प्यार का सलोना मंज़र न होता।।


 


चाँदनी रात का चाँद प्यारा है लगता,


चंदा मामा की लोरी लुभाए सदा।


नन्हें-मुन्ने गगन में निरख चाँद को ही,


कहें मामा की हमको है भाए अदा।


अगर चाँद में ऐसा सुधा-गुण न होता-


तो कभी नाम इसका सुधाकर न होता।।


          कभी प्यार का सलोना मंज़र न होता।।


 


चाँदनी रात धरा की सौगात प्यारी,


है छिपा इसमें ईश्वर का वरदान है।


ये धरा भी नहाई लगे चाँदनी में,


जैसे प्यारी प्रकृति का ये ईमान है।


चाँद भी कभी प्यारा-सुहाना न होता-


अगर व्योम में तपता दिवाकर न होता।।।


       कभी प्यार का सलोना मंज़र न होता।।


 


चाँदनी रात की ही नरम रौशनी में,


ये नहाकर निकलता जहाँ में सवेरा।


नई चेतना सँग नई शक्ति का ही तब,


होता है जन-जन में नवल नित बसेरा।


अगर चाँदनी रातें गगन में न होती-


तो ये रति का स्वामी धनुर्धर न होता।।


           कभी प्यार का सलोना मंज़र न होता।।


              ©डॉ0 हरि नाथ मिश्र


                  9919446372


मैत्रीकाव्य सम्मेलन सहरसा

🤝🏼 *सम्पूर्ण हुआ त्रिदिवसीय ऐतिहासिक *🤝🏼


 


साहित्य साधक अखिल भारतीय साहित्यक मंच सहरसा बिहार एवं बिलासा साहित्यिक संगीत धारा छत्तीसगढ़ के आपसी मैत्रीपूर्ण संबंधों को यादगार बनाने के लिए दोनों साहित्यिक पटल के बीच कई प्रस्ताव प्रस्तुत हुए,। त्रिदिवसीय मैत्री काव्य सम्मेलन में दोनों पटल की मित्रता को स्थाई बनाने हेतु कार्यान्वयन पर भी विशद चर्चा हुई । इसमें सम्मानित कवि , कवयित्रियों ने अपनी पूरी ऊर्जा उत्साह के साथ हिस्सा लिया और श्रोता दर्शकों को मंत्र मुग्ध कर दिया । कार्यक्रम विवरण कुछ इस प्रकार रहा ।


 


            प्रथम दिवस के अध्यक्ष आदरणीय डॉ.राणा जयराम सिंह 'प्रताप' जी मुख्य अतिथि आदरणीय केवरा यदु 'मीरा' जी मंच संचालिका आदरणीया व्यंजना आनंद जी एवं आदरणीया आशा आजाद "कृति" जी सरस्वती वंदना रामनाथ साहू 'ननकी' जी एवं नृत्य प्रस्तुति नेहा बड़गुजर वापी ने किया। वहीं द्वितीय दिवस के अध्यक्ष आदरणीय रामनाथ साहू 'ननकी' जी मुख्य अतिथि आदरणीय तेरस केवत्य 'आसूं' जी मंच संचालिका आदरणीया व्यंजना आनंद जी एवं माधुरी डड़सेना जी सरस्वती वंदना आशा आजाद 'कृति' जी नृत्य प्रस्तुति सोलापुर से शिवानी और नव्या ने किया और समापन समारोह सह मैत्री काव्य सम्मेलन की अध्यक्षता आदरणीय साहित्य साधक अखिल भारतीय साहित्यक मंच के अध्यक्ष सह कार्यक्रम अध्यक्ष आदरणीय शशिकांत शशि जी एवं बिलासा साहित्य संगीत धारा मंच की उपाध्यक्षा आदरणीया मनोरमा चंद्रा 'रमा' जी मुख्य अतिथि आदरणीय कृष्ण कुमार क्रांति, आदरणीय तेरस केवत्य आसूं जी मंच संचालिका आदरणीया व्यंजना आनंद जी सुकमोती चौहान रुचि जी आशा आजाद कृति जी सरस्वती वंदना सपना सक्सेना दत्ता जी एवं नृत्य प्रस्तुति चिनमय बर्मन एवं नेहा वडगूजर वापी ने कार्यक्रम को सुशोभित किया ।


             श्री शशिकांत शशि (सहरसा), धनेश्वरी देवाँगन धरा,रायगढ़ ,निक्की शर्मा( रश्मि)अमीत कुमार बिजनौरी ,सुकमोती चौहान "रुचि",रामनाथ साहू "ननकी",कृष्ण कुमार क्रांति, डिजेन्द्र कुर्रे"कोहिनूर,धनेश्वरी सोनी , गीता विश्वकर्मा नेह,देवब्रत'देव',सपना सक्सेना दत्ता,पुष्पा ग़जपाल" पीहू,,


डॉ ओमकार साहू "मृदुल",सुधा रानी शर्मा ,डॉ.दीक्षा चौबे दुर्ग,अमर सिंह'निधि',व्यंजना आनंद (मिथ्या) ,श्री अशोक कुमार जाखड़,


जितेन्द्र कुमार वर्मा, श्री रणविजय यादव ,शिव प्रकाश पाण्डेय,प्रखर शर्मा सिंगोली, कन्हैयालाल श्रीवास्तव ,आशा आजाद,डिजेन्द्र कुर्रे , आशा आजाद,तेरस कैवर्त्य आँसू,साक्षी साहू सुरभि महासमुंद ,विनोद कश्यप,माधुरी डड़सेना " मुदिता ",आशा मेहर 'किरण', सुधा देवांगन 'सुचि', तोरनलाल साहू रोहाँसी, दूजराम साहू "अनन्य पद्मा साहू "पर्वणी" नीलोफ़र फ़ारूक़ी तौसीफ़,अनपूर्णा जवाहर देवांगन ,अर्चना गोयल( माहि) आदि साहित्यकारों की शिरकत से तीन दिवसीय कवि सम्मेलन काफी सफल रहा।


साहित्य साधक अखिल भारतीय साहित्यिक मंच के संस्थापक कृष्ण कुमार क्रांति ने बताया कि यह संयुक्त मैत्री महाकाव्य सम्मेलन, मैत्रीपूर्ण माहौल में संपन्न हुआ । यह मैत्री संबंध ऑनलाइन साहित्य की दुनिया की एक बहुत ही सुंदर और सकारात्मक पहल है , जिस माध्यम से कलमकार जन-जन के मनोभावों को स्वर प्रदान कर सकेंगे। । अखिल भारतीय साहित्यिक मंच, बिहार के राष्ट्रीय संरक्षक डाॅ. राणा जयराम सिंह 'प्रताप' ने त्रिदिवसीय मैत्री काव्य सम्मेलन को सफल एवं सार्थक बताया। उन्होंने कहा कि इन दोनों मंचों की मैत्री से रचनाकारों को व्यापक उड़ान का अवसर उपलब्ध हो पायेगा और वे अपनी रचनाओं के माध्यम से जन-चेतना को जाग्रत करने में सफल हो पायेंगे।


डॉ0 हरि नाथ मिश्र

 चतुर्थ चरण (श्रीरामचरितबखान)-5


 


सभ मंत्री मिलि के बरियाई।


मोंहि सिंहासन पे बैठाई ।।


    मारि असुर जब बाली आवा।


    बैठे मोंहि सिंहासन पावा ।।


मारा मोंहे बहु घनघोरा।


नारी सहित लेइ सभ मोरा।।


    तब मैं भगा होय भयभीता।


     फिरउँ सकल जग मरता-जीता।।


आवे इहाँ न सापहिं मारे।


तदपि रहहुँ डरि बिनू सहारे।।


     सेवक-गति सुनि बिकल राम जी।


     फरकन लगीं भुजा अजान जी।।


सुनु सुग्रीव न होहु उदासू।


हरब तोर मैं सकल निरासू।।


    मारब जाइ एक हम बाना।


    बालि उड़ाउब कीट समाना।।


तासु प्रान कै लाला परहीं।


ब्रह्मा-रुद्र बचाइ न सकहीं।।


      मीत-मीत के काम न आवै।


      पातक मीत जगत कहलावै।।


साँच मीत जग बिपति-निवारक।


सरबसु कष्ट मीत कै धारक ।।


    देवहि बिपति-काल सभ अपुना।


    पुरवहि सदा मीत कै सपुना ।।


जाकर अस नहिं होय मिताई।


ते मूरख जग करै डिठाई ।।


    बरनै मीत मीत-गुन निसि-दिन।


     रखहिं छुपाइ के अवगुन पल-छिन।।


बरजे सदा कुमति कै संगा।


चरचा कइ-कइ सुमति-प्रसंगा।।


दोहा-मीत वही साँचा जगति, जे नहिं छोड़ै साथ।


        संत कहहिं आपद पड़े,संग चलै गहि हाथ।।


 


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दसवाँ अध्याय (श्रीकृष्णचरितबखान)-1


कारन कवन बतावउ मुनिवर।


साप दीन्ह तिन्ह नारद ऋषिवर।।


     कारन कवन कि नारद कूपित।


      नलकूबर-मणिग्रीवहिं सापित।।


सुनहु परिच्छित कह सुकदेवा।


गृहहिं कुबेर जनम दोउ लेवा।।


     तनय कुबेरहिं बड़ अभिमानी।


     धन-घमंड बस भए गुमानी।।


एक बेरि मंदाकिनि-तीरे।


बन कैलासहिं रुचिर-घनेरे।।


     बारुणि-मदिरा कै करि पाना।


     उन्मत भे मग चले उताना।।


बहु नारी लइ नाचत-गावत।


पुष्प-सुसोभित बन महँ धावत।।


      कुदे नारि सँग जल मँदाकिनी।


       कूदे जस हाथी सँग हथिनी।।


करत रहे जल क्रीड़ा बिबिधय।


मगनहिं ताता-थैया करतय।।


    रहे जात वहि मग मुनि नारद।


     देखत लीला ग्यान-बिसारद।।


लखि मुनि नारद जुवतिं लजाईं।


पहिनी पट ते तुरतहिं धाईं।।


     पर नलकूबर अरु मणिग्रीवा।


     नगन बदन रह लखि मुनि देवा।।


सुर कुबेर दोऊ सुत अहहीं।


देखि मुनिहिं पर लाजु न अवहीं।।


दोहा-कुपित होय मुनि दीन्ह तब,दोऊ कहँ अस साप।


        जाहु ठाढ़ तुम्ह बनु तरू, ई अह मम अभिसाप।।


                     डॉ0 हरि नाथ मिश्र


                      9919446372


काव्य रंगोली आज के सम्मानित रचनाकार कृष्ण कुमार 'बेदिल'

कृष्ण कुमार बेदिल


पुत्र -स्व. राम स्वरूप रस्तोगी


जन्म स्थान - चन्दौसी (मुरादाबाद)


कार्य क्षेत्र--मेरठ


जन्म तिथि -18 जुलाई, 1943


शिक्षा- बी काम( आगरा यूनिवर्सिटी),साहित्य सुधाकर  (बॉम्बे हिंदी विद्या पीठ)


विधा-गीत, ग़ज़ल,नज़्म


प्रकाशित पुस्तकें-


मोम का घर(ग़ज़ल संग्रह हिन्दी),


हथेली पर सूरज(ग़ज़ल संग्रह,हिंदी, उर्दू दोनो में)


पीली धूप (ग़ज़ल संग्रह हिन्दी),


ग़ज़ल:रदीफ़ काफ़िया और व्याकरण(ग़ज़ल के सम्पूर्ण व्याकरण की उपयोगी पुस्तक)


 


अनेक साझा काव्य संकलनों में सहभागिता,देश की स्तरीय पत्र पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित,दूरदर्शन एवं आकाशवाणी पर काव्यपाठ।देश के स्तरीय मुशायरों एवं कविसम्मेलनों में काव्यपाठ


 


प्रमुख उपाधियाँ एवं सम्मान- 


 


ग्रेट पर्सनाल्टी अवार्ड-2020 (प्रकृति फाउंडेशन और इंडियन रिकार्ड बुक द्वारा)


 


ग़ज़ल मार्तण्ड सम्मान- 2019 (त्रिवेणी साहित्य,संस्कृति, कला अकादमी, कोलकाता द्वारा)


 


काव्यदीप दुष्यंत कुमार सम्मान 2019 (काव्यदीप, हापुड़ द्वारा)


 


राग मीडिया अवार्ड 2019 (रोमानी आर्ट ग्रुप द्वारा)


 


डॉ परमार पुरुस्कार-2019(सिरमौर कला संगम,हिमाचल प्रदेश)


 


हिन्दी रत्न- 2018 (राष्ट्रीय हिन्दी परिषद द्वारा)


 


मेरठ-रत्न 2017(ऑल इंडिया कॉन्फ्रेंस ऑफ इंटेलेक्चुल्स द्वारा)


 


तुलसी दास सम्मान2017(काव्य सागर साहित्यिक संस्था पंजी. द्वारा


 


हिन्दीगौरव 2014(राष्ट्रीय हिन्दी परिषद द्वारा)


 


शब्द साधक सम्मान 2013 (परमार्थ मुरादाबाद द्वारा)


 


पुरुषोत्तम दास टण्डन सम्मान 2012(राजर्षि पुरुषोत्तम दास टण्डन हिंदी भवन समिति,मेरठ द्वारा)


 


विद्यावाचस्पति (मानद)-2010 (सांस्कृतिक,साहित्यिक,कला अकेडमी, परियावां द्वारा)


दुष्यंत स्मृति सम्मान 2009(अंतर्राष्ट्रीय साहित्य कला मंच द्वारा)


 


इसके अतिरिक्त लाइंस क्लब,रोटरी क्लब,भारत विकास परिषद आदि अनेक साहित्यिक और सामाजिक संस्थाओं द्वारा सम्मान और नागरिक अभिनन्दन


 


वर्तमान पता-


 


डॉ.कृष्ण कुमार "बेदिल"


"साई सुमरन"


डी-115,सूर्या पैलेस,दिल्ली रोड, मेरठ-250002


मोब-9410093943, 8477996428


E-MAIL-kkrastogi73@gmail.com


 


    हिंदी ग़ज़ल 


रंग भी अपने खुशबू अपनी गुलशन अपना है,


सब अपने हैं तब फूलों में कैसा झगड़ा है।


 


गिरने मत देना तू ये दस्तार बुज़ुर्गों की,


शाइर कौन सियासत के क़दमों में झुकता है।


 


धुंधले मैले किरदारों को साफ करें कैसे,


धुल तो सकता है जो गर्दआलूदा चेहरा है।


 


वो है आली ज़र्फ़ बताती उसकी ख़ामोशी,


दरिया बन देखेंगे सागर कितना गहरा है।


 


आँखें बन्द नज़र में वो थे,उनकी नकहत थी,


खुशबू से हर शेर ग़ज़ल का महका महका है।


 


पूछ रहे है अपने घर का रस्ता उनसे हम ,


यादों की मौजों में अब सन्नाटा पसरा है।


 


वहशत की गठरी रख दी है मेरे कांधों पर,


इस बस्ती में 'बेदिल' ही दीवाना लगता है।


कृष्ण कुमार बेदिल


 


ग़ज़ल


दिल मे पोशीदा खयालात का पैकर होना।


भूली बिसरी सी वही बात मुकर्रर होना।


 


मैं तो चलता ही रहा,जानिबे मंज़िल ता उम्र


मैंने दरियाओं से सीखा है समुन्दर होना।


 


मुंसलिक है तेरी परछाई किसी सूरज से,


मैंने चाहा न तेरे क़द के बराबर होना ।


 


एक मिसरे में गुज़र जाती हैं रातें कितनी,


इतना आसाँ नहीं दुनिया में सुखनवर होना।


 


आज तारीख़ से कुछ सीख के बदलो खुद को,


रोक सकते हो अहिल्याओं का पत्थर होना।


 


जो ये कहते हैं कि शुहरत के तलबगार नहीं,


चाहते हैं वही अख़बार में ऊपर होना।


 


जो गुनहगार नहीं है वो बताए 'बेदिल' ,


हमको तस्लीम है ख़ुद अपना गुनहगर होना।


कृष्ण कुमार बेदिल


 


ग़ज़ल


आप जब निकले मुहब्बत की रिदा ओढ़े हुए,


तब अज़ानो-शंख में कुछ फ़ासले थोड़े हुए ।


 


बेख़ुदी का फिर वही आलम वही दीवानगी,


मिल गए हैं डायरी में कुछ वरक़ मोड़े हुए ।


 


मंज़िलों के रास्तों पर रोशनी के वास्ते,


रात की दहलीज़ पर हैं कुछ दिए छोड़े हुए।


 


अपने दिल की आप जाने हमको अपना है पता,


अपनी ग़ज़लों से हैं अब तक आपको जोड़े हुए।


 


ओढ़कर चादर फ़लक की सो गया मज़दूर इक,


नीचे बिस्तर पत्धरों का पूरे दिन तोड़े हुए।


 


तिश्नगी भी ख़ारज़ारों की बुझाई इस तरह


कुछ फफोले पाँव के काँटो से हैं फोड़े हुए ।


 


खुश नहीं रह पाएगा 'बेदिल' जड़ों से जो कटा,


फूल मुर्झाते हैं जल्दी शाख़ से तोड़े हुए।


 कृष्ण कुमार बेदिल


 


ग़ज़ल


ज़िन्दगी के फलसफे को और उलझायेगा क्या।


ढाल ले हालात के सांचे में,कल का क्या पता ।


 


चाँद भी है मुजमहिल सा, ख़्वाब आलूदा दरख़्त,


ग़मज़दा हैं सब सितारे आज है फिर रतजगा।


 


लग्ज़िशें क़दमों की हों या पाँव की मेरे थकन,


ठोकरों से फिर नया निकलेगा कोई रास्ता।


 


दूर तक अहसास की राहों में मेरा हमसफ़र,


बस तख़य्युल था तेरा कोई तो मेरे साथ था।


 


तेरे आने की खबर है और हवा भी गर्म है,


बंद रक्खूं या कि खोलूं खिड़कियाँ तू ही बता।


 


अब भी याद आती है मिट्टी के घरोंदों की महक,


जब भी दीवारें मेरे घर की मुझे देतीं सदा।


 


जिस्म में फूलों के 'बेदिल' हैं महकती खुशबुएँ ,


 मिल के दोनों ही बनाते हैं फ़िज़ा को खुशनुमा।


कृष्ण कुमार बेदिल


   


                     ग़ज़ल


ज़ुबान दिल में छुपे राज़ को दबाएगी ,


मगर वो चश्मे-इनायत छुपा न पाएगी।


 


तेरे ख़्याल से रोशन है माहताब मेरा,


हवा चिराग़ मेेरे कब तलक बुझाएगी।


 


वो फितरतन है अभी तिफ्ल कौन समझाए


कि नाव कागज़ी दरिया में चल न पाएगी।


 


ये ज़ीस्त खेल है जीतोगे और हारोगे


शिकस्तगी भी नए ज़ाविये बनाएगी।


 


ये तितलियों के परों की नुमाइशें बेदिल


बहार आयी तो इनसे फरेब खाएगी।


 


जो खुद को भूल के बैठे है अब उन्हें बेदिल,


फ़िज़ा भी रोज़ नए आईने दिखाएगी।



 


 


 


 


 


डॉ निर्मला शर्मा 

बेहाल किसान, करे सवाल?


 


 किसानों के ये बिगड़ते हुए हालात


 टूटती उम्मीदों के बिखरते से जज्बात 


सरकार और समाज के लिए


 चिंताजनक है ये भड़कती आग


 कर्जे के तले डूबते किसानों की आह !!


तिल- तिल मरते परिवार की कराह!!


 मजबूर कर देता है उन्हें हारने को


 आत्महत्या जैसा कठोर कदम उठाने को


 हालातों का मारा बेहाल किसान


 करता है आज बेबस सवाल??


 आजादी के बाद भी ना सुधरे,


 क्यों है मेरे हालात बदहाल?


 बनता हूं क्यों मुनाफाखोरी का शिकार?


 आज भी व्यवस्था में क्यों है विकार?


 सुधारों की चाल क्यों है धीमी इतनी?


इंतजार करता हूं टूटती है उम्मीदउतनी?


 कैसे होगा मेरा देश खुशहाल ?


अन्नदाता ही जब होगा यहाँ बेहाल ?


 


डॉ निर्मला शर्मा 


दौसा राजस्थान


डॉ0 निर्मला शर्मा

चाँदनी रात


 दूध सी धवल


 दधि को सो


 आभास कराती 


चाँदनी रात आई 


आकाश में तारों संग


 झिलमिलाती 


शीतलता बिखराती


 स्नेहिल स्पंदन युक्त


 आकर्षण में बाँधती


शांत स्निग्ध 


तापस बाला सी


 चिर तपस्या में 


लीन मुस्कुराती


 संगमरमर की 


शिलाओं सा दिखता


आसमान फैला 


लहराता कोई


 श्वेत वस्त्र 


कामिनी बाला का


 बड़ा सजीला


 मतवाला ह्रदय 


चाँदनी रात की 


तन्हाई में 


आनंदित है 


चंद्रमा की 


किरणों से 


सजी इस 


अमराई में 


तरंगित है।


 


डॉ0 निर्मला शर्मा


दौसा राजस्थान


डॉ. राम कुमार झा "निकुंज"

दिनांकः १०.१०.२०२०


दिवसः शनिवार


छन्दः मात्रिक


विधाः दोहा 


शीर्षकः ,🌅नयी भोर नव आश मन🇮🇳


 


नई भोर नव आश मन , नव अरुणिम आकाश। 


मिटे मनुज मन द्वेष तम , मधुरिम प्रीति प्रकाश।।१।।


 


मार काट व्यभिचार चहुँ , जाति धर्म का खेल।


फँसी सियासी दाँव में , हुई मीडिया फ़ेल।।२।।


 


अनुशासन की नित कमी , लोभ घृणा उत्थान।


प्रतीकार में जल रहा , शैतानी हैवान।।३।।


 


मिटी आज सम्वेदना , दया धर्म आचार।


कहाँ त्याग परमार्थ जग , पाएँ करुणाधार।।४।।


 


सत्ता के मद मोह में , अनाचार सरकार।


मार रही है साधु को , पाती जन धिक्कार।।५।।


 


बँटी हुई है मीडिया , लोकतंत्र आवाज़।


बेच आज निजअस्मिता,फँस लालच बिन लाज।।६।।


 


कौन दिखाए सत्य को , जगाए जनता कौन।


जाति धर्म फँस मीडिया ,चतुर्थ आँख जब मौन।।७।।


 


अद्भुत भारत अवदशा , अद्भुत जनता देश।


तुली तोड़ने देश को , कोप लोभ खल वेश।।८।।


 


नश्वर तन है जानता , नश्वर भौतिक साज।


फिर भी पापी जग मनुज ,चाहत धन सरताज।।९।।


 


स्वार्थ पूर्ति में देश को , तोड़ रहा इन्सान।


रिश्ते नाते सब भुले , देश धर्म सम्मान।।१०।।


 


आहत है माँ भारती ,लज्ज़ित है निज जात।


पा कुपूत चिर हरण निज , अश्रु नैन पछतात।।११।।


 


लज्जित हैं पूर्वज वतन , देख वतन गद्दार।


पछताती कुर्बानियाँ , भारतार्थ उद्धार।।१२।।


 


कामुक लोभी कपट जन , देश द्रोह नासूर।


विध्वंसक ये देश के , दुष्कर्मी नित क्रूर।।१३।।


 


आवश्यक जन जागरण , दर्शन नव पुरुषार्थ।


नैतिक शिक्षा हो पुनः, भरें भाव परमार्थ।।१४।।


 


त्याग शील मानव हृदय , दें बचपन उपदेश।


धर्म कर्म सद्ज्ञान दें , भारतीय परिवेश।।१५।।


 


उपकारी अन्तःकरण , राष्ट्र भक्ति मन प्रीति।


राष्ट्र प्रगति हो निज प्रगति , हो शिक्षा नवनीति।।१६।।


 


समरसता सद्भाव मन , बचपन में दें पाठ।


मानवीय अनमोल गुण , संस्कार दें गाँठ ।।१७।।


 


बचपन जब नैतिक सबल, तरुण बने मजबूत।


तब भारत सुख शान्ति हो , युवा देश हों दूत।।१८।।


 


इन्द्रधनुष सतरंग बन , खिले प्रगति अरुणाभ।


खुशियाँ महकेँ कुसुम बन,सुखद शान्ति नीलाभ।।१९।।


 


कवि निकुंज दोहावली , माँग ईश वरदान।


मति विवेक परहित सदय , बने मनुज इन्सान।।२०।।


 


 डॉ. राम कुमार झा "निकुंज"


नई दिल्ली


सुनीता असीम

मेरे प्यार को है तुम्हारा सहारा।


कन्हैया मिलो आज हमने पुकारा।


*****


नहीं रोशनी है चरागों में मेरे।


चले आओ कर दो ज़रा कुछ उजारा।


*****


जो चाहो तो ले लो मेरे धन औ दौलत।


तुम्हारे बिना पर नहीं है गुजारा।


*****


हरिक रोज दिखती चमक है अनोखी।


तुम्हें ध्यान से जब भी हमने निहारा।


*****


 है रहमत जियादा या आँसू जियादा।


करेंगे किसी रोज़ तुमसे ख़सारा।


*****


कसम राधिका की है तुमको कन्हैया।


हमें आपने जो नज़र से उतारा।


*****


अंधेरी सी रातों में उम्मीद तुम हो।


हो मन के गगन का तुम्हीं इक सितारा।


*****


सुनीता असीम


कालिका प्रसाद सेमवाल

मैं बलिहारी होता हूं


****************


आओ मेरी प्रेयसि!


मैं नित करता वन्दन!


 हंस दो मेरी संगिनी!


विखरे रोली चन्दन!


 


तुम ललकार भरो अब टूटे जग का बन्धन,


तुम भुज बल्लरियों की शोभा,मानस नन्दन।


 


गीत नयन की हो तुम मधुरिम प्रीति हृदय की,


वर वंशी वयनी हो,हो वरदान अभय की।


टूटी कड़ियों की झंकार, मधुरिमा लय की,


रागी राग सपन हो, चंचल वायु मलय की।


 


तेरे भुज वंदन में बंधने को अकुलाता,


देख तुम्हारा रूप मनोहर मन तरसाता।


विह्वल होकर गीतों के जब छंद बनाता,


आकुल उर के गायन से उनको दुहराता।


 


कैसे मीत हृदय के, जिसको भूल न पाता,


कैसे गीत हृदय के, जिनको नित प्रति गाता।


कैसे हास नयन के, जिसके बिना घबराता,


कौन मधुरिमा मन की


मैं बलिहारी जाता।


*****************


कालिका प्रसाद सेमवाल


मानस सदन अपर बाजार


रुद्रप्रयाग उत्तराखंड


पिनकोड 246171


डॉ. हरि नाथ मिश्र

*दोहे प्रेम के*


प्रियतम-प्रेमी-प्रियतमा,अति प्रिय प्रेमी- बात।


ज़रा-ज़रा सी बात पर,कर न प्रेम से घात ।।


 


बड़ी भाग्य से जगत में,मिलता सच्चा प्यार।


यदि रूठे प्रेमी कभी,तो भी करो गुहार।।


 


है आभूषण प्रेम का,मात्र यही मनुहार।


काम मनाना,रूठना,सच्चा प्रेमाधार।।


 


प्रेम समर्पण माँगता, मद-घमंड से दूर।


अहम-भाव को शून्य कर,मिले प्रेम भरपूर।।


 


प्रेमी-प्रियतम-प्रेमिका,कहो सभी को एक।


आत्मा सबकी एक है,भले शरीर अनेक।।


 


प्रेम-तत्त्व अति गूढ़ है,गूढ़ प्रेम का ज्ञान।


जिसने समझा प्रेम को,समझ लिया भगवान।।


 


वाह्याकर्षण प्रेम का,होता नहीं स्वरूप।


प्रेम भीतरी भाव है,प्रियतम साँच अनूप।।


             ©डॉ0हरि नाथ मिश्र


                 9919446372


राजेंद्र रायपुरी

😌 करूण रस पर एक रचना 😌


 


 


छूटी नहीं है हाथ की लाली अभी।


जेवर सजे हैं देखिए तन पर सभी‌।


तूने विधाता भाग्य में था क्या लिखा,


पिय सेज उसके आ नहीं सकते कभी।


 


पिय लाश को वो देखकर धरनी पड़ी।


इससे कहो विपदा भला क्या है बड़ी।


थे संग जिसके सात फेरे कल लिए, 


उसके विदाई की अशुभ आई घड़ी।


 


             ।। राजेंद्र रायपुरी।।


देवानंद साहा"आनंद अमरपुरी"

शुभ प्रभात:-


 


दुनियां से होकर मजबुर कहां जाऊंगा?


अपनों से होकर दूर कहां जाऊंगा?


ऊपर वाले पर भरोसा रख "आनंद" ;


भरोसे से होकर दूर कहां जाऊंगा?


 


------- देवानंद साहा"आनंद अमरपुरी"


विनय साग़र जायसवाल

ग़ज़ल


 


जिस घड़ी आज मेरे वो घर आयेगी 


यह ख़बर बिल यक़ीं दूर तक जायेगी


 


मेरे शाने पे रख्खा है तूने जो सर 


ज़ीस्त भर मुझको ख़ुशबू ये महकायेगी 


 


मुझसे कर ली अगर तूने कुछ गुफ्तगू 


अपनी हस्ती पे बरसों तू इतरायेगी


 


गा रहा है ज़माना ही मेरी ग़ज़ल


एक दिन तू ख़ुशी से इसे गायेगी


 


मैंने इक़रारे-उल्फ़त अगर कर लिया 


अपने आँचल को गा गाके लहरायेगी


 


राज़े-उल्फ़त समझ लेगा हर इक बशर 


तेरी मेरी नज़र यूँ जो टकरायेगी


 


मेरी आँखों में *साग़र* हैं अफ़साने जो 


ता कयामत तू पढ़ पढ़ के मुस्कायेगी


 


🖋️विनय साग़र जायसवाल


9/10/2020


एस के कपूर "श्री हंस"

*रचना शीर्षक।।तेरा अंतस तेरा*


*भगवान होता है।।*


 


गया वक़्त फिर से हाथ


आता नहीं है।


टूटा यकीन तो साथ छूट


जाता वहीं है।।


तू आगे के जन्नत की


बात मत सोच।


जो भी स्वर्ग नर्क तू बस


पाता यहीं है।।


 


नफरत तो जहर है तो क्या


जरूरत पीने की।


जरूरत है तो बस रिश्तों की


तुरपाई सीने की।।


जिन्दगी जियो कुछ अंदाज़


नज़र अंदाज़ से।


जरूरत होती है कभीअपनों


के दर्द पीने की।।


 


रास्ता गलत है तो वक़्त से


छोड़ देना चाहिए।


बिगड़े कोई बात तो बात को


मोड़ देना चाहिए।।


फल पकते तो फिर पत्थर


भी मिलते हैं।


बात हो स्वाभिमान की तो


झकझोर देना चाहिए।।


 


तेरा अन्तस ही तेरा अपना


भगवान होता है।


बताता सही गलत क्या


नुकसान होता है।।


अंतरात्मा कराती है दिशा


बोध हर वक़्त।


समय से संभले वही सच्चा


इंसान होता है।।


 


*रचयिता।।एस के कपूर "श्री हंस*"


*बरेली।।*


मोब।। 9897071046


                     8218685464


नूतन लाल साहू

सुमत का रथ सजा लेे


 


बदल नहीं सकते,अगर अकेला


दुनिया का दस्तूर


तो फिर उसको,क्यों नहीं


कर लेते, मंजूर


तैयारी रख,सफ़र की


बांध ले,सब सामान


न जाने कब,मौत का


आ जायेगा, फरमान


खुद पर,मत इतराइये


सुमत का रथ,सजा लेे


कल करे सो,आज कर


आज करे सो, अब


पल में, परलय होत है


बहुरी करेगा, कब


मांगता ही रहता है, रात दिन


धरती का, इंसान


इसीलिए,बहरे बन गया है


दीन बंधु भगवान


चनाअकेला, भाड़ नहीं फोड़ सकता है


सुमत का रथ,सजा लेे


मिल जाये,सहारा प्रभु का


और नहीं,कुछ चाह रखो


तब, रब खुद ही करेगा


बंदे का परवाह


पढ़ता रहता,सत्य का


नियमित जो अध्याय


मां सरस्वती,उस शख्स का


करती हैं,सदा सहाय


जीवन भर,उसका गणित


न समझा,इंसान


माता पिता और गुरुजन का


आशीष काम आयेगा


सुमत का रथ,सजा लेे


नूतन लाल साहू


कालिका प्रसाद सेमवाल

*गाय घर को स्वर्ग बनाती*


~~~~~~~~~~~~


जिस घर में नित्य गाय की


पूजा की जाती है,


वह घर तो बन जाता है


तीरथ धाम के समान।


 


गाय के सभी अंगों में


होता है देव निवास,


कोई भी धार्मिक कार्य


बिना गाय के न होय।


 


विश्वनाथ को दुग्ध धार


ममलेश्वर महादेव दधि धार,


केदारनाथ को घृत लेपन


नर जो करें, वह भव सागर तर कर लें।


 


सर्व देवों जननी गौ माता है


कामधेनु गाय कहलाती है,


प्रात काल गौ ग्रास खिलाकर


गाय पूजी जाती है।


~~~~~~~~~~~~


कालिका प्रसाद सेमवाल


मानस सदन अपर बाजार


रुद्रप्रयाग उत्तराखंड


निशा"अतुल्य"

दिल मानता नहीं


10.10.2020


माहिया


 


बतिया सुन लो साजन  


नैना बोल रहे


छवि तेरी मन भावन ।


 


ये दिल मानता नहीं


होगा क्या साजन


मन लगता नहीं कहीं


 


दिल मेरा माने ना 


आओ तुम प्रियवर


आए तब ही चैना ।


 


क्यों नींद उड़ाते हो


नींदों में आकर 


मुझको भरमाते हो ।


 


जी चैन नहीं पाता


देखूं सूरत तो


दिन मेरा बन जाता ।


 


चलो दोनों सँग चलें 


राहें कट जाती


मुश्किल जो कोई पड़े ।


 


स्वरचित 


निशा"अतुल्य"


डॉ. हरि नाथ मिश्र

*नौवाँ अध्याय*(श्रीकृष्णचरितबखान)-3


अस प्रभु बालक जानि क माता।


बान्हीं ऊखल संग बिधाता।।


     उधमी-नटखट लला कन्हाई।


     रस्सी लइ जब बान्हहिं माई।।


दुइ अंगुल भे छोटइ रस्सी।


अपर रज्जु तब जोड़हिं कस्सी।।


    जोड़हिं रस्सी पुनि-पुनि माता।


     पुनि-पुनि दुइ अंगुल रहि जाता।।


कटि पातर औ रस्सी भारी।


तदपि न आटे कटि गिरधारी।।


     भईं पसीना लथ-पथ माता।


      बान्हहिं कइसे समुझि न आता।।


लखि-लखि गोपी सभ मुस्काएँ।


मातु जसोदा बान्ह न पाएँ ।।


     लखि के बिकल-थकित बड़ माई।


     तुरतयि ऊखल जाइ बन्हाई ।।


सुनहु परिच्छित मन चितलाई।


परम सुतंत्रहिं किसुन कन्हाई।।


      ब्रह्मा-इंद्रहिं अरु संसारा।


      बस मा रहहिं कृष्न कहँ सारा।।


पर रह प्रभू भगत के बस मा।


बंधन इहहि अटूट जगत मा।।


    रहै बरू कोउ ब्रह्मा-पुत्तर।


    आतम होवै बरु कोउ संकर।।


होवै भले ऊ लछिमी-पतिहीं।


वहि न मिलै मुकुंद परसदहीं।।


      लीं प्रसाद जे जसुमति माता।


      जनम जासु ग्वाल-कुल जाता।।


जे प्रसाद मुकुंद भगवाना।


नहिं ऊ सुलभ जोग-तप-ग्याना।।


    अस प्रसाद बस भगतहिं मिलई।


    ऋषिहिं-मुनिहिं ई दुर्लभ रहईं।।


दोहा-नारद सापहिं पाइ के,ठाढ़ि रहे बनि बृच्छ।


         भई कृपा प्रभु कृष्न कै, पुनि ते भे जनु सिच्छ।।


         धन-घमंड के कारनहिं,दिए मुनी तिन्ह साप।


         स्वयं रहे बंधन बँधे,मुक्त कीन्ह तिन्ह पाप।।


        कीन्ह मुक्त अर्जुन बिटप,नलकूबर,मणिग्रीव।


        बँधि ऊखल मा स्वतः प्रभु,पुत्र कुबेर सजीव।।


                      डॉ0हरि नाथ मिश्र


                       9919446372


डॉ. हरि नाथ मिश्र

*चतुर्थ चरण*(श्रीरामचरितबखान)-4


लखि लछिमन अस प्रीति नियारी।


रामचरित सभ कह तहँ डारी ।।


      सुनि सुग्रीव नीर भरि लोचन।


      कह सिय मिलहिं मुक्त भव सोचन।।


एक बेरि यहँ बैठि मंत्रि सँग।


मैं देखउँ सिय जात गगन-मग।।


     राम-राम बिलपत मग सीता।


      कोउ खल रथहीं बैठि सभीता।।


देखि हमन्ह सभ निज पट फेंकी।


कह तिसु लखि प्रभु की बड़ नेकी।।


     सुनहु नाथ हम सेवक तोरा।


     खोजब अवसि मातु सिय मोरा।।


तब पूछे हरषित रघुबीरा।


कारन कवन रहसि गिरि धीरा।।


    सुनहु नाथ हम भाई दोऊ।


     को बड़-लघु लखि सकै न कोऊ।।


एक बेरि मय-सुत मायाबी।


आवा पुर मोरे हो हाबी ।।


     आधी रात पहर कै बेला।


     कीन्हा दनुज द्वार बड़ खेला।।


बालि-बालि कहि नाम पुकारा।


बाली सहि न सका ललकारा।।


     लखि मायाबी आवत बाली।


     चला भाग तजि द्वारहि हाली।।


धाइ गया मैं बाली संगा।


गुहा छुपा मयाबि करि दंगा।।


     बाली कहा रहहु पखवारा।


     गुहा-द्वार पे बनि रखवारा।।


पाऊँ लवटि न जे तेहि अवधी।


समुझउ मोंहि मायाबी बधी।।


   सुनहु नाथ निज हिय धरि धीरा।


    जोहे मास एक सहि पीरा ।।


रुधिर-धार जब देखा भारी।


ढाँकि सिला तें गुफा-दुवारी।।


     भागि चला मैं तुरत पराई।


     जानि मृत्यु आवत नियराई।।


दोहा-मारि अबहिं मम भ्रात कहँ,अवसि मयाबी आय।


        करी मोर बध अपि तुरत,एहिं तें चला पराय।।


                    डॉ0हरि नाथ मिश्र


                      9919446372


डॉ निर्मला शर्मा  दौसा राजस्थान

किसानों की समस्याएं


 


 वह सब की भूख मिटाता है


 खेतों में अन्न उगाता है 


मेरे देश की है पहचान कृषक


 फिर भी वह पिछड़ा जाता है 


 


कभी महाजनों के मकड़जाल


 कभी जमींदार का मायाजाल


 सदियों से सहता पीर रहा 


 कर्जे में डूबा जाता है


 


 यदि फसल उगाता खट-पिट कर


 उसका न मूल्य मिल पाता है 


सरकारी नियमों में उलझा 


तकलीफ वह महती पाता है 


 


 उत्तम कोटि के खाद- बीज 


उसको कभी मिल नहीं पाते हैं


 है गरीब बड़ा स्वाभिमानी वह


 व्यवस्था नहीं कर पाते हैं 


 


कभी मानसून धोखा देता


 जलस्तर भी होता नीचा


 सिंचाई का रहता अभाव यहां 


कैसे अच्छी हो फसल वहां 


 


मिट्टी भी जैसे कभी रंग बदले 


परेशानी नई बढ़ाती है


 होता मिट्टी का क्षरण वहां 


जहां फसलें बोई जाती है


 


 पारंपरिक कृषि की विधियों पर


 किसानों का है विश्वास अटल


 अपनाते नहीं उपकरण हैं


लागत में धोखा खाते हैं


 


 भंडारण की नहीं सुविधा 


 होती है सामने बड़ी दुविधा 


बेचान फसल का करते हैं


 मजबूरी दाम घटाती है


 


 पूंजी की कमी और परिवहन 


यह भी बड़ी बाधाएं हैं 


जिनकी गिरफ्त में फंसा पड़ा 


मेरा किसान बेचारा है 


 


डॉ निर्मला शर्मा


 दौसा राजस्थान


डॉ. हरि नाथ मिश्र

*चतुर्थ चरण*(श्रीरामचरितबखान)-2


ऋष्यमूक गिरि-मग प्रभु चलहीं।


सचिव सहित कपीस जहँ रहहीं।।


     लखि के लखन सहित प्रभु आवत।


     संसय मन सुग्रीवयि धावत ।।


सुनु हनुमंत कहहि सुग्रीवा।


हती बालि मोहिं धरि मम ग्रीवा।।


     यहि कारन भेजा दुइ बीरा।


     हृष्ट-पुष्ट अरु गठित सरीरा।।


बटुक भेष धरि तुम्ह हनुमाना।


पूछहु तिनहिं इहाँ कस आना।।


    नहिं तै अबहिं त्यागि गिरि जाइब।


    छाँड़ि सैल ई कतहुँ पराइब।।


तब धरि भेष बटुक हनुमंता।


पहुँचे जहाँ रहे भगवंता।।


     बटुक-रूप अवनत कर जोरे।


     पूछहिं हनुमत भाव-बिभोरे।।


तमहिं कवन बताउ रन-बाँकुर।


फिरऊ इहाँ रूप धरि ठाकुर।।


     साँवर राम,लखन-तन गोरा।


     निरखत छबि मन होय बिभोरा।।


कोमल पद यहिं बन-पथ फिरहीं।


कारन कवन बतावउ हमहीं।।


     लागत तुम्ह जनु हो प्रभु सोऊ।


     ब्रह्मा-बिष्नु-महेसहि कोऊ।।


नर की तुमहिं नरायन रूपा।


की तुम्ह दोऊ रूप अनूपा।।


    की तुम्ह लीन्ह मनुज अवतारा।


    भव-भय-तारन इहहिं पधारा।।


बिचरहु बन-भुइँ आभड़-खाभड़।


पाँव नरम पथ पाथर-काँकड़।।


     तब प्रभु राम कहा सुनु बिप्रहु।


      हम दोउ भ्राता दसरथ पुत्रहु।।


नामा राम-लखन नृप जाए।


पितु-आग्या लइ हम बन आए।।


    खोजत फिरहुँ प्रिया बैदेही।


    हरे जिनहिं निसिचर बन एही।।


प्रभुहिं-बचन सुनि कह हनुमाना।


प्रभु मम स्वामी मैं नहिं जाना।।


    प्रभु कै चरन छूइ कपि कहऊ।


    छमहु नाथ मैं जानि न सकऊ।।


पुलकित तन मुख बचन न आवा।


प्रभुहिं क जानि परम सुख पावा।।


    माया बस जीवहि जग रहई।


    सक न जानि प्रभु सत्ता इहई।।


दोहा-जीव जगत जब लगि रहै, रहै मोह-आबद्ध।


        मुक्ति न पावै बिनु कृपा,बिनु प्रभु के सानिद्ध।।


                       डॉ0हरि नाथ मिश्र


                         9919446372


डॉ. हरि नाथ मिश्र

*नवाँ अध्याय*(श्रीकृष्णचरितबखान)-1


एक बेरि जसुमति नँदरानी।


मथन लगीं दधि लेइ मथानी।।


     सुधि करतै सभ लला कै लीला।


     दही मथैं मैया गुन सीला।।


कटि स्थूल भाग पै सोहै।


लहँगा रेसम कै मन मोहै।।


    पुत्र-नेह स्तन पय-पूरित।


     थकित बाँह खैंचत रजु थूरित।।


कर-कंगन,कानहिं कनफूला।


हीलहिं जनु ते झूलहिं झूला।।


     छलक रहीं मुहँ बूंद पसीना।


     पुष्प मालती चोटिहिं लीना ।।


रहीं मथत दधि जसुमति मैया।


पहुँचे तहँ तब किसुन कन्हैया।।


     पकरि क तुरतै दही-मथानी।


      चढ़े गोद मा जसुमति रानी।।


लगीं करावन स्तन-पाना।


मंद-मंद जसुमति मुस्काना।।


     यहि बिच उबलत दूध उफाना।


     लखि जसुमति तहँ कीन्ह पयाना।।


छाँड़ि कन्हैया बिनु पय-पानहिं।


जनु अतृप्त-छुब्ध अवमानहिं।।


    क्रोधित कृष्न भींचि निज दँतुली।


    लइ लोढ़ा फोरे दधि-बटुली।।


निज लोचन भरि नकली आँसू।


जाइ क खावहिं माखन बासू।।


     उफनत दूध उतारि क मैया।


     मथन-गृहहिं गइँ धावत पैंया।।


फूटल मटका लखि के तहवाँ।


जानि लला करतूतै उहवाँ।।


     प्रमुदित मना होइ अति हरषित।


     बिहँसी लखि लीला आकर्षित।।


उधर किसुन चढ़ि छींका ऊपर।


माखन लेइ क छींका छूकर।।


     रहे खियावत सभ बानरहीं।


     बड़ चौकन्ना भइ के ऊहहीं।।


कर गहि छड़ी जसूमति मैया।


जा पहुँची जहँ रहे कन्हैया।।


   देखि छड़ी लइ आवत माई।


   डरि के कान्हा चले पराई।।


बड़-बड़ मुनी-तपस्वी-ग्यानी।


सुद्ध-सुच्छ मन प्रभुहिं न जानी।।


     सो प्रभु पाछे धावहिं माता।


     लीला तव बड़ गजब बिधाता।।


दोहा-आगे-आगे किसुन रहँ, पाछे-पाछे मातु।


         भार नितम्भहिं सिथिल गति,थकित जसोदा गातु।।


                          डॉ0हरि नाथ मिश्र


                            9919446372


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