कृष्ण कुमार बेदिल
पुत्र -स्व. राम स्वरूप रस्तोगी
जन्म स्थान - चन्दौसी (मुरादाबाद)
कार्य क्षेत्र--मेरठ
जन्म तिथि -18 जुलाई, 1943
शिक्षा- बी काम( आगरा यूनिवर्सिटी),साहित्य सुधाकर (बॉम्बे हिंदी विद्या पीठ)
विधा-गीत, ग़ज़ल,नज़्म
प्रकाशित पुस्तकें-
मोम का घर(ग़ज़ल संग्रह हिन्दी),
हथेली पर सूरज(ग़ज़ल संग्रह,हिंदी, उर्दू दोनो में)
पीली धूप (ग़ज़ल संग्रह हिन्दी),
ग़ज़ल:रदीफ़ काफ़िया और व्याकरण(ग़ज़ल के सम्पूर्ण व्याकरण की उपयोगी पुस्तक)
अनेक साझा काव्य संकलनों में सहभागिता,देश की स्तरीय पत्र पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित,दूरदर्शन एवं आकाशवाणी पर काव्यपाठ।देश के स्तरीय मुशायरों एवं कविसम्मेलनों में काव्यपाठ
प्रमुख उपाधियाँ एवं सम्मान-
ग्रेट पर्सनाल्टी अवार्ड-2020 (प्रकृति फाउंडेशन और इंडियन रिकार्ड बुक द्वारा)
ग़ज़ल मार्तण्ड सम्मान- 2019 (त्रिवेणी साहित्य,संस्कृति, कला अकादमी, कोलकाता द्वारा)
काव्यदीप दुष्यंत कुमार सम्मान 2019 (काव्यदीप, हापुड़ द्वारा)
राग मीडिया अवार्ड 2019 (रोमानी आर्ट ग्रुप द्वारा)
डॉ परमार पुरुस्कार-2019(सिरमौर कला संगम,हिमाचल प्रदेश)
हिन्दी रत्न- 2018 (राष्ट्रीय हिन्दी परिषद द्वारा)
मेरठ-रत्न 2017(ऑल इंडिया कॉन्फ्रेंस ऑफ इंटेलेक्चुल्स द्वारा)
तुलसी दास सम्मान2017(काव्य सागर साहित्यिक संस्था पंजी. द्वारा
हिन्दीगौरव 2014(राष्ट्रीय हिन्दी परिषद द्वारा)
शब्द साधक सम्मान 2013 (परमार्थ मुरादाबाद द्वारा)
पुरुषोत्तम दास टण्डन सम्मान 2012(राजर्षि पुरुषोत्तम दास टण्डन हिंदी भवन समिति,मेरठ द्वारा)
विद्यावाचस्पति (मानद)-2010 (सांस्कृतिक,साहित्यिक,कला अकेडमी, परियावां द्वारा)
दुष्यंत स्मृति सम्मान 2009(अंतर्राष्ट्रीय साहित्य कला मंच द्वारा)
इसके अतिरिक्त लाइंस क्लब,रोटरी क्लब,भारत विकास परिषद आदि अनेक साहित्यिक और सामाजिक संस्थाओं द्वारा सम्मान और नागरिक अभिनन्दन
वर्तमान पता-
डॉ.कृष्ण कुमार "बेदिल"
"साई सुमरन"
डी-115,सूर्या पैलेस,दिल्ली रोड, मेरठ-250002
मोब-9410093943, 8477996428
E-MAIL-kkrastogi73@gmail.com
हिंदी ग़ज़ल
रंग भी अपने खुशबू अपनी गुलशन अपना है,
सब अपने हैं तब फूलों में कैसा झगड़ा है।
गिरने मत देना तू ये दस्तार बुज़ुर्गों की,
शाइर कौन सियासत के क़दमों में झुकता है।
धुंधले मैले किरदारों को साफ करें कैसे,
धुल तो सकता है जो गर्दआलूदा चेहरा है।
वो है आली ज़र्फ़ बताती उसकी ख़ामोशी,
दरिया बन देखेंगे सागर कितना गहरा है।
आँखें बन्द नज़र में वो थे,उनकी नकहत थी,
खुशबू से हर शेर ग़ज़ल का महका महका है।
पूछ रहे है अपने घर का रस्ता उनसे हम ,
यादों की मौजों में अब सन्नाटा पसरा है।
वहशत की गठरी रख दी है मेरे कांधों पर,
इस बस्ती में 'बेदिल' ही दीवाना लगता है।
कृष्ण कुमार बेदिल
ग़ज़ल
दिल मे पोशीदा खयालात का पैकर होना।
भूली बिसरी सी वही बात मुकर्रर होना।
मैं तो चलता ही रहा,जानिबे मंज़िल ता उम्र
मैंने दरियाओं से सीखा है समुन्दर होना।
मुंसलिक है तेरी परछाई किसी सूरज से,
मैंने चाहा न तेरे क़द के बराबर होना ।
एक मिसरे में गुज़र जाती हैं रातें कितनी,
इतना आसाँ नहीं दुनिया में सुखनवर होना।
आज तारीख़ से कुछ सीख के बदलो खुद को,
रोक सकते हो अहिल्याओं का पत्थर होना।
जो ये कहते हैं कि शुहरत के तलबगार नहीं,
चाहते हैं वही अख़बार में ऊपर होना।
जो गुनहगार नहीं है वो बताए 'बेदिल' ,
हमको तस्लीम है ख़ुद अपना गुनहगर होना।
कृष्ण कुमार बेदिल
ग़ज़ल
आप जब निकले मुहब्बत की रिदा ओढ़े हुए,
तब अज़ानो-शंख में कुछ फ़ासले थोड़े हुए ।
बेख़ुदी का फिर वही आलम वही दीवानगी,
मिल गए हैं डायरी में कुछ वरक़ मोड़े हुए ।
मंज़िलों के रास्तों पर रोशनी के वास्ते,
रात की दहलीज़ पर हैं कुछ दिए छोड़े हुए।
अपने दिल की आप जाने हमको अपना है पता,
अपनी ग़ज़लों से हैं अब तक आपको जोड़े हुए।
ओढ़कर चादर फ़लक की सो गया मज़दूर इक,
नीचे बिस्तर पत्धरों का पूरे दिन तोड़े हुए।
तिश्नगी भी ख़ारज़ारों की बुझाई इस तरह
कुछ फफोले पाँव के काँटो से हैं फोड़े हुए ।
खुश नहीं रह पाएगा 'बेदिल' जड़ों से जो कटा,
फूल मुर्झाते हैं जल्दी शाख़ से तोड़े हुए।
कृष्ण कुमार बेदिल
ग़ज़ल
ज़िन्दगी के फलसफे को और उलझायेगा क्या।
ढाल ले हालात के सांचे में,कल का क्या पता ।
चाँद भी है मुजमहिल सा, ख़्वाब आलूदा दरख़्त,
ग़मज़दा हैं सब सितारे आज है फिर रतजगा।
लग्ज़िशें क़दमों की हों या पाँव की मेरे थकन,
ठोकरों से फिर नया निकलेगा कोई रास्ता।
दूर तक अहसास की राहों में मेरा हमसफ़र,
बस तख़य्युल था तेरा कोई तो मेरे साथ था।
तेरे आने की खबर है और हवा भी गर्म है,
बंद रक्खूं या कि खोलूं खिड़कियाँ तू ही बता।
अब भी याद आती है मिट्टी के घरोंदों की महक,
जब भी दीवारें मेरे घर की मुझे देतीं सदा।
जिस्म में फूलों के 'बेदिल' हैं महकती खुशबुएँ ,
मिल के दोनों ही बनाते हैं फ़िज़ा को खुशनुमा।
कृष्ण कुमार बेदिल
ग़ज़ल
ज़ुबान दिल में छुपे राज़ को दबाएगी ,
मगर वो चश्मे-इनायत छुपा न पाएगी।
तेरे ख़्याल से रोशन है माहताब मेरा,
हवा चिराग़ मेेरे कब तलक बुझाएगी।
वो फितरतन है अभी तिफ्ल कौन समझाए
कि नाव कागज़ी दरिया में चल न पाएगी।
ये ज़ीस्त खेल है जीतोगे और हारोगे
शिकस्तगी भी नए ज़ाविये बनाएगी।
ये तितलियों के परों की नुमाइशें बेदिल
बहार आयी तो इनसे फरेब खाएगी।
जो खुद को भूल के बैठे है अब उन्हें बेदिल,
फ़िज़ा भी रोज़ नए आईने दिखाएगी।