राजेंद्र रायपुरी

देखो देखो मेरे ॲ॑गना, 


एक कली मुस्काई।


आज खुशी का नहीं ठिकाना,


खाओ सभी मिठाई।


 


लल्लन, जुम्मन, वाल्टर,केशर,


सारे आओ भाई।


आज खुशी का नहीं ठिकाना,


खाओ सभी मिठाई।


 


बड़े दिनों से आस लगी थी,


आज हुई है पूरी।


ॲ॑गना मेरे खिली कली है,


नाम रखूॅ॑गा नूरी।


 


महक उठा है घर मेरा ये,


महक उठी ॲ॑गनाई।


आज खुशी का नहीं ठिकाना,


खाओ सभी मिठाई।


 


देखो-देखो मेरे ॲ॑गना ...........।


 


प्यारी गुड़िया जो आई है।


खुशियां झोली भर लाई है।


आते ही इसके देखो जी,


दुगनी हुई कमाई।


आज खुशी का नहीं ठिकाना,


खाओ सभी मिठाई।


 


देखो-देखो ॲ॑गना मेरे ............।


 


खूब पढ़ाऊॅ॑गा मैं इसको।


नहीं डांस या कोई डिस्को।


चाह यही है पा ऊॅ॑चा पद,


करे देश अगुआई।


आज खुशी का नहीं ठिकाना,


खाओ सभी मिठाई।


 


देखो-देखो मेरे ॲ॑गना.............।


 


आस सभी अब होगी पूरी।


नहीं रहेगी एक अधूरी।


निश्चित कल को बजनी ही है,


मेरे घर शहनाई।


आज खुशी का नहीं ठिकाना,


खाओ सभी मिठाई।


 


देखो-देखो मेरे ॲ॑गना,


एक कली मुस्काई।


आज खुशी का नहीं ठिकाना,


खाओ सभी मिठाई।


 


           ।। राजेंद्र रायपुरी।।


डॉ0 हरि नाथ मिश्र

चतुर्थ चरण (श्रीरामचरितबखान)-7


 


तब रघुबीर लेइ धनु-बाना।


सँग सुग्रीवहिं किए पयाना।।


     प्रभु-बल लइ सुग्रीव पुकारा।


     बाली-बाली कह ललकारा।।


सुनि पुकार निकसा तब बाली।


क्रोधित धावै हाली-हाली ।।


     अस लखि बाली-पत्नी तारा।


      गहि पति-चरन कही बहु बारा।।


सुनहु नाथ ई सभ दोउ भाई।


सकहीं मारि काल त्रिनु नाई।।


    दसरथ-सुत ई दोऊ बीरा।।


    राम-लखन-बल-पौरुष-धीरा।।


हो नहिं बिकल सुनउ तुम्ह तारा।


प्रभु समदरसी कह संसारा।।


     जदि रघुबीर हरहिं मम प्राना।


      परमधाम मैं करउँ पयाना।।


निकट सुग्रीवहिं गरजत धावा।


मुठिका मारि ताहि धमकावा।।


     होइ बिकल सुग्रीवहि भागा।


      बालि क प्रहार बज्र सम लागा।।


सुनहु नाथ मम बालि न भाई।


मारेसि मों जनु कीट की नाई।।


    लरत समय तव रूप समाना।


    भ्रमबस बालिहिं मारि न पाना।।


अस कह राम तासु तन परसा।


भयो तासु तन बज्रहि सहसा।।


    पुनि भेजा तेहिं करन लराई।


     पार केहूँ बिधि कपि नहिं पाई।।


देखि बालि मारत सुग्रीवा।


तब प्रभु राम ओट तरु लेवा।।


    तेहिं तें किया बान संधाना।


     हता बालि जनु निकसा प्राना।।


दोहा-बाली हो घायल गिरा,सहसा धरा धड़ाम।


        निरखत प्रभु-पंकज चरन, लोचन-छबि अभिराम।।


       कहा प्रभू आयो जगत,करन धरम कै काम।


      हमहिं क काहें तुम्ह बधेयु, छाँड़ि अनुज यहि धाम।।


      तव पियार सुग्रीव प्रति,सुनहु प्रभू श्रीराम।


     जानि परत मों तें अधिक,लखि मम अघ कै काम।।


                    डॉ0हरि नाथ मिश्र।


                      9919446372


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दसवाँ अध्याय (श्रीकृष्णचरितबखान)-3


 


जे नहिं कंटक-पीरा जानै।


ऊ नहिं पीरा अपरै मानै।।


    नहीं हेकड़ी,नहीं घमंडा।


    रहै दरिद्री खंडहिं-खंडा।।


नहिं रह मन घमंड मन माहीं।


जे जन जगत बिपन्नय आहीं।।


    रहै कष्ट जग जे कछु उवही।


    ओकर उवहि तपस्या रहही।।


करि कै जतन मिलै तेहिं भोजन।


दूबर रह सरीर जनु रोगन ।।


     इन्द्रिय सिथिल, बिषय नहिं भोगा।


     बनै नहीं हिंसा संजोगा ।।


कबहुँ न मनबढ़ होंय बिपन्ना।


होंहिं घमंडी जन संपन्ना ।।


     साधु पुरुष समदरसी भवहीं।


    जासु बिपन्न समागम पवहीं।।


नहिं तृष्ना,न लालसा कोऊ।


जे जन अति बिपन्न जग होऊ।।


     अंतःकरण सुद्धि तब होवै।


      अवसर जब सतसंग न खोवै।।


जे मन भ्रमर चखहिं मकरंदा।


प्रभु-पद-पंकज लहहिं अनंदा।।


     अस जन चाहहिं नहिं धन-संपत्ति।


    संपति मौन-निमंत्रन बीपति ।।


प्रभु कै भगति मिलै बिपन्नहिं।


सुख अरु चैन कहाँ सम्पन्नहिं।।


      दुइनिउ नलकूबर-मणिग्रीवा।


      बारुनि मदिरा सेवन लेवा।।


भे मदांध इंद्री-आधीना।


लंपट अरु लबार,भय-हीना।।


      करबै हम इन्हकर मद चूरा।


      चेत नहीं तन-बसन न पूरा।।


अहइँ इ दुइनउ तनय कुबेरा।


पर अब पाप इनहिं अस घेरा।।


     जइहैं अब ई बृच्छहि जोनी।


     रोकि न सकै कोउ अनहोनी।।


पर मम साप अनुग्रह-युक्ता।


कृष्न-चरन छुइ होंइहैं मुक्ता।।


दोहा-जाइ बीति जब बरस सत,होय कृष्न-अवतार।


        पाइ अनुग्रह कृष्न कै, इन्हकर बेड़ा पार ।।


                     डॉ0 हरि नाथ मिश्र


                      9919446372


सुनीता असीम

बस ख़ुदा से सलाह करता हूँ।


दीन दुखियों की राह करता हूँ।


*****


काम मेरे सभी करेंगे वो।


मैं न कुछ इश्तिबाह करता हूँ।


*****


रूठ जायें न मेरे भगवन।


यूँ न कोई गुनाह करता हूँ।


*****


मुश्किलों में घिरा रहूं जब मैं।


तब उसीकी पनाह करता हूँ।


*****


जो बड़े भक्त हैं कन्हैया के।


अब उन्हींसे डाह करता हूं।


******


सुनीता असीम


विनय साग़र जायसवाल

ग़ज़ल -


 


ज़ुल्म कैसा हुआ है ख़ुदा देखिए


हर तरफ़ दिख रही है बवा देखिए


 


जीना मरना भी दोनों हैं आसां नहीं


जाने किसकी लगी बद्दुआ देखिए


 


 बंद घर में भी कब तक रहे आदमी


बैठे बैठे भी दम है घुटा देखिए 


 


हर किसी की दुआ है ख़ुदा से यही


ऐसी मुश्किल न दीजे सज़ा देखिए


 


मिन्नतें करते हम थक गये हैं ख़ुदा


सुन भी लीजे हमारी सदा देखिए


 


बच्चे बूढ़े सभी अब परेशान हैं


इनकी जानिब ख़ुदा भी ज़रा देखिए


 


बिन दवा के हैं *साग़र* ख़ुदा सब दुखी


आप ही भेजिए कुछ दवा देखिए 


 


 


🖋️विनय साग़र जायसवाल 


डॉ. रामबली मिश्र

चलो बेटियाँ प्रगति करो नित


 


चलती रहना राह पकड़ कर।


बढ़ती जाना लक्ष्य चयन कर।।


 


कभी न काँटों से घबड़ाना।


करती जाना पार उछल कर।।


 


मत डरना तुम कभी प्रेत से।


करो सामना भय का डटकर।।


 


चिग्घाड़े यदि शेर राह में।


चलना सीखो आँख मिलाकर।।


 


तूफानों से मत घबड़ाना।


उन्हें भगाओ सदा बैठकर।।


 


तुम्हीं शक्ति की सहज नायिका।


चल खुद की पहचान बनाकर।।


 


रहो एकजुट सतत संगठित।


मार दरिंदों को मिलजुलकर।।


 


कभी न पीछे मुड़कर देखो।


चलना अपना कदम बढ़ाकर ।।


 


साध्य कठिन को सरल बनाना।


चलो बढ़ो पढ़-लिख मेहनत कर।।


 


ठोकर को तुम फूल समझना।


कर नफरत पर वार सँभलकर।।


 


पढ़ो जगत की गतिविधियों को।


सावधान खुद रहो अटल कर।।


 


भावुकता में मत बह जाना।


बुद्धिवादिनी दृष्टि अचल कर।।


 


तुम्हीं हिमालय की बेटी हो।


सोच बैठना विश्व शिखर पर।।


 


डॉ. रामबली मिश्र हरिहरपुरी


9838453801


डॉ. रामबली मिश्र

नहीं अर्थ का अर्थ निकालो


 


मन में कोई भ्रम मत पालो।


नहीं अर्थ का अर्थ निकालो।।


 


सुंदर मन से अर्थ निकालो।


मत अनर्थ में मन को डालो।।


 


शव्दों का भावार्थ समझना।


तुम पचड़े में कभी न पड़ना।।


 


तोड़-मोड़कर प्रस्तुत मत कर।


सीधा अर्थ शव्द का बेहतर।।


 


बुद्धि भयंकर नहीं लगाओ।


सीधे-सीधे अर्थ बताओ।।


 


संरचना को कभी न तोड़ो।


प्रिय भावों से नाता जोड़ो।।


 


सरल बनो दिलवर बन जाओ।


सबके आगे शीश झुकाओ।।


 


बुरा शव्द कुछ नहीं यहाँ पर।


शव्द ब्रह्ममय अतिशय सुंदर।।


 


अर्थ निकालो गाढ़ा-गहरा।


देना सदा बुद्धि पर पहरा।।


 


शव्दार्थों का स्वागत करना।


दिल से सोच-समझकर रहना।।


 


आगे-आगे दिल को रखना।


पीछे-पीछे अपने चलना।।


 


शव्द-अर्थ-भावार्थ एक कर।


संयम से ही नित परिचय कर।।


 


डॉ. रामबली मिश्र हरिहरपुरी


9838453801


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बहुत बहुत आभार मित्रवर


कर मेरा उद्धार मित्रवर


मुझको छोड़ न देना प्यारे


कर मुझ पर उपकार मित्रवर।


 


साथी बन साकार मित्रवर


बन मेरा आधार मित्रवर


साकी बनकर प्रेम पिलाओ


करना मत इंकार मित्रवर।


 


अतिशय सज्जन तुम्हीं मित्रवर


मेरे हिय में तुम्हीं मित्रवर


मत करना अपमान कभी भी


स्नेहधाम इक तुम्हीं मित्रवर।


 


डा. रामबली मिश्र हरिहरपुरी


9838453801


काव्य रंगोली आज के सम्मानित रचनाकार डॉ ब्रजेन्द्र नारायण द्विवेदी शैलेश वाराणसी

 


 


ही


काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से स्नातक और परास्नातक


गीत, ग़ज़ल, समीक्षा


कुल आठ पुस्तकें प्रकाशित 2कविता,3गीत,2गज़ल,1खण्ड काव्य।


आकाशवाणी और दूरदर्शन से प्रसारित रचनाकार।


2017के सर्वभाषा कवि सम्मेलन में कश्मीरी कविता का गीत में अनुवाद।


सम्पूर्ण भारत की 150से अधिक संस्थाओं से सम्मान पर्याप्त।


उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान लखनऊ से"नरेश मेहता सृजन सम्मान प्राप्त।


500/1सत्यम नगर, भगवान पुर, लंका वाराणसी 221005


मो.नं.9450186712/8127880111


 


कविताएं


 


नवगीत:किस विधि लाएं


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सामने बबूल वन खड़ा, राह रोकने को है अड़ा, मान सरोवर कैसे जाएं। अष्ट कमल दल किस विधि लाएं।।


गिद्धों ने उपवन में डाल दिया डेरा


दिन में ही पसर गया आसुरी अंधेरा


छोड़कर कहार भागे सज्जित शिविकाएं,


पद्मिनियों ने रचीं चिताएं।


अष्ट कमल दल किस विधि लाएं।।01


जाने क्या जाल रचे गर्वित दुर्योधन,


आगे पीछे करता अपना संस्कारित मन,


पग में संकल्पों ने डाल दिया वन्धन


मौन साध देखती दिशाएं।


अष्ट कमल दल किस विधि लाएं।।02


स्वान झुंड बार-बार हवन कुंड घेरे,


स्वार्थ पुंज उनके भी अपने बहुतेरे,


जूझ रहे जाम्बवान, अंगद, नल नील विकट,


हाथ लिए सक्षम समिधाएं।


अष्ट कमल दल किस विधि लाएं।।03


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डॉ ब्रजेन्द्र नारायण द्विवेदी शैलेश वाराणसी


9450186712


 


 


एक नवगीत


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स्वदेशी का है खुला बाजार ।


सीढ़ियों ने किया कारोबार।।


कल नहीं थे पांव जिनके आज हैं वे दौड़ते आसमानी पर्त चढ़कर हैं क्षितिज को चूमते


 पुरातनता पा गई आधार ।


सीढ़ियों ने किया कारोबार।।01


रस्सियों ने लकड़ियों से संधि कर ली


 रिक्त झोली ने प्रगति की चाह भर ली


बहुत मुझ पर आपका आभार। 


 सीढ़ियों ने किया कारोबार।।02


पास में जिनके कभी है ठंस गए गोदाम, 


समय के शीशे में दिखते आज वे गुमनाम 


कौन करता सहज को स्वीकार। 


 सीढ़ियों ने किया कारोबार।।03


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डॉ ब्रजेन्द्र नारायण द्विवेदी शैलेश वाराणसी


 


 


 


एक नवगीत:पांवों में चुभती है पिन


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धुंधला धुंधला दिखता दिन 


पावों में चुभती है पिन।।


सुबह-सुबह कुहरे ने है दे दी दस्तक


झुका झुका सा दिखता सूरज का मस्तक


घूंघटा से झांके दुल्हन।


पावों में चुभती है पिन।।01


मुक्ति मिले कैसे अब मच चुके धमाल से


 चल रहा समय अपनी कछुए की चाल से 


सरक रहा चुपके पल छिन ।


पांवों में चुभती है पिन ।।02


आसमान की गाथा सहम -सहम बांच रही,


आंगन में इस कोने उस कोने नाच रही,


रुष्ट हुई काली नागिन।


पावों में चुभती है पिन।।


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वाराणसी भारत 221005


नूतन लाल साहू

एक विचारणीय प्रश्न


यहां कौन सुखी है


 


सादा जीवन,उच्च विचार


लोग,ये भुल रहे हैं


ओद्यौगिक विकास के चक्कर में


हाथी की तरह,फूल रहे हैं


देश में पानी,पैसे से मिलता है


दवा जैसे चीज,मुफ्त में चाहिये


खजूर पेड़ की भांति,बड़ा बनने की चाहत है


बताओ, यहां कौन सुखी है


मुट्ठी बांधकर,आया है जग में


हाथ पसारे,जाना है तुम्हे


प्रभु ने दिया है,मुफ्त में


यश, धन, वैभव,अपार


सत्कर्मों से हासिल करना है,तुम्हे


कुछ करनी और कुछ कर्म गति से


सुर दुर्लभ मानुष तन,मिला है तुम्हे


खजूर पेड़ की भांति,बड़ा बनने की चाहत है


बताओ, यहां कौन सुखी है


हानि लाभ, जीवन मरण


यश अपयश,सब विधि के हाथ है


आम आदमी, यूं लगा है


जैसे पिचका,पक्का आम


क्यों आया है,इस संसार में


समझ न सका,अब तक इंसान


कौन कितने दिन, टिका रहेगा


यह नहीं है, इंसान के हाथ में


खजूर पेड़ की भांति, बड़ा बनने की चाहत है


बताओ, यहां कौन सुखी है


इस संसार में,हर बंदा के लिए


दाना पानी,लिखा हुआ है प्रभु ने


ऊपर वाले,किसी भी प्राणी को


भूखा पेट,नहीं सुलाता है


बचपन,यौवन और बुढ़ापा


बहुत सोचकर,बनाया है


इंसान,अपने जन्मदाता को क्यों भुल रहा है


खजूर पेड़ की भांति, बड़ा बनने की चाहत है


बताओ, यहां कौन सुखी है


नूतन लाल साहू


डॉ. रामबली मिश्र

बेटी से ही सारा जग है,


          बेटी लक्ष्मी की अवतार।


यही सृष्टि की आदि शक्ति है,


          रचती अति सुंदर परिवार।


बेटी घर की महती शोभा,


          किया करो इसका सत्कार।


बेटी बिन घर सूना-सूना,


          दिया करो इसको नित प्यार।


बेटी से ही सारी दुनिया,


          इसे करो दिल से स्वीकार।


बेटी सुंदर सहज स्वरूपा,


          करो तथ्य को अंगीकार।


बेटी जग की है सुंदरता,


          सुंदर मन का यह आधार।


यह पूरक है अरु सम्पूर्णा,


          भरापूरा रहता घर-द्वार।


कभी न कर इसको अपमानित,


          समझो बेटी को उपहार।


बदलो सामाजिक संरचना,


          जग पर बेटी का उपकार।


घृणा भाव को मन से फेंको,


          जन्मोत्सव का करो प्रचार।


बेटे से बेटी बढ़कर है,


          इस पहलू पर करो विचार।


अति संवेदनशील बेटियाँ,


          बेटी सचमुच शिष्टाचार।


जननी बन देती सपूत है,


          यह जीवन का असली सार।


 


डॉ. रामबली मिश्र हरिहरपुरी


9838453801


विनय साग़र जायसवाल

तूने कुछ वक़्त मेरे साथ गुज़ारा होता


ज़िन्दगी भर को तू फिर दोस्त हमारा होता 


 


हुस्ने मतला--


पीठ में मेरी ये खंजर न उतारा होता


बेवफ़ाओं में यूँ चर्चा न तुम्हारा होता


 


हौसला तुम भी अगर देते मुझे तो सच में 


मेरी परवाज़ का कुछ और नज़ारा होता 


 


जब तेरे साथ नहीं थी तेरी परछाईं भी 


*ऐसे आलम में कभी हमको पुकारा होता* 


 


मेरे हाथों में अगर होता नसीबों का क़लम


तेरी तक़दीर को हर रुख से संवारा होता 


 


आज सारा ही ज़माना दिखा मेरी जानिब


काश इनमें कहीं तेरा भी इशारा होता 


 


जिस घड़ी तेरी ज़रूरत थी हमें ऐ *साग़र* 


हमको उस वक़्त दिया तूने सहारा होता 


 


🖋️विनय साग़र जायसवाल


सुनील दत्त मिश्रा

साक्षात शिव परमेश्वरा यह शिवजी ही आराध्य है।


शिव शंभू ही है, गगन धरा


शिव शंभू ही सब साध्य है।


ऊंचे गगन पहाड़ पर शिव का निवास विराट है ।


चढ़कर हिमालय शीश पर शिव सभी के आराध्य है।


आनंद मगन निवास है ,शिव शंभू नंदी गणेश है


गौरा पति महादेव है ,श्री शंभू स्वयं महेश है।


उत्तर से लेकर दक्षिण तक ,हर कहीं शिव का वास है ।


आराधना शिव की करूं, पूरब पश्चिम तलक निवास है ।


मन चाहे शिव के पैर में ,अपना धरु में शीश अब ।


गौरा पति गणेश है नंदी स्वयं आशीष अब।


यह प्रार्थना है शिव धाम तक पहुंचे मेरी मनकामना ।


है आज दिन यह सुखद, मैं कर रहा इस आराधना ।


शिव शम्भू धरा महेष्वर प्रभु साक्षात शिवा गणेश है ।


स्तुति करू कर जोड़ मैं


अब स्वयं मणिमहेश है


💐💐💐💐💐💐👏


🙏🏾🙏🏾🙏🏾🙏🏾🙏🏾


सुनील दत्त मिश्रा फिल्म एक्टर राइटर छत्तीसगढ़ बिलासपुर से सर्वाधिकार सुरक्षित सुनील दत्त मिश्रा की कलम से


एस के कपूर श्री हंस

बहुत बडी बडी बातें नहीं


बस छोटे छोटे काम करो।


दुःख बांटों किसी के खुशी


उनके नाम करो।।


तेरा किया ही लौट कर


आता है तुम्हारे पास।


कभी किसी गरीब के लिए


रोटी का इन्तिजाम करो।।


 


किसी भटके को जरा तुम


रास्ता बता कर तो देखो।


जो चला गया गलत उसे


सही राह दिखा कर तो देखो।।


तुम्हें मिलेगा दिल में एक


अलग ही चैन और सुकून।


किसी की आंखों में पढ़ के


दिल की सुना कर तो देखो।।


 


हम दर्दी का अपना एक


मजा ही कुछ अलग है।


अपने स्वार्थ से अलग किसी


और के लिए कुछ दखल है।।


औरों के साथ सहयोग और


सरोकार नाम जिन्दगी का।


खुद से ऊपर उठकर औरों के


लिए सोचना ही सही शगल है।।


 


जरूरत नहीं है दुनिया में


आकर भगवान बनने की।


जरूरत नहीं है खुद की तुम्हें


कोई खुदाई रचने की।।


तुम इस दुनिया में हिलो मिलो 


और रचो बसो सबके साथ।


जरूरत तो है बस जन्म ले


कर इन्सान सा ढलने की।।


 


एस के कपूर श्री हंस


*बरेली।।*


मोब।। 9897071046 


                       8218685464


डॉ. हरि नाथ मिश्र

मेरा मन 


टूटता हुआ नभ का तारा नहीं,


मायूस हो,ग़म का मारा नहीं।


मेरा मन तो पंछी जो उड़ता फिरे-


बाँटता दर्दे दुनिया,आवारा नहीं।।


      जा के गाँवों -सिवानों में घूमे-फिरे,


      पेड़-पौधों की भाषा को समझा करे।


       कह दे,नदिया की धारा को पहचान कर-


       ज़िंदगी जीत है,कभी हारा नहीं।।


जश्न हैं ग़म-खुशी दोनों इसके लिए,


रिश्ता-याराना सुख और दुख से भी है।


मील के पत्थरों को ये गिनता नहीं-


चल दिया,मुड़ के पीछे निहारा नहीं।।


       चाँदनी की उजाले भरी रात हो,


       या अमावस का गाढ़ा अँधेरा रहे।


       लक्ष्य साधे बिना ये तो लौटे नहीं-


       लक्ष्य इसका,नदी का किनारा नहीं।।


सफलता-विफलता को समझे बिना,


लाभ औ हानि का क्या गुणा- भाग है?


मन मेरा कर्म करता सदा ही रहे-


कर्म-फल लक्ष्य इसका तो सारा नहीं।।


      ऐसा भी नहीं कि कभी थकता नहीं,


      देवता भी नहीं जो सिसकता नहीं।


  थकना-सिसकना है फ़ितरत में इसकी-


ये मरता तो है, कभी मारा नहीं ।।


    मकसदे ज़िंदगी तो रहम करना है,


    मज़लूम की ही मदद करना है।


    होती दीनों की सेवा ही शाने ख़ुदा-


    जन्म लेना हो शायद दोबारा नहीं।।


               © डॉ. हरि नाथ मिश्र


            9919446372


कालिका प्रसाद सेमवाल

वाणी वन्दना


★★★★★★★★★★


   निर्मल करके तन- मन सारा,


   सकल विकार मिटा दो माँ,


 


    बुरा न करुं माँ किसी को भी


    विनय यह स्वीकारो माँ।


 


 


      अन्दर ऐसी ज्योति जगाओ


      हर जन का उपकार करुं,


 


 


       मुझसे यदि त्रुटि कुछ हो जाय


       उनसे मुक्ति दिलाओ माँ।


 


 


        प्रज्ञा रूपी किरण पुँज तुम


        हम तो निपट अज्ञानी है,


 


         हर दो अन्धकार तन- मन का


         नयै पार लगाओ दो माँ।


★★★★★★★★★★


कालिका प्रसाद सेमवाल


एस के कपूर श्री हंस

*विषय/विधा।।बाल साहित्य*


*( गद्य अथवा पद्य )*


 


*रचना शीर्षक।।*


*चमक ही चमक नहीं,*


*रोशनी जगाइये।।*


 


चंदामामा से बच्चों को,


कभी दूर मत करना।


पर लाड़ प्यार भी उन्हें


भरपूर मत करना।।


बचपन कभी बच्चों का


गुम न होने पाये।


पर रखो बंद करके अंदर 


यह जरूर मत करना।।


 


खेलने दो कश्ती से और


भरने दो उड़ान।


मिट्टी का घरौंदा उनको


और बनाने दो मकान।।


मत बहुत आदत डालो


टी वी ओ मोबाइल की।


उम्र से पहले ही उन्हें


मत बनने दो जवान।।


 


संस्कार संस्कृति का


पाठ शुरू से पढ़ाइये।


आदर आशीर्वाद का


भाव शुरू से बताइये।।


सीखने और करने की


भावना पैदा हो अंदर।


चमक ही चमक नहीं


रोशनी शुरू से जगाइये।


 


एस के कपूर श्री हंस


बरेली।


मोब 9897071046


        8218685464


विनय साग़र जायसवाल

मतला---


 


ख़ुशरंग इस लिए भी नज़ारा न हो सका 


हम उसके हो गये जो हमारा न हो सका


 


हर राज़ फाश कर जो दिया राज़दार ने 


क़िस्मत का यूँ बुलंद सितारा न हो सका 


 


उस बेवफ़ा ने प्यार जताया तो बारहा


हमको ही उससे प्यार दुबारा न हो सका 


 


रहते भी कैसे राहे-मुहब्बत में गामज़न


उस सम्त से जो कोई इशारा न हो सका


 


मंज़िल के अनकरीब से यूँ लौट आये हम


उसका ग़ुरूर हमको गवारा न हो सका 


 


समझेगा कौन उसके भला दिल के दर्द को 


माँ बाप का जो बेटा सहारा न हो सका 


 


साग़र सुराही जाम गले यूँ लगा लिए 


इनके बग़ैर अपना गुज़ारा न हो सका 


 


🖋️विनय साग़र जायसवाल


नूतन लाल साहू

तब आना,तुम मेरे पास प्रिये


 


लख चौरासी,भोग के आया


बड़े भाग,मानुष तन पाया


झुठ,कपट और धन का गरब


जिस दिन,ये सब छुट जावे


तब आना,तुम मेरे पास प्रिये


सत्कर्म कर,हरिनाम सुमर लेे


मेरी मेरी कहना,तू छोड़ दें


तजि दे,वचन कठोर जिस दिन


तब आना,तुम मेरे पास प्रिये


तेरा निर्मल रूप,अनूप है


नहीं हाड,मांस की काया


व्यापक ब्रम्ह,स्वरूप का ज्ञान


जिस दिन तुझे,मिल जावे


तब आना, तुम मेरे पास प्रिये


मोहन प्रेम बिना,नहीं मिलता


चाहे कर लो,लाख उपाय


ढाई अक्षर प्रेम का, पढ़े तो पंडित होय


जिस दिन तुझे,ये ज्ञान हो जावे


तब आना, तुम मेरे पास प्रिये


मै नहीं,मेरा नहीं,यह तन किसी का है दिया


जो भी अपने पास है,यह धन किसी का है दिया


जो मिला है,वह हमेशा पास नहीं रहेगा


जिस दिन समझ में आ जावे, जिंदगी का राज


तब आना, तुम मेरे पास प्रिये


नाम लिया हरि का, जिसने


तिन और का नाम लिया न लिया


निश दिन बरसत, नैन हमारे


अंखियां हरि दर्शन की प्यासी


जिस दिन समझ में आ जावे


प्रभु बिना चैन,नहीं है


तब आना, तुम मेरे पास प्रिये


नूतन लाल साहू


डॉ. रामबली मिश्र

संवेगात्मक संबन्ध


 


संवेगात्मक भाव में, छिपा गहन है अर्थ।


संवेगात्मकशून्यता ,का जीवन है व्यर्थ।।


 


संवेगों की नींव पर, टिका हुआ है प्यार।


जहाँ नहीं संवेग है, सब कुछ वहाँ नकार।।


 


भावुक मन ही समझता, संवेगों का मर्म।


भावशून्य मानव हृदय, शुष्क मरुस्थल चर्म।।


 


संवेगों को जानता, कभी नहीं अज्ञान।


ज्ञानीजन के हॄदय में, संवेगों का मान।। 


 


संवेगों को मत कुचल, कर लो हृदय विशाल।


मानव मन की अस्मिता, का रख सदा खयाल।।


 


सहलाओ संवेग को, यह पावन सुविचार।


यही पुष्प की है कली, मानव का उपहार।।


 


इसे तोड़ता जो मनुज, वह दानव अति क्रूर।


दंभ प्रदर्शन से भरा, वह दानव भरपूर।।


 


मैला मन करता सदा, इसका है अपमान।


संवेगों के विश्व में, सिर्फ एक भगवान।।


 


संवेगात्मक वंधनों, पर पावन संबन्ध।


आध्यात्मिक अनुवंध यह, हिय से हिय आवद्ध।।


 


डॉ. रामबली मिश्र हरिहरपुरी


9838453801


डॉ0 हरि नाथ मिश्र

*गीत*(चाँदनी रात)


अगर चाँदनी रात ये आई न होती,


कभी प्यार का सलोना मंज़र न होता।


नहीं प्यार की कभी ये बगिया सँवरती-


ये कभी प्यार गहरा समंदर न होता।।


 


चाँदनी रात-पूनम-मिलन को समंदर,


चला जाता छूने को नभ में उमड़कर।


सितारे भी टिम-टिम मधुर ध्वनि से उसका,


करते हैं स्वागत मुस्कुराकर-सँवरकर।


अगर रातें पूनम न अंबर पे होतीं-


भयंकर समंदर कभी सुंदर न होता।।


          कभी प्यार का सलोना मंज़र न होता।।


 


चाँदनी रात का ये प्यारा सा आलम,


विरह-तप्त प्रेमी को देता है राहत।


प्रेम के भाव उसके नहा चाँदनी में,


करते पूरी उसकी अधूरी सी चाहत।


ये सारी रातें जो पूनम की होतीं-


कभी हाथों प्रेमी के खंजर न होता।


        कभी प्यार का सलोना मंज़र न होता।।


 


चाँदनी रात का चाँद प्यारा है लगता,


चंदा मामा की लोरी लुभाए सदा।


नन्हें-मुन्ने गगन में निरख चाँद को ही,


कहें मामा की हमको है भाए अदा।


अगर चाँद में ऐसा सुधा-गुण न होता-


तो कभी नाम इसका सुधाकर न होता।।


          कभी प्यार का सलोना मंज़र न होता।।


 


चाँदनी रात धरा की सौगात प्यारी,


है छिपा इसमें ईश्वर का वरदान है।


ये धरा भी नहाई लगे चाँदनी में,


जैसे प्यारी प्रकृति का ये ईमान है।


चाँद भी कभी प्यारा-सुहाना न होता-


अगर व्योम में तपता दिवाकर न होता।।।


       कभी प्यार का सलोना मंज़र न होता।।


 


चाँदनी रात की ही नरम रौशनी में,


ये नहाकर निकलता जहाँ में सवेरा।


नई चेतना सँग नई शक्ति का ही तब,


होता है जन-जन में नवल नित बसेरा।


अगर चाँदनी रातें गगन में न होती-


तो ये रति का स्वामी धनुर्धर न होता।।


           कभी प्यार का सलोना मंज़र न होता।।


              ©डॉ0 हरि नाथ मिश्र


                  9919446372


मैत्रीकाव्य सम्मेलन सहरसा

🤝🏼 *सम्पूर्ण हुआ त्रिदिवसीय ऐतिहासिक *🤝🏼


 


साहित्य साधक अखिल भारतीय साहित्यक मंच सहरसा बिहार एवं बिलासा साहित्यिक संगीत धारा छत्तीसगढ़ के आपसी मैत्रीपूर्ण संबंधों को यादगार बनाने के लिए दोनों साहित्यिक पटल के बीच कई प्रस्ताव प्रस्तुत हुए,। त्रिदिवसीय मैत्री काव्य सम्मेलन में दोनों पटल की मित्रता को स्थाई बनाने हेतु कार्यान्वयन पर भी विशद चर्चा हुई । इसमें सम्मानित कवि , कवयित्रियों ने अपनी पूरी ऊर्जा उत्साह के साथ हिस्सा लिया और श्रोता दर्शकों को मंत्र मुग्ध कर दिया । कार्यक्रम विवरण कुछ इस प्रकार रहा ।


 


            प्रथम दिवस के अध्यक्ष आदरणीय डॉ.राणा जयराम सिंह 'प्रताप' जी मुख्य अतिथि आदरणीय केवरा यदु 'मीरा' जी मंच संचालिका आदरणीया व्यंजना आनंद जी एवं आदरणीया आशा आजाद "कृति" जी सरस्वती वंदना रामनाथ साहू 'ननकी' जी एवं नृत्य प्रस्तुति नेहा बड़गुजर वापी ने किया। वहीं द्वितीय दिवस के अध्यक्ष आदरणीय रामनाथ साहू 'ननकी' जी मुख्य अतिथि आदरणीय तेरस केवत्य 'आसूं' जी मंच संचालिका आदरणीया व्यंजना आनंद जी एवं माधुरी डड़सेना जी सरस्वती वंदना आशा आजाद 'कृति' जी नृत्य प्रस्तुति सोलापुर से शिवानी और नव्या ने किया और समापन समारोह सह मैत्री काव्य सम्मेलन की अध्यक्षता आदरणीय साहित्य साधक अखिल भारतीय साहित्यक मंच के अध्यक्ष सह कार्यक्रम अध्यक्ष आदरणीय शशिकांत शशि जी एवं बिलासा साहित्य संगीत धारा मंच की उपाध्यक्षा आदरणीया मनोरमा चंद्रा 'रमा' जी मुख्य अतिथि आदरणीय कृष्ण कुमार क्रांति, आदरणीय तेरस केवत्य आसूं जी मंच संचालिका आदरणीया व्यंजना आनंद जी सुकमोती चौहान रुचि जी आशा आजाद कृति जी सरस्वती वंदना सपना सक्सेना दत्ता जी एवं नृत्य प्रस्तुति चिनमय बर्मन एवं नेहा वडगूजर वापी ने कार्यक्रम को सुशोभित किया ।


             श्री शशिकांत शशि (सहरसा), धनेश्वरी देवाँगन धरा,रायगढ़ ,निक्की शर्मा( रश्मि)अमीत कुमार बिजनौरी ,सुकमोती चौहान "रुचि",रामनाथ साहू "ननकी",कृष्ण कुमार क्रांति, डिजेन्द्र कुर्रे"कोहिनूर,धनेश्वरी सोनी , गीता विश्वकर्मा नेह,देवब्रत'देव',सपना सक्सेना दत्ता,पुष्पा ग़जपाल" पीहू,,


डॉ ओमकार साहू "मृदुल",सुधा रानी शर्मा ,डॉ.दीक्षा चौबे दुर्ग,अमर सिंह'निधि',व्यंजना आनंद (मिथ्या) ,श्री अशोक कुमार जाखड़,


जितेन्द्र कुमार वर्मा, श्री रणविजय यादव ,शिव प्रकाश पाण्डेय,प्रखर शर्मा सिंगोली, कन्हैयालाल श्रीवास्तव ,आशा आजाद,डिजेन्द्र कुर्रे , आशा आजाद,तेरस कैवर्त्य आँसू,साक्षी साहू सुरभि महासमुंद ,विनोद कश्यप,माधुरी डड़सेना " मुदिता ",आशा मेहर 'किरण', सुधा देवांगन 'सुचि', तोरनलाल साहू रोहाँसी, दूजराम साहू "अनन्य पद्मा साहू "पर्वणी" नीलोफ़र फ़ारूक़ी तौसीफ़,अनपूर्णा जवाहर देवांगन ,अर्चना गोयल( माहि) आदि साहित्यकारों की शिरकत से तीन दिवसीय कवि सम्मेलन काफी सफल रहा।


साहित्य साधक अखिल भारतीय साहित्यिक मंच के संस्थापक कृष्ण कुमार क्रांति ने बताया कि यह संयुक्त मैत्री महाकाव्य सम्मेलन, मैत्रीपूर्ण माहौल में संपन्न हुआ । यह मैत्री संबंध ऑनलाइन साहित्य की दुनिया की एक बहुत ही सुंदर और सकारात्मक पहल है , जिस माध्यम से कलमकार जन-जन के मनोभावों को स्वर प्रदान कर सकेंगे। । अखिल भारतीय साहित्यिक मंच, बिहार के राष्ट्रीय संरक्षक डाॅ. राणा जयराम सिंह 'प्रताप' ने त्रिदिवसीय मैत्री काव्य सम्मेलन को सफल एवं सार्थक बताया। उन्होंने कहा कि इन दोनों मंचों की मैत्री से रचनाकारों को व्यापक उड़ान का अवसर उपलब्ध हो पायेगा और वे अपनी रचनाओं के माध्यम से जन-चेतना को जाग्रत करने में सफल हो पायेंगे।


डॉ0 हरि नाथ मिश्र

 चतुर्थ चरण (श्रीरामचरितबखान)-5


 


सभ मंत्री मिलि के बरियाई।


मोंहि सिंहासन पे बैठाई ।।


    मारि असुर जब बाली आवा।


    बैठे मोंहि सिंहासन पावा ।।


मारा मोंहे बहु घनघोरा।


नारी सहित लेइ सभ मोरा।।


    तब मैं भगा होय भयभीता।


     फिरउँ सकल जग मरता-जीता।।


आवे इहाँ न सापहिं मारे।


तदपि रहहुँ डरि बिनू सहारे।।


     सेवक-गति सुनि बिकल राम जी।


     फरकन लगीं भुजा अजान जी।।


सुनु सुग्रीव न होहु उदासू।


हरब तोर मैं सकल निरासू।।


    मारब जाइ एक हम बाना।


    बालि उड़ाउब कीट समाना।।


तासु प्रान कै लाला परहीं।


ब्रह्मा-रुद्र बचाइ न सकहीं।।


      मीत-मीत के काम न आवै।


      पातक मीत जगत कहलावै।।


साँच मीत जग बिपति-निवारक।


सरबसु कष्ट मीत कै धारक ।।


    देवहि बिपति-काल सभ अपुना।


    पुरवहि सदा मीत कै सपुना ।।


जाकर अस नहिं होय मिताई।


ते मूरख जग करै डिठाई ।।


    बरनै मीत मीत-गुन निसि-दिन।


     रखहिं छुपाइ के अवगुन पल-छिन।।


बरजे सदा कुमति कै संगा।


चरचा कइ-कइ सुमति-प्रसंगा।।


दोहा-मीत वही साँचा जगति, जे नहिं छोड़ै साथ।


        संत कहहिं आपद पड़े,संग चलै गहि हाथ।।


 


**************************


दसवाँ अध्याय (श्रीकृष्णचरितबखान)-1


कारन कवन बतावउ मुनिवर।


साप दीन्ह तिन्ह नारद ऋषिवर।।


     कारन कवन कि नारद कूपित।


      नलकूबर-मणिग्रीवहिं सापित।।


सुनहु परिच्छित कह सुकदेवा।


गृहहिं कुबेर जनम दोउ लेवा।।


     तनय कुबेरहिं बड़ अभिमानी।


     धन-घमंड बस भए गुमानी।।


एक बेरि मंदाकिनि-तीरे।


बन कैलासहिं रुचिर-घनेरे।।


     बारुणि-मदिरा कै करि पाना।


     उन्मत भे मग चले उताना।।


बहु नारी लइ नाचत-गावत।


पुष्प-सुसोभित बन महँ धावत।।


      कुदे नारि सँग जल मँदाकिनी।


       कूदे जस हाथी सँग हथिनी।।


करत रहे जल क्रीड़ा बिबिधय।


मगनहिं ताता-थैया करतय।।


    रहे जात वहि मग मुनि नारद।


     देखत लीला ग्यान-बिसारद।।


लखि मुनि नारद जुवतिं लजाईं।


पहिनी पट ते तुरतहिं धाईं।।


     पर नलकूबर अरु मणिग्रीवा।


     नगन बदन रह लखि मुनि देवा।।


सुर कुबेर दोऊ सुत अहहीं।


देखि मुनिहिं पर लाजु न अवहीं।।


दोहा-कुपित होय मुनि दीन्ह तब,दोऊ कहँ अस साप।


        जाहु ठाढ़ तुम्ह बनु तरू, ई अह मम अभिसाप।।


                     डॉ0 हरि नाथ मिश्र


                      9919446372


काव्य रंगोली आज के सम्मानित रचनाकार कृष्ण कुमार 'बेदिल'

कृष्ण कुमार बेदिल


पुत्र -स्व. राम स्वरूप रस्तोगी


जन्म स्थान - चन्दौसी (मुरादाबाद)


कार्य क्षेत्र--मेरठ


जन्म तिथि -18 जुलाई, 1943


शिक्षा- बी काम( आगरा यूनिवर्सिटी),साहित्य सुधाकर  (बॉम्बे हिंदी विद्या पीठ)


विधा-गीत, ग़ज़ल,नज़्म


प्रकाशित पुस्तकें-


मोम का घर(ग़ज़ल संग्रह हिन्दी),


हथेली पर सूरज(ग़ज़ल संग्रह,हिंदी, उर्दू दोनो में)


पीली धूप (ग़ज़ल संग्रह हिन्दी),


ग़ज़ल:रदीफ़ काफ़िया और व्याकरण(ग़ज़ल के सम्पूर्ण व्याकरण की उपयोगी पुस्तक)


 


अनेक साझा काव्य संकलनों में सहभागिता,देश की स्तरीय पत्र पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित,दूरदर्शन एवं आकाशवाणी पर काव्यपाठ।देश के स्तरीय मुशायरों एवं कविसम्मेलनों में काव्यपाठ


 


प्रमुख उपाधियाँ एवं सम्मान- 


 


ग्रेट पर्सनाल्टी अवार्ड-2020 (प्रकृति फाउंडेशन और इंडियन रिकार्ड बुक द्वारा)


 


ग़ज़ल मार्तण्ड सम्मान- 2019 (त्रिवेणी साहित्य,संस्कृति, कला अकादमी, कोलकाता द्वारा)


 


काव्यदीप दुष्यंत कुमार सम्मान 2019 (काव्यदीप, हापुड़ द्वारा)


 


राग मीडिया अवार्ड 2019 (रोमानी आर्ट ग्रुप द्वारा)


 


डॉ परमार पुरुस्कार-2019(सिरमौर कला संगम,हिमाचल प्रदेश)


 


हिन्दी रत्न- 2018 (राष्ट्रीय हिन्दी परिषद द्वारा)


 


मेरठ-रत्न 2017(ऑल इंडिया कॉन्फ्रेंस ऑफ इंटेलेक्चुल्स द्वारा)


 


तुलसी दास सम्मान2017(काव्य सागर साहित्यिक संस्था पंजी. द्वारा


 


हिन्दीगौरव 2014(राष्ट्रीय हिन्दी परिषद द्वारा)


 


शब्द साधक सम्मान 2013 (परमार्थ मुरादाबाद द्वारा)


 


पुरुषोत्तम दास टण्डन सम्मान 2012(राजर्षि पुरुषोत्तम दास टण्डन हिंदी भवन समिति,मेरठ द्वारा)


 


विद्यावाचस्पति (मानद)-2010 (सांस्कृतिक,साहित्यिक,कला अकेडमी, परियावां द्वारा)


दुष्यंत स्मृति सम्मान 2009(अंतर्राष्ट्रीय साहित्य कला मंच द्वारा)


 


इसके अतिरिक्त लाइंस क्लब,रोटरी क्लब,भारत विकास परिषद आदि अनेक साहित्यिक और सामाजिक संस्थाओं द्वारा सम्मान और नागरिक अभिनन्दन


 


वर्तमान पता-


 


डॉ.कृष्ण कुमार "बेदिल"


"साई सुमरन"


डी-115,सूर्या पैलेस,दिल्ली रोड, मेरठ-250002


मोब-9410093943, 8477996428


E-MAIL-kkrastogi73@gmail.com


 


    हिंदी ग़ज़ल 


रंग भी अपने खुशबू अपनी गुलशन अपना है,


सब अपने हैं तब फूलों में कैसा झगड़ा है।


 


गिरने मत देना तू ये दस्तार बुज़ुर्गों की,


शाइर कौन सियासत के क़दमों में झुकता है।


 


धुंधले मैले किरदारों को साफ करें कैसे,


धुल तो सकता है जो गर्दआलूदा चेहरा है।


 


वो है आली ज़र्फ़ बताती उसकी ख़ामोशी,


दरिया बन देखेंगे सागर कितना गहरा है।


 


आँखें बन्द नज़र में वो थे,उनकी नकहत थी,


खुशबू से हर शेर ग़ज़ल का महका महका है।


 


पूछ रहे है अपने घर का रस्ता उनसे हम ,


यादों की मौजों में अब सन्नाटा पसरा है।


 


वहशत की गठरी रख दी है मेरे कांधों पर,


इस बस्ती में 'बेदिल' ही दीवाना लगता है।


कृष्ण कुमार बेदिल


 


ग़ज़ल


दिल मे पोशीदा खयालात का पैकर होना।


भूली बिसरी सी वही बात मुकर्रर होना।


 


मैं तो चलता ही रहा,जानिबे मंज़िल ता उम्र


मैंने दरियाओं से सीखा है समुन्दर होना।


 


मुंसलिक है तेरी परछाई किसी सूरज से,


मैंने चाहा न तेरे क़द के बराबर होना ।


 


एक मिसरे में गुज़र जाती हैं रातें कितनी,


इतना आसाँ नहीं दुनिया में सुखनवर होना।


 


आज तारीख़ से कुछ सीख के बदलो खुद को,


रोक सकते हो अहिल्याओं का पत्थर होना।


 


जो ये कहते हैं कि शुहरत के तलबगार नहीं,


चाहते हैं वही अख़बार में ऊपर होना।


 


जो गुनहगार नहीं है वो बताए 'बेदिल' ,


हमको तस्लीम है ख़ुद अपना गुनहगर होना।


कृष्ण कुमार बेदिल


 


ग़ज़ल


आप जब निकले मुहब्बत की रिदा ओढ़े हुए,


तब अज़ानो-शंख में कुछ फ़ासले थोड़े हुए ।


 


बेख़ुदी का फिर वही आलम वही दीवानगी,


मिल गए हैं डायरी में कुछ वरक़ मोड़े हुए ।


 


मंज़िलों के रास्तों पर रोशनी के वास्ते,


रात की दहलीज़ पर हैं कुछ दिए छोड़े हुए।


 


अपने दिल की आप जाने हमको अपना है पता,


अपनी ग़ज़लों से हैं अब तक आपको जोड़े हुए।


 


ओढ़कर चादर फ़लक की सो गया मज़दूर इक,


नीचे बिस्तर पत्धरों का पूरे दिन तोड़े हुए।


 


तिश्नगी भी ख़ारज़ारों की बुझाई इस तरह


कुछ फफोले पाँव के काँटो से हैं फोड़े हुए ।


 


खुश नहीं रह पाएगा 'बेदिल' जड़ों से जो कटा,


फूल मुर्झाते हैं जल्दी शाख़ से तोड़े हुए।


 कृष्ण कुमार बेदिल


 


ग़ज़ल


ज़िन्दगी के फलसफे को और उलझायेगा क्या।


ढाल ले हालात के सांचे में,कल का क्या पता ।


 


चाँद भी है मुजमहिल सा, ख़्वाब आलूदा दरख़्त,


ग़मज़दा हैं सब सितारे आज है फिर रतजगा।


 


लग्ज़िशें क़दमों की हों या पाँव की मेरे थकन,


ठोकरों से फिर नया निकलेगा कोई रास्ता।


 


दूर तक अहसास की राहों में मेरा हमसफ़र,


बस तख़य्युल था तेरा कोई तो मेरे साथ था।


 


तेरे आने की खबर है और हवा भी गर्म है,


बंद रक्खूं या कि खोलूं खिड़कियाँ तू ही बता।


 


अब भी याद आती है मिट्टी के घरोंदों की महक,


जब भी दीवारें मेरे घर की मुझे देतीं सदा।


 


जिस्म में फूलों के 'बेदिल' हैं महकती खुशबुएँ ,


 मिल के दोनों ही बनाते हैं फ़िज़ा को खुशनुमा।


कृष्ण कुमार बेदिल


   


                     ग़ज़ल


ज़ुबान दिल में छुपे राज़ को दबाएगी ,


मगर वो चश्मे-इनायत छुपा न पाएगी।


 


तेरे ख़्याल से रोशन है माहताब मेरा,


हवा चिराग़ मेेरे कब तलक बुझाएगी।


 


वो फितरतन है अभी तिफ्ल कौन समझाए


कि नाव कागज़ी दरिया में चल न पाएगी।


 


ये ज़ीस्त खेल है जीतोगे और हारोगे


शिकस्तगी भी नए ज़ाविये बनाएगी।


 


ये तितलियों के परों की नुमाइशें बेदिल


बहार आयी तो इनसे फरेब खाएगी।


 


जो खुद को भूल के बैठे है अब उन्हें बेदिल,


फ़िज़ा भी रोज़ नए आईने दिखाएगी।



 


 


 


 


 


डॉ निर्मला शर्मा 

बेहाल किसान, करे सवाल?


 


 किसानों के ये बिगड़ते हुए हालात


 टूटती उम्मीदों के बिखरते से जज्बात 


सरकार और समाज के लिए


 चिंताजनक है ये भड़कती आग


 कर्जे के तले डूबते किसानों की आह !!


तिल- तिल मरते परिवार की कराह!!


 मजबूर कर देता है उन्हें हारने को


 आत्महत्या जैसा कठोर कदम उठाने को


 हालातों का मारा बेहाल किसान


 करता है आज बेबस सवाल??


 आजादी के बाद भी ना सुधरे,


 क्यों है मेरे हालात बदहाल?


 बनता हूं क्यों मुनाफाखोरी का शिकार?


 आज भी व्यवस्था में क्यों है विकार?


 सुधारों की चाल क्यों है धीमी इतनी?


इंतजार करता हूं टूटती है उम्मीदउतनी?


 कैसे होगा मेरा देश खुशहाल ?


अन्नदाता ही जब होगा यहाँ बेहाल ?


 


डॉ निर्मला शर्मा 


दौसा राजस्थान


डॉ0 निर्मला शर्मा

चाँदनी रात


 दूध सी धवल


 दधि को सो


 आभास कराती 


चाँदनी रात आई 


आकाश में तारों संग


 झिलमिलाती 


शीतलता बिखराती


 स्नेहिल स्पंदन युक्त


 आकर्षण में बाँधती


शांत स्निग्ध 


तापस बाला सी


 चिर तपस्या में 


लीन मुस्कुराती


 संगमरमर की 


शिलाओं सा दिखता


आसमान फैला 


लहराता कोई


 श्वेत वस्त्र 


कामिनी बाला का


 बड़ा सजीला


 मतवाला ह्रदय 


चाँदनी रात की 


तन्हाई में 


आनंदित है 


चंद्रमा की 


किरणों से 


सजी इस 


अमराई में 


तरंगित है।


 


डॉ0 निर्मला शर्मा


दौसा राजस्थान


डॉ. राम कुमार झा "निकुंज"

दिनांकः १०.१०.२०२०


दिवसः शनिवार


छन्दः मात्रिक


विधाः दोहा 


शीर्षकः ,🌅नयी भोर नव आश मन🇮🇳


 


नई भोर नव आश मन , नव अरुणिम आकाश। 


मिटे मनुज मन द्वेष तम , मधुरिम प्रीति प्रकाश।।१।।


 


मार काट व्यभिचार चहुँ , जाति धर्म का खेल।


फँसी सियासी दाँव में , हुई मीडिया फ़ेल।।२।।


 


अनुशासन की नित कमी , लोभ घृणा उत्थान।


प्रतीकार में जल रहा , शैतानी हैवान।।३।।


 


मिटी आज सम्वेदना , दया धर्म आचार।


कहाँ त्याग परमार्थ जग , पाएँ करुणाधार।।४।।


 


सत्ता के मद मोह में , अनाचार सरकार।


मार रही है साधु को , पाती जन धिक्कार।।५।।


 


बँटी हुई है मीडिया , लोकतंत्र आवाज़।


बेच आज निजअस्मिता,फँस लालच बिन लाज।।६।।


 


कौन दिखाए सत्य को , जगाए जनता कौन।


जाति धर्म फँस मीडिया ,चतुर्थ आँख जब मौन।।७।।


 


अद्भुत भारत अवदशा , अद्भुत जनता देश।


तुली तोड़ने देश को , कोप लोभ खल वेश।।८।।


 


नश्वर तन है जानता , नश्वर भौतिक साज।


फिर भी पापी जग मनुज ,चाहत धन सरताज।।९।।


 


स्वार्थ पूर्ति में देश को , तोड़ रहा इन्सान।


रिश्ते नाते सब भुले , देश धर्म सम्मान।।१०।।


 


आहत है माँ भारती ,लज्ज़ित है निज जात।


पा कुपूत चिर हरण निज , अश्रु नैन पछतात।।११।।


 


लज्जित हैं पूर्वज वतन , देख वतन गद्दार।


पछताती कुर्बानियाँ , भारतार्थ उद्धार।।१२।।


 


कामुक लोभी कपट जन , देश द्रोह नासूर।


विध्वंसक ये देश के , दुष्कर्मी नित क्रूर।।१३।।


 


आवश्यक जन जागरण , दर्शन नव पुरुषार्थ।


नैतिक शिक्षा हो पुनः, भरें भाव परमार्थ।।१४।।


 


त्याग शील मानव हृदय , दें बचपन उपदेश।


धर्म कर्म सद्ज्ञान दें , भारतीय परिवेश।।१५।।


 


उपकारी अन्तःकरण , राष्ट्र भक्ति मन प्रीति।


राष्ट्र प्रगति हो निज प्रगति , हो शिक्षा नवनीति।।१६।।


 


समरसता सद्भाव मन , बचपन में दें पाठ।


मानवीय अनमोल गुण , संस्कार दें गाँठ ।।१७।।


 


बचपन जब नैतिक सबल, तरुण बने मजबूत।


तब भारत सुख शान्ति हो , युवा देश हों दूत।।१८।।


 


इन्द्रधनुष सतरंग बन , खिले प्रगति अरुणाभ।


खुशियाँ महकेँ कुसुम बन,सुखद शान्ति नीलाभ।।१९।।


 


कवि निकुंज दोहावली , माँग ईश वरदान।


मति विवेक परहित सदय , बने मनुज इन्सान।।२०।।


 


 डॉ. राम कुमार झा "निकुंज"


नई दिल्ली


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