नूतन लाल साहू

किसी से,बैर मत कीजिये


 


क्यों आया है,इस संसार में


कौन बतायेगा,इस सच को


इस रहस्य को,आज तक


नहीं समझ पाया,कोई भी


रोजी रोटी और सम्मान


सबको प्रभु ने ही,दिया है


पता नही, इंसान क्यों


अपना,नाम बताता है


सब कुछ,रब पर छोड़ दें


किसी से,बैर मत कीजिये


होनी तो होकर ही रहेगा


कोई बदल नहीं पाया है


जिन प्रश्नों का हल नहीं


उसमे ब्यर्थ,क्यों उलझ रहा है


हुआ न तेरा काम तो भी


गम न कर, तू इंसान है


इसमें भी,कुछ भला है


कहते हैं,भक्त वत्सल भगवान


निश्चित तो,केवल मृत्यु है


किसी से, बैर मत कीजिये


ऊपर से तो,दोस्ती


भीतर है, विष के ताज


अगर छीना,किसी गैर का हक


तो समय,ना करे माफ


जिसकी,जितनी है पात्रता


उतना ही,धन सम्मान


बैठा तो है,सबके हृदय में


जग का पालनहार


जो निर्णय है,समय का


उसको,हंसकर तू मान


ये जिंदगी है,दिन चार का


किसी से, बैर मत कीजिये


नूतन लाल साहू


कालिका प्रसाद सेमवाल

*जय जय माँ कूष्माण्डा*


★◆★◆★◆★◆★◆


जय जय माँ कूष्माण्डा


अष्ट भुजा धारी तुम हो,


चक्र, बाण और धनु धारी हो


सब पर तुम कृपा बरसाती हो।


 


रक्त बीजों का नाश करो माँ


जो मानवता का उपहास करे,


भक्तों की तुम रक्षक हो माँ


 सबको सुमति दे दो माँ।


 


रुप तुम्हारा अति मन भावन


शीतल सात्विक सिन्धु सुधा सा,


सिहं पर सवार रहती हो


भक्तों का तुम कल्याण करती हो।


 


कूष्माण्डा माता पूजा तुम्हारी करुं


धूप दीप और भोग लगाऊँ,


चौथे नवरात्र का रुप तुम्हारा


हर घर में तुम पूजे जाते हो।


★◆★◆★◆★◆★◆


कालिका प्रसाद सेमवाल


मानस सदन अपर बाजार


रुद्रप्रयाग उत्तराखंड


डॉ. हरि नाथ मिश्र

*ग्यारहवाँ अध्याय*(श्रीकृष्णचरितबखान)-4


बाबा नंद सकल ब्रजबासी।


होइ इकत्रित सबहिं उलासी।।


आपसु मा मिलि करैं बिचारा।


भवा रहा जे अत्याचारा।।


     ब्रज के महाबनय के अंदर।


     इक-इक तहँ उत्पात भयंकर।।


गोपी एक रहा उपनंदा।


जरठ-अनुभवी मीतइ नंदा।।


    कह बलराम-किसुन सभ लइका।


    खेलैं-कूदें नहिं डरि-डरि का ।।


यहि कारन बन तजि सभ चलऊ।


कउनउ अउर जगह सभ रहऊ।।


      सुधि सभ करउ पूतना-करनी।


       उलटि गयी लढ़ीया यहि धरनी।।


अवा बवंडर धारी दइता।


उड़ा गगन मा किसुनहिं सहिता।।


     पुनि यमलार्जुन तरु महँ फँसई।


     सिसू किसुन आपुनो कन्हई।।


बड़-बड़ पून्य अहहि कुल-देवा।


किसुनहिं बचा असीषहिं लेवा।।


     करउ न देर चलउ बृंदाबन।


      बछरू-गाइ समेतहिं बन-ठन।।


हरा-भरा बन बृंदाबनयी।


पर्बत-घास-बनस्पति उँहयी।।


      बछरू-गाइ सकल पसु हमरे।


      चरि-चरि घास उछरिहैं सगरे।।


                डॉ0हरि नाथ मिश्र


                 9919446372


डॉ. हरि नाथ मिश्र

*चतुर्थ चरण*(श्रीरामचरितबखान)-13


सुनतै श्रुतन्ह लखन क्रोधातुर।


भवा तुरत सुग्रीव भयातुर।।


     कहा पवन-सुत तुम्ह लइ तारा।


     समुझावउ लखनहिं बहु बारा।।


लछिमन-चरन बंदि हनुमाना।


तारा सँग प्रभु-चरित बखाना।।


     होइ बिनम्र लखन गृह लाए।


    धोइ लखन-पद पलँग बिठाए।।


सीष नवा सुग्रिव पद गहही।


तुरत लखन तेहिं हृदय लगवही।।


     ऋषि नहिं जग मा कोऊ असही।


     जिनहिं बासना-नाग न डसही।।


सुनि सुग्रीव-बचन अस लछिमन।


बहु समुझाए कपिसहिं वहि छन।।


     बहु कपि अरु अंगद लइ साथहिं।


     गवा कपीस जहाँ रघुनाथहिं।।


प्रभु-पद सिर नवाइ कर जोरी।


छमहु नाथ कह ई त्रुटि मोरी।।


    मैं बानर मूरख बड़ कामी।


     हो रति-रत भूला निज स्वामी।।


नारी-नयन-बान सभ बेधहिं।


ऋषी-मुनी-जोगिन्ह-हिय सेंधहिं।।


     सभ जन क्रोध-फाँस महँ फँसहीं।


     माया-आहिनि सबहिं कहँ डसहीं।।


नहिं हो बिनू कृपा छुटकारा।


मैं बड़ अधम,करहु उपकारा।।


दोहा-सुनि अस बचन कपीस कै, राम कहे मुसकाइ।


         करहु जतन कछु कपि-पती,सिय-सनेस मिलि जाइ।।


                     डॉ0हरि नाथ मिश्र


                       9919446372


डॉ0 निर्मला शर्मा दौसा राजस्थान

"नवरात्रि"


नवरात्रि का त्योहार, लाया खुशियाँ अपार।


मन झूमे बार-बार, करे वन्दना श्रृंगार।


नौ देवियों का आगमन, धरा करे सुस्वागतम।


 


फैला चहुँदिश उल्लास, प्रकृति करती हुलास।


लाओ पूजा की थाल, करो दीपक प्रकाश।


करती दुष्टों का नाश, घ्वनि करे आकाश।


 


जीवन करती सुगम, नहीं कोई पथ दुर्गम।


चलो आस्था के मार्ग, हो जीवन का उद्धार।


नवदुर्गा की साधना से,होता कष्टों से उद्धार।


 


बढ़े धन और धान्य, फैले शांति निज धाम।


सुख, शांति, समृद्धि, लाये देवियों के पाँव।


माता दुर्गे सँवारे ,मेरे बिगड़े सब काम।


 


मद, मोह, लोभ, काम ,साधना से कट जायें।


इन्द्रियाँ हो वश में, भवसागर से तर जायें।


मील आशीष जीवन का, सर्व कष्ट मिट जायें।


 


डॉ0 निर्मला शर्मा


दौसा राजस्थान


डॉ. रामबली मिश्र हरिहरपुरी

*माँ श्री से कर सदा याचना*


 


सर्व मंगला मंगलकारी।


शिवा स्वरूपिणि विद्याधारी।।


 


ज्ञान गगन गरिमा गिरि गिरिधर।


नारायणि नित नाथ नामवर।।


 


विश्वाधारय अनंत लोका।


लिखती सतत मधुर शिव श्लोका।।


 


विश्व पटल पर कामधेनु हो।


अमर अजन्मा परम रेणु हो।।


 


महाकार अति व्यापक वदना।


बोल रही माँ अति प्रिय वचना।।


 


सर सर सर सर चलत विवेकी।


करती रात-दिवस शुभ नेकी।।


 


हर हर हर हर गंगा यमुना।


माँ सरस्वती हंसा सुगना।।


 


क्रोध नहीं करती माता हैं।


विद्यादानी सुखदाता हैं।।


 


चम चम चम चम चमकत माता।


महा इत्र जिमि गमकत माता।।


 


है नौरात्र सदा माँ श्री का।


ले चरणामृत नित माँ श्री का।।


 


गाओ भजन लिखो दिन-राती।


नाम जपो माँ का दिन-राती।।


 


महा सरस्वति नव दुर्गा हैं।


समझ इन्हीं को प्रिय दुर्गा हैं।।


 


सहज भाव से मिलो इन्हीं से ।


लेना सुंदर काम इन्हीं से।।


 


माँ श्री से कर सदा याचना।


निष्कामी शिव रूप माँगना।।


 


माँ श्री का वंदन करो, रहो उन्हीं के धाम।


भजनानंदी रूप धर,करो दिव्य विश्राम।।


 


रचनाकार:डॉ. रामबली मिश्र हरिहरपुरी


9838453801


डॉ. हरि नाथ मिश्र

*प्रकृति-प्रेम*


न फूलों का चमन उजड़े,शज़र उजड़े,न वन उजड़े।


न उजड़े आशियाँ पशु-पंछियों का-


हमें महफ़ूज़ रखना है ,जो बहता जल है नदियों का।।


          रहें महफ़ूज़ खुशबू से महकती वादियाँ अपनी,


          सुखी-समृद्ध खुशियों से चहकतीं घाटियाँ अपनी।


          रहें वो ग्लेशियर भी नित जो है जलस्रोत सदियों का


                                        हमें महफ़ूज़....


हवा जो प्राण रक्षक है,हमारी साँस में घुलती,


इशारे पे ही क़ुदरत के,सदा चारो तरफ बहती।


रखना इसे महफ़ूज़ उससे ,जो है मलबा गलियों का-


                               हमें महफ़ूज़....।।


        नहीं भाती छलावे-छद्म की भाषा इस कुदरत को,


       समझ आती महज़ इक प्यार की भाषा इस कुदरत को।


यही है ज्ञान का मख्तब,कल्पना-लोक कवियों का- 


                      हमें महफ़ूज़....।


नज़ारे सारे कुदरत के यहाँ संजीवनी जग की,


हिफ़ाज़त इनकी करने से हिफ़ाज़त होगी हम सबकी।


सदा कुदरत से होता है सुखी जीवन भी दुखियों का-


                   हमें महफ़ूज़....।।


     सितारे-चाँद-सूरज से रहे रौशन फ़लक प्रतिपल,


    न आये ज़लज़ला कोई,मिटाने ज़िन्दगी के पल।


  महज़ सपना यही रहता है,सूफ़ी-संत-मुनियों का-


                हमें महफ़ूज़....।।


जमीं का पेड़ जीवन है लता या पुष्प-वन-उपवन,


धरोहर हैं धरा की ये ,सभी पर्वत-चमन-गुलशन।


प्रकृति ही देवता समझो,प्रकृति ही देश परियों का-


               हमें महफ़ूज़...।।


   पहन गहना गुलों का ये ज़मीं महके तो बेहतर है,


  समय-सुर-ताल पे बादल यहाँ बरसे तो बेहतर है।


प्रदूषण मुक्त हो दुनिया,बने सुख-धाम छवियों का-


         हमें महफ़ूज़ रखना है....।।


               © डॉ0हरि नाथ मिश्र


                 9919446372


डॉ. रामबली मिश्र

नारी!तू ही मातृ स्वरूपा


 


नारी!तू ही मातृ स्वरूपा।


अखिल लोकमय दिव्य अनूपा।।


 


तुम्हीं जगत की करत सर्जना।


भाग्यदायिनी लक्ष्मी रूपा।।


 


पालनकर्त्ता महा वैष्णवी।


क्षीरसागरे विष्णु स्वरूपा।।


 


तुम कैलाश पर्व पर्वत पर।


उमा शिवा शिवधरी स्वरूपा।।


 


गर्भधारिणी पयस्विनी प्रिय।


दुग्धदानमय प्रीति स्वरूपा।।


 


परम विरंचि ब्रह्म ब्रह्मामय ।


सहज सगुण साकार स्वरूपा।।


 


तेरी अनुपस्थिति अति खलती।


हर्ष प्रदायिनि प्रेम स्वरूपा।।


 


पत्नी बहन बेटियाँ सब तुम।


सदा दमकती रत्न स्वरुपा।।


 


घर की शोभा परम लुभानी।


गृहिणी सकल क्षेत्र अनुरूपा।।


 


व्रत त्योहारों शुभ कार्यों में।


पूर्ण कार्य पूरक शुभ रूपा।।


 


बिना तुम्हारे अंधकार जग।


तुम सद्भाव प्रकाश स्वरुपा।।


 


सभी मंच पर तेरा मंचन ।


तुम्हीं काव्य रस पाठ स्वरुपा।।


 


रचनाकार परम मधु सलिला।


महा काव्यमय देवि स्वरुपा।।


 


डॉ. रामबली मिश्र हरिहरपुरी


9838453801


डॉ. रामबली मिश्र हरिहरपुरी

*स्वागतम*


 


आप का आगमन आप का आगमन।


आप का स्वागतम आप का स्वागतम।।


 


आप का है हॄदय से सदा स्वगतम।


आप के आगमन का सदा स्वगतम।।


 


ये हवाएँ फिजायें हैं करती नमन।


आप का स्वगतम आप को नित नमन।।


 


वन्दना गा रही गीत स्वागत का है।


कर रही स्वगतम स्वगतम स्वगतम।।


 


आप आये तो धरती भी खिल सी उठी।


कर रही प्रेम से स्वगतम स्वगतम।।


 


ये पड़े सूखे वृक्षों की मायूसियों-


में तरावट का मंजर दिखा आज है।।


 


सारा माहौल सुंदर सुहाना हुआ।


ये गगन झाँकता कर रहा स्वगतम।।


 


सारे पंछी भी आये मिलन के लिये।


चहचहाते हुए कर रहे स्वगतम।।


 


आप का आना कितनी मनोरम छटा।


सारा पर्यावरण कर रहा स्वगतम।।


 


मंच पर मेरे उर के रहें आप बस।


कर रहा मन सुमन स्वगतम स्वगतम।।


 


बस यहीं का बनो बस रहो आँगना।


यही अंतिम इच्छा हृदय कामना।।


 


सिर्फ तुझको निहारूँ नहीं और कुछ।


कर लो स्वीकार प्यारे मेरी याचना।।


 


फूल की बगिया तेरे लिये है सजी।


राह में पुष्प वर्षा से है स्वगतम।।


 


बाँह में बाँह डाले चलेंगे सदा।


आप के आगमन का सदा स्वगतम।।


 


झोली भर दूँगा मुस्कान से आप का।


स्वगतम स्वगतम स्वगतम स्वगतम।।


 


जो कहेंगे वही मैं करूँगा सदा।


स्वप्न में भी नहीं सोचना है जुदा।।


 


आप को देखकर जिंदगी खुशनुमा।


आप का स्वगतम नित्य नव स्वगतम।।


 


रचनाकार:डॉ. रामबली मिश्र हरिहरपुरी


9838453801


कालिका प्रसाद सेमवाल

*मुझको बुला रही हो*


*******************


आज सपन एक 


मैंने देखा,


तुम आ रही हो


नूपुर बजा रही हो


अंचल सजा रही हो


कोई गीत गा रही हो


मुझको बुला रही हो


कर कोमल हिला रही हो


भाव उर में जता रही हो


प्रणय कहानी बता रही हो।


 


वायु पुरवा झकोरती


है पपीहरी भी बोलती


कली घूंघट को खोलती


रस माती है डोलती


भौंरे रंग-रंग आ रहे


मंद बांसुरी बजा रहे


तुम खड़ी हो पास में


मंद-मंद हास में


सुगन्ध भरी सांस में।


 


थिरक रही लास में


जैसे राधा कृष्ण रास में


गोपियों के संग में


नाच रहे हैं वृंदावन में


जैसे कृष्ण चले गए थे


गोपियों को छोड़कर


मुझसे मुंह मोड़ कर


कह कर नमस्ते


मन्द-मन्द हंसते हंसते।।


********************


कालिका प्रसाद सेमवाल


मानस सदन अपर बाजार


रूद्रप्रयाग उत्तराखंड


सुनीता असीम

अंधेरा भी मुझे अब तो नया रस्ता दिखाता है।


महर मुझपर खुदा की है सभी बढ़िया दिखाता है।


*******


अगर है आदमी सच्चा रखे ईमान की। दौलत।


उसे भगवान बनकर जोत फिर दुनिया दिखाता है।


*******


यही दस्तूर दुनिया का हुआ है आजकल देखो।


करे जो काम शैतानी उसे ज्ञ अच्छा दिखाता है।


*******


जिसे विश्वास है रब पर बनें सब काम बिगड़े भी।


बिगड़ते भाग्य को उसके खुदा बनता दिखाता है।


*******


सभी हो बंद रस्ते भी नहीं मंजिल दिखाई दे।


खुदा उसको झरोखा इक नया खुलता दिखाता है।


*******


सुनीता असीम


१९/१०/२०२०


डॉ. रामबली मिश्र हरिहरपुरी

आदि शक्ति को भजो निरन्तर


 


हे आदि शक्ति !हे जग जननी।


स्त्री वाचक, हे प्रिय शव्द धनी।।


 


तुम महा समंदर ज्ञान अगाधा।


सर्व पंथगामिनि मनचाहा।।


 


त्रिपुरवासिनी सर्व मोहिनी।


महा मंत्रमय विघ्न नाशिनी।।


 


कोमल और कठोर नियंता।


सकल स्वचालित प्रभु अभियंता।।


 


नारायणि अति व्यष्टि स्वरूपिणि।


परम विराट सूक्ष्म शिव भूपिणि।।


 


दिव्य ललाट ज्ञानमय सागर।


हिम विशाल शांत प्रिय आखर।।


 


नियम नियामक नियामक नियमित नित्या।


शुभ सन्देश शुभ्र सत स्तुत्या।।


 


आदि शक्ति को भजो निरन्तर।


इनसे बढ़कर कुछ नहिं सुंदर।।


 


डॉ. रामबली मिश्र हरिहरपुरी


9838453801


डॉ. रामबली मिश्र हरिहरपुरी

डॉ. रामबली मिश्र हरिहरपुरी


डॉ. हरि नाथ मिश्र

*वाणी*(दोहे)


वाणी से व्यक्तित्व की,होती है पहचान।


मीठी वाणी अमिय सम,कड़वी सर-संधान।।


 


गरल-कलश हिय में धरे,दुर्जन बोले बोल।


मधु वाणी के शस्त्र से,हते प्राण अनमोल।।


 


ज्ञानी-सज्जन-संत के,सीधे-मीठे बोल।


दुष्ट-हठी-इर्ष्यालु जग,बोलें गोल-मटोल।।


 


वाणी से ही मनुज का,है जग पर अधिकार।


श्रेष्ठ सृजन यह सृष्टि का,है वाणी-उपकार।।


 


वाणी से ये वेद हैं,गीता-शबद-क़ुरान।


वाणी से यह बाइबिल,देती सबको ज्ञान।।


 


वाणी ब्रह्म-स्वरूप है,संस्कृति का आधार।


विद्या देवी मातु को,ज्ञापित है आभार।।


 


मधुर वचन से सुख मिले,मिले सदा संतोष।


घटे सकल धन पर यही,जीवन-अक्षुण कोष।।


            ©डॉ0हरि नाथ मिश्र।


                9919446372


सुषमा दीक्षित शुक्ला

जयति जय माँ कात्यायनि,


जयति जय जय दुर्गमा ।


 


हे! मातु हम तो शिशु तुम्हारे ,


अब मेरा कल्याण कर माँ ।


 


दुनिया के जननी तू मैया,


तुझ पर अर्पण तन मन धन ।


 


तू माता है तू दाता है ,


तू ही जीवन और मरन ।


 


नजरें कभी न फेरो हे! माँ


इतनी सी फरियाद मेरी ।


 


भूल चूक सब क्षमा करो माँ


दुनिया हो आबाद मेरी ।


 


सारी दुनिया रूठ भी जाये,


तुम ना रूठो प्यारी माँ ।


 


सारी दुनिया अगर त्याग दे ,


नही त्यागती न्यारी माँ ।


 


तेरा धन है तेरा मन है,


तेरा ही ये तन मेरा ।


 


तेरा सबकुछ तुम्हें समर्पित ,


क्या लागे इसमें मेरा ।


 


सुषमा दीक्षित शुक्ला


डॉ. निर्मला शर्मा

" मंगलसूत्र के बिखरे मोती"


विकल हिरनी सी


विस्फारित सी अखियाँ उसकी


शून्य मैं ताकती वह सौभाग्यशालिनी


अश्रुओं की कपोलों पर बहती धारा


चीत्कार करता हृदय को भेदता 


उसका आर्त करूण स्वर


हे गिरधारी, मनमोहन, चक्रधारी


अब तो आओ बचाओ लाज हमारी


पुकारती है दौपदी--------


वो है निःसहाय,लाचार


भरी है वीरों से राजसभा


पाँच शूरवीरों की वह कांता


 यज्ञ वेदी से उत्पन्न बनी आक्रांता


देव प्रसाद सी वह कोमलांगी


हारी वह सबको दे- दे पुकार


सभा बनी बैठी है बुत सी


मौन बैठा है सारा संसार


वह तेजस्विनी, स्वाभिमानिनी


तीव्र महत्वाकांक्षाओं की


 अग्नि मैं जलकर


बनी वह प्रलयंकर दामिनी


खींच लाया उसे वो पशुवत


दुश्शासन पापी केशों को पकड़


टूट कर बिखर गए काले मोती


सुहागचिन्ह के अनमोल मोती


धैर्य, प्रेम, वीरता, कोमलता, लज्जा


की टूटी डोर


खन खन कर छिटके इधर-उधर


टूटा रक्षा का वचन सूत्र


किया गया उसका मान-मर्दन


समेट अपने वस्त्र छिटककर केश


मंगलसूत्र के पवित्र मोतियों को समेट


किया अट्टहास सभा मैं---------


पवित्रता भंग करने का ये घृणित प्रयास


हुआ जिस क्षत्रियों की सभा मैं


करती हूँ मैं इस सभा का परिहास


बिखरे मोतियों को जोड़


पुनः बनाकर पवित्र मंगलसूत्र


जला अपमान की धधकती ज्वाला


खुले केश और प्रतिशोध का सूत्र बना


शूरवीरों की वह भार्या


चली है सतीत्व का तेज दिखाने


पापियों को


देने दण्ड उनके अक्षम्य अपराध का


वह परम सती ,पवित्रात्मा


मंगलसूत्र की यशगाथा से


नवीन महाभारत रचने।


 


डॉ. निर्मला शर्मा


दौसा, राजस्थान


नन्द लाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर

[10/19, 9:16 AM] Nandlal Mani Tripathi: 1-मै ऐसा हूँ ना वैसा हूँ 


मैं धन दौलत बैभव किस्मत मैं पैसा हूँ।।


ना मैं खुशबू ना मैं खूबसूरत


फिर भी दुनियां चलती


मेरी चाहत आहट से


मोहब्बत, नफरत, चाल


चरित्र चेहरा हूँ मैं ऐसा हूँ ना वैसा हूँ धन दौलत बैभव किस्मत


मैं पैसा हूँ।।


सुनता नहीं कुछ ,देखता


नहीं कुछ ,बोलता नहीं


मुँह ,आँख ,कान नहीं 


अँधा गंगा बहरा


उल्लू पर बैठा हूँ मैं ऐसा हूँ ना 


वैसा हूँ मैं धन दौलत बैभव किस्मत मैं पैसा हूँ।।


मेरे वरण के नाम अनेकों


जब कोई मानव मेहनत


करता मेरी सर्वश्रेष्ठ पसंद


संग उसके मैं रहता 


कोई मुझको हाशिल करता


छल ,छद्म से भ्रष्ट्र भ्रष्टाचारी


कहलाता मैं मानव से जाने


क्या करवाता हूँ मैं ऐसा हूँ ना


वैसा हूँ मैं धन दौलत बैभव


मैं पैसा हूँ।।


मेरे रंग रूप अनेकों 


युग संसार का भाग्य विधाता हूँ


मैं पैसा हूँ मैं ऐसा हूँ ना वैसा हूँ


धन दौलत बैभव मैं पैसा हूँ।।


प्यार ,इश्क ,मोहब्बत का जूनून


ताकत ,सुरूर खुशबू खूबसूरत


यौवन की मादकता ,हाला, प्याला


रंगशाला मधुशाला हूँ मैं ऐसा हूँ ना


वैसा हूँ मैं धन दौलत बैभव किस्मत मैं पैसा हूँ।।


मैं नहीं तो -भय, भूख, बीमारी, लाचारी ,जरा जवानी 


निठाला ठन ठन गोपाला हूँ धन दौलत बैभव किस्मत नश्वर निराला हूँ मैं पैसा हूँ।।


जन्म ,जीवन मैं अस्तित्व


शक्ति ,साहस ,शौर्य, चमक


जीवन में जीवन महत्व का


बोल बाला हूँ मैं ऐसा हूँ ना वैसा हूँ मैं धन दौलत बैभव किस्मत


मैं पैसा हूँ।।


चलते जीवन की बात ही छोडो


मरने के बाद जीव जीवन मूल्यों


का रखवाला हूँ।


ऐसा हूँ ना वैसा हूँ धन की दौलत बैभव किस्मत मैं पैसा हूँ।।


सर की पगड़ी शाला और दो


शाला जीवन में ,जीवन के


बाद कफ़न ,कब्र ,श्मशान ,श्राद्ध


स्वर्ग ,नर्ग का दाता हूँ 


ऐसा हूँ ना वैसा हूँ धन दौलत बैभव किस्मत मैं पैसा हूँ।।


घृणा ,प्रेम, ख्याति ,शक्ति ,हस्ती


मस्ती मैं ही आफत मैं ही राहत


मैं ही मान प्रतिष्ठा अपमान


मैं ही शैतान ,मैं ही हैवान


महल ,अटारी, बंगला ,गाडी 


गृहलक्ष्मी नारी हूँ मैं ऐसा


हूँ ना वैसा हूँ मैं धन दौलत बैभव


किस्मत मैं पैसा हूँ।।


मुझे कोई जबरन हासिल करता


क्रूर दुष्ट डाकू ,बेईमान कहलाता किसी मैं लूटता नंगा खूंखार अपमानित हो जाता ।            


 


सड़क ,बिजली, पानी


स्वस्थ ,शिक्षा, भिक्षा और परीक्षा सरकारी हूँ मैं ऐसा हूँ ना वैसा हूँ धन दौलत बैभव किस्तम मैं पैसा हूँ।।


युग संसार में मेरी महिमा 


न्यारी है मन्दिर, मस्जिद ,चर्च,


गुरुद्वारे में मैं ही वारि वारि हूँ


मैं ऐसा हूँ ना वैसा हूँ धन दौलत


बैभव किस्मत मैं पैसा हूँ।      


 


 काशी ,काबा ,मक्का और मदीना


ध्यान, धर्म ,पूण्य कर्म खैरात जकात पर्व ,तीज, त्यौहार खुशियाँ वसंत बहार आला निराला हूँ 


मैं ऐसा हूँ ना वैसा हूँ धन दौलत बैभव किस्मत मैं पैसा हूँ।।


 


 


नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर


[10/19, 9:16 AM] Nandlal Mani Tripathi: 2-जग में अँधेरा ना रह पाये


ऐसा उजियार करो


दिए जलाओ प्यार 


मानवता संसार में ना कही अँधियार रहे।।


अवनि स्वर्ग सरीखा


बैर ,द्वेष ना हो क़ोई 


मानव ,मानवता का जग


सारा सुंदर मनभावन संसार रहे।।


भेद भाव नहीं ,कोई मजबूर नहीं प्राणी प्राण प्रेम की बहती निर्मल धरा


सम भाव समाज की शक्ति के साथ रहे।।


 


राष्ट्र जननी जन्म भूमिश्च


हो अभिमान हमारा


आज्ञाकारी संतान अन्याय ,


अत्याचार का ना नामो निशान।


लिंग भेद का दर्द नहीं ,प्राणी


प्रकृति ,परिवार का युग संसार


 पड़ती बेटी , बढती बेटी, अंतर


द्वन्द नहीं बेटी बेटों में 


बेटी लक्ष्मी जैसी शुभ मंगल का


उपवन सारा जग सारा का उजियार रहे।।


 नारी उत्पीड़न ,बाल श्रम ,श्रमिक


अभिशाप सबके अधिकार


सुरक्षित सबको उपलब्धि अवसर


का देश युग समाज काल रहे।।


हाथ उठे गर श्रम ,कर्म ,धर्म में


भिक्षा ना ले, दे कोई मूल्यों मर्यादा


का संसार हो।।


 


मजदूर मज़लूम मजबूर न हो


रोष प्रतिरोध न हो 


उचित काम का उचित दाम मजदूर मानव महिमा की दौलत


पूंजी का राष्ट्र समाज रहे।।


 


किसान हताश,निराश न हो


धरती सोने की खान रहे


फ़र्ज़ ,कर्ज के मकड़जाल


आत्मा शारीर का त्याग नही


आत्म हत्या का शिकार ना किसान रहे।।


 


कर्षती इति कृष्णः


का गोपालक किसान


ग्राम देवता अभिमान रहे।।


 गाँव खुशहाल 


आमिर गरीब का ना


भेद भाव शहर नगर की


डगर डगर खुशहाली खुशबू


की महक मान का मान रहे।।


 


व्यवसायी का व्यवसाय


निर्विवाद निर्बाध हो ,उद्योंगो


का पहिया नित्य निरंतर चलता


जाए उद्योंगो की गति जाम ना जाम रहे।।


 


युवा शक्ति उत्साहित राष्ट्र निर्माण


की सार्थक ऊर्जा ना उग्र ,उग्रबाद रहे।।


 


युवा उत्साह उल्लास शौर्य का 


नित शंखनाद बुजुर्ग प्रेरणा 


का सम्मन रहे।।


आदर्श समाज ,आदर्श राष्ट्र ना


भय ,भ्रष्टाचार रहे त्वरित न्याय


रामराज्य का भारत विश्व प्रधान


रहे।।


 


हर रोज दिन में खुशियो रंगों


का तीज त्योहार खुशहाल पल


प्रहार राष्ट्र समाज रहे।।


बच्चा बच्चा राम कुपोषण का


ना हो शिकार मातृत्व सुख में


नारी को अभिमान रहे।।


 


जवान देश की सरहद पर


निर्भीक ,निडर सरहद का


फौलाद रहे।।


 


राम विजय अच्छाई ,सच्चाई की


विजय शक्ति की अर्घआराधना


नव रात दिन का पल पल वर्ष


युग दिन रात रहे।।


 


राम आगमन मन मन मे नव


स्फूर्ति जागृति चेतना का संचार रहे।।


 


ना कोई व्याधि रोग से पीड़ित ना


अकाल काल का कोई प्राणी ग्रास


रहे।।


घर घर दिए जल जाएंगे आशाओं


विश्वाश के प्रेम प्रवाह की मानवता


का नवयुग में संचार रहे।।


 


कवि लेखक कलाकार लिखे पड़े


अभिव्यक्त करें युग के अभिमान


के रामराज्य की सार्थकता का


गुण गान रहे।।


 


लोकतंत्र लोपतंत्र नही अराजक


अराजकता नही सात्विक


सद्कर्म का सहिष्णु लोकतंत्र का


नाम रहे।।


आसमान में लहराता फहराता तिरंगा


रामराज्य का विश्व प्रकाश रहे।।


सार्थकता के लेखन का प्रबुद्व समाज


निर्थक का ना कोई प्रमाण रहे।।


 


स्वच्छ अवनि ,आकाश वायु ध्वनि प्रदूषण से मुक्त प्रकृति निर्मल


निर्झर बहती नदियां पर्वत वन जल


जीवन ,वन जीवन का सत्यार्थ रहे।।


 


ना कोई महामारी ना कोई बेरोजगारी


समय सिद्ध का उपयोग कोई जीवन


ना बेकार रहे।।


यही लेख लेखन हो गुण धर्म उपलब्धि


का सर्वसमाज जन जन उपयोगी


का योगदान योगदान रहे।।


 


नर में हर मानव नरेंद्र हो राष्ट्र समाज


के लिये त्याग तपस्या का मिशाल मशाल रहे।।


बापू के सपनों का भारत बल्लभ


की एकता का भारत नेता के नियत


का भारत विश्वगुरु बेमिशाल रहे।।


 


नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर


विनय सागर जायसवाल

ग़ज़ल


 


रह-ए- हयात को जो ख़ुशगवार करना था


तुम्हारे झूठ पे यूँ ऐतबार करना था 


 


पयामे-हुस्न कई हमने यूँ भी ठुकराये 


तमाम उम्र तेरा इंतज़ार करना था


 


मुहब्बतों को फ़कत खेल तुम समझते हो 


तुम्हारा शौक हमें बेक़रार करना था


 


जुनूने-इश्क़ की हद देखनी थी गर तुमको 


गिरेबाँ मेरा तुम्हें तार-तार करना था 


 


वफ़ा के नाम पे जो लोग चढ़ गये सूली 


मुझे भी हूबहू उनमें शुमार करना था 


 


सुबूत प्यार का देना था इसलिए हमको 


ख़िज़ाँ के दौर को फस्ल-ए-बहार करना था 


 


सुराही जाम में डूबे हैं इस लिए *साग़र*


तेरे नशे का कहीं तो उतार करना था 


 


🖋️विनय साग़र जायसवाल 


16/10/2020


कालिका प्रसाद सेमवाल

हे मां जगदम्बा दया करो


********************


हे मां जगदम्बा दया करो,


हमें सत्य की राह बताओ,


कभी किसी को सताये नहीं,


ऐसी सुमति हमें देना मां।


 


 


हे मां जगदम्बा दया करो,


अपनी कृपा वर्षा करो,


हम अज्ञानी तेरी शरण में,


हमें सही राह बताना मां।


 


ये जीवन तुम्ही ने दिया है


राह भी तुम्हें बताओ मां


हो गई है भूल कोई तो,


राह सही बताओ मां।


 


कभी किसी का बुरा न करुं,


दया भाव से हृदय भरो,


मस्तक तुम्हारे चरणों में हो,


ऐसी बुद्धि हमें दे दो मां।


 


हे मां जगदम्बा दया करो,


जग में न कोई किसी जीव को,


पीड़ा कभी न पहुंचाएं मां,


ऐसी सब की बुद्धि कर दो।


********************


कालिका प्रसाद सेमवाल


रुद्रप्रयाग उत्तराखंड


राजेंद्र रायपुरी

🚩 *माता रानी आ गईं* 🚩


 


माता रानी आ गईं,


               सुन कर करुण पुकार।


अगवानी को मैं खड़ा, 


               देखो अपने द्वार।


 


लाल चुनरिया पहनकर, 


              होकर सिंह सवार। 


माता रानी आ गईं, 


                देखो मेरे द्वार।


 


प्यारे-प्यारे दो नयन, 


                और भुजाऍ॑ चार। 


एक हाथ में है खड़ग, 


                दूजे में तलवार।


 


भाला तीजे हाथ है, 


                 करें दुष्ट संहार।


वर मुद्रा में हाथ जो, 


                बाॅ॑टें उससे प्यार।


 


टीका माॅ॑ के माथ पर, 


                 और गले में हार।


चमक रहे ज्यों सूर्य हों, 


                उनकी चमक अपार।


 


माॅ॑ के चरण पखार कर,


              आसन दूॅ॑गा ख़ास।


नौ दिन तक माता करें, 


               मेरे घर में वास।


 


माॅ॑ की पूजा के लिए,


                 रक्खा है उपवास।


ज्योति जलेगी रात दिन,


                 माता जी के पास।


 


नहीं माॅ॑गना कुछ मुझे, 


               बस इतनी अरदास।


माता रानी की कृपा, 


               बनी रहे कुछ ख़ास।


 


         🙏🏻जय माता दी।🙏🏻


 


          ।। राजेंद्र रायपुरी।।


डॉ. हरि नाथ मिश्र

*ग्यारहवाँ अध्याय*(श्रीकृष्णचरितबखान)-3


पुनि-पुनि कहैं जसोदा मैया।


हे बलदाऊ-किसुन कन्हैया।।


    पंकज नयन कृष्न-बलरामा।


    सुंदर गात स्याम बलधामा।।


हे बलराम तुमहिं सभ थकिगे।


खेलत खेल कलेवा पचिगे ।।


     बाबा नंद तुमहिं सभ जोहहिं।


     बिनू तुमहिं सभ भोज न होवहिं।।


कहतै अस जसुमति-स्तन मा।


उतरा दूध भाव बत्सल मा ।।


    पुनि कह जसुमति आउ तुमहिं सभ।


    आइ अनंदित करउ हमहिं सभ।।


धूल-धूसरित भे सभ अंगा।


निज तन करउ नहाइ सढंगा।।


     अहइ आजु तव जनम-नछत्रा।


     दान द्विजहिं करु होइ पवित्रा।।


मज्जन करि खा-पी तव मीता।


भूसन-बसनहिं पहिरि अभीता।।


    खेलहिं इहवाँ धाई-धाई।


    मीजि-पोंछि भेजीं तिन्ह माई।।


तुमहुँ करउ मज्जन-स्नाना।


भूसन-बसन पहिनि खा खाना।।


    आइ इहाँ पे खेलउ धाई।


    कहना मानउ सुनहु कन्हाई।।


अस कहि मातु जसोदा जाई।


हाथ पकरि बलराम-कन्हाई।।


     लाइ तुरत तिनहीं निज गेहा।


      पुत्रन्ह दीन्ह सकल सुख-नेहा।।


दोहा-अह जे रच्छक सकल जग,जसुमति रच्छक तासु।


        लीला धनि-धनि तव प्रभू,होय न मन बिस्वासु।।


                     डॉ0हरि नाथ मिश्र।


                      9919446372


डॉ. हरि नाथ मिश्र

*चतुर्थ चरण*(श्रीरामचरितबखान)-13


पावस गत ऋतु पावन आई।


सरद सुहावन-भावन आई।।


    मिलै न खोज-खबर कहुँ सीता।


     बिचलित मम मन जनु भयभीता।।


जौं कतहूँ तेहिं जीवित पाऊँ।


काल मारि मैं तुरतै लाऊँ ।।


     अबुध-असुझ सुग्रिव जनु भूला।


     संपति-नारि-भोग महँ झूला ।।


मम मन कहहि हतउँ मैं ताहीं।


वहि धनु-सर जे बालि गिराहीं।।


     प्रभु क्रोधित लखि लछिमन तबहीं।


     निज कर धरे बान अरु धनुहीं ।।


निरखि राम लछिमन अस रूपा।


कहे लखन सन प्रभू अनूपा।।


     लाहु ताहि यहँ भय दिखलाई।


      नहिं तोरेउ तेहि संग मिताई।।


इहइ बिचार अवा हनुमाना।


भूला जनु कपीस भगवाना।।


     सिर झुकाइ चरनन्ह हनुमाना।


     कह सुग्रीवहिं बहु बिधि नाना।।


साम-दाम अरु दंड बिभेदा।


समुझावा प्रभु-सक्ति अभेदा।।


     बिषय-भोग-रत मन अस मोरा।


     बचि नहिं सका ग्यान सुनु थोरा।।


जाहु पवन-सुत देर न करऊ।


चहुँ-दिसि दूत बहुल अब पठऊ।।


      कहहु तिनहिं लौटहिं पखवारा।


      सुभ सनेस लइ बिधिवत सारा।।


नहिं तै मैं तिन्हकर बध करऊँ।


बिनु प्रभु काजु चैन कस धरऊँ।।


      तब हनुमत अपुने बल-बूता।


      पठए चहुँ-दिसि दूत बहूता।।


तेहि अवसर लछिमन तहँ आए।


बोले क्रोधित बान चढ़ाए ।।


     जारब तोर सकल पुरवासी।


     करब अबहिं हम तव कुल नासी।।


देखि लखन धनु-बान चढ़ाए।


बालि-तनय अंगद तहँ आए।।


दोहा-अंगद बहु बिनती करै, लछिमन-पद सिर नाइ।


        होइ द्रवित लछिमन तुरत,देहिं अभय बर धाइ।।


                      डॉ0हरि नाथ मिश्र।


                       9919446372


सुनीता असीम

कार्यशाला से प्राप्त ग़ज़ल:-


 


 


पुरानी कहानी भुलाने न पाए।


वो यादों की चिलमन गिराने न पाए।


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 मेरे दिल के भीतर हैं यादें सुहानी।


कोई मुझसे इनको चुराने पाए।


*****************************


निशाना हुआ दिल मुहब्बत में पड़कर। 


उन्हें हाले दिल पर सुनाने पाए। 


******************************


 नजारे हसीं थे वो नजरें हसीं थीं।


मगर प्यार अपना बताने न पाए।


******************************


वो अनपढ़ रहे इश्क के मामले में।


उन्हें पाठ दिल के पढ़ाने न पाए।


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सुनीता असीम


१८/१०/२०२०


डॉ0 निर्मला शर्मा दौसा राजस्थान

राजा रंक सभी फल ढोते


 


मनुज जन्म लेकर जो जन्मे 


पर जीवन का सार न समझे 


आलस , काम ,क्रोध ,माया में 


जीवन किया निष्फल इस जग में 


कभी ईश वन्दन नहीं करते 


पर पीड़ा ही सुख हो जिनका 


मानवता से क्या नाता उनका 


किया अधर्म कुमार्ग पर चलते 


कर्मो का फल ढोते रहते


राजा हो या रंक नियति पर 


होता न्याय समान जगती पर


पूर्व जन्म या फलित जन्म हो 


भुगते कर्म फल जैसा किया हो 


जैसे को तैसा ही मिलता है 


ईश न्याय कभी भेद न करता 


कर्मो के फल ढोने पड़ते 


राजा रंक सभी फल ढोते।


 


डॉ0 निर्मला शर्मा


दौसा राजस्थान


विनय सागर जायसवाल

गीत --


 


मनभावन प्रतिबिम्ब तुम्हारे ,जब सुधि में उतराये हैं ।


पाँव तले कंटक भी हों यदि हम खुलकर मुस्काये हैं ।।


 


क्या दिन थे वे जो कटते थे लुकाछिपी के खेलों में 


बन आती थी अनायास जब मिल जाते थे मेलों में


चूड़ी ,कंगन ,बिंदिया, गजरा देख-देख हर्षाये हैं ।।


मनभावन ---------------


 


बागों में हर दिवस मिलन था भौंरा -तितली जीवन था 


छोटे से घर का आँगन भी लगता कोई मधुवन था 


नाव कागज़ी घेर-घरौंदे हमने बहुत बनाये हैं ।।


मनभावन----------------


 


खेल-खिलौने खेल-खेलकर एक दिवस हम बड़े हुये


अनसुलझे कुछ प्रश्न हमारे मन-मस्तक में खड़े हुये


उन प्रश्नों के सम्मुख हमने अपने शीश झुकाये हैं ।।


मनभावन------------


 


विरहा की आँधी ने जब छीन लिये स्वप्निल गुब्बारे


नीलगगन को ताक रहे थे हम अचरज से मन मारे


विधि के लेखों पर हमने भी सौ-सौ दोष लगाये हैं ।।


मनभावन----------------


 


व्यर्थ हुये वंदन -आराधन व्यर्थ हुये संकल्प-वचन


डूब गये दृग गंगाजल में सब स्वप्नों के राजभवन


*साग़र* सूने मंदिर में भी हमने दीप जलाये हैं ।।


मनभावन ----------------


पाँव तले---------------


 


🖋विनय साग़र जायसवाल बरेली


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