विनय सागर जायसवाल

ग़ज़ल


 


रह-ए- हयात को जो ख़ुशगवार करना था


तुम्हारे झूठ पे यूँ ऐतबार करना था 


 


पयामे-हुस्न कई हमने यूँ भी ठुकराये 


तमाम उम्र तेरा इंतज़ार करना था


 


मुहब्बतों को फ़कत खेल तुम समझते हो 


तुम्हारा शौक हमें बेक़रार करना था


 


जुनूने-इश्क़ की हद देखनी थी गर तुमको 


गिरेबाँ मेरा तुम्हें तार-तार करना था 


 


वफ़ा के नाम पे जो लोग चढ़ गये सूली 


मुझे भी हूबहू उनमें शुमार करना था 


 


सुबूत प्यार का देना था इसलिए हमको 


ख़िज़ाँ के दौर को फस्ल-ए-बहार करना था 


 


सुराही जाम में डूबे हैं इस लिए *साग़र*


तेरे नशे का कहीं तो उतार करना था 


 


🖋️विनय साग़र जायसवाल 


16/10/2020


कालिका प्रसाद सेमवाल

हे मां जगदम्बा दया करो


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हे मां जगदम्बा दया करो,


हमें सत्य की राह बताओ,


कभी किसी को सताये नहीं,


ऐसी सुमति हमें देना मां।


 


 


हे मां जगदम्बा दया करो,


अपनी कृपा वर्षा करो,


हम अज्ञानी तेरी शरण में,


हमें सही राह बताना मां।


 


ये जीवन तुम्ही ने दिया है


राह भी तुम्हें बताओ मां


हो गई है भूल कोई तो,


राह सही बताओ मां।


 


कभी किसी का बुरा न करुं,


दया भाव से हृदय भरो,


मस्तक तुम्हारे चरणों में हो,


ऐसी बुद्धि हमें दे दो मां।


 


हे मां जगदम्बा दया करो,


जग में न कोई किसी जीव को,


पीड़ा कभी न पहुंचाएं मां,


ऐसी सब की बुद्धि कर दो।


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कालिका प्रसाद सेमवाल


रुद्रप्रयाग उत्तराखंड


राजेंद्र रायपुरी

🚩 *माता रानी आ गईं* 🚩


 


माता रानी आ गईं,


               सुन कर करुण पुकार।


अगवानी को मैं खड़ा, 


               देखो अपने द्वार।


 


लाल चुनरिया पहनकर, 


              होकर सिंह सवार। 


माता रानी आ गईं, 


                देखो मेरे द्वार।


 


प्यारे-प्यारे दो नयन, 


                और भुजाऍ॑ चार। 


एक हाथ में है खड़ग, 


                दूजे में तलवार।


 


भाला तीजे हाथ है, 


                 करें दुष्ट संहार।


वर मुद्रा में हाथ जो, 


                बाॅ॑टें उससे प्यार।


 


टीका माॅ॑ के माथ पर, 


                 और गले में हार।


चमक रहे ज्यों सूर्य हों, 


                उनकी चमक अपार।


 


माॅ॑ के चरण पखार कर,


              आसन दूॅ॑गा ख़ास।


नौ दिन तक माता करें, 


               मेरे घर में वास।


 


माॅ॑ की पूजा के लिए,


                 रक्खा है उपवास।


ज्योति जलेगी रात दिन,


                 माता जी के पास।


 


नहीं माॅ॑गना कुछ मुझे, 


               बस इतनी अरदास।


माता रानी की कृपा, 


               बनी रहे कुछ ख़ास।


 


         🙏🏻जय माता दी।🙏🏻


 


          ।। राजेंद्र रायपुरी।।


डॉ. हरि नाथ मिश्र

*ग्यारहवाँ अध्याय*(श्रीकृष्णचरितबखान)-3


पुनि-पुनि कहैं जसोदा मैया।


हे बलदाऊ-किसुन कन्हैया।।


    पंकज नयन कृष्न-बलरामा।


    सुंदर गात स्याम बलधामा।।


हे बलराम तुमहिं सभ थकिगे।


खेलत खेल कलेवा पचिगे ।।


     बाबा नंद तुमहिं सभ जोहहिं।


     बिनू तुमहिं सभ भोज न होवहिं।।


कहतै अस जसुमति-स्तन मा।


उतरा दूध भाव बत्सल मा ।।


    पुनि कह जसुमति आउ तुमहिं सभ।


    आइ अनंदित करउ हमहिं सभ।।


धूल-धूसरित भे सभ अंगा।


निज तन करउ नहाइ सढंगा।।


     अहइ आजु तव जनम-नछत्रा।


     दान द्विजहिं करु होइ पवित्रा।।


मज्जन करि खा-पी तव मीता।


भूसन-बसनहिं पहिरि अभीता।।


    खेलहिं इहवाँ धाई-धाई।


    मीजि-पोंछि भेजीं तिन्ह माई।।


तुमहुँ करउ मज्जन-स्नाना।


भूसन-बसन पहिनि खा खाना।।


    आइ इहाँ पे खेलउ धाई।


    कहना मानउ सुनहु कन्हाई।।


अस कहि मातु जसोदा जाई।


हाथ पकरि बलराम-कन्हाई।।


     लाइ तुरत तिनहीं निज गेहा।


      पुत्रन्ह दीन्ह सकल सुख-नेहा।।


दोहा-अह जे रच्छक सकल जग,जसुमति रच्छक तासु।


        लीला धनि-धनि तव प्रभू,होय न मन बिस्वासु।।


                     डॉ0हरि नाथ मिश्र।


                      9919446372


डॉ. हरि नाथ मिश्र

*चतुर्थ चरण*(श्रीरामचरितबखान)-13


पावस गत ऋतु पावन आई।


सरद सुहावन-भावन आई।।


    मिलै न खोज-खबर कहुँ सीता।


     बिचलित मम मन जनु भयभीता।।


जौं कतहूँ तेहिं जीवित पाऊँ।


काल मारि मैं तुरतै लाऊँ ।।


     अबुध-असुझ सुग्रिव जनु भूला।


     संपति-नारि-भोग महँ झूला ।।


मम मन कहहि हतउँ मैं ताहीं।


वहि धनु-सर जे बालि गिराहीं।।


     प्रभु क्रोधित लखि लछिमन तबहीं।


     निज कर धरे बान अरु धनुहीं ।।


निरखि राम लछिमन अस रूपा।


कहे लखन सन प्रभू अनूपा।।


     लाहु ताहि यहँ भय दिखलाई।


      नहिं तोरेउ तेहि संग मिताई।।


इहइ बिचार अवा हनुमाना।


भूला जनु कपीस भगवाना।।


     सिर झुकाइ चरनन्ह हनुमाना।


     कह सुग्रीवहिं बहु बिधि नाना।।


साम-दाम अरु दंड बिभेदा।


समुझावा प्रभु-सक्ति अभेदा।।


     बिषय-भोग-रत मन अस मोरा।


     बचि नहिं सका ग्यान सुनु थोरा।।


जाहु पवन-सुत देर न करऊ।


चहुँ-दिसि दूत बहुल अब पठऊ।।


      कहहु तिनहिं लौटहिं पखवारा।


      सुभ सनेस लइ बिधिवत सारा।।


नहिं तै मैं तिन्हकर बध करऊँ।


बिनु प्रभु काजु चैन कस धरऊँ।।


      तब हनुमत अपुने बल-बूता।


      पठए चहुँ-दिसि दूत बहूता।।


तेहि अवसर लछिमन तहँ आए।


बोले क्रोधित बान चढ़ाए ।।


     जारब तोर सकल पुरवासी।


     करब अबहिं हम तव कुल नासी।।


देखि लखन धनु-बान चढ़ाए।


बालि-तनय अंगद तहँ आए।।


दोहा-अंगद बहु बिनती करै, लछिमन-पद सिर नाइ।


        होइ द्रवित लछिमन तुरत,देहिं अभय बर धाइ।।


                      डॉ0हरि नाथ मिश्र।


                       9919446372


सुनीता असीम

कार्यशाला से प्राप्त ग़ज़ल:-


 


 


पुरानी कहानी भुलाने न पाए।


वो यादों की चिलमन गिराने न पाए।


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 मेरे दिल के भीतर हैं यादें सुहानी।


कोई मुझसे इनको चुराने पाए।


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निशाना हुआ दिल मुहब्बत में पड़कर। 


उन्हें हाले दिल पर सुनाने पाए। 


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 नजारे हसीं थे वो नजरें हसीं थीं।


मगर प्यार अपना बताने न पाए।


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वो अनपढ़ रहे इश्क के मामले में।


उन्हें पाठ दिल के पढ़ाने न पाए।


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सुनीता असीम


१८/१०/२०२०


डॉ0 निर्मला शर्मा दौसा राजस्थान

राजा रंक सभी फल ढोते


 


मनुज जन्म लेकर जो जन्मे 


पर जीवन का सार न समझे 


आलस , काम ,क्रोध ,माया में 


जीवन किया निष्फल इस जग में 


कभी ईश वन्दन नहीं करते 


पर पीड़ा ही सुख हो जिनका 


मानवता से क्या नाता उनका 


किया अधर्म कुमार्ग पर चलते 


कर्मो का फल ढोते रहते


राजा हो या रंक नियति पर 


होता न्याय समान जगती पर


पूर्व जन्म या फलित जन्म हो 


भुगते कर्म फल जैसा किया हो 


जैसे को तैसा ही मिलता है 


ईश न्याय कभी भेद न करता 


कर्मो के फल ढोने पड़ते 


राजा रंक सभी फल ढोते।


 


डॉ0 निर्मला शर्मा


दौसा राजस्थान


विनय सागर जायसवाल

गीत --


 


मनभावन प्रतिबिम्ब तुम्हारे ,जब सुधि में उतराये हैं ।


पाँव तले कंटक भी हों यदि हम खुलकर मुस्काये हैं ।।


 


क्या दिन थे वे जो कटते थे लुकाछिपी के खेलों में 


बन आती थी अनायास जब मिल जाते थे मेलों में


चूड़ी ,कंगन ,बिंदिया, गजरा देख-देख हर्षाये हैं ।।


मनभावन ---------------


 


बागों में हर दिवस मिलन था भौंरा -तितली जीवन था 


छोटे से घर का आँगन भी लगता कोई मधुवन था 


नाव कागज़ी घेर-घरौंदे हमने बहुत बनाये हैं ।।


मनभावन----------------


 


खेल-खिलौने खेल-खेलकर एक दिवस हम बड़े हुये


अनसुलझे कुछ प्रश्न हमारे मन-मस्तक में खड़े हुये


उन प्रश्नों के सम्मुख हमने अपने शीश झुकाये हैं ।।


मनभावन------------


 


विरहा की आँधी ने जब छीन लिये स्वप्निल गुब्बारे


नीलगगन को ताक रहे थे हम अचरज से मन मारे


विधि के लेखों पर हमने भी सौ-सौ दोष लगाये हैं ।।


मनभावन----------------


 


व्यर्थ हुये वंदन -आराधन व्यर्थ हुये संकल्प-वचन


डूब गये दृग गंगाजल में सब स्वप्नों के राजभवन


*साग़र* सूने मंदिर में भी हमने दीप जलाये हैं ।।


मनभावन ----------------


पाँव तले---------------


 


🖋विनय साग़र जायसवाल बरेली


डॉ राम बली के मिश्रा हरिहर पुर

*माँ दुर्गा नव दुर्गा माता*


 


जय जय जय जय हे सुखदाता।


ज्ञानामृता शिवा पितु माता।।


 


अंक अनंत अपार नवम हो।


नव के लिखत पहाड़ सुगम हो।।


 


कुष्मांडादि रूपसी युवती।


बाला वृद्धा सत्य बलवती।।


 


सकल शस्त्र शास्त्र की ज्ञाता।


वीरांगना विज्ञ शुभदाता।।


 


वरदायी यशदायी यशमय।


भयमोचन संकटहर निर्भय।।


 


महा तेजपुंज अखिलेश्वर।


ब्रह्मवादिनी प्रिय परमेश्वर।।


 


तीन लोक की महा भवानी।


तुझे पूजते सिद्ध सुज्ञानी।।


 


मानव सिद्ध मुनी सब सेवत।


हर कोई विवेक से पूजत।।


 


अति दुर्गम अति सुगम मातु तुम।


परम कृपालु करुण सम पितु तुम।।


 


जो भी जाता शरण तुम्हारी।


कटती उसकी विपदा सारी।।


 


क्लेशमुक्त हो जीवन जीता।


सदा भक्ति रस तेरा पीता ।।


 


शंकामुक्त रहत आजीवन।


सहज प्रफुल्लित रहता तन-मन।।


 


पा पुरुषार्थ रमण करता है ।


बना फकीर भ्रमण करता है।।


 


सम योगी बन घूमा करता।


मानवता को चूमा करता।।


 


ब्रह्मवाद का मंत्र जपत है।


सिंहनाद हुंकार भरत है।।


 


निर्मल मन अरु पावन हॄदयी।


अति सुशांत शालीन मधु दयी ।।


 


माँ दुर्गा वरदानी शुभदा।


दे देती प्रिय सकल संपदा।।


 


जय हो जय हो जय जय माता।


माँ श्री चरणों से बस नाता।।


 


रचनाकार:डॉ. रामबली मिश्र हरिहरपुरी


9838453801


निशा अतुल्य

आज दूसरे नवरात्र पर


माँ ब्रह्मचारिणी की स्तुति


18.10.2020


 


 


ब्रह्मचारिणी 


द्वितीया में आई माँ


माँ पद यात्री ।


 


पुत्री प्यारी है


विष्णु यशा पिता की


देती ज्ञान है ।


 


एक हाथ है 


ध्यान की माला धारे


ध्यान दाता है ।


 


दूजे हाथ है


कमंडल माँ आना


मेरे द्वार है ।


 


ऋग् अथर्व 


साम यजुर् पुत्र हैं 


सिद्ध दात्री माँ ।


 


सौम्य स्वभाव 


रूप लुभावन माँ


वर दे जाता ।


 


कृपा तुम्हारी


सद विचार रहें


आशीष दो माँ ।


 


आरती गाऊँ


धूप दीप जलाऊँ


नमन है माँ ।


 


भोग लगाऊँ


तुम्हें रिझाऊँ माता


वर मैं पाऊँ ।


 


स्वरचित 


निशा"अतुल्य"


प्रिया चारण उदयपुर राजस्थान

विषय :- पैसा


 


"कलयुगी कागज़ पैसा"


 


कलयुगी कागज़ पैसा कोई न इसके जैसा,


कलियुग का है कागज़ ,तिज़ोरी है जिसका घर,


 


वजन हो जेब मे तो ,मन रहे इंसान का पप्रसन्न ,


न हो पैसा पास तो तड़पता है ! इंसान का अंतर-मन।


 


पैसा हो जिसके पास, उसके साथ लगे हर रिश्ता खास,


न हो पैसा जिसके पास ,उससे खून का रिश्ता भी,


लगे बक़वास।


 


पैसा हो तो अनजान भी ,दूर की रिश्तेरदारी ढूंढ़ लाए।


दरिद्र को भला कौन अपना ,मित्र और रिश्तेदार बतलाए।


पैसा बैर कराए , भाई भाई को वैरी बनाए,


कलयुगी कागज़ पैसा कोई न इसके जैसा।


 


पैसा-पैसा तूने कैसा मायाजाल रचाया ,


मानव को दानव बनाया,


 


दिखवे का दान हर कोई कर जाते है।


बिना सेल्फ़ी के 1 फूटी कोड़ी भी न दे पाते है।


मांग कर बरकत लाखों की ,


दान के वक्त हाथ चवन्नी खोजने लग जाते है।


 


कितने भी पैसे कमाओगे ,


फिर भी 2 गज़ कफ़न में लिपटकर जाओगे,


 


पैसा ,बंगाला कार देखकर ,क्यु इतना इतराता है।


खून के रिश्तों को भुलाकर ,


कागज़ के टुकड़ों को गले लगाता है।


 


मिली थी जिन्दगी किसी के काम आने के लिए ,


बीत रही है कागज़ के टुकड़े कमाने के लिए।


 


कलयुगी कागज़ पैसा कोई न इसके जैसा।


 


प्रिया चारण उदयपुर


राजस्थान


8302854423


डॉ. राम कुमार झा "निकुंज"

स्वतंत्र रचनाः


दिनांकः ३१.०३.२०१९


वारः रविवार


शीर्षकः दुर्गा


विषयः नवरात्रि 


 


आश्विन नवरात्रि में नवदुर्गे करुणामयी भवानी।


सुरतेजस्विनी सती विखंडित संतापनाशिनी तू।।


 


आरोग्यकारिणि शीतले शैलजे मधुकैटवघातिनि।


गिरिजा सर्वदा प्रकृतिविलासिनी ब्रह्मचारिणी तू।।


 


स्कन्धमाता जगतापहन्त्रिके माँ असुरनिकन्दनी।


भैरवि कराल महाकाली चामुण्डाविधायिनि तू।।


 


कुष्माण्डा सिद्धिदात्री गौरी माँ महाकालरात्रि।


कात्यायिनी विघ्नेशमाता सतत बुद्धिदात्री तू।।


 


ब्रह्माणी धरित्री सृष्टिकत्री शोणितबीजग्राहिणी।


शोणिता धुम्रघातिनी भवानी महीषमर्दिनि तू।। 


 


विन्ध्याचली तारा शिवा माँ शुम्भनिशुम्भमर्दिनी।  


जगद्धात्री महालक्ष्मी अन्नपूर्णा तापहारिणि तू।।


 


कोपमुद्रे महागौरि तुष्टि श्रद्धा वृत्तिके भगवति।


त्रिपुरसुन्दरी माहिष्मती मनसा मातंगरूपिणी तू।।


 


अपर्णेति जगविदिते संघर्षिणी अम्बे दयानिधि।


वैष्णवी मायेश्वरी भगवती शक्ति स्वरूपिणी तू।।


 


बगलामुखी तरंगिणी कमला यमुना नित निनादनि।


तुष्टि क्षुधा निद्रा प्रदात्री लज्जावती विलासनि तू।।


 


मनोरमा दिव्या भव्या शान्ति भ्रान्ति कान्तिरूपिणी।


जगदम्बे जातिप्रदे देवासुर मनुज हर्षिणी तू।।


 


महादेवी सिद्धिदात्री हे कौशिकी लोकनन्दिनि।


सिंहवाहिनि पद्मावति कलावति वीणावादिनी तू।।


 


हंसवाहिनि वरदायिनि सत्यरूपे अम्ब जगतारिणि।


अष्टादश भुजा शंख चक्रगदा पद्म स्वरूपिणि तू ।।


 


हे जगदम्बिके अवलम्ब सुखदायिनि करुणामयि।


करुणा दया सत्प्रेम दे समरस सुखी माँ शान्ति तू।। 


 


दुराचारी व्यभिचारी भ्रष्ट झूठ कपटी लालची। 


भयभीत जग अन्याय चहुँदिक् तार दे त्रिपुरेश्वरि तू।।


 


जयचंद कुछ हैं राष्ट्र में नापाक पथ बन सारथी।


प्रसरित चतुर्दिक त्रासदी हर मातु भुवि संताप तू।।


~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~


डॉ. राम कुमार झा "निकुंज"


रचनाः मौलिक(स्वरचित)


नई दिल्ली


रवि रश्मि 'अनुभूति 'मुंबई

9920796787****रवि रश्मि 'अनुभूति '


 


    🙏🙏


 


   मत्तगयंद सवैया मुक्तक


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गण संयोजन ----


( 211 × 7 ) 2 2 भानस × 7 चरणांत ग ग 


मापनी ----


211 211 211 211 


           211 211 211 2 2


 


आन बसो अब माँ तुम आँखिन , भावन रूप सुहावत मैया ।


अर्चन पूजन आज करें सब , पार लगा अब नाव खिवैया ।।


कष्ट हरो सब भक्तन के अब , ले अवतार सदा हितकारी ।


आवत हैं सब दर्शन को अब , लो लख जावत भक्तिन मैया ।।


 


भक्ति सुधा रस पीवत जावत , भक्तिन को सुख देत भवानी ।


आज कहें तुमको हम मातुल , स्नेह लुटावत मातु भवानी ।


सार यहाँ इस जीवन का अब , आज कहो हमसे तुम मैया , 


रोज़ करें हम पूजन नेहिल , राज़ बता अब मातु भवानी ।।


 


आँगन देख ज़रा अब चहके , भक्तन की अब भीड़ खड़ी है ।


भाव लिए सब भक्ति सुधा चख , भक्तिन लाइन आज बड़ी है ।।


आज सुधा रस ही बरसा कर , मानवता लख ज्योति जला दो ।


जीवन में सुख देकर वांछित , आज सभी मन को सरसा दो ।।


 


शैल सुता तुम शैल विराजति , माँ झुकने चरणों अब आते ।


आ अब तो नवरात्रि गयी सुन , दर्शन तो सब भक्तन पाते ।।


आ सुख दे खुशियाँ अब दो तुम , दामन आज भरो सुखदायी । 


कष्ट करो अब दूर सदा तुम , दूर करो पल तो दुखदायी ।। 


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(C) रवि रश्मि 'अनुभूति '


17.10.2020 , 11:47पीएम पर रचित ।


मुंबई ( महाराष्ट्र ) ।


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 C.


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डॉ. हरि नाथ मिश्र

*देवी माँ का वंदन*(दोहे)


माता के नौ रूप हैं,नौ ही हैं घट-द्वार।


पाकर माँ-आशीष ही,कटता कष्ट अपार।।


 


विमल हृदय से यदि करें,माता का सम्मान।


निश्चित सुख-वैभव मिले, रहे सुरक्षित मान।।


 


दोनों ही नवरात्रि में,होता प्रकट स्वरूप।


विधिवत व्रत-पूजा करें,दर्शन मिले अनूप।।


 


माता परम कृपालु हैं,अमित प्रेम का कोष।


पाकर आशीर्वाद ही,मिले हृदय को तोष।।


 


धन्य-धन्य माँ हो तुम्हीं, ममता का भंडार।


करो कृपा हे मातु तुम,देकर अपना प्यार।।


 


है पुकारता भक्त तव,आरत वचन उचार।


माता आओ द्वार मम,करो कष्ट-उपचार।।


 


सकल सृष्टि की धारिणी,सकल सृष्टि का स्रोत।


पा प्रकाश तेरा जलें, रवि-शशि ये खद्योत।।


          ©डॉ0हरि नाथ मिश्र


            9919446372


डॉ. हरि नाथ मिश्र

*ग्यारहवाँ अध्याय*(श्रीकृष्णचरितबखान)-2


ठोंकत ताल कबहुँ बलवाना।


लागहिं किसुन लरत पहलवाना।।


     लावहिं कबहुँ दुसेरि-पसेरी।


      बाट-बटखरा हेरी-फेरी ।।


बहु-बहु लीला करहिं कन्हाई।


नाथ रहसि नहिं परे लखाई।।


  पर जे परम भगत प्रभु आहीं।


  लीला देइ अनंदइ ताहीं ।।


नाथ न नाथ नाथ अहँ दासा।


सेवहिं भगतन्ह नाथ उलासा।।


     इक दिन बेचन फल तहँ आई।


     नारी एक पुकार लगाई।।


सुनतै बोल किसुन तहँ आए।


अँजुरी भरि अनाज लइ धाए।।


     पसरा गिर अनाज मग माहीं।


     खाली हाथ नाथ तहँ जाहीं।।


सकल कामना पूरनकर्ता।


जनु पसारि कर लागहिं मँगता।।


    बिनु अन दिए दोउ कर भरिगे।


    नारी प्रभु-कर बहु फल दयिगे।।


महिमा अहहि नाथ बड़ भारी।


टोकरि रत्नन्ह भरे मुरारी ।।


     दिवस एक यमलार्जुन- भंजक।


     किसुन कन्हाई जग कै रच्छक।।


खेलत रहे कलिंदी-तीरा।


सँग बलदाऊ भ्रात अभीरा।।


     तहँ तब पहुँचि रोहिनी माता।


     लगीं बुलावन किसुन न भाता।।


पुनि-पुनि कहैं किसुन-बलदाऊ।


मोरे लाल सुनहु अब आऊ ।।


    केहु नहिं सुनै पुकार रोहिनी।


    आईं जसुमति लखि अस करनी।।


सोरठा-जसुमति करहिं गुहार,सुनहिं नहीं रामहिं-किसुन।


           कइसे सुनैं पुकार,रहे खेल मा बहु मगन।।


                      डॉ0हरि नाथ मिश्र


                       9919446372


संदीप विश्नोई पंजाब

जय माँ शारदे


जय ब्रह्मचारिणी माता 


राधेश्यामी मत्तसवैया छंद


 


माँ ब्रह्मचारिणी रूप धरा , कमण्डल कर में उठाती है , 


दर पर जो शीश झुकाता है , माँ बेड़ा पार लगाती है। 


कर में माला लगती प्यारी , माँ सिद्धि सकल देने वाली , 


पद पंकज की महिमा गाओ , भरती माता झोली खाली। 


 


शुचि मंजुल आनन की शोभा , है अद्भुत स्वर्ण कमल जैसी , 


माता के पाँवों की लाली , लगती किसलय कोंपल जैसी। 


माता संदीप करे पूजन , शुचि तीक्ष्ण मेधा प्रदान करो , 


माँ अष्ट सिद्धि का वर दे कर , माँ खुशियों से भंडार भरो। 


 


संदीप कुमार विश्नोई रुद्र


दुतारांवाली अबोहर पंजाब


डॉ. रामबली मिश्र हरिहरपुरी

*नास्तिकता*


 *(चौपई ग़ज़ल)*


 


बहुत कुतर्की होते नास्तिक।


बनते सबसे बड़ा आस्तिक।।


 


सुंदरता भी गंदी लगती।


दोष दृष्टि में जीते नास्तिक।।


 


अनाचार ही सदाचार बन।


गढ़ता रहता विकृत नास्तिक।।


 


बनते सर्वोपरि ज्ञानी वे।


करते भद्दा नर्तन नास्तिक।।


 


अपनी बातों को मनवाने।


को व्याकुल होते हैं नास्तिक।।


 


शर्म हया को छोड़ हाँकते।


डींग सदा बेसहूर नास्तिक।।


 


नहीं किसी की चिंता करते।


हो निश्चिन्त भूँकते नास्तिक।।


 


सदा कुतर्क गढ़ा करते हैं ।


असहज अन्यमनस्क नास्तिक।।


 


 इन्हें पुण्य में पाप दीखता।


बहुत झूठ में सच्चा नास्तिक।।


 


घोर विरोधी शिव मूल्यों के।


सत सुंदर नकारते नास्तिक।।


 


मन दूषित चेहरा काला है।


बनते सत शिव सुंदर नास्तिक।।


 


इनमें संवेदन का संकट।


बनत संवेदनशील नास्तिक।।


 


दुःखमय इनका सारा जीवन।


कैसे जीते हैं ये नास्तिक।।


 


जननी में भी कमी ढूढ़ते।


घोर पतित चंडाल नास्तिक।।


 


मार चुके ये परमेश्वर को।


स्वयं दरिंदा नीच नास्तिक।।


 


रचनाकार:डॉ. रामबली मिश्र हरिहरपुरी


9838453801


डॉ. हरि नाथ मिश्र

*अष्टावक्र गीता*-16


धन्य पुरुष लख जगत की,सारी इच्छा व्यर्थ।


 जीवन-इच्छा-भोग को,माने सदा अनर्थ।।


 


हैं दूषित त्रय ताप ये,निंदा-योग्य,असार।


इसी सत्य को जानकर,होते शांत विचार।।


 


कौन उम्र वा काल में,रहे न संशय-जाल।


अस्तु,काट भ्रम-जाल को,सिद्धि-लब्ध हो लाल।।


 


योगी-साधु-महर्षि सब,लखकर मत संभ्रांत।


जग में है वह कौन नर,जो न विरत-मन-शांत।।


 


ज्ञानवान-चैतन्य गुरु,होता परम महान।


जन्म-मृत्यु से मुक्ति का,देता ऊँचा ज्ञान।।


           ©डॉ0हरि नाथ मिश्र


             9919446372


एस के कपूर "श्री हंस"

*विधा।।पद्य (अतुकांतिका)*


*रचना शीर्षक।। हे चीन तेरा हर वार* *होगा बेकार है।।*


 


मेरे पास वार है।


फिर पलटवार है।।


अब करता न कोई एतबार है।।


कॅरोना वायरस है।बम ही बम है।


मन में तो बस जंग ही जंग है।।


मैं तो खोखली ताकत के नशे में चूर हूँ।


फैला कर वायरस खुद शांति से भरपूर हूँ।।


 


इरादे वैसे तो केवल नापाक रखता हूँ।


करने की ताकत ,सबको खाक रखता हूँ।।


मुझे अपनी प्रगति पर, झूठा अभिमान है।


आधे से ज्यादा बन रहा, नकली सामान है।।


 


मैंने दुनिया भर के लिए झांसे में,फंसा रखा है।


झूठ सच का जाल , लंबा बिछा रखा है।।


कमजोर मछलियां मेरे जाल में,फंस जाती हैं।


अपनी ताकत मेरे ,हवाले कर जाती हैं।।


 


इस अति घमंड में हर किसी से ,पंगा ले रहा हूँ।


बिन विवाद के भी दबंगई में, दंगा दे रहा हूँ।।


मेरे गलत भेजे में भरा बस, धोखा फरेब का ख्वाब है।


समझता खुद को मैं, दुनिया का यूँ ही नवाब हूँ।।


 


लेकिन असल में अंदर से ,पूरा ही खोखला हूँ।


दुनिया भर में करता दोस्ती, का ढकोसला हूँ।।


आधी से ज्यादा दुनिया, मेरी जानी दुश्मन है।


मेरी हर हरकत पाप में ,लिप्त और गुम है।।


 


मैं भारत को प्रबल, विरोधी मानता हूँ।


लेकिन भारत की ,मातृभूमि भक्ति और शक्ति को जानता हूँ।।


रोज़ सुबह नया पंगा लेने की, कोशिश करता हूँ।


लेकिन अंदर ही अंदर ,बहुत डरता भी हूँ।।


 


दुनिया क्या कहेगी कि, इसका भी भय


सताता है।


इसलिए दुनिया भर से ,झूठी हमदर्दी दिखाता हूँ।।


कॅरोना के हथियार से ,दुनिया से लड़ रहा हूँ।


लेकिन पूरी दुनिया की थू थू से ,खूब डर रहा हूँ।।


 


भारत महान है।भारत स्वाभिमानी है।


चीन को उसके किये की ,सजा तो दिलवानी है।।


चीन को मुंहतोड़ जवाब को, देश तैयार है।


*सुन ले चीन तेरा ,हर वार होगा बेकार है।।*


 


*रचयिता।।एस के कपूर "श्री हंस'*'


*बरेली।।*


मोब 9897071046


                8218685464


विनय सागर जायसवाल

ग़ज़ल----


 


तू करता जो हर रोज़ यह दिल्लगी है 


इसी से सनम यह हसीं ज़िन्दगी है


हुस्ने मतला---


 


ज़माने में यूँ खलबली सी मची है


हमारी तुम्हारी जो अब तक बनी है


 


इनायत करम है नवाज़िश तुम्हारी


किसी बात की फिर हमें क्या कमी है


 


रहा तीरगी का न नाम-ओ-निशां अब


मुहब्बत से हर सू हुई रौशनी है


 


तज्रिबे से जानी है यह बात हमने 


मुहब्बतों के महलों में ही बंदगी है


 


जो कर देती थी मस्त सारे बदन को


वही आज ख़ुशबू चली आ रही है


 


उसी के सहारे मज़े में कटेगी 


जो दौलत ये यादों की हम पर बची है 


 


भलाई का दामन न छोड़ेगा *साग़र* 


अभी आदमी में बचा आदमी है


 


🖋️विनय साग़र जायसवाल


राजेंद्र रायपुरी

🙏🏻🙏🏻 जय- माता दी 🙏🏻🙏🏻


 


       🌹 *एक गीत* 🌹


 


माता रानी आईं देखो, कर के सिंह सवारी। (२) 


चार भुजाएं बलशाली हैं ॲ॑खियाॅ॑ प्यारी प्यारी।(२) 


कानों में हैं देखो कुंडल(२)


और गले में हार। 


आई माता रानी द्वार,


आओ कर लें जय-जयकार,


हो....ओ,ओ। हो...ओ,ओ ।


 


पहने लाल चुनरिया आईं, देखो माता रानी(२)


ऑ॑खें हैं कजरारी उनकी,होठों पर है पानी। (२)


दो हाथों में भाला- बर्छी(२)


एक हाथ तलवार।


आईं माता रानी द्वार,


आओ कर लें जय-जयकार,


हो....ओ,ओ। हो....ओ,ओ।


 


आओ-आओ मैया जी की, कर लें हम अगवानी।(२)


पूजा थाली लेकर आओ,और कलश में पानी।(२)


श्रीफल भी ले आना भैया, (२)


और साथ में हार।


आईं माता रानी द्वार,


आओ कर लें जय-जयकार,


हो....ओ,ओ। हो...ओ,ओ।


 


करो आरती मिलकर सारे, माता के गुन गाओ।(२)


झाल -मजीरे, ढोल-धमाके, भैया तनिक बजाओ। (२)


पूजा करके माता जी की,(२)


करो सभी जयकार।


आईं माता रानी द्वार,


आओ कर लें जय-जयकार,


हो...ओ,ओ। हो...ओ,ओ।


 


        ।। राजेंद्र रायपुरी।।


कालिका प्रसाद सेमवाल

हे माँ ब्रह्मचारिणी कृपा करो


*********************


हे माँ ब्रह्मचारिणी कृपा करो


तुम ही सबकी रक्षक हो माँ।


 


माता तेरे चरणों में


करता हूँ बार -बार वंदन।


 


अष्ट भुजा धारी भी तुम हो


भक्तों का तुम दुख हरती हो।


 


तुम ही दुर्गा तू ही काली


सब की रक्षक तुम ही हो माँ।


 


मैं तुमको माँ चुनर चढाऊँ


और जलाऊँ दीपक माँ।


 


करुं आराधना माँ मै तेरी


और लगाऊँ भोग तुम्हें।


 


ममतामयी माँ तुम हो


काम ,कोध्र और दुख हरती हो।


 


सरल सुहावना रुप तुम्हारा


भक्तों का तुम संकट हरती हो।


 


हम सब के तुम कष्ट हरण कर


बुराइयों का तुम दमन करो।


 


प्रेम वात्सल्य रुप माँ तुम्हारा


जीवन को रोशन कर देता है।


 


खुशियों से सब की झोली भर दो


सब को सुख सम्पति दे दो।


 


 श्रद्धा विश्वास से माँ की आरती करे


हाथ में पूजा की थाल धरे।


 


माँ ब्रह्मचारिणी कृपा करो


हम सब पर तुम दया करो।।


*********************


कालिका प्रसाद सेमवाल


मानस सदन अपर बाजार


रुद्रप्रयाग उत्तराखंड


डॉ. हरि नाथ मिश्र

*चतुर्थ चरण*(श्रीरामचरितबखान)-12


लखु लछिमन ऋतु जाड़ा आई।


नाम सरद सभ जन सुखदाई।।


    कास-स्वेत पुष्प मन मोहै।


     बृद्ध होय जनु बरखा सोहै।।


घटहि नीर अब नदी-तलावा।


जनु मिलि ग्यान लोभ नहिं भावा।।


    निर्मल- स्वच्छ नीर सर-सरिता।


    जस हिय सुजन मोह-मद रहिता।।


पाइ सरद ऋतु खंजन दिखहीं।


जस सद्कर्म-सुअवसर भवहीं।।


     जस धन घटत बिकल अग्यानी।


     मछरी बिकल घटै जब पानी।।


कीचड़-धूरि हीन पथ ऋतु कै।


जस सोहै सुनीति कोउ नृप कै।।


     घन बिहीन निर्मल नभ सोहै।


     जस अनिच्छ मन भगतिहि मोहै।।


सरद-मेघ जब कहुँ-कहुँ बरसैं।


लग प्रसाद हरि बिरलहिं परसैं।।


     सिंधु-सरन जस मीन सुखारी।


     पाइ भगति प्रभु नहीं भिखारी।।


कमल बिनू सर लगै अनाथा।


जनु धनपति प्रभु टेक न माथा।।


     उड़त पखेरू-कलरव भावै।


      चंपक-गुंजन मन ललचावै।।


पपिहा पिव-पिव रटन लगावै।


जस सिव-द्रोही सुख नहिं पावै।।


     आतप सरद-चंद्र जनु हरही।


      जनु असंत प्रभु-दरस न पवही।।


ताकहि अपलक चंद्र चकोरा।


हरि-भगतन्ह नहिं दरस निठोरा।।


     पाइ सरद भे मच्छर-नासा।


     अवसि नास बिनु हरि-बिस्वासा।।


पाइ सरद ऋतु कै सितलाई।


भवहिं बिनास कीट-समुदाई।।


दोहा-भूमि होय मच्छर रहित,पाइ सरद ऋतु साथ।


          जस भागहिं संसय-भ्रमहिं,धरत सीष गुरु-हाथ।।


                          डॉ0हरि नाथ मिश्र


                           9919446372


नूतन लाल साहू

धन की माया


 


आत्म ज्ञान बिना,नर भटके


क्या मथुरा, क्या काशी


अरे मन तू,किस पै भूला है


धन की माया है,न्यारी


तेरे मां बाप और भाई बंधु


सभी स्वार्थ के है,साथी


तेरे संग,क्या जायेगा बंदे


धन की माया है,न्यारी


ये जगत,धोखे की दुनिया है


न तेरा है,न मेरा है


यह बिस्तर,ख़ाक में होंगे


धन की माया है,न्यारी


बिन हरि कृपा,कुछ नहीं पावे


लाख उपाय करें,कोई


गुरु बिन मुक्ति न होता है,जग से


धन की माया है,न्यारी


परोपकार में द्रव्य,खर्च हो


ऐसी कमाई,तू कर ले


मत हो डांवाडोल,तू जग में


धन की माया है,न्यारी


छोड़कर,सारे वतन को


तू अकेला,जायेगा


कौड़ी कौड़ी,माया जोड़ी


धन की माया है, न्यारी


जब निकलेंगे, प्राण तेरे


यहां का यहां,रह जायेगा


इस काया का, गुमान न कर


धन की माया है, न्यारी


जीते जी का, है उजियारा


आगे रैन, अंधेरी है


कहत कबीर,सुनो भाई साधो


धन की माया है, न्यारी


नूतन लाल साहू


डॉ. रामबली मिश्र हरिहरपुरी

*करते सभी हैं वादे*


 


करते सभी हैं वादे,


      निभाते नहीं हैं लेकिन।


खाते बहुत सी कसमें,


       उररते नहीं हैं लेकिन।


वादे निभाना मुश्किल,


       कहना बहुत सरल है।


कसमों का क्या ठिकाना,


       रुचिकर नहीं गरल है।


करना नहीं भरोसा,


       संसार का नियम यह।


वादे बहुत हैं होते,


       पूरे कभी न होते।


वादे-कसम के चक्कर,


       को छोड़कर बढ़ो अब।


विश्वास कर स्वयं पर,


       चलते रहो स्वयं अब।


आशा किया जो रोया,


       पाया नहीं किसी से।


आशा किया जो खुद से,


       रोया नहीं किसी से।


रोता वहीं है जिसको,


       विश्वास है न खुद पर।


हँसता वही है जिसमें,


       विश्वास है स्वयं पर।


विश्वास को जगाये,


       चलता बना पथिक जो।


झुकती है सारी दुनिया ,


       उस राहगीर पर।।


रचनाकार:डॉ. रामबली मिश्र हरिहरपुरी


9838453801


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