डॉ.राम कुमार झा निकुंज

 हो विजया मानव जगत


 


सकल मनोरथ पूर्ण हो , सिद्धदातृ मन पूज।


सुख वैभव मुस्कान मुख , खुशियाँ न हो दूज।।१।।


 


सिद्धिदातृ जगदम्बिके , माँ हैं करुणागार।


मिटे समागत आपदा , जीवन हो उद्धार।।२।।


 


सिंह वाहिनी खड्गिनी , महिमा अपरम्पार। 


माँ दुर्गा नवरूप में , शक्ति प्रीति अवतार।।३।।


 


खल मद दानव घातिनी , करे भक्त कल्याण।


कर धर्म शान्ति स्थापना , सब पापों से त्राण।।४।।


 


श्रद्धा मन पूजन करे , माँ गौरी अविराम।


रिद्धि सिद्धि अभिलाष जो , पूरा हो सत्काम।।५।।


 


विजय मिले सद्मार्ग में , करे मनसि माँ भक्ति।


लक्ष्मी वाणी साथ में , माँ दुर्गा दे शक्ति।।६।।


 


जन सेवा परमार्थ मन , भक्ति प्रेम हो देश।


सिद्धिदातृ अरुणिम कृपा , प्रीति अमन संदेश।।७।।


 


हो विजया मानव जगत,समरस नैतिक मूल्य।


मानवीय संवेदना , जीवन कीर्ति अतुल्य।।८।।


 


कलुषित मन रावण जले , हो नारी सम्मान।


धर्म त्याग आचार जग , वसुधा बन्धु समान।।९।।


 


बरसे लक्ष्मी की कृपा , सरस्वती वरदान।


माँ काली नवशक्ति दे , देशभक्ति सम्मान।।१०।।


 


पुष्पित हो फिर से निकुंज , प्रकृति मातु आनन्द।


चहुँदिशि हो युवजन प्रगति,सुरभित मन मकरन्द।।११।।


 


विजयादशमी सिद्धि दे , मिटे त्रिविध संताप।


हर दुर्गा कात्यायनी , कोरोना अभिशाप।।१२।।


 


डॉ.राम कुमार झा निकुंज


नई दिल्ली


डॉ0 हरि नाथ मिश्र

यह ब्रह्मा की सृष्टि निराली,


कितनी प्यारी-प्यारी है।


विविध पुष्प सम विविध जीव से-


सजी अवनि की क्यारी है।।


 


कुछ जल में,कुछ थल में,नभ में,


सबका रूप निराला है।


कोई काला,कोई गोरा,


कोई भूरे वाला है।


बोली-भाषा में है अंतर-


यही सृष्टि बलिहारी है।।


       सजी अवनि की क्यारी है।।


 


उत्तर-दक्षिण,पूरब-पश्चिम,


दिशा प्रत्येक सुगंधित है।


अद्भुत संस्कृति-कला-सृष्टि यह,


जीवन-स्वर-संबंधित है।


ब्रह्मा की यह अनुपम रचना-


उपयोगी-हितकारी है।।


      सजी अवनि की क्यारी है।


 


पर्वत-नदी और वन-उपवन,


बहते झरने झर-झर जो।


पंछी के कलरव अति सुखमय,


बहे पवन भी सर-सर जो।


प्रकृति सृष्टि की शोभा बनकर-


पुनि बनती उपकारी है।।


       सजी अवनि की क्यारी है।।


 


बहती रहे सृष्टि की धारा,


यह प्रयास नित करना है।


इससे हम हैं,हमसे यह है,


यही भाव बस रखना है।


हर प्राणी की रक्षा करना-


यही ध्येय सुखकारी है।।


     सजी अवनि की क्यारी है।


 


ऊपर गगन,समंदर नीचे,


दोनों रँग में एका है।


ममता-समता-प्रेम-परस्पर,


एक सूत्र का ठेका है।


प्रकृति-पुरुष-संयोग-सृष्टि यह-


ब्रह्मा की फुलवारी है।


      सजी अवनि की क्यारी है,


      कितनी प्यारी-प्यारी है।।


            ©डॉ0 हरि नाथ मिश्र


                9919446372


अर्चना द्विवेदी

नमो हे!मातु जग जननी,करो उपकार हे!देवी,


भुजाओं में प्रबल बल हो,मिले उपहार हे!देवी।


कभी भी सच नहीं हारे, छलावे,झूट के आगे,


न अंतस में कलुषता हो,रहे बस प्यार हे!देवी।।


 


                    अर्चना द्विवेदी


डॉ. रामबली मिश्र

जानेवाले


 


जानेवाले को जाने दो ,


     नहीं कहो उसको रुकने को।


रोकोगे तो वह ऐंठेगा,


     जाने दोगे तो बैठेगा।


लोगों की है रीति निराली,


      सीधा कर तो उलटा होगा ।


केवल अपना काम करो बस,


     छोड़ दूसरों के चक्कर को।


करने दो जो जैसा करता,


     ठीक करो अपने चक्कर को।


अपने में कौशल आने दो,


     अपनी कमी दूर जाने दो।


अपने को ही नियमित करना,


      पर-निंदा से बच कर रहना।


 


डॉ. रामबली मिश्र हरिहरपुरी


9838453801


मदन मोहन शर्मा सजल

आश्विन विजयादशमी, अहंकार का नाश। 


जीत हुई थी सत्य की, असत्य बांधा पाश।।01।।


 


अभिमानी रावण मरा, अंत हुए दुष्कर्म। 


विजय दिवस मनता रहा, सुधि जन जाने मर्म।।02।। 


 


लंकापति रावण हुआ। मद में था वह चूर। 


सीता माता हरण कर, इतराया भरपूर।।03।।


 


राम बाण संधान कर, रावण मार गिराय। 


काल बनी दशमी तिथि, विजयादिवस मनाय।।04।।


 


शंकर की सेवा करी, लंकापति लंकेश। 


राम हाथ मारा गया, कपटी असुर विशेष।।05।। 


 


दुष्ट किया सीता हरण, किया कलंकित वंश।


अभिमानी मारा गया, राम किया विध्वंस।।06।।


 


विजयादशमी पर्व है, सत्य पाप पहचान। 


रीत सदा से आ रही, मानव मन में मान।।07।।


 


धूं-धूं कर रावण जले, अहिरावण बलवान।


मेघनाथ का साथ हो, विजयादशमी मान।।08।। 


 


अहंकार जड़ मूल है, करता बुद्धि विनाश।


विजयादशमी सीख है, सत्य सर्वत्र प्रकाश।।09।। 


 


विजयादशमी पर करो, मन संकल्प उचार।


धर्म राह हम सब चलें, त्यागें बुरे विचार।।10।।


★★★★★★★★★★★★


मदन मोहन शर्मा सजल


कोटा 【राजस्थान】


विनय साग़र जायसवाल

मैं इस बात को भूल पाता नहीं


तू वादा कभी भी निभाता नहीं


 


मुहब्बत का इज़हार मैं कर सकूँ


वो नज़दीक इतना भी आता नहीं


 


निगाहों पे तेरा है ऐसा असर 


मुझे और कुछ अब लुभाता नहीं


 


नहीं रूठता वो यही सोचकर


मैं रूठे हुए को मनाता नहीं


 


किसी ग़म से लगता वो दो चार है 


मुझे देखकर मुस्कुराता नहीं


 


ख़फ़ा मुझसे है हाक़िम-ए-वक़्त यूँ


मैं सर उसके आगे झुकाता नहीं


 


गये तन्हा मुझको सभी छोड़कर


मगर तेरा ग़म है कि जाता नहीं


 


ये साग़र मेरी खासियत है कि मैं


धुऐं में सभी कुछ उड़ाता नहीं


 


विनय साग़र जायसवाल


एस के कपूर श्री हंस

आज के नौनिहाल, कल के


कर्ण धार हैं।।


 


गुम सा आज बचपन और


गायब रुनझुन है।


आंगन का खेला और


गायब चुन मून है।।


बच्चे बन गये मानो चाबी


का कोई खिलौना।


बारिश का पानी और गायब


कश्ती की सुन सुन है।।


 


आ गया ऑटोमैटिक का


नया दौर है।


मोबाइल पे उंगलियाँ और


नहीं भाग दौड़ है।।


ऑन लाइन संस्कार और


संस्कृति आते नहीं।


उम्र से पहले बड़े हो रहे


नहीं कोई गौर है।।


 


किधर जा रही परवरिश


जरूरत है देखने की।


कुछ गलत कर सीख रहे


जरूरत है रोकने की।।


गीली मिट्टी उनकीऔर राहें 


हैं फिसलती हुई।


थामना बहुतआवश्यक और


जरूरत है सोचने की।।


 


पहले दिनऔर पहले सबक


से संस्कार जरूरी है।


बचपन में मासूमियत से न


बन जाये दूरी है।।


वक़्त निकल गया तो फिर


हाथ नहीं आयेगा।


बच्चों को समय न दे पायो


ये कैसी मजबूरी है।।


                  


कल पर मत टालो आज का


ही समय सिखाने का।


अच्छा बुरा सही गलत का


भेद उन्हें बताने का।।


आज के नौनिहाल देश के


कर्ण धार हैं बच्चे।


हम सब पर ही भार है देश का


भविष्य बनाने का।।


एस के कपूर श्री हंस


*बरेली।


एस के कपूर श्री हंस

समाज का सुधार भी करें


और खुद को भी सुधारें।


औरों की ही गलती ही नहीं


अंतःकरण को भी निहारें।।


विजय दशमी का यह पर्व


है बुराई पर जीत का।


बस पुतला दहन ही काफी


नहीं भीतर का रावण मारें।।


*2................*


हमारे भीतर छिपा दशानन


उसको भी हमें हराना है।


काट काट कर दसशीश हमें


नामो निशान मिटाना है।।


यही होगा विजयदशमी पर्व


का सच्चा हर्ष उल्ल्हास।


अपने भीतर के रावण पर   


ही हमें विजय को पाना है।।


एस के कपूर श्री हंस।।।।।बरेली।


राजेंद्र रायपुरी

प्रस्तुत है दोहा छंद पर एक मुक्तक--


 


आ ही गया चुनाव फिर, बढ़े आप के मोल। 


भैया हम को वोट दें, रहे  सभी  हैं  बोल। 


लेकिन कहना मानिए, होते खत्म चुनाव,


पाॅ॑व पकड़ते जो अभी, हो जाएंगे गोल।


 


            ।। राजेंद्र रायपुरी।।


नूतन लाल साहू

प्यार का तोहफा


 


बीते बाते सोचकर


मत बन कब्रिस्तान


बीते और भविष्य पर


नहीं दीजिये ध्यान


माता पिता गुरु और


प्रभु के चरणों से कर लो प्यार


प्यार का तोहफा अवश्य मिलेगा


साथ तुम्हारे सदा रहेगा


आशीर्वाद सुबहो शाम


झेल लिया जिस शख्स ने


सांसारिक पीड़ा का संघर्ष


एक दिन उसके सामने


नमन करेगा हर्ष


अनुशासित जीवन से कर लो प्यार


प्यार का तोहफा अवश्य मिलेगा


पता नहीं कब तक चले


मेरी और तेरी श्वास


धोखा दे दे किस समय


इसका क्या विश्वास


नहीं लगाओ किसी से


किसी तरह की आस


आत्मविश्वास और सत्कर्मों से कर लो प्यार


प्यार का तोहफा अवश्य मिलेगा


कलयुग में पैसा ही है खुदा


समय हमे समझाय


बिन पैसे विद्वान को भी


मिले न इक कप चाय


पर,कर्म भाग्य के सत्य से


खींचो बड़ी लकीर


गुरु मंत्र से कर लो प्यार


प्यार का तोहफा अवश्य मिलेगा


नूतन लाल साहू


दयानन्द त्रिपाठी दया

सम्पूर्ण जगत है तुझमें बसता 


मां तूं ही सबकी पालन हार है


तेरे हवन, दीप, नैवेद्य से


मां तरता सकल संसार है।


 


श्वेत तुम्हारी आभा माते


भाती सबको लगती पावन है


श्रीफल से लगता भोग तुम्हारा


हर कष्ट जगत का बृषभ वाहन है।


 


मां सबकी पूर्ण करे मनोरथ सारे


ध्यान धरे जो तेरा ऐसा प्रताप है


सुख-संतान, धन-वैभव से भर देती


महिमा अवर्णनीय हर लेती संताप है।



दयानन्द त्रिपाठी दया


महराजगंज, जनपदवार


डॉ0 हरि नाथ मिश्र

चतुर्थ चरण (श्रीरामचरितबखान)-18


 


देखु सभें मैं भवा सपंखा।


राम-कृपा मोंहि मिली असंखा।।


     पातक सुमिरि नाम प्रभु रामहिं।


     भव-सागर असीम तिर जावहिं।।


तुम्ह सभ प्रभु कै भगत अनूपा।


हिय महँ राखि राम कै रूपा।।


     सुमिरत खोजहु कछू उपाया।


     अवसि सुझा दइहैं रघुराया।।


अस गीधहि कह उड़ा पराई।


कहत बचन अस आस जगाई।।


      जामवंत कह होइ उदासा।


      मैं अब बृद्ध, तरुन-बल-नासा।।


एक बेरि मैं निज तरुनाई।


सुनहु तात निज ध्यान लगाई।।


     दूइ पहर महँ सात पकरमा।


     किए रहे हम राम सुकरमा।।


निज काया बढ़ाइ बामन कै।


बाँधि रहे जब बलि दुसमन कै।।


    अंगद कहा पार मैं जाऊँ।


     पर, संसय की लौटि न पाऊँ।।


जामवंत तब कह समुझाई।


तुम्ह सेनापति तुम्ह कस जाई।।


    सुनहु पवन-सुत तजि संतापा।


     जानउ भुज-बल अपुन प्रतापा।।


तुम्ह सागर बल-बुद्धि-बिबेका।


समरथ करनि करम बहु नेका।।


    मारुति-सुत तुम्ह मारुति नाईं।


    धाइ सकत तुम्ह यहि तरुनाईं।।


तोर जनम प्रभु-कारजु ताईं।


भयउ जगत,तुम्ह ई तन पाईं।।


    अस सुनि हनुमत गिरि आकारा।


    तुरत भए अति बृह्दाकारा ।।


कंचन बदन सुमेरु समाना।


तेजवान-महान हनुमाना।।


    कहे तुरत मैं नाघहुँ सागर।


    करउँ राम-रिपु-नीति उजागर।।


तुरत त्रिकुटि उखारि मैं लाऊँ।


रावन-कुल बिनास करि आऊँ।।


    सिंहनाद करि कह हनुमाना।


    करब काजु तुरतै भगवाना।।


जामवंत अब मोहिं सिखावउ।


कस हम करीं काजु बतलावउ।


     लंक जाइ खोजि सिय माता।


    आवहुँ तुरत लेइ सुधि ताता।।


सेष काजु प्रभु करिहैं खुदहीं।


लीला करिहैं मरकट सँगहीं।।


दोहा-राम बैद्य जग-रोग कै,जे मन अस बिस्वास।


        राम देहिं औषधि तिनहिं,करैं रोग सभ नास।।


        राम करैं मन अति बिमल,धो के दुरगुन-मैल।


        हरन करैं भव-पीर सभ,जौं इहँ दुक्ख भैल।।


प्रभु कै नाम सुमिरि हनुमंता।


कारजु करन सकल भगवंता।।


     आगे बढ़े सीय के खोजन।


     नाँघे सिंधु उग्र सत जोजन।।


            डॉ0 हरि नाथ मिश्र


             9919446372


डॉ0 हरि नाथ मिश्र

बारहवाँ अध्याय (श्रीकृष्णचरितबखान)-1


 


सुनहु परिच्छित कह सुकदेवा।


बन महँ लेवन हेतु कलेवा।।


    नटवर लाल नंद के छोरा।


   लइ सभ गोपहिं होतै भोरा।।


सिंगि बजावत बछरू झुंडहिं।


तजि ब्रज बनहीं चले तुरंतहिं।।


    सिंगी-बँसुरी-बेंतइ लइता।


    बछरू सहस छींक के सहिता।।


गोप-झुंड मग चलहिं उलासा।


उछरत-कूदत हियहिं हुलासा।।


     कोमल पुष्प-गुच्छ सजि-सवँरे।


     कनक-अभूषन पहिरे-पहिरे।।


मोर-पंख अरु गेरुहिं सजि-धजि।


घुँघची-मनी पहिनि सभ छजि-छजि।।


     चलें मनहिं-मन सभ इतराई।


     सँग बलदाऊ किसुन-कन्हाई।।


छींका-बेंत-बाँसुरी लइ के।


इक-दूजे कै फेंकि-लूटि कै।।


     छुपत-लुकत अरु भागत-धावत।


     इक-दूजे कहँ छूवत-गावत ।।


चलै बजाइ केहू तहँ बंसुरी।


कोइल-भ्रमर करत स्वर-लहरी।।


     लखि नभ उड़त खगइ परिछाईं।


      वइसे मगहिं कछुक जन धाईं।।


करहिं नकल कछु हंसहिं-चाली।


चलहिं कछुक मन मुदित निहाली।


     बगुल निकट बैठी कोउ-कोऊ।


     आँखिनि मूनि नकल करि सोऊ।।


लखत मयूरहिं बन महँ नाचत।


नाचै कोऊ तहँ जा गावत ।।


दोहा-करहिं कपी जस तरुन्ह चढ़ि, करैं वइसहीं गोप।


       मुहँ बनाइ उछरहिं-कुदहिं, प्रमुदित मन बिनु कोप।।


                           डॉ0 हरि नाथ मिश्र


                            9919446372


सुनीता असीम

नशा शराब का सा है ख़ुमार भेजा है।


खिला खिला सा हुआ दिल करार भेजा है।


*******


जिसे गुरू था बताया हमें जमाने ने।


मगर असल में यहां इक लबार भेजा है।


*******


किसी भी रूप में नफ़रत हमें नहीं भातीं।


इसीलिए उन्हें फूलों का हार भेजा है।


*******


वो छा गया है मेरे अब हवास पर ऐसे।


कि रोक मन पे लगाने सवार भेजा है।


****†**


ये चाहती है सुनीता कि ज़िंदगी जी लूँ।


इसीलिए ख़ुदा ने इक विचार भेजा है।


********


सुनीता असीम


डॉ.राम कुमार झा निकुंज

करो नाश खल ख़ुशियाँ भर दे


 


महागौरी दुर्गतिनाशिनी


नवदुर्गे जय कालविनाशिनि।


सकल पाप जग हर अवलम्बे,


हर मानस कल्मष जगदम्बे।


 


अष्ट सिद्धि नौ निधि के दात्री,


सती रुद्राणी शिवा भवानी।


महातिमिर हर मातु शारदे,


भवसागर से हमें तार दे।  


 


देवासुर मानव नित पूज्या,


हिमकन्या जगजननी रम्या।


रोग शोक जग मोह मिटा दे,


भक्ति प्रेम स्वराष्ट्र जगा दे।


 


जगतारिणि अम्बे माँ गौरी,


ममता समता माँ कल्याणी।


कोरोना जग व्याधि मिटा दे,


विधिलेख चारु सृष्टि बचा दे। 


 


करुणामयि माता मातंगी,


महाकाल काली कपालिनी।


दीन धनी जग भेद मिटा दे,


जाति धर्म समरसता ला दे। 


 


हरिप्रिये पद्मासन लक्ष्मी,


आदिशक्ति नवधा भुवनेशी।


भूख प्यास हरो अन्नपूर्णे,


शोक नैन आतप सम्पूर्णे। 


 


महाशक्ति विप्लव भयाविनी,


दुष्कर्मी खल बन डरावनी।


लज्जे श्रद्धे चिन्ते मुग्धे,


नारी सबला निर्भय कर दे।


 


भुवनेश्वरि चामुण्डघातिनी,


धूम्र अरि रक्तबीज घातिनी।


भ्रमित देश द्रोही बहुतेरे,


करो नाश खल खुशियाँ भर दे।


 


भव्या प्रौढा विश्व मोहिनी,


कमला गंगा मातु रोहिणी।


हिंसा रत छल कपटी हर ले,


मुस्कान अधर जीवनरस भर दे।


 


मातु वैष्णवी जय ब्रह्माणी,


इन्द्राणी जय तारा रानी। 


परार्थ मन्त्र जन रव स्वतंत्र दे,


धीर वीर गंभीर तन्त्र दे।


 


जयन्ती मंगला कल्याणी,


त्रिपुरसुन्दरी राधा रानी।


खिली प्रकृति यश चारु सुरभि दे,


शस्यश्यामला वसुधा कर दे।


 


नवदुर्गे त्रिनेत्र त्रिलोकी,


सर्जन पालन हन्त्री जग की।


रख लाज तिरंगा मान वतन दे,


नव जोश होश बल सेना दे। 


 


स्वधा स्वाहा रिद्धि नारायणी,


क्षमा शिवा धात्री कात्यायनि।


शान्ति सुखद समभाव प्रगति दे,


विज्ञान शोध सुबुद्धि स्वस्ति दे।


 


देवी अष्टमी महा गौरी,


रिद्धि सिद्धि दात्री भयहारी।


जय विजया अनमोल कीर्ति दे,


चन्द्र प्रभा मृदुता मन भर दे।।


 


कवि✍️ डॉ.राम कुमार झा निकुंज


नई दिल्ली


डॉ0 हरि नाथ मिश्र

सुहानी शाम के साये


 


तुम्हारी याद जब आई तो बरबस याद हैं आए,


नज़ारे ज़िंदगी के संग सुहानी शाम के साये।।


 


वो सारे कुदरती मंज़र नदी-दरिया किनारों के-


दरख़्तों के नरम सायों तले,जो वक़्त बिताए।


नहीं भूले भी वह भूले मधुर कलरव परिंदों का-


जिसे सुनते ही तुम शरमा मेरी आगोश में आए।।


 


तेरी बाँकी अदाओं के मधुर अहसास जितने हैं,


तेरे संकेत नैनों के जो,मेरी यादों में पलते हैं।


तेरी गज-चाल जो,वो मधुर मुस्कान होठों की-


सनम कैसे बता दें वो अदा तो आज भी भाए।।


 


मिलन की उस घड़ी का, हसीं अहसास मधुरिम था,


ज़मीं भूली,गगन भूला,मग़र जज़्बात मधुरिम था।


ख़ुदा से आरजू सुन लो सनम बस है यही इतनी-


के नज़ारे वो सभी लेकर सुहानी शाम वो आए।।


      


      हर एक पल तुम्हारे साथ जो उस शाम बीते थे,


       हसीं लम्हे,हसीं घड़ियाँ ,जो वादे भी किए थे।।


       वो आज भी मेरे हृदय में घर बसाए हैं-


       मुझे रहते जिलाते हैं सुहानी शाम के साये।।


 


मुझे उम्मीद है तुम फिर मिलोगे ऐ सनम मेरे,


उसी अंदाज,उसी आवाज़ में तू रू-ब-रू होके।


वही दरिया,वही साहिल, वही साये दरख्तों के-


सभी की याद फिर तेरे मिलन की आस जगाए।।


             सुहानी शाम के साये।।


                       ©डॉ0हरि नाथ मिश्र


 


          अष्टावक्र गीता-17


 


निष्कलंक-अक्रिय-असंग,स्वयं-प्रकाशित आप।


शांति हेतु हो ध्यान रत,बस यह बंधन-पाप।।


 


काया नहीं,न जीव मैं, मेरा नहीं शरीर।


जीने की इच्छा रही,मम बंधन गंभीर।।


 


सिंधु-उर्मि सा यह जगत,मुझसे निर्मित,जान।


इसी सत्य को जान कर,भाग न दीन समान।।


 


बिरले जन ही जानते,आत्मा एक स्वरूप।


बिना किसी डर-भय कहें,हैं जगदीश अनूप।


 


तुमको क्या है त्यागना,किससे है संबंध।


शुद्ध रूप तुम अब करो,मात्र ब्रह्म-अनुबंध।।


 


दृश्यमान जग लहर सम,मैं हूँ उदधि समान।


त्याग-ग्रहण मत कर इसे,एकरूप रख ज्ञान।।


              ©डॉ0 हरि नाथ मिश्र


                 9919446372


मदन मोहन शर्मा सजल

दौड़ी आती मात


~~~~~~~~~~~~~~~~


माता दुर्गति नाशिनी, सर्व करें कल्याण।


महागौरी स्वरूपिणी, दूर करे सब त्राण।।


दूर करे सब त्राण, सुख भंडार यह भरती।


करती जग उद्धार, आपदा सारी हरती।।


कहे सजल कविराय, दुर्दिन जब भी सताता।


दौड़ी आती छोड़, सिंह सिंहासन माता।।


★★★★★★★★★★★★


मदन मोहन शर्मा सजल


सम्राट

लो चलते हैं हम 


तुम्हारी दुनिया से दूर


तुम्हारे ख़यालो से दूर


तुम्हारी सोच से दूर


अपनी गठरी समेट कर


अपने यादों को समेट कर


अपने शब्दों को समेट कर


किस्से कहानियों को समेट कर


क्योंकि तुम ही कहते थे


अब हमें दूरी बना लेनी चाहिए


लो अब बनाते हैं दूरी


धरती और आसमान के बीच


प्यासे और प्यास के बीच


धोखा और विश्वास के बीच


ये दूरी ही हमारी मुकद्दर है


शायद कोई समझेगा


कभी हमारे इश्क़ को


हमारी चाहत को


तब तलक हम बहुत दूर


चले गए होंगें इस दुनिया से।


 


 


©️सम्राट की कविताएं


विनय साग़र जायसवाल

दानवों का हुआ पल में संहार है


माँ भवानी लिए आज तलवार है


 


तू ही है लक्ष्मी और काली भी तू


वैष्नों भी तो तेरा ही अवतार है 


 


माँगना जिसको जो भी है वो माँग ले 


*अम्बे माँ का सजा आज दरबार है*


 


लौ लगाते हैं तुझसे सभी शारदे 


पल में करती तू सबका जो उद्धार है


 


ज्ञान यश लाभ वैभव सभी तुझ से हैं


तुझसे ही पल्लवित सारा संसार है 


 


दीन दुखियों को तुझ पर यक़ीं है बहुत


तेरी ममता से मन इनका गुलज़ार है


 


मुझको तूफान साग़र डरायेगा क्या 


मेरी माता के हाथों में पतवार है 


 


🖋️विनय साग़र जायसवाल


एस के कपूर श्री हंस

आसमान ऊँचा नहीं,उड़ने का


तरीका आना चाहिए।।


 


सुखों पर लगा कर ताला


हम चाबी ढूंढते हैं।


खुशियां होती सामने और


हम चूकते हैं।।


टूटी कलम औरों से जलन


भाग्य लिख नहीं सकते।


कर्म और व्यवहार समय


पर ही भूलते हैं।।


 


अपने कर्मों के उत्तराधिकारी


हम स्वयं होते हैं।


यदि चाहें तो सीख कर हम


संस्कारी खुद ही होते हैं।।


दौलत नहीं जीने का सलीका


होता है ज्यादा जरूरी।


ज्ञानवान या विचार भिखारी


हम खुद ही होते हैं।।


 


ऊँचा नहींआसमान बस उड़ने


का तरीका आना चाहिये।


हर बात में छिपी बात समझने


का सलीका आना चाहिये।।


माना कि जन्म मरण हमारे


अपने हाथ में नही होता।


पर अपने किरदार को गढ़ने


का बजीफ़ा आना चाहिए।।


 


एस के कपूर श्री हंस


बरेली।।


नूतन लाल साहू

जिंदगी से दोस्ती कर लीजिए


 


बीता बिन संघर्ष जो


वह जीवन ब्यर्थ है


दुश्मन ने तो दे दिया


जीवन में भुचाल


उलझ जाये जब गुत्थियां,तब


जिंदगी से दोस्ती कर लीजिए


कंचन कृति कामिनी


तीनो विष की खान


इससे कोई अब तक न बचा


चाहे बुढ़ा हो या जवान


भूत भविष्य भूलकर


जिंदगी से दोस्ती कर लीजिए


जिसे मौत का डर नहीं


वहीं छु सकता है आकाश


है बाकी की जिंदगी


चलती फिरती लाश


कदम कदम पर आयेगी मुश्किलें


जिंदगी से दोस्ती कर लीजिए


तू है सिर्फ निमित्त भर


काहे को तू इतराय


कर ले वहीं काम तू


जो रब तुझसे करवाय


पता नहीं प्रारब्ध का तुझको


जिंदगी से दोस्ती कर लीजिए


मां दुर्गा का यदि वर मिले


मिटे कष्ट भय क्लेश


नव जीवन का तू कर ले बंदे


फिर से श्री गणेश


काम खुदा का समझ कर


जिंदगी से दोस्ती कर लीजिए


नूतन लाल साहू


राजेंद्र रायपुरी

विदाई, माता रानी की 


 


जाने को हैं माता रानी, 


                  कर लूॅ॑ मैं मनुहार।


हे माता हे दुर्गा देवी, 


                  आना फिर से द्वार।


 


सेवा अधिक नहीं कर पाया,


                था माता लाचार।


"कोरोना" से खस्ता हालत,


                 थी माता इस बार।


 


अज्ञानी हूॅ॑ सच कहता माॅ॑,


               हुई अगर कुछ भूल।


क्षमा मुझे कर देना माता,


              समझ चरण की धूल।


 


कैसे करूॅ॑ बिदाई माता,


                 तुम ही वो पतवार। 


जो नैया है पार लगाती, 


                 फॅ॑सी अगर मझधार।


 


समझो नहीं विदाई माता, 


                 ये केवल व्यवहार।


कृपा बनाए रखना मुझपर, 


                 करना ये उपकार।


 


मजबूरी में करूॅ॑ विदाई, 


                 ॲ॑खियन बहती धार।


माता आना फिर से द्वारे, 


                   विनय यही सौ बार।


 


           ।। राजेंद्र रायपुरी।।


डॉ. रामबली मिश्र

नहीं छोड़ देना


 


नहीं छोड़ देना कभी दिल लगा कर,


नहीं मुँह घुमाना हॄदय में बसा कर।


 


कोमल कली को नहीं तोड़ देना,


इसे चूम लेना गले से लगा कर।


 


 नाजुक बहुत है नहीं चोट देना,


खुशियाँ विखेरो हॄदय में सजा कर।


 


इसे छोड़ कर मत तुम जाना कहीं ,


आँखों में रखना इसे तुम जिला कर।


 


तेरे लिये पुष्प बनने को आतुर,


रखना इसे केश में नित सजा कर।


 


भावुक हृदय को मसलना कभी मत,


दिल से लगाये सदा तुम चला कर।


 


रचनाकार:डॉ. रामबली मिश्र हरिहरपुरी


 


लोक विरुद्धं न करणीयम


 


करना परहित ध्यान।


कभी किसी का अहित न करना।।


 


सच्चरित्र को रक्ष।


चरितामृत बनकर तुम जीना।।


 


थोड़ा ही पर्याप्त।


नहीं अधिक की चोरी करना।।


 


इज्जत है अनमोल।


इज्ज़त की खातिर मर मिटना।।


 


मत करना बकवास।


अच्छी मीठी बातें कहना।।


 


मत रख दूषित भाव।


मन को पावन करते रहना।।


 


छोड़ो सकल विवाद।


शान्तचित्त हो चलते रहना।।


 


झंझट से हो मुक्त।


बना निराला विचरण करना।।


 


दिल को रखना स्वच्छ।


सदा धुलाई करते चलना।।


 


शुद्ध बुद्धि में प्राण।


नियमित हो कर भरते रहना।।


 


हक को कभी न मार।


न्याय पंथ पर चलते रहना।।


 


आँसू सबके पोंछ।


करुणाश्रय बन देते रहना। 


 


संस्था बनो पवित्र।


हर विधि सब की सेवा करना।।


 


मानव बनो महान।


सुंदर मन की रचना करना।।


 


बनो उच्च आदर्श।


सबको प्रेरित करते रहना।।


 


करना नहीं कुकर्म।


नव पीढ़ी को सुंदर गढ़नना।।


 


चोरी करना छोड़।


मेहनत से धन अर्जित करना।।


 


रचनाकर:डॉ. रामबली मिश्र हरिहरपुरी


 


 


अरमान


 


आये हैं हम पास तुम्हारे,


ले कर के अरमान बहुत से।


साथ खड़े आशा के तारे,


मन में हैं अधिमान बहुत से।


कहने को मन अति व्याकुल है,


हिम्मत नहीं जुटा पाता है।


अकुलाता है बार-बार यह,


पर कुछ बोल नहीं पाता है।


बार-बार इसको समझाता,


कुछ तो कह दो खुद अपने से,


पर यह बना मूक दर्शक सा,


टकराता प्रति पल सपने से ।


सपना इस का बहुत सुहाना,


सपने में सब कह जाता है।


नहीं जुटा पाता यह हिम्मत,


उलझा-उलझा रह जाता है।


अरमानों को ले कर मन में,


ढोता पहुँचा आज यहाँ तक।


आशाओं का जलता दीपक,


जलता रहे न जाने कब तक ?


प्रिये !समझ कर लाचारी को,


 इसको सुंदर सा वर देना।


अपने भावुक स्नेहिल मधुरिम,


भावों को इस में भर देना ।


मत तड़पाना इसे कभी भी,


आया है यह द्वार तुम्हारे ।


बन कर प्यारा मीत मनोरम,


सुन लो इसके दुखड़े सारे।


 


डॉ. रामबली मिश्र हरिहरपुरी


9838453801


कालिका प्रसाद सेमवाल

माँ गौरी तुम्हे वंदन करता हूँ


★★★★★★★★★★


हे माँ जगत कल्याणी


माँ गौरी तुम्हे वंदन करता हूँ,


तुम ब्रह्माणी, तुम रुद्राणी


पाप नाशनी नमो नमो।


 


आज अष्टमी को पूजा होती तुम्हारी


रुप तुम्हारा अति मन भावन,


भक्तों की तुम दुख हरती हो


क्षमा करो माँ अपराध हमारे।


 


हे जगदम्बे हे माँ अम्बे


 जन -जन पर कृपा बरसाओ माँ,


ज्योति जले जगमग माँ तेरी


आरती उतारुं माँ तेरी मैं।


 


हे माँ महागौरी तुम ही


भवसागर पार लगाती हो,


दुष्टों का तुमने संहार किया है


जगदेश्वरी हे माँ परमेश्वरी।


 


घर -घर पूजा हो रही तुम्हारी


धूप दीप और भोग लगाऊँ,


शीतल सात्विक सिन्धु सुधा सम


जय जय माँ गौरी तुम को वंदन करता हूँ।।


★★★★★★★★★★


कालिका प्रसाद सेमवाल


डॉ0 हरि नाथ मिश्र

चतुर्थ चरण (श्रीरामचरितबखान)-17


 


तरुन-काल हम दुइनउ भाई।


गगन उड़े बहु रबि नियराई।


    सहि न सका रबि-तेज जटायू।


    भरि उड़ान तब चला परायू।।


मैं अभिमानी बड़ा गुमानी।


पुनि-पुनि उड़ि निज पंख जरानी।।


    गिरा धड़ाम नभहिं तें भुइँ पर।


    कीन्ह दया चंद्र मुनि मोंहि पर।।


मुनि कह सुनु त्रेता-जुग माहीं।


नर-तन प्रभु अइहैं यहिं राहीं।।


     रावन राम क पत्नी हरहीं।


     जासु बियोग राम यहिं अवहीं।।


खोजत-फिरतै कपी-समाजा।


आई अवसि करन प्रभु-काजा।।


    तब तव भेंट तिनहिं सँग होई।


    जीवन तोर पुनीतै होई ।।


पावहु तुम्ह तव पंख तुरंता।


लइ के कृपा राम भगवंता।।


     मुनि कै बचन असत नहिं भवई।


     प्रभु कै दरस आज मोंहि मिलई।।


प्रभु कै काजु करब हम अबहीं।


कछुक देर नहिं देखउ सबहीं।।


    गिरि त्रिकूट पै लंका नगरी।


    तिसु नृप रावन, सुदंर-सवँरी।।


चुरा सियहिं माँ लाइ के रावन।


रक्खा ताहि असोकहिं उपबन।।


     लागहिं सीय बहु दुखी-उदासी।


     चिंतित मन अति खिन्न-पियासी।।


गीध जाति मम दृष्टि अपारा।


देखि क सियहिं जाउँ नहिं पारा।।


      बृद्ध गात मैं उड़ि ना पाऊँ।


       मम मन पीड़ा कसक जताऊँ।।


सत जोजन सागर जे लाँघहिं।


सो मति धीर सीय पहँ जावहिं।।


दोहा-करउ न तुम्ह चिंता कोऊ, महिमा नाथ अपार।


        करिहैं प्रभु अब जतन कछु,होई बेड़ा पार ।।


 


ग्यारहवाँ अध्याय (श्रीकृष्णचरितबखान)-7


 


सुनतै सभ जन भए अचंभित।


भईं नंद सँग जसुमति चिंतित।।


      सभ जन आइ निहारैं किसुनहिं।


      करैं सुरछा सभ मिलि सिसुनहिं।।


यहि क अनिष्ट करन जे चाहा।


मृत्य-अगिनि हो जाए स्वाहा।।


    आवहिं असुर होय जनु काला।


    मारहिं उनहिं जसोमति-लाला।।


साँच कहहिं सभ संत-महाजन।


होय उहइ जस कहहिं वई जन।।


    कहे रहे जस गरगाचारा।


    वैसै होय कृष्न सँग सारा।।


मारि क असुरहिं किसुन-कन्हाई।


सँग-सँग निज बलरामहिं भाई।।


    गोप-सखा सँग खेलहिं खेला।


   नित-नित नई दिखावहिं लीला।।


उछरैं-कूदें बानर नाई।


खेलैं आँखि-मिचौनी धाई।।


दोहा-नटवर-लीला देखि के,सभ जन होंहिं प्रसन्न।


         भूलहिं भव-संकट सभें,पाइ प्रभू आसन्न।।


        संग लेइ बलरामहीं,कृष्न करहिं बहु खेल।


        लीला करैं निरन्तरहिं,ब्रह्म-जीव कै मेल।।


                    डॉ0 हरि नाथ मिश्र


                     9919446372


Featured Post

दयानन्द त्रिपाठी निराला

पहले मन के रावण को मारो....... भले  राम  ने  विजय   है  पायी,  तथाकथित रावण से पहले मन के रावण को मारो।। घूम  रहे  हैं  पात्र  सभी   अब, लगे...